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Adultery राजमाता कौशल्यादेवी

sunoanuj

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Bahut hi adbhut updates… ab yeh dekhna or jyada dilachasp hoga ki Rajmata uski is maang ka kya fayda uthayegi… Itane aaram se uske bistar par nahin jaane wali …

Waiting for next blockbuster update… 👏🏻👏🏻👏🏻
 

Ek number

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क्रोध से अपनी मुठ्ठी भींचते हुए शक्तिसिंह ने झुककर सलाम की.. उसका मन कर रहा था की वहीं झपट कर उस राक्षस की गर्दन मरोड़ दे.. पर ऐसा करने से उसके साथियों के मुक्त होने की कोई गुंजाइश नही थी... वह मन मारकर वहाँ से लौट गया...
-----------------------------------------------------------------------------------------------------

"यह बलवानसिंह समझता क्या है अपने आप को?" पत्र पढ़कर राजमाता अत्यंत क्रोधित हो गई... गुस्से से तिलमिलाते हुए उन्होंने मेज पर पड़ी सुराही और प्याले को उठाकर फेंक दिया... उनका चेहरा लाल हो गया था... वह क्रोध से कांप रही थी

ang
शक्तिसिंह वह पत्र लेकर सीधे राजमाता के तंबू में पहुँच गया था.. उसे अंदेशा था की जो भी मांग होंगी वह अप्रिय ही होंगी... पर राजमाता इतनी क्रोधित हो जाएगी, इसका उसे अंदाजा न था... वह स्तब्ध होकर राजमाता के इस रौद्र स्वरूप को देखता रहा... आज से पहले उसने कभी राजमाता को इतने गुस्से में नही देखा था..

"क.. क्या हुआ राजमाता जी... ऐसा तो क्या लिखा है पत्र में..?" डरते हुए शक्तिसिंह ने पूछ लिया...

राजमाता ने उत्तर नही दिया... वह खड़ी हुए और पैर पटकते हुए कोने में पड़े दीपक के पास पहुँच गई... उस पत्र को दीपक की लौ पर रखकर जला दिए... जलते पत्र के अवशेष उन्हों ने जमीन पर फेंक दिए...

अब वह धीमे पैरों से चलकर अपने बिस्तर की ओर आई... और बैठ गई... पत्र को जला देने से प्रायः उनका क्रोध थोड़ा सा कम हुआ लग रहा था.. वह आँखें बंद कर थोड़े समय तक वैसे ही बैठी रही... उनके मन में चल रहे घमासान को दर्शक बनकर निरीक्षण करते हुए उलझी हुई लग रही थी।

शक्तिसिंह तो मुक प्रेक्षक की तरह बस उन्हे निहार रहा था... उन्हे अपने ध्यान से विमुख करने की उसमे हिम्मत नही थी...

थोड़ी देर बाद आँखें खोलकर राजमाता ने शक्तिसिंह की ओर देखा... उसकी आँखों में वह उसके प्रश्न को पढ़ सकती थी लेकिन फिर भी वह कुछ नही बोली

और थोड़ा समय बीतने पर शक्तिसिंह का इत्मीनान समाप्त हो गया

"कहिए न राजमाता जी... ऐसी कौन सी मांग कर दी बलवानसिंह ने जो आप इतनी गुस्सा हो गई?"

एक लंबी गहरी सांस लेने के बाद राजमाता ने कहा

"उन सैनिकों को छोड़ने के बदले में... वह मेरे शरीर को भोगना चाहता है... " बड़ी ही वेधक नज़रों से उन्होंने शक्तिसिंह की आँखों में देखा

सुनकर शक्तिसिंह हक्का-बक्का रह गया!! यह कैसी मांग कर ली बलवानसिंह ने?? हालांकि उसने राजमाता के हुस्न का जिक्र जरूर किया था पर उसे जरा भी अंदाजा नही था की वह इस तरह की मांग रखेगा...

"मुझे वह वेश्या या गणिका समझता है... सैनिकों को छोड़ने के लिए वह मेरे जिस्म का सौदा करना चाहता है" राजमाता के क्रोध का ज्वालामुखी फिर से फट पड़ा

vol

"शांत हो जाइए राजमाता जी.. कोई न कोई तरीका जरूर निकल आएगा" शक्तिसिंह ने ढाढ़स बांधते हुए कहा

"कोई तरीका नही है... मुझे यह अंदेशा तो था ही... उसका राज्य इतना समृद्ध है की उसे सुवर्ण, सैनिक या जमीन देकर संतुष्ट नही किया जा सकता... और दूसरा ऐसा कोई प्रलोभन नही है जो उसके मन को भाएं... जरूर वह किसी और चीज की मांग करेगा... पर क्या मांगेगा वह तय नही कर पा रही थी... उसका पत्र पढ़कर अब स्पष्ट हो गया.. " गहरी सांस लेकर राजमाता ने कहा

समस्या बड़ी ही संगीन थी.. यदि प्रश्न सैनिकों के प्राणों का न होता तो राजमाता इसके बारे में सोचती भी नही... ऐसा भी नही था की राजमाता चंद सैनिकों के लिए अपने आप को सौंप देने के लिए राजी हो जाती... युद्ध में तो कई सैनिक अपनी जान गँवाते है... थोड़े और सही... पर अगर वह उन सैनिकों को छुड़ाने में असफल रही तो अपने सैन्य का विश्वास गंवा बैठती... विद्याधर ने इस बारे में उन्हें बड़े ही विस्तार से शिक्षित किया था... अगर सैनिक को इस बात का आश्वाशन न हो की उसका मुखिया उसके लिए जान तक लड़ा सकता है... तो वह भी अपनी जान को अपने ऊपरी के लिए न्योछावर नही करेगा। सैनिकों के विश्वास को बरकरार रखने के लिए उन बंदियों को छुड़ाना अतिआवश्यक था..

"मुझे अकेला छोड़ दो... " बिस्तर पर लेटते हुए राजमाता ने कहा

शक्तिसिंह ने आजतक राजमाता को इतनी हद तक असंतुलित नही देखा था... वह कुछ पलों के लिए वहीं खड़े होकर उन्हे देखता रहा... और फिर तंबू के बाहर चला गया

शाम तक शक्तिसिंह व्यग्रता से यहाँ वहाँ घूमता रहा... उसे न भोजन की इच्छा हो रही थी... ना ही प्यास लग रही थी... अपने साथियों के साथ साथ वह चन्दा की याद में भी व्यग्र हो रहा था... शक्तिसिंह को यह स्वप्न में भी अंदाजा नही था की उसका दिल चन्दा के लिए इतना व्याकुल हो सकता था...

बड़े ही तनाव में वह छावनी से थोड़े दूर एक पेड़ के नीचे बैठा रहा... राजमाता क्या तय करेगी, इस दुविधा में उसका वक्त ही नही कट रहा था... दिल के किसी कोने में यह आशा जागृत थी की वह सैनिकों को बचाने के लिए कुछ न कुछ तो जरूर करेगी.. लेकिन जो बलवानसिंह की इच्छा थी वह वास्तविकता में परिवर्तित होने की संभावना नजर नही आ रही थी...

wa11
इस तनाव से थका हुआ शक्तिसिंह कब सो गया उसे पता ही न चला... जब उसकी आँख खुली तब रात ढल चुकी थी... उसकी अपेक्षा की विपरीत कोई उसे जगाने या बुलाने नही आया था... हमेशा की तरह उसे प्रतीक्षा थी राजमाता के बुलावे की...बस वजह अलग थी... आज वह उन्हे भोगने की चाह में नही था... उसे उत्कंठा थी यह जानने की, की आखिर राजमाता ने क्या निर्णय लिया...

