• If you are trying to reset your account password then don't forget to check spam folder in your mailbox. Also Mark it as "not spam" or you won't be able to click on the link.

Incest वो तो है अलबेला (incest + adultery)

क्या संध्या की गलती माफी लायक है??


  • Total voters
    293
203
473
78
भाई मुझे संध्या से ज्यादा रायटर की नियत में खोट नज़र आ रहा है...................
ये पहले रेखा के द्वारा


और अब

लेखक जबर्दस्ती इस कहानी को टी वी सिरियल की तरह रोना-धोना-गलती-माफी-पछतावा और इमोश्नल अत्याचार भरा ड्रामा बनाने पर आमादा है

साथ ही संध्या को बेकसूर भी साबित करने की साजिश हो रही है






कल को लेखक महोदय लिख देंगे की रमन से चुदवाती भी नहीं थी संध्या और ना ही उस दिन संध्या ने अभय को मारा था जिसके बाद वो घर से भाग गया, ना ही संध्या ने अभय की ज़िंदगी नर्क बनके उसके बदले अपना प्यार, दुलार, ममता अमन पर लुटाई थी




Hemantstar111 भाई कहानी में मोड भी लाओ और इमोशन भी लेकिन कुतर्क मत डालो संध्या के लिए सहानुभूति पैदा करने के लिए क्योंकि संध्या गलत है और अब वो कितना भी पछता ले, गलत ही रहेगी, क्योंकि उसने जो गुनाह किए हैं, अपने बच्चे के साथ, और जो रमन और अमन के लिए किया है............ ये माफी के लायक नहीं
ये आप उस ओर ले जा रहे हैं जिसे अङ्ग्रेज़ी में RAAC (Reconciliation At Any Cost) कहते हैं............ यानि जबर्दस्ती का समझौता
अगर ऐसा हुआ तो कहानी बेजान हो जाएगी........... इस कहानी की जान ही अभय द्वारा संध्या, रमन और अमन को उनके कर्मों के लिए दिया प्रतिदण्ड है.... जो उन्होने किया उसका परिणाम
Agree with u
But as if the writer has decided the plot , It will be better if he writes the way he has made his choice or what we can say the storyline.
 
Last edited:

Hemantstar111

New Member
70
1,915
114
अपडेट 12
वो तो है अलबेला

अभय आज भी उस हवेली के ऊपर वाले कमरे को उसी नजरों से देख रहा था, जिस नजर से उस रात देखा था। एक पल के लिए वो अपने आप को शक्तिहीन और बेहद थका हुआ प्यासा महसूस करने लगा। जैसे उस रात वो तुफानो से लड़ता हुआ थक हार कर उस ट्रेन तक पहुंचा से जहां से आखिरी बार उसने हवेली का वो कमरा देखा था।

वो दृश्य याद कर कर अभय का दिमाग उलझन में तो दिल दुख में समा गया । पर तभी ट्रेन रुकी, अभय की तंद्रा भंग हुई, और अब उसे अपनी नजरों के सामने उसके गांव का स्टेशन था। अपने कंधो पर बैग टांगे उसने स्टेशन पर अपना पहला कदम रखा। आज वो बच्चा नहीं था। बच्चा तो वो तब भी नही था जब वो घर छोड़ कर भाग था। खाली कद छोटा था , पर आज वो कद से भी बड़ा था।

गांव में कदम रखते ही, उसके दिल को एक अजीब सा सुकून मिला। उसे ऐसा लग रहा था मानो आज इतने सालो बाद भी उसे अपने गांव में आकर अजनबी नही लग रहा था। अभय ने एक बार चारो तरफ स्टेशन की तरफ देखा और स्टेशन से बाहर निकल कर बाहर सड़क पर आ गया। वो कच्ची सड़क अब पक्की हो गई थी। अभय को वहां से अपना गांव साफ साफ दिखाई दे रहा था। अपने गांव को देखते ही उसके मन में हर्षो उल्लास के कीड़े दौड़ने लगे। और वो बिना देरी किए , अपने कदम पक्की काली सड़क पर बढ़ाते हुए अपने गांव की तरफ चल दिया।

अभय रास्ते पर चलते हुए उन सब जगहों से गुजरा , जहा उसका बचपन खेल कूद रहा था। वो नदी, जिस में वो अपने छोटे दोस्तो के साथ घूमने और नहाने आया करता था। वो आम का बगीचा, जिस बगीचे में अभय अक्सर पायल को घुमाने ले कर आया करता था। और अंत में सड़क के तीन मोहाने पर पहुंच कर, जैसे अपने गांव वाली सड़क पर पैर रखा। उसके सामने अमरूद का बड़ा सा बगीचा नजर आया।

उस अमरूद के बगीचे को देखकर अभि के चेहरे के भाव बदल गए। पल भर में ही खुशनुमा चेहरा क्रोध की अग्नि में भभकने लगा। अभय को न जाने क्या हुआ और वो अपना बैग सड़क के किनारे फेंकते हुए जोर जोर से गुस्से में चिल्लाने लगा। उसके उपर गुस्से का भार बढ़ता जा रहा था। वो इस तरह गुस्से में पगला गया की , तीन मोहाने पर टंगा ठाकुर परम सिंह डिग्री कॉलेज का वो लोखंड का बोर्ड, उखड़ने लगा। क्या हो गया था अभि को, की उसे इतना गुस्सा आया की वो डिग्री कॉलेज का बोर्ड उखाड़ कर फेंकने में जुट गया। हालाकि वो बोर्ड काफी मजबूती से गड़ा था। जो अभी के अकेले उखड़ने के बस से बाहर था। मगर अभी गुस्से में बौखलाया, जब बोर्ड नही उखड़ा तो वही शांति से अपने सिर पर हाथ रख कर बैठ जाता है। और खुद को समझते हुए खुद कोठी शांत करने लगा।

अभि कुछ देर तक उस मोड़ पर यूं ही बैठा रहा। तभी उसके ख्यालों में पायल का जिक्र आया। और वो तुरंत ही शांति की आगोश में चला गया। एक ठंडी सास लेते हुए, अपने आप को देखते हुए खुद से मन में बोला.....

"क्या कर रहा है तू अभी, खुद को तकलीफ क्यूं दे रहा है। तकलीफ तो तुझे देना है, याद रख, या कहीं लिख ले। यूं हीं छोड़ दिया तो सबक नही मिलेगा। लेकिन अभी तेरा काम है अपने बाप के उन सवालों का पता लगाना। खुद को शांत कर, इन्हे अपनी सच्चाई मत बता। की तू ही अभय है, नही तो शायद तेरे बाप के सवालों को खोजने में तेरे रास्ते में कांटे ही कांटे बीछे मिलेंगे। इसीलिए नॉर्मल बिहेव कर, जैसे तू इस गांव के लिए नया है और सिर्फ पड़ने आया है। मगर पायल का क्या? उससे तो दूर नहीं रह सकता ना? और उससे दूर कहा ही, उसके पास ही तो रहूंगा, बस कुछ समय के लिए उसे अपनी असलियत से बेखबर रखना है। समय आने पर उसे भी पता चलेगा तो जरूर समझेगी, वो।"

अभय खुद से ही सवाल जवाब करने लगा था। तभी उसे गाड़ी की हॉर्न सुनाई दी। पलट कर देखा तो एक सफेद रंग की ह्युंडई क्रेटा कर खड़ी थी जो लगातार हॉर्न बजा रही थी। होश में आया तो अभी पाया की वो रास्ते के बीचों बीच खड़ा है। अभय अपने कदम उस कार की तरफ बढ़ाते हुए कार के नजदीक पहुंचा। और कर के कांच को अपनी हाथ के उंगलियों से खटखटाया....

