Bahut hi badhiya update diya hai Esac bhai....Update 30 (A)
पूजा और मंत्रों के बीच, पवित्र अग्नि के सामने, जब हम दोनों ने एक-दूसरे को वरमाला पहनाई, तो इस नए रिश्ते में हम मां बेटे ने अपनी सम्मति जताई। पंडितजी ने हमें बैठने का निर्देश दिया। मैं अपने आसन पर बैठ गया, और माँ धीरे-धीरे मेरी बगल में रखे हुए आसन पर बैठने के लिए आगे बढ़ीं।
जब मैंने अपनी नज़र नीचे की, तो देखा कि माँ ने कदम बढ़ाया, और उनके लहंगे के नीचे से उनकी मेहंदी से सजे हुए, मुलायम और गुलाबी पैरों की झलक मुझे नज़र आई। वे पैर, जैसे नन्ही कली की तरह सुन्दर और कोमल, इस पल की पवित्रता को और भी गहरा कर रहे थे। उनके हर कदम में एक अनजाना आकर्षण और एक नयी दुल्हन का अंदाज़ दिखाई दे रहा था, जिससे मेरा मन और भी ज्यादा गहराई से उनकी ओर खिंचने लगा।
उनके पैरों पर लगी लाल नेल पॉलिश ने उनके पैर को और भी आकर्षक और मोहक बना दिया, जिससे मेरे मन में उन्हें अपने होंठों से चूमने की इच्छा जाग उठी। तभी मेरी नज़र उनके पैरों में बंधी पायल पर पड़ी। मैंने उनके लिए विशेष रूप से पायल खरीदकर अलमारी में रखी थी, लेकिन उन्होंने आज दुल्हन के भेष में वह पायल पहनकर मेरे मन की मुराद पूरी कर दी थी।
यह अहसास मेरे अंदर गहराई तक उतर गया कि यह सुन्दर, खूबसूरत लड़की आज से सिर्फ मेरी हो गई है। मेरा मन एक अनकही चाहत में डूबने लगा, और भीतर से उन्हें पाने की तृष्णा तीव्र होती चली गई। इस भाव ने मेरे पूरे शरीर में एक सनसनी फैला दी, जो दिल से होते हुए मेरे लोड़े तक पहुंची, और मेरे कुर्ते के भीतर उस भाव का असर महसूस होने लगा। मेरा लन्ड भीतर से सख्त होता चला गया।
नानाजी धीरे-धीरे माँ के पास जाकर उनके पास में बैठ गए, और नानीजी आकर मेरे पास वाले आसन में बैठीं। पण्डितजी ने पूजा का क्रम फिर से शुरू किया, और शादी की रस्में अब विधिवत चलने लगीं।
नानाजी पण्डितजी के साथ मिलकर मंत्रोच्चारण करने लगे और सारे रीति-रिवाजों का पालन करते हुए अपना कर्तव्य निभाने लगे। उन्होंने अपनी बेटी का कन्यादान किया। माँ वहाँ नई दुल्हन की तरह सिर झुकाए, नजरें नीची किए बैठी थीं।
मैं उस पूरे पवित्र माहौल में भी एक-एक बार माँ को चुपके से देखने की कोशिश करता रहा, जबकि नानाजी पूरी श्रद्धा से अपने पिता का फर्ज निभा रहे थे।
कन्यादान के दौरान नानाजी ने शास्त्र सम्मत तरीके से अपनी बेटी, जो उनके घर की लक्ष्मी है, को मुझे समर्पित कर दिया। जब नानाजी ने मेरी ओर देखा, उनकी आँखों में अपनी बेटी को मेरी सुरक्षा में सौंपते समय जो इच्छा और प्यार था, वह स्पष्ट झलक रहा था। मैंने भी अपनी आँखों की भाषा और होठों की हल्की मुस्कान से उन्हें भरोसा दिलाया कि मैं उनकी बेटी को ताजिंदगी बेहद प्यार और खुशियाँ देकर संभालकर रखूंगा।
