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Fantasy विष कन्या - (Completed)

Hero tera

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आगे हमने देखा की, रात्रि का समय है, बाहर बिन मौसम वर्षा हो रही है। महाराज राजगुरु के कक्ष में जाकर मृत्युंजय के विषय में पूछते है। वृषाली लावण्या को बताती है की उसकी मां की सखी कनकपुर के महाराज की बहन थी। अब आगे.....


छे दिन बीत गए किंतु अभी मृत्युंजय वापस महल नही आया। किस पड़ोसी राज्य में वो गया होगा? ईश्वर करें वो कुशल हो और जल्दी वापस आ जाए। वृषाली कक्ष में अकेली है, वो सोच में डूबी हुई हे तभी लावण्या और सारिका कक्ष में आती हे।


देखो वृषाली में तुम्हारे लिए कुछ लेकर आई हुं। लावण्या ने अपनी बंध मुठ्ठी वृषाली के सामने रखखी। क्या लाई हो लावण्या? लावण्या ने मुठ्ठी खोली और वृषाली खुश होगई। अरे चौसर की कुकी? कहांसे लेकर आई? मेरे पास हे चौसर क्या तुम्हे खेलना पसंद है वृषाली? हा बहुत, में और चारूलता बहुत खेला करती थी पर वो यहां नहीं हे तो मन नहीं करता। वृषाली के चहरे पर उदासी छा गई।


लावण्या ने सारिका की ओर देखा और इशारा किया, सखी छंद मुकरी खेलते है बहुत दिन हो गए। हां सारिका सत्य कहा, वो तो खेलोगी ना वृषाली। ठीक हे मुझे काव्य और छंद बहुत पसंद है। तो चलो फिर प्रारंभ करते है,। सारिका तुमसे प्रारंभ करते हैं।


*छंद कह मुकरी*
==================

सारिका ....शीत ऋतु में जब वो आये
दिखे न कुछ भी धुंध बनाये
बना फिरे जैसे बोहरा

वृषाली.... क्या सखी साजन
सारिका... नहि सखि कोहरा


लावण्या ...सौम्य रूप में हवन कराये
उग्र होत सब जगत जलाये
बनती साक्षी जुड़ते भाग

सारिका..... क्या सखि साजन
लावण्या..... नहि सखि आग


वृषाली.....शिवशंकर का वार पुराना
मस्तक ऊपर शशी सुहाना
मिली न उसको कोई भौम

लावण्या... क्या सखि साजन
वृषाली.... नहि सखि सोम


सारिका.....रवि किरणों से छन छन आती
शीत काल में अधिक लुभाती
प्रखर पुंज है इसका रूप

लावण्या, वृषाली... क्या सखि धूप
सारिका...... नही सखि साजन

वृषाली....गोकुल की गलियों में रमता
रास रचाता कभी न थमता
ज्यूं देखूं ज्यूं बढती तृष्णा
क्या सखि साजन
नहि सखि कृष्णा


लावण्या....बागों में वो गुन गुन गाता
कली कली पर जब मँडराता
एक जगह पर कहीं न ठहरा
क्या सखि साजन
नहि सखि भँवरा


सारिका...इक पखवाड़े बढता जाता
दूजे को फिर घटता जाता
इक दिन दिखता बहुत मंदा
क्या सखि साजन
नहि सखि चंदा


वृषाली....उमड़ घूमड़ कर बरसा पानी
धरती औढी चूनर धानी
खग मृग पशु सबका मन हर्षा
क्या सखि साजन
नहि सखि वर्षा


लावण्या....नील गगन में रहते सारे
टिम टिम करते रहते प्यारे
मां रजनी के राज दुलारे
क्या सखि साजन
नहि सखि तारे


सारिका......रंगो से खेले रंगोली
प्रेम प्यार की बोले बोली
करते सब जन हँसी ठिठोली
क्या सखि साजन
नहि सखि होली।


लावण्या और वृषाली चौंक गई ये किसने उत्तर दिया, उन्होंने पीछे मुडके देखा तो पीछे मृत्युंजय खड़ा था। लावण्या और वृषाली के हर्ष की कोई सीमा ना रही। मृत्युंजय तुम आ गए लावण्या दौड़कर मृत्युंजय के समीप गई। वृषाली को अपनी दशा पर क्रोध आया वो उदास हो गई।


कहां थे इतने दिन? पता हे हमने तुम्हे बहुत स्मरण किया है ना वृषाली,? लावण्या वहीं मृत्युंजय से वार्तालाप करने लगी। मुझे अंदर प्रवेश तो कर लेने दो लावण्या। मृत्युंजय वृषाली के समीप गया पीछे लावण्या भी गई। कैसी हो वृषाली? कुशल हुं, किंतु तुम कहां चले गए थे सूचना दिए बिना हम तुमसे रूष्ट हैं।


अरे कोई हमे जलपान केलिए भी पूछे। सब प्रश्नों का एक ही उत्तर हे जो बताकर गया था, लो ये औषधि वृषाली को पिलानी हे। सारिका ने मृत्युंजय को जल दिया।


वैसे तुम तीनो छंद और काव्य में पारंगत हो। अच्छा तो तुमने छुपकर हम सहेलियों की बाते सुनी? लावण्या ने रूष्ट होनेका अभिनय करते कहा। नही मेने कहां बाते सुनी मेने तो आपकी चतुर बुद्धि के दर्शन किए बालिका।मृत्युंजय ने हास्य के साथ कहा। अच्छा अब में अपने कक्ष में जाता हुं, बहुत लंबा प्रवास करके आया हुं।


