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Fantasy विष कन्या - (Completed)

Hero tera

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महाराज अगर आप ऐसे खाना पीना छोड़कर विशादमे ही डूबे रहेंगे तो कैसे चलेगा। में आपकी हालत समज रहा हूं पर आपका सर्व प्रथम दाइत्व आपके राज्य के प्रति और आपकी प्रजाके प्रति है, इस लिए शास्त्रों में कहा गया है कि एक राजाका विलाप या शोक में डूब जाना अनुचित हे। क्यों की प्रजा केलिए राजा उनके पिता, पालनहार, और भगवान के समान होता है। अतः आपका इस तरह विशाद मे डूब कर अपने रज्यके प्रति कर्तव्यों से विमुख हो जाना आप जैसे प्रजा वत्सल रजाको शोभा नहीं देता। राजगुरु ने शांति से अपनी बात को समझाने का प्रयास किया।


में भी उनको यही समझाने का प्रयास कर रहा हूं राजगुरु। पर छोटा मुंह बड़ी बात शोभा नहीं देती इस लिए मैने आपको यहां आने का कष्ट दिया। में उसके लिए क्षमा चाहता हूं।अपने आसन से उठकर महामंत्री राजगुरु के समीप आए और हाथ जोड़कर बोले।


महाराज अपने हाथकी सहायता से शिश झुकाए बैठे है। गहरा शोक उनको घेरे हुए है। राजगुरु की बात सुनकर ऊपर देखते हुए बोले, में आपकी बात समझ रहा हूं पर क्या करू गुरुजी राजा होने के साथ में एक बाप भी हूं वो भी एक बेटिका। भगवान ने सालो तक हमें संतान सुखसे वंचित रखा, कितनी मन्नते, कितने पूजा पाठ, दान पुण्य, हवन, यज्ञ, क्या क्या नहीं किया तब जाके कहीं हमारे घर राजकुमारी वृषाली की नन्नी किलकारियां गूंजी और हमारा राजमहल खुशियों से भर गया। और आज......वो आगे बोल नहीं पाए, उनका गला भर आया और आंखें आंसुओ से भर गई।


ईश्वर सब ठीक कर देगा। हर इनसान की जिंदगी में कठिन समय आता है, और तब ही उसके विवेक और धैर्य की परीक्षा होती है। आपकी भी हो रही है और मुझे भरोसा है आप इसमें जरूर उतिर्न होंगे। आप महान विरो के वंशज है। गुरुजी के शब्दों में दृढ़ता थी। आपने राजा होने के नाते इस से भी कठिन युद्ध का सामना निडरता से किया है। ये कठिन वक्त भी गुजर जाएगा राजगुरु बोले। गुरुजी कोई तो उपाय होगा, आप तो इतने बड़े विद्वान है आप कुछ कीजिए, कोई पूजा पाठ, यज्ञ कुछ तो.... बस राजकुमारी वृषाली को ठीक कर दीजिए। महाराज राजगुरु के पैर में पड़कर आजिज़ी करने लगते है। राजगुरु उनकी बाहे थामकर उनको अपने पास बैठाते हे।


देखिए महाराज हमारे राजवैध पर भरोसा रखिए। संसार के अच्छे वैद में से एक है हमारे राजवैध, वो प्रयास कर रहे है और मुझे उनपर पूरा भरोसा है वो जरूर हमारी राजकुमारी को जल्द से जल्द ठीक कर देंगे। आप भी इश्वरसे प्राथना कीजिए के वो अपने काम में जल्द से जल्द सफल हो जाए।


महाराज और गुरुजीका वार्तालाप चल रहा है तभी बाहर से एक दरवान कक्ष में आने की अनुमति लेता है और अंदर आके कहेता है, क्षमा कीजिए महाराज लेकिन बाहर कोई आया है जो कह रहा है कि में राजकुमारी को ठीक कर सकता हूं और इसी उद्देश्य से यहां आया हूं जाके अपने महाराज को ये बात बताओ।


दरबान की बात सुनते ही महाराज की आंखे में चमक आ गई। कोन है वो, कहा से आया है? उसे तुरंत यहां उपस्थित होने को कहा जाए। जैसी आपकी आज्ञा महाराज कहेकर दरबान चला गया पर महाराज की आंखे कक्षके दरवाजे पर ही ठहेर गई। राजगुरु महाराज की ये उत्सुकता देख रहे थे। महाराज अपने आसन से उठकर कक्षमे इधर उधर चलने लगे। उनके लिए एक एक क्षण मानो जैसे एक एक सालके जैसा है। महाराज को इस दशामे देखकर गुरूजिसे अब रहा नहीं गया। उन्होंने कहा महाराज आप अपने आसनपे विराजे दरबान उसे लेकर आ ही रहा होगा।


जी गुरुजी पर पता नहीं क्यों लेकिन दिलमे एक आस जगी है कि शायद ये आनेवाला अजनबी राजकुमारी को ठीक कर देगा। महाराज की आंखों में आशा की ज्योत दिखाई दे रही है। भगवान करे एसा ही हो महाराज पर आप इतने व्याकुल होकर धीरज मत खोइए। आने वाला इनसान कोंन है, कैसा है ये जानना भी अती आवश्यक है। यहां बात राजकुमारी के स्वास्थ और सुरक्षा दोनों कि है। एसे किसी भी इंसान पे भरोसा नहीं कर सकते। पहले उससे मिल कर उसके तात्पर्य की पुष्टि करनी होगी।


जी गुरुजी आप सही कह रहे है। राजगुरु और महाराज का वार्तालाप चल रहा है तभी वो अजनबी कक्ष में दाखिल होता है और महाराज और राजगुरु उसको देखकर अपने वार्तालाप को अधूरा छोड़कर उस अजनबी को देखते है।


अजनबी युवान पुरुष है। गठीला शरीर, तलवार की धार के जैसी तेज आंखे, चौड़ा सीना, प्रचंड भुजाए, पहाड़ जैसा व्यक्तित्व, और चहेरे पे तपते हुए सूरज की लालिमा जैसा तेज, विशाल भालपे किया हुआ त्रिपुंड चहेरे को और भी तेजवंत बना रहा है, गलेमे और पूरे शरीर पर पहने हुए रुद्राक्ष मानो साक्षात कोई रुद्रावतार हो। और कंधेसे नीचे तक जाते हुए गहरे काले बाल जैसे अनगिनत सर्प हो।


महाराज और राजगुरु इस अजनबी युवान को देखते ही रहे गए। कक्षकी धुंधली रोशनी में वो सूर्य सा तेज लेके आया था। महाराज से रहा नहीं गया उन्होंने पूछ लिया आप कोंन है कृपया अपना परिचय दीजिए। आपके मुखके तेज को देखकर लगता है कि आप महा ज्ञानी ब्राह्मण है, पर आपकी विशाल भुजाओं को देखकर लगता है आप वीर क्षत्रिय है अतः अपना परिचय दीजिए।
 

Hero tera

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आगे हमने पढ़ा कि महाराज राजकुमारी वृषालि की बिमारिसे व्यथित है और राजगुरु उनको समजा रहे है। तभी बाहर से दरबान आके केहेता है कि बाहर कोई आया है जो अंदर आनेकी अनुमति मांग रहा है और कहे रहा है कि में तुम्हारी राजकुमारी को ठीक कर सकता हूं। महाराज उसे अंदर आने को कहते है और उसे देखकर उसका परिचय पूछते है अब आगे........y


युवान ने हााथ जोड़कर महाराज और राजगुरु को कहा महादेव । राजगुरु और महाराज नेभी हाथ जोड़कर महादेव हर कहा। अपना परिचय दीजिए और यहां आने का तात्पर्य बताइए राजगुरु ने कहा।


में विश्व विख्यात वेदाभ्याशी, और जगत के सर्व श्रेष्ठ वैदो में से एक वेदाचार्य वेदर्थी का अनुयाई, शिस्य और उनका पुत्र मृत्युंजय हूं।


ये सुनते ही राजगुरु अचंभित होकर अपने आसन से उठकर खड़े हो गए। क्या कहा तुम सर्व वेदों के ज्ञाता और अभ्यासी वेदाचार्य वेदर्थी के पुत्र हो? हा में वही हूं। लेकिन हम कैसे मान ले कि तुम वेदर्थी के पुत्र हो? उनको तो बर्षो से किसी ने देखा तक नहीं, वो कहा है, कैसे है, क्या कर रहे है किसीको पता नहीं। तुम इस बात का कोई प्रमाण दे सकते हो की तुम ही वेदर्थी के है पुत्र हो?


