lovelesh
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रोमांचक। "अंत" अंत है भी, और नहीं भी। आपने कहानी को एक paradox पर समाप्त किया, ये इसे और रहस्यमई बना गया।तेरहवीं मंज़िल का रहस्य
अजय एक मल्टीनेशनल कंपनी में सीनियर एनालिस्ट था। उसकी जिंदगी एक घड़ी की तरह बिलकुल सटीक और तयशुदा थी। सुबह सात बजे अलार्म बजना, जल्दी से तैयार होकर नाश्ता करना और आठ बजे घर से निकल जाना। ऑफिस पहुँचकर कंप्यूटर खोलना, ईमेल चेक करना और फिर फाइलों के अंबार में डूब जाना। दोपहर का खाना कैंटीन में, शाम को टीम मीटिंग्स और फिर देर रात तक एक्सेल शीट और प्रेजेंटेशन के साथ जूझना। घर पहुँचते-पहुँचते ग्यारह बज जाते और अगले दिन फिर वही सब। अजय की जिंदगी में रोमांच का नामोनिशान नहीं था, बस था तो काम का अथक दबाव। कभी-कभी तो उसे रातें भी ऑफिस में ही बितानी पड़ती थीं।
उस रात भी कुछ ऐसा ही था। एक जरूरी प्रोजेक्ट की डेडलाइन सिर पर थी और अजय अपने केबिन में अकेला बैठा कंप्यूटर स्क्रीन पर आँखें गड़ाए हुए था। ऑफिस लगभग सुनसान हो चुका था, सिर्फ सिक्योरिटी गार्ड की धीमी आवाज़ और सफाई कर्मचारियों के बर्तनों की खड़खड़ सुनाई दे रही थी। जब अजय ने काम खत्म किया तो रात के दस बज रहे थे। थकान उसकी आँखों और दिमाग पर हावी हो रही थी। उसने लैपटॉप बंद किया, फाइलें बैग में डालीं और लिफ्ट की ओर बढ़ने लगा।
लिफ्ट के बटन दबाते वक्त उसकी उंगली थोड़ी लड़खड़ाई और अनजाने में ‘13’ नंबर का बटन दब गया। अजय को तुरंत अपनी गलती का एहसास हुआ। “ये क्या कर दिया मैंने?” उसने खुद से कहा, हालांकि ज़ोर से नहीं। वह जानता था कि इस बिल्डिंग में तेरहवीं मंज़िल है ही नहीं। कंपनी के एचआर से लेकर रिसेप्शनिस्ट तक, सभी ने उसे यही बताया था। फिर यह बटन यहाँ क्यों है? यह सवाल उसके दिमाग में कौंधा, पर थकान इतनी थी कि उसने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया।
लिफ्ट धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ने लगी। अजय को लगा कि शायद लिफ्ट कुछ देर में एरर दिखाएगी और वापस ग्राउंड फ्लोर पर चली जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। लिफ्ट ऊपर चढ़ती रही और फिर अचानक एक झटके के साथ रुक गई। दरवाजे खुले और अजय ने सामने जो देखा, उससे वह भौंचक्का रह गया।
यह मंज़िल बिलकुल वैसी नहीं थी जैसी बाकी ऑफिस की मंज़िलें थीं। रौशनी बहुत कम थी, ट्यूबलाइट्स टिमटिमा रही थीं और हवा में नमी और धूल की मिलीजुली गंध थी। फर्श पर मोटी धूल की परत जमी हुई थी और कोने में जाले लगे थे। दीवारों पर लगे पेंट उखड़े हुए थे और जगह-जगह प्लास्टर झड़ गया था। यहाँ का माहौल बाकी ऑफिस से बिल्कुल अलग, एकदम शांत और डरावना था।
अजय ने चारों ओर देखा। यह किसी पुराने गोदाम या स्टोररूम की तरह लग रहा था। कमरे में पुराने ज़माने के मोटे-मोटे मॉनिटर वाले कंप्यूटर डेस्क पर रखे थे, कीबोर्ड पर पीली धूल जमी हुई थी। फाइलों के बंडल, पुराने रजिस्टर और पीले पड़ चुके दस्तावेज़ इधर-उधर बिखरे पड़े थे। सामान अस्त-व्यस्त तरीके से रखा हुआ था, मानो किसी ने बरसों से यहाँ कदम न रखा हो।
