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Incest वो तो है अलबेला (incest + adultery)

क्या संध्या की गलती माफी लायक है??


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Hemantstar111

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_वो__तो__है__अल_बेला_


मालती के जाते ही, संध्या भी अपने कमरे में चली गई। संध्या गुम सूम सी अपने बेड पर बैठी थीं, उसे अजीब सी बेचैनी हो रही थीं। वो मालती की कही हुई बात पर गौर करने लगी। वो उस दीन को याद करने लगी जब उसने अभय की जम कर पिटाई कर रही थीं। उस दीन हवेली के नौकर भी अभय की पिटाई देख कर सहम गए थे। बात कुछ यूं थीं की, रमन हवेली में लहू लुहान हो कर अपना सर पकड़े पहुंचा। संध्या उस समय हवेली के हॉल में ही बैठी थीं। संध्या ने जब देखा की रमन के सर से खून बह रहा है, और रमन अपने सर को हाथों से पकड़ा है, तो संध्या घबरा गई। और सोफे पर से उठते हुऐ बोली...

संध्या --" ये...ये क्या हुआ तुम्हे? सर पर चोट कैसे लग गई?

बोलते हुऐ संध्या ने नौकर को आवाज लगाई और डॉक्टर को बुलाने के लिऐ बोली....

संध्या की बात सुनकर रमन कुछ नहीं बोला, बस अपने खून से सने हांथ को सर पर रखे कराह रहा था। रमन को यूं ख़ामोश दर्द में करहता देख, संध्या गुस्से में बोली....

संध्या --"मैं कुछ पूंछ रही हूं तुमसे? कैसे हुआ ये?

"अरे ये क्या बताएंगे बड़ी ठाकुराइन, मैं बताता हूं..."

इस अनजानी आवाज़ ने सांध्य का ध्यान खींचा, तो पाई सामने मुनीम खड़ा था। मुनीम को देख कर रमन गुस्से में चिल्लाया....

रमन --"मुनीम जी, आप जाओ यहां से, कुछ नहीं हुआ है भाभी। ये बस मेरी गलती की वजह से ही अनजाने में लग गया।"

"नहीं बड़ी ठाकुराइन, झूंठ बोल रहे है छोटे मालिक। ये तो आपके...."

रमन --"मुनीम जी... मैने कहा ना आप जाओ।

रमन ने मुनीम की बात बीच में ही काटते हुऐ बोला। मगर इस बार सांध्या ने जोर देते हुऐ कहा....


संध्या --"मुनीम जी, बात क्या है... साफ - साफ बताओ मुझे?"

संध्या की बात सुनकर, मुनीम बिना देरी के बोल पड़ा....



मुनीम --"वो... बड़ी ठाकुराइन, छोटे मालिक का सर अभय बाबा ने पत्थर मार कर फोड़ दीया।"

ये सुनकर संध्या गुस्से में लाल हो गई.…

संध्या --"अभय ने!! पर वो ऐसा क्यूं करेगा?"

मुनीम --"अब क्या बताऊं बड़ी ठाकुराइन, छोटे मालिक और मै बाग की तरफ़ जा रहे थे, तो देखा अभय बाबा गांव के नीच जाति के बच्चों के साथ खेल-कूद कर रहे थे। पता नहीं कौन थे चमार थे, केवट था या पता नहीं कौन से जाति के थे वो बच्चे। यही देख कर छोटे मालिक ने अभय को डाट दिया, ये कहते हुऐ की अपनी बराबरी के जाति वालों के बच्चों के साथ खेलो, हवेली का नाम मत खराब करो। ये सुन कर अभय बाबा, छोटे मालिक से जुबान लड़ाते हुए बोले,, ये सब मेरे दोस्त है, और दोस्ती जात पात नहीं देखती, अगर इनसे दोस्ती करके इनके साथ खेलने में हवेली का नाम खराब होता है तो हो जाए, मुझे कुछ फरक नहीं पड़ता।"

संध्या --"फिर क्या हुआ?"

मुनीम --"फिर क्या बड़ी मालकिन, छोटे मालिक ने अभय बाबा से कहा की, अगर भाभी को पता चला तो तेरी खैर नहीं, तो इस पर अभय बाबा ने कहा, अरे वो तो बकलोल है, दिमाग नाम का चीज़ तो है ही नहीं मेरी मां में, वो क्या बोलेगी, ज्यादा से ज्यादा दो चार थप्पड़ मरेगी और क्या, पर तेरा सर तो मै अभी फोडूंगा। और कहते हुऐ अभय बाबा ने जमीन पर पड़ा पत्थर उठा कर छोटे मालिक को दे मारा, और वहां से भाग गए।"

मुनीम की बात सुनकर तो मानो सांध्य का पारा चरम पर था, गुस्से मे आपने दांत की किटकिती बजाते हुऐ बोली...

सांध्य --"बच्चा समझ कर, मैं उसे हर बार नज़र अंदाज़ करते गई। पर अब तो उसके अंदर बड़े छोटे की कद्र भी खत्म होती जा रही है। आज रमन का सर फोड़ा है, और मेरे बारे में भी बुरा भला बोलने लगा है, हद से ज्यादा ही बिगड़ता जा रहा है, आने दो उसे आज बताती हूं की, मैं कितनी बड़ी बकलोल हूं..."


.... भाभी, भाभी... कहां हो तुम, अंदर हों क्या?

इस आवाज़ ने, सांध्य को भूत काल की यादों से वर्तमान की धरती पर ला पटका, अपनी नम हो चुकी आंखो के कोने से छलक पड़े आंसू के कतरों को अपनी गोरी हथेली से पोछते हुऐ, सुर्ख पड़ चुकी आवाज़ में बोली...

सांध्य --"हां, अंदर ही हूं।"

बोलते हुऐ वो दरवाज़े की तरफ़ देखने लगी... कमरे में रमन दाखिल हुआ, और संध्या के करीब आते हुऐ बेड पर उसके बगल में बैठते हुऐ बोला।


रमन --"भाभी, मैने सोचा है की, गांव में पिता जी के नाम से एक डिग्री कॉलेज बनवा जाए, अब देखो ना यहां से शहर काफी दूर है, आस - पास के कई गांव के विद्यार्थी को दूर शहरों में जाकर पढ़ाई करनी पड़ती है। अगर हमने अपना डिग्री कॉलेज बनवा कर मान्यता हंसील कर ली, तो विद्यार्थियों को पढ़ाई में आसानी हो जाएंगी।"

रमन की बात सुनते हुऐ, सांध्य बोली.....

संध्या --"ये तो बहुत अच्छी बात है, तुम्हारे बड़े भैया की भी यही ख्वाहिश थीं, वो अभय के नाम पर डिग्री कॉलेज बनाना चाहते थे, पर अब तो अभय यहां रहा ही नहीं, बनवा दो अभय के नाम से ही... वो नहीं तो उसका नाम तो रहेगा।"

रमन --"ओ... हो भाभी, तो पहले ही बताना चाहिए था, मैने तो मान्यता लेने वाले फॉर्म पर पिता जी के नाम से भर कर अप्लाई कर दिया। ठीक हैं मैं मुनीम से कह कर चेंज करवाने की कोशिश करूंगा।"

रमन की बात सुनकर संध्या ने कहा...

संध्या --"नहीं ठीक है, रहने दो। पिता जी का नाम भी ठीक है।"

रमन --"ठीक है भाभी, जैसा तुम कहो।"

और ये कह कर रमन जाने लगा तभी... सन्ध्या ने रमन को रोकते हुऐ....

संध्या --"अ... रमन।"

रमन रुकते हुऐ, संध्या की तरफ़ पलटते हुऐ...

रमन --"हां भाभी।"

संध्या --"एक बात पूंछू??"

संध्या की ठहरी और गहरी आवाज़ में ये बात सुनकर रमन एक पल के लिऐ सोच की उलझन में उलझते 5हुऐ, उलझे हुऐ स्वर मे बोला...


रमन --"क्या अभय को मेरे और तुम्हारे रिश्ते के बारे में पता था, या फिर कुछ शक था?"

ये सुन कर रमन को ताजुब और हैरानी दोनो एक साथ हुई, ताजुब इस बात की, की इतने सालों बाद इस बारे में क्यूं? और हैरानी इस बात की, की अमन को उनके रिश्ते के बारे में पता था या नहीं इस सवाल पर।

रमन --"मुझे नहीं लगता भाभी, जब घर वालो और गांव वालो को पता नहीं चला तो, वो तो 9 साल का बच्चा था भाभी, उसे भला कैसे पता चलेगा? पर आज इतने सालों बाद क्यूं?"

संध्या अपनी गहरी और करुण्डता भरे लहज़े में बोली...

संध्या --" ना जाने क्यूं, हमेशा एक बेचैनी सी होती रहती है, ऐसा लगता है की मेरा दिल भटक रहा है किसी के लिऐ, मुझे पता है की किस के लिऐ भटकता है, मैं खुद से ही अंदर अंदर लड़ती रहती हूं, रात भर रोती रहती हूं, सोचती हूं की वो कहीं से तो आ जाए, ताकी मैं उसे बता सकूं की मैं उससे कितना प्यार करती हूं, माना की मैने बहुत गलतियां की हैं, मैंने उसे जानवरों की तरह पीटा, पर ये सब सिर्फ़ गुस्से में आकर। मुझसे गलती हो गई, मैं ये ख़ुद को नहीं समझा पा रही हूं, उसे कैसे समझाती। मैं थक गई हूं, जिंदगी बेरंग सी लगने लगी हैं। हर पल उसे भुलाने की कोशिश करती हूं, पर फिर दिल कहता है की, उसे भुला दी तो जिंदगी में तेरे क्या बचेगा? हे भगवान क्या करूं? कहां जाऊं? कोई तो राह दिखा दे?"

कहते हुऐ सन्ध्या एक बार फिर रोने लगती है...!

"अब रो कर कुछ हासिल नहीं होगा दीदी,"

नज़र उठा कर देखी तो सामने मालती खड़ी थीं, रुवांसी आंखो से मालती की तरफ़ देखते हुऐ थोड़ी चेहरे बेबसी की मुस्कान लाती हुई संध्या मालती से बोली...

संध्या --"एक मां को जब, उसके ही बेटे के लिऐ कोई ताना मारे तो उस मां पर क्या बीतती है, वो एक मां ही समझ सकती है।"

संध्या की बात मालती समझ गई थीं की सन्ध्या का इशारा आज सुबह नाश्ता करते हुऐ उसकी कही हुई बात की तरफ़ थीं।

मालती --"अच्छा! तो दीदी आप ताना मारने का बदला ताना मार कर ही ले रही है।"

संध्या को बात भी मालती की बात समझते देरी नहीं लगी, और झट से छटपटाते हुऐ बोली...