ठीक हे तुम जाओ और विश्राम करो बाते तो होती ही रहेंगी वृषाली ने कहा। अरे ऐसे केसे कितने दिन पश्चात आए हो कुछ समय तो बैठो साथ फिर विश्राम कर लेना लावण्या ने मुंह बनाकर कहा।


लावण्या दो दिन से निरंतर अश्व लेकर प्रवास कर रहा हुं, स्नान भी नही किया ये न हो की मेरे प्रस्वेद की सुवास से तुम मूर्छित हो जाओ। ठीक हे ठीक हे जाओ और निवृत होकर मिलने आना।


मृत्युंजय मुड़ा और कक्ष के द्वार तक पहुंचा तभी वृषाली ने पीछे से आवाज दी, मृत्युंजय.. मृत्युंजय तुरंत पीछे मुड़ा। सुनो तुम स्नान करके निवृत हो जाओ फिर भोजन अवश्य कर लेना। वृषाली की आंखे स्नेह से छलक रही थी। अवश्य सखी,मृत्युंजय ने उत्तर दिया और कक्ष से चला गया।


रात्रि का प्रथम प्रहर प्रारंभ हो गया। मित्र में राजगुरु से भेंट करके आता हुं। भुजंगा से कहकर मृत्युंजय कक्ष से बाहर गया।


क्या में अंदर आजाउ राजगुरु, अरे मृत्युंजय तुम कब आए? आ जाओ भीतर। मध्याह्न में आ गया। राजगुरु और मृत्युंजय समीप बैठे।


तो क्या तुम्हारा कार्य सफल रहा। राजगुरु बहुत उत्सुक थे सब जान ने केलिए। जी राजगुरु किंतु अभी पूर्ण नही हुआ है। मृत्युंजय विस्तार से बताओ। कुछ समय और प्रतीक्षा कीजिए राजगुरु समय आने पर सब बताऊंगा। किंतु.... आपको मुझ पर विश्वास है ना? हां मृत्युंजय, तो बस थोड़ा समय दीजिए।
 

Maharaja ji

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आखिर कौन है राजमहल में हो रहे षड्यंत्र का सूत्रधार ?
आगले भाग की प्रतिक्षा मे
 
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Hero tera

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आगे हमने देखा की, मृत्युंजय को याद करके वृषाली चिंतित हे, तभी सारिका और लावण्या कक्ष में चौसर लेके आते हे। वृषाली को चौसर देखकर चारूलता की याद आती हे और वो उदास हो जाती हे। लावण्या कहती हे की आज हम छंद मुकरी खेलते हे। सब खेल रही हे तभी पीछे से मृत्युंजय उत्तर देता हे। उसे देखकर वृषाली और लावण्या खुस होते हैं। राजगुरु मृत्युंजय को कार्य के विषय में पूछते है तो वो कहता हे उचित समय आने पर सब बताऊंगा अब आगे........


समय बीत रहा हे। राजकुमारी अब धीरे धीरे अपने पैरों पर खड़ी होने लगीं हैं। जैसे नन्हा बालक धीरे धीरे डगमगाते चलता हे वैसे राजकुमारी भी चल रही हैं। महाराज बहुत प्रसन्न हे, किंतु राजगुरु और सेनापति वज्रबाहु राजमहल की सुरक्षा के विषय में चिंतित एवम कार्यरत हे की कहीं कोई अनहोनी घटना न घट जाए। मृत्युंजय इस कार्य में अपना पूरा योगदान दे रहा है।


लावण्या अपनी शैय्या में लेटी हुई है। उसका मुख देखकर ये ज्ञात होता है की वो बहुत उदास हैं। सारिका कबसे लावण्या को पास में बैठी निहार रही हे।


आखिर सारिका ने अपने मौन को विराम दिया और बोली, सखी इतनी व्यथित क्यों हो रही हो? लावण्या ने सारिका के सामने देखा, ये तुम पूछ रही हों सारिका अगर ये बात कोई अन्य व्यक्ति मुझसे पूछता तो फिर भी ठीक था। जब तुम सब जानती हो तो भी पूछ रही हो। लावण्या के अंदर जो पीड़ा हे वो उसके शब्दों में स्पष्ट दिखाई देती हे।


तुम्हे याद हैं लावण्या जब राजवैद्यजी ने तुम्हे राजमहल में राजकुमारी के उपचार हेतु आने केलिए कहा था तब तुम कितनी रूष्ट हुई थी। सारिका वो बात अलग थी, हा सखी उसी तरह आज राजव्वैध्यजी ने तुम्हे कार्य संपन्न होने पर वापस लौट ने केलिए कहा है। और वैसे भी हम यहां जिस प्रयोजन से आए हे वो भी तो पूर्ण करना हे। फिर भी सारिका यहां मेरे मित्र हे जिनके साथ मेरा ह्रदय जुड गया हैं।


किंतु मृत्युंजय भी तो अब अपने गांव लॉट जायेगा। उसका भी कार्य अब समाप्त होंगया हे फिर तुम यहां रहो के अपने अध्ययन स्थल पर क्या फर्क पड़ेगा।


लावण्या और सारिका बात कर रही है तभी एक सेविका कक्ष में प्रवेश करती हे, महाराज ने आपको तुरंत अपने कक्ष में उपस्थित होने का आदेश दिया हैं, बिना विलंब आप हमारे साथ चलिए।


महाराज ने आदेश दिया हैं? लावण्या और सारिका दोनों को आश्चर्य हुआ। किंतु इस समय, क्या कोई समस्या आ गई हे? वो हम नही जानते बस आप हमारे साथ चलिए।


