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★☆★ Xforum | Ultimate Story Contest 2025 ~ Reviews Thread ★☆★

lovelesh

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तेरहवीं मंज़िल का रहस्य



अजय एक मल्टीनेशनल कंपनी में सीनियर एनालिस्ट था। उसकी जिंदगी एक घड़ी की तरह बिलकुल सटीक और तयशुदा थी। सुबह सात बजे अलार्म बजना, जल्दी से तैयार होकर नाश्ता करना और आठ बजे घर से निकल जाना। ऑफिस पहुँचकर कंप्यूटर खोलना, ईमेल चेक करना और फिर फाइलों के अंबार में डूब जाना। दोपहर का खाना कैंटीन में, शाम को टीम मीटिंग्स और फिर देर रात तक एक्सेल शीट और प्रेजेंटेशन के साथ जूझना। घर पहुँचते-पहुँचते ग्यारह बज जाते और अगले दिन फिर वही सब। अजय की जिंदगी में रोमांच का नामोनिशान नहीं था, बस था तो काम का अथक दबाव। कभी-कभी तो उसे रातें भी ऑफिस में ही बितानी पड़ती थीं।

उस रात भी कुछ ऐसा ही था। एक जरूरी प्रोजेक्ट की डेडलाइन सिर पर थी और अजय अपने केबिन में अकेला बैठा कंप्यूटर स्क्रीन पर आँखें गड़ाए हुए था। ऑफिस लगभग सुनसान हो चुका था, सिर्फ सिक्योरिटी गार्ड की धीमी आवाज़ और सफाई कर्मचारियों के बर्तनों की खड़खड़ सुनाई दे रही थी। जब अजय ने काम खत्म किया तो रात के दस बज रहे थे। थकान उसकी आँखों और दिमाग पर हावी हो रही थी। उसने लैपटॉप बंद किया, फाइलें बैग में डालीं और लिफ्ट की ओर बढ़ने लगा।

लिफ्ट के बटन दबाते वक्त उसकी उंगली थोड़ी लड़खड़ाई और अनजाने में ‘13’ नंबर का बटन दब गया। अजय को तुरंत अपनी गलती का एहसास हुआ। “ये क्या कर दिया मैंने?” उसने खुद से कहा, हालांकि ज़ोर से नहीं। वह जानता था कि इस बिल्डिंग में तेरहवीं मंज़िल है ही नहीं। कंपनी के एचआर से लेकर रिसेप्शनिस्ट तक, सभी ने उसे यही बताया था। फिर यह बटन यहाँ क्यों है? यह सवाल उसके दिमाग में कौंधा, पर थकान इतनी थी कि उसने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया।

लिफ्ट धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ने लगी। अजय को लगा कि शायद लिफ्ट कुछ देर में एरर दिखाएगी और वापस ग्राउंड फ्लोर पर चली जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। लिफ्ट ऊपर चढ़ती रही और फिर अचानक एक झटके के साथ रुक गई। दरवाजे खुले और अजय ने सामने जो देखा, उससे वह भौंचक्का रह गया।



यह मंज़िल बिलकुल वैसी नहीं थी जैसी बाकी ऑफिस की मंज़िलें थीं। रौशनी बहुत कम थी, ट्यूबलाइट्स टिमटिमा रही थीं और हवा में नमी और धूल की मिलीजुली गंध थी। फर्श पर मोटी धूल की परत जमी हुई थी और कोने में जाले लगे थे। दीवारों पर लगे पेंट उखड़े हुए थे और जगह-जगह प्लास्टर झड़ गया था। यहाँ का माहौल बाकी ऑफिस से बिल्कुल अलग, एकदम शांत और डरावना था।

अजय ने चारों ओर देखा। यह किसी पुराने गोदाम या स्टोररूम की तरह लग रहा था। कमरे में पुराने ज़माने के मोटे-मोटे मॉनिटर वाले कंप्यूटर डेस्क पर रखे थे, कीबोर्ड पर पीली धूल जमी हुई थी। फाइलों के बंडल, पुराने रजिस्टर और पीले पड़ चुके दस्तावेज़ इधर-उधर बिखरे पड़े थे। सामान अस्त-व्यस्त तरीके से रखा हुआ था, मानो किसी ने बरसों से यहाँ कदम न रखा हो।

अजय को लगा कि यह कंपनी का कोई पुराना, बंद सेक्शन होगा। शायद कभी यहाँ कुछ और काम होता होगा, जिसे अब बंद कर दिया गया है। लेकिन तभी उसकी नज़र कमरे के दूसरे छोर पर पड़ी। वहाँ एक हल्की सी रौशनी चमक रही थी, बहुत धीमी, लेकिन फिर भी अंधेरे में साफ दिखाई दे रही थी। जैसे कोई वहाँ मौजूद हो।

जिज्ञासा, जो अजय के स्वभाव का एक हिस्सा थी, उसे खींचकर रौशनी की ओर ले गई। वह दबे कदमों से आगे बढ़ा और धीरे-धीरे रौशनी की ओर बढ़ने लगा। रौशनी एक छोटे से कमरे से आ रही थी, जिसका दरवाजा आधा खुला हुआ था। अजय ने दरवाज़ा थोड़ा और खोला और अंदर झाँका।

कमरा छोटा था, लेकिन अपेक्षाकृत साफ था। मेज पर एक पुरानी डेस्क लैंप जल रही थी, जिसकी रौशनी पीली और धुंधली थी। मेज पर कुछ फाइलें खुली पड़ी थीं और एक पुराना टाइपराइटर रखा हुआ था। दीवार पर एक ब्लैकबोर्ड टंगा था जिस पर कुछ अजीबोगरीब समीकरण और डायग्राम बने हुए थे।

अजय कमरे में दाखिल हुआ और फाइलों को देखने लगा। वे सब कंपनी से जुड़े पुराने दस्तावेज़ थे। अकाउंट्स, प्रोजेक्ट रिपोर्ट्स, मेमो... लेकिन कुछ दस्तावेज़ों में उसे कुछ रहस्यमयी नाम और तारीखें नज़र आईं। कुछ नाम जाने-पहचाने लग रहे थे, शायद कंपनी के पुराने कर्मचारी या अधिकारी रहे होंगे। लेकिन वह उन फाइलों को ठीक से पढ़ पाता, इससे पहले ही कुछ हुआ।

अचानक कमरे की बिजली झपक गई। लैंप टिमटिमाई और फिर पूरी तरह से बुझ गई। कमरे में अँधेरा छा गया। अजय चौंक गया। कुछ सेकंड के लिए पूरी तरह से अँधेरा रहा, और फिर जैसे ही उसकी आँखें अँधेरे की आदी हुईं, उसे हल्की सी रौशनी फिर से दिखाई देने लगी। लैंप वापस जल गई थी, लेकिन अब उसकी रौशनी और भी ज़्यादा धुंधली लग रही थी।

अजय को अजीब सी घबराहट होने लगी। उसने एक गहरी सांस ली, फाइलों को वापस मेज पर रखा और जल्दी से कमरे से बाहर निकल आया। वह तेज़ी से लिफ्ट की ओर बढ़ा और ग्राउंड फ्लोर का बटन दबाया। लिफ्ट नीचे आई और दरवाजे खुलने पर उसने राहत की सांस ली। वह तेज़ी से ऑफिस से बाहर निकल गया, उस 13वीं मंज़िल के अजीब और डरावने माहौल को पीछे छोड़कर।



अगली सुबह अजय हमेशा की तरह ऑफिस पहुंचा। गेट पर सिक्योरिटी गार्ड ने उसे रोका और आईडी कार्ड दिखाने को कहा। अजय को थोड़ा अजीब लगा, क्योंकि गार्ड उसे रोज़ देखता था और पहचानता था। लेकिन उसने बिना कुछ कहे आईडी कार्ड निकालकर स्कैनिंग मशीन पर लगाया।

मशीन ने लाल बत्ती दिखाई और स्क्रीन पर लिखा आया - "अमान्य आईडी"।

“क्या? ये क्या हो रहा है?” अजय ने हैरान होकर गार्ड से पूछा।

“सर, शायद आपका कार्ड काम नहीं कर रहा,” गार्ड ने रूखे स्वर में कहा। “रिसेप्शन पर जाकर संपर्क करें।”

अजय रिसेप्शन की ओर बढ़ा। रिसेप्शन पर बैठी राधिका को देखकर वह थोड़ा निश्चिंत हुआ। राधिका उसे जानती थी और हमेशा मुस्कुराकर बात करती थी।

“राधिका, मेरा आईडी कार्ड काम नहीं कर रहा,” अजय ने कहा। “ज़रा देखना क्या गड़बड़ है।”

राधिका ने कंप्यूटर स्क्रीन पर कुछ टाइप किया और फिर अजय की ओर देखा। उसकी आँखों में हैरानी थी। “सर, मुझे माफ़ करना, लेकिन मुझे यहाँ आपके नाम का कोई रिकॉर्ड नहीं मिल रहा।”

अजय को लगा कि राधिका मज़ाक कर रही है। “क्या मज़ाक कर रही हो राधिका? मैं अजय, सीनियर एनालिस्ट। क्या हुआ है तुम लोगों को?”

राधिका ने अपनी कंप्यूटर स्क्रीन अजय को दिखाई। उसमें कर्मचारियों की लिस्ट थी, लेकिन अजय का नाम कहीं नहीं था। “सर, देखिए। इस नाम का कोई कर्मचारी यहाँ नहीं है।”

अजय को अब मज़ाक नहीं लग रहा था। उसे घबराहट होने लगी। वह अपने केबिन की ओर बढ़ा। केबिन नंबर 402, जिस पर उसका नाम प्लेट लगा रहता था। लेकिन जब वह 402 के सामने पहुंचा तो देखा कि दरवाजा बंद है और नेमप्लेट पर किसी और का नाम लिखा हुआ है - “विक्रम वर्मा - सीनियर एनालिस्ट”।

“ये क्या बकवास है? ये कौन विक्रम वर्मा है?” अजय ने गुस्से और उलझन में बड़बड़ाया। उसने दरवाजा खटखटाया। अंदर से एक आदमी निकला, जो उसे बिल्कुल नहीं पहचानता था।

“जी, क्या काम है?” उस आदमी ने पूछा, उसकी आवाज़ में चिढ़ थी।

“ये मेरा केबिन है! मैं अजय हूँ। सीनियर एनालिस्ट,” अजय ने कहा, उसकी आवाज़ में हताशा थी।

“गलतफ़हमी हो रही है आपको। ये मेरा केबिन है। और मैं विक्रम वर्मा हूँ।” विक्रम ने कहा और दरवाजा बंद कर दिया।

अजय को अब डर लगने लगा। क्या हो रहा है ये सब? क्या सब मिलकर उसके साथ कोई मज़ाक कर रहे हैं? लेकिन ये मज़ाक बहुत ही भद्दा था। उसने अपने एक सहकर्मी, रोहन को देखा जो कॉरिडोर से गुज़र रहा था।

“रोहन! अरे रोहन, सुनो तो!” अजय ने आवाज़ लगाई।

रोहन रुका और अजय को देखा, लेकिन उसकी आँखों में पहचान का कोई भाव नहीं था। “क्या है? क्या चाहिए?” रोहन ने बेरुखी से पूछा।

“रोहन, ये मैं हूँ, अजय। क्या तुम मुझे पहचान नहीं रहे?”

रोहन ने अजय को ऊपर से नीचे तक देखा और फिर कंधे उचकाकर बोला, “माफ़ करना, मैं तुम्हें नहीं जानता। मुझे देर हो रही है।” और वह चला गया।

अजय भौंचक्का खड़ा रहा। उसके सहकर्मी उसे पहचान क्यों नहीं रहे? क्या सच में सब मिलकर उसके साथ मज़ाक कर रहे हैं? या फिर… क्या वो पागल हो रहा है?

तभी सिक्योरिटी गार्ड, जिसने उसे गेट पर रोका था, उसके पास आया। “सर, आपको रिसेप्शन पर जाने के लिए कहा गया था। आप यहाँ क्या कर रहे हैं?” गार्ड की आवाज़ सख्त थी।

“लेकिन… लेकिन मैं तो यहीं काम करता हूँ! मैं अजय हूँ!” अजय ने लगभग चिल्लाते हुए कहा।

“मुझे नहीं पता आप कौन हैं। लेकिन अगर आपके पास आईडी कार्ड नहीं है तो आपको यहाँ से जाना होगा। या फिर मुझे सिक्योरिटी बुलानी पड़ेगी।” गार्ड ने धमकी भरे लहजे में कहा।

जब गार्ड उसे जबरन बाहर निकालने लगा तो अजय को एहसास हुआ कि यह कोई मज़ाक नहीं है। कुछ बहुत ही भयानक और अकल्पनीय हो रहा है।



घबराकर अजय ऑफिस से बाहर भागा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। उसने सोचा कि शायद घर जाकर सब ठीक हो जाएगा। वह तेज़ी से अपने अपार्टमेंट की ओर भागा।

जब वह अपनी बिल्डिंग पहुंचा तो गार्ड ने उसे गेट पर ही रोक लिया। “आईडी कार्ड दिखाइए,” गार्ड ने कहा।

“अरे, अंकल, ये क्या बात हुई? आप तो मुझे रोज़ देखते हैं। मैं तो यहीं रहता हूँ, फ़्लैट नंबर 302,” अजय ने कहा।

गार्ड ने उसे शक भरी निगाहों से देखा। “फ़्लैट नंबर 302? वहाँ तो पिछले तीन साल से शर्मा परिवार रहता है। मुझे नहीं पता आप कौन हैं, लेकिन यहाँ फ़ालतू बातें मत बनाइए।”

अजय को झटका लगा। “शर्मा परिवार? नहीं, ये मेरा घर है, मैं यहाँ कब से रह रहा हूँ!”

गार्ड ने उसकी बात अनसुनी कर दी और सिक्योरिटी अलार्म बजाने के लिए हाथ उठाया। अजय समझ गया कि यहाँ रुकना ठीक नहीं है। वह तेज़ी से वहां से भागा।

उसने सोचा कि शायद उसका फोन काम करेगा। उसने जेब से फोन निकाला, लेकिन देखा कि स्क्रीन बिल्कुल काली है। फोन डेड था। उसने चार्जर से लगाकर देखने की कोशिश की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। फोन बिल्कुल बेजान था।

फिर उसे बैंक अकाउंट का ख्याल आया। शायद बैंक जाकर वह अपनी पहचान साबित कर सके। वह पास के एटीएम गया और कार्ड डालने की कोशिश की। मशीन ने कार्ड निगल लिया और स्क्रीन पर मैसेज आया – “अमान्य कार्ड”।

उसने दूसरे एटीएम पर कोशिश की, फिर तीसरे पर… हर बार वही नतीजा। उसका कोई भी बैंक कार्ड काम नहीं कर रहा था। उसे समझ में आ गया कि सिर्फ ऑफिस और घर ही नहीं, बल्कि हर जगह से उसकी पहचान मिटा दी गई है। मानो वह इस दुनिया में कभी था ही नहीं।

अजय सड़क किनारे एक बेंच पर बैठ गया। वह पूरी तरह से टूट चुका था। वह सोचने लगा कि ये सब कैसे हुआ। फिर उसे पिछली रात की बात याद आई – 13वीं मंज़िल। लिफ्ट में गलती से 13वीं मंज़िल का बटन दबना, वह अजीब मंज़िल, पुराने दस्तावेज़… क्या इन सबका कोई संबंध है? क्या 13वीं मंज़िल पर जाने के बाद ही ये सब शुरू हुआ?



अजय को यकीन हो गया था कि यह सब 13वीं मंज़िल पर जाने के बाद हुआ था। लेकिन आखिर उस मंज़िल में ऐसा क्या था जिसने उसकी पूरी पहचान मिटा दी? वह जानता था कि उसे इसका जवाब ढूंढना होगा, और वह जवाब शायद 13वीं मंज़िल में ही छिपा हुआ था।

लेकिन 13वीं मंज़िल पर फिर से जाने से पहले उसे कुछ और जानकारी चाहिए थी। उसे लगा कि कंपनी के पुराने कर्मचारियों से बात करना शायद मददगार हो सकता है। उसने इंटरनेट पर कंपनी के पुराने कर्मचारियों की लिस्ट ढूंढना शुरू किया। काफी खोजबीन के बाद उसे एक नाम मिला - श्रीकांत। श्रीकांत वर्षों पहले रहस्यमय तरीके से नौकरी छोड़ चुका था और उसके बारे में कंपनी में ज़्यादा बात नहीं होती थी।

अजय ने श्रीकांत को ढूंढने की ठानी। सोशल मीडिया और ऑनलाइन डायरेक्टरीज़ में तलाश करने के बाद आखिरकार उसे श्रीकांत का फ़ोन नंबर मिल गया। उसने डरते-डरते फ़ोन लगाया।

कुछ रिंग्स के बाद दूसरी तरफ से एक बूढ़ी सी आवाज़ आई। “हैलो, कौन?”

“जी, मेरा नाम अजय है। मैं… मैं आपकी पुरानी कंपनी से हूँ,” अजय ने हिचकिचाते हुए कहा। “मुझे आपके बारे में पता चला… मुझे आपसे कुछ मदद चाहिए थी।”

श्रीकांत कुछ देर चुप रहे, फिर बोले, “पुरानी कंपनी? क्या बात है? मुझे तो उस नाम से भी अब नफरत है।”

अजय ने उन्हें अपनी कहानी बताई – 13वीं मंज़िल पर जाना, पहचान मिट जाना, सब कुछ अजीब हो जाना। श्रीकांत ने ध्यान से उसकी बात सुनी और फिर गहरी सांस ली।

“तेरहवीं मंज़िल… मुझे पता था कि एक दिन ऐसा कुछ होगा,” श्रीकांत की आवाज़ में चिंता थी। “तुमने बहुत बड़ी गलती कर दी, अजय।”

“क्या मतलब है आपका? वहाँ क्या है? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा,” अजय ने बेचैनी से पूछा।

श्रीकांत ने बताया कि 13वीं मंज़िल पर कंपनी के कुछ सीक्रेट प्रोजेक्ट्स चलते थे। “जब मैं वहां काम करता था, तो सुना था कि वहाँ ‘एक्सपेरिमेंटल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ और ‘मेंटल री-प्रोग्रामिंग’ जैसी तकनीकों पर काम हो रहा है। ये सब बहुत खतरनाक था, अजय। कंपनी कुछ ऐसा बनाने की कोशिश कर रही थी जो इंसान की सोच और पहचान को बदल सके।”

“मेंटल री-प्रोग्रामिंग? क्या मतलब है?” अजय हैरान था।

“हाँ, अजय। वे लोग दिमाग को कंट्रोल करने की तकनीक पर काम कर रहे थे। लेकिन एक हादसा हुआ था। 13वीं मंज़िल पर एक लैब में आग लग गई थी, और कई वैज्ञानिक मारे गए थे। उसके बाद से उस मंज़िल को बंद कर दिया गया था। लेकिन मुझे हमेशा डर था कि वे लोग पूरी तरह से बंद नहीं करेंगे। वे किसी न किसी रूप में काम करते रहेंगे।”

“तो क्या मेरी पहचान उसी 13वीं मंज़िल की वजह से मिट गई? क्या मैं किसी एक्सपेरिमेंट का शिकार बन गया हूँ?” अजय को डर लगने लगा।

“हाँ, अजय। मुझे यही लगता है। तुम अनजाने में उस जगह पर पहुँच गए जहाँ उन्हें नहीं चाहते थे कि कोई जाए। और शायद उन्होंने तुम्हें मिटा दिया, जैसे कि तुम कभी थे ही नहीं।” श्रीकांत ने कहा। “लेकिन मुझे नहीं पता कि तुम इससे बाहर कैसे निकलोगे। यह सब बहुत खतरनाक है। कंपनी बहुत ताकतवर है।”

श्रीकांत ने अजय को कुछ और जानकारी दी और फ़ोन रख दिया। अजय पूरी तरह से सदमे में था। वह समझ गया था कि वह किसी अज्ञात साइंटिफिक प्रयोग का शिकार बन चुका है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल अभी भी वही था - वह इस स्थिति से बाहर कैसे निकले?



अजय के पास और कोई चारा नहीं था। उसे 13वीं मंज़िल पर वापस जाना ही होगा। उसे उम्मीद थी कि वहां उसे कोई सुराग मिलेगा, कोई ऐसा तरीका जिससे वह अपनी पहचान वापस पा सके।

उस रात अजय फिर से ऑफिस बिल्डिंग पहुंचा। आस-पास सन्नाटा छाया हुआ था। सिक्योरिटी गार्ड अंदर नहीं था। शायद रात में कोई गार्ड नहीं होता था। अजय चुपके से अंदर दाखिल हुआ और लिफ्ट की ओर बढ़ा।

लिफ्ट में चढ़कर उसने फिर से 13वीं मंज़िल का बटन दबाया। लिफ्ट ऊपर जाने लगी। इस बार अजय के दिल की धड़कनें तेज़ हो रही थीं। वह जानता था कि वह खतरे में है, लेकिन उसे अपनी पहचान वापस पाने के लिए यह जोखिम लेना ही था।

लिफ्ट 13वीं मंज़िल पर रुकी और दरवाजे खुले। मंज़िल वैसी ही थी – अँधेरी, धूल भरी और डरावनी। अजय धीरे-धीरे अंदर गया और उस छोटे कमरे की ओर बढ़ा जहाँ उसे पिछली बार रौशनी दिखी थी।

कमरे में पहुँचकर उसने डेस्क लैंप जलाई। इस बार उसने फाइलों को ध्यान से देखना शुरू किया। उसे कुछ रिकॉर्डिंग्स और डिजिटल फाइलें मिलीं। जब उसने उन्हें खोला तो वह हैरान रह गया। उन फाइलों में उसकी खुद की पहचान दर्ज थी – उसका नाम, पता, ऑफिस आईडी, बैंक अकाउंट डिटेल्स, सब कुछ। मानो कंपनी ने उसके पूरे अस्तित्व को मिटाने की योजना पहले ही बना ली थी और वह 13वीं मंज़िल पर गलती से पहुँच गया तो उन्होंने उस योजना को अमल में ला दिया।

लेकिन इससे पहले कि वह कुछ और पता कर पाता, उसे महसूस हुआ कि कोई उसे देख रहा है। कमरे के दरवाजे पर परछाईं पड़ी। कोई बाहर खड़ा था। कंपनी उसे रोकने के लिए तैयार थी।

अजय ने घबराकर कंप्यूटर पर कुछ और फाइलें खंगाली। उसे एक फाइल मिली जिसका नाम था - “सर्वर रीसेट प्रोटोकॉल”। उसे समझ में आ गया कि यही वह तरीका हो सकता है जिससे वह अपनी पहचान वापस पा सके। उसने फाइल खोली और निर्देशों को जल्दी-जल्दी पढ़ना शुरू किया।

दरवाजा खुलने की आवाज़ आई। कंपनी के लोग अंदर आ रहे थे। अजय के पास समय नहीं था। उसने तेज़ी से सर्वर रीसेट प्रोटोकॉल को एक्टिवेट करने के लिए कीबोर्ड पर कुछ बटन दबाए। उसे नहीं पता था कि क्या होगा, लेकिन उसके पास और कोई रास्ता नहीं था।

अगले ही क्षण सब कुछ धुंधला हो गया। उसे चक्कर आने लगा। और फिर… वह फिर से लिफ्ट में था। लिफ्ट नीचे जा रही थी। जब दरवाजे खुले तो वह ग्राउंड फ्लोर पर खड़ा था।

उसने ऑफिस के रिसेप्शन की ओर देखा। रिसेप्शनिस्ट राधिका मुस्कुरा रही थी। “गुड मॉर्निंग अजय!” उसने कहा।

अजय ने अपना आईडी कार्ड निकाला और स्कैनिंग मशीन पर लगाया। हरी बत्ती जली और स्क्रीन पर लिखा आया – “अजय कुमार - सीनियर एनालिस्ट - मान्य”।

उसने अपने केबिन की ओर रुख किया। केबिन नंबर 402 पर उसका नाम प्लेट लगा हुआ था – “अजय कुमार - सीनियर एनालिस्ट”। अंदर विक्रम वर्मा नहीं, बल्कि उसका अपना केबिन था, वैसा ही जैसा हमेशा होता था। उसके सहकर्मी उसे पहचान रहे थे, उससे बात कर रहे थे। उसका फोन भी ठीक से काम कर रहा था, बैंक अकाउंट्स भी चालू थे, और जब वह घर पहुंचा तो उसका फ़्लैट भी उसी का था।

सबकुछ सामान्य हो गया था। मानो कुछ हुआ ही नहीं था। लेकिन अजय के मन में एक सवाल हमेशा के लिए रह गया। क्या वह सच में अपनी असली दुनिया में वापस आया था? या यह भी 13वीं मंज़िल का ही एक नया भ्रम था? क्या कंपनी ने उसे वापस उसकी पुरानी दुनिया में भेज दिया था, या यह सब कुछ एक और एक्सपेरिमेंट का हिस्सा था? वह नहीं जानता था। और शायद कभी नहीं जान पाएगा। लेकिन 13वीं मंज़िल का रहस्य हमेशा उसके ज़हन में एक डरावने सपने की तरह मौजूद रहेगा।
रोमांचक। "अंत" अंत है भी, और नहीं भी। आपने कहानी को एक paradox पर समाप्त किया, ये इसे और रहस्यमई बना गया।
आपसे और भी ऐसी रोमांचक और रहस्यमई कहानियों की उम्मीद रहेगी।
All the best, keep it up.
 

Anatole

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बंदिश

"बाहर बारिश रुकने का नाम ही नहीं ले रही है, वर्षा... कुछ देर और ठहर जाओ ना! इतनी तेज़ बारिश में जाना सही नहीं होगा," उसने खिड़की के बाहर झाँकते हुए कहा, जैसे मौसम की बेरुख़ी को समझने की कोशिश कर रहा हो...