अजय को लगा कि यह कंपनी का कोई पुराना, बंद सेक्शन होगा। शायद कभी यहाँ कुछ और काम होता होगा, जिसे अब बंद कर दिया गया है। लेकिन तभी उसकी नज़र कमरे के दूसरे छोर पर पड़ी। वहाँ एक हल्की सी रौशनी चमक रही थी, बहुत धीमी, लेकिन फिर भी अंधेरे में साफ दिखाई दे रही थी। जैसे कोई वहाँ मौजूद हो।
जिज्ञासा, जो अजय के स्वभाव का एक हिस्सा थी, उसे खींचकर रौशनी की ओर ले गई। वह दबे कदमों से आगे बढ़ा और धीरे-धीरे रौशनी की ओर बढ़ने लगा। रौशनी एक छोटे से कमरे से आ रही थी, जिसका दरवाजा आधा खुला हुआ था। अजय ने दरवाज़ा थोड़ा और खोला और अंदर झाँका।
कमरा छोटा था, लेकिन अपेक्षाकृत साफ था। मेज पर एक पुरानी डेस्क लैंप जल रही थी, जिसकी रौशनी पीली और धुंधली थी। मेज पर कुछ फाइलें खुली पड़ी थीं और एक पुराना टाइपराइटर रखा हुआ था। दीवार पर एक ब्लैकबोर्ड टंगा था जिस पर कुछ अजीबोगरीब समीकरण और डायग्राम बने हुए थे।
अजय कमरे में दाखिल हुआ और फाइलों को देखने लगा। वे सब कंपनी से जुड़े पुराने दस्तावेज़ थे। अकाउंट्स, प्रोजेक्ट रिपोर्ट्स, मेमो... लेकिन कुछ दस्तावेज़ों में उसे कुछ रहस्यमयी नाम और तारीखें नज़र आईं। कुछ नाम जाने-पहचाने लग रहे थे, शायद कंपनी के पुराने कर्मचारी या अधिकारी रहे होंगे। लेकिन वह उन फाइलों को ठीक से पढ़ पाता, इससे पहले ही कुछ हुआ।
अचानक कमरे की बिजली झपक गई। लैंप टिमटिमाई और फिर पूरी तरह से बुझ गई। कमरे में अँधेरा छा गया। अजय चौंक गया। कुछ सेकंड के लिए पूरी तरह से अँधेरा रहा, और फिर जैसे ही उसकी आँखें अँधेरे की आदी हुईं, उसे हल्की सी रौशनी फिर से दिखाई देने लगी। लैंप वापस जल गई थी, लेकिन अब उसकी रौशनी और भी ज़्यादा धुंधली लग रही थी।
अजय को अजीब सी घबराहट होने लगी। उसने एक गहरी सांस ली, फाइलों को वापस मेज पर रखा और जल्दी से कमरे से बाहर निकल आया। वह तेज़ी से लिफ्ट की ओर बढ़ा और ग्राउंड फ्लोर का बटन दबाया। लिफ्ट नीचे आई और दरवाजे खुलने पर उसने राहत की सांस ली। वह तेज़ी से ऑफिस से बाहर निकल गया, उस 13वीं मंज़िल के अजीब और डरावने माहौल को पीछे छोड़कर।
अगली सुबह अजय हमेशा की तरह ऑफिस पहुंचा। गेट पर सिक्योरिटी गार्ड ने उसे रोका और आईडी कार्ड दिखाने को कहा। अजय को थोड़ा अजीब लगा, क्योंकि गार्ड उसे रोज़ देखता था और पहचानता था। लेकिन उसने बिना कुछ कहे आईडी कार्ड निकालकर स्कैनिंग मशीन पर लगाया।
मशीन ने लाल बत्ती दिखाई और स्क्रीन पर लिखा आया - "अमान्य आईडी"।
“क्या? ये क्या हो रहा है?” अजय ने हैरान होकर गार्ड से पूछा।
“सर, शायद आपका कार्ड काम नहीं कर रहा,” गार्ड ने रूखे स्वर में कहा। “रिसेप्शन पर जाकर संपर्क करें।”
अजय रिसेप्शन की ओर बढ़ा। रिसेप्शन पर बैठी राधिका को देखकर वह थोड़ा निश्चिंत हुआ। राधिका उसे जानती थी और हमेशा मुस्कुराकर बात करती थी।
“राधिका, मेरा आईडी कार्ड काम नहीं कर रहा,” अजय ने कहा। “ज़रा देखना क्या गड़बड़ है।”
राधिका ने कंप्यूटर स्क्रीन पर कुछ टाइप किया और फिर अजय की ओर देखा। उसकी आँखों में हैरानी थी। “सर, मुझे माफ़ करना, लेकिन मुझे यहाँ आपके नाम का कोई रिकॉर्ड नहीं मिल रहा।”
अजय को लगा कि राधिका मज़ाक कर रही है। “क्या मज़ाक कर रही हो राधिका? मैं अजय, सीनियर एनालिस्ट। क्या हुआ है तुम लोगों को?”