सेविका आगे चल रही हे। लावण्या और सारिका शीघ्र ही महाराज के कक्ष में पहुंच गई। किंतु वहां जाकर उसने जो दृश्य देखा ये देखकर उसके होश उड़ गए, उसको अपने नेत्रों पर विश्वास नहीं हो रहा था वो कुछ क्षण केलिए ठहर गई और तेजिसे सामने खड़े एक व्यक्ति की ओर बढ़ी और उसके नजदीक जाते ही फिर ठहर गई।


कक्ष में महाराज, राजगुरु, मृत्युंजय, राजकुमारी वृषाली, सेनापति वज्रबाहु, और अन्य तीन व्यक्ति भी उपस्थित थे। वो तीनो व्यक्ति महाराज के समक्ष ऐसे खड़े थे जैसे उन्होंने कोई अपराध किया है और सजा सुनाने हेतु उन्हे यहां उपस्थित किया गया है।


सबने लावण्या की ओर देखा उन तीन व्यक्तियों ने।भी, सब चुप थे।


लावण्या क्यों रुक गई मिल लो अपने पिता से, अब रहस्य से पर्दा उठ गया हे, मृत्युंजय ने कहां। ये सुनते ही लावण्या के पैरो के नीचे से जमीन खिसक गई। उसके ह्रदय पर जेसे कोई बहुत बड़ा बोझ किसीने रख दिया हो ऐसा उसे लगा। वो अपनी जगह से दो कदम पीछे हो गई। वो मृत्युंजय के सामने देख रही थी किंतु उसकी आंख से आंख नहीं मिला पा रही थी। उसकी आंख से आंसू निकलें और नीचे गिर गए।


सब शांत था, लेकिन ये शांति कोई बड़े चक्रवात का अंदेशा दे रही थी।


महाराज कनकपुर तो आपका आश्रित राज्य है, आप हमारे महाराज है तो हम भला आपके और आपके राज्य के विरुद्ध षडयंत्र क्यूं करेंगे? लावण्या के बड़े पिताजी और कनकपुर के महाराज ने कहा। यही तो हम आपसे जानना चाहते है भानुप्रताप की हमने या हमारे राज्य ने कभी कोई भी ऐसा कार्य नहीं किया जिससे आपके मान, सम्मान, आपके कुटुंब, राज्य या आपके।धन को हानि पहुंचे फिर भी आपने हमारे विरुद्ध ये सब क्यों किया?
षडयंत्र? महाराज और बड़े पिताजी ये किस षडयंत्र के विषय में बात कर रहे हैं। सच छुपाना कोई षडयंत्र तो नही होता। लावण्या मन ही मन स्वयम से कहे रही हे।


भानुप्रताप, वीर युद्धभूमि में युद्ध करते हैं यूं पीठ पीछे षडयंत्र नही। आपसे हमे ऐसी कायरता की अपेक्षा नहीं थी। महाराज आप क्या कह रहे हैं हमारी कुछ समझ में नहीं आ रहा हे।


महाराज इंद्रवर्मा ओर कनकपुर के राजा भानुप्रताप वार्तालाप कर रहे हैं तभी मृत्युंजय आसन से उठा और मध्य में बोला, क्षमा कीजिए महाराज आप दोनो के मध्य बोल रहा हूं किंतु क्यों ना ये सवाल उस व्यक्ति से ही पूछा जाए जिसने ये पूरा षडयंत्र रचा हे।


मृत्युंजय की बात सुनकर सब आश्चर्यचकित हो गए। तुम कहेना क्या चाहते हो मृत्युंजय जरा विस्तार।से कहो, राजगुरु ने कहा। विस्तार से में क्या कह सकता हुं जो भी कहेंना है वो अब कनकपुर के महाराज भानुप्रताप के अनुज तेजप्रताप ही कहेंगे।


तेजप्रताप कहेंगे? मृत्युंजय पहेलियां मत बुझाओ कुछ समझ में आए ऐसा कहो। राजगुरु ने स्पष्ट शब्दों में मृत्युंजय को आज्ञा देते हुए कहा। मृत्युंजय ठीक कहे रहा हे राजगुरु जो कहेंगे वो तेजप्रताप ही कहेंगे। सेनापति वज्रबाहु ने भी यही कहा।


पिताजी क्या कहेंगे? ओर ये किस षडयंत्र के विषय में बात कर रहे हे। लावण्या का ह्रदय तेज गति से धड़कने लगा हे।


अवश्य ही आपसे किसी ने असत्य कहा हे महाराज इंद्रवर्मा हमारा अनुज ऐसा कोई कार्य नहीं कर सकता जिससे हमे ग्लानि हो और हमारा शीश झुक जाए। ऐसा हे तो फिर आपही स्वयम अपने भ्राता से पूछ क्यों नही लेते की ऐसी क्या विवशता थी जिसने इन्हे षड्यंत्रकारी बना दिया।


हमारा अनुज षड्यंत्रकारी? भानुप्रताप की आंखे फटी की फटी रहे गई सेनापति वज्रबाहु की ये बात सुनकर। हमारे पिताजी षड्यंत्रकारी नही नही ऐसा कदापि नही हो सकता, लावण्या मध्य ही चीखकर बोल पड़ी।


कुमारी लावण्या इस समय दो राज्यों के राजाओं के मध्य बात हो रही हैं आप बीच में न बोलें यहीं उचित होगा। राजगुरु ने थोड़ा रूष्ट होकर आज्ञा दी। क्षमा करे राजगुरु किंतु यहां हमारे पिताजी पर कलंक लगाया जा रहा हे, मेरे पिताजी वीर योद्धा हे वे षड्यंत्रकारी कभी नहीं हो सकते, कभी नही।