तभी पंडितजी के एक सहायक ने आकर मेरी शेरवानी के स्कार्फ़ के साथ माँ के दुपट्टे का कोना बाँध दिया।
पंडितजी मंत्रोच्चारण करते हुए पूजा संपन्न कर रहे थे, और वहाँ उपस्थित सभी लोग उन मंत्रों के बीच गुलाब की पंखुड़ियाँ और चावल हम दोनों पर बरसाकर हमें अपना आशीर्वाद और शुभकामनाएँ दे रहे थे। इसके बाद, पंडितजी ने हमें इस बँधे हुए कपड़े के साथ अग्नि के चारों ओर परिक्रमा करने का निर्देश दिया।
मैं और माँ अब दोनों खड़े हो गए थे। पंडितजी मंत्रों का उच्चारण करते रहे, और हम अग्नि के चारों ओर परिक्रमा करने के लिए धीरे-धीरे कदम बढ़ाने लगे। इस पवित्र अग्नि की परिक्रमा करते हुए, हम अपने आने वाले जीवन को एक साथ जीने की प्रतिज्ञाएँ करने लगे। तभी फिर से चारों ओर से गुलाब की पंखुड़ियों और चावल की बारिश हम दोनों पर होने लगी।
मैं आगे-आगे चल रहा था और माँ मेरे पीछे धीरे-धीरे मुझे अनुसरण कर रही थीं। उस पवित्र बारिश के बीच, हम अग्नि की परिक्रमा करते रहे, और हर कदम के साथ हमारे जीवन का बंधन और मजबूत होता गया। माँ का चेहरा मुझे नहीं दिख रहा था, क्योंकि उन्होंने अपना सिर झुका रखा था, मगर उनकी हर चाल में समर्पण और भरोसे की भावना साफ़ झलक रही थी। वह अब अपने मन और तन को मुझे सौंपकर, मुझे पति का अधिकार देकर, जीवन को ख़ुशी और आनंद से भरने की कसम खा रही थीं।
इस दौरान मेरी नज़र नाना-नानी से मिली। उनकी आँखों में सुकून और संतोष की झलक थी। वे अपनी प्यारी बेटी को मुझे सौंपकर, हमें एकसाथ देखकर आशीर्वाद दे रहे थे, और अपने प्रेम का इज़हार करते हुए हम पर फूल और चावल बरसा रहे थे।
अग्नि की परिक्रमा समाप्त होते ही, पंडितजी के निर्देशानुसार मैं और माँ फिर से अपने-अपने आसनों पर बैठ गए। हमारे कपड़े बंधे होने के कारण अब हमें एक-दूसरे का सहारा लेते हुए चलना पड़ रहा था, ठीक उसी तरह जैसे अब से हमें जीवन की हर राह पर एक-दूसरे का साथ देना होगा। हर कदम पर एक-दूसरे का ख्याल रखते हुए, हम हर पल एक-दूसरे के साथ रहेंगे। पंडितजी का हवन और पूजा अभी भी चल रही थी।
तभी उन्होंने धीरे से नानीजी से कुछ पूछा, और नानीजी ने बहुत हल्के स्वर में उन्हें जवाब दिया। इसके बाद पंडितजी ने पूजा की थाली से मंगलसूत्र उठाया और मुझे सौंप दिया।
मैं अपना हाथ बढ़ाकर उनसे वह मंगलसूत्र ले लिया। जैसे ही मैंने इसे पकड़ा, मेरा हाथ हल्का-हल्का काँपने लगा। मेरे मन में एक अनूठी खुशी, उत्तेजना, और कुछ असामान्य सा अनुभव उमड़ने लगा, जिसे शब्दों में बयाँ करना कठिन था। यह एक ऐसा पल था जिसने मेरे अंदर की भावनाओं को चरम पर पहुंचा दिया था, मानो सारी दुनिया मेरे और माँ के इस रिश्ते में समाहित हो गई हो।
