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Incest वो तो है अलबेला (incest + adultery)

क्या संध्या की गलती माफी लायक है??


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MAD. MAX

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Wah ky MAA hai apni sgii aulad ko ko choorr doosre ki aulad pe itna pyar acha hua ABHAY bhaag gya ghr se
ab ky hoga bs whe sb fir se suru hojayga Sandhya fir se apne dever ke sath apni raate rangeen kregi Q ki bete ko to mara hua Maan lia hai Sandhya ne
Ab agar Sandhya ke ander abi bi Maa jinda hai apne ABHAY ke lye to Malti ki khe bat smjegi ki usne ky or kis lye khoyaa apna beta
Shyad is bat se aage chlkr apne hero ko ek fayda jroor milega kbi bhavishya me ABHAY wapas apne ghr aaya to ko pechanne ya na pechane lekin uski MAA SANDHYA jroor apne bete ko pechana jaygi
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Story bhot mast chal rhe hai Hemant bhai bs thoda sa or fast forward krdo taki apna hero jaldi kabil bn Jay or apne gaoo Jay or sabka hisaab kitab maintain kre
Ha bs 1 request hai bhai hr story ki trh maafi jaldi na mile esi Maa ko mile to sbk esa sbk mile ki apke readers bi Naa soch ske
Bs story ko continue rakhna bhai
Bhot acha likh rhe ho aap
 

Studxyz

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Payback/revenge emotional nahi dark hona chahiye...
Never forget never forgive

अपने फौजी भाई जी से सीखो की शमा दान महा दान जैसे चम्पा बच बच के विवाह तक पहुँच गयी :D
 

Mahendra Baranwal

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अपडेट.....५


गांव के लोग काफ़ी दुखी थे, उन्हे ये अंदाजा भी ना था की ठाकुराइन ऐसा भी कर सकती है!!

इधर हवेली में , संध्या अपने कमरे में गुम सूम si बैठी थीं, सरीर में जान तो थी, पर देखबकर ऐसा लग रहा था मानो कोई निर्जीव सी वस्तु है, आपने बेटे के गम में सदमा खाई हुई संध्या, बेड पर बैठी हुई अपने हाथों में अपने बेटे की तस्वीर लिए उसे एकटक निहार जा रही थी।

संध्या की आंखों से लगातार आंसू छलकते जा रहे थे, वो इस तरह से अपने बेटे की तस्वीर देख रही थीं मानो उसका बेटा उसके सामने ही बैठा हो। संध्या अभय की तस्वीर देखते - देखते अचानक ही अभय के तस्वीर को अपने सीने से लगाकर जोर जोर से रोने लगती है। संध्या की रोने की आवाज उसके कमरे से बाहर तक जा रही थी । जिसे सुनकर मालती, ललिता भागते हुए उसके कमरे में आ गईं। और बेड पर बैठते हुऐ, संध्या को सम्हालने लगती हैं।


हालत तो मालती और ललिता की भी ठीक नहीं थी, अभय के जाने के बाद सब को ये हवेली सुनी सुनी सी लग रही थी,

मालती ने संध्या के आंसुओ को पोछते हुऐ, समझते हुए बोली....


मालती --"मैं आपकी हालत समझ सकती हूं दीदी, मगर अब जो चला गया वो भला लौट कर कैसे आएगा? ज़िद छोड़ दो दीदी, और चलो कुछ खा लो।

मालती की बात का संध्या पर कुछ असर न हुआ, वो तो बस अभय का तस्वीर सीने से लगाए बस रोए जा रही थीं। मालती से भी बर्दाश्त नहीं हुआ और उसकी आंखो से भी पानी छलक पड़ते हैं। लेकिन फिर भी मालती और ललिता ने संध्या को बहुत समझने की कोशिश की, पर संध्या तो सिर्फ़ सुन रही थीं, और जवाब में उसके पास सिर्फ़ आंसू थे और कुछ नहीं।।

तभी एक हांथ संध्या के कंधे पर पड़ा और साथ ही साथ एक आवाज भी....