कुछ ही पल में कांच नीचे घिसकाने लगा , और अभि के नजरों के सामने कार के अंदर का नजारा दृष्मान होने लगा । अभि आधा ही कांच नीचे घिसका था की, अभय के चेहरे कबरंग फिर से गायब हो गया। उसके हाथ पांव में अजीब सिरहन उठाने लगी। दिल जोर जोर से धड़कने लगा। आंखें भी हैरत से चौड़ी हो चुकी थी। तभी उसके कानो में एक आवाज गूंजी...

"कौन हो बेटा? कहा जाना है तुम्हे?"

ये मीठी सी आवाज भी अभय को नीम के पत्तो की तरह कड़वी सी लगी। अभि के आंखो पर यकीन नही हो रहा था की, वो जिसे देखना भी नही चाहता था, वही उसकी आंखो के सामने थी आज। जी हां कर के अंदर ड्राइविंग सीट पर संध्या बैठी थी। बरसो बाद अभि अपनी मां का चेहरा देख रहा था। अगर उसकी यादों में उसकी मां का जरा सा भी प्यार सुमार होता। तो अभि तुरंत पिघल जाता और अपनी मनके गले लग जाता। पर अभी की यादों में उसकी मां की कोई जगह नही थी। आज उसकी मां उसकी आंखो के सामने थी पर फिर भी, अभि के दिल में सिर्फ जलन और गुस्सा ही था अपनी मां के लिए।

अभय की आंखे सीधा संध्या की आंखो मे ही झांक रही थी। और संध्या भी कुछ पल के लिए अभी के आंखो में को से गई। चुटिया थी संध्या इतना भी नही नहीं समझी की उसकी आंखो में झांक कर देखने वाली निगाह गुस्से और जलन की चिंगारी है। पर संध्या भी खामोश एक पल के लिए अभी की आंखो में देखती रही,।

"कौन है दीदी?"

एक और आवाज ने अभि के कानो पर दस्तक दी। अभय देख तो नहीं सका की किसकी आवाज है, पर आवाज से जरूर पहेचान गया था की ये आवाज उसकी चाची मालती की है। पर इससे भी अभि को कोइनफार्क नही पड़ा।

संध्या --"एक लड़का है, कहा जाना है बेटा? नए लगते हो इस गांव में?"

अपनी मां की बात सुनकर, अभि मुस्कुरा पड़ा, और बोला...

अभि --"मुझे तो आप नई लगती है इस गांव में, नही तो मुझे जरूर पहेचान लेती। मैं तो पुराना चावल हूं इस गांव का। आप इस गांव की बदचलन...आ...मेरा मतलब बहुत ही उच्च हस्ती की ठाकुराइन है। हजारों एकड़ की जमीन है। और आपका ना मिस संध्या सिंह है। जो बी ए तक की पढ़ाई की है, और वो भी नकल कर कर के पास हुई है। नकल करने वाला कोई और नहीं बल्कि आपके पतिदेव ठाकुर मनन सिंह जी थे। इतना काफी है मेरे गांव का पुराना चावल होने का की कुछ और भी बताऊं।"

संध्या के कान पर से फड़फड़ाती हुई चिड़िया उड़ गई हो जैसे, मुंह खुला का खुला, आंखो और चेहरे पर आश्चर्य के भाव और सबसे बड़ी बात वो अपने आप में ही नही थी। वो आंखे फाड़े अभि की बस देखती रह गई...अभी ने जब संध्या के भाव देखे तो, उसने कांच के अंदर हाथ बढ़ाते हुए संध्या के आंखो के सामने ले जाकर एक चुटकी बजाते हुए...

अभि --"कहा खो गई मैडम? आपने कहीं सच तो नही मान लिया? मेरी आदत है यूं अजनबियों से मजाक करने की।"

संध्या होश में तो जरूर आती है, पर अभी भी वो सदमे में थी में थी। पीछे सीट पर बैठी मालती, ललिता का भी कुछ यूं ही हाल था। तीनो को समझ में नहीं आ रहा था की, ये सारी बाते इस लड़के को कैसे मालूम? और ऊपर से कह रहा है की ये मजाक था। संध्या का दिमाग काम करना बंद हो गया था,।

संध्या --" ये...ये तुम मजाक कर ...कर रहे थे?

ये सुनकर अभि मन ही मन गुस्से की मुस्कान हंसते हुए मुस्कुरा कर बोला --

अभि --"मैडम कुछ समझा नहीं, आप क्या बोल रही है? वर्ड रिपीट मत करिए, और फिल्मों के जैसा डायलॉग तो मत ही मरिए, साफ साफ स्पष्ट शब्दों में पूछिए।"

संध्या --"मैंकः रही थी की, क्या तुम सच में मजाक कर रहे थे?"

अभि --"मैं तो मजाक ही कर रहा था, मगर अक्सर मेरे जानने वाले लोग कहते है की , मेरा मजाक अक्सर सच होता है।"

संध्या , ललिता और मालती अभि भी सदमे में थे। तीनो अभि के चेहरे को गौर से देख रही थी, पर कुछ समझ नहीं पा रही थी। बस किसी मूर्ति की तरह एकटक अभि को देखे जा रही थी।

अभि --"मुझे देख कर हो गया हो तो, कृपया आप मुझे ये बताएंगी की , ठाकुर परम सिंह इंटरमीडिएट कॉलेज के लिए कौन सा रास्ते पर जाना होगा?"

तिनोंके चेहरे के रंग उड़े हुए थे, पर तभी संध्या ने पूछा...

संध्या --"नए स्टूडेंट हो क्या तुम?"

अभि मुस्कुराते हुए एक बार फिर से बोला...

अभि --"जाहिर सी बात है, आज से कॉलेज स्टार्ट हुए है तो, इस गांव में स्टूडेंट ही आयेंगे ना। कोई टूरिस्ट प्लेस तो है नही ये, जो कंधे पर बैग रख कर घूमने आ जायेगा कोई।"

संध्या --"बाते काफी दिलचस्प करते हो तुम।"

अभि --"अब क्या करू , जब सामने इतनी खूबसूरत औरत हो तो दिलचस्पी खुद ब खुद बढ़ जाती है।, वैसे ,मेरा नाम अभय है। अच्छा लगा आपसे मिलकर।"

ये नाम सुनते ही, पीछे बैठी ललिता और मालती फटक से दरवाजा खोलते हुए गाड़ी से नीचे उतर जाति है। और बहार खड़े अभि को देखने लगती है। संध्या की तो मानो जुबान ही अटक गई हो, गला सुख चला। तीनो की हवाइयां उड़ चुकी थी, और संध्या का चेहरा तो देखन लायक था , इस कदर के भाव चेहरे पर अर्जित थे किं शब्दों में ब्यक्त करना उस भाव की बेइज्जती होगी।

इधर अभि मन ही मन खूब मस्त होते जा रहा था, और खुद से बोला....

"अभि तो शुरुवात है, ठाकुराइन। आगे ऐसे ऐसे सदमे दूंगा की, सदमे को भी सदमा लग जायेगा। बस एक बार मुझे मेरे बाप के जिंदगी का वो पन्ना मिल जाए जिनपर उन्होंने वो सवाल लिखे है। फिर तो तुम लोगो के जिंदगी के पन्नो पर मैं ऐसे सवाल लिखूंगा की कभी सॉल्व ही नही होगा।"

अभि --"क्या हुआ आप को मैडम, कब से देख रहा हूं,बोल कुछ नही रही हो, सिर्फ गिरगिट की तरह चेहरे के रंग बदल रही हो बस। लगता है इस चीज में महारत हासिल है आपको!!"

संध्या सच में गहरी सोच में पड़ गई थी, वो कुछ समझ नहीं पा रही थी , उसका सिर भी दुखने लगा था। वो कार के अंदर बैठी होश में आते हुए बोली...