वह उठकर चलते चलते सैनिकों की छावनी की तरफ गया... हो सकता है राजमाता ने उसे याद किया हो पर सैनिक उसे ढूंढ न पाए हो... पर किसी भी सैनिक ने इस बारे में जिक्र नही किया... निराश शक्तिसिंह अपने तंबू की ओर लौट गया... बिस्तर पर अपना सर पकड़कर काफी समय तक बैठा रहा... इस अवस्था को वह अधिक बर्दाश्त नही कर पाया... अनिश्चितता को सब्र से नियंत्रित करना उसके बस के बाहर की बात थी.. अधिरपना और बेचैनी ने उसे लगभग पागल सा बना दिया...

वह उठ खड़ा हुआ और उसने राजमाता के तंबू की ओर प्रयाण किया... बिना बुलाए राजमाता के तंबू में जाने की गुस्ताखी के एवज में वह हर सजा भुगतने को तैयार था... उसे किसी भी हाल में राजमाता का उत्तर जानना था...

तंबू के द्वार तक पहुंचकर उसने देखा की राजमाता के तंबू में घनघोर अंधेरा छाया हुआ था... वह बाहर तो कहीं भी थी नही.. चूंकि वह अभी अभी उन सभी जगहों से गुजरता हुआ यहाँ आया था... असमंजस में घिरे हुए शक्तिसिंह ने पर्दा उठाया... पूरे तंबू में अंधेरा था.. पर बिस्तर पर किसी मानव आकृति की रेखाएं नजर आ रही थी... शायद राजमाता सो गई थी.. हताश होकर वह वापिस जा ही रहा था तब..

iq
"अंदर आ जाओ शक्ति... " गंभीर गहरी आवाज में राजमाता ने उसे पुकारा.. अनपेक्षित आवाज सुनकर वह चोंक गया... वह तुरंत पीछे मुड़ा और धीरे से चलकर बिस्तर की ओर आया और वहीं खड़ा रहा

"आप कहें तो दीपक जला दूँ?" शक्तिसिंह ने पूछा

"नही, ऐसे ही ठीक है... जीवन में ऐसे भी पल आते है जब खुद का सामना करना भी कठिन हो जाता है... यह अंधेरा ही वह पर्दा है जो मुझे अपने आप से छुपाने में सहायता कर रहा है... " राजमाता की आवाज ऐसे प्रतीत हो रही थी जैसे वह काफी रो चुकी हो

शक्तिसिंह मौन रहा... वह पूछना चाहता था पर उसकी जुबान साथ नही दे रही थी

"मुझे यह ज्ञात है की तुम यहाँ किस उद्देश्य से आए हो... तो यह जान लो की हम जल्द ही सैनिकों को मुक्ति दिलाएंगे" राजमाता ने कहा

शक्तिसिंह के चेहरे पर ऐसी मुस्कान पहले कभी नही आई थी... पर फिलहाल अंधेरे में राजमाता को नजर नही आ रही थी... सैनिक मुक्त हो जाएंगे इसका मतलब.. मतलब... एक पल के लिए चेहरे पर आई मुस्कान, भांप बनकर उड़ गई!!!

बेहद गंभीर हो गया शक्तिसिंह... बलवानसिंह जैसे राक्षस के हाथों, इस दैवी सुंदरता की साम्राज्ञी के जिस्म को रौंदे जाने की कल्पना भर से ही शक्तिसिंह के रोंगटे खड़े हो गए... इतना बड़ा त्याग...!! आज पहली बार वह राजमाता को दिल से दंडवत प्रणाम करना चाहता था...

"मेरे करीब आओ शक्ति... " अंधेरे में अंदाजे से उसका हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचते हुए राजमाता ने कहा

शक्तिसिंह यंत्रवत बिस्तर पर पहुंचा और राजमाता के बगल में लेट गया... उसके सर पर हाथ फेरने के बाद उन्होंने अपना चेहरा शक्तिसिंह की मजबूत छाती में दबा दिया... और उनकी आँखों से बरसते आंसुओं ने उसकी छाती भिगो कर रख दी..

"आज में बेहद अकेलापन महसूस कर रही हूँ शक्ति... " कहते हुए वह फुट-फुट कर रोने लगी... उन्हे सांत्वना देने के लिए शक्तिसिंह उनकी पीठ पर और गालों पर हाथ फेरता रहा... वह उनकी स्थिति समझ सकता था... बहुत कठिन निर्णय लिया था उन्हों ने..


रात्री का समय था... तंबू में अंधकार था... बिस्तर पर दो जिस्म आपस में लिपटे हुए थे... एक दूसरे के अंगों को सहला रहा थे... पर फिर भी दोनों में से किसी के मन में आज रत्तीभर भी वासना या हवस नही थी... थी तो बस सहानुभूति, प्रेम और सांत्वना की भावना...

ly2
Interesting update
 

Tri2010

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क्रोध से अपनी मुठ्ठी भींचते हुए शक्तिसिंह ने झुककर सलाम की.. उसका मन कर रहा था की वहीं झपट कर उस राक्षस की गर्दन मरोड़ दे.. पर ऐसा करने से उसके साथियों के मुक्त होने की कोई गुंजाइश नही थी... वह मन मारकर वहाँ से लौट गया...
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"यह बलवानसिंह समझता क्या है अपने आप को?" पत्र पढ़कर राजमाता अत्यंत क्रोधित हो गई... गुस्से से तिलमिलाते हुए उन्होंने मेज पर पड़ी सुराही और प्याले को उठाकर फेंक दिया... उनका चेहरा लाल हो गया था... वह क्रोध से कांप रही थी

ang
शक्तिसिंह वह पत्र लेकर सीधे राजमाता के तंबू में पहुँच गया था.. उसे अंदेशा था की जो भी मांग होंगी वह अप्रिय ही होंगी... पर राजमाता इतनी क्रोधित हो जाएगी, इसका उसे अंदाजा न था... वह स्तब्ध होकर राजमाता के इस रौद्र स्वरूप को देखता रहा... आज से पहले उसने कभी राजमाता को इतने गुस्से में नही देखा था..

"क.. क्या हुआ राजमाता जी... ऐसा तो क्या लिखा है पत्र में..?" डरते हुए शक्तिसिंह ने पूछ लिया...

राजमाता ने उत्तर नही दिया... वह खड़ी हुए और पैर पटकते हुए कोने में पड़े दीपक के पास पहुँच गई... उस पत्र को दीपक की लौ पर रखकर जला दिए... जलते पत्र के अवशेष उन्हों ने जमीन पर फेंक दिए...

अब वह धीमे पैरों से चलकर अपने बिस्तर की ओर आई... और बैठ गई... पत्र को जला देने से प्रायः उनका क्रोध थोड़ा सा कम हुआ लग रहा था.. वह आँखें बंद कर थोड़े समय तक वैसे ही बैठी रही... उनके मन में चल रहे घमासान को दर्शक बनकर निरीक्षण करते हुए उलझी हुई लग रही थी।

शक्तिसिंह तो मुक प्रेक्षक की तरह बस उन्हे निहार रहा था... उन्हे अपने ध्यान से विमुख करने की उसमे हिम्मत नही थी...