"चुप हो जाओ बड़ी मां, तुम ऐसे मत रोया करो, मुझे अच्छा नहीं लगता, क्या मैं तुम्हारा बेटा नहीं हूं, क्या तुम मुझसे प्यार नहीं करती??"

आवाज कानों में जाते ही, संध्या अपने भीगी पलकें उठाती हैं, तो पाई सामने अमन खड़ा था जो इस वक्त उसके कंधो पर हांथ रखे उसे दिलासा दे रहा था। अमन को देखते ही संध्या, जोर जोर से रोते हुऐ उसे अपनी बाहों में भर लेती हैं....

संध्या --"अब तो बस तू ही सहारा हैं, वो तो मुझसे नाराज़ हो कर ना जाने कहां चला गया हैं!!?"

अमन --"तो फ़िर चुप हो जाओ, और चलो खान खा लो, नहीं तो मैं भी नहीं खाऊंगा, तुम्हे पता हैं मैं भी कल से भूंखा हूं।"

अमन की बात सुनकर , संध्या एक बार फिर अमन को अपने सीने से लगा लेती हैं। उसके बाद ललिता दो थाली मे खाना लेकर आती हैं, संध्या से एक भी निवाला अंदर नहीं जा रहा था , पर अमन का चेहरा देखते हुऐ वो खाना खाने लगती हैं....


____________________

अभि स्कूल क्लास में बैठा था, 6 ट्वी कक्षा में दाखिला ले कर वो बहुत खुश था, वो अपनी पुरानी जिंदगी को पीछे छोड़कर वर्तमान में जीना चाहता था, वो उन हर रिश्तों को भूल जाना चाहता था, जिन रिश्तों मे अब उसका अपनापन रहा ही नही।

अभि अब हर दिन निरंतर स्कूल आने जाने लगा था, धीरे -- धीरे वो रेखा से भी घुल मिल गया था। मगर वो गांव की उस हवेली को नहीं भूला पा रहा था, जिसे भागते वक्त उसने देखा था। अभि पढ़ने लिखने में वाकई काफी तेज़ तर्रार था,। अभि काफी होशियार भी था, सोने की चैन बेचकर जो पैसा उसे मिला था, काफी सोच समझ कर खर्चा करता था। अभि को पता था की एक दीन ये पैसे भी खत्म हो जाएंगे, फिर उसके लिए काफी मुश्किलात होने लगेंगी। पर अभी इन सब के बारे में अभी नहीं सोचना चाहता था।

इधर हवेली में भी संध्या अमन का मुंह देख कर जीने लगी थीं, पर हर रात अभय की यादों में आंसू जरूर बहाती थी, ये शायद उसका रूटीन बन गया था। रमन सिंह ने गांव वालो की ज़मीन हड़प, अपनी भाभी संध्या की स्वीकृति लेकर एक डिग्री कॉलेज की स्थापना करना चाहता था। पर वो अभी इस बारे में संध्या से बात नहीं करना चाहता था।

गांव वालों की हर रोज़ मीटिंग होती थीं, इस बारे में की ठाकुराइन से जाकर इस बारे में पूछे की उसने ऐसा क्यूं किया? क्यूं उनकी ज़मीन हड़प ली उसने? पर गांव वाले भी ये समय सही नहीं समझा।

दीन बीतता गया, संध्या भी अब नॉर्मल होने लगी थीं, वो अमन को हद से ज्यादा प्यार करने लगी थीं। हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी ख्वाहिश अमन की यूं ही पूरी हो जाती। और वही अभय अपनी जिंदगी को ख्वाहिशों के हिसाब से नहीं जरूरत के हिसाब से जीना पड़ रहा था।

देखते ही देखते महीने सालों में व्यतीत होने लगे,, और जल्द ही अभि 10 वी कक्षा में आ गया था। अभि इन चार सालों में अपने आप को सही मार्गदर्शन दिया, मगर अब उसके सामने एक मुसीबत आन पड़ी थीं, उसके पैसे खत्म होने को आए थे। और ये बात रेखा और सेठ को भी पता था।

एक दिन सब लोग सुबह सुबह नाश्ता कर रहे थे, उस दिन संडे था तो अभि को स्कूल नहीं जाना था। वो चुप चाप डाइनिंग टेबल पर बैठा नाश्ता कर रहा था, और पैसों के बारे में सोच रहा था। ये देखकर सेठ ने कहा।।

सेठ --"अभि बेटा, क्या सोच रहे हो?

