liverpool244
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Kya rajmata balwant singh ke aage apni chut khol degi...ya phir sakti singh Aisa kuch kare ki rajmata ye ladai Jeet Jaye..aur Shakti Singh ki gulam ho jaye..
बहुत ही सुंदर लाजवाब और रोमांचक अपडेट है भाई मजा आ गयाशुरुआती हमले में मिली सफलता के बाद शक्तिसिंह के दल को फिर दोबारा ऐसा मौका नही मिला... दुश्मन सतर्क हो गया था... और अपने ढेरों साथियों की लाशें देखकर सकते में भी था... उस दिन के बाद कई सप्ताह बीत गए लेकिन वह द्वार दोबारा नही खुला..
इस तरफ राजमाता की छावनी में सूरजगढ़ की सेना इंतज़ार करते करते थक गई थी... वह चाहते थे के एक बार आर-पार की लड़ाई हो और उन्हे दुश्मनों को सबक सिखाने का अवसर मिलें... पर किले का अगला दरवाजा खुलने की कोई संभावना नजर नही आ रही थी। सुरंग के ढह जाने के बाद कोई नई योजना कार्यान्वित भी नही थी... ऐसी सूरत में ओर कितने दिन प्रतीक्षा में व्यतीत हो जाएंगे, उसका किसी को अंदाजा न था... ऊपर से भीषण गर्मी ने सारे सैनिकों को सुस्त कर दिया था... भोजन की रसद तो विपुल मात्रा में थी पर पानी की बड़ी ही किल्लत थी... किले के अंदर ढेर सारे कुएं और बावरियाँ थी पर किले के बाहर जल का कोई स्त्रोत नही था... हर सप्ताह सूरजगढ़ से पानी की रसद भेजी जाती थी उसी पर सब निर्भर थे... ऐसी सूरत में पानी की हर बूंद को संभालकर इस्तेमाल करना पड़ रहा था...
हररोज राजमाता और सेनापति इस बारे में विचार विमर्श करते... पर उनकी मुलाकातें किसी भी ठोस नतीजे पर नही पहुँच पाती थी... आखिरकार उन्होंने शौर्यगढ़ की सेना को उकसा कर उन्हे लड़ने पर मजबूर करने की योजना बनाई।
योजना यह थी की प्रशिक्षित तीरंदाजों को किले की दीवार के जीतने नजदीक हो सके भेजा जाएँ... वह तीरंदाज लंबी दूरी तक जा सके ऐसे बाणों से बुर्ज पर खड़े चौकीदारों को एक के बाद एक मार गिराएं... किले की दीवार के करीब लगे घने पेड़, इस कार्य के लिए उत्कृष्ट स्थान थे.. शाखों में छुपकर तीरंदाज आसानी से वार कर सकते थे।
सारा घटनाक्रम योजना के मुताबिक चलता नजर आया... रात के अंधेरे में वह तीरंदाजों ने पेड़ों पर अपना स्थान ले लिया... सुबह होते ही, किले की दीवार पर गश्त लगाते सैनिकों पर एक साथ तीर चलाए गए... कुछ ही पलों में करीब २५ सैनिकों की लाशों का अंबार लग गया... शौर्यगढ़ में अफरातफरी मच गई... कुछ ही दिन पहले वह ५० से अधिक सैनिकों को गंवा चुके थे... और आज कई सारे सैनिक हताहत हो गए..!!
बलवानसिंह का क्रोध सातवे आसमान पर पहुँच गया... अपने सेना अध्यक्ष को बुलाकर एक बड़े ही विस्तृत हमले के लिए तैयारी करने का उन्होंने आदेश दिया... हमला घातक, सटीक और निर्दयी होना चाहिए, यह उन्होंने स्पष्ट किया..
इस तरफ राजमाता भी जानती थी की अब शौर्यगढ़ की सेना जरूर हमला करेगी... सूरजगढ़ की सेना भी पूरी तरह से तैयार थी...
दूसरे दिन भोर की पहले किरण के साथ... किले की दीवार से युद्ध के बिगुल बजने की आवाज सुनाई देते ही राजमाता और उनका सैन्य सतर्क हो गए... कड़कड़ाहट की आवाज के साथ किले का मुख्य दरवाजा खुला... पहले तो उसमे से धूल मिट्टी का बड़ा सा बवंडर नजर आया... और फिर उसमे से प्रकट हुई तेज तर्रार घोड़ों पर सवार सैनिकों की सेना... उनके सैनिकों का प्रवाह, उस द्वार से निकलता ही जा रहा था... रुकने का नाम ही नही ले रहा था... सेनापति के आकलन से कई ज्यादा संख्याबल था उनका...