जरूर दे सकता हूं। मृत्युंजय की आंखे आत्मविश्वास से छलक रही है। उसके कंधे पर एक जोली थी उसने उसमे हाथ डालकर एक पोटली निकाली और उसे छोड़ ने लगा । राजगुरु बड़े आतुर थे ये देखने केलिए के उसमे क्या हो सकता है जो प्रमाणित करदे की ये वेदर्थी का ही पुत्र है।


मृत्युंजय ने एक अंगूठी निकाली ओर राजगुरु के सामने रखकर कहा इसे तो आप पहेचानते ही होंगे राजगुरु सौमित्र। राजगुरु मृत्युंजय के मुहसे अपना नाम सुनकर ओर उस अंगूठी को देखकर चौंक गए। अब उनसे रहा नहीं गया उन्होंने आगे बढ़कर अंगूठी को हाथ में लिया और गौर से देखा । उनकी आंखे छलकने लगे उन्होंने मृत्युंजय को पास जाकर गौर से देखा। वही आंखे, वही भुजाए, वही आत्मविश्वास, मानो जैसे खुद वेदर्थी ही उनके सामने खड़े है।


वेदर्थी अभी कहा है, कैसे है? इतने वर्षो में उसने एक बार भी मुजसे मिलने कि कोशिश नहीं की। एक संदेश तक नहीं भेजा वो कुशल तो हैना?


वो अब इस दुनियांमें नहीं रहे। कुछ समय पहले ही वो स्वर्ग सिधार गए। ये सुनते ही राजगुरु के दिलको धक्का लगा, उनके कदम जैसे लड़खड़ा गए। वो आसन पर बैठ गए। महाराज राजगुरु को इस दशा में देखकर तुरंत उनके पास आए , क्या हुआ राजगुरु आप ठीक तो हैं ना। राजगुरु ने आंखे बंध करके लंबी शांस लेते हुए कहा हा में ठीक हूं।


महाराज ने देखाकि राजगुरु अब स्वस्थ है तो उन्होंने पूछा। राजगुरु कोन है ये मृत्युंजय और उसके पिता के साथ आपका कया संबंध था? कृपया आप मेरे मन के कुतुहल का समाधान कीजिए।


राजगुरु कुछ देर शांत रहे ओर फिर बोले महाराज वेदर्थी एक परम ज्ञानी, वेदों के अभ्यासी, ओर महान वैद थे। हम दोनों परम मित्र थे। हम दोनों ने महान वेदाचार्य गुरु सोमदेव से साथ मे शिक्षा और दीक्षा प्राप्त कि थी। वेदर्थी मूजसे हर बात मे आगे था। हमारी शिक्षा पूर्ण होने के बाद हमे बड़े बड़े गुरुकुल से आचार्य पद केलिए प्रस्ताव आए। मैने आपके पिताजी का प्रस्ताव स्वीकार किया ओर मे यहां आपके राज्य में आ गया।


वेदर्थी को जिनकी गिनती भारतके सबसे बड़े राजे रजवाड़ों मे होती है उस राज्य सोनगढ़ के राजगुरु ओर उनके गुरुकुल के प्रधान आचार्य के पद केलिए प्रस्ताव आया। ये हम सब केलिए बड़ी गौरव की बात थी। वहा उनकी ख्याति पूरे भारत में फेल गई। लेकिन कहते है ना कि समय कब करवट बदले पता नहीं चलता। वेदर्थी की ख्याति से जलते लोगों ने षडयंत्र करके उसपर राजद्रोह का आरोप लगा दिया।


राजद्रोह , केसा राजद्रोह? महाराज उत्सुख थे कारण जान ने केलिए। किसीने सोनगढ़ के राजा को विष दे दिया ओर साबित कर दिया कि राज वैध वेदर्थी ने उनको जहर दे कर मारनेका षडयंत्र रचा है। उनको सारे पदसे निष्काशित कर दिया गया ओर कारावास में डाल दिया गया। मुझे ये खबर सुनके बहुत आघात लगा था। मैने सोनगढ़ के राजा से मिलकर उनको समझाने का बहुत ही प्रयत्न किया पर सारे प्रमाण वेदर्थी के विरुद्ध थे। में चाहते हुए भी अपने परम मित्र केलिए कुछ नहीं कर सका।


राजगुरु बहुत व्यथित हो गए उस घटना को याद करके। अपने मित्र के लिए कुछ ना कर पाने की पीड़ा उनके मुख मंडल को घेर रही थी, मनों जैसे वो मृत्युंजय से आंखे नहीं मिला पा रहे थे। वो खामोश होकर अपने आसन पर बैठे रहे।


महाराज भी ये सब सुनकर, देखकर थोड़े व्यथित हो गए। इतने बड़े ज्ञानी पुरुष के साथ एसा बर्ताव? फिर क्या हुआ राजगुरु कृपया मुझे बताइए मेरा ह्रदय व्यथित है ये सब जानकर। क्या फिर वो कभी अपने आपको निर्दोष प्रमाणित कर पाए?। राजगुरु नमृत्युंजय के सामने देखा जैसे उनकी आंखे कह रही हो कि अब आगे की बात तुम कहो मेरी जीहवा से में नहीं कह पाऊंगा। मृत्युंजय ने गुरुजी की आंखो की पीड़ा को समझ लिया और कहा महाराज मे बताता हूं कि फिर क्या हुआ।
 

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आगे हमने देखाकि आने वाला युवान अपनी पहेचान बताते हुए कहता है कि में महान वेदाभ्याशी वेदर्थी का पुत्र मृत्युंजय हूं ओर इस बात को प्रमाण देते हुए एक अंगूठी राजगुरु सौमित्र के हाथ में देता है। फिर महाराज राजगुरु से वेदर्थी के बारे में पूछते है तो राजगुरु बताते हे की वो गुरुकुल मे साथ थे ओर परम मित्र थे , ओर फिर कैसे वो सोनगढ़ के प्रधान आचार्य बने ओर उनके साथ षडयंत्र करके उन्हे राज द्रोही प्रमाणित कर दिया गया अब आगे.......


राजगुरु इतने व्यथित हो गए है कि अब वों आगे बोल नहीं सकते थे। मृत्युंजय ने आगे की बात बताना शुरू किया.....