संध्या --"नहीं... नहीं, भगवान के लिऐ तू ऐसा ना समझ की, मैं तुझे कोई ताना मार रही हूं। तेरी बात एकदम ठीक थीं, मैने कभी तो अभय को ज्यादा खाना खाने पर ताना मारी थीं, मेरी मति मारी गई थीं, बुद्धि भ्रष्ट हो गई थीं, इस लिऐ ऐसे शब्द मुंह से निकल रहे थे।"

चुप चाप खड़ी संध्या की बात सुनते हुऐ मालती भावुक हो चली आवाज़ मे बोली...

मालती --"भगवान ने मुझे मां बनने का सौभाग्य तो नहीं दीया, पर हां इतना तो पता है दीदी की, बुद्धि हीन मां हो चाहे मति मारी गई मां हो, पागल मां हो चाहे शैतान की ही मां क्यूं ना हो... अपने बच्चे को हर स्थिति में सिर्फ प्यार ही करती है।"

कहते हुऐ मालती वापस उस कमरे से चली जाति है... और इधर मालती की सत्य बातें संध्या को अंदर ही अंदर एक बदचलन मां की उपाधि के तख्ते पर बिठा गई थीं, जो संध्या बर्दाश्त नहीं कर पाई।।

और जोर - जोर से उस कमरे में इस तरह चिल्लाने लगी जैसे पागल खाने में पागल व्यक्ति...


..... हां.... हां मैं एक गिरी हुई औरत हूं, यही सुनना चाहती है ना तू, लेकिन एक बात सुन ले तू भी, मेरे बेटे से मुझसे से ज्यादा कोई प्यार नहीं करता...


""अब क्या फ़ायदा दीदी, अब तो प्यार करने वाला रहा ही नहीं... फिर किसको सुना रही हो?"

चिल्लाती हुई संध्या की बात सुनकर , मालती भी चिल्लाकर कमरे से बाहर निकलते हुई बोली और फिर वो भी नम आंखों के साथ अपने कमरे की तरफ़ चल पड़ती है.....

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arish8299

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मालती के जाते ही, संध्या भी अपने कमरे में चली गई। संध्या गुम सूम सी अपने बेड पर बैठी थीं, उसे अजीब सी बेचैनी हो रही थीं। वो मालती की कही हुई बात पर गौर करने लगी। वो उस दीन को याद करने लगी जब उसने अभय की जम कर पिटाई कर रही थीं। उस दीन हवेली के नौकर भी अभय की पिटाई देख कर सहम गए थे। बात कुछ यूं थीं की, रमन हवेली में लहू लुहान हो कर अपना सर पकड़े पहुंचा। संध्या उस समय हवेली के हॉल में ही बैठी थीं। संध्या ने जब देखा की रमन के सर से खून बह रहा है, और रमन अपने सर को हाथों से पकड़ा है, तो संध्या घबरा गई। और सोफे पर से उठते हुऐ बोली...

संध्या --" ये...ये क्या हुआ तुम्हे? सर पर चोट कैसे लग गई?

बोलते हुऐ संध्या ने नौकर को आवाज लगाई और डॉक्टर को बुलाने के लिऐ बोली....

संध्या की बात सुनकर रमन कुछ नहीं बोला, बस अपने खून से सने हांथ को सर पर रखे कराह रहा था। रमन को यूं ख़ामोश दर्द में करहता देख, संध्या गुस्से में बोली....

संध्या --"मैं कुछ पूंछ रही हूं तुमसे? कैसे हुआ ये?

"अरे ये क्या बताएंगे बड़ी ठाकुराइन, मैं बताता हूं..."

इस अनजानी आवाज़ ने सांध्य का ध्यान खींचा, तो पाई सामने मुनीम खड़ा था। मुनीम को देख कर रमन गुस्से में चिल्लाया....

रमन --"मुनीम जी, आप जाओ यहां से, कुछ नहीं हुआ है भाभी। ये बस मेरी गलती की वजह से ही अनजाने में लग गया।"

"नहीं बड़ी ठाकुराइन, झूंठ बोल रहे है छोटे मालिक। ये तो आपके...."

रमन --"मुनीम जी... मैने कहा ना आप जाओ।

रमन ने मुनीम की बात बीच में ही काटते हुऐ बोला। मगर इस बार सांध्या ने जोर देते हुऐ कहा....


संध्या --"मुनीम जी, बात क्या है... साफ - साफ बताओ मुझे?"

संध्या की बात सुनकर, मुनीम बिना देरी के बोल पड़ा....



मुनीम --"वो... बड़ी ठाकुराइन, छोटे मालिक का सर अभय बाबा ने पत्थर मार कर फोड़ दीया।"

ये सुनकर संध्या गुस्से में लाल हो गई.…

संध्या --"अभय ने!! पर वो ऐसा क्यूं करेगा?"

मुनीम --"अब क्या बताऊं बड़ी ठाकुराइन, छोटे मालिक और मै बाग की तरफ़ जा रहे थे, तो देखा अभय बाबा गांव के नीच जाति के बच्चों के साथ खेल-कूद कर रहे थे। पता नहीं कौन थे चमार थे, केवट था या पता नहीं कौन से जाति के थे वो बच्चे। यही देख कर छोटे मालिक ने अभय को डाट दिया, ये कहते हुऐ की अपनी बराबरी के जाति वालों के बच्चों के साथ खेलो, हवेली का नाम मत खराब करो। ये सुन कर अभय बाबा, छोटे मालिक से जुबान लड़ाते हुए बोले,, ये सब मेरे दोस्त है, और दोस्ती जात पात नहीं देखती, अगर इनसे दोस्ती करके इनके साथ खेलने में हवेली का नाम खराब होता है तो हो जाए, मुझे कुछ फरक नहीं पड़ता।"

संध्या --"फिर क्या हुआ?"

मुनीम --"फिर क्या बड़ी मालकिन, छोटे मालिक ने अभय बाबा से कहा की, अगर भाभी को पता चला तो तेरी खैर नहीं, तो इस पर अभय बाबा ने कहा, अरे वो तो बकलोल है, दिमाग नाम का चीज़ तो है ही नहीं मेरी मां में, वो क्या बोलेगी, ज्यादा से ज्यादा दो चार थप्पड़ मरेगी और क्या, पर तेरा सर तो मै अभी फोडूंगा। और कहते हुऐ अभय बाबा ने जमीन पर पड़ा पत्थर उठा कर छोटे मालिक को दे मारा, और वहां से भाग गए।"

मुनीम की बात सुनकर तो मानो सांध्य का पारा चरम पर था, गुस्से मे आपने दांत की किटकिती बजाते हुऐ बोली...

सांध्य --"बच्चा समझ कर, मैं उसे हर बार नज़र अंदाज़ करते गई। पर अब तो उसके अंदर बड़े छोटे की कद्र भी खत्म होती जा रही है। आज रमन का सर फोड़ा है, और मेरे बारे में भी बुरा भला बोलने लगा है, हद से ज्यादा ही बिगड़ता जा रहा है, आने दो उसे आज बताती हूं की, मैं कितनी बड़ी बकलोल हूं..."


.... भाभी, भाभी... कहां हो तुम, अंदर हों क्या?

इस आवाज़ ने, सांध्य को भूत काल की यादों से वर्तमान की धरती पर ला पटका, अपनी नम हो चुकी आंखो के कोने से छलक पड़े आंसू के कतरों को अपनी गोरी हथेली से पोछते हुऐ, सुर्ख पड़ चुकी आवाज़ में बोली...

सांध्य --"हां, अंदर ही हूं।"

बोलते हुऐ वो दरवाज़े की तरफ़ देखने लगी... कमरे में रमन दाखिल हुआ, और संध्या के करीब आते हुऐ बेड पर उसके बगल में बैठते हुऐ बोला।


रमन --"भाभी, मैने सोचा है की, गांव में पिता जी के नाम से एक डिग्री कॉलेज बनवा जाए, अब देखो ना यहां से शहर काफी दूर है, आस - पास के कई गांव के विद्यार्थी को दूर शहरों में जाकर पढ़ाई करनी पड़ती है। अगर हमने अपना डिग्री कॉलेज बनवा कर मान्यता हंसील कर ली, तो विद्यार्थियों को पढ़ाई में आसानी हो जाएंगी।"

रमन की बात सुनते हुऐ, सांध्य बोली.....

संध्या --"ये तो बहुत अच्छी बात है, तुम्हारे बड़े भैया की भी यही ख्वाहिश थीं, वो अभय के नाम पर डिग्री कॉलेज बनाना चाहते थे, पर अब तो अभय यहां रहा ही नहीं, बनवा दो अभय के नाम से ही... वो नहीं तो उसका नाम तो रहेगा।"

रमन --"ओ... हो भाभी, तो पहले ही बताना चाहिए था, मैने तो मान्यता लेने वाले फॉर्म पर पिता जी के नाम से भर कर अप्लाई कर दिया। ठीक हैं मैं मुनीम से कह कर चेंज करवाने की कोशिश करूंगा।"

रमन की बात सुनकर संध्या ने कहा...

संध्या --"नहीं ठीक है, रहने दो। पिता जी का नाम भी ठीक है।"

रमन --"ठीक है भाभी, जैसा तुम कहो।"

और ये कह कर रमन जाने लगा तभी... सन्ध्या ने रमन को रोकते हुऐ....

संध्या --"अ... रमन।"

रमन रुकते हुऐ, संध्या की तरफ़ पलटते हुऐ...

रमन --"हां भाभी।"

संध्या --"एक बात पूंछू??"

संध्या की ठहरी और गहरी आवाज़ में ये बात सुनकर रमन एक पल के लिऐ सोच की उलझन में उलझते 5हुऐ, उलझे हुऐ स्वर मे बोला...


रमन --"क्या अभय को मेरे और तुम्हारे रिश्ते के बारे में पता था, या फिर कुछ शक था?"

ये सुन कर रमन को ताजुब और हैरानी दोनो एक साथ हुई, ताजुब इस बात की, की इतने सालों बाद इस बारे में क्यूं? और हैरानी इस बात की, की अमन को उनके रिश्ते के बारे में पता था या नहीं इस सवाल पर।

रमन --"मुझे नहीं लगता भाभी, जब घर वालो और गांव वालो को पता नहीं चला तो, वो तो 9 साल का बच्चा था भाभी, उसे भला कैसे पता चलेगा? पर आज इतने सालों बाद क्यूं?"

संध्या अपनी गहरी और करुण्डता भरे लहज़े में बोली...