थोड़ी देर बाद आँखें खोलकर राजमाता ने शक्तिसिंह की ओर देखा... उसकी आँखों में वह उसके प्रश्न को पढ़ सकती थी लेकिन फिर भी वह कुछ नही बोली

और थोड़ा समय बीतने पर शक्तिसिंह का इत्मीनान समाप्त हो गया

"कहिए न राजमाता जी... ऐसी कौन सी मांग कर दी बलवानसिंह ने जो आप इतनी गुस्सा हो गई?"

एक लंबी गहरी सांस लेने के बाद राजमाता ने कहा

"उन सैनिकों को छोड़ने के बदले में... वह मेरे शरीर को भोगना चाहता है... " बड़ी ही वेधक नज़रों से उन्होंने शक्तिसिंह की आँखों में देखा

सुनकर शक्तिसिंह हक्का-बक्का रह गया!! यह कैसी मांग कर ली बलवानसिंह ने?? हालांकि उसने राजमाता के हुस्न का जिक्र जरूर किया था पर उसे जरा भी अंदाजा नही था की वह इस तरह की मांग रखेगा...

"मुझे वह वेश्या या गणिका समझता है... सैनिकों को छोड़ने के लिए वह मेरे जिस्म का सौदा करना चाहता है" राजमाता के क्रोध का ज्वालामुखी फिर से फट पड़ा

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"शांत हो जाइए राजमाता जी.. कोई न कोई तरीका जरूर निकल आएगा" शक्तिसिंह ने ढाढ़स बांधते हुए कहा

"कोई तरीका नही है... मुझे यह अंदेशा तो था ही... उसका राज्य इतना समृद्ध है की उसे सुवर्ण, सैनिक या जमीन देकर संतुष्ट नही किया जा सकता... और दूसरा ऐसा कोई प्रलोभन नही है जो उसके मन को भाएं... जरूर वह किसी और चीज की मांग करेगा... पर क्या मांगेगा वह तय नही कर पा रही थी... उसका पत्र पढ़कर अब स्पष्ट हो गया.. " गहरी सांस लेकर राजमाता ने कहा

समस्या बड़ी ही संगीन थी.. यदि प्रश्न सैनिकों के प्राणों का न होता तो राजमाता इसके बारे में सोचती भी नही... ऐसा भी नही था की राजमाता चंद सैनिकों के लिए अपने आप को सौंप देने के लिए राजी हो जाती... युद्ध में तो कई सैनिक अपनी जान गँवाते है... थोड़े और सही... पर अगर वह उन सैनिकों को छुड़ाने में असफल रही तो अपने सैन्य का विश्वास गंवा बैठती... विद्याधर ने इस बारे में उन्हें बड़े ही विस्तार से शिक्षित किया था... अगर सैनिक को इस बात का आश्वाशन न हो की उसका मुखिया उसके लिए जान तक लड़ा सकता है... तो वह भी अपनी जान को अपने ऊपरी के लिए न्योछावर नही करेगा। सैनिकों के विश्वास को बरकरार रखने के लिए उन बंदियों को छुड़ाना अतिआवश्यक था..

"मुझे अकेला छोड़ दो... " बिस्तर पर लेटते हुए राजमाता ने कहा

शक्तिसिंह ने आजतक राजमाता को इतनी हद तक असंतुलित नही देखा था... वह कुछ पलों के लिए वहीं खड़े होकर उन्हे देखता रहा... और फिर तंबू के बाहर चला गया

शाम तक शक्तिसिंह व्यग्रता से यहाँ वहाँ घूमता रहा... उसे न भोजन की इच्छा हो रही थी... ना ही प्यास लग रही थी... अपने साथियों के साथ साथ वह चन्दा की याद में भी व्यग्र हो रहा था... शक्तिसिंह को यह स्वप्न में भी अंदाजा नही था की उसका दिल चन्दा के लिए इतना व्याकुल हो सकता था...

बड़े ही तनाव में वह छावनी से थोड़े दूर एक पेड़ के नीचे बैठा रहा... राजमाता क्या तय करेगी, इस दुविधा में उसका वक्त ही नही कट रहा था... दिल के किसी कोने में यह आशा जागृत थी की वह सैनिकों को बचाने के लिए कुछ न कुछ तो जरूर करेगी.. लेकिन जो बलवानसिंह की इच्छा थी वह वास्तविकता में परिवर्तित होने की संभावना नजर नही आ रही थी...

wa11
इस तनाव से थका हुआ शक्तिसिंह कब सो गया उसे पता ही न चला... जब उसकी आँख खुली तब रात ढल चुकी थी... उसकी अपेक्षा की विपरीत कोई उसे जगाने या बुलाने नही आया था... हमेशा की तरह उसे प्रतीक्षा थी राजमाता के बुलावे की...बस वजह अलग थी... आज वह उन्हे भोगने की चाह में नही था... उसे उत्कंठा थी यह जानने की, की आखिर राजमाता ने क्या निर्णय लिया...

वह उठकर चलते चलते सैनिकों की छावनी की तरफ गया... हो सकता है राजमाता ने उसे याद किया हो पर सैनिक उसे ढूंढ न पाए हो... पर किसी भी सैनिक ने इस बारे में जिक्र नही किया... निराश शक्तिसिंह अपने तंबू की ओर लौट गया... बिस्तर पर अपना सर पकड़कर काफी समय तक बैठा रहा... इस अवस्था को वह अधिक बर्दाश्त नही कर पाया... अनिश्चितता को सब्र से नियंत्रित करना उसके बस के बाहर की बात थी.. अधिरपना और बेचैनी ने उसे लगभग पागल सा बना दिया...

वह उठ खड़ा हुआ और उसने राजमाता के तंबू की ओर प्रयाण किया... बिना बुलाए राजमाता के तंबू में जाने की गुस्ताखी के एवज में वह हर सजा भुगतने को तैयार था... उसे किसी भी हाल में राजमाता का उत्तर जानना था...

तंबू के द्वार तक पहुंचकर उसने देखा की राजमाता के तंबू में घनघोर अंधेरा छाया हुआ था... वह बाहर तो कहीं भी थी नही.. चूंकि वह अभी अभी उन सभी जगहों से गुजरता हुआ यहाँ आया था... असमंजस में घिरे हुए शक्तिसिंह ने पर्दा उठाया... पूरे तंबू में अंधेरा था.. पर बिस्तर पर किसी मानव आकृति की रेखाएं नजर आ रही थी... शायद राजमाता सो गई थी.. हताश होकर वह वापिस जा ही रहा था तब..

iq
"अंदर आ जाओ शक्ति... " गंभीर गहरी आवाज में राजमाता ने उसे पुकारा.. अनपेक्षित आवाज सुनकर वह चोंक गया... वह तुरंत पीछे मुड़ा और धीरे से चलकर बिस्तर की ओर आया और वहीं खड़ा रहा

"आप कहें तो दीपक जला दूँ?" शक्तिसिंह ने पूछा

"नही, ऐसे ही ठीक है... जीवन में ऐसे भी पल आते है जब खुद का सामना करना भी कठिन हो जाता है... यह अंधेरा ही वह पर्दा है जो मुझे अपने आप से छुपाने में सहायता कर रहा है... " राजमाता की आवाज ऐसे प्रतीत हो रही थी जैसे वह काफी रो चुकी हो

शक्तिसिंह मौन रहा... वह पूछना चाहता था पर उसकी जुबान साथ नही दे रही थी

"मुझे यह ज्ञात है की तुम यहाँ किस उद्देश्य से आए हो... तो यह जान लो की हम जल्द ही सैनिकों को मुक्ति दिलाएंगे" राजमाता ने कहा

शक्तिसिंह के चेहरे पर ऐसी मुस्कान पहले कभी नही आई थी... पर फिलहाल अंधेरे में राजमाता को नजर नही आ रही थी... सैनिक मुक्त हो जाएंगे इसका मतलब.. मतलब... एक पल के लिए चेहरे पर आई मुस्कान, भांप बनकर उड़ गई!!!