अलग अलग श्रेणियों में सूरजगढ़ की सेना किले की तरफ आगे बढ़ी... किले की दीवारों से अनगिनत तीर छोड़े गए... सूरजगढ़ की सेना की प्रथम दो श्रेणियों के सैनिक उन बरसते तीरों के शिकार बन गए... फिर दोनों सेनाओ में घमासान युद्ध हुआ... शाम ढलने तक सूरजगढ़ की आधे से ज्यादा सेना वीरगति को प्राप्त हो गई.. शौर्यगढ़ के सैनिकों की संख्या और उनके जुनून का सामना वह नहीं कर पाए... कई सप्ताहों की थकावट ने उनका जोश भी कम कर दिया था...
उसी रात किले का पीछे का दरवाजा भी खुला... पिछली बार के मुकाबले, इस बार सैनिकों की संख्या २० गुना थी... बाहर निकलते ही वह दस्ता तीन हिस्सों में बँट गया.. एक हिस्सा दायी ओर गया.. एक बायी ओर और एक हिस्सा सीधा जंगल में घुस गया... जंगल में पहुंचते ही शक्तिसिंह के दल ने पहले पेड़ पर बैठे बैठे हमला किया... अश्वदल ने भी मजबूत टक्कर दी.. लेकिन थोड़ी ही देर बाद दोनों तरफ गए सैनिकों के गुट ने शक्तिसिंह के दल को पूरी तरह से घेर लिया... शक्तिसिंह के दल की संख्या १०० के करीब थी जबकी दुश्मन १००० से भी ज्यादा थे...
शुरुआती हमले के बाद इतनी बड़ी संख्या में दुश्मन को देखकर शक्तिसिंह पेड़ की टहनी से नीचे कूदने ही वाला था जब उसकी टांग फिसल गई... और वह सिर के बल जमीन पर गिरा... और वहीं मूर्छित हो गया... दुश्मनों ने चारों तरफ से सिकंजा कसकर पूरे दल को बंदी बना लिया और उन्हे उठाकर वापिस किले के अंदर चले गए...
दूसरी सुबह होश में आए शक्तिसिंह ने अपने आसपास का नजारा देखकर उसे झटका लगा... कहीं पर भी उसके दल के सदस्य नजर नही आ रहे थे... अगर वह मारे गए होते तो उनकी लाशें नजर आती... और उसे छोड़कर वह छावनी में लौट गए हो ऐसा मुमकिन नही था... शक्तिसिंह को यकीन हो गया की उन्हे बंदी बनाकर ले जाया गया है... और उन सब में चन्दा भी शामिल थी...
बड़ी मुश्किल से उठे शक्तिसिंह को अपना अश्व कहीं भी नजर नही आया... उसके सर में भयानक दर्द के झटके लग रहे थे... वह काफी अशक्त भी महसूस कर रहा था... फिलहाल उसे राजमाता और सेनापति को इस दुर्घटना के बारे में सूचित करने की आवश्यकता नजर आई... पर उन तक खबर पहुंचाने का कोई माध्यम नही था... शक्तिसिंह को खुद ही यह समाचार लेकर मुख्य छावनी पहुंचना था..
जंगल के रास्ते लड़खड़ाते हुए वह जब मुख्य छावनी तक पहुंचा तब तक वह अधमरा हो चुका था... छावनी के पहले तंबू के आगे ही वह फिर से बेहोश हो गया... तुरंत उसे तंबू में ले जाकर लेटाया गया... और वैद्य के परामर्श अनुसार उसका इलाज किया गया...
शक्तिसिंह के आगमन की खबर मिलते ही राजमाता के उदास चेहरे पर चमक आ गई.. पर उसे इस अवस्था में देखकर वह काफी चिंतित हो गई... उन्हे दूसरी चिंता यह भी थी की उसके बाकी साथियों का क्या हुआ!! शक्तिसिंह के होश में आने तक उस पहेली का उत्तर नही मिलने वाला था..