"ये कब थमेगी, इसका कोई भरोसा नहीं... और मैं अब और इंतज़ार नहीं कर सकती, इसलिए रुकने का भी कोई फायदा नहीं, मैं निकलती हूँ!" उसका लहजा उतना ही ठंडा था, जितनी खिड़की के शीशे पर फिसलती पानी की बूँदें, जो तेज़ हवाओं से टकराकर बिखर रही थीं...

"कितनी बेरुख़ी से बात कर रही हो, वर्षा... कम से कम खुद की परवाह तो करो! स्कूटी पर जाओगी तो पूरी तरह भीग जाओगी, और हवा भी बहुत तेज़ है! मुझे बस तुम्हारी फिक्र हो रही है यार..." उसकी आवाज़ में छिपी चिंता साफ़ झलक रही थी...

"हम्म... ये बेरुख़ी यूँ ही नहीं आई है मुझमें, अमित!" उसने हल्की आवाज़ में कहा, और उसकी आँखों में अजीब सा खालीपन तैर आया...

"पहले तो ऐसी नहीं थी तुम, वर्षा... इस हरियाली की तरह चहकती थी, ज़िंदगी से भरी हुई! जब तुम बोलती थी, तो ऐसा लगता था मानो सावन की पहली फुहार गिर रही हो, और जब मुस्कुराती थी, तो जैसे बसंत की रंगीनियां खिल उठती थीं!" उसने खिड़की से सिर टिकाकर कहा, जैसे बीते दिनों की धूप और छाँव को फिर से महसूस कर रहा हो

"तुम और तुम्हारी ये काव्यात्मक बाते... तुम अब भी नहीं बदले न, अमित! आज भी वैसे ही हो, बिल्कुल पहले जैसे" वर्षा ने हल्का सा सिर झटक दिया, मानो अमित की बातों का उस पर कोई असर ही न हुआ हो... उसकी आवाज़ में एक अनकहा तंज़ था, मगर आँखों में वही पुरानी थकान झलक रही थी...

"मैं कोई कविता नहीं कह रहा, वर्षा... ये तो बस सच्चाई है!" अमित ने वर्षा को गहरी नज़रों से देखा.. "इन सालों में तुमने खुद को कभी आईने में देखा है? तुम पहले जैसी नहीं रहीं... सूख चुकी हो, जैसे कोई बबूल का पेड़ हो, रूखी, नुकीली, जिसमें बस चुभन बची हो!" अमित की आवाज़ में दर्द था, मगर कहीं न कहीं नाराज़गी भी थी

वर्षा एक पल के लिए ठिठक गई, अमित की बातों ने जैसे उसके भीतर कहीं चोट कर दी थी, मगर अगले ही क्षण उसने खुद को संभाल लिया और रूखी आवाज़ में बोली,
"कभी-कभी ये नुकीलापन आ ही जाता है... जब ज़िंदगी चुभने लगे, तो इंसान भी काँटों सा हो जाता है!" वर्षा की आँखें अब सीधे अमित की आँखों से टकरा रही थीं, जैसे उनमे कोई जवाब तलाश रही हों..

"पर इसका मतलब ये तो नहीं कि हमेशा यूँ ही बेरुख़ी से जिया जाए" अमित ने हल्की साँस भरी और वर्षा की तरफ़ देखते हुए कहा "तुम बहुत प्यारी थी यार... बेहद स्वीट! और मैं जानता हूँ, कहीं न कहीं वो मिठास अब भी बाकी है!"

"अब वो मिठास नहीं रही, अमित, चाहे तुम कितना भी कह लो, वो पुरानी वर्षा... वो सावन की फुहार... वो बसंत की खिलखिलाहट... अब कभी लौटकर नहीं आएगी!" वर्षा ने एक लंबी सास ली और वही सोफे पर बैठ गई, जैसे बीते दिनों की थकान उसके जिस्म के हर हिस्से में समा गई हो, उसने अपनी आँखें बंद कर लीं थी मानो किसी अनदेखे दर्द से खुद को बचाने की नाकाम कोशिश कर रही हो...

"क्यों? क्यों नहीं लौट सकती?" अमित की आवाज़ में एक बेचैनी थी "अगर चाहो, तो सब कुछ वापस लाया जा सकता है... लेकिन मुझे लगता है, तुम खुद ही इस खोल से बाहर नहीं आना चाहती! कहीं न कहीं, तुमने इस तन्हाई को ही अपनी दुनिया बना लिया है!" अमित ने खिड़की से हाथ बाहर निकालकर बारिश की बूँदों को अपनी हथेली पर महसूस करते हुए कहा...

"शायद... हो सकता है ऐसा ही हो!" वो हल्की आवाज़ में बोली, लेकिन उसकी आँखों में कोई उम्मीद नहीं थी, फिर अचानक, जैसे किसी सोच ने उसे झकझोर दिया हो, वह उठकर खड़ी हो गई "लेकिन बताओ तो सही, अगर मैं ये खोल तोड़ भी दूँ, तो फिर करूँगी क्या?" वर्षा की आवाज़ में अब एक अजीब सी उलझन थी, जैसे किसी अनसुलझी पहेली का जवाब तलाश रही हो और बोलते बोलते वो कही जाने लगी

"कहाँ जा रही हो?" अमित ने गर्दन घुमाकर पूछा,

"किचन में... कॉफी बनाने.... मुझे पता है, तुम्हें अभी कॉफी की तलब हो रही है!" वो हल्का सा मुस्कुराई, मगर उसकी मुस्कान में कोई खास गर्माहट नहीं थी... बस एक आदत भर थी, जैसे बरसों पुरानी कोई लय, जो अब भी बरकरार थी...

अमित ने एक लंबी साँस ली और फिर से बारिश की ओर देखने लगा, "हम्म... देखो, आज भी तुम्हें अच्छी तरह पता है मुझे कब क्या चाहिए!" अमित की आवाज़ में हल्की सी कशिश थी, जैसे किसी भूली-बिसरी याद को फिर से छू लिया गया हो

"मैं कुछ नहीं भूलती, अमित ... अक्सर, कुछ भी नहीं!" वर्षा ने गैस पर दूध चढ़ाते हुए कहा, उसकी आँखें लौ की चमक को देख रही थीं, जैसे अतीत की कोई धुंधली परछाईं वहाँ उभर आई हो

"वहीं तो दिक्कत है, वर्षा... तुम भूलती ही नहीं, जबकि मुझे तो कुछ भी याद नहीं रहता!" अमित धीरे से मुस्कुराया और किचन में आकर काउंटर से टिक कर खड़ा हो गया

"तुम अपनी दखलअंदाज़ी बंद रखो, जानते हो न मुझे किचन मे दखल पसंद नहीं है!" वर्षा ने अमित को तीखी नज़र से घूरते हुए कहा

"जानता हु... बस ठीक से बात करने आया हूँ!" अमित वैसे ही किचन काउंटर से टिककर बोला, उसकी आवाज़ में एक ठहराव था, जैसे बहुत कुछ कहना चाहता हो, लेकिन शब्दों को तौल रहा हो

"हम्म... तो ठीक है फिर," वर्षा ने हल्की सांस भरी और कॉफी की खुशबू गहराई तक महसूस करने लगी

अमित ने उसे ध्यान से देखा और धीरे से मुस्कुराया, "तुम कितनी बदल गई हो, वर्षा! पहले हँसते हुए तुम्हारे बत्तीसों दाँत दिख जाते थे, और अब? अब तो होंठ ज़रा भी हिल जाएँ, तो ग़ज़ब की बात होगी! तुम्हारे ये बदलाव कभी-कभी अंदर तक झकझोर देते हैं मुझे..." तब तक वर्षा मग मे कॉफी डाल चुकी थी और अमित ने कॉफी का मग उठाते हुए कहा,

वर्षा ने उसकी ओर देखा, कुछ कहने के लिए होंठ खुले तो लेकिन फिर बंद हो गए और अगले ही पल उसने अमित का हाथ हल्के से पकड़ लिया और बाहर की ओर बढ़ते हुए बोली, "हॉल में नहीं, बाहर चलते हैं... खुली हवा में!"

अमित ठिठका, फिर मुस्कुराते हुए बोला, "ठीक है, लेकिन फिर बारिश की बूँदें उड़ेंगी, मिट्टी की सौंधी खुशबू इस कॉफी की महक में घुल जाएगी... ये चलेगा तुम्हें?" अमित ने घर का पिछला दरवाज़ा खोलते हुए पूछा

"हम्म... चलेगा!" वर्षा धीमे कदमों से उसके पीछे-पीछे बाहर आ गई और सीढ़ियों पर बैठ गई, जैसे बारिश को ज़रा और करीब से महसूस करना चाहती हो

"कितने दिनों बाद देख रही हो बरसात को?" अमित ने कॉफी की चुस्की लेते हुए पूछा, उसकी आँखों में एक जिज्ञासा थी, जैसे वो किसी छूट चुके जवाब की तलाश कर रहा हो

"कितने दिन मतलब?" वर्षा ने हल्की हँसी में एक उदासी घोलते हुए कहा "रोज़ ही देखती हूँ... रोज़ ही भीगती हूँ!" उसकी नज़रें घर से पास दिख रहे समुद्र की लहरों पर टिक गईं, दूर से उठता लहरों का शोर और बारिश की आवाज़ जैसे उसके भीतर उतर रही थी

अमित ने उसकी तरफ़ देखा, उसकी आँखों में नमी तलाशने की कोशिश करने लगा "फिर भी तुम्हारी आँखें सूखी पड़ी हैं, वर्षा!" उसने हल्की मुस्कान के साथ कहा, मगर उसकी मुस्कान में छिपी चिंता छुपी नहीं रह सकी

वर्षा की उंगलियाँ कॉफी मग के किनारे पर ठहर गईं उसकी पलकें धीरे से झपकीं और उनमे से एक बूँद उतर आई "अमित... वो मेरे सारे मौसम अपने साथ ले गया!" वर्षा की आवाज़ में एक भारीपन था, जो सीधे दिल में उतर रहा था

अमित ने धीरे से उसका हाथ थाम लिया और उसकी गिरी हुई आँसू की बूँद को अपनी उँगलियों से थामते हुए कहा, "मौसम तो अब भी वैसे ही हैं वर्षा... बस तुमने अपने अंदर पतझड़ को सहेज लिया है!"

"जीने का एहसास ही खत्म हो गया है अमित!" वर्षा जैसे टूटकर बिखर गई थी "अब तो मोगरे की खुशबू तक घुटन देती है... गर्मियों का गुलमोहर और अमलतास कभी सुकून देते थे, अब सीने में जलन छोड़ जाते हैं... सावन की पहली फुहार कभी मन को भिगो देती थी, अब ऐसा लगता है जैसे ये बारिश मुझ पर बरसने के बजाय मुझसे टकरा रही हो!" वो एक ही सांस में सब कुछ कह गई, जैसे बरसों से दबा हुआ गुबार आज पहली बार बाहर आया हो...

"मान लिया... पर इसका हल क्या है?" अमित ने उसका हाथ हल्के से थामते हुए पूछा, उसकी आँखों में बेचैनी थी, एक ऐसी उलझन, जिसका जवाब वह बरसों से तलाश रहा था, "तुमने सालों तक हर मौसम का आनंद लिया, जिंदगी जिन जानती थी तुम, फिर अब अचानक सब दरवाज़े क्यों बंद कर लिए?"

वर्षा ने उसकी उंगलियों की पकड़ को महसूस किया, मगर कोई रिएक्शन नहीं दी, वह बस शून्य में ताकती रही, जैसे कोई अधूरी याद उसके ज़हन में घूम रही हो और फिर धीरे से बोली, "तो क्या करूँ अमित? जिसके साथ ये सारे मौसम जिए थे, जिने थे, वही अब नहीं है! और अगर कहूँ कि वो कभी लौटकर नहीं आएगा, तो ऐसा भी तो नहीं कह सकती... क्योंकि उसके ना होने के अलावा मुझे और कुछ पता ही नहीं!" वर्षा की आवाज़ भले धीमी थी, मगर उसमे दर्द की गहराई साफ़ झलक रही थी

"उम्मीद भी बड़ी अजीब चीज़ होती है अमित..." उसने हल्की हँसी के साथ कहा, मगर उसकी आँखों में पानी भर आया, "रोज़ शाम को दिया जलाते वक़्त लगता है कि अभी दरवाज़े पर दस्तक होगी, वो सीटी बजाता हुआ अंदर आएगा और कहेगा 'वर्षूडी, चाय बना, बहुत थक गया हूँ!' लेकिन ना वो दरवाज़ा खटखटाता है, ना वो आता है..." वर्षा की नज़रें किसी अनदेखी परछाईं को तलाश रही थीं, जैसे किसी बीते लम्हे को वापस खींचने की नाकाम कोशिश कर रही हो..

अमित ने एक गहरी साँस ली और कुछ ठहरकर कहा, "वर्षा, अब इस बात को एक्सेप्ट लो कि वो लौटकर नहीं आएगा! विवेक अचानक गुम नहीं हुआ... उसने खुद जाने का फैसला किया था!" अमित की आवाज़ में सच्चाई थी, मगर वर्षा के लिए ये सच्चाई ज़हर के घूँट पीने जैसी थी

"हाँ, लेकिन कभी-कभी तो लगता है ना कि वो लौट आएगा... या कम से कम उसकी कोई खबर ही मिल जाए!" वर्षा ने अपनी हथेली पर गिरती बारिश की बूँदों को झटकते हुए कहा, जैसे उन बूँदों के साथ अपने दर्द को भी बहा देना चाहती हो और फिर उसने अमित की ओर देखा, उसकी आँखों में एक अजीब सा खालीपन था, "तुम यही कहोगे ना अमित, कि कैसी पत्नी हूँ मैं, जो अपने ही पति की बस खबर पाने के इंतज़ार में बैठी है..." वर्षा ने हल्के से मुस्कुराकर कहा लेकिन उस मुस्कान मे भी एक खालीपन था, "लेकिन बताओ, मैं करूँ भी तो क्या? मैं ना पूरी तरह विधवा हूँ, और ना ही अपने सौभाग्य पर गर्व करने लायक नसीब रखती हूँ!" बोलते बोलते वर्षा की आवाज़ काँप गई, जैसे बरसों का गुबार अब बाहर आने लगा हो

"पर तुमने अपनी पूरी ज़िंदगी सिर्फ उसके इंतज़ार में ही क्यों समेट ली है?" अमित ने उसकी आँखों में गहरी नज़र डालते हुए कहा, अमित की आवाज़ में एक अधूरी शिकायत और दबी हुई तड़प थी "अगर किस्मत ने तुम्हें धोखा ना दिया होता, तो आज तुम यहाँ, मेरे कंधे पर सिर रखकर बारिश देख रही होती, इस बगीचे में मेरे साथ बैठी होती, शरद की ठंडी चाँदनी का लुत्फ़ उठा रही होती... लेकिन किस्मत देखो, तुम कभी-कभी यहाँ यूँ ही आ जाती हो, जैसे कोई अनचाही मेहमान, जैसे इस घर से तुम्हारा कोई वास्ता ही नहीं!" अमित ने हल्की मुस्कान के साथ अपना सिर झटक दिया और आगे कहा, "लेकिन अगर विवेक नहीं होता, तो क्या तुम इस घर की मालकिन की तरह यहाँ नहीं रहती?"

वर्षा ने अमित की बात तो सुनी, लेकिन उसकी आँखों में कोई प्रतिक्रिया नहीं थी, कुछ पल की चुप्पी के बाद उसने धीरे से कहा, "हाँ... लेकिन विवेक को मेरे घरवालों ने पसंद किया था... और सच कहूँ तो, उसके साथ रहते-रहते मैं तुम्हें भी भूलने लगी थी!" वर्षा की आवाज़ में एक अजीब सी दृढ़ता थी, जैसे वो खुद को ये यकीन दिलाना चाहती हो कि उसने सही फैसला लिया था

वर्षा की बात सुन अमित की आँखों में एक हल्की टीस उभरी, लेकिन उसने खुद को संभाला, "जानता हु..." अमित ने एक गहरी साँस ली और एक थोड़ी कड़वी हँसी हँसा, "लेकिन पूरी तरह भूलने से पहले ही किस्मत ने तुम्हें एक और मौका दिया था ना, तुम्हारा पति एक दिन बस एक चिट्ठी छोड़कर चला गया 'मुझे भूल जाओ, मैं जा रहा हूँ'… बस यही सात शब्द! और अब पूरे पाँच साल बीत गए... लेकिन ना वो मिला, ना उसकी लाश!"

अमित की आवाज़ में तल्ख़ी थी, एक घुटी हुई नाराज़गी, जैसे वो विवेक से ज़्यादा वर्षा से खफा हो जैसे वो कहना चाहता हो "अब और कितने साल चाहिए तुम्हें वर्षा?"

"अमित, ऐसे मत कहो..." वर्षा की आवाज़ काँप गई, जैसे किसी पुराने ज़ख्म पर किसी ने फिर से हाथ रख दिया हो, "पिछले पाँच सालों में लोगों की बदली हुई बातें, उनके सवालों से भरी नज़रें... सब देख चुकी हूँ मैं, हर गुज़रते दिन के साथ मैं खुद से यही पूछती रही कि जो शख़्स पिछली रात मेरी बाहों में था, जिसने मेरी हथेलियों को अपनी गर्म साँसों से भर दिया था, वही अगली सुबह मुझे सिर्फ़ एक कागज़ पर कुछ शब्द छोड़कर क्यों चला गया?" वर्षा की आँखें तेज़ी से झपक रही थी, मानो यादों का कोई सैलाब रोके खड़ी हो

"कहाँ चला गया?" उसने हल्की हँसी के साथ खुद से ही सवाल किया, लेकिन उसकी हँसी में सिर्फ़ कड़वाहट थी, "कोई नहीं जानता... मैं बस इतना जानती हूँ कि वो मेरी जिंदगी के सारे मौसम अपने साथ ले गया!" वर्षा ने एक गहरी सांस भरी, जैसे खुद को संभालने की आखिरी कोशिश कर रही हो और फिर अचानक उठी और कुछ कदम चल कर बारिश में चली गई, बूंदें उसके चेहरे से फिसलने लगीं, लेकिन उसने उन्हें पोंछा नहीं, शायद इस उम्मीद में कि वे उसके भीतर की तपिश को ठंडा कर दें,

अमित बस उसे देखता रहा, उसकी आँखों में एक बेबसी थी, "वर्षा, मैं समझ सकता हूँ..." उसकी आवाज़ धीमी थी, मगर उसमे गहराई थी "लेकिन इस अनिश्चितता ने तुम्हें पूरी तरह सूखा दिया है! देखो, ये मौसम हमें सिखाते हैं… खिलना, महकना, मुरझाना... और फिर नए सिरे से खिल जाना, तुम भी देखो ना, अपनी आँखों से... खुलकर!"

उसकी आवाज़ में एक तड़प थी, एक ऐसी चाह, जो सिर्फ़ वर्षा को फिर से ज़िंदा देखना चाहती थी

"कैसे देखूँ अमित?" वर्षा की आवाज़ में एक ठहराव था, जो उसके भीतर के तूफ़ान को और भी उजागर कर रहा था, "जब तुम्हारे पास आती हूँ, तो जाने कितनी निगाहें फुसफुसाने लगती हैं... जब थोड़ा अच्छा रहने की कोशिश करती हूँ, तो घरवाले ताने मारते हैं, उनकी बातों में ज़हर घुला होता है, जैसे मैं कोई अपराध कर रही हूँ..." उसने गहरी सांस ली और अपनी उंगलियाँ आपस में भींच लीं

"कभी-कभी लगता है, मेरा विवेक के लिए प्यार अब भी वैसा ही है... उतना ही गहरा, उतना ही सच्चा.... लेकिन अब मेरी उसका इंतज़ार करने की इच्छा मरने लगी है!" वह थकी हुई आवाज़ में बोली, जैसे यह कबूल कर लेना भी उसके लिए किसी भारी बोझ से कम न हो..

"मुझे पता है कि उसके ग़ायब होने से मैं पूरी तरह बदल गई हूँ... अब तो हँसना भी मुश्किल लगता है, और जब तुम इतने पास आते हो, तो मेरे जिस्म की भूख भी जाग उठती है..." उसने सिर झुका लिया, उसकी उंगलियाँ अपनी हथेलियों में गड़ने लगीं, "लेकिन मैं खुद को रोकती हूँ, सिर्फ इसलिए कि मैं विवेक के साथ बेवफ़ाई नहीं करना चाहती!" उसकी आवाज़ अब भी काँप रही थी और साँसें अनियमित हो गई थीं "अमित, मैं इस इंतज़ार की आग में जलते-जलते ख़त्म होती जा रही हूँ!"

उसकी आँखों में आँसू उमड़ आए, जो शायद बरसों से भीतर ही भीतर जमा हो रहे थे

"वर्षा..." अमित वर्षा की तकलीफ़ को देखकर अवाक रह गया था उसकी आँखों में दर्द था, मगर उसके शब्द जैसे कहीं खो गए थे..

"हाँ अमित... मैं थक गई हूँ!" उसने अपनी आँखें मूँद लीं, जैसे अब किसी भी चीज़ से भागने की ताकत उसमें नहीं बची थी, "इस बेजान ज़िंदगी से, इस सूनेपन से... मैं भी इंसान हूँ, मेरी भी भावनाएँ हैं, मेरी भी ज़रूरतें हैं!" उसकी आवाज़ में अब कोई रोक-टोक नहीं थी, कोई झिझक नहीं, कोई संकोच नहीं... और यही कहते-कहते वह उसकी बाहों में समा गई, जैसे बरसों से बंधा कोई तूफ़ान अब जाकर आज़ाद हुआ हो... जैसे किसी रेगिस्तान को पहली बार बारिश छू रही हो...

"हाँ, हैं... मैं तुम्हारी अभी कही हर बात मानता हूँ!" अमित ने उसकी बाहों को और कसते हुए कहा, जैसे उसे यकीन दिलाना चाहता हो कि वह अब भी अकेली नहीं है, "लेकिन ये सब कहने में तुम्हें पाँच साल क्यों लग गए वर्षा?" अमित की आवाज़ में एक शिकायत थी, एक ऐसी तड़प जो बरसों से भीतर ही भीतर जल रही थी..

वर्षा ने उसकी आँखों में देखा, फिर जैसे किसी झटके से होश में आई, "नहीं, अमित... ये गलत है!" वह तेजी से पीछे हटी, जैसे खुद को किसी ऐसी हद से रोक रही हो, जिसे पार करने का साहस उसमें नहीं था

"क्यों? क्या गलत है इसमें?" अमित की आवाज़ में बेचैनी थी, उसकी आँखों में सवाल थे "मैं तुम्हारे लिए ही रुका हूँ वर्षा! स्कूल के दिनों से लेकर आज तक... सिर्फ़ तुम्हारे लिए!" उसके शब्दों में छुपा दर्द भी अब खुलकर सामने आ गया था

"हाँ, लेकिन विवेक मेरा पति है... मैं उसे धोखा नहीं दे सकती!" वर्षा की आवाज़ धीमी थी, मगर उसमें एक अजीब सा दृढ़ निश्चय था

वर्षा की बात सुन अमित ने कड़वाहट से अपना सिर झटक दिया "एक ऐसे इंसान के लिए क्यों खुद को सज़ा दे रही हो, जिसका वजूद ही अब बस यादों में रह गया है?" उसने गहरी सांस ली, जैसे उसकी ज़िद को समझने की कोशिश कर रहा हो

वर्षा की पलकें हल्की सी काँपीं, मगर उसने खुद को संभाला "वो अब भी कहीं तो होगा... ये यकीन मैं नहीं छोड़ सकती!" वर्षा की आवाज़ अब कमज़ोर पड़ने लगी थी, मगर उसमें अब भी उम्मीद की एक आखिरी लौ जल रही थी, "मुझे उसका इंतज़ार करना है... आखिरी साँस तक!"

उसके शब्द जैसे वहा की हवा में ठहर गए थे बारिश की बूँदें अब भी गिर रही थीं, लेकिन उस पल, अमित और वर्षा के बीच एक चुप्पी आकर खड़ी हो गई थी… गहरी, भारी, और अटूट...

"वर्षा, वो कभी लौटकर नहीं आएगा!" अमित की आवाज़ में अब नर्मी थी, लेकिन उसके शब्द सख्त हकीकत से भरे हुए थे "मैं तुमसे यह नहीं कहूँगा कि मेरे साथ एक नई ज़िंदगी शुरू करो, लेकिन इतना ज़रूर कहूँगा कि ख़ुद के लिए तो जियो! अपने लिए, अपनी ज़िंदगी के लिए!"

वर्षा ने गहरी सांस ली और अपनी आँखें बंद कर लीं, जैसे कोई पुरानी याद फिर से उसके अंदर ज़िंदा हो गई हो, उसकी उंगलियाँ अनजाने में आपस में भींच गईं "कैसे जियूँ अमित?" उसकी आवाज़ अबूझ थी, जैसे कोई सवाल जिसे वह खुद भी समझ नहीं पा रही थी

"वो हर जगह दिखता है..." उसकी पलकें हल्की सी काँपीं, "कभी हवा बनकर मुझसे लिपटता है, कभी रातरानी की ख़ुशबू में घुलकर मदहोश कर देता है"

उसके चेहरे पर एक फीकी मुस्कान उभर आई थी, "उसने मुझे छूने का अहसास दिया था, मेरी रग-रग में अपने होने की नर्मी भर दी थी... और फिर मेरा सबकुछ छीनकर चला गया!"