संध्या --" ना जाने क्यूं, हमेशा एक बेचैनी सी होती रहती है, ऐसा लगता है की मेरा दिल भटक रहा है किसी के लिऐ, मुझे पता है की किस के लिऐ भटकता है, मैं खुद से ही अंदर अंदर लड़ती रहती हूं, रात भर रोती रहती हूं, सोचती हूं की वो कहीं से तो आ जाए, ताकी मैं उसे बता सकूं की मैं उससे कितना प्यार करती हूं, माना की मैने बहुत गलतियां की हैं, मैंने उसे जानवरों की तरह पीटा, पर ये सब सिर्फ़ गुस्से में आकर। मुझसे गलती हो गई, मैं ये ख़ुद को नहीं समझा पा रही हूं, उसे कैसे समझाती। मैं थक गई हूं, जिंदगी बेरंग सी लगने लगी हैं। हर पल उसे भुलाने की कोशिश करती हूं, पर फिर दिल कहता है की, उसे भुला दी तो जिंदगी में तेरे क्या बचेगा? हे भगवान क्या करूं? कहां जाऊं? कोई तो राह दिखा दे?"

कहते हुऐ सन्ध्या एक बार फिर रोने लगती है...!

"अब रो कर कुछ हासिल नहीं होगा दीदी,"

नज़र उठा कर देखी तो सामने मालती खड़ी थीं, रुवांसी आंखो से मालती की तरफ़ देखते हुऐ थोड़ी चेहरे बेबसी की मुस्कान लाती हुई संध्या मालती से बोली...

संध्या --"एक मां को जब, उसके ही बेटे के लिऐ कोई ताना मारे तो उस मां पर क्या बीतती है, वो एक मां ही समझ सकती है।"

संध्या की बात मालती समझ गई थीं की सन्ध्या का इशारा आज सुबह नाश्ता करते हुऐ उसकी कही हुई बात की तरफ़ थीं।

मालती --"अच्छा! तो दीदी आप ताना मारने का बदला ताना मार कर ही ले रही है।"

संध्या को बात भी मालती की बात समझते देरी नहीं लगी, और झट से छटपटाते हुऐ बोली...

संध्या --"नहीं... नहीं, भगवान के लिऐ तू ऐसा ना समझ की, मैं तुझे कोई ताना मार रही हूं। तेरी बात एकदम ठीक थीं, मैने कभी तो अभय को ज्यादा खाना खाने पर ताना मारी थीं, मेरी मति मारी गई थीं, बुद्धि भ्रष्ट हो गई थीं, इस लिऐ ऐसे शब्द मुंह से निकल रहे थे।"

चुप चाप खड़ी संध्या की बात सुनते हुऐ मालती भावुक हो चली आवाज़ मे बोली...

मालती --"भगवान ने मुझे मां बनने का सौभाग्य तो नहीं दीया, पर हां इतना तो पता है दीदी की, बुद्धि हीन मां हो चाहे मति मारी गई मां हो, पागल मां हो चाहे शैतान की ही मां क्यूं ना हो... अपने बच्चे को हर स्थिति में सिर्फ प्यार ही करती है।"

कहते हुऐ मालती वापस उस कमरे से चली जाति है... और इधर मालती की सत्य बातें संध्या को अंदर ही अंदर एक बदचलन मां की उपाधि के तख्ते पर बिठा गई थीं, जो संध्या बर्दाश्त नहीं कर पाई।।

और जोर - जोर से उस कमरे में इस तरह चिल्लाने लगी जैसे पागल खाने में पागल व्यक्ति...


..... हां.... हां मैं एक गिरी हुई औरत हूं, यही सुनना चाहती है ना तू, लेकिन एक बात सुन ले तू भी, मेरे बेटे से मुझसे से ज्यादा कोई प्यार नहीं करता...


""अब क्या फ़ायदा दीदी, अब तो प्यार करने वाला रहा ही नहीं... फिर किसको सुना रही हो?"

चिल्लाती हुई संध्या की बात सुनकर , मालती भी चिल्लाकर कमरे से बाहर निकलते हुई बोली और फिर वो भी नम आंखों के साथ अपने कमरे की तरफ़ चल पड़ती है.....

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Xabhi

"Injoy Everything In Limits"
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मालती के जाते ही, संध्या भी अपने कमरे में चली गई। संध्या गुम सूम सी अपने बेड पर बैठी थीं, उसे अजीब सी बेचैनी हो रही थीं। वो मालती की कही हुई बात पर गौर करने लगी। वो उस दीन को याद करने लगी जब उसने अभय की जम कर पिटाई कर रही थीं। उस दीन हवेली के नौकर भी अभय की पिटाई देख कर सहम गए थे। बात कुछ यूं थीं की, रमन हवेली में लहू लुहान हो कर अपना सर पकड़े पहुंचा। संध्या उस समय हवेली के हॉल में ही बैठी थीं। संध्या ने जब देखा की रमन के सर से खून बह रहा है, और रमन अपने सर को हाथों से पकड़ा है, तो संध्या घबरा गई। और सोफे पर से उठते हुऐ बोली...

संध्या --" ये...ये क्या हुआ तुम्हे? सर पर चोट कैसे लग गई?

बोलते हुऐ संध्या ने नौकर को आवाज लगाई और डॉक्टर को बुलाने के लिऐ बोली....

संध्या की बात सुनकर रमन कुछ नहीं बोला, बस अपने खून से सने हांथ को सर पर रखे कराह रहा था। रमन को यूं ख़ामोश दर्द में करहता देख, संध्या गुस्से में बोली....

संध्या --"मैं कुछ पूंछ रही हूं तुमसे? कैसे हुआ ये?

"अरे ये क्या बताएंगे बड़ी ठाकुराइन, मैं बताता हूं..."

इस अनजानी आवाज़ ने सांध्य का ध्यान खींचा, तो पाई सामने मुनीम खड़ा था। मुनीम को देख कर रमन गुस्से में चिल्लाया....

रमन --"मुनीम जी, आप जाओ यहां से, कुछ नहीं हुआ है भाभी। ये बस मेरी गलती की वजह से ही अनजाने में लग गया।"

"नहीं बड़ी ठाकुराइन, झूंठ बोल रहे है छोटे मालिक। ये तो आपके...."

रमन --"मुनीम जी... मैने कहा ना आप जाओ।

रमन ने मुनीम की बात बीच में ही काटते हुऐ बोला। मगर इस बार सांध्या ने जोर देते हुऐ कहा....


संध्या --"मुनीम जी, बात क्या है... साफ - साफ बताओ मुझे?"

संध्या की बात सुनकर, मुनीम बिना देरी के बोल पड़ा....



मुनीम --"वो... बड़ी ठाकुराइन, छोटे मालिक का सर अभय बाबा ने पत्थर मार कर फोड़ दीया।"

ये सुनकर संध्या गुस्से में लाल हो गई.…

संध्या --"अभय ने!! पर वो ऐसा क्यूं करेगा?"

मुनीम --"अब क्या बताऊं बड़ी ठाकुराइन, छोटे मालिक और मै बाग की तरफ़ जा रहे थे, तो देखा अभय बाबा गांव के नीच जाति के बच्चों के साथ खेल-कूद कर रहे थे। पता नहीं कौन थे चमार थे, केवट था या पता नहीं कौन से जाति के थे वो बच्चे। यही देख कर छोटे मालिक ने अभय को डाट दिया, ये कहते हुऐ की अपनी बराबरी के जाति वालों के बच्चों के साथ खेलो, हवेली का नाम मत खराब करो। ये सुन कर अभय बाबा, छोटे मालिक से जुबान लड़ाते हुए बोले,, ये सब मेरे दोस्त है, और दोस्ती जात पात नहीं देखती, अगर इनसे दोस्ती करके इनके साथ खेलने में हवेली का नाम खराब होता है तो हो जाए, मुझे कुछ फरक नहीं पड़ता।"

संध्या --"फिर क्या हुआ?"

मुनीम --"फिर क्या बड़ी मालकिन, छोटे मालिक ने अभय बाबा से कहा की, अगर भाभी को पता चला तो तेरी खैर नहीं, तो इस पर अभय बाबा ने कहा, अरे वो तो बकलोल है, दिमाग नाम का चीज़ तो है ही नहीं मेरी मां में, वो क्या बोलेगी, ज्यादा से ज्यादा दो चार थप्पड़ मरेगी और क्या, पर तेरा सर तो मै अभी फोडूंगा। और कहते हुऐ अभय बाबा ने जमीन पर पड़ा पत्थर उठा कर छोटे मालिक को दे मारा, और वहां से भाग गए।"

मुनीम की बात सुनकर तो मानो सांध्य का पारा चरम पर था, गुस्से मे आपने दांत की किटकिती बजाते हुऐ बोली...

सांध्य --"बच्चा समझ कर, मैं उसे हर बार नज़र अंदाज़ करते गई। पर अब तो उसके अंदर बड़े छोटे की कद्र भी खत्म होती जा रही है। आज रमन का सर फोड़ा है, और मेरे बारे में भी बुरा भला बोलने लगा है, हद से ज्यादा ही बिगड़ता जा रहा है, आने दो उसे आज बताती हूं की, मैं कितनी बड़ी बकलोल हूं..."


.... भाभी, भाभी... कहां हो तुम, अंदर हों क्या?

इस आवाज़ ने, सांध्य को भूत काल की यादों से वर्तमान की धरती पर ला पटका, अपनी नम हो चुकी आंखो के कोने से छलक पड़े आंसू के कतरों को अपनी गोरी हथेली से पोछते हुऐ, सुर्ख पड़ चुकी आवाज़ में बोली...

सांध्य --"हां, अंदर ही हूं।"

बोलते हुऐ वो दरवाज़े की तरफ़ देखने लगी... कमरे में रमन दाखिल हुआ, और संध्या के करीब आते हुऐ बेड पर उसके बगल में बैठते हुऐ बोला।


रमन --"भाभी, मैने सोचा है की, गांव में पिता जी के नाम से एक डिग्री कॉलेज बनवा जाए, अब देखो ना यहां से शहर काफी दूर है, आस - पास के कई गांव के विद्यार्थी को दूर शहरों में जाकर पढ़ाई करनी पड़ती है। अगर हमने अपना डिग्री कॉलेज बनवा कर मान्यता हंसील कर ली, तो विद्यार्थियों को पढ़ाई में आसानी हो जाएंगी।"

रमन की बात सुनते हुऐ, सांध्य बोली.....

संध्या --"ये तो बहुत अच्छी बात है, तुम्हारे बड़े भैया की भी यही ख्वाहिश थीं, वो अभय के नाम पर डिग्री कॉलेज बनाना चाहते थे, पर अब तो अभय यहां रहा ही नहीं, बनवा दो अभय के नाम से ही... वो नहीं तो उसका नाम तो रहेगा।"

रमन --"ओ... हो भाभी, तो पहले ही बताना चाहिए था, मैने तो मान्यता लेने वाले फॉर्म पर पिता जी के नाम से भर कर अप्लाई कर दिया। ठीक हैं मैं मुनीम से कह कर चेंज करवाने की कोशिश करूंगा।"

रमन की बात सुनकर संध्या ने कहा...