राधिका ने अपनी कंप्यूटर स्क्रीन अजय को दिखाई। उसमें कर्मचारियों की लिस्ट थी, लेकिन अजय का नाम कहीं नहीं था। “सर, देखिए। इस नाम का कोई कर्मचारी यहाँ नहीं है।”
अजय को अब मज़ाक नहीं लग रहा था। उसे घबराहट होने लगी। वह अपने केबिन की ओर बढ़ा। केबिन नंबर 402, जिस पर उसका नाम प्लेट लगा रहता था। लेकिन जब वह 402 के सामने पहुंचा तो देखा कि दरवाजा बंद है और नेमप्लेट पर किसी और का नाम लिखा हुआ है - “विक्रम वर्मा - सीनियर एनालिस्ट”।
“ये क्या बकवास है? ये कौन विक्रम वर्मा है?” अजय ने गुस्से और उलझन में बड़बड़ाया। उसने दरवाजा खटखटाया। अंदर से एक आदमी निकला, जो उसे बिल्कुल नहीं पहचानता था।
“जी, क्या काम है?” उस आदमी ने पूछा, उसकी आवाज़ में चिढ़ थी।
“ये मेरा केबिन है! मैं अजय हूँ। सीनियर एनालिस्ट,” अजय ने कहा, उसकी आवाज़ में हताशा थी।
“गलतफ़हमी हो रही है आपको। ये मेरा केबिन है। और मैं विक्रम वर्मा हूँ।” विक्रम ने कहा और दरवाजा बंद कर दिया।
अजय को अब डर लगने लगा। क्या हो रहा है ये सब? क्या सब मिलकर उसके साथ कोई मज़ाक कर रहे हैं? लेकिन ये मज़ाक बहुत ही भद्दा था। उसने अपने एक सहकर्मी, रोहन को देखा जो कॉरिडोर से गुज़र रहा था।
“रोहन! अरे रोहन, सुनो तो!” अजय ने आवाज़ लगाई।
रोहन रुका और अजय को देखा, लेकिन उसकी आँखों में पहचान का कोई भाव नहीं था। “क्या है? क्या चाहिए?” रोहन ने बेरुखी से पूछा।
“रोहन, ये मैं हूँ, अजय। क्या तुम मुझे पहचान नहीं रहे?”
रोहन ने अजय को ऊपर से नीचे तक देखा और फिर कंधे उचकाकर बोला, “माफ़ करना, मैं तुम्हें नहीं जानता। मुझे देर हो रही है।” और वह चला गया।
अजय भौंचक्का खड़ा रहा। उसके सहकर्मी उसे पहचान क्यों नहीं रहे? क्या सच में सब मिलकर उसके साथ मज़ाक कर रहे हैं? या फिर… क्या वो पागल हो रहा है?