Bahut hi shaandar update diya hai Esac bhai....Update 30 (B)मैंने माँ की ओर देखा, जहाँ वह अपने होठों पर एक हल्की सी मुस्कराहट के साथ, नज़रें झुकाए बैठी थीं।
पंडितजी ने मंत्रोच्चारण आरंभ किया और अपने हाथ के संकेत से मुझे माँ के गले में मंगलसूत्र बांधने का निर्देश दिया। मैं धीरे-धीरे माँ की ओर मुड़ा और सावधानी से दोनों हाथों में थामे मंगलसूत्र को उनके गले की ओर बढ़ाने लगा। मेरी निगाहें कहीं और नहीं जा रहीं थीं, मैं केवल माँ को ही देख रहा था।
जैसे ही मेरे हाथ उनके गले के करीब पहुँचे, माँ ने मेरे संकेत को समझा और बिना नज़रें उठाए, अपना सिर मेरी ओर हल्के से घुमा दिया, ताकि मुझे मंगलसूत्र बाँधने में आसानी हो सके। मैं धीरे-धीरे मंगलसूत्र को उनके गले में डालकर पीछे की ओर ले गया, दोनों छोरों को बाँधने के लिए। उसी क्षण, एक लेडी आगे बढ़कर माँ के दुपट्टे को उनकी गर्दन के पास से हल्का सा उठाकर, मुझे उनकी मदद करते हुए मंगलसूत्र पहनाने में सहारा देने लगी।
मैंने धीरे-धीरे अपने हाथों से उनकी गर्दन के पास मंगलसूत्र बाँधना शुरू किया। मेरे हाथ हल्के-हल्के काँप रहे थे, और दिल की हर धड़कन जैसे उनके दिल के साथ संगम कर रही थी। जो भावनाएं मेरे भीतर उमड़ रही थीं, मुझे यकीन था कि वही अनुभूति शायद उनके दिल में भी दौड़ रही होगी। मंत्रों के बीच जब मैंने मंगलसूत्र को बाँधकर अपने हाथ वापस खींचे, तो मैं फिर से अपने आसन पर सीधा बैठ गया। माँ ने भी अपनी गर्दन को घुमा कर पहले की तरह अपनी जगह ले ली। उनके गले में सजते मंगलसूत्र को देखकर, ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे पहली बार देख रहा हूँ। और उस क्षण, उन्हें देखते-देखते मेरे दिल में उनके प्रति एक नया, अनकहा प्रेम पनपने लगा।
पंडितजी ने एक व्यक्ति को कुछ निर्देश दिए, और वह तुरंत हमारे पास आ गया। वह आदमी वहाँ आकर एक डिब्बा खोला और उसमें से एक धातु के सिक्के से थोड़ी सिंदूर निकालकर मेरे हाथ में रख दी।
इस अंतिम रस्म के साथ, मैं माँ को अपनी पत्नी के रूप में पूरी तरह स्वीकार करने जा रहा था। मैंने नानी की ओर देखा, जिनकी आँखों में खुशी की चमक थी और जिन्होंने मुझे एक इशारा किया।
पंडितजी के मंत्रोच्चारण के बीच, मैंने धीरे-धीरे सिंदूर माँ के सिर की ओर ले जाना शुरू किया। एक महिला ने माँ के घूंघट को थोड़ा हटाया और उनकी मांग से सोने की बिंदी को साइड किया, ताकि मुझे मदद मिल सके। मैंने एक हाथ से उनकी मांग में सिंदूर भर दिया।
इस दौरान, माँ थोड़ी कांप उठी और मुझे भी एक अदृश्य कम्पन का अनुभव हुआ। इस प्रकार, शास्त्रों के अनुसार, हमने पति-पत्नी के रूप में अपने नए रिश्ते की शुरुआत की।
आज से हम दोनों महज़ माँ - बेटा नहीं रहे; हम पति-पत्नी के पवित्र बंधन में बंध गए। माँ के गले में मंगलसूत्र और मांग में सिंदूर के साथ उनका एक नया रूप सामने आया।