लावण्या तुमने सुना नही राजगुरु ने तुम्हे का आज्ञा दी मृत्युंजय ने कठिन शब्दों में लावण्या की ओर देखते हुए कहा। मृत्युंजय तुम भी? तुम तो हमारे मित्र हो फिर भी,? हम अपने पिता पर कोई भी कलंक लगते नाही देख सकते हैं ओर नाही सुन सकते हैं समझे तुम। लावण्या उग्र हो गई।


हां हुं में षड्यंत्रकारी, में ये स्वीकार करता हुं के ये सारा षडयंत्र मेने ही रचा है। तेजप्रताप ने ऊंचे स्वर में कहां और लावण्या चुप हो गई, उसके ह्रदय पर जैसे घात हो गया। भानुप्रताप का शरीर सुन्न हो गया। महाराज इंद्रवर्मा और राजगुरु अपने आसन से उठखड़े हो गए।


आपने रचा षडयंत्र तेजप्रताप हमारे विरुद्ध? किंतु क्यूं, आपसे तो हमारी परस्पर ना कोई स्पर्धा हे ना कोई शत्रुता फिर आपने ऐसा जघन्य अपराध क्यूं किया। महाराज इंद्रवर्मा क्रोधित हो गए, उनका हाथ अपनी कमर पर लटकती म्यान पर गया और उन्हों ने तलवार निकाली। सब चिंतित हो गए , महाराज अपने आप पर संयम रखिए और विवेक से काम लीजिए, राजगुरु ने कहा।


संयम केसे रख्खू राजगुरु अगर ये वीरो की तरह वार करते तो मुझे गर्व होता किंतु उसने तो कायर के।भांति पीठ पीछे वार किया, और चोंट पहुंचाई भी तो किसे? हमारी बेटी राजकुमारी वृषाली को। नही गुरुजी ये दंड के पात्र हैं हम इस समय ही उसका शीश धड़ से अलग कर देंगे।


षडयंत्र हमारे विरुद्ध? वृषाली ये सुनकर चौंक गई।हमारे पिताजी ने वृषाली को चोट पहुंचाई आखिर ये किस विषय में बात हो रही हे। लावण्या भी चौंक गई थी उसके मस्तिष्क ने जैसे कार्य करना ही बंध कर दिया था राजगुरु ने जैसे तैसे महाराज को शांत किया।


भानुप्रताप अपने अनुज तेजप्रताप के समीप गए और जोर से एक चाटे की आवाज कक्ष में गूंज गई। ये किस षडयंत्र की बात हो रही हैं तुमने क्या षडयंत्र किया हैं तेजपाल बोलो, ऐसे पत्थर की मूरत बनकर क्यों खड़े हो बोलो तेजपाल बोलो नही तो आज हमारे हाथों से कुछ अनर्थ हो जायेगा।


भानुप्रताप, तेजपाल के दोनों कंधो को जक्जोड़ कर पूछ रहे हैं। हा मेने ही रचा है षडयंत्र मैने ही। क्या किया है तुमने और क्यों किया है तेजपाल बोलो....


भानुप्रताप द्वारा तेजपाल से पूछे गए प्रश्न का उत्तर जान ने केलिए सब उत्सुक हे।
 

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आगे हमने देखा की,राजकुमारी अब ठीक होने लगी है। एक दिन लावण्या को महाराज के कक्ष में उपस्थित होने का संदेश मिलता है। जब को वहां जाति हे तो उसके पिता, बड़े पिताजी और मंजले पिता वहां खड़े है। सबको पता चल गया है की लावण्या कनकपुर के राजा के छोटे भाई की पुत्री हे। सब लावण्या के पिताजी से पूछ रहे हैं की, उन्हों ने षडयंत्र क्यूं रचा। लावण्या को कुछ समझ नही आ रहा है। अब आगे........


तेजप्रताप की बात सुनकर कक्ष में उपस्थित सबके पैरो के नीचे से जैसे जमीन खिसक गई। महाराज इंद्रवर्मा क्रोधित होंगए। उन्होंने अपने म्यान से तलवार खिंचली, चालबाज, षड्यंत्रकारी तेजपाल आज हम तुम्हारा शिर छेद कर देंगे। तुमने हमारे और हमारे राज्य के विरुद्ध षडयंत्र रचा । आज हम तुम्हे जीवित नहीं छोड़ेंगे।


मृत्युंजय बीच में आ गया और महाराज का हाथ पकड़कर उन्हें समझाने का प्रयत्न करने लगा किंतु महाराज के क्रोध की अग्नि शांत ही नही हो रही हे। सेनापति वज्रबाहु भी बात को संभालने का प्रयत्न करने लगे, किंतु सबके प्रयत्न विफल होते देख राजगुरु आगे आए उन्हों ने महाराज को आज्ञा दी के अपनी तलवार को म्यान में रखें। महाराज ने अपने मन को मारकर अपनी तलवार को म्यान में रक्खा। आप एक राजा हे आपको ऐसा वर्तन शोभा नही देता महाराज। राजगुरु ने समझाकर उन्हे अपने आसन पर बिठाया।


लावण्या ये सब देखकर टूट गई उसे तो समझ ही नही आ रहा की उसके पिता ने आखिर किया क्या है और ये किस षडयंत्र के विषय में बात हो रही हे। नौबत ऐसी आ गई हैं की महाराज उसके पिता का वध करनेका प्रयास कर रहे हैं।


जब तुम्हारा और हमारा आपस में कोई झगड़ा या युद्ध नही हे तो तुमने कायर की भांति हमारे पीठ पीछे वार क्यों किया तेजप्रताप हमे कारण बताओ। महाराज ने क्रोधित स्वर में कहा।