तभी सिक्योरिटी गार्ड, जिसने उसे गेट पर रोका था, उसके पास आया। “सर, आपको रिसेप्शन पर जाने के लिए कहा गया था। आप यहाँ क्या कर रहे हैं?” गार्ड की आवाज़ सख्त थी।
“लेकिन… लेकिन मैं तो यहीं काम करता हूँ! मैं अजय हूँ!” अजय ने लगभग चिल्लाते हुए कहा।
“मुझे नहीं पता आप कौन हैं। लेकिन अगर आपके पास आईडी कार्ड नहीं है तो आपको यहाँ से जाना होगा। या फिर मुझे सिक्योरिटी बुलानी पड़ेगी।” गार्ड ने धमकी भरे लहजे में कहा।
जब गार्ड उसे जबरन बाहर निकालने लगा तो अजय को एहसास हुआ कि यह कोई मज़ाक नहीं है। कुछ बहुत ही भयानक और अकल्पनीय हो रहा है।
घबराकर अजय ऑफिस से बाहर भागा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। उसने सोचा कि शायद घर जाकर सब ठीक हो जाएगा। वह तेज़ी से अपने अपार्टमेंट की ओर भागा।
जब वह अपनी बिल्डिंग पहुंचा तो गार्ड ने उसे गेट पर ही रोक लिया। “आईडी कार्ड दिखाइए,” गार्ड ने कहा।
“अरे, अंकल, ये क्या बात हुई? आप तो मुझे रोज़ देखते हैं। मैं तो यहीं रहता हूँ, फ़्लैट नंबर 302,” अजय ने कहा।
गार्ड ने उसे शक भरी निगाहों से देखा। “फ़्लैट नंबर 302? वहाँ तो पिछले तीन साल से शर्मा परिवार रहता है। मुझे नहीं पता आप कौन हैं, लेकिन यहाँ फ़ालतू बातें मत बनाइए।”
अजय को झटका लगा। “शर्मा परिवार? नहीं, ये मेरा घर है, मैं यहाँ कब से रह रहा हूँ!”
गार्ड ने उसकी बात अनसुनी कर दी और सिक्योरिटी अलार्म बजाने के लिए हाथ उठाया। अजय समझ गया कि यहाँ रुकना ठीक नहीं है। वह तेज़ी से वहां से भागा।
उसने सोचा कि शायद उसका फोन काम करेगा। उसने जेब से फोन निकाला, लेकिन देखा कि स्क्रीन बिल्कुल काली है। फोन डेड था। उसने चार्जर से लगाकर देखने की कोशिश की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। फोन बिल्कुल बेजान था।
फिर उसे बैंक अकाउंट का ख्याल आया। शायद बैंक जाकर वह अपनी पहचान साबित कर सके। वह पास के एटीएम गया और कार्ड डालने की कोशिश की। मशीन ने कार्ड निगल लिया और स्क्रीन पर मैसेज आया – “अमान्य कार्ड”।
उसने दूसरे एटीएम पर कोशिश की, फिर तीसरे पर… हर बार वही नतीजा। उसका कोई भी बैंक कार्ड काम नहीं कर रहा था। उसे समझ में आ गया कि सिर्फ ऑफिस और घर ही नहीं, बल्कि हर जगह से उसकी पहचान मिटा दी गई है। मानो वह इस दुनिया में कभी था ही नहीं।
अजय सड़क किनारे एक बेंच पर बैठ गया। वह पूरी तरह से टूट चुका था। वह सोचने लगा कि ये सब कैसे हुआ। फिर उसे पिछली रात की बात याद आई – 13वीं मंज़िल। लिफ्ट में गलती से 13वीं मंज़िल का बटन दबना, वह अजीब मंज़िल, पुराने दस्तावेज़… क्या इन सबका कोई संबंध है? क्या 13वीं मंज़िल पर जाने के बाद ही ये सब शुरू हुआ?
अजय को यकीन हो गया था कि यह सब 13वीं मंज़िल पर जाने के बाद हुआ था। लेकिन आखिर उस मंज़िल में ऐसा क्या था जिसने उसकी पूरी पहचान मिटा दी? वह जानता था कि उसे इसका जवाब ढूंढना होगा, और वह जवाब शायद 13वीं मंज़िल में ही छिपा हुआ था।
लेकिन 13वीं मंज़िल पर फिर से जाने से पहले उसे कुछ और जानकारी चाहिए थी। उसे लगा कि कंपनी के पुराने कर्मचारियों से बात करना शायद मददगार हो सकता है। उसने इंटरनेट पर कंपनी के पुराने कर्मचारियों की लिस्ट ढूंढना शुरू किया। काफी खोजबीन के बाद उसे एक नाम मिला - श्रीकांत। श्रीकांत वर्षों पहले रहस्यमय तरीके से नौकरी छोड़ चुका था और उसके बारे में कंपनी में ज़्यादा बात नहीं होती थी।
अजय ने श्रीकांत को ढूंढने की ठानी। सोशल मीडिया और ऑनलाइन डायरेक्टरीज़ में तलाश करने के बाद आखिरकार उसे श्रीकांत का फ़ोन नंबर मिल गया। उसने डरते-डरते फ़ोन लगाया।
कुछ रिंग्स के बाद दूसरी तरफ से एक बूढ़ी सी आवाज़ आई। “हैलो, कौन?”