करीब ३० घंटे के बाद शक्तिसिंह को होश आया... उससे सारा वृतांत जानकर सभी को गहरा सदमा पहुंचा... इतने सारे सैनिक अब दुश्मन की गिरफ्त में थे... और इस खेमे के आधे से ज्यादा सैनिक मार चुके थे... स्थिति काफी गंभीर थी।
एक दिन पश्चात, शक्तिसिंह और राजमाता उनके तंबू के बिस्तर पर बैठे हुए थे... यह पहली बार था की रात्री के समय, तंबू के एकांत में, दोनों बिस्तर पर बैठे हो... और दोनों मे से किसी के भी मन में संभोग या उससे जुड़े कोई विचार न चल रहे हो... होश में आने के बाद शक्तिसिंह ज्यादा कुछ बोल नही रहा था... अगर कुछ बोलता या पूछता तो राजमाता के पास उसका कोई उत्तर नही था..
"राजमाता जी, आप से विनती है... की मुझे मेरे साथीयों को छुड़ाने के लिए जाने की अनुमति दीजिए" शक्तिसिंह ने हाथ जोड़कर कहा
"कैसे छुड़ाएगा तू उनको? कोई योजना है तेरे पास?" राजमाता ने पूछा
"में रात्री के समय रस्सियों के सहारे किले की दीवार चढ़कर अंदर जाऊंगा... कुछ भी कर उन्हे ढूंढ निकालूँगा" शक्तिसिंह बावरा हो गया था
"पागलों जैसी बात मत कर... अंदर घुस भी गया तो अकेले तू कर भी क्या पाएगा? में तुझे इस तरह मौत के मुंह में जाने की अनुमति नही दे सकती"
शक्तिसिंह बिस्तर से उतरकर राजमाता के पैरों में गिर गया... उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे...
"में अब और बर्दाश्त नही कर सकता... में मर भी जाऊँ तो मुझे मंजूर है.. पर बिना कुछ प्रयास किए में अपने दल को उस दृष्ट के हाथों मरने के लिए छोड़ नही सकता... में आपसे भीख माँगता हूँ... मुझे जाने दीजिए" शक्तिसिंह अब फुटफुट कर रोने लगा...
राजमाता ने शक्तिसिंह को अपने पैरों से उठाया और वापिस बिस्तर पर बैठा दिया
"मूर्ख मत बन... हम हमारे सैनिकों को छुड़ाएंगे... में कोई न कोई तरीका ढूंढ निकालूँगी... फिलहाल तू जा और विश्राम कर..."
उदास शक्तिसिंह सुस्त कदमों से चलते हुए तंबू से बाहर चला गया..
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दूसरे दिन सुबह, राजमाता ने सेनापति और शक्तिसिंह दोनों को अपने तंबू में बुलाया... दोनों ही के मन में अनगिनत प्रश्न उठ रहे थे...
तंबू में पहुंचते ही सेनापति ने राजमाता के सामने रखी कुर्सी पर स्थान ग्रहण किया... शक्तिसिंह वहीं मूरत की तरह खड़ा रहा और राजमाता की ओर देखता रहा...
काफी देर तक चुप रहने के बाद राजमाता ने अपना मौन तोड़ा...
"मैंने यह सारी समस्या का हल ढूंढ लिया है... " बोलकर वह फिर से चुप हो गई
यह अंतराल सेनापति और शक्तिसिंह दोनों को व्यग्र कर रहा था... पर इतना तो मालूम हो रहा था की जो भी हल था वह राजमाता के लिए आसान नही था... वरना वह इतने भारी मन से न कहती...
"क्या हल निकाला है आपने, राजमाता जी?" सेनापति ने पूछा
एक भारी सांस लेकर राजमाता ने उत्तर दिया...