बेहद गंभीर हो गया शक्तिसिंह... बलवानसिंह जैसे राक्षस के हाथों, इस दैवी सुंदरता की साम्राज्ञी के जिस्म को रौंदे जाने की कल्पना भर से ही शक्तिसिंह के रोंगटे खड़े हो गए... इतना बड़ा त्याग...!! आज पहली बार वह राजमाता को दिल से दंडवत प्रणाम करना चाहता था...

"मेरे करीब आओ शक्ति... " अंधेरे में अंदाजे से उसका हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचते हुए राजमाता ने कहा

शक्तिसिंह यंत्रवत बिस्तर पर पहुंचा और राजमाता के बगल में लेट गया... उसके सर पर हाथ फेरने के बाद उन्होंने अपना चेहरा शक्तिसिंह की मजबूत छाती में दबा दिया... और उनकी आँखों से बरसते आंसुओं ने उसकी छाती भिगो कर रख दी..

"आज में बेहद अकेलापन महसूस कर रही हूँ शक्ति... " कहते हुए वह फुट-फुट कर रोने लगी... उन्हे सांत्वना देने के लिए शक्तिसिंह उनकी पीठ पर और गालों पर हाथ फेरता रहा... वह उनकी स्थिति समझ सकता था... बहुत कठिन निर्णय लिया था उन्हों ने..

रात्री का समय था... तंबू में अंधकार था... बिस्तर पर दो जिस्म आपस में लिपटे हुए थे... एक दूसरे के अंगों को सहला रहा थे... पर फिर भी दोनों में से किसी के मन में आज रत्तीभर भी वासना या हवस नही थी... थी तो बस सहानुभूति, प्रेम और सांत्वना की भावना...

ly2
Beautiful update
 

vakharia

Supreme
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रात्री का समय था... तंबू में अंधकार था... बिस्तर पर दो जिस्म आपस में लिपटे हुए थे... एक दूसरे के अंगों को सहला रहा थे... पर फिर भी दोनों में से किसी के मन में आज रत्तीभर भी वासना या हवस नही थी... थी तो बस सहानुभूति, प्रेम और सांत्वना की भावना...

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दूसरी सुबह, शक्तिसिंह अपने साथ राजमाता का सहमति-संदेश लेकर राजा बलवानसिंह के दरबार में पहुंचा...

pal3pal5

संदेश को पढ़कर, बलवानसिंह की आँखें चमक उठी... उसके चेहरे की मुस्कान छुपाई छिपती न थी...

"आखिर आ गया न ऊंट पहाड़ के नीचे... " अपनी मुछ पर ताव देते हुए बलवानसिंह ने कहा

"भला आपकी बात को कौन टाल सकता है महाराज... " सर झुकाए खड़े शक्तिसिंह ने कहा... शक्तिसिंह ने, न चाहते हुए भी निर्बल रूप धारण कर रखा था... वह नहीं चाहता था की गुस्से में कहे गए कोई भी शब्द, उसके साथियों की... और खासकर चन्दा की जान के लिए खतरा बन जाए... वह मन बनाकर आया था की वह जितनी हो सके, राजा की खुशामद करेगा...

"फिर किस बात की प्रतीक्षा है? अभी हाजिर करो अपनी राजमाता को" बलवानसिंह उस खूबसूरत जिस्म को भोगने की कल्पना करने लगा...

"क्षमा कीजिए महाराज... राजमाता अपनी दासियों के संग पूर्णतः तैयारी के साथ आएगी.. इसमें थोड़ा वक्त तो लगेगा... आप कहें तो वह कल आपके महल में हाजिर हो जाएगी... " शक्तिसिंह ने उत्तर दिया

"हम्म... यह भी ठीक है... कल शौर्यगढ़ में स्थापना-दिवस का उत्सव बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाने वाला है... मेरी तरफ से राजमाता को न्योता दे देना... पर ध्यान रहें, में किसी भी सैनिक को प्रवेश की अनुमति नही दूंगा... " बलवानसिंह ने कहा

"इत्मीनान रखिए महाराज, राजमाता के संग केवल उनकी दासियों का समूह रहेगा... और सिर्फ मैं... और कोई नही होगा... और वैसे भी हम दोनों राज्यों के बीच शांति स्थापित हो चुकी है... हम आशा करते है की शौर्यगढ़ और सूरजगढ़ के बीच नए संबंधों का इतिहास रचा जाएँ... दोनों महान राज्य एक दूसरे की प्रगति में योगदान देकर... नई ऊँचाइयाँ हासिल करें... " शक्तिसिंह ने बलवानसिंह की कदमबोसी कर उसे प्रसन्न करना चाहा

"अगर मेरी शर्तों पर राजमाता की सहमति हो तो दोनों राज्यों के बीच मैत्रीपूर्ण व्यवहार अवश्य स्थापित हो सकता है... अगर यही बात तुम्हारी राजमाता को पहले समज आ गई होती तो व्यर्थ में इतना रक्तपात नही होता" बलवानसिंह की भृकुटी तंग हो गई

"जो हो गया उसे भूल जाइए महाराज... आप बड़े ही दयालु है.. बीती बातें भूलकर ही हम आगे बढ़ पाएंगे... और वैसे भी... आपके जितना शक्तिशाली और महान सहयोगी प्राप्त कर, हम भी धन्यता का अनुभव कर रहे है" शक्तिसिंह के मिश्री-घुलित शब्दों से बलवानसिंह अति प्रसन्न हो गया

"सामान्य सैनिक होने के पश्चात तुम बड़े ही बुद्धिमान हो... उस मूर्ख सेनापति की बजाए अगर राजमाता तुम्हारी सलाह लेती तो आज यह दिन देखना न पड़ता... अब तुम हमारा न्योता राजमाता को देकर उन्हे सूचित करो की जल्द से जल्द यहाँ पहुँचने की तैयारी करें... मैं अधीरतापूर्वक उनकी प्रतीक्षा करूंगा... " यह कहते हुए राजा बलवानसिंह अपनी धोती के ऊपर से ही लंड को मसलते हुए बोला

शक्तिसिंह का क्रोध सारी सीमाएं पार कर गया था... फिर भी उसने बड़ी ही विनम्रता से कहा

"जी महाराज, यह संदेश तुरंत राजमाता तक पहुंचा दूंगा.. बस आप से एक विनती है मेरी" दो हाथ जोड़कर शक्तिसिंह ने कहा

"कहो... क्या विनती है तुम्हारी?" बलवानसिंह ने पूछा

"मेरे साथी... जिन्हे आपने बंदी बनाया है... क्या में उन्हे एक बार मिल सकता हूँ?" शक्तिसिंह ने कहा

"क्या आवश्यकता है? वैसे भी कल राजमाता जैसे ही मेरे कक्ष में दाखिल होगी... तुम्हारे साथियों को मुक्त कर दिया जाएगा"

"कृपा करें महाराज, मुझे सिर्फ अपने साथियों की कुशलक्षेम होने की पुष्टि करनी है... हाथ जोड़कर विनती कर रहा हूँ महाराज... मुझ गरीब को निराश मत कीजिए... " हाथ जोड़े विनम्रता का अभिनय करते हुए शक्तिसिंह ने कहा

"ठीक है... सिपाहियों, इस सैनिक को उन बंदियों से भेंट करवा दो" बलवानसिंह ने आदेश दिया

"बड़े दयालु है आप महाराज... आपका आभारी रहूँगा... " सलाम करते हुए शक्तिसिंह दरबार से निकालकर अपने साथियों से मिलने चला गया

उन बंदी सैनिकों और चन्दा को देखकर शक्तिसिंह की आँखों में आँसू टपक पड़े... उन्हे कुशल देखकर वह बड़ा ही खुश हो गया.. उनकी रिहाई का समाचार सुनकर वे अति प्रसन्न हो गए... किन शर्तों पर उन्हे छोड़ा जा रहा था, यह शक्तिसिंह ने उन्हे नही बताया था...