संध्या --"आ जाओ बैठो , मैं तुम्हे...हॉस्टल तक छोड़ देती हूं।"

अभि --"ये हुई न बात, काम की बात आप थोड़ा रंग बदलने के बात करती है, i like it।"

फिर अभि कार में बैठ जाता है, ललिता और मालती भी सदमे में थी। तो वो भी बिना कुछ बोले कार में बैठ गई। कर हॉस्टल की तरफ चल पड़ी। संध्या चला तो रही थी कार, पर उसका ध्यान पूरा अभि पर था। वो बार बार अभि को अपनी नज़रे घुमा कर देखती । और ये बात अभि को पता थी..

अभि --"मैडम अगर मुझे देख कर हो गया हो तो, प्लेस आगे देख कर गाड़ी चला लो, नही तो अभि अभि जवानी में कदम रखा हूं, बिना कच्छी काली तोड़े ही शहीद ना हो जाऊ,।"

ये सुनकर संध्या के चेहरे पर अचानक ही मुस्कान फैल गई। उसके गोरे गुलाबी गाल देख कर अभि बोला...

अभि --"लगता है खूब बादाम और केसर के दूध पिया है आपने?"

ये सुनकर संध्या सकते में आ गई और बोली...

संध्या --"क्यूं? तुम ऐसे क्यूं बोल रहे हो"

अभि --"नही बस आपके गुलाबी गाल देख कर बोल दिया मैने, वैसे इतनी बड़ी जायदाद है, बादाम और केसर क्या चीज है आपके लिए।"

अभि की बात सुनकर संध्या ने कुछ सोचते हुए बोला...

संध्या --"क्यूं क्या तुम्हारी मां तुम्हे बादाम के दूध नही पिलाती है क्या?"

ये सुनकर अभि जोर जोर से हंसने लगा, अभि को इस तरह हंसता देख संध्या आश्चर्य के भाव में बोली...

संध्या --"क्या हुआ कुछ गलत पूंछ लिया क्या?"

अभि --"नही गलत तो नहीं था, पर सवाल पूरा नही था। आप किस मां की मां की बात कर रही है, जिसने मुझे जन्म दिया है या जिसने मुझे सहारा दिया है।"

अभि की बातें संध्या के दिल की धड़कने धीरे धीर बढ़ाए जा रही थी। उसे बेचैनी सी हो रही थी।

संध्या --"मैं कुछ समझी नहीं, जन्म देने वाली कभी तो मां होती है।"

अभि --"इसी लिए आपको बि ए कि डिग्री के लिए नकल करना पड़ा था। मां का कोई रूप नही होता, मैडम। मां किसी भी रूप में अपने बच्चे पर प्यार लुटाने आ जाति है। जैसे मेरी जिंदगी में आई, खैर छोड़ो वो सब , तुम जन्म देने वाली मां किंबात कर रही थी ना। तो बात ये है की अगर मेरी मां का बस चलता तो बादाम और केसर वाली दूध की जगह जहर वालीं दूध दे देती। थोड़ा समय लगा पर मैं समझ गया था। इस लिए तो मैं अपनी मां को ही छोड़ कर भाग गया था।"

अभि अपनी बात खत्म ही किया था की , संध्या ने जोरदार ब्रेक एक झटके में लगाते हुए गाड़ी रोक दिया। उड़ चुके चेहरे के भाव को लिए संध्या ने पूछा।

संध्या --"अपनी मां को छोड़ कर भाग गए, ये ...ये भी तो हो सकता है की तुम्हे अपनी मां को समझने में भूल हुई हो।"

अभि अपनी मां की बात सुनकर, मन ही मन मुस्कुराया, वो समझ गया था की उसे जो काम करना था वो कर दिया है, बस अब एक और दांव बाकी था, जो अब अभि अचलने वाला था। अभि अब गुस्से में थोड़ा गुर्राते हुए बोला...

अभि --"पहेली बार सुन रहा हूं की, एक बच्चे को भी अपनी मां को समझना पड़ता है, कौन है आप, इतनी भी अकल नही है तुम्हे की मां बेटे का प्यार पहले से ही समझा समझाया होता है।"

कहते हुए जब अभि ने अपनी मां की तरफ देखा तो संध्या के आंखो से आसुओं किंधरा फुट रही थी। ये देख कर अभि मन में खुद से बोला...

"कमाल है, ये रोती भी है।"

संध्या --"अगर तुम्हे , बुरा न लगे तो एक बात पूछूं।"

अभि --"नही, कुछ मत पूछो, तुमने ऑलरेडी ऐसे सवाल पूछ कर हद पार कर दी है। मैं यह पढ़ने आया हूं, और मै नही चाहता की मेरा दिमाग किसी भंवर में फंसे।"

संध्या --"मैं तो बस ये कहें चाहती थी की, अगर तुम्हे हॉस्टल में तकलीफ हो तो , मेरे साथ रह सकते हो।"

संध्या की बात सुनकर अभि बोला...

अभि --"जब साल की उम्र में घर छोड़ा था , तब तकलीफ नहीं हुई तो अब क्या होगी? तकलीफों से लड़ना आता है मुझे, मैं दो रोटी में ही खुश हु, आपकी हवेली के बादाम और केसर के दूध मुझे नही पचेंगे। और वैसे भी तुम्हारा कोई बेटा नहीं है क्या? उसे पिलाओ भर भर के।"

संध्या खुद खुद को संभाल नहीं पाई और कर से रोते हुए बाहर निकल जाति है...

ये देख कर अभि भी गुस्से में अपना बैग उठता है और कर से बाहर निकल कर अपने हॉस्टल की तरफ चल पड़ता है, अभि को बाहर जाते देख, खामोश बैठी मालती की भी आंखो में आसुओं की बारिश हो रही थी, वो बस अभी को जाते हुए देखती रहती है.....

पर अभी एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखता...
 

brego4

Well-Known Member
2,850
11,104
158
जो बी ए तक की पढ़ाई की है, और वो भी नकल कर कर के पास हुई है। नकल करने वाला कोई और नहीं बल्कि आपके पतिदेव ठाकुर मनन सिंह जी थे। इतना काफी है मेरे गांव का पुराना चावल होने का की कुछ और भी बताऊं।"............ :laugh::laugh: haha yaar ye sab se sahi sixer mara abhay ne

super dramatic updates and very shocking for sandhya, abhay to gaon me aate hi sandhya ka chain cheen liya

malti shayad abhay ko pehchan gayi hai
 
Last edited:

Studxyz

Well-Known Member
2,933
16,303
158
वाह भाई बातों के तीर चला चला के ही अभय ने संध्या उसकी देवरानियों की बोलती के साथ साथ गांड भी बंद ही कर दी वैसे अब ये अलबेला हीरो पूरे मोशन में आ गया है और गिन गिन के बदले लेने वाला है अलबेले ने पहले ही मुलाकात में सारे मुद्दे निकाल के खड़े कर दिए और अपनी पहचान भी छुपा गया

पर इसकी असली परीक्षा तभी होगी जब ये चोदू रमन सिंह व् बिगड़ैल अमन को भी ऐसे ही ठोकेगा

संध्या व् मालती दोनों को शक ज़रूर हुआ है लेकिन विश्वाश नहीं हो रहा जैसे अलबेले के लक्ष्ण हैं आगे चल कर विश्वाश भी हो ही जायेगा
 

Lib am

Well-Known Member
3,257
11,276
143
अपडेट 12


अभय आज भी उस हवेली के ऊपर वाले कमरे को उसी नजरों से देख रहा था, जिस नजर से उस रात देखा था। एक पल के लिए वो अपने आप को शक्तिहीन और बेहद थका हुआ प्यासा महसूस करने लगा। जैसे उस रात वो तुफानो से लड़ता हुआ थक हार कर उस ट्रेन तक पहुंचा से जहां से आखिरी बार उसने हवेली का वो कमरा देखा था।

