कभी वो दीदा-ए-दिल वा भी छोड़ जाते हैं।
कभी ख़याल का रस्ता भी छोड़ जाते हैं।।
न जाओ घर के शब-अफ़रोज़ रौज़नों पे कि लोग,
दिया मकान में जलता भी छोड़ जाते हैं।।
कुछ ए'तिबार नहीं हम-रहान-ए-सहरा का,
ये दूर शहर से तन्हा भी छोड़ जाते हैं।।
जो बुल-हवस हैं फिर आते हैं तेरे कूचे में,
जो बे-ग़रज़ हैं वो दुनिया भी छोड़ जाते हैं।।
पलटते भी नहीं सरमस्तियों के सैल और फिर,
निशानियाँ लब-ए-दरिया भी छोड़ जाते हैं।।
अब इस से पेशरवान-ए-चमन को क्या मतलब,
चमन-नशीनों को जैसा भी छोड़ जाते हैं।।
बढ़ा भी लेते हैं रहगीर उन की ख़ाक से प्यार,
फिर अपनी ख़ाक को रुस्वा भी छोड़ जाते हैं।।
________महशर बदायुनी