वह अब इतनी प्यारी और खूबसूरत लगने लगीं कि मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। मैं बस यही चाहता हूँ कि अगले सात जन्मों तक इस खूबसूरत और प्यारी लड़की को, मेरी माँ को, अपनी पत्नी के रूप में पाऊं। शादी की सभी रस्में पूरी हो चुकी हैं। इसके बाद, सात विवाहित महिलाएँ माँ के पास आकर उनके कान में फुसफुसाकर शुभकामनाएँ देने लगीं। माँ का चेहरा खुशी से खिल उठा।
माँ ने तब भी अपनी नज़र नहीं उठाई। पण्डितजी ने अब हमें, दूल्हा-दुल्हन को, अपने-अपने बड़े-बुजुर्गों को प्रणाम करके आशीर्वाद लेने के लिए कहा। मैं माँ के साथ ताल मिलाकर धीरे-धीरे उठा और नानाजी के पास जाकर उनके पैर छुए।
उन्होंने अपने दोनों हाथ हमारे सिर पर रखकर हमें आशीर्वाद दिया। इसके बाद, हम नानीजी के पास गए और उनके पैर छुए। नानीजी ने हमें आशीर्वाद दिया और खड़े होते ही हमें एक साथ गले लगा लिया। नाना-नानी की आँखें थोड़ी नम हो गईं, जैसे उनकी बेटी अब एक नए घर में, अपने पति के घर जा रही हो। लेकिन अब तो माँ का मायका और ससुराल एक ही है। हमने पण्डितजी को प्रणाम किया और वहाँ मौजूद सभी लोगों से शुभकामनाएँ और आशीर्वाद लिया।
दूसरे हॉल में रिसोर्ट वालों ने शादी के उपलक्ष्य में उपस्थित सभी लोगों के लिए लंच का आयोजन किया था। हम सभी वहां पहुँचे और बुफे व्यवस्था से लंच करने लगे। मैं, माँ, और नाना-नानी एक ही टेबल पर बैठे थे। मैनेजर साहब हमारे लंच की व्यवस्था का ध्यान रख रहे थे, और टेबल पर दो वेटर ने लंच सर्व करना शुरू किया। नाना और नानी के लिए अलग-अलग प्लेटें थीं, जबकि मेरी और माँ की एक ही प्लेट थी। शादी की परंपरा के अनुसार, नए-नवेले दूल्हा-दुल्हन को पहला खाना एक ही प्लेट में साझा करके खाना होता है।
इसलिए, मैं और माँ एक-दूसरे के पास, नजदीक चेयर पर बैठे थे। वह अभी भी सीधे तरीके से मुझे नहीं देख रही थीं। एक-दो बार हमारी नजरें चुपके से मिली थीं। अब उनके अंदर भी एक प्रकार की शर्म थी और मेरे अंदर भी, जिसके कारण हम सीधे तरीके से एक-दूसरे को देख नहीं पा रहे थे।
उनको इस नए दुल्हन के रूप में देखने के लिए मेरा ध्यान हर पल उनकी ओर आकर्षित हो रहा था। हमने एक ही प्लेट से पहले एक-दूसरे को खिलाया, उसके बाद धीरे-धीरे हम खाना शुरू करने लगे। हमारे हाथ प्लेट पर बार-बार टच हो रहे थे, और हमारे कंधे एक-दूसरे से छू रहे थे। हमारे शरीर की गर्मी और प्यार का अहसास केवल हम दोनों ही महसूस कर रहे थे।
इस एहसास से मेरा पूरा बदन खुशी और उत्साह के कारण बीच-बीच में कांप रहा था। सभी के बीच बैठकर भी, मैं केवल अपनी दुल्हन रूपी माँ, जो अब मेरी पत्नी भी बन चुकी है, को ही देखता रहा और मन ही मन में उनको एकांत में मेरी बाँहों में भरने के सही वक़्त का इंतज़ार करने लगा.