वो दृश्य याद कर कर अभय का दिमाग उलझन में तो दिल दुख में समा गया । पर तभी ट्रेन रुकी, अभय की तंद्रा भंग हुई, और अब उसे अपनी नजरों के सामने उसके गांव का स्टेशन था। अपने कंधो पर बैग टांगे उसने स्टेशन पर अपना पहला कदम रखा। आज वो बच्चा नहीं था। बच्चा तो वो तब भी नही था जब वो घर छोड़ कर भाग था। खाली कद छोटा था , पर आज वो कद से भी बड़ा था।

गांव में कदम रखते ही, उसके दिल को एक अजीब सा सुकून मिला। उसे ऐसा लग रहा था मानो आज इतने सालो बाद भी उसे अपने गांव में आकर अजनबी नही लग रहा था। अभय ने एक बार चारो तरफ स्टेशन की तरफ देखा और स्टेशन से बाहर निकल कर बाहर सड़क पर आ गया। वो कच्ची सड़क अब पक्की हो गई थी। अभय को वहां से अपना गांव साफ साफ दिखाई दे रहा था। अपने गांव को देखते ही उसके मन में हर्षो उल्लास के कीड़े दौड़ने लगे। और वो बिना देरी किए , अपने कदम पक्की काली सड़क पर बढ़ाते हुए अपने गांव की तरफ चल दिया।

अभय रास्ते पर चलते हुए उन सब जगहों से गुजरा , जहा उसका बचपन खेल कूद रहा था। वो नदी, जिस में वो अपने छोटे दोस्तो के साथ घूमने और नहाने आया करता था। वो आम का बगीचा, जिस बगीचे में अभय अक्सर पायल को घुमाने ले कर आया करता था। और अंत में सड़क के तीन मोहाने पर पहुंच कर, जैसे अपने गांव वाली सड़क पर पैर रखा। उसके सामने अमरूद का बड़ा सा बगीचा नजर आया।

उस अमरूद के बगीचे को देखकर अभि के चेहरे के भाव बदल गए। पल भर में ही खुशनुमा चेहरा क्रोध की अग्नि में भभकने लगा। अभय को न जाने क्या हुआ और वो अपना बैग सड़क के किनारे फेंकते हुए जोर जोर से गुस्से में चिल्लाने लगा। उसके उपर गुस्से का भार बढ़ता जा रहा था। वो इस तरह गुस्से में पगला गया की , तीन मोहाने पर टंगा ठाकुर परम सिंह डिग्री कॉलेज का वो लोखंड का बोर्ड, उखड़ने लगा। क्या हो गया था अभि को, की उसे इतना गुस्सा आया की वो डिग्री कॉलेज का बोर्ड उखाड़ कर फेंकने में जुट गया। हालाकि वो बोर्ड काफी मजबूती से गड़ा था। जो अभी के अकेले उखड़ने के बस से बाहर था। मगर अभी गुस्से में बौखलाया, जब बोर्ड नही उखड़ा तो वही शांति से अपने सिर पर हाथ रख कर बैठ जाता है। और खुद को समझते हुए खुद कोठी शांत करने लगा।

अभि कुछ देर तक उस मोड़ पर यूं ही बैठा रहा। तभी उसके ख्यालों में पायल का जिक्र आया। और वो तुरंत ही शांति की आगोश में चला गया। एक ठंडी सास लेते हुए, अपने आप को देखते हुए खुद से मन में बोला.....

"क्या कर रहा है तू अभी, खुद को तकलीफ क्यूं दे रहा है। तकलीफ तो तुझे देना है, याद रख, या कहीं लिख ले। यूं हीं छोड़ दिया तो सबक नही मिलेगा। लेकिन अभी तेरा काम है अपने बाप के उन सवालों का पता लगाना। खुद को शांत कर, इन्हे अपनी सच्चाई मत बता। की तू ही अभय है, नही तो शायद तेरे बाप के सवालों को खोजने में तेरे रास्ते में कांटे ही कांटे बीछे मिलेंगे। इसीलिए नॉर्मल बिहेव कर, जैसे तू इस गांव के लिए नया है और सिर्फ पड़ने आया है। मगर पायल का क्या? उससे तो दूर नहीं रह सकता ना? और उससे दूर कहा ही, उसके पास ही तो रहूंगा, बस कुछ समय के लिए उसे अपनी असलियत से बेखबर रखना है। समय आने पर उसे भी पता चलेगा तो जरूर समझेगी, वो।"

अभय खुद से ही सवाल जवाब करने लगा था। तभी उसे गाड़ी की हॉर्न सुनाई दी। पलट कर देखा तो एक सफेद रंग की ह्युंडई क्रेटा कर खड़ी थी जो लगातार हॉर्न बजा रही थी। होश में आया तो अभी पाया की वो रास्ते के बीचों बीच खड़ा है। अभय अपने कदम उस कार की तरफ बढ़ाते हुए कार के नजदीक पहुंचा। और कर के कांच को अपनी हाथ के उंगलियों से खटखटाया....

कुछ ही पल में कांच नीचे घिसकाने लगा , और अभि के नजरों के सामने कार के अंदर का नजारा दृष्मान होने लगा । अभि आधा ही कांच नीचे घिसका था की, अभय के चेहरे कबरंग फिर से गायब हो गया। उसके हाथ पांव में अजीब सिरहन उठाने लगी। दिल जोर जोर से धड़कने लगा। आंखें भी हैरत से चौड़ी हो चुकी थी। तभी उसके कानो में एक आवाज गूंजी...

"कौन हो बेटा? कहा जाना है तुम्हे?"

ये मीठी सी आवाज भी अभय को नीम के पत्तो की तरह कड़वी सी लगी। अभि के आंखो पर यकीन नही हो रहा था की, वो जिसे देखना भी नही चाहता था, वही उसकी आंखो के सामने थी आज। जी हां कर के अंदर ड्राइविंग सीट पर संध्या बैठी थी। बरसो बाद अभि अपनी मां का चेहरा देख रहा था। अगर उसकी यादों में उसकी मां का जरा सा भी प्यार सुमार होता। तो अभि तुरंत पिघल जाता और अपनी मनके गले लग जाता। पर अभी की यादों में उसकी मां की कोई जगह नही थी। आज उसकी मां उसकी आंखो के सामने थी पर फिर भी, अभि के दिल में सिर्फ जलन और गुस्सा ही था अपनी मां के लिए।

अभय की आंखे सीधा संध्या की आंखो मे ही झांक रही थी। और संध्या भी कुछ पल के लिए अभी के आंखो में को से गई। चुटिया थी संध्या इतना भी नही नहीं समझी की उसकी आंखो में झांक कर देखने वाली निगाह गुस्से और जलन की चिंगारी है। पर संध्या भी खामोश एक पल के लिए अभी की आंखो में देखती रही,।

"कौन है दीदी?"

एक और आवाज ने अभि के कानो पर दस्तक दी। अभय देख तो नहीं सका की किसकी आवाज है, पर आवाज से जरूर पहेचान गया था की ये आवाज उसकी चाची मालती की है। पर इससे भी अभि को कोइनफार्क नही पड़ा।

संध्या --"एक लड़का है, कहा जाना है बेटा? नए लगते हो इस गांव में?"

अपनी मां की बात सुनकर, अभि मुस्कुरा पड़ा, और बोला...

अभि --"मुझे तो आप नई लगती है इस गांव में, नही तो मुझे जरूर पहेचान लेती। मैं तो पुराना चावल हूं इस गांव का। आप इस गांव की बदचलन...आ...मेरा मतलब बहुत ही उच्च हस्ती की ठाकुराइन है। हजारों एकड़ की जमीन है। और आपका ना मिस संध्या सिंह है। जो बी ए तक की पढ़ाई की है, और वो भी नकल कर कर के पास हुई है। नकल करने वाला कोई और नहीं बल्कि आपके पतिदेव ठाकुर मनन सिंह जी थे। इतना काफी है मेरे गांव का पुराना चावल होने का की कुछ और भी बताऊं।"

संध्या के कान पर से फड़फड़ाती हुई चिड़िया उड़ गई हो जैसे, मुंह खुला का खुला, आंखो और चेहरे पर आश्चर्य के भाव और सबसे बड़ी बात वो अपने आप में ही नही थी। वो आंखे फाड़े अभि की बस देखती रह गई...अभी ने जब संध्या के भाव देखे तो, उसने कांच के अंदर हाथ बढ़ाते हुए संध्या के आंखो के सामने ले जाकर एक चुटकी बजाते हुए...