षडयंत्र की जाल बहुत सोच समजमर बूनी गई थी। ओर पिताजी उसमे फंस चुके थे। उनको सोनगढ़ के राजा को मार ने के षड्यंत्र का दोषी करार कर के राजद्रोह का इल्ज़ाम लगाकर कारावास मे डाल दिया गया। मेरी मां को भी राजद्रोही की पत्नी मान कर राज्य से बाहर निकाल दिया। तब में अपनी मां की कोख में था। इस अवस्था में मेरी मां ने दर दर की ठोंकरे खाई लेकिन किसी भी राज्य ओर नगर ने उनको सहारा नहीं दिया।


तब जंगल के एक वनवासी कबिलेने मां को सहारा दिया। वही उस काबिले में ही मेरा जन्म हुआ ओर मेरे जन्म के समय ही मां स्वर्ग सिधार गई। मृत्युंजय के चहेरे पर पीड़ा साफ दिखाई दे रही है। फिर उसने तुरंत अपने आप को संभाल लिया ओर आगे बात कहना शुरू किया।


गुरुकुल के कुछ शिष्य जो तन मन धन से पिताजी को अपना गुरु मान ते थे उनसे ये बात सही नहीं गई। उन्होंने पूरे षडयंत्र का पता लगाकर सच्चाई सोनगढ़ के राजा के सामने रखदी ओर सही गुनहगार को दुनिया के सामने खड़ा कर दिया। ओर वो षडयंत्रकारी कोन थे महाराज से पूछे बिना रहा नहीं गया। गुरुकुल के एक आचार्य ओर सोंगढ़के राजा का एक मंत्री।


महाराज को ये सुनकर बड़ा विस्मय हुआ, खुद राजा के राज्य के मंत्री ओर आचार्य ही राजा को मार ने का षडयंत्र करे तो फिर राजा ओर राज्य कैसे सुरक्षित रहेंगे। ये बात तो सचमे पीड़ा देने वाली ओर सोचने वाली है। वो थोड़ी देर मौन रहे। फिर क्या हुआ मृत्युंजय आगे की बात बताओ उन्होंने कहा।

मेरे पिता निर्दोष थे उन्हे रिहा कर दिया गया ओर उनके सर से सारे इल्ज़ाम खारिज कर दिए गए। सोनगढ़ के राजा ने उनसे माफी मांगी और फिर से अपने पद पर वापस आने केलिए बिनती की लेकिन पिताजी ने मना कर दिया। राजा ने हाथ जोड़कर मिन्नते की लेकिन पिताजी का मन अब इन सब चीजों से उठ चुका था। उन्होंने राज्य छोड़ दिया ओर गुरुकुल का प्रधान आचार्य पद भी। बोलते बोलते मृत्युंजय खामोश हो गया। पूरे कक्ष में सिर्फ ओर सिर्फ खामोशी ही थी।


थोड़ी देर बाद राजगुरु ने अपने आपको संभाला और आसन से उठकर मृत्युंजय के पास गए । उनकी आंखों मे कही प्रश्न साफ साफ दिखाई दे रहे थे।


उन्होंने बोलना शुरू किया। जब मुझे पता चला कि वेदर्थी निर्दोष प्रमाणित हो गया है तब मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। में उस से मिलने के लिए सोनगढ़ पहुंच गया पर वहा जाके मुझे पता चला कि वो सब कुछ त्याग के वहा से जा चुका था। मैने वर्षो तक उसे ढूंढ नेकी बहुत कोशिश की लेकिन मुझे फिर कभी उसका पता नहीं चला। राजगुरु का मे मन पीड़ा से भर गया था। मुजे हमेशा दिल में इस बात की पीड़ा रही की मेरे मित्रने मुझ से एक भी बार मिलना या संदेश करना भी उचित नहीं समझा।


मृत्युंजय वो कहां था, किस हाल में था, इतने वर्षो उसने क्या किया। राजगुरु के शब्दों में अपने मित्र के प्रति दिल में उठ रही पीड़ा ओर नाराजगी साफ साफ दिखाई दे रही थी। वो ये जान ने केलिए व्याकुल थे कि इतने वर्षो तक उनका मित्र किस हाल में था।


पिताजी ने तन मन धन से सोनगढ़ के राजा, राज्य ओर गुरुकुल के प्रति सदैव अपना दायित्व निष्ठा से निभाया उसके बावजूद जो हुआ उसके बाद उनका मन द्रवित हो गया था। ऊपर से जब उनको पता चला कि मां की मृत्यु किस हालत में हुई तो उनका मन सबके प्रति रोष से भर गया।


एसा राज्य ओर समाज जो एक गर्भवती स्त्री का रक्षण ओर पोषण ना कर सके वो रहने के योग्य नहीं होता। इस लिए उन्होंने सोनगढ़ रज्यका, उसके राजा का ओर कहे जाने वाले सभ्य समजका त्याग कर दिया।


कुछ शिष्य जिन्होने पिताजी को बेकसूर प्रमाणित करने में योगदान दिया था उन्होने पिताजी को मेरे बारे में बताया। पिताजी मुझे लेकर दूर हिमालय की घाटी में जाकर वहा के वनवासी लोगो के साथ बस गए। उन्हों ने महसूस किया कि राजा ओर नगरके लोगो से उनकी ज्यादा जरूरत इन वनवासी प्रजा को थी। ओर ये अनपढ़ और असभ्य कहे जाने वाले वनवासी सिर्फ कहे जाने वाले सभ्य लोगो से ज्यादा समजदार ओर वफादार थे। पिताजी ने सारी उम्र हिमालय की पहाड़ियों में मिलने वाली औसधी ओर जड़ीबुटी पर संशोधन किया ओर वनवासियों की सेवा की। उन्हों ने उन वनवासी प्रजा को थोड़ा बहुत वेदों के बारे में ओर धर्म के बारे में ज्ञान भी प्रदान किया। वो वनवासियों के बच्चो को आयुर्वेद ओर जड़ीबुटी के बारे में भी ज्ञान देने लगे ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगो को सही उपचार ओर मदद मिल शके।


राजगुरु बीच मे ही बोल पड़े सब किया पर क्या कभी उसे अपने मित्र की याद नहीं आई???
 

Thakur

असला हम भी रखते है पहलवान 😼
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आगे हमने देखाकि आने वाला युवान अपनी पहेचान बताते हुए कहता है कि में महान वेदाभ्याशी वेदर्थी का पुत्र मृत्युंजय हूं ओर इस बात को प्रमाण देते हुए एक अंगूठी राजगुरु सौमित्र के हाथ में देता है। फिर महाराज राजगुरु से वेदर्थी के बारे में पूछते है तो राजगुरु बताते हे की वो गुरुकुल मे साथ थे ओर परम मित्र थे , ओर फिर कैसे वो सोनगढ़ के प्रधान आचार्य बने ओर उनके साथ षडयंत्र करके उन्हे राज द्रोही प्रमाणित कर दिया गया अब आगे.......


राजगुरु इतने व्यथित हो गए है कि अब वों आगे बोल नहीं सकते थे। मृत्युंजय ने आगे की बात बताना शुरू किया.....