"हम शौर्यगढ़ के राजा बलवानसिंह को शांति संदेश भेजेंगे और साथ ही गुहार लगाएंगे की वह सारे बंदियों को छोड़ दे"
यह सुन सेनापति व्याकुल हो गए... यह क्या कह रही थी राजमाता? दुश्मन के सामने घुटने टेक देना...? यह तो सूरजगढ़ की शान के विरुद्ध था... यह बलवान राज्य की सेना ने कभी भी हार नही मानी थी... पिछले कई महीनों से चल रही इस मुहिम में उन्होंने अनगिनत राज्य और रजवाड़े जीत लिए थे... हाँ, यह एक मजबूत दुश्मन जरूर था... पर इस तरह शांतिसंदेश भेजकर संधि का प्रस्ताव रखना उन्हे राज्य के गौरव को नष्ट कर देने के बराबर प्रतीत हो रहा था। शक्तिसिंह की प्रतिक्रिया भी कुछ अलग नही थी
"यह आप क्या कह रही है राजमाता जी? इसे तो हमारी पराजय मान लिया जाएगा" सेनापति ने कहा
"सेनापति जी, में जानती हूँ की मैं क्या कह रही हूँ... हम पर्याप्त प्रयत्न कर चुके है... आधे से ज्यादे सैनिक गंवा चुके है... कई सैनिक उनके कब्जे में है.. बाकी के सैनिक थक चुके है... शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से... फिलहाल शौर्यगढ़ का जो किला है, उसे भेद पाना नामुमकिन है... अंदर वह इतनी रसद जमा कर बैठे है की वह अगले दो साल तक उस दुर्ग के अंदर सुरक्षित भाव से जी सकते है... बाहर बैठे रहकर हम कुछ नही कर पाएंगे.. अगर भावनाओ को नियंत्रण में रखकर सोचे तो यही सबसे श्रेष्ठ विकल्प है.. हमारी प्राथमिकता उन बंदियों को छुड़ाना है... भविष्य में हम बेहतर शस्त्रों के साथ उन पर फिर हमला कर सकते है... मुहिम को यूं ही जारी रखने से हमारा ही नुकसान होगा... बेहतर यही होगा की अभी के लिए हम उनसे संधि कर ले और अपने सैनिकों को छुड़ाकर, सूरजगढ़ वापिस ले जाए... इस लिए मैंने तय किया है की कल शक्तिसिंह मेरा लिखा शांतिसंदेश लेकर राजा बलवानसिंह के पास जाएगा" राजमाता ने उत्तर दिया
"पर राजमाता जी, मुझे ऐसे हार मान लेना उचित नही लगता" सेनापति ने कहा
"सेनापति जी, यह मेरा आदेश है" बड़े ही ठंडी और दृढ़ सवार में राजमाता ने कहा
"जैसी आपकी आज्ञा" सेनापति ने हथियार डाल दिए
"मैं कल संदेशा लिखकर तैयार रखूंगी... शक्ति, तुम ५ सैनिकों के साथ कल वह संदेश बलवानसिंह को पहुंचाओगे... "
"जी राजमाता जी... " शक्तिसिंह ने सिर झुकाकर कहा...
दूसरी सुबह.. शक्तिसिंह अपने सैनिकों के गुट के साथ, हाथ में सफेद ध्वज लिए शौर्यगढ़ के किले की ओर निकल गया... द्वार पर पहुंचते ही उसने अपना झण्डा फहराया, जिसे देख किले का द्वार खोल दिया गया....
पूरी तरह से तलाशी लेने के बाद शक्तिसिंह और उसके साथियों के हथियार जब्त कर लिए गए...
शौर्यगढ़ के नगर की शोभा और समृद्धि देखकर शक्तिसिंह दंग रह गया... वैभवशाली इमारतें, भव्य घंटाघर, पक्की सड़कें, जगह जगह बने प्याऊ, सुवर्ण लेपित धार्मिक स्थान वगैरह देखकर ही इस नगर की धनवानता का अंदाजा लग रहा था... नगवासियों की वेशभूषा भी उनकी अमीरी दर्शा रही थी... किले की अंदर की दीवारें लोहे के स्तंभों से अधिक मजबूत की गई थी... सैनिकों के शस्त्र भी आम हथियारों से अलग और ज्यादा कार्यक्षम नजर आ रहे थे... सुवर्ण की उपलब्धि के कारण यह नगर अतिसमृद्ध था।
शस्त्रधारी सैनिकों से घिरकर शक्तिसिंह और उसके साथी महल में पहुंचे... गुलाबी दुर्लभ पत्थरों से बनी महल की दीवारें, रत्नों से सुशोभित थी.. भव्य प्रवेशद्वार से चलकर वह सभाखण्ड तक पहुंचे... महल में चारों तरफ भारी सुरक्षा का इंतेजाम था... दरबार की गतिविधियां चल रही थी... और इसलिए शक्तिसिंह को इंतज़ार करना पड़ा...
बलवानसिंह काले रंगे के राक्षस जैसा दिखने वाला लंबा तगड़ा पुरुष था... गहरी दाढ़ी और मुछ के कारण वह दिखने में विकराल था... बोलते वक्त दिख रहे उसके बड़े दाँत, ताम्बूल खा खा कर लाल हो गए थे... बड़े बड़े मोतियों की माला गले में लटकाकर वह विशाल मुकुट सिर पर धारण किए दरबार की कार्यवाही का संचालन कर रहा था...