अभि --"कहा खो गई मैडम? आपने कहीं सच तो नही मान लिया? मेरी आदत है यूं अजनबियों से मजाक करने की।"

संध्या होश में तो जरूर आती है, पर अभी भी वो सदमे में थी में थी। पीछे सीट पर बैठी मालती, ललिता का भी कुछ यूं ही हाल था। तीनो को समझ में नहीं आ रहा था की, ये सारी बाते इस लड़के को कैसे मालूम? और ऊपर से कह रहा है की ये मजाक था। संध्या का दिमाग काम करना बंद हो गया था,।

संध्या --" ये...ये तुम मजाक कर ...कर रहे थे?

ये सुनकर अभि मन ही मन गुस्से की मुस्कान हंसते हुए मुस्कुरा कर बोला --

अभि --"मैडम कुछ समझा नहीं, आप क्या बोल रही है? वर्ड रिपीट मत करिए, और फिल्मों के जैसा डायलॉग तो मत ही मरिए, साफ साफ स्पष्ट शब्दों में पूछिए।"

संध्या --"मैंकः रही थी की, क्या तुम सच में मजाक कर रहे थे?"

अभि --"मैं तो मजाक ही कर रहा था, मगर अक्सर मेरे जानने वाले लोग कहते है की , मेरा मजाक अक्सर सच होता है।"

संध्या , ललिता और मालती अभि भी सदमे में थे। तीनो अभि के चेहरे को गौर से देख रही थी, पर कुछ समझ नहीं पा रही थी। बस किसी मूर्ति की तरह एकटक अभि को देखे जा रही थी।

अभि --"मुझे देख कर हो गया हो तो, कृपया आप मुझे ये बताएंगी की , ठाकुर परम सिंह इंटरमीडिएट कॉलेज के लिए कौन सा रास्ते पर जाना होगा?"

तिनोंके चेहरे के रंग उड़े हुए थे, पर तभी संध्या ने पूछा...

संध्या --"नए स्टूडेंट हो क्या तुम?"

अभि मुस्कुराते हुए एक बार फिर से बोला...

अभि --"जाहिर सी बात है, आज से कॉलेज स्टार्ट हुए है तो, इस गांव में स्टूडेंट ही आयेंगे ना। कोई टूरिस्ट प्लेस तो है नही ये, जो कंधे पर बैग रख कर घूमने आ जायेगा कोई।"

संध्या --"बाते काफी दिलचस्प करते हो तुम।"

अभि --"अब क्या करू , जब सामने इतनी खूबसूरत औरत हो तो दिलचस्पी खुद ब खुद बढ़ जाती है।, वैसे ,मेरा नाम अभय है। अच्छा लगा आपसे मिलकर।"

ये नाम सुनते ही, पीछे बैठी ललिता और मालती फटक से दरवाजा खोलते हुए गाड़ी से नीचे उतर जाति है। और बहार खड़े अभि को देखने लगती है। संध्या की तो मानो जुबान ही अटक गई हो, गला सुख चला। तीनो की हवाइयां उड़ चुकी थी, और संध्या का चेहरा तो देखन लायक था , इस कदर के भाव चेहरे पर अर्जित थे किं शब्दों में ब्यक्त करना उस भाव की बेइज्जती होगी।

इधर अभि मन ही मन खूब मस्त होते जा रहा था, और खुद से बोला....

"अभि तो शुरुवात है, ठाकुराइन। आगे ऐसे ऐसे सदमे दूंगा की, सदमे को भी सदमा लग जायेगा। बस एक बार मुझे मेरे बाप के जिंदगी का वो पन्ना मिल जाए जिनपर उन्होंने वो सवाल लिखे है। फिर तो तुम लोगो के जिंदगी के पन्नो पर मैं ऐसे सवाल लिखूंगा की कभी सॉल्व ही नही होगा।"

अभि --"क्या हुआ आप को मैडम, कब से देख रहा हूं,बोल कुछ नही रही हो, सिर्फ गिरगिट की तरह चेहरे के रंग बदल रही हो बस। लगता है इस चीज में महारत हासिल है आपको!!"

संध्या सच में गहरी सोच में पड़ गई थी, वो कुछ समझ नहीं पा रही थी , उसका सिर भी दुखने लगा था। वो कार के अंदर बैठी होश में आते हुए बोली...

संध्या --"आ जाओ बैठो , मैं तुम्हे...हॉस्टल तक छोड़ देती हूं।"

अभि --"ये हुई न बात, काम की बात आप थोड़ा रंग बदलने के बात करती है, i like it।"

फिर अभि कार में बैठ जाता है, ललिता और मालती भी सदमे में थी। तो वो भी बिना कुछ बोले कार में बैठ गई। कर हॉस्टल की तरफ चल पड़ी। संध्या चला तो रही थी कार, पर उसका ध्यान पूरा अभि पर था। वो बार बार अभि को अपनी नज़रे घुमा कर देखती । और ये बात अभि को पता थी..

अभि --"मैडम अगर मुझे देख कर हो गया हो तो, प्लेस आगे देख कर गाड़ी चला लो, नही तो अभि अभि जवानी में कदम रखा हूं, बिना कच्छी काली तोड़े ही शहीद ना हो जाऊ,।"

ये सुनकर संध्या के चेहरे पर अचानक ही मुस्कान फैल गई। उसके गोरे गुलाबी गाल देख कर अभि बोला...

अभि --"लगता है खूब बादाम और केसर के दूध पिया है आपने?"

ये सुनकर संध्या सकते में आ गई और बोली...

संध्या --"क्यूं? तुम ऐसे क्यूं बोल रहे हो"

अभि --"नही बस आपके गुलाबी गाल देख कर बोल दिया मैने, वैसे इतनी बड़ी जायदाद है, बादाम और केसर क्या चीज है आपके लिए।"

अभि की बात सुनकर संध्या ने कुछ सोचते हुए बोला...

संध्या --"क्यूं क्या तुम्हारी मां तुम्हे बादाम के दूध नही पिलाती है क्या?"

ये सुनकर अभि जोर जोर से हंसने लगा, अभि को इस तरह हंसता देख संध्या आश्चर्य के भाव में बोली...

संध्या --"क्या हुआ कुछ गलत पूंछ लिया क्या?"

अभि --"नही गलत तो नहीं था, पर सवाल पूरा नही था। आप किस मां की मां की बात कर रही है, जिसने मुझे जन्म दिया है या जिसने मुझे सहारा दिया है।"

अभि की बातें संध्या के दिल की धड़कने धीरे धीर बढ़ाए जा रही थी। उसे बेचैनी सी हो रही थी।

संध्या --"मैं कुछ समझी नहीं, जन्म देने वाली कभी तो मां होती है।"

अभि --"इसी लिए आपको बि ए कि डिग्री के लिए नकल करना पड़ा था। मां का कोई रूप नही होता, मैडम। मां किसी भी रूप में अपने बच्चे पर प्यार लुटाने आ जाति है। जैसे मेरी जिंदगी में आई, खैर छोड़ो वो सब , तुम जन्म देने वाली मां किंबात कर रही थी ना। तो बात ये है की अगर मेरी मां का बस चलता तो बादाम और केसर वाली दूध की जगह जहर वालीं दूध दे देती। थोड़ा समय लगा पर मैं समझ गया था। इस लिए तो मैं अपनी मां को ही छोड़ कर भाग गया था।"

अभि अपनी बात खत्म ही किया था की , संध्या ने जोरदार ब्रेक एक झटके में लगाते हुए गाड़ी रोक दिया। उड़ चुके चेहरे के भाव को लिए संध्या ने पूछा।

संध्या --"अपनी मां को छोड़ कर भाग गए, ये ...ये भी तो हो सकता है की तुम्हे अपनी मां को समझने में भूल हुई हो।"

अभि अपनी मां की बात सुनकर, मन ही मन मुस्कुराया, वो समझ गया था की उसे जो काम करना था वो कर दिया है, बस अब एक और दांव बाकी था, जो अब अभि अचलने वाला था। अभि अब गुस्से में थोड़ा गुर्राते हुए बोला...