षडयंत्र की जाल बहुत सोच समजमर बूनी गई थी। ओर पिताजी उसमे फंस चुके थे। उनको सोनगढ़ के राजा को मार ने के षड्यंत्र का दोषी करार कर के राजद्रोह का इल्ज़ाम लगाकर कारावास मे डाल दिया गया। मेरी मां को भी राजद्रोही की पत्नी मान कर राज्य से बाहर निकाल दिया। तब में अपनी मां की कोख में था। इस अवस्था में मेरी मां ने दर दर की ठोंकरे खाई लेकिन किसी भी राज्य ओर नगर ने उनको सहारा नहीं दिया।


तब जंगल के एक वनवासी कबिलेने मां को सहारा दिया। वही उस काबिले में ही मेरा जन्म हुआ ओर मेरे जन्म के समय ही मां स्वर्ग सिधार गई। मृत्युंजय के चहेरे पर पीड़ा साफ दिखाई दे रही है। फिर उसने तुरंत अपने आप को संभाल लिया ओर आगे बात कहना शुरू किया।


गुरुकुल के कुछ शिष्य जो तन मन धन से पिताजी को अपना गुरु मान ते थे उनसे ये बात सही नहीं गई। उन्होंने पूरे षडयंत्र का पता लगाकर सच्चाई सोनगढ़ के राजा के सामने रखदी ओर सही गुनहगार को दुनिया के सामने खड़ा कर दिया। ओर वो षडयंत्रकारी कोन थे महाराज से पूछे बिना रहा नहीं गया। गुरुकुल के एक आचार्य ओर सोंगढ़के राजा का एक मंत्री।


महाराज को ये सुनकर बड़ा विस्मय हुआ, खुद राजा के राज्य के मंत्री ओर आचार्य ही राजा को मार ने का षडयंत्र करे तो फिर राजा ओर राज्य कैसे सुरक्षित रहेंगे। ये बात तो सचमे पीड़ा देने वाली ओर सोचने वाली है। वो थोड़ी देर मौन रहे। फिर क्या हुआ मृत्युंजय आगे की बात बताओ उन्होंने कहा।

मेरे पिता निर्दोष थे उन्हे रिहा कर दिया गया ओर उनके सर से सारे इल्ज़ाम खारिज कर दिए गए। सोनगढ़ के राजा ने उनसे माफी मांगी और फिर से अपने पद पर वापस आने केलिए बिनती की लेकिन पिताजी ने मना कर दिया। राजा ने हाथ जोड़कर मिन्नते की लेकिन पिताजी का मन अब इन सब चीजों से उठ चुका था। उन्होंने राज्य छोड़ दिया ओर गुरुकुल का प्रधान आचार्य पद भी। बोलते बोलते मृत्युंजय खामोश हो गया। पूरे कक्ष में सिर्फ ओर सिर्फ खामोशी ही थी।


थोड़ी देर बाद राजगुरु ने अपने आपको संभाला और आसन से उठकर मृत्युंजय के पास गए । उनकी आंखों मे कही प्रश्न साफ साफ दिखाई दे रहे थे।


उन्होंने बोलना शुरू किया। जब मुझे पता चला कि वेदर्थी निर्दोष प्रमाणित हो गया है तब मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। में उस से मिलने के लिए सोनगढ़ पहुंच गया पर वहा जाके मुझे पता चला कि वो सब कुछ त्याग के वहा से जा चुका था। मैने वर्षो तक उसे ढूंढ नेकी बहुत कोशिश की लेकिन मुझे फिर कभी उसका पता नहीं चला। राजगुरु का मे मन पीड़ा से भर गया था। मुजे हमेशा दिल में इस बात की पीड़ा रही की मेरे मित्रने मुझ से एक भी बार मिलना या संदेश करना भी उचित नहीं समझा।


मृत्युंजय वो कहां था, किस हाल में था, इतने वर्षो उसने क्या किया। राजगुरु के शब्दों में अपने मित्र के प्रति दिल में उठ रही पीड़ा ओर नाराजगी साफ साफ दिखाई दे रही थी। वो ये जान ने केलिए व्याकुल थे कि इतने वर्षो तक उनका मित्र किस हाल में था।


पिताजी ने तन मन धन से सोनगढ़ के राजा, राज्य ओर गुरुकुल के प्रति सदैव अपना दायित्व निष्ठा से निभाया उसके बावजूद जो हुआ उसके बाद उनका मन द्रवित हो गया था। ऊपर से जब उनको पता चला कि मां की मृत्यु किस हालत में हुई तो उनका मन सबके प्रति रोष से भर गया।


एसा राज्य ओर समाज जो एक गर्भवती स्त्री का रक्षण ओर पोषण ना कर सके वो रहने के योग्य नहीं होता। इस लिए उन्होंने सोनगढ़ रज्यका, उसके राजा का ओर कहे जाने वाले सभ्य समजका त्याग कर दिया।


कुछ शिष्य जिन्होने पिताजी को बेकसूर प्रमाणित करने में योगदान दिया था उन्होने पिताजी को मेरे बारे में बताया। पिताजी मुझे लेकर दूर हिमालय की घाटी में जाकर वहा के वनवासी लोगो के साथ बस गए। उन्हों ने महसूस किया कि राजा ओर नगरके लोगो से उनकी ज्यादा जरूरत इन वनवासी प्रजा को थी। ओर ये अनपढ़ और असभ्य कहे जाने वाले वनवासी सिर्फ कहे जाने वाले सभ्य लोगो से ज्यादा समजदार ओर वफादार थे। पिताजी ने सारी उम्र हिमालय की पहाड़ियों में मिलने वाली औसधी ओर जड़ीबुटी पर संशोधन किया ओर वनवासियों की सेवा की। उन्हों ने उन वनवासी प्रजा को थोड़ा बहुत वेदों के बारे में ओर धर्म के बारे में ज्ञान भी प्रदान किया। वो वनवासियों के बच्चो को आयुर्वेद ओर जड़ीबुटी के बारे में भी ज्ञान देने लगे ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगो को सही उपचार ओर मदद मिल शके।


राजगुरु बीच मे ही बोल पड़े सब किया पर क्या कभी उसे अपने मित्र की याद नहीं आई???
Really superb story, waiting for next updates
 
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Hero tera

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आगे हमने देखाकि, मृत्युंजय बताता है की कैसे वेदर्थी उनके कुछ शिष्यों की मदद से निर्दोष पुरवार हुए ओर उन पर से लगा देशद्रोह का कलंक मिट गया। फिर अपनी पत्नी के मृत्यु के समाचार से वे व्यथित हो गए ओर सारे राजशी पद ओर गुरुकुल के प्रधान आचार्य का पद त्याग के मृत्युंजय को लेकर हिमालय की पहाड़ियों में जाकर बस गए। अब आगे........


राजगुरु का प्रश्न सुनते ही मृत्युंजय शांत हो गया। फिर कुछ क्षणके बाद बोला अगर वो आपको याद नहीं करते होते तो मे आपको इतनी जल्दी कैसे पहचान लेता। एसा एक भी दिन नहीं था जब पिताजी ने आपको याद नहीं किया हो। आप एसे थे, आप वैसे थे, आप के साथ गुरुकुल में बिताया हुआ हर क्षण वो हमेशा याद किया करते थे।


हर दिन सूर्यास्त के समय वो अकेले चुपचाप बैठकर इस अंगूठी को हाथ में लिए निहारते थे। मैने कई बार उनकी आंखो से अश्रुओं को बहते देखा है।


में जब थोड़ा बड़ा और समज़दार हो गया तो मैने उनको इस अंगूठी के बारे में पूछा तब उन्होंने मुझे इस अंगूठी के रहस्य के बारे में बताया। वो मुझे इतना याद करता था तो कभी उसने क्यों मुझे अपने बारे में नहीं बताया, क्यों मुझे इतने वर्षो में एक बार भी पत्र नहीं लिखा। कोई मित्र अपने मित्र के साथ एसा कैसे कर सकता है? और मुझ से भेंट किए बिना ही इस दुनिया से विदा हो गया? एक बार भी नहीं सोचा की मुझे केतनी पीड़ा होगा?