सैनिकों से मिलकर, खुश होते हुए शक्तिसिंह छावनी पर वापिस लौटा.. राजमाता के तंबू में जाकर उसने राजा बलवानसिंह का संदेश शब्दसः सुनाया... पूरी बात बड़ी ध्यान से सुनते हुए राजमाता की आँखों में एक अनोखी सी चमक जाग उठी... उन्होंने शक्तिसिंह को तुरंत रुखसत किया और सेनापति को बुलावा भेजा...

कुछ देर विचार विमर्श के बाद, राजमाता के निर्देश अनुसार, सेनापति ने दो सैनिकों को, पास के नगर से कुछ सामान जुटाने को कहा... महाराज बलवानसिंह ने किस तरह की मांग की थी, इसका पता राजमाता और शक्तिसिंह के अलावा किसी तीसरे को नही था... सेनापति केवल इतना ही जानते थे की राजमाता ने शांति-संदेश भेजा था... जिसका स्वीकार कर, राजा बलवानसिंह ने उन्हे स्थापना-दिवस के उत्सव में शरीक होने के लिए न्योता भेजा था, और उनकी मुलाकात के बाद, सारे बंदी सैनिकों को मुक्ति किया जाने वाला था...

उस शाम को जब शक्तिसिंह राजमाता से मिलने उनके तंबू में पहुंचा... तब वह कुर्सी पर बैठकर कोई गीत गुनगुना रही थी... राजमाता को इस तरह चिंतामुक्त देखकर शक्तिसिंह को सुखद आश्चर्य हुआ...

"आओ शक्ति... अभी तो रात भी नही हुई है... फिर कैसे आना हुआ?" बड़े ही शरारती लहजे में राजमाता ने शक्तिसिंह से पूछा

शक्तिसिंह एक पल के लिए झेंप गया... वैसे परिस्थिति की गंभीरता को देखते हुए.. ऐसा कोई विचार उसके मन में प्रकट भी नही हुआ था.. पर राजमाता को खुश देखकर उसे बहुत अच्छा महसूस हुआ... इतने समय से चल रहे जिस्मानी संबंधों के चलते अब वह ह्रदय के किसी कोने में वह राजमाता को बड़े ही स्नेह और प्रेम से देखता था और उनका अहित होते हुए नही देख सकता था...

चुपचाप खड़े शक्तिसिंह का हाथ पकड़कर राजमाता ने अपनी ओर खींचा... कुर्सी पर बैठी राजमाता के जिस्म से सटकर वह खड़ा हो गया... उसकी मजबूत जांघों पर हाथ फेरते हुए उन्होंने शक्तिसिंह के लंड को वस्त्र के ऊपर से मुठ्ठी में भर लिया... शक्तिसिंह के मुंह से आहह सरक गई.. उत्तेजित होकर शक्तिसिंह ने अपने हाथ को राजमाता के कंधे पर फेरना शुरू कर दिया... उसका हाथ जैसे ही उनकी चूचियों को दबाने पहुंचा की राजमाता ने उसका हाथ पकड़ लिया और अपने बदन से अलग कर दिया... शक्तिसिंह अचंभित होकर उन्हे देखता रहा

"कल का दिन बड़ा ही लंबा और थका देने वाला रहेगा... तुम विश्राम करो और मैं भी आज की रात पूरा आराम करूंगी" राजमाता की इशारा तुरंत समझ गया शक्तिसिंह... कल उस बलवानसिंह के सामने राजमाता नग्न होगी और फिर... इस कल्पना से भी वह भयभीत हो गया...

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राजमाता को सलाम कर वह तंबू से बाहर निकल गया।
-----------------------------------------------------------------------------------------------------
अगली सुबह राजमाता प्रातः काल ही अपने नित्य क्रम से फारिग होकर तैयार हो गई.. शक्तिसिंह बाहर ही तैयार बैठा था... जैसे ही राजमाता तंबू से बाहर आई... सेनापति अपने साथ लाल साड़ी में सज्ज दासियों के समूह के साथ प्रकट हुए... सारी दासियों ने अपनी छाती तक घूँघट ताने चेहरे को ढंका हुआ था... उनकी संख्या १०० के करीब थी... इतनी सारी दासियों को देखकर शक्तिसिंह भी दंग रह गया... इससे पहले की वह राजमाता को इस बारे में पूछ पाता... राजमाता रथ में सवार हो गई। शक्तिसिंह भी अपने घोड़े पर सवार हो गया और इस काफिले में जुड़ गया...

जैसे ही यह दस्ता किले के दरवाजे पर पहुंचा... द्वारपाल ने दरवाजा खोलने का निर्देश दिया... लकड़ी का सेतु गिराया गया... और उस पर बड़ी ही धीमी गति से चलते हुए वह खेमा किले के अंदर पहुँच गया... उनके अंदर जाते ही लकड़ी के सेतु को वापिस खींच लिया गया और द्वार बंद कर दिया गया।

शौर्यगढ़ का माहोल आज कुछ अलग ही नजर आ रहा था... चारों तरफ रंगबिरंगी तोरण और फूलमालाओं से नगर को सजाया गया था... रास्तों पर ढोल नगाड़े बजाए जा रहे थे... उत्सव मना रहे नगरजन और सैनिक मदिरा के प्याले पीते हुए नाच रहे थे... स्थापना-दिवस का उत्सव बड़े ही जोर-शोर से मनाया जा रहा था...

यह पूरा खेमा राजमहल के द्वार पर पहुंचा... उन्हे बड़े ही सन्मान के साथ अंदर ले जाया गया... शक्तिसिंह और दासियों के समूह को बाहर के खंड में रुकने के लिए कहा गया और केवल राजमाता को अंदर महाराज बलवानसिंह के पास ले जाया गया...

पूरा दरबार खाली था... सब दरबारी स्थापना-दिवस के उत्सव में सम्मिलित होने गए थे... राजमाता को महाराज के पास छोड़कर उनका सैनिक लौट गया

राजमाता को देखकर ही राजा की आँखें चार हो गई... आज तक उसने अनगिनत स्त्रियों को भोगा था... पर इतनी सुंदर स्त्री को उसने आज तक नही देखा था... कौशल्यादेवी के हुस्न के चर्चे तो उसने बहुत सुने थे... आज रूबरू होकर वह इस सौन्दर्य को देखकर धन्य हो गया.. इस अप्रतिम अद्वितीय सौन्दर्य का दीदार कर... राजमाता को भोगने की उसकी इच्छा अति-तीव्र हो गई...