कुछ ही देर में सभा बर्खास्त कर दी गई... और शक्तिसिंह को बलवानसिंह के सामने पेश किया गया...
शक्तिसिंह ने झुककर सलाम करने के बाद, अपने हाथों में रखा शांतिसंदेश दिखाया.. एक सैनिक ने उसके हाथों से वह संदेश ले जाकर बलवानसिंह को दिया... वह संदेश पढ़ने के बाद वह जोर जोर से हंसने लगा... बड़ी ही भयानक हंसी थी उसकी...
"अक्ल ठिकाने आ गई तुम्हारी राजमाता की? आए थे बड़े शौर्यगढ़ को हराने... मेरे सामने ना किसी का घमंड टीका है और ना ही मैं टिकने दूंगा... बाकी राज्यों के जैसे शौर्यगढ़ को कमजोर समझकर जो भूल तेरी राजमाता ने की है... उसका फल तो उसे भुगतना ही होगा... जाकर कह दो अपनी राजमाता से ... मैं बंदियों को मुक्त नही करूंगा... और अगर वह तुरंत अपनी छावनी उठाकर यहाँ से नही लौट गए तो उन सब की गर्दन काटकर उन्हे पेश कर दूंगा... " बलवानसिंह ने बड़ी ही क्रूरता से कहा
सुनकर शक्तिसिंह के होश उड़ गए... वह जमीन पर गिरकर गिड़गिड़ाने लगा...
"आपसे विनती है महाराज, कृपया मेरे साथियों को छोड़ दे... दो राजवीओ की लड़ाई में निर्दोष सिपाहीयों को दंड न दे... में आप से क्षमा माँगता हूँ... आपकी दरियादिली की ख्याति मैंने कई बार सुनी है... दयाभाव रखकर आप उन्हे छोड़ दीजिए" शक्तिसिंह ने कहा
अपनी तारीफ सुनकर बलवानसिंह खुश हो गया...
"चर्चे तो हमने तुम्हारी राजमाता के हुस्न के भी बड़े सुने है... क्या वाकई में वह इतनी सुंदर है? " बलवानसिंह ने पूछा
यह सुनकर शक्तिसिंह थोड़ा सा झेंप गया... बात को बदलने के लिए उसने कहा
"महाराज, मैं कई राज्यों की यात्रा कर चुका हूँ... सब आपकी तारीफ़ों के पूल बांधते है " शक्तिसिंह ने जूठी तारीफ़ करते हुए कहा
"हम्ममम... बात तो तुम्हारी सही है... लेकिन फिर भी... में इतनी आसानी से तुम्हारी राजमाता को बक्श नही दूंगा... में एक उदाहरण स्थापित करना चाहता हूँ... ताकि फिर से को शौर्यगढ़ की तरफ आँख उठाकर देखने की जुर्रत न करें.. " बलवानसिंह ने बड़े ही अहंकार के साथ कहा
"महाराज, आप तो दयालु है... आपका राज्य कितना महान है वह तो देखते ही बनता है... आपसे गुजारिश है की अगर आप बड़ा दिल रखकर बिना किसी कठोर कदम को उठायें... इस गुस्ताखी को नजरअंदाज करने की कृपा करेंगे तो हमारे दोनों राज्यों के बीच अच्छे संबंध स्थापित होंगे... सूरजगढ़ के पास उत्कृष्ट बंदरगाह है... जिसका उपयोग कर.. आप अपने सुवर्ण को दूर देशों में भेज सकते है... दोनों राज्यों को पारस्परिक लाभ होगा... " शक्तिसिंह इस बड़बोले महाराज को ज्यादा से ज्यादा खुश कर अपने साथियों को छुड़ाना चाहता था..
"हम्ममम... " गहरी सोच में डूब गया बलवानसिंह... थोड़ी देर सोचते रहने के बाद उसने कहा
"में अपनी मांगें लिखकर एक पत्र तुम्हें दे रहा हूँ... याद रहे यह पत्र सिर्फ और सिर्फ राजमाता के लिए है... और किसी को भी इस बारे में भनक नही लगनी चाहिए... यदि तुम्हारी राजमाता मेरी मांग स्वीकारती है तब मैं उन बंदियों को मुक्त कर दूंगा... यदि नही... तो परिणाम तो तुम जानते ही हो..." अपने लाल दाँत दिखाते हुए, हँसते हुए बलवानसिंह ने कहा..