उसके शब्दों के साथ ही बारिश की बूँदें और तेज़ हो गईं, मानो आसमान भी उसकी तन्हाई को महसूस कर रहा हो

उसके ज़ेहन में पुरानी यादों का बवंडर उठ चुका था, जो उसे वापस उन गलियों में ले जा रहा था, जहाँ हर मोड़ पर कोई भूला-बिसरा अहसास खड़ा था, "सिर्फ़ ढाई-तीन साल का साथ... लेकिन इतने में ही मैं अमित को पूरी तरह भूल गई थी! बचपन से मेरा दोस्त, फिर मेरा प्रेमी... मगर हमेशा हदों में रहने वाला, उसकी कविताओं में मैं बसती रही, उसकी नज़रों में एक अधूरी दास्तान बनी रही, और फिर अचानक विवेक आया... घरवालों ने उसे पसंद किया, और उसके साथ मेरा रिश्ता तय कर दिया"

वर्षा ने एक गहरी सांस भरी, जैसे किसी अनकहे दर्द को भीतर ही समेट रही हो "अमित के लिए घर में ज़ुबान खोलने की नौबत ही नहीं आई"

वह धीमे कदमों से आगे बढ़ी, बारिश अब भी उसी लय में बरस रही थी "शायद अमित सही कहता है, किस्मत ने मुझसे खेल खेला था... लेकिन विवेक के साथ जो मिला, वो बेहतरीन था" उसकी आवाज़ में अब भी विवेक के होने की गूँज थी "हकीकत से जुड़े उसके मज़बूत कंधे, उसकी खिलखिलाती हँसी, उसका ‘वर्षूडी’ कहकर गले लगाना... इतना सब कुछ था कि अमित सामने होने के बावजूद मैं कभी डगमगाई नहीं"

कुछ पल के लिए वर्षा की आँखें चमक उठीं, लेकिन फिर उसी तेज़ी से बुझ भी गईं "लेकिन अब... अब सब बदल चुका है! जब भी अमित का स्पर्श महसूस होता है, विवेक की याद और गहरी होने लगती है" उसने अपने काँपते हाथों को हल्का सा भींच लिया, जैसे कोई अनदेखा खालीपन भरने की कोशिश कर रही हो

"अब तो हद ये है कि कभी-कभी विवेक पर गुस्सा आता है इतना प्यार था, तो छोड़कर क्यों गया? कहाँ चला गया?" उसकी आवाज़ थरथरा गई, बारिश की बूँदें उसके चेहरे पर गिर रहीं थीं, मगर वो उन्हें पोंछने की कोशिश भी नहीं कर रही थी

"पुलिस तक ने अब उसे खोजना बंद कर दिया... और मैंने? मैंने उसे खोजते-खोजते खुद को ही खो दिया"

उसके शब्द हवा में घुलते जा रहे थे, लेकिन उसकी आँखों में जो सूनापन था, वो कभी भरने वाला नहीं था

वह अपने ही ख़्यालों में इतनी गहरी डूबी थी कि बाहरी दुनिया से जैसे कोई वास्ता ही न रहा, बारिश की आवाज़, समुद्र की लहरों का शोर, सब कहीं दूर होता जा रहा था, लेकिन तभी अमित की आवाज़ ने उसे चौंका दिया

"तेरे संग हर मौसम एक नज़्म बन गया, कभी मदहोश लम्हा, कभी गुल खिला गया!"

उसकी ये पंक्ति सुनते ही वह अचानक पलटी, उसकी आँखों में एक क्षणिक आश्चर्य था

"फिर से कॉफी?" वर्षा ने हल्की मुस्कान के साथ पूछा, जैसे खुद को इस लम्हे में वापस खींचने की कोशिश कर रही हो..

"हाँ, तुम काफ़ी देर से कहीं खोई हुई थी... और भीग भी रही हो, तो सोचा अब तुम्हें इसकी ज़रूरत होगी!" अमित ने मुस्कुराते हुए मग उसकी ओर बढ़ाया, उसकी मुस्कान में वही पुरानी गर्माहट थी, जिसे वर्षा कभी पहचानती थी...

उसने मग थामते हुए गहरी नजरों से उसे देखा "अभी बहुत ख़ूबसूरत लिखते हो अमित... ये लाइने तो कमाल की थीं!" वर्षा की तारीफ़ में सच्चाई थी

अमित हल्का सा मुस्कुराया और बिना पलकें झपकाए उसकी आँखों में झाँकते हुए बोला, "हम्म... होंगी ही, क्योंकि ये सब तुम्हारी वजह से लिख पाता हूँ, इसलिए असली कमाल तो तुम हो!"

वर्षा ने उसकी नज़रें महसूस कीं, लेकिन वह ज्यादा देर उन्हें थाम नहीं पाई उसने हल्के से सिर झटक दिया और भीगे बालों को खोलते हुए धीमे स्वर में बोली, "अमित... अमित... कितना उलझ गया है सबकुछ!"

उसकी आवाज़ में थकान थी, उलझन थी, और शायद... कोई अनकही चाह भी

"उलझन सुलझ जाएगी, बस तुम खुद को तैयार करो वर्षा..." अमित की आवाज़ में एक गहरा आग्रह था, एक ऐसी उम्मीद जो उसने अब तक छोड़ी नहीं थी, "देखो, बारिश अब थम रही है, आसमान धीरे-धीरे साफ़ हो रहा है... तुम भी अब खुद को मुक्त करो!"

उसने अपनी हथेली खोली और उसमें ठहरी कुछ बूँदों को देखा, फिर वर्षा की ओर देखा, जो अब भी उलझी हुई थी, "विवेक के साथ जो हुआ, वो हमेशा तुम्हारे मन में रहेगा, लेकिन इस सवाल में उलझकर खुद को इतना मत सूखा लो कि तुम्हारी सारी नमी ही खत्म हो जाए, हर वक्त उसी अधूरे जवाब के पीछे भागते-भागते तुम खुद को ही खो बैठी हो, वर्षा..."

वह कुछ पल रुका, फिर गहरी सांस लेते हुए आगे बोला, "अगर चाहो तो यहाँ से दूर चल सकते हैं, ये लाल मिट्टी, ये समंदर... कहीं और भी तो मिल सकते हैं! कोई नई जगह, कोई नया मौसम... जहाँ तुम्हारे अतीत की परछाइयाँ तुम्हारा पीछा न करें!"

अमित की आँखें वर्षा की आँखों में जैसे कोई जवाब ढूँढ रही थीं

वर्षा ने उसकी बात सुनी, मगर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, उसकी नज़रें कहीं दूर टिक गईं, शायद किसी अनदेखे मोड़ की तरफ़, जहाँ जाने की हिम्मत उसे अब तक नहीं हुई थी, "हम्म... सोचूँगी इस बारे में!" उसने बस इतना कहा, मगर उसकी आवाज़ में पहली बार एक हल्की सी नमी महसूस हो रही थी… शायद बीते हुए मौसमों की, शायद आने वाले मौसमों की...

"बेमौसमी था उसका आना,
बहार के बीच सबकुछ बहा ले जाना!"

अमित की धीमी बुदबुदाहट बारिश की हल्की थपकियों में घुल गई, लेकिन वर्षा के कानों तक साफ़ पहुँची वह चौंककर पलटी, उसकी आँखों में हल्की हैरानी थी..

"ये क्या?" उसने धीमी आवाज़ में पूछा, जैसे जवाब से ज़्यादा, अमित के एहसास को समझना चाह रही हो

अमित ने हल्की मुस्कान के साथ उसकी ओर देखा, मगर उसकी आँखों में एक छुपी हुई टीस थी "अचानक आई बारिश बारिश की तरह विवेक का आना भी बेमौसमी था... और देखो न वो मुझसे मेरा सबकुछ छीनकर चला गया!" उसकी आवाज़ में कुछ ऐसा था, जो सिर्फ़ वर्षा ही महसूस कर सकती थी

वर्षा ने कुछ पल उसकी तरफ़ देखा, फिर हल्की सांस लेते हुए बोली, "छोड़ो ना, अमित !" उसकी आवाज़ में मानो कोई ठहराव नहीं था, बस कुछ कह देने की मजबूरी थी लेकिन वो खुद भी जानती थी कि इस वाक्य में कोई यकीन नहीं था...

अमित ने उसकी आँखों में झाँका, उसकी झिझक को महसूस किया और हल्की उदासी के साथ सिर झुका लिया, "छोड़ ही रहा हूँ, वर्षा... पर अब ये छोड़ना भारी पड़ने लगा है तुम्हें यूँ तिल-तिल मरते देखना मुझे अंदर से तोड़ देता है!"

"मैं सब समझती हूँ अमित... लेकिन इंसान की उम्मीद भी अजीब चीज़ होती है!" उसने धीमे से कहा और उसका हाथ थाम लिया उसकी हथेलियाँ ठंडी थीं, लेकिन उसकी पकड़ में एक हल्का कंपन था… शायद असमंजस का, शायद किसी अनकहे डर का,

अमित ने वर्षा की तरफ़ देखा, उसकी आँखों में कई सवाल तैर रहे थे, उसने एक गहरी साँस ली और हल्की मुस्कान के साथ कहा, "और मेरी उम्मीद, उसका क्या वर्षा?" उसकी आवाज़ में एक दबा हुआ दर्द था "मैं कोई कृष्ण नहीं हूँ, जो जानता हो कि राधा कभी उसकी नहीं होगी और फिर भी बिना मुड़े गोकुल छोड़ दे! मैं रिश्तों से बाहर नहीं निकल पाता... और शायद तुम भी नहीं निकल पाती..."

वह कुछ पल के लिए रुका, फिर उसकी हथेलियों को हल्का सा भींचते हुए बोला, "लेकिन वो जो अब है ही नहीं, उसके लिए खुद को इस तरह तोड़ते रहना सही नहीं लगता!" उसकी आवाज़ में बेचैनी थी, जैसे वह उसे किसी न किसी तरह इस अंतहीन पीड़ा से बाहर निकालना चाहता हो

वर्षा ने अमित की आँखों में झाँका, और इस बार बिना किसी झिझक के कहा, "तुम्हारी और मेरी उम्मीदों में फर्क है अमित! मैं किसी के लौटने का इंतज़ार कर रही हूँ, और तुम किसी के होने का... लेकिन फर्क ये है कि मैं नहीं जानती कि विवेक अब भी इस दुनिया में है या नहीं"

वह पहली बार उसकी आँखों में पूरी गहराई से देख रही थी ऐसा लग रहा था, जैसे बरसों की उलझन आज उसके शब्दों में ढलकर बाहर आ रही हो "सारी उलझन वहीं से शुरू होती है!" उसकी आवाज़ में थकान थी, पर शायद पहली बार, उसमें एक हल्की सी स्वीकारोक्ति भी थी

"कितने सालों से यही समझा रहा हूँ तुम्हें... और आज पहली बार तुम्हें ये समझते देख अच्छा लग रहा है!" अमित ने हल्की मुस्कान के साथ कहा उसकी उंगलियाँ वर्षा के गीले बालों से टपकती बूंदों को थाम रही थीं, जैसे उन लम्हों को अपनी मुट्ठी में कैद कर लेना चाहता हो

वर्षा ने उसकी बात सुनी, लेकिन ज्यादा देर उसकी आँखों में देख नहीं पाई "हम्म... चलती हूँ अब, फिर से बादल घिर आए हैं!" उसने धीरे से कहा और अमित की पकड़ से अपना हाथ छुड़ाने लगी

अमित ने उसे रोकने की कोशिश की, "इतनी भीगी हुई मत जाओ... मैं हीटर ऑन कर देता हूँ, कुछ देर अंदर बैठो, फिर निकलना!" उसकी आवाज़ में हल्की चिंता थी, एक अनकही ख्वाहिश भी कि वो बस और कुछ देर ठहर जाए...

लेकिन वर्षा ने सिर हल्का सा झटक दिया, "फिर बारिश होगी, फिर मैं भीगूँगी... उससे बेहतर है कि अभी निकल जाऊँ!" वह मुड़कर जाने लगी, जैसे खुद को किसी और उलझन में पड़ने से बचा रही हो

लेकिन अगले ही पल, अमित ने उसे अचानक पीछे से अपनी बाहों में भर लिया

वर्षा ठिठक गई उसकी तेज़ धड़कन वर्षा को साफ़ सुनाई दे रही थी... उसके गर्म साँसों की तपिश ठंडी बारिश के बीच भी महसूस हो रही थी

वह कुछ नहीं कह पाई बस चुपचाप खड़ी रही, जैसे इस लम्हे की नर्मी में खो जाने को मजबूर हो गई हो

तभी बारिश की तेज़ बौछार फिर से शुरू हो गई, बूंदें अब और तेज़ी से बरसने लगीं वे दोनों वहीं खड़े-खड़े भीगते रहे, एक-दूसरे के इतने करीब, जैसे अब उन दोनों के बीच कोई दूरी बची ही न हो

वर्षा ने अपनी आँखें बंद कर लीं, उसके होंठ हल्के से हिले, और उसने धीमे से बुदबुदाया, "

"धुंध घिर आई है ज़रा, बादलों में गहराई छाई है...

मैं भीग रही हूँ, और मेरे साथ तेरी परछाई है!



उसके शब्द बारिश की बूँदों के बीच घुलकर हवा में फैल गए

अमित ने उसकी बुदबुदाहट सुनी, और उसकी ओर झुकते हुए हल्की मुस्कान के साथ कहा, "यही तो वर्षा ढूँढ रहा था मैं पिछले पाँच सालों से... आज वो फिर से लौट आई है!"

उसके शब्दों के साथ ही उसने वर्षा को और कसकर अपनी बाँहों में भर लिया, जैसे अब कभी उसे खोने का डर नहीं रहेगा

"हम्म... लेकिन अगर यही वर्षा हमेशा चाहिए, तो हमें यहाँ से दूर जाना होगा, अमित!" उसकी आवाज़ में एक अजीब सी बेचैनी थी, एक छटपटाहट, जो अब और सहन नहीं की जा सकती थी "मेरा दम घुटता है यहाँ... यहा बस यादें हैं, जो हर पल मेरा पीछा करती हैं!"

वह अमित के सिने से लग गई, उसकी गर्माहट को महसूस करते हुए, जैसे कुछ पल के लिए सारे सवाल, सारी उलझनें ठहर गई हों...

और अमित ने बिना किसी झिझक के कहा, "चलो... अभी चलते हैं! क्योंकि मुझे सिर्फ़ तुम चाहिए, बस और कुछ नहीं!" उसकी उंगलियाँ वर्षा के भीगे बालों में उलझ गईं, जैसे हर एहसास को हमेशा के लिए थाम लेना चाहता हो

वर्षा ने उसकी बाँहों में सिर टिकाए कुछ पल बिताए, फिर धीरे-धीरे अलग हुई "हम्म... लेकिन अब चलती हूँ, देर हो रही है!" उसकी आवाज़ में हल्का सा संकोच था, जैसे अभी पूरी तरह इस पल से अलग नहीं होना चाहती थी

अमित ने उसका चेहरा अपनी हथेलियों में थाम लिया, उसकी आँखों में झाँकते हुए गंभीर स्वर में पूछा, "ठीक है, लेकिन बताओ, कहाँ जाना है? कब जाना है? मैं तैयार हूँ!"

उसकी आँखों में कोई सवाल नहीं था, बस एक वादा था, जहाँ भी जाना हो, साथ चलने का वादा

"ठीक है... मेघालय या असम? जहाँ नौकरी मिले, वहीं चलेंगे!" वर्षा ने बिना सोचे झट से कहा, जैसे ये फ़ैसला वह पहले ही कर चुकी हो

अमित ने हल्की हैरानी से उसकी तरफ़ देखा "लेकिन मेघालय या असम ही क्यों?"

वर्षा मुस्कुराई, उसकी आँखों में पहली बार हल्की सी चमक दिखी, "क्योंकि वहाँ हमेशा बारिश होती है... नदियों का तल तक साफ़ दिखता है... नीला आसमान, हरा-भरा जंगल... सबकुछ मिलेगा वहाँ!"

उसने हल्की हँसी के साथ जोड़ा, "और सबसे बड़ी बात... वहाँ हमें जानने वाला कोई नहीं होगा!"

अमित ने उसकी बात सुनी और मुस्कुराते हुए कहा, "वाह! तुमने तो पूरा प्लान पहले ही बना रखा है!" उसकी मुस्कान में सुकून था, जैसे उसे पहली बार महसूस हुआ हो कि शायद वर्षा अब सच में आगे बढ़ने को तैयार है..

उसने प्यार से उसका माथा चूमा, उसकी गर्माहट को अपने लबों में महसूस करते हुए

वर्षा हल्के से मुस्काई और अचानक दरवाजे की ओर भागी "जल्दी मिलूंगी!" बस इतना कहते ही वह बारिश में ओझल हो गई

और अमित वहीं खड़ा रह गया, उसके जाते हुए अक्स को देखता रहा, और मन ही मन सोचा, क्या सच में अब वर्षा लौटकर आएगी? या ये बस एक और अधूरा मौसम था?

अमित वहीं खड़ा रह गया... बारिश अब भी तेज़ थी उसने अपनी आँखें बंद कर लीं, हथेलियाँ खोल दीं, और बूंदों को महसूस करने लगा… जैसे वे बूंदें सिर्फ़ पानी नहीं, कोई छूटी हुई यादें हों, कोई पुरानी धड़कनें, जो अब भी उसके अंदर जिंदा थीं फिर उसने धीमे-धीमे कदमों से बगीचे की ओर रुख किया

हवा में भीगे हुए फूलों की महक घुली थी वह ठहरकर चारों तरफ़ देखने लगा और हल्की मुस्कान के साथ बुदबुदाया, "बगीचा कितना खिल उठा है... फिलहाल तो बारिश है, इसलिए चिंता नहीं अनंत, सोनचाफा, मोगरा, गुलाब, नागचंपा… हर फूल में कहीं न कहीं तू ही तो बसा है, विवेक!"

वह हल्की हँसी हँस पड़ा मगर उस हँसी में कोई खुशी नहीं थी, बस एक अजीब सा संतोष था… एक घिनौनी संतुष्टि, जिसे सिर्फ़ वही समझ सकता था

"मुझे पता है... तू इसी बग़ीचे के हर फूल में खिलकर वर्षा से मिलने आता है क्योंकि मैं जानता हूँ... जब मैंने तुझे हमेशा के लिए चिरनिद्रा मे इस मिट्टी में सुलाया, तब मैंने ये बाग़ सिर्फ़ अपनी वर्षा के लिए बसाया था... हाँ, सिर्फ़ मेरी वर्षा के लिए!"

उसकी आँखों में अब एक अलग ही चमक थी… खौफनाक, अडिग, और जीत के एहसास से भरी हुई, जैसे बारिश के पानी में घुला हुआ कोई छुपा ज़हर

"पाँच साल इंतज़ार किया है मैंने... और अब मेरी वर्षा मेरे पास वापिस लौट आई है" अमित धीमे से बुदबुदाया, जैसे वो खुद से ही बात कर रहा हो "हाँ, थोड़ी तकलीफ़ हुई उसे, बेचारी काफी परेशान भी रही... लेकिन क्या करूँ यार, प्यार और जंग में सब जायज़ होता है दोस्त! यहाँ तक कि तेरा क़त्ल भी!"

अमित के होंठों पर एक टेढ़ी मुस्कान उभर आई थी, उसकी उंगलियाँ हल्की-हल्की मिट्टी को कुरेद रही थीं, मानो उस अधूरी रात की कहानी फिर से महसूस कर रही हों बारिश अब भी गिर रही थी, लेकिन उसकी आँखों में कोई नमी नहीं थी

"ख़ैर, तू चिंता मत कर... ये घर, ये बाग़ मैं कभी किसी को बेचने नहीं दूँगा, आखिर तेरा खून मिला हुआ है इस मिट्टी में..." अमित ने अपनी हथेलियों को मिट्टी पर रगड़ा, "इसी से ये फूल महकते हैं, और इन्हीं की खुशबू से मेरी वर्षा यहाँ बंधी रहेगी! क्योंकि जब ये फूल महकेंगे, तो वो रुकेगी... और जब वो रुकेगी, तो मेरे पास ही रहेगी!"

उसने गहरी सांस ली, मिट्टी की सौंधी खुशबू को भीतर तक समेटा, फिर धीरे से फुसफुसाया

"तुझे तो जाना ही था, विवेक... आखिर मेरी वर्षा मुझसे दूर जा रही थी, और मुझे उसे वापस लाना था!"

अमित की आँखों में अजीब सा सुकून था, जैसे उसकी दुनिया अब पूरी हो गई हो

अमित धीरे-धीरे उठ खड़ा हुआ, एक लंबी सांस भरी और बारिश में भीगी मिट्टी को आखिरी बार महसूस किया फिर, बिना मुड़े, घर की ओर बढ़ने लगा

"चलता हूँ... अब सब समेटना है! अब हमें जाना है... अपने नए सफर पर!"

वह दरवाज़े की ओर बढ़ते-बढ़ते ठिठका, पीछे मुड़कर बगीचे पर एक नज़र डाली और हल्की, मगर डरावनी मुस्कान के साथ फुसफुसाया

"विवेक बाबू, आपको हमारा आखिरी सलाम!"

उसकी आवाज़ में ठंडक थी, लेकिन इस ठंडक के पीछे एक अजीब सी ख़ुशी छिपी थी… एक ऐसी ख़ुशी, जो सिर्फ़ वही समझ सकता था

जैसे ही वह दरवाज़े के भीतर गायब हुआ, बगीचे में एक अजीब सी हलचल मच गई तेज़ हवा चली, फूल अचानक काँपने लगे, पत्ते बेतहाशा हिलने लगे... जैसे कोई खामोश चीख़ हर ओर फैल गई हो

मानो विवेक अब भी कहीं था... कहीं से वर्षा को पुकार रहा था…

"मेरी आखिरी सांस भी तुम्हारे नाम थीं,
मेरे हर फूल की खुशबू भी बस तुम्हारे लिए है!"


लेकिन अब ये आवाज़ कभी वर्षा तक नहीं पहुँचने वाली थी... कभी नहीं……..
"चलता हूँ... अब सब समेटना है! अब हमें जाना है... अपने नए सफर पर!"

Positive: har ek chij is kahani ki sundar hai.Varsha ka dard jadui andaj me prastut kiya hai.Shabdrachna ekdam laybadhha hai. Dil ke Jakhm kaise bujhte hai ye is kahani me ekdam sahi se bataya hai.

Negatives: kuch kuch jagah shabd aadhe lage. Amit ke liye Varsha ke dil me kya bhavna hai vo spasht nahi ho paayi.

kahani baaki pichhli kahani se achhi lagi matlab shtar kitna upar ho chuka hai.
 
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Anatole

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The Memory Glitch!


Mumbai in 2050 was a total jumble, like a city that couldn’t decide if it wanted to be old-school or futuristic. Shiny chrome skyscrapers towered into a sky always cloudy with fake monsoon vibes, thanks to some high-tech machines. Down below, ancient banyan trees stood tall on the crowded streets, their branches decked out with glowing green moss… basically desi fairy lights with a science twist. The air smelled of spicy synth-vadas from digital vendors, mixed with the proper mitti-wala scent of jasmine garlands sold by old aunties who’d seen a hundred years of Mumbai’s drama. Meera Joshi, a reporter for Mumbai Mirror 2.0, zipped through this wild, masala chaos like she was born for it.

Her office wasn’t some posh glass cabin… just an old shipping container dumped in Bandra, sandwiched between a glitzy holographic Bollywood billboard full of romance and a chai-wallah who’d gone modern. The chai guy had a fancy robot arm pouring tea now, but he still served it in those same chipped ceramic cups… pure nostalgia. Meera’s desk was a rugged teak plank, probably pulled from some demolished chawl, covered with her datapads (think super-smart tablets), half-empty coffee cups, and scraps of old stories. She loved this organized mess, it kept her on her toes. Her brain was as quick as a Virar fast local, and her fingers flew over her virtual keyboard like they were doing a filmy dance.

Today’s job wasn’t her usual blockbuster scoop, though. She had to check out some missing people… three totally different types: a techie, a classical dancer, and a big-time city councilor. They’d disappeared in the last month, gone without a single clue. Normally, the cyber-police, always running around like headless chickens with their gadgets, would take care of this. But a quiet buzz, like a juicy rumor in the building’s ladies’ group… had reached her editor’s ears. All three of these missing folks were hooked on Memento, a new VR gadget that didn’t just show you your old memories, it let you jump back into them, feeling the smells, sounds, everything, like you were there again. Mind-blowing, no? Meera’s reporter senses were tingling already.

Memento was Mumbai’s newest craze, like a Bollywood love song you couldn’t get out of your head, pulling everyone back to the good old days in a city racing toward a future nobody could predict. People were lining up for hours outside Memento Experience Centers, dying to step back into their childhood homes, taste their nani’s aloo parathas again, or feel those happy moments of love and laughter that time had faded away. Crowds stood sweating in the queues, chattering excitedly about reliving their past, but Meera couldn’t help wondering: were these memories even real, or just some high-tech trick?

She leaned back in her creaky chair, the kind that squeaks like an old rickshaw, staring out at the glowing holographic city buzzing outside her window. She’d tried Memento once herself, during a free demo at a tech fair. It was so real it gave her goosebumps. She’d walked through her childhood garden in Nashik, the sun warming her face, the smell of wet earth hitting her after the first monsoon rain… like a perfect memory brought to life. It was beautiful, almost too beautiful, like a scene from a Bhansali film. But when it ended, something felt off. It was like waking up from a crazy-real dream and wondering if someone had messed with your head. That uneasy vibe stuck with her.

Meera pulled up the files on her datapad about the missing people: Vikram Patel, a hotshot techie making waves; Aisha Khan, a famous classical dancer who could make you cry with her moves; and Rohan Verma, a big-deal city councilor always in the news. On the surface, they had nothing in common… different lives, different worlds. But then there was Memento, the one thread tying them together. Meera frowned, her reporter instincts kicking in. Coincidences? Please. That’s just what lazy journalists say when they can’t find the real story.

Meera’s first stop was Memory Lane, one of the hottest Memento Experience Centers in town, set up in an old British-time building down in Fort. Back in the day, that place must’ve looked like a maharaja’s palace, but now it was covered with loud, blinking neon signs promising virtual Jannat, a paradise on demand. Inside, the air buzzed with the low hum of computer servers, mixed with faint voices of people lost in their digital pasts, like ghosts chatting about old times.