अभि --"पहेली बार सुन रहा हूं की, एक बच्चे को भी अपनी मां को समझना पड़ता है, कौन है आप, इतनी भी अकल नही है तुम्हे की मां बेटे का प्यार पहले से ही समझा समझाया होता है।"

कहते हुए जब अभि ने अपनी मां की तरफ देखा तो संध्या के आंखो से आसुओं किंधरा फुट रही थी। ये देख कर अभि मन में खुद से बोला...

"कमाल है, ये रोती भी है।"

संध्या --"अगर तुम्हे , बुरा न लगे तो एक बात पूछूं।"

अभि --"नही, कुछ मत पूछो, तुमने ऑलरेडी ऐसे सवाल पूछ कर हद पार कर दी है। मैं यह पढ़ने आया हूं, और मै नही चाहता की मेरा दिमाग किसी भंवर में फंसे।"

संध्या --"मैं तो बस ये कहें चाहती थी की, अगर तुम्हे हॉस्टल में तकलीफ हो तो , मेरे साथ रह सकते हो।"

संध्या की बात सुनकर अभि बोला...

अभि --"जब साल की उम्र में घर छोड़ा था , तब तकलीफ नहीं हुई तो अब क्या होगी? तकलीफों से लड़ना आता है मुझे, मैं दो रोटी में ही खुश हु, आपकी हवेली के बादाम और केसर के दूध मुझे नही पचेंगे। और वैसे भी तुम्हारा कोई बेटा नहीं है क्या? उसे पिलाओ भर भर के।"

संध्या खुद खुद को संभाल नहीं पाई और कर से रोते हुए बाहर निकल जाति है...

ये देख कर अभि भी गुस्से में अपना बैग उठता है और कर से बाहर निकल कर अपने हॉस्टल की तरफ चल पड़ता है, अभि को बाहर जाते देख, खामोश बैठी मालती की भी आंखो में आसुओं की बारिश हो रही थी, वो बस अभी को जाते हुए देखती रहती है.....

पर अभी एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखता...
एक बच्चा खेलने कूदने की उम्र में घर छोड़ कर खुद अपने पैरो पर खड़ा करे और फिर किस्मत उसे फिर से उसी गड्ढे में धकेल दे जहां से वो निकला था तो फिर भावुक होना तो बनता है। मगर जल्दी ही उसने खुद को संभाल भी लिया।

अब इसी को तो किस्मत कहते है कि जिस अतीत से वो भागा था वही उसके सामने खड़ा हो गया। मगर जिस तरह से उसने अपना परिचय ना देते हुए भी दिया और शब्दो से हकीकत का आइना दिखाया संध्या को उसके बाद कोई बेवकूफ ही होगा जो अभय को ना पहचान पाए और संध्या को थोड़ा बहुत संशय हो भी मगर मालती को पूरा विश्वास हो चुका है की ये उनका अभय ही है। बहुत ही शानदार अपडेट Hemantstar111 भाई।
 

Battu

Active Member
1,320
4,727
159
अपडेट 12


अभय आज भी उस हवेली के ऊपर वाले कमरे को उसी नजरों से देख रहा था, जिस नजर से उस रात देखा था। एक पल के लिए वो अपने आप को शक्तिहीन और बेहद थका हुआ प्यासा महसूस करने लगा। जैसे उस रात वो तुफानो से लड़ता हुआ थक हार कर उस ट्रेन तक पहुंचा से जहां से आखिरी बार उसने हवेली का वो कमरा देखा था।

वो दृश्य याद कर कर अभय का दिमाग उलझन में तो दिल दुख में समा गया । पर तभी ट्रेन रुकी, अभय की तंद्रा भंग हुई, और अब उसे अपनी नजरों के सामने उसके गांव का स्टेशन था। अपने कंधो पर बैग टांगे उसने स्टेशन पर अपना पहला कदम रखा। आज वो बच्चा नहीं था। बच्चा तो वो तब भी नही था जब वो घर छोड़ कर भाग था। खाली कद छोटा था , पर आज वो कद से भी बड़ा था।

गांव में कदम रखते ही, उसके दिल को एक अजीब सा सुकून मिला। उसे ऐसा लग रहा था मानो आज इतने सालो बाद भी उसे अपने गांव में आकर अजनबी नही लग रहा था। अभय ने एक बार चारो तरफ स्टेशन की तरफ देखा और स्टेशन से बाहर निकल कर बाहर सड़क पर आ गया। वो कच्ची सड़क अब पक्की हो गई थी। अभय को वहां से अपना गांव साफ साफ दिखाई दे रहा था। अपने गांव को देखते ही उसके मन में हर्षो उल्लास के कीड़े दौड़ने लगे। और वो बिना देरी किए , अपने कदम पक्की काली सड़क पर बढ़ाते हुए अपने गांव की तरफ चल दिया।

अभय रास्ते पर चलते हुए उन सब जगहों से गुजरा , जहा उसका बचपन खेल कूद रहा था। वो नदी, जिस में वो अपने छोटे दोस्तो के साथ घूमने और नहाने आया करता था। वो आम का बगीचा, जिस बगीचे में अभय अक्सर पायल को घुमाने ले कर आया करता था। और अंत में सड़क के तीन मोहाने पर पहुंच कर, जैसे अपने गांव वाली सड़क पर पैर रखा। उसके सामने अमरूद का बड़ा सा बगीचा नजर आया।

उस अमरूद के बगीचे को देखकर अभि के चेहरे के भाव बदल गए। पल भर में ही खुशनुमा चेहरा क्रोध की अग्नि में भभकने लगा। अभय को न जाने क्या हुआ और वो अपना बैग सड़क के किनारे फेंकते हुए जोर जोर से गुस्से में चिल्लाने लगा। उसके उपर गुस्से का भार बढ़ता जा रहा था। वो इस तरह गुस्से में पगला गया की , तीन मोहाने पर टंगा ठाकुर परम सिंह डिग्री कॉलेज का वो लोखंड का बोर्ड, उखड़ने लगा। क्या हो गया था अभि को, की उसे इतना गुस्सा आया की वो डिग्री कॉलेज का बोर्ड उखाड़ कर फेंकने में जुट गया। हालाकि वो बोर्ड काफी मजबूती से गड़ा था। जो अभी के अकेले उखड़ने के बस से बाहर था। मगर अभी गुस्से में बौखलाया, जब बोर्ड नही उखड़ा तो वही शांति से अपने सिर पर हाथ रख कर बैठ जाता है। और खुद को समझते हुए खुद कोठी शांत करने लगा।

अभि कुछ देर तक उस मोड़ पर यूं ही बैठा रहा। तभी उसके ख्यालों में पायल का जिक्र आया। और वो तुरंत ही शांति की आगोश में चला गया। एक ठंडी सास लेते हुए, अपने आप को देखते हुए खुद से मन में बोला.....