सेठ की बात सुनकर, अभि अपनी गहरी सोच से बाहर निकलते हुऐ बोला।

अभि --"कुछ नहीं सेठ जी, बस सोच रहा हूं की, अब आगे की पढ़ाई का खर्चा कैसे संभालूंगा? पैसे भी खत्म होने को आए हैं।"

अभि की बात पर, नाश्ता परोस रही रेखा बोल पड़ी...

रेखा --" इन चार सालों में हम तो तुझे अपना समझने लगें हैं, तेरे आने से मेरी जिंदगी भी औलाद ना होने होने का गम भी दूर हो गया। पर शायद तू ही हम लोग को अपना नहीं समझता। कितनी बार हम लोगों ने तुझे पैसे देने की कोशिश की पर तू अपनी ज़िद मे पैसे लेने से मना करता गया।"

रेखा की बात गौर से सुनते हुऐ अभी बोला...।

अभि --"ऐसी बात नहीं हैं आंटी, पैसे न लेने की वजह मेरी ज़िद नहीं हैं, ये तो वो सच हैं जिसे मैं मान चुका हूं की जिंदगी में जो करना हैं खुद के दम पर करो। और वैसे भी आप दोनो ने मेरा इतना खयाल रखा हैं इन चार सालों में, जो शायद मुझे ना मिलता तो यूं हीं आज कहीं अकेला रह जाता। पर देखो ना यहां मुझे अकेलापन महसूस ही नहीं होता।"

रेखा --"बातों में तूझसे भला कौन जीत सकता हैं? ठीक हैं तुझे पैसे नहीं लेने हैं तो मत ले, पर इस तरह से जब तू परेशान होकर सोच में डूब जाता हैं ना, तो वो मुझसे नहीं देखा जाता हैं।"

अपनी औरत की बात सुनकर पास में बैठा नाश्ता करते हुऐ सेठ ने बोला।

सेठ --"अरे रेखा तू भी ना बेवजह ही परेशान होने लगती हैं। ये तो अच्छी बात हैं, जो अपनी परेशानी की हल ढूढने के लिऐ सोचता हैं वही हर मुसीबत से लड़ सकता हैं। और अभि की तो यही खासियत हैं, जिस उम्र में बच्चो की सोच पर दायरे लगे होते हैं, उस उम्र में अभी ने वो दायरे को पार कर लिया हैं। फिर भी अभि मेरे पास एक तरकीब हैं, जिससे तेरी परेशानी टल सकती हैं, पर थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी।"

सेठ की बात सुनकर अभि बिना देरी करते हुऐ बोला....

अभि --"बोलो ना सेठ, मेहनत की तुम मुझ पर छोड़ दो और तरकीब बताओ।"

सेठ --"बाजार में ही मेरे दोस्त कि, साइबर कैफे हैं। वो मुझसे बोल रहा था कि कोई लड़का हो तो बताना कुछ 4 से 5 घंटे के लिऐ हर दीन साइबर पर बैठने के लिऐ। बोल रहा था की 7 हज़ार महीने तक देगा।"

ये सुनकर अभि की परेशानी छू मंतर हों गई, और झट से बोल पड़ा।

अभि --" हां तो ठीक हैं ना, 4 बजे स्कूल से छूटने के बाद मैं साइबर हर रोज चला जाऊंगा, और 8 बजे तक काम करूंगा वहा पर। सेठ जी तुम उनसे बोल दो की, लड़का मिल गया हैं, और बात कर के मुझे जल्दी बताना।"

सेठ --" अरे बात क्या करनी? तू आज शाम को दुकान पर आ जाना, सीधा उसके पास ही चलेंगे।"

अभि --" ये सही रहेगा सेठ जी।"

और फिर जल्द ही दोनो नाश्ता कर चुके थे, सेठ तो दुकान के लिऐ निकल गया, रेखा घर के कामों में लग गई... और अभि घूमने के लिऐ बाहर निकल गया।