She walked up to the reception desk and flashed her press ID like a boss. “Meera Joshi, Mumbai Mirror 2.0. I’m here about the recent disappearances,” she said, keeping her voice firm. The guy behind the desk was young, with shiny data-implants peeking out behind his ear, total sci-fi vibes. He barely looked up, acting like she was wasting his time. “Disappearances? Never heard of any,” he mumbled, waving a lazy hand toward the waiting area. Over there, a bunch of people were buzzing with excitement, gabbing about their upcoming memory trips like kids waiting for a ride at EsselWorld. “Only happy customers here, see?”

Meera wasn’t buying his chill act. She pulled out her datapad and shoved the files in his face. “These three people… Memento users… all went missing right after their sessions. Doesn’t that sound fishy to you?” she pressed, watching him closely. The guy finally glanced up, and for a second, something flickered in his eyes, nervousness, maybe? but he covered it quick. “Memento’s totally safe,” he said, his voice flat like a rehearsed line. “Maybe they just… liked their memories so much they didn’t want to come back?” He flashed a fake, plastic smile that didn’t reach his eyes.

Meera knew she’d hit a wall with this dude, he was tighter than a locked Bandra flat. She wasn’t going to get any juice out of him. If she wanted the real story, she’d have to dig deeper, skip the shiny front and find the chinks in the armor. Time to switch gears. She decided her next move: Vikram Patel’s company. That’s where the trail was pointing.

Vikram Patel’s office was in Bandra-Kurla Complex, BKC for short…. a flashy area full of steel and glass towers that made even the giant holographic billboards look tiny. His company, Synapse Dynamics, was a big deal in the tech world, working on stuff that connected your brain straight to machines. Funny thing? They were the main rivals of Memento. So Vikram going missing was a real head-scratcher, especially since he was a famous name and juggling some super-important projects.

Meera met up with Anya Sharma, Vikram’s right-hand woman at Synapse. Anya was sharp as a tack and ambitious like nobody’s business, but she seemed more worried about the company’s share prices tanking than her boss disappearing. “Vikram was a genius, a proper visionary,” she said, her voice smooth and practiced, like she’d rehearsed the sad tone in front of a mirror. “Him vanishing like this… it’s a total mess for us, honestly.”

Meera scribbled notes on her datapad, keeping her eyes on Anya. “Did he say anything weird before he went missing? Any tension, any worries?” she asked, digging for clues. Anya stopped for a second, tapping her perfectly done nails on the shiny desk…. “Tension? Oh, for sure. Running a place like Synapse isn’t a picnic, you know. But worries? Nah, nothing special. He was all pumped up about our new project, Project Chimera.”

“Project Chimera? What’s that about?” Meera leaned in, curious. Anya froze for a moment, her eyes darting to a security camera stuck in the corner of the room, watching like a silent hawaldar. “It’s… top secret,” she said, lowering her voice a bit. “Some next-level tech for linking brains and computers. Vikram thought it could change everything, it is a proper game-changer stuff.”

Meera could tell Anya was hiding something… her poker face wasn’t that solid. “Was Vikram a regular Memento user?” she asked, pushing a little harder, eyes locked on Anya’s reaction. Anya’s cool broke just a bit… her eyes tightened, like she’d been caught off guard. “Yeah, he was,” she admitted, her voice a tad shaky. “He said it was for… stress relief. To get away from all the pressure.”

“Pressure of competing with Memento, you mean?” Meera threw in, watching Anya like a hawk. Anya’s lips pressed into a thin line, like she was biting back a retort. “Memento is just… timepass, entertainment,” she snapped. “Synapse is about real breakthroughs. Vikram wasn’t scared of them, okay?”

Meera walked out of Synapse Dynamics with her head spinning… more questions than answers piling up. A tech genius like Vikram using his rival’s gadget to chill out? It didn’t add up, like a tabla maestro jamming on someone else’s dhol just for kicks. And Anya’s jittery vibe about Project Chimera? That was a red flag she couldn’t ignore.

Later that evening, back in her cozy container office in Bandra, Meera decided to give Memento another shot. Not for old memories this time… she wasn’t in the mood for a nostalgia trip, but to snoop around, figure out what this tech was really up to. She headed to a smaller Memento spot in Andheri, far from the crazy crowds. The place was quieter, almost too calm, like a doctor’s clinic with no chatter.

She picked a simple ‘generic relaxation’ package… nothing fancy, just something basic to test the waters and see how this tech worked without getting too personal. She slipped on the neural headset, a sleek silver band that hugged her temples like a snug cap. In a blink, the real world melted away, and she was standing on a peaceful beach. The water was a bright turquoise, lapping at soft white sand, palm trees swaying lazily in a warm breeze, and the air filled with the gentle shush-shush of waves… like a postcard come to life.

The Memento experience hit her like a full-on movie scene… super immersive, almost too real. Meera could feel the sun warming her skin, smell the salty sea air, and hear seagulls calling out in the distance, faint but clear. She strolled along the virtual beach, the cool sand squishing under her feet. It was nice, no doubt… calm and soothing, like a lazy Sunday afternoon. But something wasn’t right. It was small, hard to pin down, like a wrong note in a perfect filmi song… barely there, but enough to bug her.

As she kept ‘walking,’ she spotted something odd near the horizon…. a faint shimmer in the air, like heat rising off a Mumbai road in summer. She squinted, focusing hard, and it turned into a thin line of code, glowing softly against the bright sky. It flickered for a second and then poof!... gone, like it was never there. Was her mind playing tricks? Or was this some kind of tech glitch?

When she took off the headset, the real world crashed back in… loud, rough, and jarring, like stepping out of an AC mall into peak-hour traffic. Her head started throbbing, just a little at first. She rubbed her temples and mentioned the flickering code to the technician, a lanky guy who helped her unhook the gear. He shrugged, all casual-like. “Probably just a small glitch, ma’am. Happens sometimes with these basic packages. No big deal,” he said, sounding like he couldn’t care less.

But Meera wasn’t convinced. Glitches didn’t look like lines of code floating in the sky… that wasn’t normal. And the headache? It wasn’t just some after-VR fuzziness. It was a steady, nagging pain at the back of her head, right where the headset had sat, like someone was tapping her skull with a tiny hammer. She got home and stood staring at her reflection in the dark window. Her face looked… off. Were her eyes always that exact shade of brown? Were those lines around her mouth new? A cold, sneaky doubt started creeping into her head, making her stomach twist. She told herself it was just the headache, just stress from a long day. But deep down, a small seed of worry had taken root, and it wasn’t going away.

Meera wasn’t about to let Memento off the hook… she went full detective mode. She hunted down other users, poked around in online forums, and even sneaked into Memento fan groups on WhatsApp and Reddit. She picked up bits and pieces… whispers of weird stuff happening inside the VR trips. People talked about glitches, things that didn’t match up, and moments where the memories felt… fake, like someone had tinkered with them. But everyone brushed it off…. saying it was just users messing up, the system acting funky, or folks imagining things after too much late-night daru.

Then she spotted a pattern, like a clue hiding in the chaos. A bunch of users said they’d started forgetting stuff after using Memento for a while. Small things at first… like missing a doctor’s appointment or losing their keys… but it got worse, turning into big blank spots in their lives, as if whole chunks of their past had vanished. These stories were scattered all over, drowned out by the flood of five-star reviews, but Meera saw them clear as day. They were like those tiny shakes you feel before a proper earthquake hits.

Her own headaches wouldn’t quit, and that creepy feeling of not knowing herself kept growing stronger. She caught herself double-checking basic stuff… like her birthdate or what she ate last night…. scrolling through old Instagram and Facebook posts, hunting for something solid to hold onto. It sounded crazy even to her, but that little seed of doubt in her head? It wasn’t just sitting there anymore… it was sprouting roots and creeping into every corner of her mind.

Desperate for answers, she called up an old work buddy, Rohan Kapoor. He used to be a tech reporter like her but had switched to being a cybersecurity pro. Rohan was a sharp guy, a bit grumpy and suspicious of everything, with a knack for seeing the shady side of tech that most people missed. She spilled everything to him… her hunch about Memento, the missing people, the glitches, and the way her own memory was starting to feel like a patchy signal.

Rohan listened hard, his fingers zooming over his datapad, pulling up news articles and tech info like a pro. He was sitting in his messy, gadget-packed flat… wires everywhere, screens glowing… looking like a tech wizard in his zone. “Memento’s neural interface is next-level stuff,” he said finally, leaning back in his chair. “It’s not just peeking at your memories, Meera. It’s messing with them, poking at specific brain wires. Some serious powerful stuff.”

“Too much power?” Meera asked, her eyebrows shooting up. Rohan gave a slow nod, his face dead serious. “Maybe, yeah. Memories aren’t set in stone… they’re soft, bendy, like wet clay. If you can tap into those brain waves and tweak them, you could… rewrite the whole story. Slip in little hints, even cook up brand-new memories from scratch.”

Meera felt a cold shiver crawl down her back, like someone had dropped ice down her kurta. Mind control? It sounded like those wild conspiracy theories aunties whispered about at kitty parties… or straight out of a sci-fi Bollywood flick. But in Mumbai 2050, the line between crazy fiction and real life was getting blurrier every day.

“What about those glitches?” she said, her mind flashing back to that flickering code she’d seen on the virtual beach. “Could they be… on purpose?” Rohan rubbed his chin, thinking hard. “Could be backdoors,” he mused. “Or sneaky messages slipped in…. like ads you don’t even notice. Or something darker. If someone’s using Memento to play puppet master, they’d need a secret way to mess with your head without you catching on.”

“And the missing people?” Meera’s voice dropped to a shaky whisper, barely loud enough to hear over the hum of Rohan’s gadgets. He shrugged, his face turning grim, like a cop delivering bad news. “If you can control someone’s mind, you can control what they do. Make them vanish. Make them do… anything.”

He stopped, his eyes narrowing with worry. “You said you’ve had memory gaps, headaches… Meera, are you sure you’re not… caught up in this?” The question hung there, heavy as a monsoon cloud, full of stuff neither of them wanted to say out loud. Meera froze. She wanted to laugh it off, call it tension or too much coffee. But that nagging doubt was chewing at her, loud and clear.

“I… I don’t know,” she admitted, her voice wobbling like a shaky auto ride. “I’m starting to doubt everything I remember.” Rohan reached over the table and grabbed her hand, his grip strong and steady, like an anchor in a storm. “Then we’ve got to figure this out, Meera. Together.”




Meera and Rohan jumped into their investigation with full josh, no holding back. Rohan, with his cybersecurity tricks up his sleeve, started digging into Memento’s digital guts… hunting for weak spots, secret backdoors, anything that screamed shady business. Meera, leaning on her reporter’s gut and her solid network of contacts, went after the company behind MementoElysium Technologies… ready to unearth its secrets.

Elysium was a mysterious outfit, like one of those sketchy firms you hear about in crime shows. Who owned it? No one could tell…. their setup was murkier than a monsoon puddle. Their CEO was some big-shot recluse, the kind who never showed his face at press meets or fancy events. They’d built a name shouting about innovation and privacy, but Meera and Rohan had a hunch there was something rotten beneath all that shiny PR.

Rohan hit paydirt while poking around Memento’s system. He found hidden encrypted files… super sneaky stuff… tucked away deep inside. These weren’t just for playing back memories; they had algorithms that could twist them, change them up. He even spotted subliminal messages, like those creepy ads that mess with your head without you noticing, baked right into the memory packages to nudge people’s behavior. And then…. bam!... he stumbled on hints of a top-secret project called Project Chimera, the same name Anya Sharma had dropped back at Synapse Dynamics. Talk about a chill down the spine.

The dots were connecting, and it wasn’t pretty. Was Elysium Technologies using Memento to play puppet master with people’s minds, all for some hidden agenda? And Vikram Patel, the big boss of their rival Synapse… was he in on it, or just another pawn who got caught in the mess?

Meera turned her focus to Rohan Verma, the missing city councilor. He’d been a loud voice, always pushing for tougher rules on tech companies, especially the ones messing with brain tech like neural interfaces. Had that made him a target for Elysium? She tracked down his closest aide, Priya, a young woman who’d worked by his side through thick and thin.

Priya was a mess over Verma’s disappearance… her eyes red and puffy, like she’d been crying non-stop. “He was… he was changing,” she told Meera, her voice breaking like a cracked radio signal. “In the weeks before he went missing, he wasn’t himself. He got all… soft, agreeing to stuff he’d never have gone for before, especially about Elysium. And then… he started using Memento! That was so not him, Meera. He used to call it bakwas, a waste of time, something that pulled people away from real problems.”

Meera’s heart started thumping hard, like a dhol at a Ganpati procession. “Did he say anything specific about Memento?” she asked, leaning in close. Priya paused, biting her lip, then gave a slow nod. “Yeah… he said it was showing him a new angle. Making him see how progress and tech could be good, how we should just roll with it. It was freaky… like… like someone had brainwashed him.”

Brainwashed. The word hit Meera like a brick and kept bouncing around in her head. This wasn’t just some small-time tampering… it was full-on, planned-out mind control, and it was working like a charm. She could feel the panic rising, her reporter instincts screaming that something massive was going down.

Her own memory gaps were getting worse, popping up more often and freaking her out big time. She’d be standing in places she knew… like her Bandra office or the local kirana store… and suddenly feel lost, like she’d teleported there with no idea how. Whole chunks of time would just vanish from her mind, leaving her grasping at straws. She’d started keeping a proper paper diary, scribbling down every little thing… her day, her thoughts, her fears… desperate to hold onto something real, something that couldn’t be hacked or messed with.

One night, she jolted awake, drenched in sweat, her heart racing like she’d run a marathon. A memory had hit her hard…. a super-clear scene of sitting with her dad on the veranda of their Nashik house. He’d passed away years ago, but there he was, alive in her head, the air thick with the sweet smell of mango blossoms from the tree outside. He was talking to her, his voice steady and warm, about how truth mattered, how she had to stand up for what’s right, even when it got tough. It felt so real, so heavy with feeling, that tears rolled down her cheeks before she could stop them.

But then… bam!... a tiny doubt crept in, like a glitch in a video call. Had that chat ever happened? Or was it… planted there? A fake memory, slipped into her head to steer her around like a puppet? Her stomach twisted into knots as she scrambled out of bed, digging through her diary and flipping through old photo albums… those faded snaps from Nashik vacations, family picnics, anything. She hunted for proof, some sign of that exact conversation. Nothing. No note, no picture, no matching detail. Just a big, empty hole.

The truth slammed into her like a Mumbai local at rush hour: she was losing herself. Her memories, her whole sense of who she was, were being snatched away, swapped out, rewritten. She was turning into someone’s toy, dancing to a tune she couldn’t even hear.

Meera could feel the clock ticking…. time was slipping away like sand in an hourglass. She had to blow the lid off Elysium and stop them before they turned Mumbai into their personal playground… and before her own mind got completely scrambled. She and Rohan put their heads together and decided to go straight for the big boss, the mysterious CEO of Elysium, Mr. Alistair Vance, who was harder to find than a parking spot in Colaba.

They tracked him to Elysium’s headquarters, a hidden setup on the edge of the city that looked like some boring research lab from the outside… total cover-up vibes. Rohan worked his tech magic, hacking past the security like a pro, and they sneaked inside. The place was all quiet corridors and spotless labs, feeling more like a sci-fi movie set than a real building.

Finally, they found Vance in a huge, shadowy server room, packed with buzzing machines and screens flickering like Diwali lights gone haywire. He was an older guy… sharp jawline, icy blue eyes that could stare through you, and a face that screamed smart but creepy. He turned as they barged in, a small smirk curling his lips, like he’d been waiting for this showdown all along. “Meera Joshi, Rohan Kapoor. I knew you’d show up,” he said, his voice smooth as silk but cold as a sudden ice storm.

“You know us?” Meera asked, her throat tightening with a mix of nerves and suspicion. Vance waved a hand around the room, all casual-like. “Of course I do,” he said. “I know everything. Memento isn’t just some fancy VR toy, you see. It’s a window straight into millions of minds… a tool with serious power.”

“Power to control people’s heads, you mean,” Rohan shot back, his eyes blazing like he was ready to throw a punch. His voice was pure anger, no filter.

Vance let out a soft laugh, the kind that sounded fake, like a villain in a masala movie. “Mind control? That’s such a rough word dear. I like to call it… guided evolution. Look around… society’s a total mess, inefficient, like a Mumbai traffic on steroids. People run on emotions, acting all crazy without thinking. Memento fixes that. We tweak their memories a little, nudge them toward a smoother, more… peaceful future.”

“Peaceful for who?” Meera fired back, her voice climbing like a pressure cooker about to whistle. “For you? For Elysium?” Vance’s eyes turned steely, but he didn’t back down. “For everyone,” he said firmly. “Imagine it, Meera…. no more fights, no more arguments, no more chaos. A perfect setup, all neat and tidy, running on logic and progress.”

“At what cost?” Meera snapped, her anger bubbling over. “You’re tossing out free will, wiping away what makes us us. You’re turning Mumbai into a city of robots dancing to your tune!” Her voice shook, full of rage, like she was ready to take on the world.

Vance just shrugged, cool as a cucumber. “Being different is overrated Meera. It only leads to trouble. Order is what matters… full stop.” He took a step closer, his blue eyes boring into her like lasers. “You’ve tried Memento, haven’t you? Felt that calm, that peace? Why fight it? Why stick to this messy, broken reality when you can have perfect memories, pure bliss?”

Meera stood her ground, her voice steadying as she shot back, “Because reality’s messy for a reason. It’s complicated, sure, but that’s life. Memories… even the tough ones… shape who we are. They’re the roots of our identity, our humanness. You can’t just erase them or rewrite them like some cheap script without breaking us apart.”

Vance’s smirk vanished, replaced by a cold, calculating glare, like a chess player sizing up his next move. “You’re a problem for my plan Meera. A glitch in my perfect system. But don’t worry… every glitch can be fixed.” He waved a hand at a row of screens lighting up the room. Meera’s face popped up on them, her memories flashing by… twisted, pulled apart, played with like a video edit gone wrong. “We know you inside out, Meera Joshi. Every fear, every dream, every weak spot. We can rewrite your head, wipe out your doubts, turn you into someone who… fits.”

A wave of panic crashed over Meera, like she’d been dunked in icy water off Marine Drive. He could erase her… turn her into someone else, a loyal Elysium puppet with no fight left. Her heart raced, but one thing was clear: she had to stop this guy, no matter what.

As Vance started closing in on Meera, his creepy vibe dialed up to eleven, Rohan jumped into action. He unleashed a cyberattack he’d cooked up earlier… a nasty virus aimed straight at Elysium’s main servers. The server room turned into a total madhouse… alarms screeching like a Bandra traffic jam, screens flickering like bad Diwali lights before going pitch black.

Vance let out a roar, pure frustration dripping from his voice, and spun around to face Rohan. Just then, a bunch of security guards charged in, their eyes all glassy and blank, like they were straight out of a sci-fi horror flick… mind-control implants doing their dirty work. Chaos erupted, a full-on brawl breaking out with flashing lights and blaring alarms turning the place into a war zone.

Meera’s brain was in overdrive… she knew this was her do-or-die moment. Out of the corner of her eye, she spotted a terminal hooked up to the Memento network, still half-working despite Rohan’s digital blast. A plan clicked into place. She had to act fast.

Ignoring the madness around her… guards lunging, Rohan dodging… she bolted to the terminal and jammed her datapad into it. Her fingers flew as she pulled up her own Memento memory profile… the map of her mind, her whole life laid out in bits and bytes. But she wasn’t here to just look… she was ready to fight back.

She dove into her memories, not to sit back and watch like some lazy Sunday rerun, but to take charge, to rebuild who she really was. She zeroed in on the big moments that made her Meera… running around as a kid in Nashik, her dad’s late-night life lessons over coffee, her fire for journalism, and that rock-solid belief in truth that kept her going. These weren’t just old stories; they were her armor.

She flipped the script, using Memento’s own tech against it… grabbing control to shore up her real self, to make her will unbreakable. It was a full-on battle in her head, wrestling with fake memories Vance had planted, pushing back against his sneaky whispers trying to twist her into someone else.

The server room had turned into a proper battlefield. Rohan was holding his own, swinging at the guards like a hero in a Bollywood climax, but those mind-controlled goons kept coming, relentless as monsoon rain. Meera, lost deep in her own mind’s maze, felt her strength flicker… the fake doubts Vance had snuck in were clawing back, threatening to drown her in confusion.

Then it hit her… her dad’s words from that veranda chat in Nashik, the one she’d started doubting. Real or fake, it didn’t matter anymore. What it stood for was solid as a rock: the power of truth, the guts to stand tall, the fight for what’s right. That was her fuel, her spark.

With that fire blazing in her chest, Meera unleashed a counter-attack… a massive blast of raw, unfiltered memories straight into the Memento network. She threw in everything: flashes of rebellion, moments of defiance, the battle for freedom. She poured in Mumbai’s soul… its loud, colorful spirit, its wild energy, the way it bounced back no matter what, like a local train that never stops running. She didn’t just aim it at Vance’s system; she sent it roaring out to every Memento user across the city, like a radio signal cranked up to full volume.

The impact was instant, like a thunderclap in a quiet mohalla. All over Mumbai, people yanked off their headsets, eyes popping wide, faces a mix of confusion and shock… like they’d just woken up from a long, weird dream. The sneaky messages and fake ideas Vance had planted? Smashed to bits by this flood of real, untouched memories.

Back in the server room, Vance stumbled backward, his face twisting like he’d bitten into a sour imli. He couldn’t believe it… his perfect little kingdom of control was falling apart, crumbling like a badly made vada pav. The security guards, their mind-control spell snapped, dropped to the floor, dazed and lost, like puppets with their strings cut.

Meera pulled away from the terminal, her breath ragged, her body screaming from exhaustion, but her heart soaring with victory. Rohan staggered over, banged up and bruised from the fight, but still kicking. He flashed her a tired grin, the kind you see after a long day of winning. “It’s done, Meera,” he said, glancing around at the mess…. flickering lights, Vance getting dragged off by the cyber-police who’d finally shown up. “You nailed it. His grip’s gone.”

Mumbai was a total mess… like a movie climax gone off-script. The news of Elysium’s mind-control scam hit the city like a tsunami, sending everyone into a tizzy. Memento Experience Centers got shuttered overnight, their fancy signs switched off. Elysium’s bank accounts were locked tight, and the cops kicked off big-time probes into the missing people and just how deep this manipulation rabbit hole went.

Meera stumbled back to her container office in Bandra, still rattled but standing tall, like a fighter after a tough match. The holographic city outside her window looked different now… brighter, sharper, like the fog had finally lifted. She caught her reflection in the glass, and this time, she knew that face staring back. The confusion, the doubt… it was gone, swapped out for a clear, hard-earned sureness. Her memories might’ve been shaken up, but they were hers again, no question.

The real heartbeat of Mumbai… its loud, lively buzz, its wild, unstoppable energy, it’s never-say-die attitude… rang out louder than any fake memories Elysium could cook up. No illusion could drown out those true echoes. And Meera Joshi, the reporter who’d started doubting her own self, was ready to grab her pen and tell the city’s story. She’d make sure the sound of truth kept blasting through, no matter what.

Mumbai started picking up the pieces, slowly getting back on its feet. The Memento mess sparked a city-wide wake-up call… people were talking tech like never before, arguing over privacy, memories, and what’s even real anymore. The government cracked down hard, tightening rules left, right, and center. Brain-tech gadgets like neural interfaces got put under a microscope, and folks started noticing the sneaky ways their minds could be toyed with… stuff they’d never thought twice about before.

Meera kept at it with Mumbai Mirror 2.0, now a bit of a local hero, the face of fighting back against tech gone too far. She churned out articles left and right… deep dives into the Memento scam, the value of keeping your real memories safe, and the battle to stay in control in a world run by algorithms and data buzzing around like flies at a chaat stall. Her words hit home, making people think twice about what they let into their heads.

She still had the odd memory hiccup… little glitches, like faint echoes of Vance’s dirty tricks…. but they weren’t as bad anymore, fading like a weak signal on an old radio. Whenever that old doubt tried to sneak back in, she’d flash back to that crazy fight in the server room… the rush of taking her mind back, the power she found in her own true stories. That kept her going, solid as a banyan tree.

One evening, she wandered through Bandra’s neon-lit streets, the air thick with jasmine and the tangy whiff of digital spices from roadside carts. Mumbai was still its wild self… a mad mix of old-school vibes and new-age tech, chaos and calm all rolled into one. But now, there was something extra: a sharper awareness, a deeper feel for how precious and fragile memories are, and why they need to be guarded like gold from anyone trying to mess with them. The real pulse of Mumbai… its loud, unbeatable spirit… was safe, at least for now. And Meera Joshi, the one holding those echoes close, would keep listening, writing, remembering, and fighting for the truth, one story at a time.
Futuristic thriller, Memory, entertainment,etc.

Positives: har baar ki tarah ye kahani ka lekhan bhi ati uttam hai, angreji hokar bhi saralta aur pacing najar aati hai. Ham har ek line me vo tension feel kar sakte hai. Phir se great world building. Adirshi bhai ne bahut kamal ka likha.

Negatives : is tarah ki kahani me emotional payoff thoda important mahsus hota hai. Jo ki is yaha pe nahi tha yaa phir itna achhe se mahsoos nahi hua. Kyuki Meera ke liye ye thoda personal victory jaisa hona chaiye tha, jo writer is baar miss kar gaye.

Overall, kuch khamiyo ke baad bhi kahani achhi hai. Aap ise shuru karne par chodonge nahi.
 

Anatole

⏳CLOCKWORK HEART
Prime
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"Kissa-e-Mohabbat"

Lahore ki ek purani gali. Shaam dhal rahi thi, aasman suraj ki naram laali mein rang chuka tha. Hawa mein garam chai aur tandoor ki rotiyon ki khushbu thi. Bachon ki cheekhein, cycle ki ghantiyan aur aas paas ke gharon se aati hansi ki halki-halki awaaz—sab kuch ek ajeeb si raahat de raha tha.

Saad apne doston ke saath ek chhoti si dukan ke bahar bench per baitha tha. Hansi-mazaak ho raha tha, waqt ka koi hisaab nahi tha. Phir achanak, uski nazar ek ladki par pad gayi.

Hania.