"पधारिए राजमाता जी... शौर्यगढ़ में आपका हार्दिक स्वागत है" लार टपकाते हुए बलवानसिंह ने राजमाता से कहा

बड़ी ही गरिमा के साथ चलते हुए राजमाता ने एक नजर इस बदसूरत राजा पर डाली और फिर उनके पास पड़ी शाही कुर्सी पर बिराजमान हो गई... राजा के शरीर का रंग बिल्कुल काला था... चेहरे पर घनी दाढ़ी और मुछ के कारण वह विकराल और कुरूप लग रहा था... राजमाता के हुस्न को वह बेशर्मी से देखे जा रहा था और उसका जबड़ा लटक रहा था..

"बलवानसिंह जी, आपकी शर्त के मुताबिक मैं यहाँ आ चुकी हूँ... अब सबसे पहले उन सारे सैनिकों को रिहा कर दीजिए" बड़े ही दृढ़ता से राजमाता ने कहा

"जल्दी क्या है राजमाता जी... हम दोनों मेरे कक्ष में बैठकर एक दूसरे को ठीक से जान लेते है.. फिर सी भी मुक्त हो जाएंगे... " कुटिल मुस्कुराहट के साथ बलवानसिंह ने कहा

"नही... में आपके कक्ष में तभी प्रवेश करूंगी जब मेरे सैनिक मुक्त कर दिए जाएंगे" बेहद दृढ़ता और सख्ती से राजमाता ने कहा

बलवानसिंह के सिर पर हवस सवार हो चुकी थी... वह जल्द से जल्द इस दिव्य सौन्दर्य की साम्राज्ञी को भोगना चाहता था

"ठीक है... उन सैनिकों को मुक्त किया जाए... पर ध्यान रहे... वह बंदी सैनिक फिलहाल राजमाता की दासियों के साथ रखे जाए... वे वापिस तब ही लौटेंगे जब राजमा जी वापिस जाएंगी.. "

"मुझे मंजूर है" राजमाता ने कहा

तुरंत एक सिपाही कारागार की ओर चला गया... थोड़ी ही देर में, चन्दा और बाकी सारे सैनिकों को बेड़ियों से मुक्त किया गया और उन्हे दरबार के अग्र-खंड में दासियों के साथ स्थान दिया गया... बलवानसिंह का आकलन यह था की ऐसा न हो की सैनिक भी छूट जाएँ और राजमाता भी हाथ से निकल जाए... इसीलिए उसने सूचना दी थी की वह बंदी सैनिक तब तक किले से बाहर नही जाएंगे जब तक राजमाता उसके कमरे से बाहर निकलकर वापिस लौटने के लिए तैयार नही हो जाती। एक तरफ उसे राजमाता को जल्द से जल्द भोगने की चाह थी... तो दूसरी तरफ वह स्थापना-दिवस के समारोह में शरीक भी होना चाहता था... शौर्यगढ़ के लिए आज बहुत बड़ा दिन था... इसी दिन सदियों पहले, बलवानसिंह के पुरखों ने इस राज्य की स्थापना की थी... हर वर्ष इस दिन को बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता था...

सारे सैनिकों के क्षेमकुशल मुक्त हो गए यह सुनिश्चित करने के बाद शक्तिसिंह वापिस राजमाता के पीछे आकर खड़ा हो गया... अब राजमाता को बलवानसिंह के शयनखंड में जाना था...

"चलिए राजमाता जी... मेरे कक्ष की ओर पधारिए... " थोड़ी सी हिचकिचाहट के साथ राजमाता चलने लगी... साथ में शक्तिसिंह भी उनके पीछे गया।

बलवानसिंह के अंदर प्रवेश करने के बाद राजमाता शक्तिसिंह के कानों में फुसफुसाई "मेरा इशारा मिलते ही तुम अंदर चले आना... और उससे पहले मेरी सूचना के अनुसार... सारी जानकारी प्राप्त कर तैयार रहना... "

"जी राजमाता जी..." शक्तिसिंह ने सिर झुकाते हुए कहा

राजमाता ने कमरे में प्रवेश किया। पहले खंड से गुजरकर अंदर के विशाल शयनखंड में जा पहुंची।

बलवानसिंह बाहें फैलाए राजमाता के स्वागत के लिए तैयार खड़ा था... थोड़ी सी झिझक के साथ राजमाता उसके करीब जा पहुंची।

प्रथम थोड़ी क्षणों के लिए तो वह राजमाता के बेनमून हुस्न को निहारता ही रह गया... कोई इतना सुंदर कैसे हो सकता है!! वह मन ही मन सोच रहा था...

अब उससे और रहा न गया
 

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रात्री का समय था... तंबू में अंधकार था... बिस्तर पर दो जिस्म आपस में लिपटे हुए थे... एक दूसरे के अंगों को सहला रहा थे... पर फिर भी दोनों में से किसी के मन में आज रत्तीभर भी वासना या हवस नही थी... थी तो बस सहानुभूति, प्रेम और सांत्वना की भावना...

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दूसरी सुबह, शक्तिसिंह अपने साथ राजमाता का सहमति-संदेश लेकर राजा बलवानसिंह के दरबार में पहुंचा...

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संदेश को पढ़कर, बलवानसिंह की आँखें चमक उठी... उसके चेहरे की मुस्कान छुपाई छिपती न थी...

"आखिर आ गया न ऊंट पहाड़ के नीचे... " अपनी मुछ पर ताव देते हुए बलवानसिंह ने कहा

"भला आपकी बात को कौन टाल सकता है महाराज... " सर झुकाए खड़े शक्तिसिंह ने कहा... शक्तिसिंह ने, न चाहते हुए भी निर्बल रूप धारण कर रखा था... वह नहीं चाहता था की गुस्से में कहे गए कोई भी शब्द, उसके साथियों की... और खासकर चन्दा की जान के लिए खतरा बन जाए... वह मन बनाकर आया था की वह जितनी हो सके, राजा की खुशामद करेगा...

"फिर किस बात की प्रतीक्षा है? अभी हाजिर करो अपनी राजमाता को" बलवानसिंह उस खूबसूरत जिस्म को भोगने की कल्पना करने लगा...

"क्षमा कीजिए महाराज... राजमाता अपनी दासियों के संग पूर्णतः तैयारी के साथ आएगी.. इसमें थोड़ा वक्त तो लगेगा... आप कहें तो वह कल आपके महल में हाजिर हो जाएगी... " शक्तिसिंह ने उत्तर दिया

"हम्म... यह भी ठीक है... कल शौर्यगढ़ में स्थापना-दिवस का उत्सव बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाने वाला है... मेरी तरफ से राजमाता को न्योता दे देना... पर ध्यान रहें, में किसी भी सैनिक को प्रवेश की अनुमति नही दूंगा... " बलवानसिंह ने कहा

"इत्मीनान रखिए महाराज, राजमाता के संग केवल उनकी दासियों का समूह रहेगा... और सिर्फ मैं... और कोई नही होगा... और वैसे भी हम दोनों राज्यों के बीच शांति स्थापित हो चुकी है... हम आशा करते है की शौर्यगढ़ और सूरजगढ़ के बीच नए संबंधों का इतिहास रचा जाएँ... दोनों महान राज्य एक दूसरे की प्रगति में योगदान देकर... नई ऊँचाइयाँ हासिल करें... " शक्तिसिंह ने बलवानसिंह की कदमबोसी कर उसे प्रसन्न करना चाहा

"अगर मेरी शर्तों पर राजमाता की सहमति हो तो दोनों राज्यों के बीच मैत्रीपूर्ण व्यवहार अवश्य स्थापित हो सकता है... अगर यही बात तुम्हारी राजमाता को पहले समज आ गई होती तो व्यर्थ में इतना रक्तपात नही होता" बलवानसिंह की भृकुटी तंग हो गई