क्यूं की आप मेरी बहन दीपशिखा के हत्यारे हैं। तेजपाल ने भी क्रोधित होंकर खूंखार स्वर में उत्तर दिया। दीपशिखा के हत्यारे और हम? कक्ष में उपस्थित सबके आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही। जब हमारी बहन की हत्या ही नही हुई तो हत्यारे महाराज इंद्रवर्मा कैसे हो गए तेजपाल? लगता हे तुम्हारे मस्तिष्कका संतुलन डगमगा गया है। हमारी बहन की तो हत्या ही नही हुई। भानुप्रताप ने तेजप्रताप से क्रोधित होकर पूछा।


हुई थी हमारी बहन दीपशिखा की हत्या हुई थी और हत्यारा है ये इंद्रवर्मा। तेजप्रताप तुम होश में तो हो क्या बोल रहे हो तुम्हे कुछ ज्ञात हे? जब तक हमे ज्ञात हे तुम्हारी बहन की मृत्यु तो बीमारी से हुई थी। राजगुरु बोलें।


नही ये अर्धसत्य है राजगुरु सौमित्र। मेरी बहन की असमय मृत्यु का कारण ये इंद्रवर्मा हैं। तुम ये क्या बोल रहे हो अनुज । में सत्य कह रहा हुं बड़े भैया।


यूं पहेलियां मत बुझाओ तेजप्रताप जो कहना हैं साफ साफ कहो, राजगुरु ने क्रोधित होकर कहा। आपको जानना हे तो सुनिए,


हमारी बहन दीपशिखा एक होनहार कन्या थी। अस्त्र, शस्त्र, ज्ञान, वेद सबकी शिक्षा दीक्षा उसने प्राप्त की थी। गुरुकुल में वो इंद्रवर्मा की रानी वसुंधरा के साथ ही अभ्यास करती थी। दोनों बहुत अच्छी सहेलियां थी, दोनों अस्त्र, शस्त्र, वेदपाठ और व्यवहार ज्ञान में समान कुशाग्र थी। जब उनकी शिक्षा दीक्षा पूर्ण हुई तो आचार्य ने उन दोनो को सूरजगढ़ में हो रही सबसे बड़ी प्रतियोगिता में सम्मेलित होने केलिए कहा।


आचार्य को अपनी दोनो शिष्या की प्रतिभा पर बहुत गर्व था। दोनो सूरजगढ़ में होने वाली प्रतियोगिता में सम्मिलित होने केलिए गई। वहां सभी राज्यों से राजकुमार ओर राजकुमारियां प्रतियोगिता में सम्मिलित होने केलिए आई हुई थी। ये इंद्रवर्मा भी वहां उपस्थित था।


महाराज इंद्रवर्मा कहो, महाराज का नाम सम्मान से लो तेजप्रताप ये मत भूलो की ये तुम्हारे राजा हे और तुम हमारे आश्रित राज्य के राजा के भाई। राजगुरु ने क्रोधित होकर कहा।


नही में अपनी बहन के हत्यारे को कभी सम्मान से नहीं बुला सकता। तेजप्रताप ने उत्तर दिया। राजगुरु रहने दीजिए एक षड्यंत्रकारी से मुझे किसी सम्मान की आवश्यकता नहीं है। आगे बताओ तेजप्रताप महाराज इंद्रवर्मा ने आदेश दीया।


उस प्रतियोगिता में राजकन्याओ में राजकुमारी वसुंधरा प्रथमविजई हुई थी और हमारी बहन द्वितीय। राजकुमारो में इंद्रवर्मा प्रथम विजेता हुए थे। सभी कुछ दिन साथ रहे और तीनो में मित्रता हो गई थी। धीरे धीरे हमारी बहन दीपशिखा इंद्रवर्मा को प्रेम करने लगी थी। जब वो अपनी शिक्षा पूर्ण करके राजमहल वापस लौटी तो हमारे पिता महाराज ने हमारी बहन की शादी का प्रस्ताव विजयगढ़ के महाराज के सामने रक्खा किंतु इस इंद्रवर्मा ने वो प्रस्ताव ठुकरा दिया और उस वसुंधरा से विवाह कर लिया।
हमारी बहन ये बात को कभी स्वीकार नहीं कर पाई। उसका मन संसार से उठ गया, वो राजमहल छोड़कर मंदिर में जाकर रहने लगी। हमारी बहन जो हमेशा सोलह श्रृंगार में सुंदर और स्वरूपवान दिखती थी वो सफेद वस्त्रों में कुरूपता का जीवन व्यापन करने लगी।


ये बात हमे तो ज्ञात नही हे तेजप्रताप, वो इस वजह से भैया की आप सब हमसे आयु में बहुत बड़े थे और आप सब राज्य के कार्य में व्यस्त रहते थे किंतु में और दीपशिखा दोनो जुड़वा थे और हम दोनो मित्र समान थे वो अपने मन की सभी बातें हमसे किया करती थी और किसी से नहीं। मुझे हमारी बहन से आप सबसे कहीं अधिक प्रेम था।


कक्ष में उपस्थित सभी का मन आगे की बात जान ने केलिए बहुत उत्सुक हो रहा था।
 

Hero tera

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आगे हमने देखा की, तेजप्रताप स्वीकार करता हे की, उसने महाराज इंद्रवर्मा के विरुद्ध षडयंत्र रचा हे। सबके पूछने पर वो कारण बताता है की, उसकी बहन दीपशिखा की वजह से। दीपशिखा और वसुंधरा एक प्रतियोगिता में जाति हैं, वहां महाराज इंद्रवर्मा भी उपस्थित थे। दीपशिखा इंद्रवर्मा से प्रेम करने लगती है किंतु इंद्रवर्मा उसकी सहेली वसुंधरा से विवाह करते है। अब आगे.......