संध्या --"नहीं ठीक है, रहने दो। पिता जी का नाम भी ठीक है।"

रमन --"ठीक है भाभी, जैसा तुम कहो।"

और ये कह कर रमन जाने लगा तभी... सन्ध्या ने रमन को रोकते हुऐ....

संध्या --"अ... रमन।"

रमन रुकते हुऐ, संध्या की तरफ़ पलटते हुऐ...

रमन --"हां भाभी।"

संध्या --"एक बात पूंछू??"

संध्या की ठहरी और गहरी आवाज़ में ये बात सुनकर रमन एक पल के लिऐ सोच की उलझन में उलझते 5हुऐ, उलझे हुऐ स्वर मे बोला...


रमन --"क्या अभय को मेरे और तुम्हारे रिश्ते के बारे में पता था, या फिर कुछ शक था?"

ये सुन कर रमन को ताजुब और हैरानी दोनो एक साथ हुई, ताजुब इस बात की, की इतने सालों बाद इस बारे में क्यूं? और हैरानी इस बात की, की अमन को उनके रिश्ते के बारे में पता था या नहीं इस सवाल पर।

रमन --"मुझे नहीं लगता भाभी, जब घर वालो और गांव वालो को पता नहीं चला तो, वो तो 9 साल का बच्चा था भाभी, उसे भला कैसे पता चलेगा? पर आज इतने सालों बाद क्यूं?"

संध्या अपनी गहरी और करुण्डता भरे लहज़े में बोली...

संध्या --" ना जाने क्यूं, हमेशा एक बेचैनी सी होती रहती है, ऐसा लगता है की मेरा दिल भटक रहा है किसी के लिऐ, मुझे पता है की किस के लिऐ भटकता है, मैं खुद से ही अंदर अंदर लड़ती रहती हूं, रात भर रोती रहती हूं, सोचती हूं की वो कहीं से तो आ जाए, ताकी मैं उसे बता सकूं की मैं उससे कितना प्यार करती हूं, माना की मैने बहुत गलतियां की हैं, मैंने उसे जानवरों की तरह पीटा, पर ये सब सिर्फ़ गुस्से में आकर। मुझसे गलती हो गई, मैं ये ख़ुद को नहीं समझा पा रही हूं, उसे कैसे समझाती। मैं थक गई हूं, जिंदगी बेरंग सी लगने लगी हैं। हर पल उसे भुलाने की कोशिश करती हूं, पर फिर दिल कहता है की, उसे भुला दी तो जिंदगी में तेरे क्या बचेगा? हे भगवान क्या करूं? कहां जाऊं? कोई तो राह दिखा दे?"

कहते हुऐ सन्ध्या एक बार फिर रोने लगती है...!

"अब रो कर कुछ हासिल नहीं होगा दीदी,"

नज़र उठा कर देखी तो सामने मालती खड़ी थीं, रुवांसी आंखो से मालती की तरफ़ देखते हुऐ थोड़ी चेहरे बेबसी की मुस्कान लाती हुई संध्या मालती से बोली...

संध्या --"एक मां को जब, उसके ही बेटे के लिऐ कोई ताना मारे तो उस मां पर क्या बीतती है, वो एक मां ही समझ सकती है।"

संध्या की बात मालती समझ गई थीं की सन्ध्या का इशारा आज सुबह नाश्ता करते हुऐ उसकी कही हुई बात की तरफ़ थीं।

मालती --"अच्छा! तो दीदी आप ताना मारने का बदला ताना मार कर ही ले रही है।"

संध्या को बात भी मालती की बात समझते देरी नहीं लगी, और झट से छटपटाते हुऐ बोली...

संध्या --"नहीं... नहीं, भगवान के लिऐ तू ऐसा ना समझ की, मैं तुझे कोई ताना मार रही हूं। तेरी बात एकदम ठीक थीं, मैने कभी तो अभय को ज्यादा खाना खाने पर ताना मारी थीं, मेरी मति मारी गई थीं, बुद्धि भ्रष्ट हो गई थीं, इस लिऐ ऐसे शब्द मुंह से निकल रहे थे।"

चुप चाप खड़ी संध्या की बात सुनते हुऐ मालती भावुक हो चली आवाज़ मे बोली...

मालती --"भगवान ने मुझे मां बनने का सौभाग्य तो नहीं दीया, पर हां इतना तो पता है दीदी की, बुद्धि हीन मां हो चाहे मति मारी गई मां हो, पागल मां हो चाहे शैतान की ही मां क्यूं ना हो... अपने बच्चे को हर स्थिति में सिर्फ प्यार ही करती है।"

कहते हुऐ मालती वापस उस कमरे से चली जाति है... और इधर मालती की सत्य बातें संध्या को अंदर ही अंदर एक बदचलन मां की उपाधि के तख्ते पर बिठा गई थीं, जो संध्या बर्दाश्त नहीं कर पाई।।

और जोर - जोर से उस कमरे में इस तरह चिल्लाने लगी जैसे पागल खाने में पागल व्यक्ति...


..... हां.... हां मैं एक गिरी हुई औरत हूं, यही सुनना चाहती है ना तू, लेकिन एक बात सुन ले तू भी, मेरे बेटे से मुझसे से ज्यादा कोई प्यार नहीं करता...


""अब क्या फ़ायदा दीदी, अब तो प्यार करने वाला रहा ही नहीं... फिर किसको सुना रही हो?"

चिल्लाती हुई संध्या की बात सुनकर , मालती भी चिल्लाकर कमरे से बाहर निकलते हुई बोली और फिर वो भी नम आंखों के साथ अपने कमरे की तरफ़ चल पड़ती है.....

______________&&&________
Ab to yah conform Ho gya hai ki us raat Raman ke sath bistar pr Sandhya hi thi...

Malti ki in bato ko sun kr Sayad kuchh samhal jaye Sandhya or apne aap me vichar karne ki Kosis kare, Sayad Thodi akal aa jaye...

Superb update bhai sandar jabarjast bhavnatmak update bhai
 

A.A.G.

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_वो__तो__है__अल_बेला_


मालती के जाते ही, संध्या भी अपने कमरे में चली गई। संध्या गुम सूम सी अपने बेड पर बैठी थीं, उसे अजीब सी बेचैनी हो रही थीं। वो मालती की कही हुई बात पर गौर करने लगी। वो उस दीन को याद करने लगी जब उसने अभय की जम कर पिटाई कर रही थीं। उस दीन हवेली के नौकर भी अभय की पिटाई देख कर सहम गए थे। बात कुछ यूं थीं की, रमन हवेली में लहू लुहान हो कर अपना सर पकड़े पहुंचा। संध्या उस समय हवेली के हॉल में ही बैठी थीं। संध्या ने जब देखा की रमन के सर से खून बह रहा है, और रमन अपने सर को हाथों से पकड़ा है, तो संध्या घबरा गई। और सोफे पर से उठते हुऐ बोली...

संध्या --" ये...ये क्या हुआ तुम्हे? सर पर चोट कैसे लग गई?

बोलते हुऐ संध्या ने नौकर को आवाज लगाई और डॉक्टर को बुलाने के लिऐ बोली....

संध्या की बात सुनकर रमन कुछ नहीं बोला, बस अपने खून से सने हांथ को सर पर रखे कराह रहा था। रमन को यूं ख़ामोश दर्द में करहता देख, संध्या गुस्से में बोली....

संध्या --"मैं कुछ पूंछ रही हूं तुमसे? कैसे हुआ ये?

"अरे ये क्या बताएंगे बड़ी ठाकुराइन, मैं बताता हूं..."

इस अनजानी आवाज़ ने सांध्य का ध्यान खींचा, तो पाई सामने मुनीम खड़ा था। मुनीम को देख कर रमन गुस्से में चिल्लाया....

रमन --"मुनीम जी, आप जाओ यहां से, कुछ नहीं हुआ है भाभी। ये बस मेरी गलती की वजह से ही अनजाने में लग गया।"

"नहीं बड़ी ठाकुराइन, झूंठ बोल रहे है छोटे मालिक। ये तो आपके...."

रमन --"मुनीम जी... मैने कहा ना आप जाओ।

रमन ने मुनीम की बात बीच में ही काटते हुऐ बोला। मगर इस बार सांध्या ने जोर देते हुऐ कहा....


संध्या --"मुनीम जी, बात क्या है... साफ - साफ बताओ मुझे?"

संध्या की बात सुनकर, मुनीम बिना देरी के बोल पड़ा....



मुनीम --"वो... बड़ी ठाकुराइन, छोटे मालिक का सर अभय बाबा ने पत्थर मार कर फोड़ दीया।"

ये सुनकर संध्या गुस्से में लाल हो गई.…

संध्या --"अभय ने!! पर वो ऐसा क्यूं करेगा?"

मुनीम --"अब क्या बताऊं बड़ी ठाकुराइन, छोटे मालिक और मै बाग की तरफ़ जा रहे थे, तो देखा अभय बाबा गांव के नीच जाति के बच्चों के साथ खेल-कूद कर रहे थे। पता नहीं कौन थे चमार थे, केवट था या पता नहीं कौन से जाति के थे वो बच्चे। यही देख कर छोटे मालिक ने अभय को डाट दिया, ये कहते हुऐ की अपनी बराबरी के जाति वालों के बच्चों के साथ खेलो, हवेली का नाम मत खराब करो। ये सुन कर अभय बाबा, छोटे मालिक से जुबान लड़ाते हुए बोले,, ये सब मेरे दोस्त है, और दोस्ती जात पात नहीं देखती, अगर इनसे दोस्ती करके इनके साथ खेलने में हवेली का नाम खराब होता है तो हो जाए, मुझे कुछ फरक नहीं पड़ता।"

संध्या --"फिर क्या हुआ?"

मुनीम --"फिर क्या बड़ी मालकिन, छोटे मालिक ने अभय बाबा से कहा की, अगर भाभी को पता चला तो तेरी खैर नहीं, तो इस पर अभय बाबा ने कहा, अरे वो तो बकलोल है, दिमाग नाम का चीज़ तो है ही नहीं मेरी मां में, वो क्या बोलेगी, ज्यादा से ज्यादा दो चार थप्पड़ मरेगी और क्या, पर तेरा सर तो मै अभी फोडूंगा। और कहते हुऐ अभय बाबा ने जमीन पर पड़ा पत्थर उठा कर छोटे मालिक को दे मारा, और वहां से भाग गए।"

मुनीम की बात सुनकर तो मानो सांध्य का पारा चरम पर था, गुस्से मे आपने दांत की किटकिती बजाते हुऐ बोली...