Bahut Hi Badiya Update BhaiUpdate 30 (A)
पूजा और मंत्रों के बीच, पवित्र अग्नि के सामने, जब हम दोनों ने एक-दूसरे को वरमाला पहनाई, तो इस नए रिश्ते में हम मां बेटे ने अपनी सम्मति जताई। पंडितजी ने हमें बैठने का निर्देश दिया। मैं अपने आसन पर बैठ गया, और माँ धीरे-धीरे मेरी बगल में रखे हुए आसन पर बैठने के लिए आगे बढ़ीं।
जब मैंने अपनी नज़र नीचे की, तो देखा कि माँ ने कदम बढ़ाया, और उनके लहंगे के नीचे से उनकी मेहंदी से सजे हुए, मुलायम और गुलाबी पैरों की झलक मुझे नज़र आई। वे पैर, जैसे नन्ही कली की तरह सुन्दर और कोमल, इस पल की पवित्रता को और भी गहरा कर रहे थे। उनके हर कदम में एक अनजाना आकर्षण और एक नयी दुल्हन का अंदाज़ दिखाई दे रहा था, जिससे मेरा मन और भी ज्यादा गहराई से उनकी ओर खिंचने लगा।
उनके पैरों पर लगी लाल नेल पॉलिश ने उनके पैर को और भी आकर्षक और मोहक बना दिया, जिससे मेरे मन में उन्हें अपने होंठों से चूमने की इच्छा जाग उठी। तभी मेरी नज़र उनके पैरों में बंधी पायल पर पड़ी। मैंने उनके लिए विशेष रूप से पायल खरीदकर अलमारी में रखी थी, लेकिन उन्होंने आज दुल्हन के भेष में वह पायल पहनकर मेरे मन की मुराद पूरी कर दी थी।
यह अहसास मेरे अंदर गहराई तक उतर गया कि यह सुन्दर, खूबसूरत लड़की आज से सिर्फ मेरी हो गई है। मेरा मन एक अनकही चाहत में डूबने लगा, और भीतर से उन्हें पाने की तृष्णा तीव्र होती चली गई। इस भाव ने मेरे पूरे शरीर में एक सनसनी फैला दी, जो दिल से होते हुए मेरे लोड़े तक पहुंची, और मेरे कुर्ते के भीतर उस भाव का असर महसूस होने लगा। मेरा लन्ड भीतर से सख्त होता चला गया।
नानाजी धीरे-धीरे माँ के पास जाकर उनके पास में बैठ गए, और नानीजी आकर मेरे पास वाले आसन में बैठीं। पण्डितजी ने पूजा का क्रम फिर से शुरू किया, और शादी की रस्में अब विधिवत चलने लगीं।
नानाजी पण्डितजी के साथ मिलकर मंत्रोच्चारण करने लगे और सारे रीति-रिवाजों का पालन करते हुए अपना कर्तव्य निभाने लगे। उन्होंने अपनी बेटी का कन्यादान किया। माँ वहाँ नई दुल्हन की तरह सिर झुकाए, नजरें नीची किए बैठी थीं।
मैं उस पूरे पवित्र माहौल में भी एक-एक बार माँ को चुपके से देखने की कोशिश करता रहा, जबकि नानाजी पूरी श्रद्धा से अपने पिता का फर्ज निभा रहे थे।
कन्यादान के दौरान नानाजी ने शास्त्र सम्मत तरीके से अपनी बेटी, जो उनके घर की लक्ष्मी है, को मुझे समर्पित कर दिया। जब नानाजी ने मेरी ओर देखा, उनकी आँखों में अपनी बेटी को मेरी सुरक्षा में सौंपते समय जो इच्छा और प्यार था, वह स्पष्ट झलक रहा था। मैंने भी अपनी आँखों की भाषा और होठों की हल्की मुस्कान से उन्हें भरोसा दिलाया कि मैं उनकी बेटी को ताजिंदगी बेहद प्यार और खुशियाँ देकर संभालकर रखूंगा।