ऐसे ही दिन बीतते गए और दिन, महीने और साल हो गए। कई साल बीत गए किंतु हमारी बहन उसी संन्यासिन अवस्था में जी रही थी। फिर एक दिन अचानक सूचना मिली की, वसुंधरा अपनी पुत्री को जन्म देके इस दुनिया से चल बसी। उसका स्वर्गवास हो गया है। सब ने दीपशिखा से यूं जीवन व्यापन का कारण पूछा था किंतु उसने किसी को नहीं बताया था। यहां तक वसुंधरा को भी नही। केवल मुझे ही ज्ञात था।


वसुंधरा के मृत्यु के विषय में जब दीपशिखा को ज्ञात हुआ तो उसे बहुत पीड़ा हुई थी। एक बार पुनः हमारे पिताजी ने दोनो राज्यों के संबंध को ध्यान में रखते दीपशिखा को बहुत मनाकर यहां विवाह का प्रस्ताव भेजा किंतु पुनः इस इंद्रवर्मा ने ये कहकर प्रस्ताव ठुकरा दिया की उसने ये प्रण लिया है की वो आजीवन एक ही विवाह करेंगा


एक बार पुनः हमारी बहन का ह्रदय छलनी हो गया। अब वो अपने जीवन के प्रति उदासीन हो गई थी। कुछ ही समय में वो अस्वस्थ रहने लगी और असमय ही वो इस धरा को छोड़कर हम सबको छोड़कर चलीं गई। हमारी बहन दीपशिखा के मृत्यु का कारण ये इंद्रवर्मा है।


कक्ष में उपस्थित सबका ह्रदय पीड़ा से भर गया। महाराज इंद्रवर्मा को समझ नही आ रहा की वो क्या कहे, क्या करे,? उनका मन गल्याणी से भर गया। लावण्या और वृषाली एक दूसरे के सामने देखकर आंखो ही आंखो में जैसे कह रही थी की, कुछ दिवस पूर्व वो दोनो अपनी मां और दीपशिखा की मित्रता के विषय में गर्व से बात कर रही थी उसका एक पहलु ये भी हो सकता है। दोनो के मन की पीड़ा उनकी आंखो में सष्ट नजर आ रही थी।


हमे तो इस विषय में कुछ ज्ञात ही नही था अनुज। कैसे होगा ज्ञात आपको भैया, दीपशिखा ने इस विषय में कभी किसी से एक शब्द नही कहा। पहले लज्जा के कारण और विवाह प्रस्ताव ठुकराने के बाद इस वजह से की कहीं उसकी वजह से दोनो राज्योमे शत्रुता ना हो जाए। किंतु उसने मुझे अपने ह्रदय की व्यथा बताई थी। उसने तो विशाल ह्रदय करके इस इंद्रवर्मा ओर वसुंधरा को क्षमा कर दिया किंतु में इन दोनो को कभी क्षमा नहीं कर पाया।


मेरे मनमे इन दोनो के प्रति बहुत क्रोध था किंतु जब हमारी बहन का स्वर्गवास हो गया तो ये क्रोध प्रेतिशोध की प्रचंड ज्वाला में बदल गया। तेजप्रताप महाराज के सामने देखकर बोलने लगा। उसकी बड़ी बड़ी आंखों में लहू उतर आया, वो क्रोध से ताम्र वर्ण हो गया।


वर्षो तक मेरे मन में एक ही विचार पलता रहा। इस इंद्रवर्मा से प्रतिशोध लेनेका। तेजप्राताप ने महाराज के सामने क्रोध से उंगली निर्देश करते हुए कहा। में इंद्रवर्मा को पीड़ा में घुट घुटकर मृत्यु को प्राप्त करते देखना चाहता था ठीक उसी तरह जैसे हमारी बहन मृत्यु की गोद में सो गई थी।


में अपनी पुत्री लावण्या से बहुत प्रेम करता हुं, दुनिया में सबसे अधिक। मुझे अगर मेरे प्राणों से भी कोई अधिक प्रिय है तो वो हे मेरी पुत्री लावण्या।


एक दिन लावण्या अपनी सखियों के साथ वन विहार करने हेतु गई। संध्या हो गई किंतु लावण्या वन से वापस नहीं लौटी तो मेरा कलेजा मुंह को आगया। पुत्री की चिंता ने मुझे घेर लिया और में जैसे ऊर्जाहीन हो गया था। जब रात्रि को लावण्या राजमहल वापस लौटी तो मेरी जान में जान आई।


बस उस रात्रि को मैने ये निश्चय कर लिया की इंद्रवर्मा के जीवन में एक ही व्यक्ति है उसकी पुत्री जोंकि उसे प्राणों से अधिक प्यारी होगी अगर में कुछ ऐसा करु की उसकी पुत्री को पीड़ा हो तो ये देखकर इंद्रवर्मा का जीवन भी पीड़ा से भर जाएगा और वोभी ऊर्जाहीन, चेतनाहीन हो जायेगा।


जब उसे यह प्रतीत होगा की इतने बड़े राज्य का महाराज होकर भी वो अपनी पुत्री केलिए कुछ नही कर सकता तो वो असहाय होकर घुट घुटकर मरेगा और मेने इंद्रवर्मा के विरुद्ध षडयंत्र रचा।