"जो हो गया उसे भूल जाइए महाराज... आप बड़े ही दयालु है.. बीती बातें भूलकर ही हम आगे बढ़ पाएंगे... और वैसे भी... आपके जितना शक्तिशाली और महान सहयोगी प्राप्त कर, हम भी धन्यता का अनुभव कर रहे है" शक्तिसिंह के मिश्री-घुलित शब्दों से बलवानसिंह अति प्रसन्न हो गया

"सामान्य सैनिक होने के पश्चात तुम बड़े ही बुद्धिमान हो... उस मूर्ख सेनापति की बजाए अगर राजमाता तुम्हारी सलाह लेती तो आज यह दिन देखना न पड़ता... अब तुम हमारा न्योता राजमाता को देकर उन्हे सूचित करो की जल्द से जल्द यहाँ पहुँचने की तैयारी करें... मैं अधीरतापूर्वक उनकी प्रतीक्षा करूंगा... " यह कहते हुए राजा बलवानसिंह अपनी धोती के ऊपर से ही लंड को मसलते हुए बोला

शक्तिसिंह का क्रोध सारी सीमाएं पार कर गया था... फिर भी उसने बड़ी ही विनम्रता से कहा

"जी महाराज, यह संदेश तुरंत राजमाता तक पहुंचा दूंगा.. बस आप से एक विनती है मेरी" दो हाथ जोड़कर शक्तिसिंह ने कहा

"कहो... क्या विनती है तुम्हारी?" बलवानसिंह ने पूछा

"मेरे साथी... जिन्हे आपने बंदी बनाया है... क्या में उन्हे एक बार मिल सकता हूँ?" शक्तिसिंह ने कहा

"क्या आवश्यकता है? वैसे भी कल राजमाता जैसे ही मेरे कक्ष में दाखिल होगी... तुम्हारे साथियों को मुक्त कर दिया जाएगा"

"कृपा करें महाराज, मुझे सिर्फ अपने साथियों की कुशलक्षेम होने की पुष्टि करनी है... हाथ जोड़कर विनती कर रहा हूँ महाराज... मुझ गरीब को निराश मत कीजिए... " हाथ जोड़े विनम्रता का अभिनय करते हुए शक्तिसिंह ने कहा

"ठीक है... सिपाहियों, इस सैनिक को उन बंदियों से भेंट करवा दो" बलवानसिंह ने आदेश दिया

"बड़े दयालु है आप महाराज... आपका आभारी रहूँगा... " सलाम करते हुए शक्तिसिंह दरबार से निकालकर अपने साथियों से मिलने चला गया

उन बंदी सैनिकों और चन्दा को देखकर शक्तिसिंह की आँखों में आँसू टपक पड़े... उन्हे कुशल देखकर वह बड़ा ही खुश हो गया.. उनकी रिहाई का समाचार सुनकर वे अति प्रसन्न हो गए... किन शर्तों पर उन्हे छोड़ा जा रहा था, यह शक्तिसिंह ने उन्हे नही बताया था...

सैनिकों से मिलकर, खुश होते हुए शक्तिसिंह छावनी पर वापिस लौटा.. राजमाता के तंबू में जाकर उसने राजा बलवानसिंह का संदेश शब्दसः सुनाया... पूरी बात बड़ी ध्यान से सुनते हुए राजमाता की आँखों में एक अनोखी सी चमक जाग उठी... उन्होंने शक्तिसिंह को तुरंत रुखसत किया और सेनापति को बुलावा भेजा...

कुछ देर विचार विमर्श के बाद, राजमाता के निर्देश अनुसार, सेनापति ने दो सैनिकों को, पास के नगर से कुछ सामान जुटाने को कहा... महाराज बलवानसिंह ने किस तरह की मांग की थी, इसका पता राजमाता और शक्तिसिंह के अलावा किसी तीसरे को नही था... सेनापति केवल इतना ही जानते थे की राजमाता ने शांति-संदेश भेजा था... जिसका स्वीकार कर, राजा बलवानसिंह ने उन्हे स्थापना-दिवस के उत्सव में शरीक होने के लिए न्योता भेजा था, और उनकी मुलाकात के बाद, सारे बंदी सैनिकों को मुक्ति किया जाने वाला था...

उस शाम को जब शक्तिसिंह राजमाता से मिलने उनके तंबू में पहुंचा... तब वह कुर्सी पर बैठकर कोई गीत गुनगुना रही थी... राजमाता को इस तरह चिंतामुक्त देखकर शक्तिसिंह को सुखद आश्चर्य हुआ...

"आओ शक्ति... अभी तो रात भी नही हुई है... फिर कैसे आना हुआ?" बड़े ही शरारती लहजे में राजमाता ने शक्तिसिंह से पूछा

शक्तिसिंह एक पल के लिए झेंप गया... वैसे परिस्थिति की गंभीरता को देखते हुए.. ऐसा कोई विचार उसके मन में प्रकट भी नही हुआ था.. पर राजमाता को खुश देखकर उसे बहुत अच्छा महसूस हुआ... इतने समय से चल रहे जिस्मानी संबंधों के चलते अब वह ह्रदय के किसी कोने में वह राजमाता को बड़े ही स्नेह और प्रेम से देखता था और उनका अहित होते हुए नही देख सकता था...

चुपचाप खड़े शक्तिसिंह का हाथ पकड़कर राजमाता ने अपनी ओर खींचा... कुर्सी पर बैठी राजमाता के जिस्म से सटकर वह खड़ा हो गया... उसकी मजबूत जांघों पर हाथ फेरते हुए उन्होंने शक्तिसिंह के लंड को वस्त्र के ऊपर से मुठ्ठी में भर लिया... शक्तिसिंह के मुंह से आहह सरक गई.. उत्तेजित होकर शक्तिसिंह ने अपने हाथ को राजमाता के कंधे पर फेरना शुरू कर दिया... उसका हाथ जैसे ही उनकी चूचियों को दबाने पहुंचा की राजमाता ने उसका हाथ पकड़ लिया और अपने बदन से अलग कर दिया... शक्तिसिंह अचंभित होकर उन्हे देखता रहा

"कल का दिन बड़ा ही लंबा और थका देने वाला रहेगा... तुम विश्राम करो और मैं भी आज की रात पूरा आराम करूंगी" राजमाता की इशारा तुरंत समझ गया शक्तिसिंह... कल उस बलवानसिंह के सामने राजमाता नग्न होगी और फिर... इस कल्पना से भी वह भयभीत हो गया...

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राजमाता को सलाम कर वह तंबू से बाहर निकल गया।
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अगली सुबह राजमाता प्रातः काल ही अपने नित्य क्रम से फारिग होकर तैयार हो गई.. शक्तिसिंह बाहर ही तैयार बैठा था... जैसे ही राजमाता तंबू से बाहर आई... सेनापति अपने साथ लाल साड़ी में सज्ज दासियों के समूह के साथ प्रकट हुए... सारी दासियों ने अपनी छाती तक घूँघट ताने चेहरे को ढंका हुआ था... उनकी संख्या १०० के करीब थी... इतनी सारी दासियों को देखकर शक्तिसिंह भी दंग रह गया... इससे पहले की वह राजमाता को इस बारे में पूछ पाता... राजमाता रथ में सवार हो गई। शक्तिसिंह भी अपने घोड़े पर सवार हो गया और इस काफिले में जुड़ गया...

