अपडेट-51
होटल मयूर
मंगेश एंड पार्टी होटल आ चुके थे, हेवी लंच के बाद सभी अपने कमरे मे आराम फरमा रहे थे.
शाम हो चली थी.
पुरी मे कहीं किसी होटल के कमरे मे.
"तत..तुम कौन हो मुझे कहाँ लाये हो? मुझे क्यों बांध रखा है?" फारुख कुर्सी से बंधा हैरान परेशान चीख रहा था.
"सब बताएँगे बंधु जल्दी क्या है " चाटर्जी सामने कुर्सी पर बैठ गया.
"मेरी क्या दुश्मनी है तुम लोगो से " फारुख का दिमाग़ सांय सांय कर चल रहा था.
"पहले ये बता रुखसाना कहाँ है?" मुखर्जी ने फारुख के बालो को पकड़ झकझोड़ दिया.
"आअह्ह्ह.....मममम....ममम....मै नहीं जानता "
"नहीं जानता...तड़ाककक.....चटाक....से एक थप्पड़ फारुख के गाल से जा टकराया.
"तुम लोग आखिर चाहते क्या हो?"
"जवाब....सीधा सा सवाल है रुखसाना कहाँ है?"
"मममम....मुझे नहीं पता, वो खुद मुझे धोखा दे कर भाग गई, फिर जब मैंने जानना चाहा तो मालूम पड़ा उसकी मौत हो चुकी है "
"तड़ाक....साला मादोरचोदा झूठ बोलता है हम लोगो से, मर गई तो लाश कहाँ है?"
मुखर्जी का चेहरा गुस्से से लाल हो चला,आँखों मे खून उतर आया था उसके.
"ममम....मै...सही बोल रहा हूँ, रुखसाना ने मेरे साथ धोखा किया, अन्ना के साथ मिल कर उसने मेरी प्रॉपर्टी को अपने नाम करा लिया,फिर अन्ना ने रुखसाना से प्रॉपर्टी अपने नाम करवा ली उसके बाद रुखसाना का कोई आता पता नहीं "
फारुख एक सांस मे बोल गया.
"चटाक......."
"अब क्यों मारा?"
" क्यों मारा देखो साला पूछता है क्यों मारा... जब तुझे सब पता है, मरने वाले को जानता है, मारने वाले को जानता है तो कहाँ दुबका पड़ा था अभी तक पुलिस के पास क्यों नहीं गया?" चाटर्जी ने घुड़की दे दि.
कमरे मे सन्नाटा छा गया, फारुख कि सांस उखड़ने को हुई.
"बोल साले... होमको बेवकूफ समझता है "
चटाक....चटाक....चटाक.....फारुख के मुँह पर थप्पड़ो कि बारिश को गई.
दोनों बंगाली किसी भी कीमत पे सच सुनना चाहते थे.
"मममम...ममम....मै बताता हूँ बताता हूँ "
"जल्दी बोल"
"ममम....मै डर गया था, कौन सुनता मेरी अन्ना पॉवरफुल इंसान है उससे दुश्मनी नहीं कर सकता था मै, रुखसाना के धोखे से मै सदमे मे था"
"अच्छा....ये बात है " दोनों बंगाली जगह से उठ खड़े हुए.
"हम्मफ़्फ़्फ़.....फारुख ने एक राहत कि सांस छोडी "
कि तभी धड़कम्म्म......धाड़....से एक लात फारुख के सीने पे आ लगी, फारुख कुर्सी सहित पीछे को जा गिरा.
"साले हरामी....झूठ बोलता है, सच ये है कि सभी प्रॉपर्टी रुखसाना कि थी जिसे तूने फसाया, तूने उसकी प्रॉपर्टी छिनी, तूने उसे मारा, बोल झूठ है " चाटर्जी बेहद गुस्से मे उसके सीने पर जा चढ़ा, हाथ फारुख के गले पर कसते चले गये.