अपने आपको पिडा ना दीजिए राजगुरु कुछ बाते समय के हाथ में होती है। पिताजी भी आपसे मिले बगैर इस दुनिया से बिदा होना नहीं चाहते थे इसलिए उन्होंने आपके लिए एक पत्र लिखा है। मृत्युंजय ने जोली मेसे एक ताड़पत्र निकाला और राजगुरु के हाथों में दिया।


ताड़पत्र लेते हुए राजगुरु के हाथ कापने लगे। वर्षो बाद मित्रका पता चला ओर वो भी इस पीड़ादायक समाचार के साथ के वो अब इस पृथ्वी पर नहीं रहा उसका स्वर्गारोहण हो गया है। वर्षो तक जिस मित्र के मिलने की कामना की थी आज वो मिला भितो इस ताड़पत्र में लिपटे हुए कुछ शब्दों के रूप में। विधाता तेरा ये केसा खेल है।


राजगुरु ने कपकपाते हाथो से पत्र को खोला और पढ़ने लगे। उसमे लिखा था,

" मित्र सौमित्र को मेरा सादर प्रणाम,

इतने वर्षों में एसा एक भी दिन नहीं बीता जब मैने तुम्हे स्मरण नहीं किया हो। तुम हमेशा मेरे दिलमे रहते हो।में बडा सदभागी हूं जो मुझे तुम्हारे जैसा मित्र प्राप्त हुआ। अपनी किस्मत पे बड़ा गर्व होता है। मगर इस बात की पीड़ा हमेशा रहती है कि में दुर्भाग्यवश मित्रता नहीं निभा पाया। में तुम्हे सूचित किए बिना ही यंहा इस स्थान पर आकर बस गया। में नहीं चाहता था के मेरे दुर्भाग्य ओर कठिन समय की छाया तुम पर पड़े। तुम मुझे फिर से वही रूप में ओर वही पद पर देखना चाहेंगे। तुम कभी मुझे इस दशा में देख नहीं पाते कि में जंगलों में अज्ञात जीवन गुजारू, तुम्हे बहुत पीड़ा होती ओर में तुम्हारी पीड़ा का कारण बन ना नहीं चाहता था ओर नाहीं तुम्हे किसी भी प्रकार के धर्म संकटमे डालना इस लिए तुमसे हमेशा दूर रहा। हो सके तो समय के हाथों विवश अपने मित्र को क्षमा कर देना। इस अनाथ को तुमने हमेशा मित्र, भाई, ओर पिता तुल्य प्यार दिया है में इस बात केलिए जन्मो जन्म तक तुम्हारा ऋणी रहूंगा।

तुम्हारा मित्र वेदर्थी....


राजगुरु सौमित्र पत्र पढ़ने के बाद टूट गए। उनकी आंखो से अब अश्रु बहने लगे। वो समय, स्थल ओर परिस्थिति को भूल कर मित्र को सदा केलिए खो देने के शोक मे डूब गए थे। ये वही राजगुरु है जो कुछ समय पहले महाराज को शोकसे बाहर आकर अपने आप पे संयम रखने को कह रहे थे। समग्र कक्ष में सिर्फ खामोशी ही शेष थी। महाराज भी राजगुरु को इस दशा में देख आश्चर्य मे थे।



कुछ देर केलिए मानो समय रुक गया। मृत्युंजय ओर महाराज दोनों मे से किसी मे ये साहस नहीं था कि वो राजगुरु से कुछ कहे। कुछ देर के बाद अचानक राजगुरु को स्थल का स्मरण हुआ उन्होंने अपने आपको संभाला ओर अपने आसन से उठकर मृत्युंजय के करीब जाकर उसे गले लगा लिया।राजगुरु आज मृत्युंजय मे कहिना कहीं अपने मित्र को ढूंढ रहे थे। मृत्युंजय ने भी राजगुरु के चरणपर्श किए। राजगुरु खुशी से बोले अब मुझे पूर्ण विश्वास है कि हमारी राजकुमारी वृषाली ठीक हो जाएगी। महाराज की आंखो मे चमक ओर होंठो पर आशा की किरण में लिपटी मुस्कान आ गई।


आपका धन्यवाद राजगुरु सौमित्र की आपने मुझे इस योग्य समझा। क्षमा कीजिए पर राजकुमारी का उपचार करने से पहले मेरी कुछ शर्तें है। शर्त? कैसी शर्त? राजगुरु ओर महाराज एक साथ उत्सुकता से बोल पड़े।
 

Hero tera

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आगे हमने देखा कि, मृत्युंजय राजगुरु सौमित्र के मनमे उठे अपने मित्रके प्रति हर प्रश्न का समाधान करता है। ओर राजगुरु उसको गले लगाकर इस बात की खुशी व्यक्त करते है की अब उन्हे विश्वास है कि राज कुमारी वृषाली ठीक हो जाएगी। लेकिन राजकुमारी का उपचार शुरू करने से पहले मृत्युंजय बताता है कि उसकी कुछ शर्ते है। अब आगे.......

मृत्युंजय की शर्तो वाली बात सुनकर महाराज ओर राजगुरु दोनों को आश्चर्य होता है। शर्तें? क्या शर्तें है मृत्युंजय आपकी कृपया बताए। मेरी बेटी को आपके उपचार की बहुत आवश्यकता है अगर बदले मे आप मेरा राज्य भी मुझ से मांग लेंगे तो मे देने केलिए करबद्ध हूं। राजा के स्वर में व्यथा सुनाई दे रही है।


मृत्युंजय मुस्कुराया मुझे ना आपका राज्य चाहिए ना ही कोई मोल, राजे रजवाड़ों की आवश्यकता हम वनवासियों को कहा? हमारे लिए तो पूरा आकाश हमारा राज्य ओर समग्र जंगल ओर जंगल में रहने वाला हर जीव मात्र मेरा स्नेही संबंधी। इस लिए चिंता मत कीजिए मुझे किसी वस्तु या धन की उपचार के बदले मे लालसा नहीं है।


तो तुम्हारी वो शर्तें क्या है मृत्युंजय बताओ। जी राजगुरु। तो सुनिए.....


मेरी पहली शर्त ये है कि, मुझे उपचार के बारे में कोई प्रश्न ना किया जाए। में ये क्या कर रहा हूं, क्यों कर रहा हूं, कैसे कर रहा हूं इत्यादि।....

मेरी दूसरी शर्त, आवश्यकता पड़ने पर जरूरत की हर चीज मुझे उपलब्ध कराई जाय। उसमे भी कोई प्रश्न ना किया जाय।......

मेरी तीसरी और अहम शर्त मुझे किसी भी समय, किसी भी स्थल पर आने जाने की स्वीकृति दी जाए। फिर वो महल हो, महल का परिसर हो, महल का अंतः पुर हो, नगर हो, या पूरा राज्य, मुझे हर जगह अपनी इच्छा अनुसार परिभ्रमण, विचरण या घूमने की अनुमति हो।

ओर मेरी चोथी और आखरी शर्त ये है की मेरे साथ यहां मेरा मित्र भूजंगा भी रहेगा। बस यही चार शर्तें है मेरी।


महाराज मृत्युंजय की बात सुनकर असमंजस मे पड गए की क्या उत्तर दिया जाय। एक तरफ राजकुमारी के स्वास्थ का प्रश्न है तो दूसरी ओर किसी अजनबी को स्वैर विहार करने की अनुमति देना। समज नहीं आ रहा के क्या किया जाए। उन्हों ने राजगुरु की और देखा ओर राजगुरु उनके मन की उलझन को समझ गए उन्होंने अपनी पलके जपकाकर शिर हिलाते हुए इशारे में ही कह दिया कि शर्तो को स्वीकार कर लीजिए ओर अनुमति दे दीजिए।


जब राजगुरु ने दृढ़ विश्वास के साथ स्वीकृति देने को कह दिया है तो अब मना करने का कोई औचित्य नहीं था। महाराज मृत्युंजय के पास गए और हाथ जोड़कर विनती भरे स्वर में बोले, आप हमारे राजगुरु के परम मित्र, महान ज्ञानी ओर वैद वेदर्थी के पुत्र है हमारे लिए जीतने पूजनीय हमारे राजगुरु है उतने ही आदरणीय आपके पिता, इस लिए हमे आप पर पूरा विश्वास हे। आपकी हर शर्त हमे स्वीकार्य है। बस आप हमारी राजकुमारी को स्वस्थ कर दीजिए।