कुछ ही देर में, एक मखमली कपड़े पर... बलवानसिंह ने पत्र लिखा... तांबे की नली में उस पत्र को डालकर शक्तिसिंह को दिया गया...
"यह पत्र देकर राजमाता से कहना... की उनके पास ज्यादा समय नही है, मुझे कल तक उत्तर नही मिला तो में सारे सैनिकों को मार दूंगा " बलवान सिंह ने कहा
क्रोध से अपनी मुठ्ठी भींचते हुए शक्तिसिंह ने झुककर सलाम की.. उसका मन कर रहा था की वहीं झपट कर उस राक्षस की गर्दन मरोड़ दे.. पर ऐसा करने से उसके साथियों के मुक्त होने की कोई गुंजाइश नही थी... वह मन मारकर वहाँ से लौट गया...
बहुत ही सुंदर लाजवाब और अद्भुत अनुपम अपडेट है भाई मजा आ गयाक्रोध से अपनी मुठ्ठी भींचते हुए शक्तिसिंह ने झुककर सलाम की.. उसका मन कर रहा था की वहीं झपट कर उस राक्षस की गर्दन मरोड़ दे.. पर ऐसा करने से उसके साथियों के मुक्त होने की कोई गुंजाइश नही थी... वह मन मारकर वहाँ से लौट गया...
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"यह बलवानसिंह समझता क्या है अपने आप को?" पत्र पढ़कर राजमाता अत्यंत क्रोधित हो गई... गुस्से से तिलमिलाते हुए उन्होंने मेज पर पड़ी सुराही और प्याले को उठाकर फेंक दिया... उनका चेहरा लाल हो गया था... वह क्रोध से कांप रही थी
शक्तिसिंह वह पत्र लेकर सीधे राजमाता के तंबू में पहुँच गया था.. उसे अंदेशा था की जो भी मांग होंगी वह अप्रिय ही होंगी... पर राजमाता इतनी क्रोधित हो जाएगी, इसका उसे अंदाजा न था... वह स्तब्ध होकर राजमाता के इस रौद्र स्वरूप को देखता रहा... आज से पहले उसने कभी राजमाता को इतने गुस्से में नही देखा था..
"क.. क्या हुआ राजमाता जी... ऐसा तो क्या लिखा है पत्र में..?" डरते हुए शक्तिसिंह ने पूछ लिया...
राजमाता ने उत्तर नही दिया... वह खड़ी हुए और पैर पटकते हुए कोने में पड़े दीपक के पास पहुँच गई... उस पत्र को दीपक की लौ पर रखकर जला दिए... जलते पत्र के अवशेष उन्हों ने जमीन पर फेंक दिए...
अब वह धीमे पैरों से चलकर अपने बिस्तर की ओर आई... और बैठ गई... पत्र को जला देने से प्रायः उनका क्रोध थोड़ा सा कम हुआ लग रहा था.. वह आँखें बंद कर थोड़े समय तक वैसे ही बैठी रही... उनके मन में चल रहे घमासान को दर्शक बनकर निरीक्षण करते हुए उलझी हुई लग रही थी।
शक्तिसिंह तो मुक प्रेक्षक की तरह बस उन्हे निहार रहा था... उन्हे अपने ध्यान से विमुख करने की उसमे हिम्मत नही थी...
थोड़ी देर बाद आँखें खोलकर राजमाता ने शक्तिसिंह की ओर देखा... उसकी आँखों में वह उसके प्रश्न को पढ़ सकती थी लेकिन फिर भी वह कुछ नही बोली
और थोड़ा समय बीतने पर शक्तिसिंह का इत्मीनान समाप्त हो गया
"कहिए न राजमाता जी... ऐसी कौन सी मांग कर दी बलवानसिंह ने जो आप इतनी गुस्सा हो गई?"
एक लंबी गहरी सांस लेने के बाद राजमाता ने कहा
"उन सैनिकों को छोड़ने के बदले में... वह मेरे शरीर को भोगना चाहता है... " बड़ी ही वेधक नज़रों से उन्होंने शक्तिसिंह की आँखों में देखा
सुनकर शक्तिसिंह हक्का-बक्का रह गया!! यह कैसी मांग कर ली बलवानसिंह ने?? हालांकि उसने राजमाता के हुस्न का जिक्र जरूर किया था पर उसे जरा भी अंदाजा नही था की वह इस तरह की मांग रखेगा...