_______________________

इधर हवेली में भी सब नाश्ते की टेबल पर बैठे थे, अमन के सामने पड़ी प्लेट मे देसी घी के पराठे पड़े थे। जिसे वो बहुत चाम से खा रहा था। और मालती अमन को ही गौर से देख रही थीं, की संध्या कितने प्यार से अमन को अपने हाथों से खिला रही थीं।

अमन --"बस करो ना बड़ी मां, अब नहीं खाया जाता, मेरा पेट भर गया हैं।"

कहते हुऐ अमन, अपने भर चुके पेट को सहलाए जा रहा था।

संध्या --"बस बेटा, ये आखिरी पराठा, हैं। खा ले।"

अमन ने किसी तरह वो पराठा खाया, मालती अभि भी उन दोनो को ही देख रही थीं कि तभी उसे पुरानी बात याद आई। जब एक दिन इसी तरह से सब नाश्ता कर रहे थे, अभय भी नाश्ता करते हुऐ गपागप ४ पराठे खा चुका था और पांचवा पराठा खाने के लिऐ मांग रहा था , तब संध्या पराठा देते हुऐ बोली थी की, कितना खायेगा इंसान हैं या हैवान जो पेट नहीं भर रहा हैं तेरा।

वो दृश्य और आज के दृश्य से मालती किस बात का अनुमान लगा रही थीं ये तो नहीं पता, पर तभी संध्या की नज़रे भी मालती पर पड़ती हैं तो पाती हैं की, मालती उसे और अमन को ही देख रही थीं।

मालती को इस तरह दिखते हुऐ संध्या बोल पड़ी...

संध्या --"तू ऐसे क्या देख रही हैं मालती? नज़र लगाएगी क्या मेरे बेटे को?"

संध्या की बात मालती के दिल मे चुभ सी गई,और फिर अचानक ही बोल पड़ी।

मालती --"नहीं दीदी बस पुरानी बातें याद आ गई थीं, अभय की।"

और कहते हुऐ मालती अपने कमरे में चली जाती है। संध्या मालती को जाते हुऐ वही खड़ी देखती रहती है......
Vajandar update
 

kamdev99008

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अपने फौजी भाई जी से सीखो की शमा दान महा दान जैसे चम्पा बच बच के विवाह तक पहुँच गयी :D
अपनी फोरम की डायन Naina का कहना है कि इश्क़ बुरी बला है...
और अपने फौजी भाई के हीरो को डायन से ही इश्क होता है

मैं नैना जी के साथ हूँ.... खून बहा दो... आँसू नहीं
 

Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
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अपने फौजी भाई जी से सीखो की शमा दान महा दान जैसे चम्पा बच बच के विवाह तक पहुँच गयी :D
मतलब यहां भी चंपा ही चाहिए आपको
 

brego4

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superb story writing dear


snadhya ka behaviour kuch samajh nahi aaya may be aage chal kar kuch clear hoga aisi kya reason rahi ki apne sage bete se soutella type dealing ?
 

Xabhi

"Injoy Everything In Limits"
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गांव के लोग काफ़ी दुखी थे, उन्हे ये अंदाजा भी ना था की ठाकुराइन ऐसा भी कर सकती है!!

इधर हवेली में , संध्या अपने कमरे में गुम सूम si बैठी थीं, सरीर में जान तो थी, पर देखबकर ऐसा लग रहा था मानो कोई निर्जीव सी वस्तु है, आपने बेटे के गम में सदमा खाई हुई संध्या, बेड पर बैठी हुई अपने हाथों में अपने बेटे की तस्वीर लिए उसे एकटक निहार जा रही थी।

संध्या की आंखों से लगातार आंसू छलकते जा रहे थे, वो इस तरह से अपने बेटे की तस्वीर देख रही थीं मानो उसका बेटा उसके सामने ही बैठा हो। संध्या अभय की तस्वीर देखते - देखते अचानक ही अभय के तस्वीर को अपने सीने से लगाकर जोर जोर से रोने लगती है। संध्या की रोने की आवाज उसके कमरे से बाहर तक जा रही थी । जिसे सुनकर मालती, ललिता भागते हुए उसके कमरे में आ गईं। और बेड पर बैठते हुऐ, संध्या को सम्हालने लगती हैं।


हालत तो मालती और ललिता की भी ठीक नहीं थी, अभय के जाने के बाद सब को ये हवेली सुनी सुनी सी लग रही थी,

मालती ने संध्या के आंसुओ को पोछते हुऐ, समझते हुए बोली....