में तन, मन, से प्रयास करूंगा कि राजकुमारी जल्द से जल्द ठीक हो जाए। मृत्युंजय ने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ महाराज को आस्वस्थ कीया। अब सब बाते हो ही गई है तो कृपया आप किसी से संदेश भेजकर मेरे मित्र भुजंगा को अंदर आने की अनुमति दीजिए वो लंबे समय से आपके मुख्य द्वार पर खड़ा मेरी प्रतीक्षा कर रहा है।


महाराज एक सिपाही को भेज कर भुजंगा को अंदर ले आने की आज्ञा देते है ओर मृत्युंजय को आसन ग्रहण करने की विनती करते है।


थोड़ी देर बाद सिपाही अंदर आता है ओर उसके साथ एक युवान भी कक्ष मे प्रवेश करता है। देखनेसे बाइस पच्चीस वर्ष की आयु का लगता है। पहली ही नजर मे पहाड़ीओ का रहने वाला समझ आ जाता है। गोल मटोल मुंह, कक्षको चारो ओर विष्मयता से देखती बड़ी बड़ी चकोर आंखे, जिज्ञासु स्वभाव, मुस्कुराता हुआ चेहरा जैसे हमेशा प्रसन्न मुद्रा मे ही रहता होगा। शिर पर कसके बंधे हुए बाल जैसे कोई विशाल वट वृक्ष की तने हो, गले में अजीब रंग बीरंगी छोटे छोटे पत्थरों की माला है, बड़े विचित्र कपड़े है, लंबा अंगरखा ओर कसके बांध दिया हो एसा पयजामा। आकर महाराज ओर राजगुरु को प्रणाम करता है ।


ये मेरा परम मित्र भुजंगा है। मृत्युजंय महाराज ओर राजगुरु को उसका परिचय देता है। महाराज ओर राजगुरु दोनों बड़े विश्मय से भुजंगा को देख रहे है। ये केसा विचित्र दिखने वाला प्राणी है। तभी मृत्युंजय मुस्कुराते हुए कहता है कि इस के वेश पर मत जाइए ये बहुत चतुर ओर ज्ञानी है। ओर जितना विश्वास आप मुझ पर कर सकते हो उतना ही भरोसा आप मेरे इस मित्र पर भी कर सकते हो। महाराज ओर राजगुरु ने शिर हिला कर बात को स्वीकृत किया।


अच्छा तो अब क्या हम राजकुमारी को देख सकते है? मृत्युंजय ने कहा। इस समय? महाराज ओर राजगुरु दोनों साथ बोले? क्यों आपको कोई आपत्ती है?। लेकिनअभी तो रात्रि का दूसरा प्रहर बित रहा है राजगुरु ने विशमय से कहा। आप दोनों इतनी दूर से प्रवास करके आए है पहले कुछ जलपान कीजिए, विश्राम कीजिए फिर प्रातः होते ही अपना उपचार शुरू करना। राजगुरु ने कहा।


आपकी बात सही है पर में यहां राजकुमारी के उपचार के उदेश्य से आया हूं ओर मे उनको देख कर उनकी दशा के बारे में जानना चाहता हूं ताकि आगे की उपचार विधि निश्चित कर शकू ओर कल प्रातः से ही राजकुमारी का उपचार आरंभ कर सकु अगर आपको कोई आपत्ती ना हो।


मृत्युंजय की बात सुनकर महाराज खुश हो गए ओर अपने कार्य के प्रति इतनी तत्परता देखकर राजगुरु भी हर्षित हो उठे। हमे कोई आपत्ती नहीं है महाराज ने कहा। आइए में खुद आप को राजकुमारी के कक्ष में ले चलता हूं।उन्होंने राजगुरु के सामने देखकर आज्ञा ली ओर राजगुरु ने शिर हिलाकर अनुमति दी।
 

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आगे हमने देखा कि मृत्युंजय अपनी कुछ शर्ते रखता है राजकुमारी के उपचार करने से पहले। महाराज और राजगुरु दोनों उसे मान्य रखते है। मृत्युंजय राजकुमारी को देखने की इच्छा प्रगट करता है। अब आगे......

राजगुरु सबसे आगे चले पीछे महाराज के साथ मृत्युंजय और भुजंगा। महाराज को इतनी देर रात को ऐसे अपने कक्ष से बाहर आता देख सब सिपाई, दरबान विचार में पड़ गए।


राजकुमारी के कक्ष में प्रवेश करते ही सब दासियां प्रणाम करके बाहर निकेल गई। कक्ष में एक छोटा सा दिया जल रहाथा। बस ना के बराबर धुंधली सी रोशनी। समग्र कक्ष में जैसे उदासीनता प्रसरी हुई थी। ये है हमारी राजकुमारी वृषाली। महाराज ने पीड़ा के साथ कहा और पीड़ा से भरी एक लम्बी सांस ली।


मृत्युंजय ने राजकुमारी को देखा और बस नजर वही थम गई। रेशमी शयन सय्या पर बेसुध होते हुए भी लगता था मानो उनके जितना सुंदर इस पूरे विश्व में और कोई नहीं है। अस्वस्थ और मुरझाया हुआ होने के बावजूद राजकुमारी के चहेरे का तेज किसी का भी मन मोह ले। बड़ी बड़ी ढली हुई पलके, गुलाब की पंखुड़ी जैसे कोमल होंठ, बड़ी बड़ी धनुष जैसी मरोड़दार भ्रमर, लाल चंदन से लपेटा हुआ विशाल भाल। बस कमी थी तो चंचल मृदु आवाज की। मृत्युंजय स्वगत ही बोल उठा वाह कुदरत ने बड़े प्यार से सृजन किया है आपका। चित्र से बढ़कर कहीं ज्यादा सौंदर्यवान हे आप राजकुमारी वृषाली।


अभी राजकुमारी का उपचार कौन कर रहा है महाराज। हमारे राजवैध सुमंत। राजगुरु ने मृत्युंजय के प्रश्न का उत्तर दिया। कल प्रातः आपकी भेंट उनसे करवाई जाएगी। वो आपको चल रहे उपचार, प्रयोग मे लिए जाने वाली औषधि ओर उपचार की पद्धति के विषय में बताएंगे। जी राजगुरु।


अच्छा तो अब आज्ञा दीजिए कल प्रातः हम आपके सामने उपस्थित होंगे मृत्युंजय ने कहा। राजा ने एक दरबान से कहकर मृत्युंजय और भुजंगा को अतिथि कक्ष तक पहुंचाने को आदेश किया। दोनों अतिथि कक्ष मे पहुंचे। इतना बड़ा कक्ष हमारे लिए, ये रेशमी सय्या कितनी मखमली है देखो मृत्युंजय। भुजंगा सय्या पर बैठकर खुशी से बोला और देखो इस कक्ष मे तो नहाने के लिए छोटा सा तालाब भी है। कितनी दिव्य खुशबू है इस कक्ष मे। ये ज़गमग ते हुए दिए, बड़ी बड़ी मशाले, ओर ये फलो और पकवान से भरे हुए सोने के थाल। मुझे लगता है कि में परियों के देश में आ गया हूं मृत्युंजय।


भुजंगा की बात सुनकर मृत्युंजय ठहाके लगाकर हसने लगा। मेरे भोले मित्र ये तालाब नहीं है स्नानागार है। जो भी है बड़ा सुंदर है। आओ ना थोड़ी पेट पूजा कर ले बहुत भूख लगी है। मूषक पेट मे मलयुद्ध कर रहे है। नहीं तुम खलो में रात्रि के इस प्रहरमे भोजन नहीं करता।मृत्युंजय ने कहा। ठीक है में भी एक दो फल ही खा लेता हूं और सौ जाता हूं बहुत थक गया हूं।