ये तुमने क्या किया अनुज, तुमने कैसा षडयंत्र रचा बताओ तेजप्रताप। भानुप्रताप क्रोधित होकर पूछ रहे हैं। तेजप्रताप चुप हैं। सब लोगो से ये चुप्पी सेहन नही हो रही। उपस्थित सब ये जान ने के लिए आतुर है की आखिर तेजपाल ने क्या षडयंत्र रचा? और कैसे।
मैने इस राजमहल मैं एक विषकन्या को भेजा और इंद्रवर्मा की इस पुत्री को जहर दे दिया। तेजपाल ने वृषाली के सामने निर्देश करते हुए कहा। ये बात सुनकर सबके कान फट गए। हमारी पुत्री को विष दिया तुमने, कायर, निर्लज तुम्हे इस कायरतापूर्ण कार्य करते हुए तनिक भी लज्जा नहीं आई? महाराज के क्रोध की कोई सीमा नहीं रही।


आगे बताओ तेजपाल, पूरी बात बताओ। राजगुरुने क्रोधित होकर कहा। मैने तुम्हारे ही राज्य के एक सैनिक को अपने साथ मिला लिया और पूरा षडयंत्र रचा।


एक बार जब तुम्हारी पुत्री और उसकी सखी वाटिका में विहार कर रही थी तो उस सैनिक ने हमारे बताए अनुसार बांस की एक छोटी सी नली में विशेली छोटीसी सुई रखदी और फूंक मार कर वृषाली के गले में वो सुई भोंकदी। तुम्हारी पुत्री को कुछ समझ में आए उससे पहले ही वो मूर्छित हो गई। फिर वो कभी मूर्छा से बाहर ही न आए इस लिए उसे हर रोज थोड़ा थोड़ा विष देने का कार्य मेरी विष कन्या ने किया।


सब कुछ निर्धारित योजना से हो रहा था तुम्हारी पुत्री की पीड़ा में और व्यथा में तुम भी उसी तरह तिल तिल कर मर रहे थे जैसे में अपनी बहन की पीड़ा की अग्नि में जला था।


हमे लगा की वाटिका में वृषाली के साथ उसकी सखी चारूलता भी उपस्थित थी तो हो सकता है वो कभी हमारे लिए संकट बन सकती हे।


एक दिन वो जब राजमहल से अपने गृह की ओर जा रही थी तो हमने उसका अपहरण करवा लिया और उसे भी सदा केलिए मृत्यु की नींद सुला दिया। बिचारी वो तो बेमतलब की मौत मर गई। तेजपाल ने अट्टहास्य करते हुए कहा।
 

Hero tera

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आगे हमने देखा की, तेजप्रताप बताता हे की केसे उसने इस राज्य के सैनिक को अपने साथ षडयंत्र में सम्मिलित करके राजकुमारी को विषैली सुई से मूर्छित कर दिया और फिर चारूलता का अपहरण करके उसकी भी हत्या करदी। अब आगे.....


तेजपाल ने जैसे ही कहा की केसे उसने अपहरण करके चारूलता की हत्या करदी। ये बात सुनते ही सेनापति वज्रबाहु अपना आपा खो बैठे। वो क्रोधित होकर अपनी तलवार लिए तेजपाल के समीप तेजगति से गए। षड्यंत्रकारी तेजपाल विधाता ने तुम्हारी मृत्यु मेरे हाथों लिखी हैं। आज ईश्वर भी तुम्हारी रक्षा मुझसे नही कर सकते। वज्रबाहु ने अपनी तलवार तेजपाल की गर्दन पर चलाने केलिए जेसेही उठाई, मृत्युंजय ने बिचमे आकर रोक लिया।


मृत्युंजय तुम मध्य में मत आओ, आज मैं इस अधर्मी, पापी, कायर तेजपाल का वध कर दूंगा। इसने मेरी दोनो पुत्रियों को हानि पहुंचाई है, मेरी निर्दोष पुत्री का जीवन छीन लिया? ऐसे दुष्ट को इस धरा पर जीवित रहनेका कोई अधिकार नही हे। मुझे छोड़ दो मृत्युंजय।


सेनापति वज्रबाहु शक्तिशाली योद्धा है और उपरसे क्रोधित उन्हे संभाल पाना बहुत कठिन हे। मृत्युंजय के हाथ में तलवार से चोट लग गई उसमे से लहू बहने लगा। उसने तलवार को छोड़ सेनापति वज्रबाहु को अपने दोनों हाथोसे मजबूती से अपनी बहुपाश में जकड़ लिया।


राजगुरु तेजगति से वहां आए। सेनापति वज्रबाहु ये हमारी आज्ञा है की तुम अपनी तलवार हमे देदो। राजगुरु एक वीर योद्धा जब अपनी तलवार उठा लेता है तो फिर म्यान में नही रखता मुझे क्षमा कीजिए किंतु में आज इस अधर्मी का वध कर दूंगा।


सेनापति ये युद्धभूमि नही हे जो उठी हुई तलवार म्यान में वापस नही जा सकती। विवेक बुद्धि से कार्य करो, शांत हो जाओ और तलवार म्यान में रखदो। अभी अगर तुमने इसकी मृत्यु के घाट उतार दिया तो हमे पूरे षडयंत्र के विषय में पता नही चलेगा। इसलिए हम तुम्हे ये आदेश करते है की, क्रोध त्यागकर अपने आसन पर बैठ जाओ।