“जी, मेरा नाम अजय है। मैं… मैं आपकी पुरानी कंपनी से हूँ,” अजय ने हिचकिचाते हुए कहा। “मुझे आपके बारे में पता चला… मुझे आपसे कुछ मदद चाहिए थी।”
श्रीकांत कुछ देर चुप रहे, फिर बोले, “पुरानी कंपनी? क्या बात है? मुझे तो उस नाम से भी अब नफरत है।”
अजय ने उन्हें अपनी कहानी बताई – 13वीं मंज़िल पर जाना, पहचान मिट जाना, सब कुछ अजीब हो जाना। श्रीकांत ने ध्यान से उसकी बात सुनी और फिर गहरी सांस ली।
“तेरहवीं मंज़िल… मुझे पता था कि एक दिन ऐसा कुछ होगा,” श्रीकांत की आवाज़ में चिंता थी। “तुमने बहुत बड़ी गलती कर दी, अजय।”
“क्या मतलब है आपका? वहाँ क्या है? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा,” अजय ने बेचैनी से पूछा।
श्रीकांत ने बताया कि 13वीं मंज़िल पर कंपनी के कुछ सीक्रेट प्रोजेक्ट्स चलते थे। “जब मैं वहां काम करता था, तो सुना था कि वहाँ ‘एक्सपेरिमेंटल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ और ‘मेंटल री-प्रोग्रामिंग’ जैसी तकनीकों पर काम हो रहा है। ये सब बहुत खतरनाक था, अजय। कंपनी कुछ ऐसा बनाने की कोशिश कर रही थी जो इंसान की सोच और पहचान को बदल सके।”
“मेंटल री-प्रोग्रामिंग? क्या मतलब है?” अजय हैरान था।
“हाँ, अजय। वे लोग दिमाग को कंट्रोल करने की तकनीक पर काम कर रहे थे। लेकिन एक हादसा हुआ था। 13वीं मंज़िल पर एक लैब में आग लग गई थी, और कई वैज्ञानिक मारे गए थे। उसके बाद से उस मंज़िल को बंद कर दिया गया था। लेकिन मुझे हमेशा डर था कि वे लोग पूरी तरह से बंद नहीं करेंगे। वे किसी न किसी रूप में काम करते रहेंगे।”
“तो क्या मेरी पहचान उसी 13वीं मंज़िल की वजह से मिट गई? क्या मैं किसी एक्सपेरिमेंट का शिकार बन गया हूँ?” अजय को डर लगने लगा।
“हाँ, अजय। मुझे यही लगता है। तुम अनजाने में उस जगह पर पहुँच गए जहाँ उन्हें नहीं चाहते थे कि कोई जाए। और शायद उन्होंने तुम्हें मिटा दिया, जैसे कि तुम कभी थे ही नहीं।” श्रीकांत ने कहा। “लेकिन मुझे नहीं पता कि तुम इससे बाहर कैसे निकलोगे। यह सब बहुत खतरनाक है। कंपनी बहुत ताकतवर है।”
श्रीकांत ने अजय को कुछ और जानकारी दी और फ़ोन रख दिया। अजय पूरी तरह से सदमे में था। वह समझ गया था कि वह किसी अज्ञात साइंटिफिक प्रयोग का शिकार बन चुका है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल अभी भी वही था - वह इस स्थिति से बाहर कैसे निकले?