"मुझे वह वेश्या या गणिका समझता है... सैनिकों को छोड़ने के लिए वह मेरे जिस्म का सौदा करना चाहता है" राजमाता के क्रोध का ज्वालामुखी फिर से फट पड़ा
"शांत हो जाइए राजमाता जी.. कोई न कोई तरीका जरूर निकल आएगा" शक्तिसिंह ने ढाढ़स बांधते हुए कहा
"कोई तरीका नही है... मुझे यह अंदेशा तो था ही... उसका राज्य इतना समृद्ध है की उसे सुवर्ण, सैनिक या जमीन देकर संतुष्ट नही किया जा सकता... और दूसरा ऐसा कोई प्रलोभन नही है जो उसके मन को भाएं... जरूर वह किसी और चीज की मांग करेगा... पर क्या मांगेगा वह तय नही कर पा रही थी... उसका पत्र पढ़कर अब स्पष्ट हो गया.. " गहरी सांस लेकर राजमाता ने कहा
समस्या बड़ी ही संगीन थी.. यदि प्रश्न सैनिकों के प्राणों का न होता तो राजमाता इसके बारे में सोचती भी नही... ऐसा भी नही था की राजमाता चंद सैनिकों के लिए अपने आप को सौंप देने के लिए राजी हो जाती... युद्ध में तो कई सैनिक अपनी जान गँवाते है... थोड़े और सही... पर अगर वह उन सैनिकों को छुड़ाने में असफल रही तो अपने सैन्य का विश्वास गंवा बैठती... विद्याधर ने इस बारे में उन्हें बड़े ही विस्तार से शिक्षित किया था... अगर सैनिक को इस बात का आश्वाशन न हो की उसका मुखिया उसके लिए जान तक लड़ा सकता है... तो वह भी अपनी जान को अपने ऊपरी के लिए न्योछावर नही करेगा। सैनिकों के विश्वास को बरकरार रखने के लिए उन बंदियों को छुड़ाना अतिआवश्यक था..
"मुझे अकेला छोड़ दो... " बिस्तर पर लेटते हुए राजमाता ने कहा
शक्तिसिंह ने आजतक राजमाता को इतनी हद तक असंतुलित नही देखा था... वह कुछ पलों के लिए वहीं खड़े होकर उन्हे देखता रहा... और फिर तंबू के बाहर चला गया
शाम तक शक्तिसिंह व्यग्रता से यहाँ वहाँ घूमता रहा... उसे न भोजन की इच्छा हो रही थी... ना ही प्यास लग रही थी... अपने साथियों के साथ साथ वह चन्दा की याद में भी व्यग्र हो रहा था... शक्तिसिंह को यह स्वप्न में भी अंदाजा नही था की उसका दिल चन्दा के लिए इतना व्याकुल हो सकता था...
बड़े ही तनाव में वह छावनी से थोड़े दूर एक पेड़ के नीचे बैठा रहा... राजमाता क्या तय करेगी, इस दुविधा में उसका वक्त ही नही कट रहा था... दिल के किसी कोने में यह आशा जागृत थी की वह सैनिकों को बचाने के लिए कुछ न कुछ तो जरूर करेगी.. लेकिन जो बलवानसिंह की इच्छा थी वह वास्तविकता में परिवर्तित होने की संभावना नजर नही आ रही थी...
इस तनाव से थका हुआ शक्तिसिंह कब सो गया उसे पता ही न चला... जब उसकी आँख खुली तब रात ढल चुकी थी... उसकी अपेक्षा की विपरीत कोई उसे जगाने या बुलाने नही आया था... हमेशा की तरह उसे प्रतीक्षा थी राजमाता के बुलावे की...बस वजह अलग थी... आज वह उन्हे भोगने की चाह में नही था... उसे उत्कंठा थी यह जानने की, की आखिर राजमाता ने क्या निर्णय लिया...
वह उठकर चलते चलते सैनिकों की छावनी की तरफ गया... हो सकता है राजमाता ने उसे याद किया हो पर सैनिक उसे ढूंढ न पाए हो... पर किसी भी सैनिक ने इस बारे में जिक्र नही किया... निराश शक्तिसिंह अपने तंबू की ओर लौट गया... बिस्तर पर अपना सर पकड़कर काफी समय तक बैठा रहा... इस अवस्था को वह अधिक बर्दाश्त नही कर पाया... अनिश्चितता को सब्र से नियंत्रित करना उसके बस के बाहर की बात थी.. अधिरपना और बेचैनी ने उसे लगभग पागल सा बना दिया...
