क्रोध से अपनी मुठ्ठी भींचते हुए शक्तिसिंह ने झुककर सलाम की.. उसका मन कर रहा था की वहीं झपट कर उस राक्षस की गर्दन मरोड़ दे.. पर ऐसा करने से उसके साथियों के मुक्त होने की कोई गुंजाइश नही थी... वह मन मारकर वहाँ से लौट गया...
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"यह बलवानसिंह समझता क्या है अपने आप को?" पत्र पढ़कर राजमाता अत्यंत क्रोधित हो गई... गुस्से से तिलमिलाते हुए उन्होंने मेज पर पड़ी सुराही और प्याले को उठाकर फेंक दिया... उनका चेहरा लाल हो गया था... वह क्रोध से कांप रही थी
शक्तिसिंह वह पत्र लेकर सीधे राजमाता के तंबू में पहुँच गया था.. उसे अंदेशा था की जो भी मांग होंगी वह अप्रिय ही होंगी... पर राजमाता इतनी क्रोधित हो जाएगी, इसका उसे अंदाजा न था... वह स्तब्ध होकर राजमाता के इस रौद्र स्वरूप को देखता रहा... आज से पहले उसने कभी राजमाता को इतने गुस्से में नही देखा था..
"क.. क्या हुआ राजमाता जी... ऐसा तो क्या लिखा है पत्र में..?" डरते हुए शक्तिसिंह ने पूछ लिया...
राजमाता ने उत्तर नही दिया... वह खड़ी हुए और पैर पटकते हुए कोने में पड़े दीपक के पास पहुँच गई... उस पत्र को दीपक की लौ पर रखकर जला दिए... जलते पत्र के अवशेष उन्हों ने जमीन पर फेंक दिए...
अब वह धीमे पैरों से चलकर अपने बिस्तर की ओर आई... और बैठ गई... पत्र को जला देने से प्रायः उनका क्रोध थोड़ा सा कम हुआ लग रहा था.. वह आँखें बंद कर थोड़े समय तक वैसे ही बैठी रही... उनके मन में चल रहे घमासान को दर्शक बनकर निरीक्षण करते हुए उलझी हुई लग रही थी।
शक्तिसिंह तो मुक प्रेक्षक की तरह बस उन्हे निहार रहा था... उन्हे अपने ध्यान से विमुख करने की उसमे हिम्मत नही थी...
थोड़ी देर बाद आँखें खोलकर राजमाता ने शक्तिसिंह की ओर देखा... उसकी आँखों में वह उसके प्रश्न को पढ़ सकती थी लेकिन फिर भी वह कुछ नही बोली
और थोड़ा समय बीतने पर शक्तिसिंह का इत्मीनान समाप्त हो गया
"कहिए न राजमाता जी... ऐसी कौन सी मांग कर दी बलवानसिंह ने जो आप इतनी गुस्सा हो गई?"
एक लंबी गहरी सांस लेने के बाद राजमाता ने कहा
"उन सैनिकों को छोड़ने के बदले में... वह मेरे शरीर को भोगना चाहता है... " बड़ी ही वेधक नज़रों से उन्होंने शक्तिसिंह की आँखों में देखा
सुनकर शक्तिसिंह हक्का-बक्का रह गया!! यह कैसी मांग कर ली बलवानसिंह ने?? हालांकि उसने राजमाता के हुस्न का जिक्र जरूर किया था पर उसे जरा भी अंदाजा नही था की वह इस तरह की मांग रखेगा...