"आअह्ह्ह.....खो....खो.....छछ छ...छोडो " परन्तु चाटर्जी पर जैसे हैवान सवार था,
"बोंधु.....बोंधु....छोडो...छोड़ उसे मर जायेगा वो " मुखर्जी ने जैसे तैसे चाटर्जी को अलग किया.
"देख फारुख यदि हम मान ले कि तेरी बात सच है, तो रुखसाना कि लाश कहाँ है, प्रॉपर्टी तेरी है तो उसके कागज़ कहाँ है?
फकककक....से फारुख का चेहरा सफ़ेद पड़ गया, ये वो सवाल था जिसका जवाब शायद उसे पता था लेकीन कैसे बताये.
"बता साले कहाँ है कागजात?"
"वो...वो.....वो......नहीं पता " फारुख साफ झूठ बोल गया कैसे कहता कि कागज़ अनुश्री को दे आया है.
धाड़...धाड़....तड़ाक...तड़ाक.....फारुख कि धुलाई चालू हो गई थी.
बंगलियों को किसी भी कीमत पर रुखसाना चाहिए थी जिन्दा या मुर्दा.
शाम ढल आई थी, सब कुछ शांत था
ना जाने कैसी ख़ामोशी पसर गई थी बाहर भी और अंदर अनुश्री के दिल मे भी.
ना जाने कहीं एक सुनापन उसके दिल को कचोट रहा था, जैसे कोई काम तो अधूरा है, जैसे कुछ तो छूट रहा है.
अनुश्री अपने मे खोयी हुई कपड़ों को समेटे जा रही थी.
"क्या हुआ जान कहाँ खोई हुई हो " मंगेश ने पीछे से आ कर अनुश्री को दबोच लिया.
"कक्क....वो.....वो...कहीं तो नहीं " अनुश्री पीछे देख मुस्कुरा दि.
बढ़ा ही फीकापन था इस मुस्कुराहट मे, वो मंगेश के इस स्पर्श के लिए तरसती थी और कहाँ आज एक रोया भी खड़ा ना हुआ.
एक ठंडी सांस जरूर निकल गई.
"तो फिर ये मुँह क्यों सुजाया हुआ है "
"कक्क...कहाँ मुँह सुजाया ठीक तो है " अनुश्री सकपका गई
जल्दी ही खुद के चेहरे के भाव को ठीक किया.
"जानता हूँ अच्छी जगह है,लेकीन जाना भी तो पड़ेगा ना, हम मुसाफिर है वापस जाना ही होता है "
"हाँ मंगेश हम मुसाफिर है, लोगो कि जिंदगी मे आते है फिर चले जाते है " अनुश्री मन ही मन बड़बड़ती मंगेश के गले जा लगी.
"ऊफ्फफ्फ्फ़.....क्या सुकून था इस आगोश मे आज, अपनापन, आरामदायक अहसास.
मंगेश अनुश्रि के होंठ अपास मे मिल गये,
आज ये पहला मौका था जब मंगेश ने खुद आगे से पहल कि थी,
शयाद वो इस आखिरी मौके को भुना लेना चाहता था.
अनुश्री भी इस उत्तेजना और प्यार भरे चुम्बन मे बहने लगी, वैसे भी उसका जिस्म किसी तिनके कि तरह कामनदी के किनारे ही रहता था, हल्का सा उफान आया कि बह गया.
आज दिन मे जो भी बंगाली बंधुओ ने किया, उसके बाद फारुख का वो घर्षण उसके जिस्म कि रग रग मे दौड़ने लगा.
मंगेश अब सिर्फ एक खिलौना हो चूका था जिस से अनुश्री नामक कामदेवी खेल रही थी.
मंगेश के होंठ चूस के लाल कर दिये थे अनुश्री ने,
दोनों के कपड़े कब जमीन चाटने लगे पता नहीं, दोनों किसी कुश्ती मे उलझें हो जैसे, दोनों के जिस्म गूथम गुतथा बिस्तर मे समा गये.
"आअह्ह्हम्म..उफ्फ्फ....मंगेश अंदर....hmmmm" प्यार कि मधुर आवाज़ गूंज उठी थी.
