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इक सफ़र पर उसे भेज कर आ गए।
ये गुमाँ है कि हम जैसे घर आ गए।।
वो गया है तो ख़ुशियाँ भी सारी गईं,
शाख़-ए-दिल पर ख़िज़ाँ के समर आ गए।।
लाख चाहो मगर फिर वो रुकते नहीं,
जिन परिंदों के भी बाल-ओ-पर आ गए।।
हम तो रस्ते पे बैठे हैं ये सोच कर,
जो गए थे अगर लौट कर आ गए।।
उस से मिल के भी कब उस से मिल पाए हम,
बीच में ख़्वाहिशों के शजर आ गए।।
उस ने उस पार अपना बसेरा किया,
हम ने दरिया को छोड़ा इधर आ गए।।
एक दुश्मन से मिलने गए थे मगर,
इक मोहब्बत के ज़ेर-ए-असर आ गए।।
______'साबिर' वसीम
ये गुमाँ है कि हम जैसे घर आ गए।।
वो गया है तो ख़ुशियाँ भी सारी गईं,
शाख़-ए-दिल पर ख़िज़ाँ के समर आ गए।।
लाख चाहो मगर फिर वो रुकते नहीं,
जिन परिंदों के भी बाल-ओ-पर आ गए।।
हम तो रस्ते पे बैठे हैं ये सोच कर,
जो गए थे अगर लौट कर आ गए।।
उस से मिल के भी कब उस से मिल पाए हम,
बीच में ख़्वाहिशों के शजर आ गए।।
उस ने उस पार अपना बसेरा किया,
हम ने दरिया को छोड़ा इधर आ गए।।
एक दुश्मन से मिलने गए थे मगर,
इक मोहब्बत के ज़ेर-ए-असर आ गए।।
______'साबिर' वसीम