मालती --"मैं आपकी हालत समझ सकती हूं दीदी, मगर अब जो चला गया वो भला लौट कर कैसे आएगा? ज़िद छोड़ दो दीदी, और चलो कुछ खा लो।

मालती की बात का संध्या पर कुछ असर न हुआ, वो तो बस अभय का तस्वीर सीने से लगाए बस रोए जा रही थीं। मालती से भी बर्दाश्त नहीं हुआ और उसकी आंखो से भी पानी छलक पड़ते हैं। लेकिन फिर भी मालती और ललिता ने संध्या को बहुत समझने की कोशिश की, पर संध्या तो सिर्फ़ सुन रही थीं, और जवाब में उसके पास सिर्फ़ आंसू थे और कुछ नहीं।।

तभी एक हांथ संध्या के कंधे पर पड़ा और साथ ही साथ एक आवाज भी....

"चुप हो जाओ बड़ी मां, तुम ऐसे मत रोया करो, मुझे अच्छा नहीं लगता, क्या मैं तुम्हारा बेटा नहीं हूं, क्या तुम मुझसे प्यार नहीं करती??"

आवाज कानों में जाते ही, संध्या अपने भीगी पलकें उठाती हैं, तो पाई सामने अमन खड़ा था जो इस वक्त उसके कंधो पर हांथ रखे उसे दिलासा दे रहा था। अमन को देखते ही संध्या, जोर जोर से रोते हुऐ उसे अपनी बाहों में भर लेती हैं....

संध्या --"अब तो बस तू ही सहारा हैं, वो तो मुझसे नाराज़ हो कर ना जाने कहां चला गया हैं!!?"

अमन --"तो फ़िर चुप हो जाओ, और चलो खान खा लो, नहीं तो मैं भी नहीं खाऊंगा, तुम्हे पता हैं मैं भी कल से भूंखा हूं।"

अमन की बात सुनकर , संध्या एक बार फिर अमन को अपने सीने से लगा लेती हैं। उसके बाद ललिता दो थाली मे खाना लेकर आती हैं, संध्या से एक भी निवाला अंदर नहीं जा रहा था , पर अमन का चेहरा देखते हुऐ वो खाना खाने लगती हैं....


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अभि स्कूल क्लास में बैठा था, 6 ट्वी कक्षा में दाखिला ले कर वो बहुत खुश था, वो अपनी पुरानी जिंदगी को पीछे छोड़कर वर्तमान में जीना चाहता था, वो उन हर रिश्तों को भूल जाना चाहता था, जिन रिश्तों मे अब उसका अपनापन रहा ही नही।

अभि अब हर दिन निरंतर स्कूल आने जाने लगा था, धीरे -- धीरे वो रेखा से भी घुल मिल गया था। मगर वो गांव की उस हवेली को नहीं भूला पा रहा था, जिसे भागते वक्त उसने देखा था। अभि पढ़ने लिखने में वाकई काफी तेज़ तर्रार था,। अभि काफी होशियार भी था, सोने की चैन बेचकर जो पैसा उसे मिला था, काफी सोच समझ कर खर्चा करता था। अभि को पता था की एक दीन ये पैसे भी खत्म हो जाएंगे, फिर उसके लिए काफी मुश्किलात होने लगेंगी। पर अभी इन सब के बारे में अभी नहीं सोचना चाहता था।

इधर हवेली में भी संध्या अमन का मुंह देख कर जीने लगी थीं, पर हर रात अभय की यादों में आंसू जरूर बहाती थी, ये शायद उसका रूटीन बन गया था। रमन सिंह ने गांव वालो की ज़मीन हड़प, अपनी भाभी संध्या की स्वीकृति लेकर एक डिग्री कॉलेज की स्थापना करना चाहता था। पर वो अभी इस बारे में संध्या से बात नहीं करना चाहता था।