सांध्य --"बच्चा समझ कर, मैं उसे हर बार नज़र अंदाज़ करते गई। पर अब तो उसके अंदर बड़े छोटे की कद्र भी खत्म होती जा रही है। आज रमन का सर फोड़ा है, और मेरे बारे में भी बुरा भला बोलने लगा है, हद से ज्यादा ही बिगड़ता जा रहा है, आने दो उसे आज बताती हूं की, मैं कितनी बड़ी बकलोल हूं..."


.... भाभी, भाभी... कहां हो तुम, अंदर हों क्या?

इस आवाज़ ने, सांध्य को भूत काल की यादों से वर्तमान की धरती पर ला पटका, अपनी नम हो चुकी आंखो के कोने से छलक पड़े आंसू के कतरों को अपनी गोरी हथेली से पोछते हुऐ, सुर्ख पड़ चुकी आवाज़ में बोली...

सांध्य --"हां, अंदर ही हूं।"

बोलते हुऐ वो दरवाज़े की तरफ़ देखने लगी... कमरे में रमन दाखिल हुआ, और संध्या के करीब आते हुऐ बेड पर उसके बगल में बैठते हुऐ बोला।


रमन --"भाभी, मैने सोचा है की, गांव में पिता जी के नाम से एक डिग्री कॉलेज बनवा जाए, अब देखो ना यहां से शहर काफी दूर है, आस - पास के कई गांव के विद्यार्थी को दूर शहरों में जाकर पढ़ाई करनी पड़ती है। अगर हमने अपना डिग्री कॉलेज बनवा कर मान्यता हंसील कर ली, तो विद्यार्थियों को पढ़ाई में आसानी हो जाएंगी।"

रमन की बात सुनते हुऐ, सांध्य बोली.....

संध्या --"ये तो बहुत अच्छी बात है, तुम्हारे बड़े भैया की भी यही ख्वाहिश थीं, वो अभय के नाम पर डिग्री कॉलेज बनाना चाहते थे, पर अब तो अभय यहां रहा ही नहीं, बनवा दो अभय के नाम से ही... वो नहीं तो उसका नाम तो रहेगा।"

रमन --"ओ... हो भाभी, तो पहले ही बताना चाहिए था, मैने तो मान्यता लेने वाले फॉर्म पर पिता जी के नाम से भर कर अप्लाई कर दिया। ठीक हैं मैं मुनीम से कह कर चेंज करवाने की कोशिश करूंगा।"

रमन की बात सुनकर संध्या ने कहा...

संध्या --"नहीं ठीक है, रहने दो। पिता जी का नाम भी ठीक है।"

रमन --"ठीक है भाभी, जैसा तुम कहो।"

और ये कह कर रमन जाने लगा तभी... सन्ध्या ने रमन को रोकते हुऐ....

संध्या --"अ... रमन।"

रमन रुकते हुऐ, संध्या की तरफ़ पलटते हुऐ...

रमन --"हां भाभी।"

संध्या --"एक बात पूंछू??"

संध्या की ठहरी और गहरी आवाज़ में ये बात सुनकर रमन एक पल के लिऐ सोच की उलझन में उलझते 5हुऐ, उलझे हुऐ स्वर मे बोला...


रमन --"क्या अभय को मेरे और तुम्हारे रिश्ते के बारे में पता था, या फिर कुछ शक था?"

ये सुन कर रमन को ताजुब और हैरानी दोनो एक साथ हुई, ताजुब इस बात की, की इतने सालों बाद इस बारे में क्यूं? और हैरानी इस बात की, की अमन को उनके रिश्ते के बारे में पता था या नहीं इस सवाल पर।

रमन --"मुझे नहीं लगता भाभी, जब घर वालो और गांव वालो को पता नहीं चला तो, वो तो 9 साल का बच्चा था भाभी, उसे भला कैसे पता चलेगा? पर आज इतने सालों बाद क्यूं?"

संध्या अपनी गहरी और करुण्डता भरे लहज़े में बोली...

संध्या --" ना जाने क्यूं, हमेशा एक बेचैनी सी होती रहती है, ऐसा लगता है की मेरा दिल भटक रहा है किसी के लिऐ, मुझे पता है की किस के लिऐ भटकता है, मैं खुद से ही अंदर अंदर लड़ती रहती हूं, रात भर रोती रहती हूं, सोचती हूं की वो कहीं से तो आ जाए, ताकी मैं उसे बता सकूं की मैं उससे कितना प्यार करती हूं, माना की मैने बहुत गलतियां की हैं, मैंने उसे जानवरों की तरह पीटा, पर ये सब सिर्फ़ गुस्से में आकर। मुझसे गलती हो गई, मैं ये ख़ुद को नहीं समझा पा रही हूं, उसे कैसे समझाती। मैं थक गई हूं, जिंदगी बेरंग सी लगने लगी हैं। हर पल उसे भुलाने की कोशिश करती हूं, पर फिर दिल कहता है की, उसे भुला दी तो जिंदगी में तेरे क्या बचेगा? हे भगवान क्या करूं? कहां जाऊं? कोई तो राह दिखा दे?"

कहते हुऐ सन्ध्या एक बार फिर रोने लगती है...!

"अब रो कर कुछ हासिल नहीं होगा दीदी,"

नज़र उठा कर देखी तो सामने मालती खड़ी थीं, रुवांसी आंखो से मालती की तरफ़ देखते हुऐ थोड़ी चेहरे बेबसी की मुस्कान लाती हुई संध्या मालती से बोली...

संध्या --"एक मां को जब, उसके ही बेटे के लिऐ कोई ताना मारे तो उस मां पर क्या बीतती है, वो एक मां ही समझ सकती है।"

संध्या की बात मालती समझ गई थीं की सन्ध्या का इशारा आज सुबह नाश्ता करते हुऐ उसकी कही हुई बात की तरफ़ थीं।

मालती --"अच्छा! तो दीदी आप ताना मारने का बदला ताना मार कर ही ले रही है।"

संध्या को बात भी मालती की बात समझते देरी नहीं लगी, और झट से छटपटाते हुऐ बोली...

संध्या --"नहीं... नहीं, भगवान के लिऐ तू ऐसा ना समझ की, मैं तुझे कोई ताना मार रही हूं। तेरी बात एकदम ठीक थीं, मैने कभी तो अभय को ज्यादा खाना खाने पर ताना मारी थीं, मेरी मति मारी गई थीं, बुद्धि भ्रष्ट हो गई थीं, इस लिऐ ऐसे शब्द मुंह से निकल रहे थे।"

चुप चाप खड़ी संध्या की बात सुनते हुऐ मालती भावुक हो चली आवाज़ मे बोली...

मालती --"भगवान ने मुझे मां बनने का सौभाग्य तो नहीं दीया, पर हां इतना तो पता है दीदी की, बुद्धि हीन मां हो चाहे मति मारी गई मां हो, पागल मां हो चाहे शैतान की ही मां क्यूं ना हो... अपने बच्चे को हर स्थिति में सिर्फ प्यार ही करती है।"

कहते हुऐ मालती वापस उस कमरे से चली जाति है... और इधर मालती की सत्य बातें संध्या को अंदर ही अंदर एक बदचलन मां की उपाधि के तख्ते पर बिठा गई थीं, जो संध्या बर्दाश्त नहीं कर पाई।।

और जोर - जोर से उस कमरे में इस तरह चिल्लाने लगी जैसे पागल खाने में पागल व्यक्ति...


..... हां.... हां मैं एक गिरी हुई औरत हूं, यही सुनना चाहती है ना तू, लेकिन एक बात सुन ले तू भी, मेरे बेटे से मुझसे से ज्यादा कोई प्यार नहीं करता...


""अब क्या फ़ायदा दीदी, अब तो प्यार करने वाला रहा ही नहीं... फिर किसको सुना रही हो?"

चिल्लाती हुई संध्या की बात सुनकर , मालती भी चिल्लाकर कमरे से बाहर निकलते हुई बोली और फिर वो भी नम आंखों के साथ अपने कमरे की तरफ़ चल पड़ती है.....

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nice update..!!
yeh sandhya ko purani baate yaad aarahi hai..usne munim aur raman ki baat par vishwas kiya lekin usne khud ke bete abhay se ek baar bhi nahi puchha ki kya huva..kyunki uss waqt toh woh hawas me andhi thi aur uski hawas raman mitata tha toh kaise apne harami yaar ki baat na manti..aur yeh sandhya apne mare huye pati ko bhulkar khud ke devar se chudwa li toh usse apne bete ko bhulna kaha mushkil hoga..aur ab raman se puchh rahi hai ki unn dono ke bare me abhay ko pata tha kya aur yeh harami jisne yeh sab kiya hai woh kya hi bolega..abhay jarur apni maa ki gandagi dekh chuka hai isliye toh chala gaya ghar se..!! ab yeh sandhya rone ka dikhawa karti hai..malti ne sahi kaha ki maa kaisi bhi ho woh apni aulad ko sabse jyada pyaar deti hai jo sandhya khud ke bete ko de nahi paayi..malti aise hi hamesha sandhya ko taane marti rahe aur sandhya ko uski galtiyon ka ehsas karati rahe..sandhya aise hi andar hi andar tutani chahiye..sandhya ko har pal yeh ehsas hona chahiye ki usne kitna galat kiya hai abhay ke sath..woh hamesha tadapani chahiye dard se..aur yeh sandhya jis aman ko beta beta keh rahi hai woh bhi uski respect na kare tab usko samajh aayega ki abhay hi achha ladka tha..!! sandhya ne munim ki baate suni lekin usne yeh nahi dekha ki abhay kitna achha hai jo bhedbhav nahi karta..sandhya ne jara bhi nahi socha ki abhay khud ki maa ko baklol kaise bol sakta hai..sandhya ne ek baar abhay se puccha bhi nahi ki kya huva tha..bas abhay ki pitayi ki usne..ab iss dard ko sandhya umar bhar zele..aur abhay jab bhi wapas aaye toh woh malti ko maa ehkar pukare na ki sandhya ko..!!
 

Mahendra Baranwal

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मालती के जाते ही, संध्या भी अपने कमरे में चली गई। संध्या गुम सूम सी अपने बेड पर बैठी थीं, उसे अजीब सी बेचैनी हो रही थीं। वो मालती की कही हुई बात पर गौर करने लगी। वो उस दीन को याद करने लगी जब उसने अभय की जम कर पिटाई कर रही थीं। उस दीन हवेली के नौकर भी अभय की पिटाई देख कर सहम गए थे। बात कुछ यूं थीं की, रमन हवेली में लहू लुहान हो कर अपना सर पकड़े पहुंचा। संध्या उस समय हवेली के हॉल में ही बैठी थीं। संध्या ने जब देखा की रमन के सर से खून बह रहा है, और रमन अपने सर को हाथों से पकड़ा है, तो संध्या घबरा गई। और सोफे पर से उठते हुऐ बोली...