अजय के पास और कोई चारा नहीं था। उसे 13वीं मंज़िल पर वापस जाना ही होगा। उसे उम्मीद थी कि वहां उसे कोई सुराग मिलेगा, कोई ऐसा तरीका जिससे वह अपनी पहचान वापस पा सके।
उस रात अजय फिर से ऑफिस बिल्डिंग पहुंचा। आस-पास सन्नाटा छाया हुआ था। सिक्योरिटी गार्ड अंदर नहीं था। शायद रात में कोई गार्ड नहीं होता था। अजय चुपके से अंदर दाखिल हुआ और लिफ्ट की ओर बढ़ा।
लिफ्ट में चढ़कर उसने फिर से 13वीं मंज़िल का बटन दबाया। लिफ्ट ऊपर जाने लगी। इस बार अजय के दिल की धड़कनें तेज़ हो रही थीं। वह जानता था कि वह खतरे में है, लेकिन उसे अपनी पहचान वापस पाने के लिए यह जोखिम लेना ही था।
लिफ्ट 13वीं मंज़िल पर रुकी और दरवाजे खुले। मंज़िल वैसी ही थी – अँधेरी, धूल भरी और डरावनी। अजय धीरे-धीरे अंदर गया और उस छोटे कमरे की ओर बढ़ा जहाँ उसे पिछली बार रौशनी दिखी थी।
कमरे में पहुँचकर उसने डेस्क लैंप जलाई। इस बार उसने फाइलों को ध्यान से देखना शुरू किया। उसे कुछ रिकॉर्डिंग्स और डिजिटल फाइलें मिलीं। जब उसने उन्हें खोला तो वह हैरान रह गया। उन फाइलों में उसकी खुद की पहचान दर्ज थी – उसका नाम, पता, ऑफिस आईडी, बैंक अकाउंट डिटेल्स, सब कुछ। मानो कंपनी ने उसके पूरे अस्तित्व को मिटाने की योजना पहले ही बना ली थी और वह 13वीं मंज़िल पर गलती से पहुँच गया तो उन्होंने उस योजना को अमल में ला दिया।
लेकिन इससे पहले कि वह कुछ और पता कर पाता, उसे महसूस हुआ कि कोई उसे देख रहा है। कमरे के दरवाजे पर परछाईं पड़ी। कोई बाहर खड़ा था। कंपनी उसे रोकने के लिए तैयार थी।
अजय ने घबराकर कंप्यूटर पर कुछ और फाइलें खंगाली। उसे एक फाइल मिली जिसका नाम था - “सर्वर रीसेट प्रोटोकॉल”। उसे समझ में आ गया कि यही वह तरीका हो सकता है जिससे वह अपनी पहचान वापस पा सके। उसने फाइल खोली और निर्देशों को जल्दी-जल्दी पढ़ना शुरू किया।
दरवाजा खुलने की आवाज़ आई। कंपनी के लोग अंदर आ रहे थे। अजय के पास समय नहीं था। उसने तेज़ी से सर्वर रीसेट प्रोटोकॉल को एक्टिवेट करने के लिए कीबोर्ड पर कुछ बटन दबाए। उसे नहीं पता था कि क्या होगा, लेकिन उसके पास और कोई रास्ता नहीं था।
अगले ही क्षण सब कुछ धुंधला हो गया। उसे चक्कर आने लगा। और फिर… वह फिर से लिफ्ट में था। लिफ्ट नीचे जा रही थी। जब दरवाजे खुले तो वह ग्राउंड फ्लोर पर खड़ा था।
उसने ऑफिस के रिसेप्शन की ओर देखा। रिसेप्शनिस्ट राधिका मुस्कुरा रही थी। “गुड मॉर्निंग अजय!” उसने कहा।
अजय ने अपना आईडी कार्ड निकाला और स्कैनिंग मशीन पर लगाया। हरी बत्ती जली और स्क्रीन पर लिखा आया – “अजय कुमार - सीनियर एनालिस्ट - मान्य”।
उसने अपने केबिन की ओर रुख किया। केबिन नंबर 402 पर उसका नाम प्लेट लगा हुआ था – “अजय कुमार - सीनियर एनालिस्ट”। अंदर विक्रम वर्मा नहीं, बल्कि उसका अपना केबिन था, वैसा ही जैसा हमेशा होता था। उसके सहकर्मी उसे पहचान रहे थे, उससे बात कर रहे थे। उसका फोन भी ठीक से काम कर रहा था, बैंक अकाउंट्स भी चालू थे, और जब वह घर पहुंचा तो उसका फ़्लैट भी उसी का था।
सबकुछ सामान्य हो गया था। मानो कुछ हुआ ही नहीं था। लेकिन अजय के मन में एक सवाल हमेशा के लिए रह गया। क्या वह सच में अपनी असली दुनिया में वापस आया था? या यह भी 13वीं मंज़िल का ही एक नया भ्रम था? क्या कंपनी ने उसे वापस उसकी पुरानी दुनिया में भेज दिया था, या यह सब कुछ एक और एक्सपेरिमेंट का हिस्सा था? वह नहीं जानता था। और शायद कभी नहीं जान पाएगा। लेकिन 13वीं मंज़िल का रहस्य हमेशा उसके ज़हन में एक डरावने सपने की तरह मौजूद रहेगा।
आपसे और भी ऐसी रोमांचक और रहस्यमई कहानियों की उम्मीद रहेगी।
All the best, keep it up.