"क्या कर रहा है तू अभी, खुद को तकलीफ क्यूं दे रहा है। तकलीफ तो तुझे देना है, याद रख, या कहीं लिख ले। यूं हीं छोड़ दिया तो सबक नही मिलेगा। लेकिन अभी तेरा काम है अपने बाप के उन सवालों का पता लगाना। खुद को शांत कर, इन्हे अपनी सच्चाई मत बता। की तू ही अभय है, नही तो शायद तेरे बाप के सवालों को खोजने में तेरे रास्ते में कांटे ही कांटे बीछे मिलेंगे। इसीलिए नॉर्मल बिहेव कर, जैसे तू इस गांव के लिए नया है और सिर्फ पड़ने आया है। मगर पायल का क्या? उससे तो दूर नहीं रह सकता ना? और उससे दूर कहा ही, उसके पास ही तो रहूंगा, बस कुछ समय के लिए उसे अपनी असलियत से बेखबर रखना है। समय आने पर उसे भी पता चलेगा तो जरूर समझेगी, वो।"

अभय खुद से ही सवाल जवाब करने लगा था। तभी उसे गाड़ी की हॉर्न सुनाई दी। पलट कर देखा तो एक सफेद रंग की ह्युंडई क्रेटा कर खड़ी थी जो लगातार हॉर्न बजा रही थी। होश में आया तो अभी पाया की वो रास्ते के बीचों बीच खड़ा है। अभय अपने कदम उस कार की तरफ बढ़ाते हुए कार के नजदीक पहुंचा। और कर के कांच को अपनी हाथ के उंगलियों से खटखटाया....

कुछ ही पल में कांच नीचे घिसकाने लगा , और अभि के नजरों के सामने कार के अंदर का नजारा दृष्मान होने लगा । अभि आधा ही कांच नीचे घिसका था की, अभय के चेहरे कबरंग फिर से गायब हो गया। उसके हाथ पांव में अजीब सिरहन उठाने लगी। दिल जोर जोर से धड़कने लगा। आंखें भी हैरत से चौड़ी हो चुकी थी। तभी उसके कानो में एक आवाज गूंजी...

"कौन हो बेटा? कहा जाना है तुम्हे?"

ये मीठी सी आवाज भी अभय को नीम के पत्तो की तरह कड़वी सी लगी। अभि के आंखो पर यकीन नही हो रहा था की, वो जिसे देखना भी नही चाहता था, वही उसकी आंखो के सामने थी आज। जी हां कर के अंदर ड्राइविंग सीट पर संध्या बैठी थी। बरसो बाद अभि अपनी मां का चेहरा देख रहा था। अगर उसकी यादों में उसकी मां का जरा सा भी प्यार सुमार होता। तो अभि तुरंत पिघल जाता और अपनी मनके गले लग जाता। पर अभी की यादों में उसकी मां की कोई जगह नही थी। आज उसकी मां उसकी आंखो के सामने थी पर फिर भी, अभि के दिल में सिर्फ जलन और गुस्सा ही था अपनी मां के लिए।

अभय की आंखे सीधा संध्या की आंखो मे ही झांक रही थी। और संध्या भी कुछ पल के लिए अभी के आंखो में को से गई। चुटिया थी संध्या इतना भी नही नहीं समझी की उसकी आंखो में झांक कर देखने वाली निगाह गुस्से और जलन की चिंगारी है। पर संध्या भी खामोश एक पल के लिए अभी की आंखो में देखती रही,।

"कौन है दीदी?"

एक और आवाज ने अभि के कानो पर दस्तक दी। अभय देख तो नहीं सका की किसकी आवाज है, पर आवाज से जरूर पहेचान गया था की ये आवाज उसकी चाची मालती की है। पर इससे भी अभि को कोइनफार्क नही पड़ा।

संध्या --"एक लड़का है, कहा जाना है बेटा? नए लगते हो इस गांव में?"

अपनी मां की बात सुनकर, अभि मुस्कुरा पड़ा, और बोला...

अभि --"मुझे तो आप नई लगती है इस गांव में, नही तो मुझे जरूर पहेचान लेती। मैं तो पुराना चावल हूं इस गांव का। आप इस गांव की बदचलन...आ...मेरा मतलब बहुत ही उच्च हस्ती की ठाकुराइन है। हजारों एकड़ की जमीन है। और आपका ना मिस संध्या सिंह है। जो बी ए तक की पढ़ाई की है, और वो भी नकल कर कर के पास हुई है। नकल करने वाला कोई और नहीं बल्कि आपके पतिदेव ठाकुर मनन सिंह जी थे। इतना काफी है मेरे गांव का पुराना चावल होने का की कुछ और भी बताऊं।"

संध्या के कान पर से फड़फड़ाती हुई चिड़िया उड़ गई हो जैसे, मुंह खुला का खुला, आंखो और चेहरे पर आश्चर्य के भाव और सबसे बड़ी बात वो अपने आप में ही नही थी। वो आंखे फाड़े अभि की बस देखती रह गई...अभी ने जब संध्या के भाव देखे तो, उसने कांच के अंदर हाथ बढ़ाते हुए संध्या के आंखो के सामने ले जाकर एक चुटकी बजाते हुए...

अभि --"कहा खो गई मैडम? आपने कहीं सच तो नही मान लिया? मेरी आदत है यूं अजनबियों से मजाक करने की।"

संध्या होश में तो जरूर आती है, पर अभी भी वो सदमे में थी में थी। पीछे सीट पर बैठी मालती, ललिता का भी कुछ यूं ही हाल था। तीनो को समझ में नहीं आ रहा था की, ये सारी बाते इस लड़के को कैसे मालूम? और ऊपर से कह रहा है की ये मजाक था। संध्या का दिमाग काम करना बंद हो गया था,।

संध्या --" ये...ये तुम मजाक कर ...कर रहे थे?

ये सुनकर अभि मन ही मन गुस्से की मुस्कान हंसते हुए मुस्कुरा कर बोला --

अभि --"मैडम कुछ समझा नहीं, आप क्या बोल रही है? वर्ड रिपीट मत करिए, और फिल्मों के जैसा डायलॉग तो मत ही मरिए, साफ साफ स्पष्ट शब्दों में पूछिए।"

संध्या --"मैंकः रही थी की, क्या तुम सच में मजाक कर रहे थे?"

अभि --"मैं तो मजाक ही कर रहा था, मगर अक्सर मेरे जानने वाले लोग कहते है की , मेरा मजाक अक्सर सच होता है।"

संध्या , ललिता और मालती अभि भी सदमे में थे। तीनो अभि के चेहरे को गौर से देख रही थी, पर कुछ समझ नहीं पा रही थी। बस किसी मूर्ति की तरह एकटक अभि को देखे जा रही थी।

अभि --"मुझे देख कर हो गया हो तो, कृपया आप मुझे ये बताएंगी की , ठाकुर परम सिंह इंटरमीडिएट कॉलेज के लिए कौन सा रास्ते पर जाना होगा?"

तिनोंके चेहरे के रंग उड़े हुए थे, पर तभी संध्या ने पूछा...

संध्या --"नए स्टूडेंट हो क्या तुम?"

अभि मुस्कुराते हुए एक बार फिर से बोला...

अभि --"जाहिर सी बात है, आज से कॉलेज स्टार्ट हुए है तो, इस गांव में स्टूडेंट ही आयेंगे ना। कोई टूरिस्ट प्लेस तो है नही ये, जो कंधे पर बैग रख कर घूमने आ जायेगा कोई।"

संध्या --"बाते काफी दिलचस्प करते हो तुम।"

अभि --"अब क्या करू , जब सामने इतनी खूबसूरत औरत हो तो दिलचस्पी खुद ब खुद बढ़ जाती है।, वैसे ,मेरा नाम अभय है। अच्छा लगा आपसे मिलकर।"

ये नाम सुनते ही, पीछे बैठी ललिता और मालती फटक से दरवाजा खोलते हुए गाड़ी से नीचे उतर जाति है। और बहार खड़े अभि को देखने लगती है। संध्या की तो मानो जुबान ही अटक गई हो, गला सुख चला। तीनो की हवाइयां उड़ चुकी थी, और संध्या का चेहरा तो देखन लायक था , इस कदर के भाव चेहरे पर अर्जित थे किं शब्दों में ब्यक्त करना उस भाव की बेइज्जती होगी।

इधर अभि मन ही मन खूब मस्त होते जा रहा था, और खुद से बोला....

