लोग एड़ियाँ रगड़ते रह जाते हैं कि जज साहब न्याय देंगे, लेकिन उसके नाम पर उनको बस चूरन ही मिलता है। मैंने खुद देखा है कि मेरे स्वर्गीय पिता जी कैसे न्याय की गुहार करते रहे उम्र भर (कोई तीस साल लड़े वो केस), लेकिन उनको मिला नहीं। उन्होंने मुझे उम्र भर रोके रखा कि मैं “अपने” तरीक़े से उचित न्याय ले सकूं। उनको अपने आख़िरी समय तक न्याय की आशा थी। लेकिन उनको न्याय नहीं ही मिलना था, सो नहीं ही मिला -- केवल तारीख़ें और चूरन! बस!
उनके जाने के बाद मैंने बस एक बार विपक्षी का टेंटुआ दबाया (असली हिंसा नहीं - बस बल और रसूख़ की हिंसा), और पूरा केस (जो हमेशा से ही झूठ और बेईमानी पर आधारित था) तितर बितर हो गया। पिता जी जीवित होते, तो उनको मेरी इस हरक़त पर दुःख होता, लेकिन क्या करें? जानवर मनुष्य की भाषा नहीं सीख सकता न! उससे उसी भाषा में बात करनी चाहिए, जो उसको समझ में आती है। इसलिए जिस तरह से पत्री ने जज की मैया एक करी है, वो उचित है। जब तक इनके पिछवाड़ों में आग नहीं लगेगी, आम लोगों को न्याय नहीं मिल सकता।