"मुझे वह वेश्या या गणिका समझता है... सैनिकों को छोड़ने के लिए वह मेरे जिस्म का सौदा करना चाहता है" राजमाता के क्रोध का ज्वालामुखी फिर से फट पड़ा
"शांत हो जाइए राजमाता जी.. कोई न कोई तरीका जरूर निकल आएगा" शक्तिसिंह ने ढाढ़स बांधते हुए कहा
"कोई तरीका नही है... मुझे यह अंदेशा तो था ही... उसका राज्य इतना समृद्ध है की उसे सुवर्ण, सैनिक या जमीन देकर संतुष्ट नही किया जा सकता... और दूसरा ऐसा कोई प्रलोभन नही है जो उसके मन को भाएं... जरूर वह किसी और चीज की मांग करेगा... पर क्या मांगेगा वह तय नही कर पा रही थी... उसका पत्र पढ़कर अब स्पष्ट हो गया.. " गहरी सांस लेकर राजमाता ने कहा
समस्या बड़ी ही संगीन थी.. यदि प्रश्न सैनिकों के प्राणों का न होता तो राजमाता इसके बारे में सोचती भी नही... ऐसा भी नही था की राजमाता चंद सैनिकों के लिए अपने आप को सौंप देने के लिए राजी हो जाती... युद्ध में तो कई सैनिक अपनी जान गँवाते है... थोड़े और सही... पर अगर वह उन सैनिकों को छुड़ाने में असफल रही तो अपने सैन्य का विश्वास गंवा बैठती... विद्याधर ने इस बारे में उन्हें बड़े ही विस्तार से शिक्षित किया था... अगर सैनिक को इस बात का आश्वाशन न हो की उसका मुखिया उसके लिए जान तक लड़ा सकता है... तो वह भी अपनी जान को अपने ऊपरी के लिए न्योछावर नही करेगा। सैनिकों के विश्वास को बरकरार रखने के लिए उन बंदियों को छुड़ाना अतिआवश्यक था..
"मुझे अकेला छोड़ दो... " बिस्तर पर लेटते हुए राजमाता ने कहा
शक्तिसिंह ने आजतक राजमाता को इतनी हद तक असंतुलित नही देखा था... वह कुछ पलों के लिए वहीं खड़े होकर उन्हे देखता रहा... और फिर तंबू के बाहर चला गया
शाम तक शक्तिसिंह व्यग्रता से यहाँ वहाँ घूमता रहा... उसे न भोजन की इच्छा हो रही थी... ना ही प्यास लग रही थी... अपने साथियों के साथ साथ वह चन्दा की याद में भी व्यग्र हो रहा था... शक्तिसिंह को यह स्वप्न में भी अंदाजा नही था की उसका दिल चन्दा के लिए इतना व्याकुल हो सकता था...
बड़े ही तनाव में वह छावनी से थोड़े दूर एक पेड़ के नीचे बैठा रहा... राजमाता क्या तय करेगी, इस दुविधा में उसका वक्त ही नही कट रहा था... दिल के किसी कोने में यह आशा जागृत थी की वह सैनिकों को बचाने के लिए कुछ न कुछ तो जरूर करेगी.. लेकिन जो बलवानसिंह की इच्छा थी वह वास्तविकता में परिवर्तित होने की संभावना नजर नही आ रही थी...
इस तनाव से थका हुआ शक्तिसिंह कब सो गया उसे पता ही न चला... जब उसकी आँख खुली तब रात ढल चुकी थी... उसकी अपेक्षा की विपरीत कोई उसे जगाने या बुलाने नही आया था... हमेशा की तरह उसे प्रतीक्षा थी राजमाता के बुलावे की...बस वजह अलग थी... आज वह उन्हे भोगने की चाह में नही था... उसे उत्कंठा थी यह जानने की, की आखिर राजमाता ने क्या निर्णय लिया...
वह उठकर चलते चलते सैनिकों की छावनी की तरफ गया... हो सकता है राजमाता ने उसे याद किया हो पर सैनिक उसे ढूंढ न पाए हो... पर किसी भी सैनिक ने इस बारे में जिक्र नही किया... निराश शक्तिसिंह अपने तंबू की ओर लौट गया... बिस्तर पर अपना सर पकड़कर काफी समय तक बैठा रहा... इस अवस्था को वह अधिक बर्दाश्त नही कर पाया... अनिश्चितता को सब्र से नियंत्रित करना उसके बस के बाहर की बात थी.. अधिरपना और बेचैनी ने उसे लगभग पागल सा बना दिया...