वह उठ खड़ा हुआ और उसने राजमाता के तंबू की ओर प्रयाण किया... बिना बुलाए राजमाता के तंबू में जाने की गुस्ताखी के एवज में वह हर सजा भुगतने को तैयार था... उसे किसी भी हाल में राजमाता का उत्तर जानना था...
तंबू के द्वार तक पहुंचकर उसने देखा की राजमाता के तंबू में घनघोर अंधेरा छाया हुआ था... वह बाहर तो कहीं भी थी नही.. चूंकि वह अभी अभी उन सभी जगहों से गुजरता हुआ यहाँ आया था... असमंजस में घिरे हुए शक्तिसिंह ने पर्दा उठाया... पूरे तंबू में अंधेरा था.. पर बिस्तर पर किसी मानव आकृति की रेखाएं नजर आ रही थी... शायद राजमाता सो गई थी.. हताश होकर वह वापिस जा ही रहा था तब..
"अंदर आ जाओ शक्ति... " गंभीर गहरी आवाज में राजमाता ने उसे पुकारा.. अनपेक्षित आवाज सुनकर वह चोंक गया... वह तुरंत पीछे मुड़ा और धीरे से चलकर बिस्तर की ओर आया और वहीं खड़ा रहा
"आप कहें तो दीपक जला दूँ?" शक्तिसिंह ने पूछा
"नही, ऐसे ही ठीक है... जीवन में ऐसे भी पल आते है जब खुद का सामना करना भी कठिन हो जाता है... यह अंधेरा ही वह पर्दा है जो मुझे अपने आप से छुपाने में सहायता कर रहा है... " राजमाता की आवाज ऐसे प्रतीत हो रही थी जैसे वह काफी रो चुकी हो
शक्तिसिंह मौन रहा... वह पूछना चाहता था पर उसकी जुबान साथ नही दे रही थी
"मुझे यह ज्ञात है की तुम यहाँ किस उद्देश्य से आए हो... तो यह जान लो की हम जल्द ही सैनिकों को मुक्ति दिलाएंगे" राजमाता ने कहा
शक्तिसिंह के चेहरे पर ऐसी मुस्कान पहले कभी नही आई थी... पर फिलहाल अंधेरे में राजमाता को नजर नही आ रही थी... सैनिक मुक्त हो जाएंगे इसका मतलब.. मतलब... एक पल के लिए चेहरे पर आई मुस्कान, भांप बनकर उड़ गई!!!
बेहद गंभीर हो गया शक्तिसिंह... बलवानसिंह जैसे राक्षस के हाथों, इस दैवी सुंदरता की साम्राज्ञी के जिस्म को रौंदे जाने की कल्पना भर से ही शक्तिसिंह के रोंगटे खड़े हो गए... इतना बड़ा त्याग...!! आज पहली बार वह राजमाता को दिल से दंडवत प्रणाम करना चाहता था...
"मेरे करीब आओ शक्ति... " अंधेरे में अंदाजे से उसका हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचते हुए राजमाता ने कहा
शक्तिसिंह यंत्रवत बिस्तर पर पहुंचा और राजमाता के बगल में लेट गया... उसके सर पर हाथ फेरने के बाद उन्होंने अपना चेहरा शक्तिसिंह की मजबूत छाती में दबा दिया... और उनकी आँखों से बरसते आंसुओं ने उसकी छाती भिगो कर रख दी..
"आज में बेहद अकेलापन महसूस कर रही हूँ शक्ति... " कहते हुए वह फुट-फुट कर रोने लगी... उन्हे सांत्वना देने के लिए शक्तिसिंह उनकी पीठ पर और गालों पर हाथ फेरता रहा... वह उनकी स्थिति समझ सकता था... बहुत कठिन निर्णय लिया था उन्हों ने..
रात्री का समय था... तंबू में अंधकार था... बिस्तर पर दो जिस्म आपस में लिपटे हुए थे... एक दूसरे के अंगों को सहला रहा थे... पर फिर भी दोनों में से किसी के मन में आज रत्तीभर भी वासना या हवस नही थी... थी तो बस सहानुभूति, प्रेम और सांत्वना की भावना...