गांव वालों की हर रोज़ मीटिंग होती थीं, इस बारे में की ठाकुराइन से जाकर इस बारे में पूछे की उसने ऐसा क्यूं किया? क्यूं उनकी ज़मीन हड़प ली उसने? पर गांव वाले भी ये समय सही नहीं समझा।

दीन बीतता गया, संध्या भी अब नॉर्मल होने लगी थीं, वो अमन को हद से ज्यादा प्यार करने लगी थीं। हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी ख्वाहिश अमन की यूं ही पूरी हो जाती। और वही अभय अपनी जिंदगी को ख्वाहिशों के हिसाब से नहीं जरूरत के हिसाब से जीना पड़ रहा था।

देखते ही देखते महीने सालों में व्यतीत होने लगे,, और जल्द ही अभि 10 वी कक्षा में आ गया था। अभि इन चार सालों में अपने आप को सही मार्गदर्शन दिया, मगर अब उसके सामने एक मुसीबत आन पड़ी थीं, उसके पैसे खत्म होने को आए थे। और ये बात रेखा और सेठ को भी पता था।

एक दिन सब लोग सुबह सुबह नाश्ता कर रहे थे, उस दिन संडे था तो अभि को स्कूल नहीं जाना था। वो चुप चाप डाइनिंग टेबल पर बैठा नाश्ता कर रहा था, और पैसों के बारे में सोच रहा था। ये देखकर सेठ ने कहा।।

सेठ --"अभि बेटा, क्या सोच रहे हो?

सेठ की बात सुनकर, अभि अपनी गहरी सोच से बाहर निकलते हुऐ बोला।

अभि --"कुछ नहीं सेठ जी, बस सोच रहा हूं की, अब आगे की पढ़ाई का खर्चा कैसे संभालूंगा? पैसे भी खत्म होने को आए हैं।"

अभि की बात पर, नाश्ता परोस रही रेखा बोल पड़ी...

रेखा --" इन चार सालों में हम तो तुझे अपना समझने लगें हैं, तेरे आने से मेरी जिंदगी भी औलाद ना होने होने का गम भी दूर हो गया। पर शायद तू ही हम लोग को अपना नहीं समझता। कितनी बार हम लोगों ने तुझे पैसे देने की कोशिश की पर तू अपनी ज़िद मे पैसे लेने से मना करता गया।"

रेखा की बात गौर से सुनते हुऐ अभी बोला...।

अभि --"ऐसी बात नहीं हैं आंटी, पैसे न लेने की वजह मेरी ज़िद नहीं हैं, ये तो वो सच हैं जिसे मैं मान चुका हूं की जिंदगी में जो करना हैं खुद के दम पर करो। और वैसे भी आप दोनो ने मेरा इतना खयाल रखा हैं इन चार सालों में, जो शायद मुझे ना मिलता तो यूं हीं आज कहीं अकेला रह जाता। पर देखो ना यहां मुझे अकेलापन महसूस ही नहीं होता।"

रेखा --"बातों में तूझसे भला कौन जीत सकता हैं? ठीक हैं तुझे पैसे नहीं लेने हैं तो मत ले, पर इस तरह से जब तू परेशान होकर सोच में डूब जाता हैं ना, तो वो मुझसे नहीं देखा जाता हैं।"

अपनी औरत की बात सुनकर पास में बैठा नाश्ता करते हुऐ सेठ ने बोला।

सेठ --"अरे रेखा तू भी ना बेवजह ही परेशान होने लगती हैं। ये तो अच्छी बात हैं, जो अपनी परेशानी की हल ढूढने के लिऐ सोचता हैं वही हर मुसीबत से लड़ सकता हैं। और अभि की तो यही खासियत हैं, जिस उम्र में बच्चो की सोच पर दायरे लगे होते हैं, उस उम्र में अभी ने वो दायरे को पार कर लिया हैं। फिर भी अभि मेरे पास एक तरकीब हैं, जिससे तेरी परेशानी टल सकती हैं, पर थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी।"

सेठ की बात सुनकर अभि बिना देरी करते हुऐ बोला....