वह उठ खड़ा हुआ और उसने राजमाता के तंबू की ओर प्रयाण किया... बिना बुलाए राजमाता के तंबू में जाने की गुस्ताखी के एवज में वह हर सजा भुगतने को तैयार था... उसे किसी भी हाल में राजमाता का उत्तर जानना था...
तंबू के द्वार तक पहुंचकर उसने देखा की राजमाता के तंबू में घनघोर अंधेरा छाया हुआ था... वह बाहर तो कहीं भी थी नही.. चूंकि वह अभी अभी उन सभी जगहों से गुजरता हुआ यहाँ आया था... असमंजस में घिरे हुए शक्तिसिंह ने पर्दा उठाया... पूरे तंबू में अंधेरा था.. पर बिस्तर पर किसी मानव आकृति की रेखाएं नजर आ रही थी... शायद राजमाता सो गई थी.. हताश होकर वह वापिस जा ही रहा था तब..
"अंदर आ जाओ शक्ति... " गंभीर गहरी आवाज में राजमाता ने उसे पुकारा.. अनपेक्षित आवाज सुनकर वह चोंक गया... वह तुरंत पीछे मुड़ा और धीरे से चलकर बिस्तर की ओर आया और वहीं खड़ा रहा
"आप कहें तो दीपक जला दूँ?" शक्तिसिंह ने पूछा
"नही, ऐसे ही ठीक है... जीवन में ऐसे भी पल आते है जब खुद का सामना करना भी कठिन हो जाता है... यह अंधेरा ही वह पर्दा है जो मुझे अपने आप से छुपाने में सहायता कर रहा है... " राजमाता की आवाज ऐसे प्रतीत हो रही थी जैसे वह काफी रो चुकी हो
शक्तिसिंह मौन रहा... वह पूछना चाहता था पर उसकी जुबान साथ नही दे रही थी
"मुझे यह ज्ञात है की तुम यहाँ किस उद्देश्य से आए हो... तो यह जान लो की हम जल्द ही सैनिकों को मुक्ति दिलाएंगे" राजमाता ने कहा
शक्तिसिंह के चेहरे पर ऐसी मुस्कान पहले कभी नही आई थी... पर फिलहाल अंधेरे में राजमाता को नजर नही आ रही थी... सैनिक मुक्त हो जाएंगे इसका मतलब.. मतलब... एक पल के लिए चेहरे पर आई मुस्कान, भांप बनकर उड़ गई!!!
बेहद गंभीर हो गया शक्तिसिंह... बलवानसिंह जैसे राक्षस के हाथों, इस दैवी सुंदरता की साम्राज्ञी के जिस्म को रौंदे जाने की कल्पना भर से ही शक्तिसिंह के रोंगटे खड़े हो गए... इतना बड़ा त्याग...!! आज पहली बार वह राजमाता को दिल से दंडवत प्रणाम करना चाहता था...
"मेरे करीब आओ शक्ति... " अंधेरे में अंदाजे से उसका हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचते हुए राजमाता ने कहा
शक्तिसिंह यंत्रवत बिस्तर पर पहुंचा और राजमाता के बगल में लेट गया... उसके सर पर हाथ फेरने के बाद उन्होंने अपना चेहरा शक्तिसिंह की मजबूत छाती में दबा दिया... और उनकी आँखों से बरसते आंसुओं ने उसकी छाती भिगो कर रख दी..
"आज में बेहद अकेलापन महसूस कर रही हूँ शक्ति... " कहते हुए वह फुट-फुट कर रोने लगी... उन्हे सांत्वना देने के लिए शक्तिसिंह उनकी पीठ पर और गालों पर हाथ फेरता रहा... वह उनकी स्थिति समझ सकता था... बहुत कठिन निर्णय लिया था उन्हों ने..
रात्री का समय था... तंबू में अंधकार था... बिस्तर पर दो जिस्म आपस में लिपटे हुए थे... एक दूसरे के अंगों को सहला रहा थे... पर फिर भी दोनों में से किसी के मन में आज रत्तीभर भी वासना या हवस नही थी... थी तो बस सहानुभूति, प्रेम और सांत्वना की भावना...