संध्या --" ये...ये क्या हुआ तुम्हे? सर पर चोट कैसे लग गई?

बोलते हुऐ संध्या ने नौकर को आवाज लगाई और डॉक्टर को बुलाने के लिऐ बोली....

संध्या की बात सुनकर रमन कुछ नहीं बोला, बस अपने खून से सने हांथ को सर पर रखे कराह रहा था। रमन को यूं ख़ामोश दर्द में करहता देख, संध्या गुस्से में बोली....

संध्या --"मैं कुछ पूंछ रही हूं तुमसे? कैसे हुआ ये?

"अरे ये क्या बताएंगे बड़ी ठाकुराइन, मैं बताता हूं..."

इस अनजानी आवाज़ ने सांध्य का ध्यान खींचा, तो पाई सामने मुनीम खड़ा था। मुनीम को देख कर रमन गुस्से में चिल्लाया....

रमन --"मुनीम जी, आप जाओ यहां से, कुछ नहीं हुआ है भाभी। ये बस मेरी गलती की वजह से ही अनजाने में लग गया।"

"नहीं बड़ी ठाकुराइन, झूंठ बोल रहे है छोटे मालिक। ये तो आपके...."

रमन --"मुनीम जी... मैने कहा ना आप जाओ।

रमन ने मुनीम की बात बीच में ही काटते हुऐ बोला। मगर इस बार सांध्या ने जोर देते हुऐ कहा....


संध्या --"मुनीम जी, बात क्या है... साफ - साफ बताओ मुझे?"

संध्या की बात सुनकर, मुनीम बिना देरी के बोल पड़ा....



मुनीम --"वो... बड़ी ठाकुराइन, छोटे मालिक का सर अभय बाबा ने पत्थर मार कर फोड़ दीया।"

ये सुनकर संध्या गुस्से में लाल हो गई.…

संध्या --"अभय ने!! पर वो ऐसा क्यूं करेगा?"

मुनीम --"अब क्या बताऊं बड़ी ठाकुराइन, छोटे मालिक और मै बाग की तरफ़ जा रहे थे, तो देखा अभय बाबा गांव के नीच जाति के बच्चों के साथ खेल-कूद कर रहे थे। पता नहीं कौन थे चमार थे, केवट था या पता नहीं कौन से जाति के थे वो बच्चे। यही देख कर छोटे मालिक ने अभय को डाट दिया, ये कहते हुऐ की अपनी बराबरी के जाति वालों के बच्चों के साथ खेलो, हवेली का नाम मत खराब करो। ये सुन कर अभय बाबा, छोटे मालिक से जुबान लड़ाते हुए बोले,, ये सब मेरे दोस्त है, और दोस्ती जात पात नहीं देखती, अगर इनसे दोस्ती करके इनके साथ खेलने में हवेली का नाम खराब होता है तो हो जाए, मुझे कुछ फरक नहीं पड़ता।"

संध्या --"फिर क्या हुआ?"

मुनीम --"फिर क्या बड़ी मालकिन, छोटे मालिक ने अभय बाबा से कहा की, अगर भाभी को पता चला तो तेरी खैर नहीं, तो इस पर अभय बाबा ने कहा, अरे वो तो बकलोल है, दिमाग नाम का चीज़ तो है ही नहीं मेरी मां में, वो क्या बोलेगी, ज्यादा से ज्यादा दो चार थप्पड़ मरेगी और क्या, पर तेरा सर तो मै अभी फोडूंगा। और कहते हुऐ अभय बाबा ने जमीन पर पड़ा पत्थर उठा कर छोटे मालिक को दे मारा, और वहां से भाग गए।"

मुनीम की बात सुनकर तो मानो सांध्य का पारा चरम पर था, गुस्से मे आपने दांत की किटकिती बजाते हुऐ बोली...

सांध्य --"बच्चा समझ कर, मैं उसे हर बार नज़र अंदाज़ करते गई। पर अब तो उसके अंदर बड़े छोटे की कद्र भी खत्म होती जा रही है। आज रमन का सर फोड़ा है, और मेरे बारे में भी बुरा भला बोलने लगा है, हद से ज्यादा ही बिगड़ता जा रहा है, आने दो उसे आज बताती हूं की, मैं कितनी बड़ी बकलोल हूं..."


.... भाभी, भाभी... कहां हो तुम, अंदर हों क्या?

इस आवाज़ ने, सांध्य को भूत काल की यादों से वर्तमान की धरती पर ला पटका, अपनी नम हो चुकी आंखो के कोने से छलक पड़े आंसू के कतरों को अपनी गोरी हथेली से पोछते हुऐ, सुर्ख पड़ चुकी आवाज़ में बोली...

सांध्य --"हां, अंदर ही हूं।"

बोलते हुऐ वो दरवाज़े की तरफ़ देखने लगी... कमरे में रमन दाखिल हुआ, और संध्या के करीब आते हुऐ बेड पर उसके बगल में बैठते हुऐ बोला।


रमन --"भाभी, मैने सोचा है की, गांव में पिता जी के नाम से एक डिग्री कॉलेज बनवा जाए, अब देखो ना यहां से शहर काफी दूर है, आस - पास के कई गांव के विद्यार्थी को दूर शहरों में जाकर पढ़ाई करनी पड़ती है। अगर हमने अपना डिग्री कॉलेज बनवा कर मान्यता हंसील कर ली, तो विद्यार्थियों को पढ़ाई में आसानी हो जाएंगी।"

रमन की बात सुनते हुऐ, सांध्य बोली.....

संध्या --"ये तो बहुत अच्छी बात है, तुम्हारे बड़े भैया की भी यही ख्वाहिश थीं, वो अभय के नाम पर डिग्री कॉलेज बनाना चाहते थे, पर अब तो अभय यहां रहा ही नहीं, बनवा दो अभय के नाम से ही... वो नहीं तो उसका नाम तो रहेगा।"

रमन --"ओ... हो भाभी, तो पहले ही बताना चाहिए था, मैने तो मान्यता लेने वाले फॉर्म पर पिता जी के नाम से भर कर अप्लाई कर दिया। ठीक हैं मैं मुनीम से कह कर चेंज करवाने की कोशिश करूंगा।"

रमन की बात सुनकर संध्या ने कहा...

संध्या --"नहीं ठीक है, रहने दो। पिता जी का नाम भी ठीक है।"

रमन --"ठीक है भाभी, जैसा तुम कहो।"

और ये कह कर रमन जाने लगा तभी... सन्ध्या ने रमन को रोकते हुऐ....

संध्या --"अ... रमन।"

रमन रुकते हुऐ, संध्या की तरफ़ पलटते हुऐ...

रमन --"हां भाभी।"

संध्या --"एक बात पूंछू??"

संध्या की ठहरी और गहरी आवाज़ में ये बात सुनकर रमन एक पल के लिऐ सोच की उलझन में उलझते 5हुऐ, उलझे हुऐ स्वर मे बोला...


रमन --"क्या अभय को मेरे और तुम्हारे रिश्ते के बारे में पता था, या फिर कुछ शक था?"

ये सुन कर रमन को ताजुब और हैरानी दोनो एक साथ हुई, ताजुब इस बात की, की इतने सालों बाद इस बारे में क्यूं? और हैरानी इस बात की, की अमन को उनके रिश्ते के बारे में पता था या नहीं इस सवाल पर।

रमन --"मुझे नहीं लगता भाभी, जब घर वालो और गांव वालो को पता नहीं चला तो, वो तो 9 साल का बच्चा था भाभी, उसे भला कैसे पता चलेगा? पर आज इतने सालों बाद क्यूं?"

संध्या अपनी गहरी और करुण्डता भरे लहज़े में बोली...

संध्या --" ना जाने क्यूं, हमेशा एक बेचैनी सी होती रहती है, ऐसा लगता है की मेरा दिल भटक रहा है किसी के लिऐ, मुझे पता है की किस के लिऐ भटकता है, मैं खुद से ही अंदर अंदर लड़ती रहती हूं, रात भर रोती रहती हूं, सोचती हूं की वो कहीं से तो आ जाए, ताकी मैं उसे बता सकूं की मैं उससे कितना प्यार करती हूं, माना की मैने बहुत गलतियां की हैं, मैंने उसे जानवरों की तरह पीटा, पर ये सब सिर्फ़ गुस्से में आकर। मुझसे गलती हो गई, मैं ये ख़ुद को नहीं समझा पा रही हूं, उसे कैसे समझाती। मैं थक गई हूं, जिंदगी बेरंग सी लगने लगी हैं। हर पल उसे भुलाने की कोशिश करती हूं, पर फिर दिल कहता है की, उसे भुला दी तो जिंदगी में तेरे क्या बचेगा? हे भगवान क्या करूं? कहां जाऊं? कोई तो राह दिखा दे?"

कहते हुऐ सन्ध्या एक बार फिर रोने लगती है...!

"अब रो कर कुछ हासिल नहीं होगा दीदी,"

नज़र उठा कर देखी तो सामने मालती खड़ी थीं, रुवांसी आंखो से मालती की तरफ़ देखते हुऐ थोड़ी चेहरे बेबसी की मुस्कान लाती हुई संध्या मालती से बोली...

संध्या --"एक मां को जब, उसके ही बेटे के लिऐ कोई ताना मारे तो उस मां पर क्या बीतती है, वो एक मां ही समझ सकती है।"

संध्या की बात मालती समझ गई थीं की सन्ध्या का इशारा आज सुबह नाश्ता करते हुऐ उसकी कही हुई बात की तरफ़ थीं।

मालती --"अच्छा! तो दीदी आप ताना मारने का बदला ताना मार कर ही ले रही है।"

संध्या को बात भी मालती की बात समझते देरी नहीं लगी, और झट से छटपटाते हुऐ बोली...

संध्या --"नहीं... नहीं, भगवान के लिऐ तू ऐसा ना समझ की, मैं तुझे कोई ताना मार रही हूं। तेरी बात एकदम ठीक थीं, मैने कभी तो अभय को ज्यादा खाना खाने पर ताना मारी थीं, मेरी मति मारी गई थीं, बुद्धि भ्रष्ट हो गई थीं, इस लिऐ ऐसे शब्द मुंह से निकल रहे थे।"

चुप चाप खड़ी संध्या की बात सुनते हुऐ मालती भावुक हो चली आवाज़ मे बोली...