Usne pehle kabhi usse gaur se nahi dekha tha. Par aaj jaane kyun, jab woh apni dost ke saath chalti hui aa rahi thi, hasti ja rahi thi—Saad ke dil ne ek ajeeb si tez dhadkan mehsoos ki.

Hania koi aisi ladki nahi thi jo bheed mein sabse alag lage, par phir bhi usmein kuch toh tha jo kisi aur mein nahi tha. Uski hasi… ekdum beparwah, ekdum natural. Jaise koi bina soche samjhe khul kar jee raha ho. Saad usi pal uske jaadu mein kho gaya.

"Dekho bhai, udhar kya chal raha hai?" Imran ne Saad ke saamne haath hila ke uska dhyaan toda.

"Huh?" Saad ne aankhein jhapakne ki koshish ki jaise koi sapna dekh raha ho.

"Tujhe kya ho gaya? Kahin kho gaya tha kya?" Imran ne hansi chhupaate hue poocha.

"K-kuch nahi, bhai… bas aise hi." Saad ne jhooth bola, par andar se jaanta tha ki yeh 'aise hi' nahi tha.

Par tab tak Hania gali ke mod se nikal chuki thi. Saad ke andar ek ajeeb si khalipan aa gayi. Jaise koi zaroori cheez haathon se fisal gayi ho.

Usne ek gehri saans li. Shayad yeh bas ek pal ka asar tha... ya shayad kuch aur. Jo waqt ke saath samajh aayega.


---

Us din ke baad Saad ki ek nayi aadat bann gayi. Har shaam woh ussi dukan ke bahar apne doston ke saath baithta, par asli wajah sirf ek thi—Hania.

Roz shaam ke takreeban 5:30 baje, Hania aur uski dost us gali se guzar kar coaching ke liye jaati thi. Pehle Saad sochta tha ki shayad yeh ek baar ka jazba hai, ek pal ka asar. Par jaise-jaise din beette gaye, uska dil usse aur zyada jodne laga.

Har din jab Hania us gali se guzar rahi hoti, Saad usse door se dekh raha hota. Kabhi uski chhoti-chhoti baatein sunne ki koshish karta—jaise uski hasi, uska kisi baat pe surprise hona, ya phir uska sir jhuka ke chalna jab kisi ladke ki nazar us par padti. Saad ko yeh sab dekhna pasand tha.

Pehle toh uske doston ko shak hua.

"Saad, tu har roz yahan baithta hai ab? Pehle toh sirf kabhi-kabhi aata tha," Imran ne ek din chhedte hue kaha.

Saad ne zyada react nahi kiya. "Bas aise hi, hawa achi chalti hai yahan," usne casually bola, par uske dil ke andar ek ajeeb si ghabrahat thi.

Din beette gaye, aur Saad aur zyada Hania ke khayalon mein doobne laga. Ab toh raaton mein bhi uska chehra uske sapno mein aane laga. Kabhi woh imagine karta ki Hania uske samne khadi muskura rahi hai, kabhi sochta ki shayad ek din woh ruk ke usse baat karegi.

Yeh sapne dekhna uski aadat ban gayi thi, aur yeh aadat usko sukoon deti thi.

Hania ke liye yeh sirf ek aur din hota hoga, ek aur coaching ka safar. Par Saad ke liye yeh uske din ka sabse khoobsurat hissa ban chuka tha.

Aur woh bina kahe, bina kuch jaane, uske aur kareeb hota ja raha tha… apne dil mein.


---

Ramzan khatam ho chuka tha, aur Lahore ki galiyon mein mithaiyon ki khushbu aur mehendi ki mehak fail rahi thi. Magar Saad ke liye yeh Eid thodi alag thi.

Roza shuru hote hi Hania ne coaching jaana band kar diya tha, aur Saad ke din ka sabse khoobsurat hissa jaise gayab ho gaya tha.

Par phir, Eid ka din aaya.

Saad subah namaz padh ke aaya aur apne bistar par let gaya. Eid ka din tha, magar uske andar ek ajeeb si bechaini thi. Tabhi, darwaze par dastak hui.

"Kaun hai?" Saad ne udaasi se poocha.

Koi jawab nahi aaya. Usne darwaza khola, aur saamne jo dekha, usne ek pal ke liye uski duniya rukwa di.

Hania.

Halka sa dhoop ka asar, naye kapde, aur haath mein ek plate. Uski aankhein usual se zyada chamak rahi thi, shayad dhoop ki wajah se ya shayad isliye kyunki aaj Eid thi. Saad bas uska chehra dekhta reh gaya, jaise kisi sapne mein kho gaya ho.

Hania ne ek halka sa smile diya aur plate aage badhayi. "Eid Mubarak," usne dheere se kaha.

Saad ne dheere se plate le li, par uski aankhein ab bhi uske chehre par atki thi. Uska dil zor-zor se dhadak raha tha.

Par achanak jaise uska system crash ho gaya. Bina kuch soche, bina koi jawab diye, woh full speed se andar bhaga.

Jaldi se usne plate se kheer nikal ke apni ghar ki plate mein dali, aur phir plate dhoke saaf kar di. Par phir ek ajeeb si feeling aayi. Khali plate wapas dena ajeeb lagega na?

Usne fridge khola. Ek chhota sa pista ice cream ka pack andar rakha tha. Usne bina soche plate mein dala, aur bahar bhaaga.

Hania ab bhi darwaze ke bahar khadi thi. Jaise hi Saad ne uske haath mein plate di, uske honth halka sa kaanp gaye. "Eid Mubarak," usne dheere se kaha.

Hania ne ek pyaari si muskurahat ke saath jawab diya, "Eid Mubarak," aur phir mud ke chal di.

Saad ab bhi wahi khada tha, stunned. Usne Hania se baat ki thi. Uske labon se shabdon ne raasta kaise dhoondha, usse khud nahi pata.

Lekin uski khushi sirf 3 second tak tik pai.

"SAAAD!!!"

Ek dum se andar se uski behen ki cheekh aayi.

"Meri pista ice cream kisne khaayi?!"

Saad ka chehra ek dum se zard pad gaya.

Usne dheere se mud ke dekha—uski behen full gusse mein kitchen se nikal rahi thi.

Woh turant ek professional criminal ki tarah apne kamre ki taraf bhaaga.

Eid ka din tha, lekin yeh qurbani uske liye mehngi padne waali thi.


---



Eid ka din guzar gaya, magar Saad ke liye us din ka har pal ek sapne ki tarah tha. Hania ka doorstep pe aana, uska pehli baar Saad se baat karna, aur uska woh muskurana—yeh sab Saad ke dimaag se ja hi nahi raha tha.

Sabse ajeeb baat toh yeh thi ke Hania uski padosan nikli. Matlab woh hamesha se paas hi rehti thi, bas alag gali mein. Agar Eid ke din woh plate lekar nahi aati, toh shayad Saad kabhi yeh jaan hi nahi pata.

Aur ab jaise ek naya pagalpan shuru ho gaya tha.

Ab har shaam Saad apni chhat pe jaake khada ho jata. Intezaar karne ka naya tareeqa mil gaya tha. Pehle woh dukan pe baithta tha, par ab chhat se poori gali nazar aati thi.

Aise nahi tha ke Hania usse dekh rahi hoti. Woh toh bas apni duniya mein aage badhti thi, bina kisi ehsaas ke ki koi usse chhat se dekh raha hai. Magar Saad ke liye toh yeh bhi kaafi tha.

Ek ajeeb si aadat ban gayi thi. Ek pagalpan.

Roz shaam ko woh wahan chala aata, aur jab tak Hania aur uski dost us gali se nahi guzarti, tab tak bas hawa mein khoya rehta. Aaj, kal, parso… har din yahi hota.

Waqt ka ehsaas hi nahi hota tha. Ek din ki deewangi poore routine mein badal gayi thi.


Phir ek din, Saad ne socha—agar main chhat se dekh sakta hoon, toh ghar tak kyun nahi ja sakta? Par bas koi bahana chahiye tha.

Aur ussi din, uski ammi ne biryani banayi.

Perfect excuse mil gaya.

"Ammi, woh naye padosi hain na? Hania ka ghar. Main biryani de aata hoon."

Ammi ne bina soche plate uske haath mein di. Saad ka dil ekdum tez dhadak raha tha. Uske dimaag mein sirf ek sawaal ghoom raha tha—Hania darwaza kholegi ya nahi?

Usne darwaza knock kiya. Dil zor zor se dhadak raha tha.

Darwaza khula.

Par saamne Hania nahi, uske abbu khade the.

Saad ke sare sapne ek second mein phisle.

Ek second ke liye freeze ho gaya. "A-a-aas-salamualaikum uncle… Ammi ne biryani bheji hai…"

Uncle ne muskurake plate le li, "Arre shukriya beta, bohot shukriya."

Saad ek dum serious tone mein, "Jee, koi baat nahi, khuda hafiz."

Aur bina ek second waste kiye seedha bhaag liya.

Jaise hi apne ghar pohcha, ek dum relief ki saans li. "Bach gaya!"

Par andar kahin ek ajeeb si feeling thi. Main usse milne gaya tha, par usse toh dekha bhi nahi.

Lekin Saad ab bhi ruka nahi. Chhat pe jaana aur dukan pe baithna uska routine ban gaya tha. Har shaam woh wahan khada rehta, intezaar karta. Sirf ek nazar ka.


---

Us din bhi wahi routine tha. Shaam ka waqt. Saad apni chhat pe khada tha, Hania ke aane ka intezaar kar raha tha.

Par usse nahi pata tha ki aaj uski chori pakdi jaane waali hai.

Peeche se Aiman aayi, dheere se uske kareeb aayi, aur phir ekdum se—

"BOOOHHH!!!"

Saad ne ek dum shock mein chhoti si jump maar di. Haath ek second ke liye hil gaya, jaise pakde jaane ka darr ho.

Phir dheere se ghooma, aur ghussa bhari aankhon se Aiman ko dekha. Par bhai-behen wale pyaar ke saath.

Aiman has rahi thi. "Hahaha! Saad bhai! Yeh kya ho raha hai?"

Saad ne normal dikhane ki koshish ki. "K-kuch nahi. Bas hawa achi chal rahi thi."

Aiman ne aankh mari, "Haan haan, main samajh gayi, hawa nahi… heroine aa rahi hai!"

Saad shock, "K-kya matlab?"

Aiman arms fold karke khadi ho gayi, "Jyada acting mat karo. Tum har shaam yahan kyun khade rehte ho? Jab se Eid pe woh aayi thi na, tab se hawa badal gayi hai."

Saad ne pehle try kiya ignore karne ki, "Aisa kuch nahi hai."

Par Aiman ne uske kandhe pe dhakka diya, "Saad bhai, sach bolo!"

Saad ne haath utha diya, "Theek hai, theek hai! Haan, mujhe pasand hai! Bas ab khush?"

Aiman serious ho gayi. "Toh bata do na usse."

Saad ne sar hila diya, "Nahi, abhi nahi. Abhi toh bas door se dekh raha hoon. Main koi creep nahi banna chahta."

Aiman ne ghoor ke dekha, “Excuse mat banao, tumhe bas rejection ka darr hai, hai na?”

Saad ne uski baat suni… Aur chup raha.

Aiman samajh gayi thi. Usne bas Saad ke baalon me haath pherte hue bola, "Bas apne darr ki wajah se use zyada intezaar mat karwao."

Aur phir woh muskurate hue chali gayi.

Saad wahan khada sochta raha… kya main sach mein sirf darr ki wajah se ruk raha hoon?

Usne neeche gali ki taraf dekha…

Hania chal rahi thi. Jaise hamesha chalti thi.

Par uska intezaar bhi shayad hamesha nahi rahega.

Waqt kisi ka intezaar nahi karta.


---
Chaar mahine guzar gaye.

Saad ab bhi har shaam apni chhat pe jaake khada hota. Hania ko sirf ek nazar dekhne ka routine ab aadat ban chuka tha. Par bas yahi tha—sirf dekhna.

Woh kai baar sochta ki aaj baat karunga, aaj apni feelings bataunga.
Par jab bhi Hania saamne hoti, usse lagta ki zabaan bandh ho gayi hai.

Ek ajeeb si uljhan thi. Woh door se dekh sakta tha, lekin paas jaake kuch keh nahi sakta tha.

Aur dheere dheere waqt beeta raha.

Tab tak jab tak ek naya mod nahi aa gaya.

---

Ek shaam, jab Saad chhat pe tha, uske abbu ne usse awaaz di.

"Saad, zara idhar aa beta."

Saad neeche aaya toh abbu ne usse sofa pe baithne ka ishara kiya. Tone ekdum serious thi.

"Beta, tumhari padhai ab khatam ho chuki hai," abbu ne kaha. "Ab waqt hai aage badhne ka."

Saad ne chup-chaap haan mein sir hila diya.

"Main chahta hoon ki tum Islamabad jao. Wahan mera ek dost hai, ek badi company mein hai. Woh tumhari placement ka try karega."

Islamabad.

Saad ka dimaag ekdum soch mein pad gaya. Yeh toh usne socha hi nahi tha.

"Lekin, abbu…" Saad ne kehna chaha.

Abbu ne uski baat kaat di, "Beta, agar ek behtar zindagi chahiye, toh tumhe kuch banna padega."

Saad chup ho gaya. Kya woh Hania ko bina kuch kahe yahan se chala jaaye?

Phir uske dimaag mein ek soch aayi—
"Agar main financially stable ho gaya, tab main usse propose kar sakta hoon.
Tab main confidently uske saamne khada ho sakta hoon."

Aur isi soch ke saath, usne abbu ki baat maan li.

"Theek hai, abbu. Main jaunga."

Usne faisla kar liya tha.

Islamabad Ki Nayi Duniya

Do din baad, Saad Islamabad pohonch gaya. Uske abbu ke dost ka ghar bada tha, lekin Saad ko wahan paraya lag raha tha.

Yeh sheher naya tha, yeh jagah nayi thi.

Hania yahaan nahi thi.

Agli subah uska interview tha.

"Beta, tension mat lo. Main tumhari tayyari karwa doonga," abbu ke dost ne kaha.

Saad ne raat bhar notes dekhe, questions prepare kiye. Uske dimaag mein ek hi soch thi—yeh job mil gayi toh sab badal jayega.

Ek Nayi Umeed, Ek Naya Darr

Agli subah, interview ka din aaya.

Saad ekdum tayyar tha. Par jab woh company ke office pohoncha, tab tension ka level double ho gaya.

Questions tough the, interviewers serious the.

Par Saad ne poori mehnat ki thi.

Jab interview khatam hua, toh ab intezaar ka waqt tha.

Ek hafte tak Saad email check karta raha. Har raat bas isi soch mein guzar jaati—job mili ya nahi?

Aur phir ek din ek email aayi.

Usne jaldi se open kiya. Dil zor-zor se dhadak raha tha.

"Thank you for applying, but unfortunately..."

Bas.

Uska dimaag blank ho gaya.

Yeh kya hua?

Job nahi mili?

Uske dimaag mein sirf ek chehra aaya—
Hania.

Main uske paas bina kisi job ke kaise ja sakta hoon?

Woh abbu ke dost ke paas gaya. "Uncle, mujhe reject kar diya."

Unhone muskurake uske kandhe pe haath rakha. "Arre beta, ek job nahi mili toh kya? Aur companies hain."

Saad ne ghabrakar dekha, "Lekin main kab tak try karta rahunga?"

Unhone haan mein sir hila diya, "Jab tak success nahi milti."

Aur Mehnat, Aur Intezaar

Saad ne haar nahi maani.

Ek aur interview diya.
Phir ek aur.

Din guzarte gaye. Ek mahina. Phir aadha mahina aur.

Total dedh mahina.

Har din woh wahi sochta—Hania shayad mujhe yaad bhi nahi karti hogi.
Par main bas ek chance chahta hoon.

Aur phir ek din ek email aayi.

Usne bina soche open kiya. Dil phir tez dhadak raha tha.

"Congratulations! You have been selected..."

Saad ne do baar email padhi.
Phir ekdum se cheekh maar di!

Job mil gayi thi!

Salary bhi achhi thi!

Woh itna khush tha ki sabko phone kiya—abbu, ammi, doston ko. Sab khush the.

Uske abbu ke dost ne kaha, "Beta, tumhari joining do hafte baad hai. Tab tak ghar jao, Lahore. Thoda araam kar lo."

Saad ne bina soche maan liya.

Ab toh bas ek kaam reh gaya tha—
Hania ke paas jaane ka.

Lahore Ki Raahon Mein

Saad bus ki window se bahar dekh raha tha.

Par uska dimaag sirf ek chehra dekh raha tha—
Hania.

"Ab toh main usse bata sakta hoon… ab main ready hoon…"

Par uske dil ke kisi kone mein ek ajeeb sa darr tha.

Itna waqt guzar gaya hai… kya woh ab bhi mujhe yaad karti hogi?

Bus tez raftaar se Lahore ki taraf badh rahi thi… aur Saad ka dil sirf ek chehre ki taraf.

Hania.

Usse nahi pata tha ki Lahore pohonchne ke baad kya hoga.

Par ek cheez pakki thi—
Ab aur intezaar nahi.


Saad jab ghar pohoncha, toh har chehra khushi se chamak raha tha.

Ammi ne use gale laga liya, abbu ne uske kandhe pe garv se haath rakha, aur Aiman ne usual tang kheenchte hue kaha,

"Mister naukriwala, ab toh bade aadmi ban gaye ho!"

Saad hansa, par andar kahin aur hi kuch chal raha tha.

Poora din hasi-mazaak mein guzar gaya, lekin jaise hi shaam dhalne lagi, uska dil bechain hone laga.

Shaam ki chai ke baad, jab sab apni baaton mein busy the, Saad bina kisi ko bataye chhat par chala gaya.

Halka sa thanda mausam tha, aasman pe chand dhundhla sa chamak raha tha.

Par Saad ka dhyaan sirf ek jagah tha—
gali ke uss mod pe, jahan se Hania har shaam guzarti thi.

Par aaj Hania nahi aayi.


---

Kahin Kuch Galat Toh Nahi?

Saad ne apne dil ko samjhaya,
"Ho sakta hai busy ho, ya kisi kaam se na gayi ho."

Par agli shaam bhi woh nahi aayi.

Aur phir ek aur shaam.

Ab Saad ka dil tez dhadak raha tha.
Kuch toh gadbad hai.

Usne apne dil ko samjhane ki koshish ki,
"Ho sakta hai coaching chhod di ho… ya koi aur wajah ho…"

Par andar kahin ek ajeeb si bechaini thi.
Ek anjaani si ghabrahat.

Ab tak woh sirf Hania ko door se dekhta tha,
uske aas paas hone se khush ho jata tha,
par ab jaise woh doori aur bhi door hoti ja rahi thi.

Aur yeh usse bardasht nahi ho raha tha.


---

Ek shaam, jab Saad apne kamre mein pada hua tha, tab Aiman chup chaap andar aayi.

Woh usual Aiman nahi lag rahi thi.
Na hasi-mazaak, na nok-jhok.

Bas ek ajeeb si udaasi uske chehre pe thi.

Saad ne uska serious chehra dekhkar mazaak karne ki koshish ki.

"Kya hua? Lagta hai kisi ne tera favourite drama cancel kar diya?"

Par Aiman hansi nahi.
Bas chup rahi.

Uska yeh expression dekhkar Saad ko bhi ajeeb laga.

"Woh… Saad..." Aiman ruk ruk ke bol rahi thi.

Saad ne dekha ki woh kuch kehna chah rahi hai,
par ruk rahi hai.

"Bol na," Saad ne casually kaha, par uski awaaz me bhi ab woh usual halka-pan nahi tha.

Aiman ne ek pal ruk kar dekha,
phir dheere se boli,

"Mat intezaar kar..."

Saad confuse ho gaya.
“Kiska intezaar?”

Aiman ne gud-gud karte gala saaf kiya.
Phir usne woh naam liya jo Saad sunna nahi chahta tha.

“Hania.”

Saad ekdum se seedha baith gaya.
"Matlab?"

Aiman ne aankhein neeche karli.
Jaise kehna nahi chahti ho, par kehna zaroori ho.

"Jab tu Islamabad gaya tha... Hania ka rishta aaya tha."

Saad ki saansein ek pal ke liye ruk gayi.

Aiman ne aage kaha,
"Usne haan keh diya."

Aur jaise hi yeh lafz nikle,
Saad ka poora jism ek dum se thanda pad gaya.

Aiman ki awaaz aayi,
"Uski shaadi ho gayi, Saad… kuch din pehle."


---

Bikharta Hua Dil

Saad ne Aiman ki taraf dekha.

Woh uske chehre pe koi mazaak,
koi halkapan dhoondhne ki koshish kar raha tha.

Par Aiman bilkul serious thi.

“Tu mazaak kar rahi hai na?”
Uski awaaz kanp rahi thi.

Aiman aankhon me aansu le kar boli,
“Kaash mazaak hota, bhai…”

Saad aankhein jhapak bhi nahi paa raha tha.
Uske haath thande pad chuke the.

Aiman ne jaldi se paani ka glass diya.

Saad ne paani shaking hands ke saath piya.

Lekin uska dil ek dum se khaali ho chuka tha.

Ek pal ke liye laga,
woh behosh ho jayega.


---

Lekin Saad ne agle din Hania ke ghar ke paas jaana chaha.
Shayd ek umeed thi ki Aiman jhooth bol rahi ho.

Lekin har jagah sirf ek hi baat sunne ko mili—
Hania sach mein shaadi karke chali gayi thi.

Woh ja chuki thi.
Hamesha ke liye.

Saad ghar lot aaya.
Bilkul khaali mehsoos kar raha tha.

Raat bhar neend nahi aayi.
Har pal bas woh sochta raha,

Agar main ek baar keh deta, toh kya hota?
Ek baar… bas ek baar bol deta… toh shayad yeh kahani kuch aur hoti.

Par ab sab khatam ho chuka tha.

Kuch din tak Saad ghar par raha,
par woh wahi Saad nahi tha jo pehle Islamabad jaane se pehle tha.

Uske andar ek ajeeb si udaasi thi.
Jaise koi cheez andar se marr gayi ho.

Usne kisi se kuch nahi kaha,
na dukh dikhaya,
na gham bayaan kiya.

Bas ek din bag uthaya,
aur bina kisi shor sharabe ke wapas Islamabad chala gaya.


---

Par iss baar,
uska dil uske saath nahi gaya tha.

Woh Lahore mein,
Hania ke saath,
pichle palon mein hi reh gaya tha.

Islamabad pohonch kar,
Saad ne khud ko kaam me daal diya.

Roz overtime.
Roz extra projects.
Bas kaam. Bas kaam.

Log kehte the,
"Saad bohot hardworking ho gaya hai."

Lekin koi nahi jaanta tha ki yeh hard work nahi,
ek insaan ka apne aap se bhaagne ka tareeqa tha.

Ek hi wajah thi—
Hania ko bhoolne ki koshish.

Lekin kitna bhi try karta,
woh har pal uske dimaag me rehti.

Uski hasi,
uski awaaz,
uski woh pehli nazar jo usne gali me dekhi thi...

Sab kuch ab bhi uske dil me zinda tha.

Aur yahi sabse bada dukh tha.

Hania chali gayi thi.
Par Saad ab bhi usi jagah tha.


---
6 saal guzar gaye.

Saad ab Islamabad mein ek achhi naukri kar raha tha.

Zindagi ek seedhi line ki tarah chal rahi thi—
subah office, raat ko ghar,
beech mein kabhi kabhi dost yaar milne aa jate.

Har cheez set lagti thi,
par andar kahin ek khaali jagah thi,
jo kisi se bhar nahi rahi thi.


---

Lekin ek faisla jo zaroori tha

Uski family bohot dino se uspar shaadi ke liye dabaav daal rahi thi.

Aakhir Maa ki ek hi tamanna thi—
apne bete ka ghar basa de.

Pehle Saad hamesha mana kar deta,
har baar koi na koi bahana bana leta.

Par ab Maa ki aankhon ki udaasi dekh nahi paa raha tha.

Woh jaanta tha ki Maa sirf uski khushi chahti thi,
aur is baar usne haar maan li.

"Maa, theek hai. Kar lo meri shaadi."

Maa ki aankhon mein chamak aa gayi.

Bas phir kya tha, rishta dhoondhne ka kaam shuru ho gaya.

Sirf do mahine lage ek acchi ladki milne mein.

Uska naam tha—
Fariha.

Uski tasveer Saad ko bheji gayi.

Ladki khoobsurat thi.
Bohot zyada.
Haseen thi, shayad Hania se bhi zyada.

Par jab Saad ne tasveer dekhi,
toh uske dil mein koi halchal nahi hui.

Koi jazbaat nahi uthe.
Hania wali mehsoos nahi aayi.

Lekin usne haa kar di.

Shaadi ki tayyari shuru ho gayi.

Kuch mahine baad date fix ho gayi.

Beech beech mein Saad ki Fariha se baat bhi hone lagi.

Woh bohot hasi-mazak karne wali thi, ekdum zindadil.
Har baat mein hasi, har baat mein shararat.

Koi bhi ladka hota toh ek pal mein uspar fida ho jata.

Aur shayad Saad bhi ho jaata...
Agar uske dil ka ek hissa ab bhi Hania ke paas nahi hota.


---
Saat din shaadi se pehle Saad Lahore wapas aa gaya.

Ghar mein ek alag hi shor sharaba tha.

Kahin lighting ho rahi thi,
toh kahin mehndi ka design socha ja raha tha.

Aiman toh itni excited thi jaise uski apni shaadi ho rahi ho.

Har roz bazar ka chakkar lagta.
Shaadi ka lehenga, jootiyan, sehra, sab kuch finalize ho raha tha.

Ek din, tayyariyon ke beech,
Saad ek purane raste se guzra.

Wahi gali jahan pehli baar usne Hania ko dekha tha.

Wahi purani dukan jahan woh har roz jaake baithta tha,
sirf ek jhalak paane ke liye.

Saad bina soche wahan jaake baith gaya.

Bench ab bhi waisa hi tha.