तभी पंडितजी के एक सहायक ने आकर मेरी शेरवानी के स्कार्फ़ के साथ माँ के दुपट्टे का कोना बाँध दिया।
पंडितजी मंत्रोच्चारण करते हुए पूजा संपन्न कर रहे थे, और वहाँ उपस्थित सभी लोग उन मंत्रों के बीच गुलाब की पंखुड़ियाँ और चावल हम दोनों पर बरसाकर हमें अपना आशीर्वाद और शुभकामनाएँ दे रहे थे। इसके बाद, पंडितजी ने हमें इस बँधे हुए कपड़े के साथ अग्नि के चारों ओर परिक्रमा करने का निर्देश दिया।
मैं और माँ अब दोनों खड़े हो गए थे। पंडितजी मंत्रों का उच्चारण करते रहे, और हम अग्नि के चारों ओर परिक्रमा करने के लिए धीरे-धीरे कदम बढ़ाने लगे। इस पवित्र अग्नि की परिक्रमा करते हुए, हम अपने आने वाले जीवन को एक साथ जीने की प्रतिज्ञाएँ करने लगे। तभी फिर से चारों ओर से गुलाब की पंखुड़ियों और चावल की बारिश हम दोनों पर होने लगी।
मैं आगे-आगे चल रहा था और माँ मेरे पीछे धीरे-धीरे मुझे अनुसरण कर रही थीं। उस पवित्र बारिश के बीच, हम अग्नि की परिक्रमा करते रहे, और हर कदम के साथ हमारे जीवन का बंधन और मजबूत होता गया। माँ का चेहरा मुझे नहीं दिख रहा था, क्योंकि उन्होंने अपना सिर झुका रखा था, मगर उनकी हर चाल में समर्पण और भरोसे की भावना साफ़ झलक रही थी। वह अब अपने मन और तन को मुझे सौंपकर, मुझे पति का अधिकार देकर, जीवन को ख़ुशी और आनंद से भरने की कसम खा रही थीं।
इस दौरान मेरी नज़र नाना-नानी से मिली। उनकी आँखों में सुकून और संतोष की झलक थी। वे अपनी प्यारी बेटी को मुझे सौंपकर, हमें एकसाथ देखकर आशीर्वाद दे रहे थे, और अपने प्रेम का इज़हार करते हुए हम पर फूल और चावल बरसा रहे थे।
अग्नि की परिक्रमा समाप्त होते ही, पंडितजी के निर्देशानुसार मैं और माँ फिर से अपने-अपने आसनों पर बैठ गए। हमारे कपड़े बंधे होने के कारण अब हमें एक-दूसरे का सहारा लेते हुए चलना पड़ रहा था, ठीक उसी तरह जैसे अब से हमें जीवन की हर राह पर एक-दूसरे का साथ देना होगा। हर कदम पर एक-दूसरे का ख्याल रखते हुए, हम हर पल एक-दूसरे के साथ रहेंगे। पंडितजी का हवन और पूजा अभी भी चल रही थी।
तभी उन्होंने धीरे से नानीजी से कुछ पूछा, और नानीजी ने बहुत हल्के स्वर में उन्हें जवाब दिया। इसके बाद पंडितजी ने पूजा की थाली से मंगलसूत्र उठाया और मुझे सौंप दिया।
मैं अपना हाथ बढ़ाकर उनसे वह मंगलसूत्र ले लिया। जैसे ही मैंने इसे पकड़ा, मेरा हाथ हल्का-हल्का काँपने लगा। मेरे मन में एक अनूठी खुशी, उत्तेजना, और कुछ असामान्य सा अनुभव उमड़ने लगा, जिसे शब्दों में बयाँ करना कठिन था। यह एक ऐसा पल था जिसने मेरे अंदर की भावनाओं को चरम पर पहुंचा दिया था, मानो सारी दुनिया मेरे और माँ के इस रिश्ते में समाहित हो गई हो।
Nice and superb update....Update 30 (B)मैंने माँ की ओर देखा, जहाँ वह अपने होठों पर एक हल्की सी मुस्कराहट के साथ, नज़रें झुकाए बैठी थीं।