मालती --"भगवान ने मुझे मां बनने का सौभाग्य तो नहीं दीया, पर हां इतना तो पता है दीदी की, बुद्धि हीन मां हो चाहे मति मारी गई मां हो, पागल मां हो चाहे शैतान की ही मां क्यूं ना हो... अपने बच्चे को हर स्थिति में सिर्फ प्यार ही करती है।"

कहते हुऐ मालती वापस उस कमरे से चली जाति है... और इधर मालती की सत्य बातें संध्या को अंदर ही अंदर एक बदचलन मां की उपाधि के तख्ते पर बिठा गई थीं, जो संध्या बर्दाश्त नहीं कर पाई।।

और जोर - जोर से उस कमरे में इस तरह चिल्लाने लगी जैसे पागल खाने में पागल व्यक्ति...


..... हां.... हां मैं एक गिरी हुई औरत हूं, यही सुनना चाहती है ना तू, लेकिन एक बात सुन ले तू भी, मेरे बेटे से मुझसे से ज्यादा कोई प्यार नहीं करता...


""अब क्या फ़ायदा दीदी, अब तो प्यार करने वाला रहा ही नहीं... फिर किसको सुना रही हो?"

चिल्लाती हुई संध्या की बात सुनकर , मालती भी चिल्लाकर कमरे से बाहर निकलते हुई बोली और फिर वो भी नम आंखों के साथ अपने कमरे की तरफ़ चल पड़ती है.....

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Bahut hi emotional update
 

Lutgaya

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तेज हवाऐं चल रही थी। शायद तूफ़ान था क्यूंकि ऐसा लग रहा था मानो अभी इन हवाओं के झोके बड़े-बड़े पेंड़ों को उख़ाड़ फेकेगा। बरसात भी इतनी तेजी से हो रही थी की मानो पूरा संसार ना डूबा दे। बादल की गरज ऐसी थी की उसे सुनकर लोग अपने-अपने घरों में दुबक कर बैठे थे।

जहां एक तरफ इस तूफानी और डरावनी रात में लोग अपने घरों में बैठे थे। वहीं दूसरी तरफ एक बच्चा, इस तूफान से लड़ते हुए आगे भागते हुए चले जा रहा था।

बदन पर एक सफेद रंग का शर्ट और एक पैंट पहने हुए ये लड़का इस गति से आगे बढ़ रहा था, मानो उसे इस तूफान से कोई डर ही नही। तेज़ चल रही हवाऐं उसे रोकने की बेइंतहा कोशिश करती। वो लड़का बार-बार ज़मीन पर गीरता लेकिन फीर खड़े हो कर तूफान से लड़ते हुए आगे की तरफ बढ़ चलता।

ऐसे ही तूफान से लड़ कर वो एक बड़े बरगद के पेंड़ के नीचे आकर खड़ा हो गया। वो पूरी तरह से भीग चूका था। तेज तूफान की वज़ह से वो ठीक से खड़ा भी नही हो पा रहा था। शायद बहुत थक गया था। वो एक दफ़ा पीछे मुड़ कर गाँव की तरफ देखा। उसकी आंखे नम हो गयी, शायद आंशू भी छलके होंगे मगर बारीश की बूंदे उसके आशूं के बूंदो में मील रहे थे। वो लड़का कुछ देर तक काली अंधेरी रात में गाँव की तरफ देखता रहा, उसे दूर एक कमरे में हल्का उज़ाल दीख रहा था। उसे ही देखते हुए वो बोला...

"जा रहा हूं माँ!!"

और ये बोलकर वो लड़का अपने हांथ से आंशू पोछते हुए वापस पलटते हुए गाँव के आखिरी छोर के सड़क पर अपने कदम बढ़ा दीये....


तूफान शांत होने लगी थी। बरसात भी अब रीमझीम सी हो गयी थी, पर वो लड़का अभी भी उसी गति से उस कच्ची सड़क पर आगे बढ़ा जा रहा था। तभी उस लड़के की कान में तेज आवाज़ पड़ी....

पलट कर देखा तो उसकी आँखें चौंधिंया गयी। क्यूंकि एक तेज प्रकाश उसके चेहरे पर पड़ी थी। उसने अपना हांथ उठाते हुए अपने चेहरे के सामने कीया और उस प्रकाश को अपनी आँखों पर पड़ने से रोका। वो आवाज़ सुनकर ये समझ गया था की ये ट्रेन की हॉर्न की आवाज़ है। कुछ देर बाद जब ट्रेन का इंजन उसे क्रॉस करते हुए आगे नीकला, तो उस लड़के ने अपना हांथ अपनी आँखों के सामने से हटाया। उसके सामने ट्रेन के डीब्बे थे, शायद ट्रेन सीग्नल ना होने की वजह से रुक गयी थी।

उसने देखा ट्रेन के डीब्बे के अंदर लाइट जल रही थीं॥ वो कुछ सोंचते हुए उस ट्रेन को देखते रहा। तभी ट्रेन ने हॉर्न मारा। शायद अब ट्रेन सिग्नल दे रही थी की, ट्रेन चलने वाली है। ट्रेन जैसे ही अपने पहीये को चलायी, वो लड़का भी अपना पैर चलाया, और भागते हुए ट्रेन पर चढ़ जाता है। और चलती ट्रेन के गेट पर खड़ा होकर एक बार फीर से वो उसी गाँव की तरफ देखने लगता है। और एक बार फीर उसकी आँखों के सामने वही कमरा दीखता है जीसमे से हल्का उज़ाला था। और देखते ही देखते ट्रेन ने रफ्तार बढ़ाई और हल्के उज़ाले वाला कमरा भी उसकी आँखों से ओझल हो गया.....


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कमरे में हल्की रौशनी थी, एक लैम्प जल रहा था। बीस्तर पर दो ज़ीस्म एक दुसरे में समाने की कोशिश में जुटे थे। मादरजात नग्न अवस्था में दोनो उस बीस्तर पर गुत्थम-गुत्थी हुए काम क्रीडा में लीन थे। कमरे में फैली उज़ाले की हल्की रौशनी में भी उस औरत का बदन चांद की तरह चमक रहा था। उसके उपर लेटा वो सख्श उस औरत के ठोस उरोज़ो को अपने हांथों में पकड़ कर बारी बारी से चुसते हुए अपनी कमर के झटके दे रहा था।

उस औरत की सीसकारी पूरे कमरे में गूंज रही थी। वो औरत अब अपनी गोरी टांगे उठाते हुए उस सख्श के कमर के इर्द-गीर्द रखते हुए शिकंजे में कस लेती है। और एक जोर की चींख के साथ वो उस सख्श को काफी तेजी से अपनी आगोश में जकड़ लेती है और वो सख्श भी चींघाड़ते हुए अपनी कमर उठा कर जोर-जोर के तीन से चार झटके मारता है। और हांफते हुए उस औरत के उपर ही नीढ़ाल हो कर गीर जाता है।

"हो गया तेरा, अब जा अपने कमरे में। मैं नही चाहती की कीसी को कुछ पता चले।"

उस औरत की बात सुनकर वो सख्श मुस्कुराते हुए उसके गुलाबी होठों को चूमते हुए, उसके उपर से उठ जाता है और अपने कपड़े पहन कर जैसे ही जाने को होता है। वो बला की खुबसूरत औरत एक बार फीर बोली--

"जरा छुप-छुपा कर जाना, और हां अभय के कमरे की तरफ से मत जाना।"

उस औरत की बात सुनकर, वो सख्श एक बार फीर मुस्कुराते हुए बोला--

"वो अभी बच्चा है भाभी, देख भी लीया तो क्या करेगा? और वैसे भी वो तुमसे इतना डरता है, की कीसी से कुछ बोलने की हीम्मत भी नही करेगा।"

उस सख्श की आवाज़ सुनकर, वो औरत बेड पर उठ कर बैठ जाती है और अपनी अंगीयां (ब्रा) को पहनते हुए बोली...

"ना जाने क्यूँ...कुछ अज़ीब सी बेचैनी हो रही है। मैने अभय के सांथ बहुत गलत कीया।"

"ये सब छोड़ो भाभी, अब तूम सो जाओ।"

कहते हुए वो सख्श उस कमरे से बाहर नीकल जाता है। वो औरत अभी भी बीस्तर पर ब्रा पहने बैठी थी। और कुछ सोंच रही थी, तभी उसके कानो में ट्रेन की हॉर्न सुनायी पड़ती है। वो औरत भागते हुए कमरे की उस खीड़की पर पहुंच कर बाहर झाकती है। उसे दूर गाँव की आखिर छोर पर ट्रेन के डीब्बे में जल रही लाईटें दीखी, जैसे ही ट्रेन धीरे-धीरे चली। मानो उस औरत की धड़कने भी धिरे-धिरे बढ़ने लगी....
Good start bro
 

Lib am

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_वो__तो__है__अल_बेला_


मालती के जाते ही, संध्या भी अपने कमरे में चली गई। संध्या गुम सूम सी अपने बेड पर बैठी थीं, उसे अजीब सी बेचैनी हो रही थीं। वो मालती की कही हुई बात पर गौर करने लगी। वो उस दीन को याद करने लगी जब उसने अभय की जम कर पिटाई कर रही थीं। उस दीन हवेली के नौकर भी अभय की पिटाई देख कर सहम गए थे। बात कुछ यूं थीं की, रमन हवेली में लहू लुहान हो कर अपना सर पकड़े पहुंचा। संध्या उस समय हवेली के हॉल में ही बैठी थीं। संध्या ने जब देखा की रमन के सर से खून बह रहा है, और रमन अपने सर को हाथों से पकड़ा है, तो संध्या घबरा गई। और सोफे पर से उठते हुऐ बोली...

संध्या --" ये...ये क्या हुआ तुम्हे? सर पर चोट कैसे लग गई?

बोलते हुऐ संध्या ने नौकर को आवाज लगाई और डॉक्टर को बुलाने के लिऐ बोली....

संध्या की बात सुनकर रमन कुछ नहीं बोला, बस अपने खून से सने हांथ को सर पर रखे कराह रहा था। रमन को यूं ख़ामोश दर्द में करहता देख, संध्या गुस्से में बोली....

संध्या --"मैं कुछ पूंछ रही हूं तुमसे? कैसे हुआ ये?

"अरे ये क्या बताएंगे बड़ी ठाकुराइन, मैं बताता हूं..."

इस अनजानी आवाज़ ने सांध्य का ध्यान खींचा, तो पाई सामने मुनीम खड़ा था। मुनीम को देख कर रमन गुस्से में चिल्लाया....

रमन --"मुनीम जी, आप जाओ यहां से, कुछ नहीं हुआ है भाभी। ये बस मेरी गलती की वजह से ही अनजाने में लग गया।"

"नहीं बड़ी ठाकुराइन, झूंठ बोल रहे है छोटे मालिक। ये तो आपके...."

रमन --"मुनीम जी... मैने कहा ना आप जाओ।

रमन ने मुनीम की बात बीच में ही काटते हुऐ बोला। मगर इस बार सांध्या ने जोर देते हुऐ कहा....