मंगेश भी आज ज्यादा ही जोश मे नजर आ रहा था, कस कस कर धक्के लगाए जा रहा था.
कुछ 6,7 मिनट मे ही "हमफ....हमफ़्फ़्फ़....हमफ्फ.....मंगेश अनुश्री के सीने पर गिर पड़ा, अनुश्री कि योनि ने मंगेश का काम रस निचोड़ कर उसके प्राण हर लिए थे.
"उफ्फ्फ.....जान "
अनुश्री फिर नाउम्मीद हो उठी, वो अभी सम्भोग कि सीढिया चढ़ ही रही थी कि मंगेश ने साथ छोड़ दिया.
मंगेश बिस्तर पर पड़ा हांफ रहा था, अनुश्री ने पास पड़ी तौलिया खिंच कर अपने नग्न जिस्म को धक लिया, उसके कदम बाथरूम कि ओर बढ़ गये.
ना कोई शिकायत ना कोई गिला, शायद उसने स्वीकार कर लिया रहा कि यहीं जिंदगी है, मंगेश ही जीवन है, यहाँ से चले जाना है.
बाथरूम का दरवाजा बंद होता चला गया.
"लेकीन फारुख का क्या? " अनुश्री के मन मे सबसे बढ़ा सवाल यहीं था.
शायद उसके मन मे यहीं चीज अधूरी थी, वो फारुख को उसका हक़ दिलाना चाहती थी.
"मुझे क्या लेना देना फारुख से, कौन है क्या है मै कुछ भी तो नहीं जानती "
अनुश्री ने खुद कि बात को नकार दिया.
"लेकीन इन कागज़ का क्या जो फारुख ने मुझे दिये थे "
अनुश्री सोच मे पड़ गई.
तभी उसके दिमाग़ मे एक विचार कोंधा "हाँ...ये ठीक रहेगा, सबसे भरोसे मंद मांगीलाल काका ही है उन्हें ही दें दूंगी, फिर कोई मतलब नहीं मुझे किसी से "
ये विचार आते ही अनुश्री का दिल बिल्कुल हल्का हो गया, सारी दुविधाएं दूर हो गई.
अभी तक जिस चेहरे पे उदासी थी चिंता थी, वो सब फववारे से गिरते पानी मे धुलती चली गई.
अब अनुश्री के चेहरे पे चिरपरिचित मुस्कान थी, चेहरा पहले कि तरह दमक रहा था.
रात हो चली थी, मंगेश खर्राटे भर रहा था.
लेकीन अनुश्री कि आंखे खुली थी, घड़ी पर निगाह पड़ी तो पाया कि 11.30 बज गये है.
अनुश्री के मन मे अभी तक का सफर किसी रील कि तरह बार बार आ के गुजर जाता, कैसे उसकी जिंदगी मे कुछ मर्द आये, उसने अपने जिस्म को पहचाना.
इसी उपक्रम मे उसके हाथ ना जाने क्यों अपनी ही छाती को टटोल रहे थे, सांसे भारी हो रही थी,
शायद ये मंगेश के साथ हुए अधूरे सम्भोग का नतीजा था कि अनुश्री कि वासना उफान मार रही थी.
ठाक.....अचानक ठाक कि आवाज़ से अनुश्री का ध्यान भंग हुआ,
"ये...ये...कैसी आवाज़ थी जैसे किसी ने दरवाजा बजाया हो " अनुश्री के कान खड़े हो गये जैसे वो फिर से इसी आवाज़ कि प्रतीक्षा मे हो,.
लेकीन कोई आवाज़ नहीं आई.
कि फिर....ठाक ठाक....अनुश्री का दिल धाड़ धाड़ कर उठा. दस्तक बहुत ही धीमे तरीके से दि गई थी..
"इस वक़्त....पक्का कोई दरवाजे पर है "
अनुश्री के हाथ मंगेश कि ओर बढ़ गये, वो मंगेश को उठाना चाहती थी.
"ठाक....ठाक....ठाक.....बिटिया रानी " एक धीमी सी आवाज़ ने अनुश्री के हाथ रोक दिये.