"अभि तो शुरुवात है, ठाकुराइन। आगे ऐसे ऐसे सदमे दूंगा की, सदमे को भी सदमा लग जायेगा। बस एक बार मुझे मेरे बाप के जिंदगी का वो पन्ना मिल जाए जिनपर उन्होंने वो सवाल लिखे है। फिर तो तुम लोगो के जिंदगी के पन्नो पर मैं ऐसे सवाल लिखूंगा की कभी सॉल्व ही नही होगा।"

अभि --"क्या हुआ आप को मैडम, कब से देख रहा हूं,बोल कुछ नही रही हो, सिर्फ गिरगिट की तरह चेहरे के रंग बदल रही हो बस। लगता है इस चीज में महारत हासिल है आपको!!"

संध्या सच में गहरी सोच में पड़ गई थी, वो कुछ समझ नहीं पा रही थी , उसका सिर भी दुखने लगा था। वो कार के अंदर बैठी होश में आते हुए बोली...

संध्या --"आ जाओ बैठो , मैं तुम्हे...हॉस्टल तक छोड़ देती हूं।"

अभि --"ये हुई न बात, काम की बात आप थोड़ा रंग बदलने के बात करती है, i like it।"

फिर अभि कार में बैठ जाता है, ललिता और मालती भी सदमे में थी। तो वो भी बिना कुछ बोले कार में बैठ गई। कर हॉस्टल की तरफ चल पड़ी। संध्या चला तो रही थी कार, पर उसका ध्यान पूरा अभि पर था। वो बार बार अभि को अपनी नज़रे घुमा कर देखती । और ये बात अभि को पता थी..

अभि --"मैडम अगर मुझे देख कर हो गया हो तो, प्लेस आगे देख कर गाड़ी चला लो, नही तो अभि अभि जवानी में कदम रखा हूं, बिना कच्छी काली तोड़े ही शहीद ना हो जाऊ,।"

ये सुनकर संध्या के चेहरे पर अचानक ही मुस्कान फैल गई। उसके गोरे गुलाबी गाल देख कर अभि बोला...

अभि --"लगता है खूब बादाम और केसर के दूध पिया है आपने?"

ये सुनकर संध्या सकते में आ गई और बोली...

संध्या --"क्यूं? तुम ऐसे क्यूं बोल रहे हो"

अभि --"नही बस आपके गुलाबी गाल देख कर बोल दिया मैने, वैसे इतनी बड़ी जायदाद है, बादाम और केसर क्या चीज है आपके लिए।"

अभि की बात सुनकर संध्या ने कुछ सोचते हुए बोला...

संध्या --"क्यूं क्या तुम्हारी मां तुम्हे बादाम के दूध नही पिलाती है क्या?"

ये सुनकर अभि जोर जोर से हंसने लगा, अभि को इस तरह हंसता देख संध्या आश्चर्य के भाव में बोली...

संध्या --"क्या हुआ कुछ गलत पूंछ लिया क्या?"

अभि --"नही गलत तो नहीं था, पर सवाल पूरा नही था। आप किस मां की मां की बात कर रही है, जिसने मुझे जन्म दिया है या जिसने मुझे सहारा दिया है।"

अभि की बातें संध्या के दिल की धड़कने धीरे धीर बढ़ाए जा रही थी। उसे बेचैनी सी हो रही थी।

संध्या --"मैं कुछ समझी नहीं, जन्म देने वाली कभी तो मां होती है।"

अभि --"इसी लिए आपको बि ए कि डिग्री के लिए नकल करना पड़ा था। मां का कोई रूप नही होता, मैडम। मां किसी भी रूप में अपने बच्चे पर प्यार लुटाने आ जाति है। जैसे मेरी जिंदगी में आई, खैर छोड़ो वो सब , तुम जन्म देने वाली मां किंबात कर रही थी ना। तो बात ये है की अगर मेरी मां का बस चलता तो बादाम और केसर वाली दूध की जगह जहर वालीं दूध दे देती। थोड़ा समय लगा पर मैं समझ गया था। इस लिए तो मैं अपनी मां को ही छोड़ कर भाग गया था।"

अभि अपनी बात खत्म ही किया था की , संध्या ने जोरदार ब्रेक एक झटके में लगाते हुए गाड़ी रोक दिया। उड़ चुके चेहरे के भाव को लिए संध्या ने पूछा।

संध्या --"अपनी मां को छोड़ कर भाग गए, ये ...ये भी तो हो सकता है की तुम्हे अपनी मां को समझने में भूल हुई हो।"

अभि अपनी मां की बात सुनकर, मन ही मन मुस्कुराया, वो समझ गया था की उसे जो काम करना था वो कर दिया है, बस अब एक और दांव बाकी था, जो अब अभि अचलने वाला था। अभि अब गुस्से में थोड़ा गुर्राते हुए बोला...

अभि --"पहेली बार सुन रहा हूं की, एक बच्चे को भी अपनी मां को समझना पड़ता है, कौन है आप, इतनी भी अकल नही है तुम्हे की मां बेटे का प्यार पहले से ही समझा समझाया होता है।"

कहते हुए जब अभि ने अपनी मां की तरफ देखा तो संध्या के आंखो से आसुओं किंधरा फुट रही थी। ये देख कर अभि मन में खुद से बोला...

"कमाल है, ये रोती भी है।"

संध्या --"अगर तुम्हे , बुरा न लगे तो एक बात पूछूं।"

अभि --"नही, कुछ मत पूछो, तुमने ऑलरेडी ऐसे सवाल पूछ कर हद पार कर दी है। मैं यह पढ़ने आया हूं, और मै नही चाहता की मेरा दिमाग किसी भंवर में फंसे।"

संध्या --"मैं तो बस ये कहें चाहती थी की, अगर तुम्हे हॉस्टल में तकलीफ हो तो , मेरे साथ रह सकते हो।"

संध्या की बात सुनकर अभि बोला...

अभि --"जब साल की उम्र में घर छोड़ा था , तब तकलीफ नहीं हुई तो अब क्या होगी? तकलीफों से लड़ना आता है मुझे, मैं दो रोटी में ही खुश हु, आपकी हवेली के बादाम और केसर के दूध मुझे नही पचेंगे। और वैसे भी तुम्हारा कोई बेटा नहीं है क्या? उसे पिलाओ भर भर के।"

संध्या खुद खुद को संभाल नहीं पाई और कर से रोते हुए बाहर निकल जाति है...

ये देख कर अभि भी गुस्से में अपना बैग उठता है और कर से बाहर निकल कर अपने हॉस्टल की तरफ चल पड़ता है, अभि को बाहर जाते देख, खामोश बैठी मालती की भी आंखो में आसुओं की बारिश हो रही थी, वो बस अभी को जाते हुए देखती रहती है.....

पर अभी एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखता...
बहुत सही तरीके से पहली मुलाकात करवाई भाई। अभि के बातों और तानो के तीर इतने सटीक थे कि संध्या मेडम चारो खाने चित्त हो गयी। भले ही वो कितना भी सुधर गयी हो पर गलत तो थी ही। उसने गलतिया भी हद पार कर रखी थी सो सज़ा तो भुगतनी ही पड़ेगी उसे। वैसे वी संध्या शायद अभी भी थोड़ी बहुत डाउट में हो सकती है वैसे तो उसका दिल 80% यह मान चुका है कि यह अभय है बट रमन के द्वारा पहनाई गयी आंखों पर पट्टी अभी ढीली नही हुई है। हा मालती चाची श्योर हो गयी है कि अभय ज़िंदा है और वापस भी आ गया है। ललिता के इमोशंस आपने बताये नही पर जिस प्रकार से आपने उसका कैरेक्टर बताया है उस हिसाब से उसे सबसे पहले मालूम हो गया होगा कि यह अभय ही है और वो घर जा कर अपने पति और बेटे के कान भरेगी।
 
Top