जैसे ही यह दस्ता किले के दरवाजे पर पहुंचा... द्वारपाल ने दरवाजा खोलने का निर्देश दिया... लकड़ी का सेतु गिराया गया... और उस पर बड़ी ही धीमी गति से चलते हुए वह खेमा किले के अंदर पहुँच गया... उनके अंदर जाते ही लकड़ी के सेतु को वापिस खींच लिया गया और द्वार बंद कर दिया गया।

शौर्यगढ़ का माहोल आज कुछ अलग ही नजर आ रहा था... चारों तरफ रंगबिरंगी तोरण और फूलमालाओं से नगर को सजाया गया था... रास्तों पर ढोल नगाड़े बजाए जा रहे थे... उत्सव मना रहे नगरजन और सैनिक मदिरा के प्याले पीते हुए नाच रहे थे... स्थापना-दिवस का उत्सव बड़े ही जोर-शोर से मनाया जा रहा था...

यह पूरा खेमा राजमहल के द्वार पर पहुंचा... उन्हे बड़े ही सन्मान के साथ अंदर ले जाया गया... शक्तिसिंह और दासियों के समूह को बाहर के खंड में रुकने के लिए कहा गया और केवल राजमाता को अंदर महाराज बलवानसिंह के पास ले जाया गया...

पूरा दरबार खाली था... सब दरबारी स्थापना-दिवस के उत्सव में सम्मिलित होने गए थे... राजमाता को महाराज के पास छोड़कर उनका सैनिक लौट गया

राजमाता को देखकर ही राजा की आँखें चार हो गई... आज तक उसने अनगिनत स्त्रियों को भोगा था... पर इतनी सुंदर स्त्री को उसने आज तक नही देखा था... कौशल्यादेवी के हुस्न के चर्चे तो उसने बहुत सुने थे... आज रूबरू होकर वह इस सौन्दर्य को देखकर धन्य हो गया.. इस अप्रतिम अद्वितीय सौन्दर्य का दीदार कर... राजमाता को भोगने की उसकी इच्छा अति-तीव्र हो गई...

"पधारिए राजमाता जी... शौर्यगढ़ में आपका हार्दिक स्वागत है" लार टपकाते हुए बलवानसिंह ने राजमाता से कहा

बड़ी ही गरिमा के साथ चलते हुए राजमाता ने एक नजर इस बदसूरत राजा पर डाली और फिर उनके पास पड़ी शाही कुर्सी पर बिराजमान हो गई... राजा के शरीर का रंग बिल्कुल काला था... चेहरे पर घनी दाढ़ी और मुछ के कारण वह विकराल और कुरूप लग रहा था... राजमाता के हुस्न को वह बेशर्मी से देखे जा रहा था और उसका जबड़ा लटक रहा था..

"बलवानसिंह जी, आपकी शर्त के मुताबिक मैं यहाँ आ चुकी हूँ... अब सबसे पहले उन सारे सैनिकों को रिहा कर दीजिए" बड़े ही दृढ़ता से राजमाता ने कहा

"जल्दी क्या है राजमाता जी... हम दोनों मेरे कक्ष में बैठकर एक दूसरे को ठीक से जान लेते है.. फिर सी भी मुक्त हो जाएंगे... " कुटिल मुस्कुराहट के साथ बलवानसिंह ने कहा

"नही... में आपके कक्ष में तभी प्रवेश करूंगी जब मेरे सैनिक मुक्त कर दिए जाएंगे" बेहद दृढ़ता और सख्ती से राजमाता ने कहा

बलवानसिंह के सिर पर हवस सवार हो चुकी थी... वह जल्द से जल्द इस दिव्य सौन्दर्य की साम्राज्ञी को भोगना चाहता था

"ठीक है... उन सैनिकों को मुक्त किया जाए... पर ध्यान रहे... वह बंदी सैनिक फिलहाल राजमाता की दासियों के साथ रखे जाए... वे वापिस तब ही लौटेंगे जब राजमा जी वापिस जाएंगी.. "

"मुझे मंजूर है" राजमाता ने कहा

तुरंत एक सिपाही कारागार की ओर चला गया... थोड़ी ही देर में, चन्दा और बाकी सारे सैनिकों को बेड़ियों से मुक्त किया गया और उन्हे दरबार के अग्र-खंड में दासियों के साथ स्थान दिया गया... बलवानसिंह का आकलन यह था की ऐसा न हो की सैनिक भी छूट जाएँ और राजमाता भी हाथ से निकल जाए... इसीलिए उसने सूचना दी थी की वह बंदी सैनिक तब तक किले से बाहर नही जाएंगे जब तक राजमाता उसके कमरे से बाहर निकलकर वापिस लौटने के लिए तैयार नही हो जाती। एक तरफ उसे राजमाता को जल्द से जल्द भोगने की चाह थी... तो दूसरी तरफ वह स्थापना-दिवस के समारोह में शरीक भी होना चाहता था... शौर्यगढ़ के लिए आज बहुत बड़ा दिन था... इसी दिन सदियों पहले, बलवानसिंह के पुरखों ने इस राज्य की स्थापना की थी... हर वर्ष इस दिन को बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता था...

सारे सैनिकों के क्षेमकुशल मुक्त हो गए यह सुनिश्चित करने के बाद शक्तिसिंह वापिस राजमाता के पीछे आकर खड़ा हो गया... अब राजमाता को बलवानसिंह के शयनखंड में जाना था...

"चलिए राजमाता जी... मेरे कक्ष की ओर पधारिए... " थोड़ी सी हिचकिचाहट के साथ राजमाता चलने लगी... साथ में शक्तिसिंह भी उनके पीछे गया।

बलवानसिंह के अंदर प्रवेश करने के बाद राजमाता शक्तिसिंह के कानों में फुसफुसाई "मेरा इशारा मिलते ही तुम अंदर चले आना... और उससे पहले मेरी सूचना के अनुसार... सारी जानकारी प्राप्त कर तैयार रहना... "

"जी राजमाता जी..." शक्तिसिंह ने सिर झुकाते हुए कहा

राजमाता ने कमरे में प्रवेश किया। पहले खंड से गुजरकर अंदर के विशाल शयनखंड में जा पहुंची।

बलवानसिंह बाहें फैलाए राजमाता के स्वागत के लिए तैयार खड़ा था... थोड़ी सी झिझक के साथ राजमाता उसके करीब जा पहुंची।

प्रथम थोड़ी क्षणों के लिए तो वह राजमाता के बेनमून हुस्न को निहारता ही रह गया... कोई इतना सुंदर कैसे हो सकता है!! वह मन ही मन सोच रहा था...


अब उससे और रहा न गया
बहुत ही सुंदर लाजवाब और अद्भुत रमणिय अपडेट है भाई मजा आ गया
लगता है की राजमाता ने कुछ तो बडी चाल रची हैं दासीयों बहाने अपने कुछ खास सैनिक को ले आयी शौर्य गड के अंदर और कुछ रिहा किये सैनिक होगे
सारे शौर्य गड के लोग स्थापना दिवस के रंग में रंगें हैं
इधर बलवान सिंह के शयनगृह में खुन की होली होने की संभावना लगती हैं
राजमाता और शक्ती सिंह बलवान सिंह को कत्ल करने संभावना लगती हैं खैर देखते हैं आगे क्या होता है
अगले रोमांचकारी धमाकेदार और चुदाईदार अपडेट की प्रतिक्षा रहेगी जल्दी से दिजिएगा
 

Iron Man

Try and fail. But never give up trying
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