संध्या --"मुनीम जी, बात क्या है... साफ - साफ बताओ मुझे?"

संध्या की बात सुनकर, मुनीम बिना देरी के बोल पड़ा....



मुनीम --"वो... बड़ी ठाकुराइन, छोटे मालिक का सर अभय बाबा ने पत्थर मार कर फोड़ दीया।"

ये सुनकर संध्या गुस्से में लाल हो गई.…

संध्या --"अभय ने!! पर वो ऐसा क्यूं करेगा?"

मुनीम --"अब क्या बताऊं बड़ी ठाकुराइन, छोटे मालिक और मै बाग की तरफ़ जा रहे थे, तो देखा अभय बाबा गांव के नीच जाति के बच्चों के साथ खेल-कूद कर रहे थे। पता नहीं कौन थे चमार थे, केवट था या पता नहीं कौन से जाति के थे वो बच्चे। यही देख कर छोटे मालिक ने अभय को डाट दिया, ये कहते हुऐ की अपनी बराबरी के जाति वालों के बच्चों के साथ खेलो, हवेली का नाम मत खराब करो। ये सुन कर अभय बाबा, छोटे मालिक से जुबान लड़ाते हुए बोले,, ये सब मेरे दोस्त है, और दोस्ती जात पात नहीं देखती, अगर इनसे दोस्ती करके इनके साथ खेलने में हवेली का नाम खराब होता है तो हो जाए, मुझे कुछ फरक नहीं पड़ता।"

संध्या --"फिर क्या हुआ?"

मुनीम --"फिर क्या बड़ी मालकिन, छोटे मालिक ने अभय बाबा से कहा की, अगर भाभी को पता चला तो तेरी खैर नहीं, तो इस पर अभय बाबा ने कहा, अरे वो तो बकलोल है, दिमाग नाम का चीज़ तो है ही नहीं मेरी मां में, वो क्या बोलेगी, ज्यादा से ज्यादा दो चार थप्पड़ मरेगी और क्या, पर तेरा सर तो मै अभी फोडूंगा। और कहते हुऐ अभय बाबा ने जमीन पर पड़ा पत्थर उठा कर छोटे मालिक को दे मारा, और वहां से भाग गए।"

मुनीम की बात सुनकर तो मानो सांध्य का पारा चरम पर था, गुस्से मे आपने दांत की किटकिती बजाते हुऐ बोली...

सांध्य --"बच्चा समझ कर, मैं उसे हर बार नज़र अंदाज़ करते गई। पर अब तो उसके अंदर बड़े छोटे की कद्र भी खत्म होती जा रही है। आज रमन का सर फोड़ा है, और मेरे बारे में भी बुरा भला बोलने लगा है, हद से ज्यादा ही बिगड़ता जा रहा है, आने दो उसे आज बताती हूं की, मैं कितनी बड़ी बकलोल हूं..."


.... भाभी, भाभी... कहां हो तुम, अंदर हों क्या?

इस आवाज़ ने, सांध्य को भूत काल की यादों से वर्तमान की धरती पर ला पटका, अपनी नम हो चुकी आंखो के कोने से छलक पड़े आंसू के कतरों को अपनी गोरी हथेली से पोछते हुऐ, सुर्ख पड़ चुकी आवाज़ में बोली...

सांध्य --"हां, अंदर ही हूं।"

बोलते हुऐ वो दरवाज़े की तरफ़ देखने लगी... कमरे में रमन दाखिल हुआ, और संध्या के करीब आते हुऐ बेड पर उसके बगल में बैठते हुऐ बोला।


रमन --"भाभी, मैने सोचा है की, गांव में पिता जी के नाम से एक डिग्री कॉलेज बनवा जाए, अब देखो ना यहां से शहर काफी दूर है, आस - पास के कई गांव के विद्यार्थी को दूर शहरों में जाकर पढ़ाई करनी पड़ती है। अगर हमने अपना डिग्री कॉलेज बनवा कर मान्यता हंसील कर ली, तो विद्यार्थियों को पढ़ाई में आसानी हो जाएंगी।"

रमन की बात सुनते हुऐ, सांध्य बोली.....

संध्या --"ये तो बहुत अच्छी बात है, तुम्हारे बड़े भैया की भी यही ख्वाहिश थीं, वो अभय के नाम पर डिग्री कॉलेज बनाना चाहते थे, पर अब तो अभय यहां रहा ही नहीं, बनवा दो अभय के नाम से ही... वो नहीं तो उसका नाम तो रहेगा।"

रमन --"ओ... हो भाभी, तो पहले ही बताना चाहिए था, मैने तो मान्यता लेने वाले फॉर्म पर पिता जी के नाम से भर कर अप्लाई कर दिया। ठीक हैं मैं मुनीम से कह कर चेंज करवाने की कोशिश करूंगा।"

रमन की बात सुनकर संध्या ने कहा...

संध्या --"नहीं ठीक है, रहने दो। पिता जी का नाम भी ठीक है।"

रमन --"ठीक है भाभी, जैसा तुम कहो।"

और ये कह कर रमन जाने लगा तभी... सन्ध्या ने रमन को रोकते हुऐ....

संध्या --"अ... रमन।"

रमन रुकते हुऐ, संध्या की तरफ़ पलटते हुऐ...

रमन --"हां भाभी।"

संध्या --"एक बात पूंछू??"

संध्या की ठहरी और गहरी आवाज़ में ये बात सुनकर रमन एक पल के लिऐ सोच की उलझन में उलझते 5हुऐ, उलझे हुऐ स्वर मे बोला...


रमन --"क्या अभय को मेरे और तुम्हारे रिश्ते के बारे में पता था, या फिर कुछ शक था?"

ये सुन कर रमन को ताजुब और हैरानी दोनो एक साथ हुई, ताजुब इस बात की, की इतने सालों बाद इस बारे में क्यूं? और हैरानी इस बात की, की अमन को उनके रिश्ते के बारे में पता था या नहीं इस सवाल पर।

रमन --"मुझे नहीं लगता भाभी, जब घर वालो और गांव वालो को पता नहीं चला तो, वो तो 9 साल का बच्चा था भाभी, उसे भला कैसे पता चलेगा? पर आज इतने सालों बाद क्यूं?"

संध्या अपनी गहरी और करुण्डता भरे लहज़े में बोली...

संध्या --" ना जाने क्यूं, हमेशा एक बेचैनी सी होती रहती है, ऐसा लगता है की मेरा दिल भटक रहा है किसी के लिऐ, मुझे पता है की किस के लिऐ भटकता है, मैं खुद से ही अंदर अंदर लड़ती रहती हूं, रात भर रोती रहती हूं, सोचती हूं की वो कहीं से तो आ जाए, ताकी मैं उसे बता सकूं की मैं उससे कितना प्यार करती हूं, माना की मैने बहुत गलतियां की हैं, मैंने उसे जानवरों की तरह पीटा, पर ये सब सिर्फ़ गुस्से में आकर। मुझसे गलती हो गई, मैं ये ख़ुद को नहीं समझा पा रही हूं, उसे कैसे समझाती। मैं थक गई हूं, जिंदगी बेरंग सी लगने लगी हैं। हर पल उसे भुलाने की कोशिश करती हूं, पर फिर दिल कहता है की, उसे भुला दी तो जिंदगी में तेरे क्या बचेगा? हे भगवान क्या करूं? कहां जाऊं? कोई तो राह दिखा दे?"

कहते हुऐ सन्ध्या एक बार फिर रोने लगती है...!

"अब रो कर कुछ हासिल नहीं होगा दीदी,"

नज़र उठा कर देखी तो सामने मालती खड़ी थीं, रुवांसी आंखो से मालती की तरफ़ देखते हुऐ थोड़ी चेहरे बेबसी की मुस्कान लाती हुई संध्या मालती से बोली...

संध्या --"एक मां को जब, उसके ही बेटे के लिऐ कोई ताना मारे तो उस मां पर क्या बीतती है, वो एक मां ही समझ सकती है।"

संध्या की बात मालती समझ गई थीं की सन्ध्या का इशारा आज सुबह नाश्ता करते हुऐ उसकी कही हुई बात की तरफ़ थीं।

मालती --"अच्छा! तो दीदी आप ताना मारने का बदला ताना मार कर ही ले रही है।"

संध्या को बात भी मालती की बात समझते देरी नहीं लगी, और झट से छटपटाते हुऐ बोली...

संध्या --"नहीं... नहीं, भगवान के लिऐ तू ऐसा ना समझ की, मैं तुझे कोई ताना मार रही हूं। तेरी बात एकदम ठीक थीं, मैने कभी तो अभय को ज्यादा खाना खाने पर ताना मारी थीं, मेरी मति मारी गई थीं, बुद्धि भ्रष्ट हो गई थीं, इस लिऐ ऐसे शब्द मुंह से निकल रहे थे।"

चुप चाप खड़ी संध्या की बात सुनते हुऐ मालती भावुक हो चली आवाज़ मे बोली...

मालती --"भगवान ने मुझे मां बनने का सौभाग्य तो नहीं दीया, पर हां इतना तो पता है दीदी की, बुद्धि हीन मां हो चाहे मति मारी गई मां हो, पागल मां हो चाहे शैतान की ही मां क्यूं ना हो... अपने बच्चे को हर स्थिति में सिर्फ प्यार ही करती है।"

कहते हुऐ मालती वापस उस कमरे से चली जाति है... और इधर मालती की सत्य बातें संध्या को अंदर ही अंदर एक बदचलन मां की उपाधि के तख्ते पर बिठा गई थीं, जो संध्या बर्दाश्त नहीं कर पाई।।

और जोर - जोर से उस कमरे में इस तरह चिल्लाने लगी जैसे पागल खाने में पागल व्यक्ति...


..... हां.... हां मैं एक गिरी हुई औरत हूं, यही सुनना चाहती है ना तू, लेकिन एक बात सुन ले तू भी, मेरे बेटे से मुझसे से ज्यादा कोई प्यार नहीं करता...


""अब क्या फ़ायदा दीदी, अब तो प्यार करने वाला रहा ही नहीं... फिर किसको सुना रही हो?"

चिल्लाती हुई संध्या की बात सुनकर , मालती भी चिल्लाकर कमरे से बाहर निकलते हुई बोली और फिर वो भी नम आंखों के साथ अपने कमरे की तरफ़ चल पड़ती है.....

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कहानी काफी रोचक लग रही है की मां के प्यार से वंचित एक बेटे का बदला। अब वो बदला कैसे लेता है ये देखना होगा? अपडेट्स थोड़े छोटे है तो कहानी की रोचकता को बढ़ाने के लिए या तो अपडेट्स थोड़े बड़े कर दीजिए या फिर अपडेट्स के आने का समय थोड़ा जल्दी का कर दीजिए।
 
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