जैसे कोई दरवाजे पर खड़ा फुसफुसाया हो.
"ये...ये...ये तो मांगीलाल काका है,लललल....लेकीन इस वक़्त "
अनुश्री के मन मे हज़ारो सवाल थे, दिल धड़क रहा था
लेकीन फिर भी उसके कदम बिस्तर से नीचे जमीन पर जा लगे.
"कहाँ जा रही हूँ मै, मुझे मंगेश को उठाना चाहिए "
अनुश्री ठहर गई. उसे कुछ याद आया.
"कहीं जो काम करने को मैंने मांगीलाल काका को बोला था उसके लिए ही तो नहीं आये है, हाँ... हाँ शायद उसके लिए ही आये हो "
अनुश्री बिस्तर से उठ खड़ी हुई.
"लेकीन अब क्या फायदा...मुझे कोई मतलब नहीं " चिट...करती चिटकनी खुल गई.
धीरे से दरवाजा थोड़ा सा चौखट से हट गया सामने मांगीलाल ही खड़ा था " बिटिया रानी आपको कुछ जरूरी बात बतानी थी "
मांगीलाल फुसफुसा रहा था.
"अब जरुरत नहीं है काका, जो भी है कल बता देना " अनुश्री ने बोल कर दरवाजा लगाना चाहा.
" समय नहीं है बिटिया, एक बार सुन लो " मंगीलाल ने जैसे रिक्वेस्ट कि हो.
मै होटल के पीछे वो ओपन कैफ़े है वही मिलूंगा " मंगीलाल चल दिया.
पीछे अनुश्री धड़कते दिल के साथ खड़ी रही.
"जाऊ या नहीं.....क्या बात है आखिर "
अनुश्री एक बार मंगेश को देख लेती तो एक बार बाहर सर निकाल के दिखा चारों तरफ सन्नाटा था, कहीं कोई नहीं.
अनुश्री ने फारुख के द्वारा दिये गये कागज़ को संभाल लिया,
उसकी हिम्मत का कारण ही ये था कि मांगीलाल बूढा नपुंसक है क्या कर लेगा, और वैसे भी वो एक बार पहले भी ऐसा कर चुकी है दूसरी बार करने मे क्या हर्ज़ है.
अनुश्री किसी चोर कि भांति बाहर निकल गई, होटल के पीछे ही एक झोपडी नुमा घास फुस का कैफ़े था. जो होटल मयूर कि ही मालकियात थी, बीच पर आने जाने वाले इसी कैफ़े पर बैठ ड्रिंक का लुत्फ़ उठाया करते थे.
परन्तु इस सुनसान रात मे बिल्कुल खाली पड़ा था.
सिर्फ एक मध्यम रौशनी उसके होने का अहसास करवा रही थी.
मांगीलाल कहीं नहीं था, अनुश्री का जिस्म समुद्री हवाओं से हिल रहा था, एक मन तो करता कि वापस चली जाये कुछ ठीक नहीं लग रहा,
अनुश्री पलटने को हुई ही कि "बिटिया रानी....यहाँ....यहाँ...ऊपर " कैफ़े के ऊपर एक छोटा सा केबिन बना था मांगीलाल वहाँ से हाथ हिला के अनुश्री को बुला रहा था.
वापस जाती अनुश्री उस कैफ़े कि और बढ़ गई.
नहीं बढ़ना था शायदा....लेकीन होनी को कौन टाल सकता है.
अनुश्री भी नहीं टली, दिल किसी अनहोनी कि आशंका से कांप रहा था, पैर लड़खड़ा जाते, जिस्म पे मौजूद गाउन हवा के थापेड़ो से उड़ उड़ कर भागता.
"मांगी काका को ये कागज़ थमा कर निकल जाउंगी,ये मुसीबत का टोकरा नहीं चाहिए मुझे " अनुश्री ने सारे डर का हल निकाल लिया था.
देखते ही देखते अनुश्री उस कैफ़े से आती हल्की पिली रौशनी मे समा गई.
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