पंडितजी ने मंत्रोच्चारण आरंभ किया और अपने हाथ के संकेत से मुझे माँ के गले में मंगलसूत्र बांधने का निर्देश दिया। मैं धीरे-धीरे माँ की ओर मुड़ा और सावधानी से दोनों हाथों में थामे मंगलसूत्र को उनके गले की ओर बढ़ाने लगा। मेरी निगाहें कहीं और नहीं जा रहीं थीं, मैं केवल माँ को ही देख रहा था।
जैसे ही मेरे हाथ उनके गले के करीब पहुँचे, माँ ने मेरे संकेत को समझा और बिना नज़रें उठाए, अपना सिर मेरी ओर हल्के से घुमा दिया, ताकि मुझे मंगलसूत्र बाँधने में आसानी हो सके। मैं धीरे-धीरे मंगलसूत्र को उनके गले में डालकर पीछे की ओर ले गया, दोनों छोरों को बाँधने के लिए। उसी क्षण, एक लेडी आगे बढ़कर माँ के दुपट्टे को उनकी गर्दन के पास से हल्का सा उठाकर, मुझे उनकी मदद करते हुए मंगलसूत्र पहनाने में सहारा देने लगी।
मैंने धीरे-धीरे अपने हाथों से उनकी गर्दन के पास मंगलसूत्र बाँधना शुरू किया। मेरे हाथ हल्के-हल्के काँप रहे थे, और दिल की हर धड़कन जैसे उनके दिल के साथ संगम कर रही थी। जो भावनाएं मेरे भीतर उमड़ रही थीं, मुझे यकीन था कि वही अनुभूति शायद उनके दिल में भी दौड़ रही होगी। मंत्रों के बीच जब मैंने मंगलसूत्र को बाँधकर अपने हाथ वापस खींचे, तो मैं फिर से अपने आसन पर सीधा बैठ गया। माँ ने भी अपनी गर्दन को घुमा कर पहले की तरह अपनी जगह ले ली। उनके गले में सजते मंगलसूत्र को देखकर, ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे पहली बार देख रहा हूँ। और उस क्षण, उन्हें देखते-देखते मेरे दिल में उनके प्रति एक नया, अनकहा प्रेम पनपने लगा।
पंडितजी ने एक व्यक्ति को कुछ निर्देश दिए, और वह तुरंत हमारे पास आ गया। वह आदमी वहाँ आकर एक डिब्बा खोला और उसमें से एक धातु के सिक्के से थोड़ी सिंदूर निकालकर मेरे हाथ में रख दी।
इस अंतिम रस्म के साथ, मैं माँ को अपनी पत्नी के रूप में पूरी तरह स्वीकार करने जा रहा था। मैंने नानी की ओर देखा, जिनकी आँखों में खुशी की चमक थी और जिन्होंने मुझे एक इशारा किया।
पंडितजी के मंत्रोच्चारण के बीच, मैंने धीरे-धीरे सिंदूर माँ के सिर की ओर ले जाना शुरू किया। एक महिला ने माँ के घूंघट को थोड़ा हटाया और उनकी मांग से सोने की बिंदी को साइड किया, ताकि मुझे मदद मिल सके। मैंने एक हाथ से उनकी मांग में सिंदूर भर दिया।
इस दौरान, माँ थोड़ी कांप उठी और मुझे भी एक अदृश्य कम्पन का अनुभव हुआ। इस प्रकार, शास्त्रों के अनुसार, हमने पति-पत्नी के रूप में अपने नए रिश्ते की शुरुआत की।
आज से हम दोनों महज़ माँ - बेटा नहीं रहे; हम पति-पत्नी के पवित्र बंधन में बंध गए। माँ के गले में मंगलसूत्र और मांग में सिंदूर के साथ उनका एक नया रूप सामने आया।