थोड़ी ही देर में भुजंगा निद्राधीन हो गया। मृत्युंजय कक्ष के जरुखे में जाकर खुले आकाश को निहारने लगा। आकाश स्वच्छ और सुंदर लग रहा है, शीतल हवा के झोंके आ जा रहे है। ब्रह्म मुहूर्त शुरू हो गया है। जरूखे से महल का पूरा पिछला हिस्सा दिखाई दे रहा है जहां बहुत बड़ा बाग और आम्र कुंज है। रात्रि में भी ये दृश्य कितना खूबसूरत लग रहा है। उचित कक्ष ही दिया है महाराज ने मुझ वनवासी को। मृत्युंजय सोच के मुस्कुराया। बस वो आकाश को निहार रहा है उसके मनमे बहुत से विचार और प्रश्न घूम रहे है।


उषा कब हो गई पता ही नहीं चला। दूर किसी शिवालय मे मंगला आरती का घंटनाद मृत्युंजय के कानो में पड़ा और वो चौंक गया। उसने देखा तो सामने से सुर्यनारायण उदित हो रहे थे। उनका सुनहरा प्रकाश धीरे धीरे जगत को प्राणवंत बना रहा है। सूरज की सुनहरी किरने बगीचे की छोटी छोटी कलियों को नव यौवन दे रही है। आम्रकुंज का एक एक पेड़ मानो सोनेका है हर पत्र सुनहरा है। बहुत ही मनोरम दृश्य है। ये देखकर मृत्युंजय के होंठो पर हल्का सा हास्य आ गया।


मृत्युंजय ने लंबी लंबी सांस भरकर थोड़ा अनुलोम विलोम किया। सुर्यनारायण अब पूर्ण रूप से उदित होने ही वाले है। बस अब प्रभात होने को ही है। मृत्युंजय ने सूर्यदेव को प्रणाम किया, सूर्य नमस्कार किया ओर स्नानागार मे चला गया।


थोड़ी देर बाद मृत्युंजय अपने नित्यकर्म से निवृत्त होकर बाहर आया। उसने देखा की भुजंगा सूर्योदय के इतने समय पश्चात भी निंद्रा में है। वो जरुखे में गया और उसने जोर से वामावर्ती शंख का नाद किया। भुजंगा शंख नाद सुनके जाग गया। मृत्युंजय ने सूर्यदेव को जल से अंजलि देते हुए " ॐ धृणी सुर्याय नमः। ॐ आदित्याय नमः। ॐ शशि शेखराय नमः। ॐ भानुवे नमः " मंत्र का पाठ किया।


द्वार से एक सिपाही आया और प्रणाम करके कहा, महाराज और राजगुरु ने आपको स्मरण किया है और राजकुमारी के कक्ष में उपस्थित होने को कहा है। वहा राजवैध सुमंत आपकी प्रतीक्षा कर रहे है। जी मे कुछ ही क्षणों में उपस्थित होता हूं राजगुरु और महाराज से कहिए। मृत्युंजय ने प्रत्युत्तर दिया।


मृत्युंजय ने भुजंगा के सामने देखा और व्यंग किया आप निंद्रा देवी के सानिध्य का सुख लीजिए मे राजवैध जी से मिलने जाता हूं। अरे अरे मित्र मे भी आता हूं थोड़ी प्रतीक्षा करो बस ये शय्या से उठा और चलो भुजंगा ने पास आकर कहा। अच्छा एसे ही ? स्नान नहीं करोगे? अरे वो बाद में कर लेंगे। अच्छा चलो। मृत्युंजय ने भुजंगा को अपने साथ लिया और दोनों राजकुमारी के कक्ष की ओर चल पड़े।


राजकुमारी के कक्ष में पहुंचने पर जैसे ही मृत्युंजय ने अंदर प्रवेश किया उसकी नजर सीधे राजवैध पर पड़ी। महाराज और राजगुरु ने उसका अभिवादन कीया और राजवैध से उसका परिचय करवाते हुए कहा की ये है हमारे राजवैध सुमंत जो की भारत वर्ष के जाने माने आयुर्वेद के आचार्यों मे से एक है। और यही हमारी राजकुमारी वृषाली का उपचार कर रहे है।


मृत्युंजय ने बड़ी ही विनम्रता से सिर झुका के हाथ जोड़कर राजवैध को प्रणाम किया। राजवैध ने भी सामने से शिष्टाचार निभाते हुए प्रणाम किया। फिर राजगुरु ने मृत्युंजय की ओर देखकर कहा, राजवैध जी ये है मृत्युंजय जो महान वेदाचार्य , वैध, और हमारे परम मित्र वेदर्थी के पुत्र। ये भी अपने महान पिता के जैसे कुशल वैध है। राजवैध ने सिर हिलाकर जरा सी मुस्कान के साथ मृत्युंजय का स्वागत किया। आप को जो भी जानकारी चाहिए आपको राजवैध जी देंगे राजगुरु ने कहा।


आपके पिताजी को कौन नहीं जानता। आयुर्वेद मे उनका प्रदान अविस्मरणीय है। और एसे महान पिता का पुत्र हो ना बड़े सौभाग्य की बात है। राजवैध ने प्रसन्न हो कर मृत्युंजय से कहा। आपने उचित कहा राजवैध जी। में इस बात केलिए ईश्वर का हमेशा आभारी रहूंगा। उपस्थित सब के चेहरों पर प्रसन्नता छा गई।


राजवैध ने कक्ष मे थोड़े अंतर पर खड़ी दो युवतियों के सामने शिर हिलाकर उनके पास आने केलिए इशारा किया वो उनके पास आई और राजवैध ने मृत्युंजय से उनका परिचय करवाते हुए कहा, ये मेरी शिष्या और सहायक लावण्या है। ये कनकपुर के राज्य के राजवैध सूबोधन की पुत्री है और उनके साथ उनकी सखी सारिका है। ये मुझ से आयुर्वेद की शिक्षा ले रही है और साथ साथ राजकुमारी के स्वास्थ का निरीक्षण रखती है।


मृत्युंजय ने लावण्या की तरफ देखा और प्रणाम किया। लेकिन लावण्या के मुंह के हाव भाव देखकर ज्ञात हो गया कि उसको मृत्युंजय का आना अच्छा नहीं लगा। उसने तिरछी नजर से तिरस्कार भारी नजर से मृत्युंजय को नीचे से ऊपर तक देखा और अभिवादन का सिर्फ अभिनय किया।


मृत्युंजय भी कहा कम था उसने भी कुछ मन में सोचा और बोला, राजगुरु एक प्रश्न मन में रह रह कर उठ रहा है कि जब लावण्याजी के पिताजी इतने बड़े राज्य के राजवैध है तो फिर ये आपके पास आयुर्वेद की शिक्षा ग्रहण करने के लिए यहां इतनी दूर क्यों पधारी हैं?
 

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आगे हमने देखा कि महाराज और राजगुरु मृत्युंजय का परिचय राजवैद सुमंत से करवाते है। और राजवैध मृत्युंजय का परिचय अपनी सहायक और कनकपुर के राजवैध की पुत्री लावण्या से करवाते है। अब आगे.........