Par is baar,
woh kisi ka intezaar nahi kar raha tha.
Sirf apne beete hue waqt ko mehsoos kar raha tha.


Tabhi ek awaaz aayi—

"Saad?"

Saad ne sar uthaya.

Samne ek purani pehchaan khadi thi.

Suman.

Hania ki sabse kareebi dost
jo uske saath coaching jaya karti thi.

Saad hairaan reh gaya.

Suman ne muskurate hue poocha,
"Kahan chale gaye the? Puri gali se gaayab ho gaye the?"

Saad muskuraya,
"Islamabad shift ho gaya tha, wahan job lag gayi thi."

Suman uske paas bench pe baith gayi,
"Suna hai shaadi hone wali hai?"

Saad ne halka sa sar hilaya,
"Haan, ek hafte baad hai."

Suman khush ho gayi,
"Mubarak ho! Sun ke accha laga."

Kuch pal tak dono chup rahe.

Fir achanak Suman ne poocha—
"Par Saad, ek baat bata... ab bhi miss karte ho usse?"

Saad ka dil ekdum se ruk sa gaya.

"K—Kya?"

Suman hansi,
"Matlab Hania ko. Miss karte ho?"

Saad ki aankhein phat gayi.

Suman phir boli,
"Ladkiyan ladkon se zyada hoshiyaar hoti hain. Humme sab pata hota hai ki kaun kab kahan dekh raha hai. Tum samajh rahe ho na?"

Saad ab bhi chup tha.
Woh sachmuch pakda gaya tha.


---

Sach Jo Chhupa Tha

Suman ne zara si hasi ki,
phir ek gehri saans li,
"Saad, Hania bhi tumhara intezaar karti thi."

Ek jhatka laga Saad ko.
"Kya?"

Suman ne sir hilaya,
"Haan. Tumhe lagta tha ki tum bas chupke dekhte rehte the? Tum jo bhi karte the, woh sab usse pata tha."

Saad ekdum sakt ho chuka tha.

Suman boli,
"Jo ladki apni gali chhod kar doosri gali ke kisi ladke ke ghar Eid par kheer dene aaye, bina kisi wajah ke, samajh lo kuch toh tha."

Saad ab soch raha tha.
Haan, yeh toh usne kabhi socha hi nahi.

Suman ne muskurate hue kaha,
"Usse tumhari sharmili aadat bohot pasand thi. Woh kaise tum bas uske chehre ko dekhte rehte the, bina kisi aur jagah nazar daale."

Saad ne nazar jhuka li.

Suman boli,
"Aur haan, woh jaanti thi ki gali ke awara ladkon ko kaun peet ke gaya tha humare liye. Us din usne tumhe pehli baar alag nazar se dekha tha. Us din usne socha tha—yeh ladka kuch alag hai."

Saad ki saanse tez ho gayi.

Woh chhup chhup ke dekhta raha,
par Hania ko sab pata tha?
Aur woh bhi usse chhupke chahti thi?

Ek dum se uske andar regret ka tufaan aaya.

Usne poocha,
"Toh phir usne intezaar kyun nahi kiya?"

Suman ek pal chup rahi,
phir dheere se boli—
"Kisne kaha tha ki kare? Tumne kabhi kaha?"

Saad ekdum chup ho gaya.
Haan.
Usne kabhi nahi kaha.

Suman ki baat Saad ke dil me teer ki tarah chubh gayi.

"Kisne kaha tha ki woh intezaar kare? Tumne kabhi kaha?"

Yeh lafz uske dimaag me baar-baar goonj rahe the.
Uska har wo pal yaad aa raha tha
jab woh bas door se dekhne me khush tha.

Par Hania bhi usse chhupkar chahti thi.
Usse pata tha ke Saad usse dekh raha hai.
Usse Saad ki woh sharmili aadat pasand thi.

Woh bhi chahti thi ke Saad kuch kahe.
Par Saad kabhi nahi keh saka.

Aur ab, sab kuch khatam ho chuka tha.

Suman ne apne purse se ek chhoti si parchi nikaali.

"Yeh uska ek paigham hai tumhare liye."

Aur yeh kehkar Suman uth gayi.

Saad ne woh parchi haathon me li, Parchi ke saath ek khat bhi tha. Saad ne pehle parchi haatho me pakad li. uski ungliyan kanp rahi thi.

Dheere se kholi.

Bas ek line likhi thi—

"Biryani bohot achi bani thi, yummy."

Saad ek pal ke liye shock me raha.
Fir dheere se hasi aa gayi.

Us din jo biryani usne diye thi,
woh Hania ne sachmuch khaayi thi.

Par andar se ek dard ka samundar phat gaya.
Kaash. Kaash main ne keh diya hota.
Kaash main ek baar keh deta.

Par ab yeh sirf "kaash" reh gaya tha.

Parchi ke neeche khat me ek aur line likhi thi—

"Zindagi kisi ke liye nahi rukti. Tumhare liye bhi nahi rukegi.
Bas ek faisla tumhara hai—tum guzre hue waqt me jeena chahte ho
ya naye sapno ke saath aage badhna chahte ho?
Kyun ke main to aage badh gayi hoon aur tumhare liye bhi yehi chahti hoon."

"Shaadi Mubarak."

Saad ne ek gehri saans li.
Usne parchi moothi me band ki,
ek baar pichle waqt ko yaad kiya,
aur phir uth gaya.

Aage badhne ke liye.

Par ek hissa hamesha ussi dukan ke samne rahega...
jahan Saad aur Hania, kisi zamaane me,
ek doosre ko chhup chhup ke dekha karte the.


"The End"​
SARAL AUR Vastavikta se bhara PYAAR.

Positives: kahani asli duniya se hai ye pahle kshan se hi hame dikhayi deta hai. Aapko ek feel good feeling deti hai. Thoda bura bhi mahsoos karati hai. Spelling mistakes naa ke barabar hai.

Negatives: is kahani me kuch sangharsh hona chahiye tha. Kahani ka jo mudda hai usme vajan najar aata. Udaharan ke taur par jab use Hania ki shadi ke bare me pata chala to saadne easily is baat ko maan liya, jis vajah se vo khat ka mahatva kam ho gaya. Yaato us khat me Hania ki baaju achhe se likhi honi chaiye thi.

Negatives points bada dekhkar ye mat samjhna zamam ki mujhe pasand nahi aayi. Kahani achhi hai bass usme maine suggestion ke taur pe kuch chije batai hai.
 

Raj_sharma

यतो धर्मस्ततो जयः ||❣️
Supreme
25,510
62,317
304
बंदिश
writer
: Adirshi

Kahani me ek aur jaha amit aur varsha ek doosre se pyar karte hain, wahi doosri aur varsha ki shadi vivek namak aadmi se ho jaati hai, jo ki varsha ko bohot chahta hai, aur varsha bhi apne patni dharm ka palan karte hue, uska sath nibhaane ka poore tan mann se koshis karti hai, ab jab 2-3 saal nikal jaate hain, aur kuch na banta dekh amit dhokhe se varsha ko paane ke liye Vivek ka khoon kar deta hai, aur lash ko apne hi garden me chupa deta hai:verysad: Udar varsha in sabse anjaan thi, bwchaari 5 year tak intzaar karti rahi,
Well story ki theme, uska plot aur writing ✍️ teeno hi kaafi achi hain
Awesome 👌🏻 Adirshi bhai :applause::applause::applause:
 

THE ACRONYM

MENS ARE BRAVE
Supreme
210
2,980
124
Khamosh Ishq
(Mujhe pyaar hua tha.
Mrxr
सबसे पहले आप को शुभकामनाएं कहानी के लिए।
Lets review this

कहानी के ज्यादातर शब्द उर्दू के है।
कहानी में ज्यादातर तवज्जो आपसी बातों में दि गई है
गहराई न होने और ज्यादा पत्रों के चलते एक अधूरापनसा लगता है।

कहानी इंग्लिश के fonts में लिखी पर कुछ शब्दो की spelling गलत होती है।

कहानी की समाप्ति और अच्छे ढंग से की जा सकती थी, समापन थोड़ा छोटा लगा मुझे और थोड़ा फीका भी लगा ।

सना का character अच्छा लिखा आपने।

Word building पर ज्यादा ध्यान अगर दिया होता और कैरेक्टर (character) कम होते तोह एक बहुत अच्छी कहानी बन सकती थी।

पर कहानी 70 % complete होती है तब तक बहुत अच्छी तरह पकड़ के रखती है। उसके बाद थोड़ा सी पकड़ ढीली हो जाती है ।

One time read story
Rating 4.5/10

Mrxr mrxr it's a good story, don't pay too much attention to my harsh words i am not a professional but as a reader i felt it so i wrote about it
 

Samar_Singh

Conspiracy Theorist
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Story : A Train to Nowhere
Writer : Euphoria

An interesting psychological horror story based on time loop, somewhat like dark room horror, although it is somewhat different and better than that.

At the beginning of the story, it seems like a clichéd train horror, but the writer has made it different by adding time loop and old memories in it. The story is not character based but event based, so the character has not been explored much.

The words and metaphors used in it are excellent, and the narration is great, whether it is the metaphor for the train or to show the atmosphere and Anika's situation.

However, the horror may seem a little less. The end of the story may seem incomplete, but it was an open ending, as the name of the story suggests, Anika has become a part of a never ending journey.

Although story has potential to be in long form and explore the memories and life of Anika.

Overall a great story, I don't see any particular flaw in it. Worth to read definitely.

Rating - 8/10
 
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Samar_Singh

Conspiracy Theorist
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कहानी : चंदगी राम पहलवान
लेखिका : Shetan


पहलवान चंदगी राम कालीरमन के जीवन पर आधारित बायोग्राफी फिक्शन, एक नया जॉनर USC में इंट्रोड्यूस करने के लिए शुक्रिया।
हॉरर, रोमांस, कॉमेडी के बाद बायोग्राफी फिक्शन में भी कमाल कर दिया 😌
USC के लिए कहानी की थीम नई है, और कहानी बहुत सीधी सरल भी थी।

चंदगी और उसकी भाभी के बीच का रिश्ता बहुत खूबसूरती से पेश किया, एक मां बेटे के जैसा। साथ ही हरियाणवी का जो जबरदस्त रंग कहानी में बिखेरा है, उसने कहानी और और यथार्थ के करीब ला दिया। खड़ी बोली में ये कहानी उतनी असली ना लगती जितनी हरियाणवी में नज़र आती है।

कहानी में कुछ जगह पर लेखन की त्रुटियों के अलावा कोई कमी नहीं है।

यकीनन ये कहानी जीतने के काबिल है।

9/10
 
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Kamal7397

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चंदगी राम पहलवान
दोस्तों ये कहानी वास्तविक है. पर काल्पनिक और नाटकीय रूप से दर्शा रही हु.


पानी से भरे दो घड़े सर पर और एक बगल मे लिए बिना तेज़ी से चलने की कोसिस कर रही थी. और पीछे पीछे उसका 17 साल का देवर चंदगी आलस करते हुए तेज़ी से चलने की कोसिस कर रहा था. मगर वो इतनी तेज़ चलना नहीं चाहता था. रोनी सूरत बनाए अपनी भाभी से शिकायत करने लगा.


चंदगी : भाबी इतना तेज़ किकन(कैसे) चलूँगा.


बिना : बावडे थारे भाई ने खेताम(खेत मे) जाणो(जाना) है. जल्दी कर ले.


बिना का सामना रास्ते मे तहजीब दार मनचलो से हो गया.


बग्गा राम चौधरी : रे यों किस की भउ(बहु) हे रे.


सेवा राम : अरे यों. यों तो अपने चंदगी पहलवान की भाबी(भाभी) है.


अपने देवर की बेजती सुनकर बिना का मनो खून जल गया. वो रुक गई. साड़ी और घूँघट किए हुए. ब्लाउज की जगह फुल बाई का शर्ट पहना हुआ. वो उन मंचलो की बात सुनकर रुक गई. और तुरंत ही पलटी.


बिना : के कहे है चौधरी.


सेवा राम : (तेवर) मेन के कहा. तू चंदगी पहलवान की भाबी ना से???


बिना : इतना घमंड अच्छा कोन्या चौधरी.


बग्गा राम : रे जाने दे रे. चंदगी पहलवान की भाबी बुरा मान गी.


बिना को बार बार पहलवान शब्द सुनकर बहोत गुस्सा आ रहा था.


बिना : ईब ते चौधरी. मारा चंदगी पहलवान जरूर बनेगा.


बिना की बात सुनकर बग्गा और सेवा दोनों हसने लगे.


सेवा राम : के कहे हे. चंदगी ने पहलवान बणाओगी(बनाएगी). जे चंदगी पहलवान बण गया. ते मै मारी पगड़ी थारे कदमा मे धर दूंगा.


बिना : चाल चंदगी.


बिना चंदगी को लेकर अपने घर आ गई. चंदगी राम का जन्म 9 नवम्बर 1937 हरियाणा हिसार मे हुआ था. वो बहोत छोटे थे. तब ही उनके पिता माडूराम और माता सवानी देवी का इंतकाल हो गया था. माता पिता ना होने के कारन सारी जिम्मेदारी बड़ा भाई केतराम पर आ गई. भाई केतराम और भाभी बिना ने चंदगी राम जी को माता और पिता का प्यार दिया. उनका पालन पोषण किया.
अपनी दो संतान होने के बावजूद बिना ने चंदगी राम जी को ही पहेली संतान माना.

केतराम और बिना के दो संतान थे. उस वक्त बेटा सतेंदर सिर्फ 2 साल का था. और बेटी पिंकी 5 साल की थी. बिना ने चंदगी राम जी को जब पागलवान बनाने का बीड़ा उठाया. उस वक्त चंदगी राम 17 साल के थे. मतलब की पहलवानी की शारुरत करने के लिए ज्यादा वक्त बीत चूका था. पहलवानी शुरू करने की सही उम्र 10 से 12 साल की ही सही मानी जाती है. पर बिना ने तो चंदगी राम को पहलवान बनाने की ठान ही ली थी. जब की चंदगी राम पढ़ाई मे तो अच्छे थे.

मगर शरीर से बहोत ही दुबले पतले. इतने ज्यादा दुबले पतले की 20 से 30 किलो का वजन उठाने मे भी असमर्थ थे. अक्सर लोग चन्दगीराम जी का मज़ाक उड़ाते रहते. कोई पहलवान कहता तो कोई कुछ और. मगर चन्दगीराम उनकी बातो पर ध्यान नहीं देते. वो पढ़ाई भी ठीक ठाक ही कर लेते. उस दिन बिना घर आई और घड़े रख कर बैठ गई. गुस्से मे वो बहोत कुछ बड़ बड़ा रही थी.


बिना : (गुस्सा) बेरा ना(पता नहीं) के समझ राख्या(रखा) है.


केतराम समझ गया की पत्नी देवी की किसी से कढ़ाई हो गई.


केतराम : री भगवान के हो गया. आज रोटी ना बणाओगी के.


बिना एकदम से भिन्ना कर बोली.


बिना : (गुस्सा) एक दिन रोटी न्या खाई ते थारी भैंस दूध ना देगी के. आज कोन्या रोटी मिलती.
(एक दिन रोटी नहीं खाई तो तुम्हारी भैंस दूध नहीं देगी क्या. आज कोई रोटी नहीं मिलेगी.)


केतराम बिना कुछ बोले अपना गमछा लिया और बहार चल दिया. वो जानता था की उसकी पत्नी खेतो मे खुद रोटी देने आ ही जाएगी. वो खेतो की तरफ रवाना हो गया. केतराम के जाने के बाद बिना ने चंदगी राम की तरफ देखा. जो अपनी भतीजी को पढ़ा रहा था. पर वक्त जाते उसका दिमाग़ ठंडा हुआ. वो सोच मे पड़ गई की मेने दावा तो ठोक दिया. मगर चंदगी राम पहलवान बनेगा कैसे. वो एक बाजरे की बोरी तो उठा नहीं पता. पहलवानी कैसे होंगी. बिना का दिल टूट गया.

पर बाद मे खयाल आया की इन सब मे पति को तो बिना रोटी दिए ही खेतो मे भेज दिया. बिना ने रोटी सब्जी बनाई और खाना लेकर पहोच गई खेतो मे. दोनों ही एक पेड़ की छाव मे बैठ गए. और केतराम रोटी खाते ये महसूस करता है की अब उसकी बीवी का मूड कुछ शांत है. पर कही खोई हुई है.


केतराम : री के सोचे है भगवान? (क्या सोच रही हो भगवान?)


बिना : (सोच कर) अममम.. मै न्यू सोचु हु. क्यों ना अपने चंदगी ने पहलवान बणावे(बनाए).


केतराम : बावणी होंगी से के. (पागल हो गई है क्या.) अपणे चंदगी के बस की कोनी. (अपने चंदगी के बस की नहीं है.)


बिना कुछ बोली नहीं. बस अपने पति को रोटी खिलाकर घर आ गई. पर अपने देवर को पहलवान बनाने का उसके दिमाग़ पर जो भुत चढ़ा था. वो उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था. जब वो घर आई तब उसने देखा की उसका देवर चंदगी एक कटोरी दूध मे रोटी डुबो डुबो कर रोटी खा रहा है. चंदगी राम हमेसा डेढ़ रोटी कभी दूध या दही से खा लेता. बस उसकी इतनी ही डाइट थी.


बिना : घ्यो ल्याऊ के? (घी लाऊ क्या?)


चंदगी ने सिर्फ ना मे सर हिलाया.


बिना : न्यू सुखी रोटी खाओगा. ते पागलवान कित बणोगा. (ऐसे सुखी रोटी खाएगा तो पहलवान कैसे बनेगा)


चंदगी ने अपना मुँह सिकोड़ा.


चंदगी : अमम.. मेरे बस की कोन्या. मे करू कोनी (मेरे बस की नहीं है. मै नहीं करूँगा.)


बिना चंदगी पर गुस्सा हो गई.


बिना : बावणा हो गयो से के. मारी नाक कटाओगा. तू भूल लिया. मेने बग्गा ते के कही.
(पागल हो गया है. मेरी नाक कटवाएगा. तू भूल गया मेने बग्गा से क्या कहा)


चंदगी राम कुछ नहीं बोला. मतलब साफ था. वो पहलवानी नहीं करना चाहता था. बिना वही तखत पर बैठ गई. उसकी आँखों मे अंशू आ गए. बिना ससुराल मे पहेली बार अपने सास ससुर के मरने पर रोइ थी. उसके बाद जब चंदगी ने अपना फेशला सुना दिया की वो पहलवानी नहीं करेगा. कुछ देर तो चंदगी इधर उधर देखता रहा. पर एक बार जब नजर उठी और अपनी भाभी की आँखों मे अंशू देखे तो वो भी भावुक हो गया.

वो खड़ा हुआ और तुरंत अपनी भाभी के पास पहोच गया. चंदगी बहोत छोटा था जब उनके माँ बाप का इंतकाल हो गया. उसके लिए तो भाई भाभी ही माँ बाप थे. माँ जैसी भाभी की आँखों मे चंदगी अंशू नहीं देख पाया.


चंदगी : भाबी तू रोण कित लग गी. (तू रोने क्यों लगी है.) अच्छा तू बोलेगी मै वाई करूँगा.


चंदगी ने बड़े प्यार से अपनी भाभी का चहेरा थमा. और उनकी आँखों मे देखने लगा. अपने हाथो से भाभी के अंशू पोछे. बिना ने तुरंत ही चंदगी का हाथ अपने सर पर रख दिया.


बिना : फेर खा कसम. मै जो बोलूंगी तू वाई करोगा.


चंदगी : हा भाभी तेरी कसम. तू बोलेगी मै वाई करूँगा.


बिना की ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा. चंदगी को कोनसा पहलवान बन ना था. वो तो बस वही कर रहा था. जो उसकी भाभी चाहती थी. बिना उस पल तो मुस्कुरा उठी. पर समस्या तो ये थी की अपने देवर को पहलवान बनाए कैसे. उसी दिन घर का काम करते सबसे पहला आईडिया आया. जब वो पोचा लगा रही थी. उसे महेसूद हुआ की जब वो पोचा लगाती उसकी कलाई और हाथो के पंजे थोडा दर्द करते. बिना ने तुरंत चादगी को आवाज दि.


बिना : रे चंदगी.... इत आइये. (इधर आना)


चंदगी तुरंत अपनी भाभी के पास पहोच गया. बिना ने लोहे की बाल्टी से गिला पोचा चंदगी को पकड़ाया.


बिना : निचोड़ या ने.


चंदगी मे ताकत कम थी. पर पोचा तो वो निचोड़ ही सकता था. उसने ठीक से नहीं पर निचोड़ दिया. और अपनी भाभी के हाथो मे वो पोचा दे दिया. भाभी ने फिर उसे भिगोया.


बिना : ले निचोड़.


चंदगी को कुछ समझ नहीं आया. वो हैरानी से अपनी भाभी के चहेरे को देखने लगा.


बिना : ले... के देखे है. (क्या देख रहा है.)


चादगी कुछ बोला नहीं. बस बिना के हाथो से वो पोचा लिया. और निचोड़ दिया. बिना ने फिर उसी पोचे को पानी मे डुबोया. जिस से चंदगी परेशान हो गया.


चंदगी : भाबी तू के करें है.


बिना : ससससस... तन मेरी कसम है. मै बोलूंगी तू वाई करोगा. इसने भिगो और निचोड़.


चंदगी वही करता रहा. जो उसकी भाभी चाहती थी. बिना उसे छोड़ कर अपने घर से बहार निकल गई. उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था. उसे पता था की इस से क्या होगा. तक़रीबन एक घंटा बिना ने चंदगी से पोचा निचोड़वाया. शाम होने से पहले जब केतराम नहीं आया. बिना ने कई सारी सूत की बोरी ढूंढी. और सब को एक पानी की बाल्टी मे भिगो दिया. पहले दिन के लिए उसने कुछ पांच ही बोरिया भिगोई. बिना ने केतराम को कुछ नहीं बताया. बस सुबह 4 बजे उसने घोड़े बेच कर सोए चंदगी को उठा दिया.


बिना : चंदगी... चंदगी...


चंदगी : (नींद मे, सॉक) हा हा हा के होया???


बिना : चाल खड्या(खड़ा) होजा.


चंदगी को नींद से पहेली बार ही किसी ने जगाया. वरना तो वो पूरी नींद लेकर खुद ही सुबह उठ जाया करता. लेकिन एक ही बार बोलने पर चंदगी खड़ा हो गया. और आंखे मलते बहार आ गया.


चंदगी : के होया भाबी? इतनी रात ने जाग दे दीं.(क्या हुआ भाभी? इतनी रात को जगा दिया)


बिना : रात ना री. ईब ते भोर हो ली. तन पहलवान बणना से के ना. जा भजण जा. अपणे खेता तक भज के जाइये.
(रात नहीं रही. सुबह हो चुकी है. तुझे पहलवान बन ना है या नहीं. रनिंग करने जा. अपने खेतो तक रनिंग कर के आ.)


चंदगी का मन नहीं था. पर उसे ये याद था की उसने अपनी भाभी की कसम खाई है. वो रनिंग करने चले गया. पहले तो अँधेरे से उसे डर लगने लगा. पर बाद मे उसने देखा की गांव मे कई लोग सुबह जल्दी उठ चुके है. वो मरी मरी हालत से थोडा थोडा दौड़ता. थक जाता तो पैदल चलने लगता. वो ईमानदारी से जैसे तैसे अपने खेतो तक पहोंचा. उसने देखा की गांव के कई बच्चे सुबह सुबह रनिंग करने जाते थे. वो जब वापस लौटा तो उसे एक बाल्टी पानी से भरी हुई मिली. जिसमे बोरिया भिगोई हुई है. बिना भी वही खड़ी मिली.


बिना : चाल निचोड़ या ने.


थोडा बहोत ही सही. पर रनिंग कर के चंदगी थक गया था. रोने जैसी सूरत बनाए चंदगी आगे बढ़ा. और बोरियो को निचोड़ने लगा. चंदगी के शरीर ने पहेली बार महेनत की थी. उस दिन से चंदगी की भूख बढ़ने लगी. बिना चंदगी से महेनत करवा रही थी. पर उसकी नजर सात गांव के बिच होने वाले दिवाली के मेले पर थी. जिसमे एक कुस्ती की प्रतियोगिता होती. जितने वाले को पुरे 101 रूपय का इनाम था. उस वक्त 100 रुपया बड़ी राशि थी. बिना के पास चंदगी को तैयार करने के लिए मात्र 7 महीने का वक्त था.

चंदगी महेनत नहीं करना चाहता था. पर उसने अपनी भाभी की बात कभी टाली नहीं. सिर्फ एक हफ्ते तक यही होता रहा. बिना सुबह चार बजे चंदगी को उठा देती. चंदगी मन मार कर रनिंग करने चले जाता. और आकर बाल्टी मे भीगी हुई बोरियो को निचोड़ने लगा. नतीजा यह हुआ की रनिंग करते चंदगी जो बिच बिच मे पैदल चल रहा था. वो कम हुआ. और भागना ज्यादा हुआ. एक हफ्ते बाद वो 5 बोरिया 10 हो गई. गीली पानी मे भोगोई हुई बोरियो को निचोड़ते चंदगी के बाजुओं मे ताकत आने लगी. जहा चंदगी ढीला ढाला रहता था.

वो एक्टिवेट रहने लगा. चंदगी की भूख बढ़ने लगी. उसे घी से चुपड़ी रोटियां पसंद नहीं थी. पर भाभी ने उस से बिना पूछे ही नहीं. बस घी से चुपड़ी रोटियां चंदगी की थाली मे रखना शुरू कर दिया. जहा वो डेढ़ रोटियां खाया करता था. वो 7 के आस पास पहोचने लगी. जिसे केतराम ने रात का भोजन करते वक्त महसूस किया. रात घर के आंगन मे बिना चूले पर बैठी गरमा गरम रोटियां सेक रही थी. पहेली बार दोनों भाइयो की थाली एक साथ लगी. दोनों भाइयो की थाली मे चने की गरमा गरम दाल थी.