वह अब इतनी प्यारी और खूबसूरत लगने लगीं कि मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। मैं बस यही चाहता हूँ कि अगले सात जन्मों तक इस खूबसूरत और प्यारी लड़की को, मेरी माँ को, अपनी पत्नी के रूप में पाऊं। शादी की सभी रस्में पूरी हो चुकी हैं। इसके बाद, सात विवाहित महिलाएँ माँ के पास आकर उनके कान में फुसफुसाकर शुभकामनाएँ देने लगीं। माँ का चेहरा खुशी से खिल उठा।
माँ ने तब भी अपनी नज़र नहीं उठाई। पण्डितजी ने अब हमें, दूल्हा-दुल्हन को, अपने-अपने बड़े-बुजुर्गों को प्रणाम करके आशीर्वाद लेने के लिए कहा। मैं माँ के साथ ताल मिलाकर धीरे-धीरे उठा और नानाजी के पास जाकर उनके पैर छुए।
उन्होंने अपने दोनों हाथ हमारे सिर पर रखकर हमें आशीर्वाद दिया। इसके बाद, हम नानीजी के पास गए और उनके पैर छुए। नानीजी ने हमें आशीर्वाद दिया और खड़े होते ही हमें एक साथ गले लगा लिया। नाना-नानी की आँखें थोड़ी नम हो गईं, जैसे उनकी बेटी अब एक नए घर में, अपने पति के घर जा रही हो। लेकिन अब तो माँ का मायका और ससुराल एक ही है। हमने पण्डितजी को प्रणाम किया और वहाँ मौजूद सभी लोगों से शुभकामनाएँ और आशीर्वाद लिया।
दूसरे हॉल में रिसोर्ट वालों ने शादी के उपलक्ष्य में उपस्थित सभी लोगों के लिए लंच का आयोजन किया था। हम सभी वहां पहुँचे और बुफे व्यवस्था से लंच करने लगे। मैं, माँ, और नाना-नानी एक ही टेबल पर बैठे थे। मैनेजर साहब हमारे लंच की व्यवस्था का ध्यान रख रहे थे, और टेबल पर दो वेटर ने लंच सर्व करना शुरू किया। नाना और नानी के लिए अलग-अलग प्लेटें थीं, जबकि मेरी और माँ की एक ही प्लेट थी। शादी की परंपरा के अनुसार, नए-नवेले दूल्हा-दुल्हन को पहला खाना एक ही प्लेट में साझा करके खाना होता है।
इसलिए, मैं और माँ एक-दूसरे के पास, नजदीक चेयर पर बैठे थे। वह अभी भी सीधे तरीके से मुझे नहीं देख रही थीं। एक-दो बार हमारी नजरें चुपके से मिली थीं। अब उनके अंदर भी एक प्रकार की शर्म थी और मेरे अंदर भी, जिसके कारण हम सीधे तरीके से एक-दूसरे को देख नहीं पा रहे थे।
उनको इस नए दुल्हन के रूप में देखने के लिए मेरा ध्यान हर पल उनकी ओर आकर्षित हो रहा था। हमने एक ही प्लेट से पहले एक-दूसरे को खिलाया, उसके बाद धीरे-धीरे हम खाना शुरू करने लगे। हमारे हाथ प्लेट पर बार-बार टच हो रहे थे, और हमारे कंधे एक-दूसरे से छू रहे थे। हमारे शरीर की गर्मी और प्यार का अहसास केवल हम दोनों ही महसूस कर रहे थे।
इस एहसास से मेरा पूरा बदन खुशी और उत्साह के कारण बीच-बीच में कांप रहा था। सभी के बीच बैठकर भी, मैं केवल अपनी दुल्हन रूपी माँ, जो अब मेरी पत्नी भी बन चुकी है, को ही देखता रहा और मन ही मन में उनको एकांत में मेरी बाँहों में भरने के सही वक़्त का इंतज़ार करने लगा.