मृत्युंजय के प्रश्न पर राजवैद्य जी जरा मुस्कुराए। वहीं लावण्या गुस्से से लाल पीली हो गई। वो कतराकर मृत्युंजय की और देखने लगी। उसने अपने हाथ की मुठ्ठी इतनी जोर से भींस ली के उसमे जो औसधी थी वो पीस गई। कक्ष में अगर राजगुरु, और महाराज ना होते तो वो जरूर मृत्युंजय को पलटवार करती पर वो मर्यादा में बंधी हुई थी।


राजवैद्य ने कहा लावण्या के पिता सूबोधन मेरे परम मित्र है। हमने साथ ही आयुर्वेद का अभ्यास किया है। लेकिन उन्होंने आयुर्वेद की सिद्ध उपचार पद्धति का अभ्यास मात्र ही किया है और मैने सिद्ध उपचार पद्धति एवम् प्राकृत उपचार पद्धति दोनों का अभ्यास किया है अतः उन्होंने अपनी पुत्री को आयुर्वेद की दोनों उपचार पद्धति की शिक्षा प्राप्त हो इस उद्देश्य से मेरे पास भेजा हे। और लावण्या कुछ ही समय में दोनों उपचार पद्धति की शिक्षा प्राप्त कर लेंगी। मुझे ये कहते हुए बहुत गर्व होता है कि वो आयुर्वेद की सिद्ध उपचार पद्धति में अपने पिता के भांति ही निपुर्ण है।


मृत्युंजय ने लावण्या के सामने देखा और कहा अच्छा.. तो ये कारण हे। आप तो आयुर्वेद की परम ज्ञाता है लावण्या जी, मेरे लिए आपसे मिलना बड़े सौभाग्य की बात है। मृत्युंजय के शब्द और मुख के भाव भिन्न थे, लावण्या चतुर थी वो समज गई की ये सिर्फ और सिर्फ अभिनय कर रहा है।


में राजकुमारी वृषाली का उपचार सिद्ध और प्राकृत दोनों पद्धति से कर रहा हूं अब आगे आप जैसा उचित समझें वैसा कीजिए। राजवैद्य ने मृत्युजंय की ओर देखकर बड़ी ही विनम्रता से कहा। आप जिस उपचार पद्धति से राजकुमारी का उपचार कर रहे है वो उचित हे आप उपचार करते रहिए मुझे कोई आपत्ती नहीं है राजवैद्यजी। मृत्युंजय की बात सुनकर राजवैद्य , राजगुरु और महाराज तीनों को आश्चर्य हुआ। लावण्या भी ये बात सुनकर चोंक गई।


पर अब तो आगे आप राजकुमारी का उपचार करने वाले हेना? राजवैद्य ने मृत्युंजय से बड़ी विस्मयता के साथ प्रश्न किया। हां में राजकुमारी के उपचार हेतु ही यहां आया हूं किन्तु मेरी उपचार पद्धति आपकी पद्धति से बिल्कुल भिन्न है इस लिए आप अपना उपचार यथावत रखिए मृत्युंजय ने दृढ़ता से अपनी बात कही। में कुछ समझा नहीं मृत्युजंय अतः अपनी बात विस्तार से समझाइए। राजवैद्य ने मृत्युंजय से कहा।


जैसे की, आप सब को ज्ञात है कि मेरे पिताजी अथर्ववेद के ज्ञाता थे तो उन्होंने मुझे भी अथर्ववेद की शिक्षा दी है तो गुरु कृपा ओर ईश्वर के आशीर्वाद से मैने जो शिक्षा प्राप्त की है उसी से में राजकुमारी का उपचार करूंगा। आप आयुर्वेद की पद्धतिसे उपचार करना में अथर्ववेद में दी गई , रेकी चिकित्सा, पुष्प चिकित्सा, स्पर्श चिकित्सा, ध्वनि चिकित्सा, प्रकाश चकित्सा, सूर्य चिकित्सा, तेल चिकित्सा, स्वर चिकित्सा एवम् आध्यात्म और मंत्र चिकित्सा का प्रयोग उपचार हेतु करूंगा। साथ ही आप अपना उपचार और औषधि भी उन्हे देते रहिए।


राजवैद्य और राजगुरु के मुख पर एक प्रसन्नता की लहर छा गई। पर महाराज के मन में कुछ संशय उठने लगे और ये उनके मुख पर स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। राजगुरु ने प्रसन्न होकर कहा मृत्युंजय तुम हम सब केलिए आशा की एक किरण बनकर आए हो और मुझे अपने मित्र की दी गई शिक्षा पर पूर्ण विश्वास है की तुम अपने कार्य में निसंदेह सफल होंगे और जल्द ही हमारी राजकुमारी स्वस्थ हो जाएंगी। बस आप सभी पूजनीय अपना आशीर्वाद सदैव मुझ पर बनाए रखिए। मृत्युंजय ने हाथ जोडकर कहा।
आप अपना उपचार आरंभ कीजिए हम यहां से प्रस्थान करते है। ईश्वर आपको आपके कार्य में सफलता और यश प्रदान करे। राजगुरु ने शुभकामनाएं एवम् आशीर्वाद देते हुए विदा ली। पीछे महाराज भी गए। राजवैद्य ने लावण्या को कुछ औषधि दी और राजकुमारी को देने को कहकर वो भी चले गए। अब कक्ष में लावण्या, मृत्युंजय, सारिका और भुजंगा चारो ही उपस्थित थे। जैसे ही सब चले गए लावण्या ने मृत्युंजय की उपस्थिति को अनदेखा कर दिया।मृत्युंजय ने भुजंगा के कानमे कुछ कहा और वो भी वहा से चला गया।


मृत्युंजय ने लावण्या की ओर देखा और कहा अपनी इस नाजुक अंगुलियों को इतना कष्ट मत दीजिए लावण्या जी औषधि पीस ने हेतु। लावण्या ने मृत्युंजय के सामने एसे देखा जैसे अगर उसके हाथ में होता तो वो मृत्युंजय को फांसी पर चढ़ा देती लेकिन फिर चुपचाप अपने कार्य मे जुट गई। मृत्युंजय कक्ष का बारीकी से निरीक्षण करने लगा। कुछ वस्तुओं को उसने उठाकर ध्यान से देखा फिर राजकुमारी के समीप जाकर उसके मुख के सामने देखने लगा।


मृत्युंजय को राजकुमारी के मुख के इतने समीप देखकर लावण्या ने कहा आप क्या कर रहे हो? अगर किसीने आपको राजकुमारी के इतने समीप देख लिया तो कारावास मे डाल देंगे। और वो जगह आपके लिए कदाचित ज्यादा उचित है। मृत्युंजय राजकुमारी से दूर होकर हास्य करते हुए बोला, में राजकुमारी के श्वाश के आवागमन को देख रहा था।


वैसे लावण्या जी आपको इस बात की चिंता हुई की में राजकुमारी के इतने समीप था या ईर्षा हुई सच बताइए। मृत्युंजय हास्य के साथ व्यंग में बोला। लावण्या अब अपने आपे से बाहर हो गई और अब तो यहां कोई उपस्थित भी नहीं था। देखिए आप अपनी सीमा में रहिए वही आपके लिए उचित रहेगा अन्यथा....। लावण्या ने क्रोधित होकर कहा। अरे अरे आप तो क्रोधित हो गई लावण्या जी हम तो आपको अपना समझकर थोड़ा व्यंग कर रहे है और कुछ नहीं। आपके ये दो धारी तलवार जैसे नेनो ने तो हमारे ह्रदय को छलनी कर दिया, कृपया मुझ कोमल ह्रदय के इनसान पर इतने तिर ना चलाए।

मृत्युंजय ने फिर व्यंगात्मक शब्दों का प्रयोग किया। लावण्या इस व्यंगका उत्तर देने ही जा रही थी तभी उसकी नजर कक्ष के द्वार पर पड़ी और वो आश्चर्य में पड गई।
 
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