अभि --"बोलो ना सेठ, मेहनत की तुम मुझ पर छोड़ दो और तरकीब बताओ।"

सेठ --"बाजार में ही मेरे दोस्त कि, साइबर कैफे हैं। वो मुझसे बोल रहा था कि कोई लड़का हो तो बताना कुछ 4 से 5 घंटे के लिऐ हर दीन साइबर पर बैठने के लिऐ। बोल रहा था की 7 हज़ार महीने तक देगा।"

ये सुनकर अभि की परेशानी छू मंतर हों गई, और झट से बोल पड़ा।

अभि --" हां तो ठीक हैं ना, 4 बजे स्कूल से छूटने के बाद मैं साइबर हर रोज चला जाऊंगा, और 8 बजे तक काम करूंगा वहा पर। सेठ जी तुम उनसे बोल दो की, लड़का मिल गया हैं, और बात कर के मुझे जल्दी बताना।"

सेठ --" अरे बात क्या करनी? तू आज शाम को दुकान पर आ जाना, सीधा उसके पास ही चलेंगे।"

अभि --" ये सही रहेगा सेठ जी।"

और फिर जल्द ही दोनो नाश्ता कर चुके थे, सेठ तो दुकान के लिऐ निकल गया, रेखा घर के कामों में लग गई... और अभि घूमने के लिऐ बाहर निकल गया।

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इधर हवेली में भी सब नाश्ते की टेबल पर बैठे थे, अमन के सामने पड़ी प्लेट मे देसी घी के पराठे पड़े थे। जिसे वो बहुत चाम से खा रहा था। और मालती अमन को ही गौर से देख रही थीं, की संध्या कितने प्यार से अमन को अपने हाथों से खिला रही थीं।

अमन --"बस करो ना बड़ी मां, अब नहीं खाया जाता, मेरा पेट भर गया हैं।"

कहते हुऐ अमन, अपने भर चुके पेट को सहलाए जा रहा था।

संध्या --"बस बेटा, ये आखिरी पराठा, हैं। खा ले।"

अमन ने किसी तरह वो पराठा खाया, मालती अभि भी उन दोनो को ही देख रही थीं कि तभी उसे पुरानी बात याद आई। जब एक दिन इसी तरह से सब नाश्ता कर रहे थे, अभय भी नाश्ता करते हुऐ गपागप ४ पराठे खा चुका था और पांचवा पराठा खाने के लिऐ मांग रहा था , तब संध्या पराठा देते हुऐ बोली थी की, कितना खायेगा इंसान हैं या हैवान जो पेट नहीं भर रहा हैं तेरा।

वो दृश्य और आज के दृश्य से मालती किस बात का अनुमान लगा रही थीं ये तो नहीं पता, पर तभी संध्या की नज़रे भी मालती पर पड़ती हैं तो पाती हैं की, मालती उसे और अमन को ही देख रही थीं।

मालती को इस तरह दिखते हुऐ संध्या बोल पड़ी...

संध्या --"तू ऐसे क्या देख रही हैं मालती? नज़र लगाएगी क्या मेरे बेटे को?"

संध्या की बात मालती के दिल मे चुभ सी गई,और फिर अचानक ही बोल पड़ी।

मालती --"नहीं दीदी बस पुरानी बातें याद आ गई थीं, अभय की।"

और कहते हुऐ मालती अपने कमरे में चली जाती है। संध्या मालती को जाते हुऐ वही खड़ी देखती रहती है......
Bhai Vo kya tha mujhe bhi nahi pta pr jb malti ne apni last line boli to mere dil me dhakk sa rah gya, ab Aap Isko kya samajhte ho mujhe nhi pta pr mujhe lagta hai ye aapki kalam ka jadu hi hai jisne mujhe andar tk jhakjhor diya...

Mai Bahut connected feel karta hu imotion se...

Superb update bhai sandar jabarjast lajvab amazing
 
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