सेनापति वज्रबाहु ने उठाया हुआ हाथ नीचे किया, मृत्युंजय ने उन्हें अपने बाहु से मुक्त किया। जैसे ही मृत्युंजय ने उन्हें छोड़ा वो असहाय होकर धरती पर गीर गए। उनकी आंखे अश्रुओ से छलक गई। वो विलाप करने लगे। मार दिया, मेरी पुत्री को मार दिया? उसने तो कभी किसका अहित नहीं किया फिर क्यूं उसके साथ ऐसा व्यवहार, हे विधाता ये कैसा अन्याय है तेरा एक पिता से उसके जिगर का टुकड़ा छीन लिया? वज्रबाहु ऊपर की ओर देखते हुए बोले।


सेनापति वज्रबाहु को पुत्री विरह में यूं दुखी देख सबकी आंखे छलक गई। राजकुमारी वृषाली अपने आसन से उठ दौड़कर आकर वज्रबाहु के गले लग गई और विलाप करने लगी। दोनो को विलाप करता हुआ देखकर उपस्थित किसी व्यक्ति में साहस नहीं था की उन्हे सांत्वना दे। मृत्युंजय वहीं पास में खड़ा था और अपने आप को विवश प्रतीत कर रहाथा।


सेनापति वज्रबाहु आप एक वीर पुरुष हे आपको यु विलाप करना सोभा नही देता। आप नित्य ही महाराज को विवेक, ओर धीरज से कार्य करने का परामर्श देते है ओर आज आप स्वयंम ही ऐसे विलाप कर रहे हैं? मृत्युंजय ने अपने शब्दों से सेनापति वज्रबाहु में साहस का संचार किया। वो उठे और अपनी व्यथा को अंदर ही छिपा कर अपने आसन पर विराज गए।


तेजप्रयाप अब तुम्हारी भलाई इसी में हे की अब तुम अपनी उस विष कन्या और षडयंत्र के विषयमे बतादो अन्यथा अब हम तुम्हे जीवित नहीं छोड़ेंगे। अब हमे तुम्हारा शीश धड़ से अलग करने से कोई नहीं रोक पायेगा। महाराज ने आदेश किया।


तेजप्रताप चुप खड़ा है और वो अपनी मूछ में मुस्कुरा रहा है। महाराज इंद्रवर्मा के बार बार पूछने पर उसने अट्ट हास्य करते हुए अपने दोनो हाथ ऊपर उठाए और बोला,


में तुम्हारे सामने ही हुं, लो करदो मेरा शीश धड़ से अलग, रुके हो क्यूं इंद्रवर्मा करदो मेरा वध। फिर जोर जोर से अट्टहास करने लगा। महाराज इंद्रवर्मा ओर सेनापति वज्रबाहु दोनो का हाथ अपनी तलवार की मूठ पर भीस रहा था किंतु वो दोनो जब तक पूरे षडयंत्र के विषय में जान न ले उसको मार नही सकते थे। दोनो अपने आप को विवश पा रहे थे।
कुछ समय ऐसा ही चलता रहा। अब मृत्युंजय से यह सेहन नही हुआ वो उठा और बोला में बताता हूं की वो विष कन्या कोन है। सब को बहुत आश्चर्य हुआ, सब मृत्युंजय की ओर जिज्ञासा से देख रहे थे। सबके मन में कई प्रश्न उठने लगे।


मृत्युंजय तुम बताओगे कैसे? राजगुरु सौमित्र अपने आपको यह प्रश्न पूछने से रोक नही पाए। मृत्युंजय ने राजगुरु की ओर देखा और बिना कुछ कहे अपने आसन को छोड़ चलने लगा। सबकी दृष्टि मृत्युंजय की ओर टिकी हुई थी। वो उसी कक्ष के मुख्य द्वार के पास एक कोने में गया जहां अंधेरा था। वो पर्दो को हटाते हुए किसका हाथ पकड़कर सबके सामने चला आ रहा था अंधेरा बहुत था दूर से किसी को कुछ स्पष्ट दिख नही रहा था।


मृत्युंजय जैसे जैसे सबके समीप आता गया धुंधली सी आकृति अब स्पष्ट दिखने लगी। सबके होश उड़ गए, सब को समझ नही आ रहा था की ये हो क्या रहा हे।


मृत्युंजय जिसका हाथ पकड़कर सबके सामने लेके आ रहा था उसे सबके मध्य खड़ा करके बोला ये रही वो विष कन्या। सबको अपनी आंख और कान पर विश्वास नहीं हुआ। तुम क्या कह रहे हो मृत्युंजय? मैने आप सबसे जो कहा वो सत प्रतिशत सत्य है महाराज, क्यों तेजप्रताप सिंघ में सत्य कह रहा हुं ना? तेजप्रताप का मुंह उतर गया वो अपना मुंह धरती की ओर झुकाकर नजरे चुराने लगा।


अब सबको सत्य तुम बताओगी या में बताऊं सारिका? ये सुनकर लावण्या के ह्रदय पर फिर से एक तेज घात हुआ। राजकुमारी वृषाली को भी ये सुनकर आघात लगा।


सारिका चुप चाप सर झुकाए खड़ी हे। उसकी आंख।से आंसू जमीन पर गिर रहे हैं।

अब उठेगा षडयंत्र से पर्दा। कैसे रचा गया पूरा षडयंत्र और मृत्युंजय को इसके विषय में केसे पता चला जान ने केलिए पढ़ते रहिए आगे की कहानी।
 
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Thakur

असला हम भी रखते है पहलवान 😼
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Bohot achi story he , aage ke bhaag ka intezaar he
 

Maharaja ji

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सारिका किस दबाव के कारण तेजप्रताप द्वारा रचित षड्यंत्र में शामिल होना पड़ा
अगले भाग की प्रतीक्षा है
 
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