पहले तो केतराम को ये अजीब लगा की उसका भाई घर के बड़े जिम्मेदार मर्दो के जैसे उसजे साथ खाना खाने बैठा. क्यों की चंदगी हमेशा उसके दोनों बच्चों के साथ खाना खाया करता था. बस एक कटोरी मीठा दूध और डेढ़ रोटी. मगर अब उसका छोटा भाई उसके बराबर था.
केतराम मन ही मन बड़ा ही खुश हो रहा था. पर उसने अपनी ख़ुशी जाहिर नहीं की. दूसरी ख़ुशी उसे तब हुई जब चंदगी की थाली मे बिना ने तीसरी रोटी रखी. और चंदगी ने ना नहीं की. झट से रोटी ली.

और दाल के साथ खाने लगा. केतराम ने अपने भाई की रोटियां गिनती नहीं की. सोचा कही खुदकी नजर ना लग जाए. पर खाना खाते एक ख़ुशी और हुई. जब बिना ने चंदगी से पूछा.


बिना : चंदगी बेटा घी दू के??


चंदगी ने मना नहीं किया. और थाली आगे बढ़ा दीं. वो पहले घी नहीं खाया करता था. रात सोते केतराम से रहा नहीं गया. और बिना से कुछ पूछ ही लिया.


केतराम : री मन्ने लगे है. अपणे चंदगी की खुराक बढ़ गी.
(मुजे लग रहा है. अपने चंदगी की डायट बढ़ गई.)



केतराम पूछ रहा था. या बता रहा था. पर बिना ने अपने पति को झाड दिया.


बिना : हे... नजर ना लगा. खाण(खाने) दे मार बेट्टा(बेटा) ने.


केतराम को खुशियों के झटके पे झटके मिल रहे थे. उसकी बीवी उसके छोटे भाई को अपने बेटे के जैसे प्यार कर रही थी. वो कुछ बोला नहीं. बस लेटे लेटे मुस्कुराने लगा.


बिना : ए जी. मै के कहु हु??


केतराम : हा..???


बिना : एक भैंस के दूध ते काम ना चलेगा. अपण(अपने) एक भैंस और ले ल्या??


केतराम : पिसे(पैसे) का ते ल्याऊ(लाऊ)???


बिना : बेच दे ने एक किल्ला.


केतराम यह सुनकर हैरान था. क्यों की परिवार का कैसा भी काम हो. औरत एड़ी चोटी का जोर लगा देती है. पर कभी जमीन बिक्री नहीं होने देती. हफ्ते भर से ज्यादा हो चूका था. लेटे लेटे वो भी अपने भाई को सुबह जल्दी उठते देख रहा था. दूसरे दिन ही केतराम ने अपने 20 किल्ले जमीन मे से एक किला बेच दिया. और भैंस खरीद लाया. अब घी दूध की घर मे कमी नहीं रही.

चंदगी राम को धीरे धीरे महेनत करने मे मझा आने लगा. वो खुद ही धीरे धीरे अपनी रनिंग कैपेसिटी बढ़ा रहा था. स्कूल मे सीखी पी.टी करने लगा. दूसरे लड़को को भी वो रनिंग करते देखता था. साथ वो लड़के जो एक्सरसाइज करते थे. देख देख कर वही एक्सरसाइज वो भी करने लगा. पर वो अकेला खेतो मे रनिंग कर रहा था. वो घर से खेतो तक भाग कर जाता. और अपने जोते हुए खेत मे अलग से रनिंग करता.

वहां अकेला एक्सरसाइज करता दंड करता. और घर आता तब उसकी भाभी जो बाल्टी मे बोरिया भिगो दिया करती थी. उन्हें कश के निचोड़ने लगा. इसी बिच बिना ने अपने कान की बलिया बेच दीं. और उन पेसो से वो चंदगी के लिए बादाम और बाकि सूखे मेवे खरीद लाई. उसने ये केतराम को भी नहीं बताया. ये सब करते 6 महीने गुजर चुके थे. चंदगी के शरीर मे जान आ गई. वो बोरी को इस तरह निचोड़ रहा था की बोरिया फट जाया करती. बोरिया भी वो 50, 50 निचोड़ कर फाड़ रहा था. पर बड़ी समस्या आन पड़ी.

मेले को एक महीना बचा था. और अब तक चंदगी को लड़ना नहीं आया था. रात सोते बिना ने अपने पति से चादगी के लिए सिफारिश की.


बिना : ए जी सुणो हो?? (ए जी सुनते हो?)


केतराम : हा बोल के बात हो ली??


बिना : अपणे चंदगी णे किसी अखाड़ेम भेज्यो णे. (अपने चादगी को किसी अखाड़े मे भेजो ना?)


केत राम : ठीक से. मै पहलवान जी से बात करूँगा.


बिना को याद आया के जिस पहलवान की केतराम बात कर रहे है. वो सेवाराम के पिता है.


बिना : ना ना. कोई दूसरेन देख्यो. (किसी दूसरे को देखो.) कोई ओर गाम मे? अपणा चंदगी देखणा मेणाम(मेले मे) दंगल जीत्तेगा.


केतराम : बावड़ी होंगी से के तू. मेणान एक मिहना बचया से.
(पागल हो गई है तू. मेले को एक महीना बचा है.)


बिना : ब्याह ते पेले तो तम भी कुस्ती लढया करते. तम ना सीखा सको के?
(शादी से पहले तो आप भी कुस्ती लड़ा करते थे. क्या आप नहीं सीखा सकते?)


केतराम : मन तो मेरा बाबा सिखाओता. सीखाण की मेरे बस की कोनी. (मुजे तो मेरे पिता सिखाया करते. सीखाना मेरे बस की नहीं है)


बिना : पन कोशिश तो कर ल्यो ने.


केतराम सोच मे पड़ गया. बिना उमीदो से अपने पति के चहेरे को देखती रही.


केतराम : ठीक से. सांज ने भेज दिए खेताम. (ठीक है. साम को भेज देना खेतो मे.)


बिना के ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. दिनचर्या ऐसे ही बीती. चंदगी का सुबह दौड़ना, एक्सरसाइज करना, और अपने भाभी के हाथो से भिगोई हुई बोरियो को निचोड़ निचोड़ कर फाड़ देना. बिना ने चंदगी को शाम होते अपने खेतो मे भेज दिया. केतराम ने माटी को पूज कर अखाडा तैयार किया हुआ था. उसने उसे सबसे पहले लंगोट बांधना सिखाया. लंगोट के नियम समझाए. और दाव पेज सीखना शुरू किया. केतराम ने एक चीज नोट की.

चंदगी राम की पकड़ बहोत जबरदस्त मजबूत है. उसकी इतनी ज्यादा पकड़ मजबूत थी की केतराम का छुड़ाना मुश्किल हो जाता था. बहोत ज्यादा तो नहीं पर चंदगी राम काफ़ी कुछ सिख गया था. बचा हुआ एक महीना और गुजर गया. और दिवाली का दिन आ गया. सुबह सुबह बिना तैयार हो गई. और चंदगी राम को भी तैयार कर दिया. पर केतराम तैयार नहीं हुआ. दरसल उसे बेजती का डर लग रहा था. उसकी नजरों मे चंदगी राम फिलहाल दंगल के लिए तैयार नहीं था.

वही चंदगी को भी डर लग रहा था. वो अपने भाई से सीखते सिर्फ उसी से लढा था. जिसे वो सब सामान्य लग रहा था. लेकिन अशली दंगल मे लड़ना. ये सोच कर चंदगी को बड़ा ही अजीब लग रहा था. बिना अपने पति के सामने आकर खड़ी हो गई.


बिना : के बात हो ली. मेणाम ना चलो हो के?? (क्या बात हो गई. मेले मे नहीं चल रहे हो क्या?)


केतराम : मन्ने लगे है बिना... अपणा चंदगी तियार कोनी. (मुजे लग रहा है बिना फिलहाल अपना चंदगी तैयार नहीं है)


बिना जोश मे आ गई. ना जाने क्यों उसे ऐसा महसूस हो रहा था की आज चंदगी सब को चौका देगा.


बिना : धरती फाट जागी. जीब मारा चंदगी लढेगा. (धरती फट जाएगी. जब मेरा चंदगी लढेगा.) चुप चाप चल लो. बइयर दंगल मा कोनी जावे. (चुप चाप चल लो. औरते दंगल मे नहीं जाती.)


केतराम जाना नहीं चाहता था. वो मुरझाई सूरत बनाए अपनी पत्नी को देखता ही रहा.


बिना : इब चाल्लो ने. (अब चलो ना.)


केतराम बे मन से खड़ा हुआ. और तैयार होकर बिना, चंदगी के साथ मेले मे चल दिया. घुंघट किए बिना साथ चलते उसके दिमाग़ मे कई सवाल चल रहे थे. वही चंदगी को भी डर लग रहा था. पर वो अपनी भाभी को कभी ना नहीं बोल सकता था. मेला सात, आठ गांव के बिच था. सुबह काफ़ी भीड़ आई हुई थी. चलते केतराम और चंदगी राम आते जाते बुजुर्ग को राम राम कहता. कोई छोटा उसे राम राम करता तो वो राम राम का ज़वाब राम राम से करता. मेले मे चलते हुए उन तीनो को माइक पर दंगल का अनाउंसमेंट सुनाई दे रहा था.

पिछले साल के विजेता बिरजू धानक से कौन हाथ मिलाएगा. उसकी सुचना प्रसारित की जा रही थी. बिरजू पिछले बार का विजेता सेवा राम का छोटा भाई था. वो पिछले साल ही नहीं पिछले 3 साल से विजेता रहा हुआ था.


बिना : ए जी जाओ णे. अपने चंदगी का नाम लखा(लिखा) दो ने.


केतराम ने बस हा मे सर हिलाया. और दंगल की तरफ चल दिया. वो बोर्ड मेम्बरो के पास जाकर खड़ा हो गया. कुल 24 पहलवानो ने अपना नाम लिखवाया था. जिसमे से एक चंदगी भी था. केतराम नाम लिखवाकर वापस आ गया. उसे बेजती का बहोत डर लग रहा था.


बिना : नाम लखा(लिखा) दिया के??


केतराम ने हा मे सर हिलाया. सिर्फ केतराम ही नहीं चंदगी राम भी बहोत डर रहा था. वो पहले भी कई दंगल देख चूका था. धोबी पछड़ पटकनी सब उसे याद आ रहा था. तो बिना का भी कुछ ऐसा ही हाल था. पर उसका डर थोडा अलग था. वो ये सोच रही थी की चंदगी को दंगल लढने दिया जाएगा या नहीं. तभि अनाउंसमेंट हुई. जिन जिन पहलवानो ने अपना नाम लिखवाया है. वो मैदान मे आ जाए.


बिना : (उतावलापन) जा जा चंदगी जा जा.


चंदगी : (डर) हा...


चंदगी डरते हुए कभी अपनी भाभी को देखता. तो कभी दंगल की उस भीड़ को.


बिना : ए जी. ले जाओ णे. याने. (ए जी. ले जाओ ना इसे.)


केतराम चंदगी को दंगल मे ले गया. बिना वहां नहीं जा सकती थी. औरतों को दंगल मे जाने की मनाई थी. अनाउंसमेंट होने लगी की सारे पहलवान तैयार होकर मैदान मे आ जाए. जब केतराम चंदगी को लेकर भीड़ हटाते हुए मैदान तक पहोंचा तो वहां पहले से ही सात, आठ पहलवान लंगोट पहने तैयार खड़े थे.


केतराम : जा. उरे जाक खड्या हो जा. (जा उधर जाकर खड़ा होजा)


केतराम उसे बेमन से लाया था. क्यों की चंदगी अब भी दुबला पतला ही था. वही जो पहलवान मैदान मे पहले से ही खड़े थे. वो मोटे ताजे तगड़े थे. जब चंदगी भी अपना कुरता पजामा उतार कर लंगोट मे उनके बिच जाकर खड़ा हुआ. तो वो सारे चंदगी को हैरानी से देखने लगे. कुछ तो हस भी दिए. यह सब देख कर चंदगी और ज्यादा डरने लगा. वही बग्गा राम और सेवा राम भी पब्लिक मे वहां खड़े थे. और बग्गाराम की नजर अचानक चंदगी राम पर गई. वो चौंक गया.


बग्गाराम : (सॉक) रे या मे के देखुता. (रे ये मै क्या देख रहा हु.)


सेवा राम : (हेरत) के चंदगी????


बग्गाराम : भउ बावड़ी हो गी से. (बहु पागल हो गई है.) इसके ते हार्ड(हड्डिया) भी ना बचेंगे.


वही अनाउंसमेंट होने लगा. खेल का फॉर्मेट और नियम बताए गए. नॉकआउट सिस्टम था. 24 मे से 12 जीते हुए पहलवान और 12 से 6, 6 से 3 पहलवान चुने जाने थे. और तीनो मे से बारी बारी जो भी एक जीतेगा वो पिछली साल के विजेता बिरजू से कुस्ती लढेगा. पहले लाढने वाले पहलवानो की प्रतिद्वंदी जोडिया घोषित हो गई. चंदगी के सामने पास के ही गांव का राकेश लाढने वाला था. उसकी कुस्ती का नंबर पांचवा था.

सभी पहलवानो को एक साइड लाइन मे बैठाया गया. महेमानो का स्वागत हुआ. और खेल शुरू हुआ. चंदगी को बहोत डर लग रहा था. पहेली जोड़ी की उठा पटक देख कर चंदगी को और ज्यादा डर लगने लगा. वो जो सामने खेल देख रहा था. वे सारे दाव पेच उसके भाई केतराम ने भी उसे सिखाए थे. पर डर ऐसा लग रहा था की वही दावपेच उसे नए लगने लगे. पहेली जोड़ी से एक पहलवान बहोत जल्दी ही चित हो गया. और तुरंत ही दूसरी जोड़ी का नंबर आ गया. दूसरी कुस्ती थोड़ी ज्यादा चली.

पर नतीजा उसका भी आया. उसके बाद तीसरी और फिर चौथी कुस्ती भी समाप्त हो गई. अब नंबर चंदगी का आ गया. जीते हुए पहलवान पहेले तो पब्लिक मे घूमते. वहां लोग उन्हें पैसे इनाम मे दे रहे थे. आधा पैसा, एक पैसा जितना. उनके पास ढेर सारी चिल्लर पैसे जमा होने लगी. उसके बाद वो जीते पहलवान एक साइड लाइन मे बैठ जाते. और हरे हुए मुँह लटकाए मैदान से बहार जा रहे थे. बगल मे बैठा राकेश खड़ा हुआ.


राकेश : चाल. इब(अब) अपणा नम्बर आ लिया.


चंदगी डरते हुए खड़ा हुआ. और डरते हुए मैदान मे आ गया. सभी चंदगी को देख कर हैरान रहे गए. दूसरे गांव वाले भी चंदगी को जानते थे. राकेश के मुकाबले चंदगी बहोत दुबला पतला था. हलाकि चंदगी का बदन भी कशरती हो चूका था. उसने बहोत महेनत की थी. मैच रेफरी ने दोनों को तैयार होने को कहा. और कुश्ती शुरू करने का इशारा दिया. दोनों ही लढने वाली पोजीशन लिए तैयार थे. बस चंदगी थोड़ा डर रहा था. हिशारा मिलते ही पहले राकेश आगे आया. और चंदगी पर पकड़ बना ने की कोशिश करने लगा. वही पोजीसन चंदगी ने भी बनाई.

मगर वो पहले से बचने की कोशिश करने लगा. दोनों ही पहलवानो ने एक दूसरे की तरफ झूकते हुए एक दूसरे के बाजु पकडे. और दोनों ही एक दूसरे की तरफ झूक गए. दोनों इसी पोजीशन मे बस ऐसे ही खड़े हो गए. सब सोच रहे थे की राकेश अभी चंदगी को पटकेगा. पर वो पटक ही नहीं रहा था. कुछ ज्यादा समय हुआ तो मैच रेफरी आगे आए. और दोनों को छुड़वाने के लिए दोनों को बिच से पकड़ते है. लोगो ने देखा. सारे हैरान रहे गए. राकेश के दोनों हाथ झूल गए.

वो अपनी ग्रीप छोड़ चूका था. छूट ते ही वो पहले जमीन पर गिर गया. खुद चंदगी ने ही झट से उसे सहारा देकर खड़ा किया. मैच रेफरी ने राकेश से बात की. वो मुँह लटकाए मरी मरी सी हालत मे बस हा मे सर हिला रहा था. उसके बाद वो रोनी सूरत बनाएं मैदान के बहार जाने लगा. उसके दोनों हाथ निचे ऐसे झूल रहे थे. जैसे लकवा मार गया हो. हकीकत यह हुआ की चंदगी ने डर से राकेश पर जब ग्रीप ली. तो उसने इतनी जोर से अपने पंजे कस दिए की राकेश का खून बंद हो गया. और खून का बहाव बंद होने से राकेश के हाथ ही बेजान हो गए थे. यह किसी को समझ नहीं आया. पर वहां आए चीफ गेस्ट को पता चल गया था की वास्तव मे हुआ क्या है.


कुश्ती अध्यक्ष : (माइक पर) रे के कोई जादू टोना करया(किया) के???


तभि चीफ गेस्ट खड़े हुए. और ताली बजाने लगे. एकदम से पब्लिक मे हा हा कार मच गइ. माइक पर तुरंत ही चंदगी के जीत की घोसणा कर दीं गई. मैदान और भीड़ से दूर सिर्फ माइक पर कमेंट्री सुन रही बिना ने जब सुना की उसका लाडला देवर अपने जीवन की पहेली कुश्ती जीत गया है तो उसने अपना घुंघट झट से खोल दिया. और मुस्कुराने लगी. उसकी आँखों मे खुशियों से अंशू बहे गए. पर गांव की लाज सरम कोई देख ना ले.

उसने वापस घुंघट कर लिया. वो घुंघट मे अंदर ही अंदर मुस्कुरा रही थी. पागलो के जैसे हस रही थी. जैसे उस से वो खुशी बरदास ही ना हो रही हो. केतराम भी पहले तो भीड़ मे अपने आप को छुपाने की कोसिस कर रहा था. पर जब नतीजा आया. वो भी मुस्कुराने लगा. पर भीड़ मे किसी का भी ध्यान उसपर नहीं था. वो गरीब अकेला अकेला ही मुस्कुरा रहा था. वही जीत के बाद भी चंदगी को ये पता ही नहीं चल रहा था की हुआ क्या. पब्लिक क्यों चिल्ला रही है. उसे ये पता ही नहीं चला की वो मैच जीत चूका है. मैच रेफरी ने चंदगी से मुस्कुराते हुए हाथ मिलाया.


मैच रेफरी : भाई चंदगी मुबरका. तू ते जीत गया.


तब जाकर चंदगी को पता चला. और वो मुस्कुराया. लेकिन चीफ गेस्ट बलजीत सिंह चंदगी को देख कर समझ गए थे की कुश्ती मे चंदगी ने एक नया अविष्कार किया है. मजबूत ग्रीप का महत्व लोगो को समझाया है. उसके बाद चादगी बारी बारी ऐसे ही अपनी सारी कुश्ती जीत ता चला गया. और आखरी कुश्ती जो बिरजू से थी. उसका भी नंबर आ गया. अनाउंसमेंट हो गया. अब बिरजू का मुकाबला चंदगी से होगा.

सभी तालिया बजाने लगे. चार मुकाबले जीत ने के बाद चंदगी का कॉन्फिडेंस लेवल बहोत ऊपर था.
वही बिरजू देख रहा था की चंदगी किस तरह अपने प्रतिद्वंदी को हरा रहा है. किस तरह वो बस पकड़ के जरिये ही पहलवानो के हाथ पाऊ सुन कर देता. राकेश मानसिक रूप से पहले ही मुकाबला हार गया. पर जब चंदगी के साथ उसकी कुश्ती हुई तो उसने खुदने महसूस किया की किस तरह चंदगी ने पकड़ बनाई. और वो इतनी जोर से कश्ता की खून का बहना ही बंद हो जा रहा है.

दो बार का चैंपियन राकेश बहोत जल्दी हार गया. और चंदगी राम पहलवान नया विजेता बना. उसे मान सन्मान मिला. और पुरे 101 रूपये का इनाम मिला. भीड़ से दूर बिना बेचारी जो माइक पर कमेंट्री सुनकर ही खुश हो रही थी. जीत के बाद चंदगी भाई के पास नहीं भीड़ को हटाते अपनी भाभी के पास ही गया. उसने अपनी भाभी के पाऊ छुए. यह सब सेवा राम और बग्गा राम ने भी देखा. वो अपना मुँह छुपाककर वहां से निकल गए.

गांव मे कई बार आते जाते बिना का सामना सेवा राम और बग्गा राम से हुआ. पर बिना उनसे कुछ बोलती नहीं. बस घुंघट किए वहां से चली जाती. बिना को ये जीत अब भी छोटी लग रही थी. वो कुछ और बड़ा होने का इंतजार कर रही थी. इसी बिच चंदगी राम उन्नति की सीढिया चढने लगा. वो स्कूल की तरफ से खेलते जिला चैंपियन बना. और फिर स्टेट चैंपियन भी बना.

बिना को इतना ही पता था. वो बहोत खुश हो गई. उसने अपने पति केतराम से कहकर पुरे गांव मे लड्डू बटवाए. और बिना खुद ही उसी नुक्कड़ पर लड्डू का डिब्बा लिए पहोच गई. बग्गा राम और सेवा राम ने भी बिना को आते देख लिया. और बिना को देखते ही वो वहां से मुँह छुपाकर जाने लगे. लेकिन बिना कैसे मौका छोड़ती.


बिना : राम राम चौधरी साहब. माराह चादगी पहलवान बण गया. लाड्डू (लड्डू) तो खाते जाओ.


ना चाहते हुए भी दोनों को रुकना पड़ा. बिना उनके पास घुंघट किए सामने खड़ी हो गई. और लड्डू का डिब्बा उनके सामने कर दिया.


बिना : लाड्डू खाओ चौधरी साहब. मारा चंदगी सटेट चैम्पयण ( स्टेट चैंपियन) बण गया.


बग्गा राम : भउ(बहु) क्यों भिगो भिगो जूता मारे है.


सेवा राम : हम ते पेले (पहले) ही सर्मिन्दा से. ले चौधरी सु. जबाण (जुबान) का पक्का.


बोलते हुए सेवाराम ने अपनी पघड़ी बिना के पेरो मे रखने के लिए उतरी. पर बिना ने सेवा राम के दोनों हाथो को पकड़ लिया. और खुद ही अपने हाथो से सेवा राम को उसकी पघड़ी पहनाइ.


बिना : ओओ ना जी ना. जाटा की पघड़ी ते माथे पे ही चोखी लगे है. जे तम ना बोलते तो मारा चंदगी कित पहलवान बणता. मे तो थारा एहसाण मानु हु. बस तम मारे चंदगी ने आशीर्वाद देओ.
(ओओ नहीं जी नहीं. जाटो की पघड़ी तो सर पर ही अच्छी लगती है. जो आप ना बोलते तो मेरा चंदगी कैसे पहलवान बनता. मै तो आप लोगो का एहसान मानती हु. बस आप मेरे चंदगी को आशीर्वाद दो.)


सेवा राम : थारा चंदगी सटेट चैम्पयण के बल्ड चैम्पयण बणेगा. देख लिए.
(तेरा चंदगी स्टेट चैंपियन क्या वर्ल्ड चैंपियन बनेगा. देख लेना.)


बिना ने झूक कर दोनों के पाऊ छुए. लेकिन चादगी राम इतने से रुकने वाले नहीं थे. वो स्पोर्ट्स कोटे से आर्मी जाट रेजीमेंट मे भार्थी हुए. दो बार नेशनल चैंपियन बने. उसके बाद वो हिन्द केशरी बने. 1969 मे उन्हें अर्जुन पुरस्कार और 1971 में पदमश्री अवार्ड से नवाजा गया। इसमें राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के अलावा हिंद केसरी, भारत केसरी, भारत भीम और रूस्तम-ए-हिंद आदि के खिताब शामिल हैं।

ईरान के विश्व चैम्पियन अबुफजी को हराकर बैंकाक एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतना उनका सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन माना जाता है। उन्होंने 1972 म्युनिख ओलम्पिक में देश का नेतृत्व किया और दो फिल्मों 'वीर घटोत्कच' और 'टारजन' में काम किया और कुश्ती पर पुस्तकें भी लिखी। 29 जून 2010 नइ दिल्ली मे उनका निधन हो गया. ये कहानी चंदगी राम जी को समर्पित है. भगवान उनकी आत्मा को शांति दे.


The end...



Mast,

Jai hanuman,jat balwan

चंदगी राम पहलवान
दोस्तों ये कहानी वास्तविक है. पर काल्पनिक और नाटकीय रूप से दर्शा रही हु.


पानी से भरे दो घड़े सर पर और एक बगल मे लिए बिना तेज़ी से चलने की कोसिस कर रही थी. और पीछे पीछे उसका 17 साल का देवर चंदगी आलस करते हुए तेज़ी से चलने की कोसिस कर रहा था. मगर वो इतनी तेज़ चलना नहीं चाहता था. रोनी सूरत बनाए अपनी भाभी से शिकायत करने लगा.


चंदगी : भाबी इतना तेज़ किकन(कैसे) चलूँगा.


बिना : बावडे थारे भाई ने खेताम(खेत मे) जाणो(जाना) है. जल्दी कर ले.


बिना का सामना रास्ते मे तहजीब दार मनचलो से हो गया.


बग्गा राम चौधरी : रे यों किस की भउ(बहु) हे रे.


सेवा राम : अरे यों. यों तो अपने चंदगी पहलवान की भाबी(भाभी) है.


अपने देवर की बेजती सुनकर बिना का मनो खून जल गया. वो रुक गई. साड़ी और घूँघट किए हुए. ब्लाउज की जगह फुल बाई का शर्ट पहना हुआ. वो उन मंचलो की बात सुनकर रुक गई. और तुरंत ही पलटी.


बिना : के कहे है चौधरी.


