भाई बात आपकी ठीक है। राजेंद्र को मिताली जैसी अपरिक्व लड़की को रोकना चाहिए था, उसको स्वतंत्र निर्णय की छुट नही देनी चाहिए थी, उस पर नज़र रखनी चाहिए थी।
पर इन सबसे क्या होता। देखी राजीव ने कुछ भी जबरदस्ती नही किया। सब कुछ मिताली की सहमति से हुआ। राजेंद्र ने उसे अपनी तरफ से पूर्णत समझने के कई प्रयास भी किये। पर मिताली को अपने पर पूरा यकीन था। देखिये समझाया उसे जा सकता है जो अभी फैसला लेने की उधेड़बुन मे है। जो अभी अपनी मंजिल के रास्ते मे है, रास्ता उसे हि दिखाया जा सकता है। जिसने अपना रास्ता तय कर लिया है और मंजिल पा ली है उसे अब मार्गदर्शक की जरूरत नही है, उसी तरह यदि कोई फैसला ले चुका है चाहे वो सही हो या गलत तो उसे अब सलाहकार की जरूरत नही होती। अब आप या तो सबूतों से उसके फैसले को गलत साबित करे या प्रतीक्षा करे जब समय उसे उस फैसले के गलत होने का अहसास स्वयं करवाएगा। इन दो स्तिथियों के सिवा वो व्यक्ति कभी किसी की बात नही सुनेगा।
यही स्तिथि यहां मिताली की थी। पढ़ लिखकर उसे खुद पर पूरा यकीन आ गया की वो अपने बारे मे सही फैसले लेने मे सक्षम है, उसे किसी की सलाह या मार्गदर्शन की जरूरत नही है। जब उसे राजेंद्र कोई बात भी बताता तो उसे वो जबरदस्ती करना या उसकी स्वतंत्रता रोकना लगता था। इस परिस्थिती मे राजेंद्र के पास मिताली को उसकी किस्मत और समय के भरोसे छोड़ने के अतिरेक कोई उपाय नही था।
रही बात महानता की तो भाई अच्छाई की खासियत हि यही है की वो अच्छे के साथ भी अच्छी है और बुरे के साथ भी। वो बुरे को बुरा करने से रोकती है, उसे अच्छे रास्ते पर लाने के सभी उपाय करती है पर कभी बुरे का भी बुरा नही करती है।
अगर आपकी अच्छाई अच्छे के साथ अच्छी और बुरे के साथ बुरी है तो फिर तो वो मौका परस्ती है ना की अच्छाई। फिर तो आपका अपना कोई चरित्रिक गुण है हि नही आप केवल सामने वाले से जो क्रिया आती है उसके अनुसार प्रतिक्रिया देते है, आपके चरित्र मे स्वाभाविकता का तो अभाव रह गया।
इसीलिए कहा जाता "आदमी को चोट लगने पर ही अक्ल आती है।"
और साथ हि ये भी की " सुबह का भुला शाम को घर लौट आये तो उसे भुला नही कहते।"
और " क्षमा वीरों का आभूषण है कायरों का नहीं।"
"क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो उसको क्या जो दन्तहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो।"