सेवा राम : (तेवर) मेन के कहा. तू चंदगी पहलवान की भाबी ना से???


बिना : इतना घमंड अच्छा कोन्या चौधरी.


बग्गा राम : रे जाने दे रे. चंदगी पहलवान की भाबी बुरा मान गी.


बिना को बार बार पहलवान शब्द सुनकर बहोत गुस्सा आ रहा था.


बिना : ईब ते चौधरी. मारा चंदगी पहलवान जरूर बनेगा.


बिना की बात सुनकर बग्गा और सेवा दोनों हसने लगे.


सेवा राम : के कहे हे. चंदगी ने पहलवान बणाओगी(बनाएगी). जे चंदगी पहलवान बण गया. ते मै मारी पगड़ी थारे कदमा मे धर दूंगा.


बिना : चाल चंदगी.


बिना चंदगी को लेकर अपने घर आ गई. चंदगी राम का जन्म 9 नवम्बर 1937 हरियाणा हिसार मे हुआ था. वो बहोत छोटे थे. तब ही उनके पिता माडूराम और माता सवानी देवी का इंतकाल हो गया था. माता पिता ना होने के कारन सारी जिम्मेदारी बड़ा भाई केतराम पर आ गई. भाई केतराम और भाभी बिना ने चंदगी राम जी को माता और पिता का प्यार दिया. उनका पालन पोषण किया.
अपनी दो संतान होने के बावजूद बिना ने चंदगी राम जी को ही पहेली संतान माना.

केतराम और बिना के दो संतान थे. उस वक्त बेटा सतेंदर सिर्फ 2 साल का था. और बेटी पिंकी 5 साल की थी. बिना ने चंदगी राम जी को जब पागलवान बनाने का बीड़ा उठाया. उस वक्त चंदगी राम 17 साल के थे. मतलब की पहलवानी की शारुरत करने के लिए ज्यादा वक्त बीत चूका था. पहलवानी शुरू करने की सही उम्र 10 से 12 साल की ही सही मानी जाती है. पर बिना ने तो चंदगी राम को पहलवान बनाने की ठान ही ली थी. जब की चंदगी राम पढ़ाई मे तो अच्छे थे.

मगर शरीर से बहोत ही दुबले पतले. इतने ज्यादा दुबले पतले की 20 से 30 किलो का वजन उठाने मे भी असमर्थ थे. अक्सर लोग चन्दगीराम जी का मज़ाक उड़ाते रहते. कोई पहलवान कहता तो कोई कुछ और. मगर चन्दगीराम उनकी बातो पर ध्यान नहीं देते. वो पढ़ाई भी ठीक ठाक ही कर लेते. उस दिन बिना घर आई और घड़े रख कर बैठ गई. गुस्से मे वो बहोत कुछ बड़ बड़ा रही थी.


बिना : (गुस्सा) बेरा ना(पता नहीं) के समझ राख्या(रखा) है.


केतराम समझ गया की पत्नी देवी की किसी से कढ़ाई हो गई.


केतराम : री भगवान के हो गया. आज रोटी ना बणाओगी के.


बिना एकदम से भिन्ना कर बोली.


बिना : (गुस्सा) एक दिन रोटी न्या खाई ते थारी भैंस दूध ना देगी के. आज कोन्या रोटी मिलती.
(एक दिन रोटी नहीं खाई तो तुम्हारी भैंस दूध नहीं देगी क्या. आज कोई रोटी नहीं मिलेगी.)


केतराम बिना कुछ बोले अपना गमछा लिया और बहार चल दिया. वो जानता था की उसकी पत्नी खेतो मे खुद रोटी देने आ ही जाएगी. वो खेतो की तरफ रवाना हो गया. केतराम के जाने के बाद बिना ने चंदगी राम की तरफ देखा. जो अपनी भतीजी को पढ़ा रहा था. पर वक्त जाते उसका दिमाग़ ठंडा हुआ. वो सोच मे पड़ गई की मेने दावा तो ठोक दिया. मगर चंदगी राम पहलवान बनेगा कैसे. वो एक बाजरे की बोरी तो उठा नहीं पता. पहलवानी कैसे होंगी. बिना का दिल टूट गया.

पर बाद मे खयाल आया की इन सब मे पति को तो बिना रोटी दिए ही खेतो मे भेज दिया. बिना ने रोटी सब्जी बनाई और खाना लेकर पहोच गई खेतो मे. दोनों ही एक पेड़ की छाव मे बैठ गए. और केतराम रोटी खाते ये महसूस करता है की अब उसकी बीवी का मूड कुछ शांत है. पर कही खोई हुई है.


केतराम : री के सोचे है भगवान? (क्या सोच रही हो भगवान?)


बिना : (सोच कर) अममम.. मै न्यू सोचु हु. क्यों ना अपने चंदगी ने पहलवान बणावे(बनाए).


केतराम : बावणी होंगी से के. (पागल हो गई है क्या.) अपणे चंदगी के बस की कोनी. (अपने चंदगी के बस की नहीं है.)


बिना कुछ बोली नहीं. बस अपने पति को रोटी खिलाकर घर आ गई. पर अपने देवर को पहलवान बनाने का उसके दिमाग़ पर जो भुत चढ़ा था. वो उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था. जब वो घर आई तब उसने देखा की उसका देवर चंदगी एक कटोरी दूध मे रोटी डुबो डुबो कर रोटी खा रहा है. चंदगी राम हमेसा डेढ़ रोटी कभी दूध या दही से खा लेता. बस उसकी इतनी ही डाइट थी.


बिना : घ्यो ल्याऊ के? (घी लाऊ क्या?)


चंदगी ने सिर्फ ना मे सर हिलाया.


बिना : न्यू सुखी रोटी खाओगा. ते पागलवान कित बणोगा. (ऐसे सुखी रोटी खाएगा तो पहलवान कैसे बनेगा)


चंदगी ने अपना मुँह सिकोड़ा.


चंदगी : अमम.. मेरे बस की कोन्या. मे करू कोनी (मेरे बस की नहीं है. मै नहीं करूँगा.)


बिना चंदगी पर गुस्सा हो गई.


बिना : बावणा हो गयो से के. मारी नाक कटाओगा. तू भूल लिया. मेने बग्गा ते के कही.
(पागल हो गया है. मेरी नाक कटवाएगा. तू भूल गया मेने बग्गा से क्या कहा)


चंदगी राम कुछ नहीं बोला. मतलब साफ था. वो पहलवानी नहीं करना चाहता था. बिना वही तखत पर बैठ गई. उसकी आँखों मे अंशू आ गए. बिना ससुराल मे पहेली बार अपने सास ससुर के मरने पर रोइ थी. उसके बाद जब चंदगी ने अपना फेशला सुना दिया की वो पहलवानी नहीं करेगा. कुछ देर तो चंदगी इधर उधर देखता रहा. पर एक बार जब नजर उठी और अपनी भाभी की आँखों मे अंशू देखे तो वो भी भावुक हो गया.

वो खड़ा हुआ और तुरंत अपनी भाभी के पास पहोच गया. चंदगी बहोत छोटा था जब उनके माँ बाप का इंतकाल हो गया. उसके लिए तो भाई भाभी ही माँ बाप थे. माँ जैसी भाभी की आँखों मे चंदगी अंशू नहीं देख पाया.


चंदगी : भाबी तू रोण कित लग गी. (तू रोने क्यों लगी है.) अच्छा तू बोलेगी मै वाई करूँगा.


चंदगी ने बड़े प्यार से अपनी भाभी का चहेरा थमा. और उनकी आँखों मे देखने लगा. अपने हाथो से भाभी के अंशू पोछे. बिना ने तुरंत ही चंदगी का हाथ अपने सर पर रख दिया.


बिना : फेर खा कसम. मै जो बोलूंगी तू वाई करोगा.


चंदगी : हा भाभी तेरी कसम. तू बोलेगी मै वाई करूँगा.


बिना की ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा. चंदगी को कोनसा पहलवान बन ना था. वो तो बस वही कर रहा था. जो उसकी भाभी चाहती थी. बिना उस पल तो मुस्कुरा उठी. पर समस्या तो ये थी की अपने देवर को पहलवान बनाए कैसे. उसी दिन घर का काम करते सबसे पहला आईडिया आया. जब वो पोचा लगा रही थी. उसे महेसूद हुआ की जब वो पोचा लगाती उसकी कलाई और हाथो के पंजे थोडा दर्द करते. बिना ने तुरंत चादगी को आवाज दि.


बिना : रे चंदगी.... इत आइये. (इधर आना)


चंदगी तुरंत अपनी भाभी के पास पहोच गया. बिना ने लोहे की बाल्टी से गिला पोचा चंदगी को पकड़ाया.


बिना : निचोड़ या ने.


चंदगी मे ताकत कम थी. पर पोचा तो वो निचोड़ ही सकता था. उसने ठीक से नहीं पर निचोड़ दिया. और अपनी भाभी के हाथो मे वो पोचा दे दिया. भाभी ने फिर उसे भिगोया.


बिना : ले निचोड़.


चंदगी को कुछ समझ नहीं आया. वो हैरानी से अपनी भाभी के चहेरे को देखने लगा.


बिना : ले... के देखे है. (क्या देख रहा है.)


चादगी कुछ बोला नहीं. बस बिना के हाथो से वो पोचा लिया. और निचोड़ दिया. बिना ने फिर उसी पोचे को पानी मे डुबोया. जिस से चंदगी परेशान हो गया.


चंदगी : भाबी तू के करें है.


बिना : ससससस... तन मेरी कसम है. मै बोलूंगी तू वाई करोगा. इसने भिगो और निचोड़.


चंदगी वही करता रहा. जो उसकी भाभी चाहती थी. बिना उसे छोड़ कर अपने घर से बहार निकल गई. उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था. उसे पता था की इस से क्या होगा. तक़रीबन एक घंटा बिना ने चंदगी से पोचा निचोड़वाया. शाम होने से पहले जब केतराम नहीं आया. बिना ने कई सारी सूत की बोरी ढूंढी. और सब को एक पानी की बाल्टी मे भिगो दिया. पहले दिन के लिए उसने कुछ पांच ही बोरिया भिगोई. बिना ने केतराम को कुछ नहीं बताया. बस सुबह 4 बजे उसने घोड़े बेच कर सोए चंदगी को उठा दिया.


बिना : चंदगी... चंदगी...


चंदगी : (नींद मे, सॉक) हा हा हा के होया???


बिना : चाल खड्या(खड़ा) होजा.


चंदगी को नींद से पहेली बार ही किसी ने जगाया. वरना तो वो पूरी नींद लेकर खुद ही सुबह उठ जाया करता. लेकिन एक ही बार बोलने पर चंदगी खड़ा हो गया. और आंखे मलते बहार आ गया.


चंदगी : के होया भाबी? इतनी रात ने जाग दे दीं.(क्या हुआ भाभी? इतनी रात को जगा दिया)


बिना : रात ना री. ईब ते भोर हो ली. तन पहलवान बणना से के ना. जा भजण जा. अपणे खेता तक भज के जाइये.
(रात नहीं रही. सुबह हो चुकी है. तुझे पहलवान बन ना है या नहीं. रनिंग करने जा. अपने खेतो तक रनिंग कर के आ.)


चंदगी का मन नहीं था. पर उसे ये याद था की उसने अपनी भाभी की कसम खाई है. वो रनिंग करने चले गया. पहले तो अँधेरे से उसे डर लगने लगा. पर बाद मे उसने देखा की गांव मे कई लोग सुबह जल्दी उठ चुके है. वो मरी मरी हालत से थोडा थोडा दौड़ता. थक जाता तो पैदल चलने लगता. वो ईमानदारी से जैसे तैसे अपने खेतो तक पहोंचा. उसने देखा की गांव के कई बच्चे सुबह सुबह रनिंग करने जाते थे. वो जब वापस लौटा तो उसे एक बाल्टी पानी से भरी हुई मिली. जिसमे बोरिया भिगोई हुई है. बिना भी वही खड़ी मिली.


बिना : चाल निचोड़ या ने.


थोडा बहोत ही सही. पर रनिंग कर के चंदगी थक गया था. रोने जैसी सूरत बनाए चंदगी आगे बढ़ा. और बोरियो को निचोड़ने लगा. चंदगी के शरीर ने पहेली बार महेनत की थी. उस दिन से चंदगी की भूख बढ़ने लगी. बिना चंदगी से महेनत करवा रही थी. पर उसकी नजर सात गांव के बिच होने वाले दिवाली के मेले पर थी. जिसमे एक कुस्ती की प्रतियोगिता होती. जितने वाले को पुरे 101 रूपय का इनाम था. उस वक्त 100 रुपया बड़ी राशि थी. बिना के पास चंदगी को तैयार करने के लिए मात्र 7 महीने का वक्त था.

चंदगी महेनत नहीं करना चाहता था. पर उसने अपनी भाभी की बात कभी टाली नहीं. सिर्फ एक हफ्ते तक यही होता रहा. बिना सुबह चार बजे चंदगी को उठा देती. चंदगी मन मार कर रनिंग करने चले जाता. और आकर बाल्टी मे भीगी हुई बोरियो को निचोड़ने लगा. नतीजा यह हुआ की रनिंग करते चंदगी जो बिच बिच मे पैदल चल रहा था. वो कम हुआ. और भागना ज्यादा हुआ. एक हफ्ते बाद वो 5 बोरिया 10 हो गई. गीली पानी मे भोगोई हुई बोरियो को निचोड़ते चंदगी के बाजुओं मे ताकत आने लगी. जहा चंदगी ढीला ढाला रहता था.

वो एक्टिवेट रहने लगा. चंदगी की भूख बढ़ने लगी. उसे घी से चुपड़ी रोटियां पसंद नहीं थी. पर भाभी ने उस से बिना पूछे ही नहीं. बस घी से चुपड़ी रोटियां चंदगी की थाली मे रखना शुरू कर दिया. जहा वो डेढ़ रोटियां खाया करता था. वो 7 के आस पास पहोचने लगी. जिसे केतराम ने रात का भोजन करते वक्त महसूस किया. रात घर के आंगन मे बिना चूले पर बैठी गरमा गरम रोटियां सेक रही थी. पहेली बार दोनों भाइयो की थाली एक साथ लगी. दोनों भाइयो की थाली मे चने की गरमा गरम दाल थी.

पहले तो केतराम को ये अजीब लगा की उसका भाई घर के बड़े जिम्मेदार मर्दो के जैसे उसजे साथ खाना खाने बैठा. क्यों की चंदगी हमेशा उसके दोनों बच्चों के साथ खाना खाया करता था. बस एक कटोरी मीठा दूध और डेढ़ रोटी. मगर अब उसका छोटा भाई उसके बराबर था.
केतराम मन ही मन बड़ा ही खुश हो रहा था. पर उसने अपनी ख़ुशी जाहिर नहीं की. दूसरी ख़ुशी उसे तब हुई जब चंदगी की थाली मे बिना ने तीसरी रोटी रखी. और चंदगी ने ना नहीं की. झट से रोटी ली.

और दाल के साथ खाने लगा. केतराम ने अपने भाई की रोटियां गिनती नहीं की. सोचा कही खुदकी नजर ना लग जाए. पर खाना खाते एक ख़ुशी और हुई. जब बिना ने चंदगी से पूछा.


बिना : चंदगी बेटा घी दू के??


चंदगी ने मना नहीं किया. और थाली आगे बढ़ा दीं. वो पहले घी नहीं खाया करता था. रात सोते केतराम से रहा नहीं गया. और बिना से कुछ पूछ ही लिया.


केतराम : री मन्ने लगे है. अपणे चंदगी की खुराक बढ़ गी.
(मुजे लग रहा है. अपने चंदगी की डायट बढ़ गई.)



केतराम पूछ रहा था. या बता रहा था. पर बिना ने अपने पति को झाड दिया.


बिना : हे... नजर ना लगा. खाण(खाने) दे मार बेट्टा(बेटा) ने.


केतराम को खुशियों के झटके पे झटके मिल रहे थे. उसकी बीवी उसके छोटे भाई को अपने बेटे के जैसे प्यार कर रही थी. वो कुछ बोला नहीं. बस लेटे लेटे मुस्कुराने लगा.


बिना : ए जी. मै के कहु हु??


केतराम : हा..???


बिना : एक भैंस के दूध ते काम ना चलेगा. अपण(अपने) एक भैंस और ले ल्या??


केतराम : पिसे(पैसे) का ते ल्याऊ(लाऊ)???


बिना : बेच दे ने एक किल्ला.


केतराम यह सुनकर हैरान था. क्यों की परिवार का कैसा भी काम हो. औरत एड़ी चोटी का जोर लगा देती है. पर कभी जमीन बिक्री नहीं होने देती. हफ्ते भर से ज्यादा हो चूका था. लेटे लेटे वो भी अपने भाई को सुबह जल्दी उठते देख रहा था. दूसरे दिन ही केतराम ने अपने 20 किल्ले जमीन मे से एक किला बेच दिया. और भैंस खरीद लाया. अब घी दूध की घर मे कमी नहीं रही.

चंदगी राम को धीरे धीरे महेनत करने मे मझा आने लगा. वो खुद ही धीरे धीरे अपनी रनिंग कैपेसिटी बढ़ा रहा था. स्कूल मे सीखी पी.टी करने लगा. दूसरे लड़को को भी वो रनिंग करते देखता था. साथ वो लड़के जो एक्सरसाइज करते थे. देख देख कर वही एक्सरसाइज वो भी करने लगा. पर वो अकेला खेतो मे रनिंग कर रहा था. वो घर से खेतो तक भाग कर जाता. और अपने जोते हुए खेत मे अलग से रनिंग करता.

वहां अकेला एक्सरसाइज करता दंड करता. और घर आता तब उसकी भाभी जो बाल्टी मे बोरिया भिगो दिया करती थी. उन्हें कश के निचोड़ने लगा. इसी बिच बिना ने अपने कान की बलिया बेच दीं. और उन पेसो से वो चंदगी के लिए बादाम और बाकि सूखे मेवे खरीद लाई. उसने ये केतराम को भी नहीं बताया. ये सब करते 6 महीने गुजर चुके थे. चंदगी के शरीर मे जान आ गई. वो बोरी को इस तरह निचोड़ रहा था की बोरिया फट जाया करती. बोरिया भी वो 50, 50 निचोड़ कर फाड़ रहा था. पर बड़ी समस्या आन पड़ी.

मेले को एक महीना बचा था. और अब तक चंदगी को लड़ना नहीं आया था. रात सोते बिना ने अपने पति से चादगी के लिए सिफारिश की.


बिना : ए जी सुणो हो?? (ए जी सुनते हो?)


केतराम : हा बोल के बात हो ली??


बिना : अपणे चंदगी णे किसी अखाड़ेम भेज्यो णे. (अपने चादगी को किसी अखाड़े मे भेजो ना?)


केत राम : ठीक से. मै पहलवान जी से बात करूँगा.


बिना को याद आया के जिस पहलवान की केतराम बात कर रहे है. वो सेवाराम के पिता है.


बिना : ना ना. कोई दूसरेन देख्यो. (किसी दूसरे को देखो.) कोई ओर गाम मे? अपणा चंदगी देखणा मेणाम(मेले मे) दंगल जीत्तेगा.


केतराम : बावड़ी होंगी से के तू. मेणान एक मिहना बचया से.
(पागल हो गई है तू. मेले को एक महीना बचा है.)


बिना : ब्याह ते पेले तो तम भी कुस्ती लढया करते. तम ना सीखा सको के?
(शादी से पहले तो आप भी कुस्ती लड़ा करते थे. क्या आप नहीं सीखा सकते?)


केतराम : मन तो मेरा बाबा सिखाओता. सीखाण की मेरे बस की कोनी. (मुजे तो मेरे पिता सिखाया करते. सीखाना मेरे बस की नहीं है)


बिना : पन कोशिश तो कर ल्यो ने.


केतराम सोच मे पड़ गया. बिना उमीदो से अपने पति के चहेरे को देखती रही.


केतराम : ठीक से. सांज ने भेज दिए खेताम. (ठीक है. साम को भेज देना खेतो मे.)


बिना के ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. दिनचर्या ऐसे ही बीती. चंदगी का सुबह दौड़ना, एक्सरसाइज करना, और अपने भाभी के हाथो से भिगोई हुई बोरियो को निचोड़ निचोड़ कर फाड़ देना. बिना ने चंदगी को शाम होते अपने खेतो मे भेज दिया. केतराम ने माटी को पूज कर अखाडा तैयार किया हुआ था. उसने उसे सबसे पहले लंगोट बांधना सिखाया. लंगोट के नियम समझाए. और दाव पेज सीखना शुरू किया. केतराम ने एक चीज नोट की.

चंदगी राम की पकड़ बहोत जबरदस्त मजबूत है. उसकी इतनी ज्यादा पकड़ मजबूत थी की केतराम का छुड़ाना मुश्किल हो जाता था. बहोत ज्यादा तो नहीं पर चंदगी राम काफ़ी कुछ सिख गया था. बचा हुआ एक महीना और गुजर गया. और दिवाली का दिन आ गया. सुबह सुबह बिना तैयार हो गई. और चंदगी राम को भी तैयार कर दिया. पर केतराम तैयार नहीं हुआ. दरसल उसे बेजती का डर लग रहा था. उसकी नजरों मे चंदगी राम फिलहाल दंगल के लिए तैयार नहीं था.

वही चंदगी को भी डर लग रहा था. वो अपने भाई से सीखते सिर्फ उसी से लढा था. जिसे वो सब सामान्य लग रहा था. लेकिन अशली दंगल मे लड़ना. ये सोच कर चंदगी को बड़ा ही अजीब लग रहा था. बिना अपने पति के सामने आकर खड़ी हो गई.


बिना : के बात हो ली. मेणाम ना चलो हो के?? (क्या बात हो गई. मेले मे नहीं चल रहे हो क्या?)


केतराम : मन्ने लगे है बिना... अपणा चंदगी तियार कोनी. (मुजे लग रहा है बिना फिलहाल अपना चंदगी तैयार नहीं है)


बिना जोश मे आ गई. ना जाने क्यों उसे ऐसा महसूस हो रहा था की आज चंदगी सब को चौका देगा.


बिना : धरती फाट जागी. जीब मारा चंदगी लढेगा. (धरती फट जाएगी. जब मेरा चंदगी लढेगा.) चुप चाप चल लो. बइयर दंगल मा कोनी जावे. (चुप चाप चल लो. औरते दंगल मे नहीं जाती.)


केतराम जाना नहीं चाहता था. वो मुरझाई सूरत बनाए अपनी पत्नी को देखता ही रहा.


बिना : इब चाल्लो ने. (अब चलो ना.)


केतराम बे मन से खड़ा हुआ. और तैयार होकर बिना, चंदगी के साथ मेले मे चल दिया. घुंघट किए बिना साथ चलते उसके दिमाग़ मे कई सवाल चल रहे थे. वही चंदगी को भी डर लग रहा था. पर वो अपनी भाभी को कभी ना नहीं बोल सकता था. मेला सात, आठ गांव के बिच था. सुबह काफ़ी भीड़ आई हुई थी. चलते केतराम और चंदगी राम आते जाते बुजुर्ग को राम राम कहता. कोई छोटा उसे राम राम करता तो वो राम राम का ज़वाब राम राम से करता. मेले मे चलते हुए उन तीनो को माइक पर दंगल का अनाउंसमेंट सुनाई दे रहा था.

पिछले साल के विजेता बिरजू धानक से कौन हाथ मिलाएगा. उसकी सुचना प्रसारित की जा रही थी. बिरजू पिछले बार का विजेता सेवा राम का छोटा भाई था. वो पिछले साल ही नहीं पिछले 3 साल से विजेता रहा हुआ था.


बिना : ए जी जाओ णे. अपने चंदगी का नाम लखा(लिखा) दो ने.


केतराम ने बस हा मे सर हिलाया. और दंगल की तरफ चल दिया. वो बोर्ड मेम्बरो के पास जाकर खड़ा हो गया. कुल 24 पहलवानो ने अपना नाम लिखवाया था. जिसमे से एक चंदगी भी था. केतराम नाम लिखवाकर वापस आ गया. उसे बेजती का बहोत डर लग रहा था.


बिना : नाम लखा(लिखा) दिया के??


केतराम ने हा मे सर हिलाया. सिर्फ केतराम ही नहीं चंदगी राम भी बहोत डर रहा था. वो पहले भी कई दंगल देख चूका था. धोबी पछड़ पटकनी सब उसे याद आ रहा था. तो बिना का भी कुछ ऐसा ही हाल था. पर उसका डर थोडा अलग था. वो ये सोच रही थी की चंदगी को दंगल लढने दिया जाएगा या नहीं. तभि अनाउंसमेंट हुई. जिन जिन पहलवानो ने अपना नाम लिखवाया है. वो मैदान मे आ जाए.


बिना : (उतावलापन) जा जा चंदगी जा जा.


चंदगी : (डर) हा...


चंदगी डरते हुए कभी अपनी भाभी को देखता. तो कभी दंगल की उस भीड़ को.


बिना : ए जी. ले जाओ णे. याने. (ए जी. ले जाओ ना इसे.)


केतराम चंदगी को दंगल मे ले गया. बिना वहां नहीं जा सकती थी. औरतों को दंगल मे जाने की मनाई थी. अनाउंसमेंट होने लगी की सारे पहलवान तैयार होकर मैदान मे आ जाए. जब केतराम चंदगी को लेकर भीड़ हटाते हुए मैदान तक पहोंचा तो वहां पहले से ही सात, आठ पहलवान लंगोट पहने तैयार खड़े थे.


केतराम : जा. उरे जाक खड्या हो जा. (जा उधर जाकर खड़ा होजा)


केतराम उसे बेमन से लाया था. क्यों की चंदगी अब भी दुबला पतला ही था. वही जो पहलवान मैदान मे पहले से ही खड़े थे. वो मोटे ताजे तगड़े थे. जब चंदगी भी अपना कुरता पजामा उतार कर लंगोट मे उनके बिच जाकर खड़ा हुआ. तो वो सारे चंदगी को हैरानी से देखने लगे. कुछ तो हस भी दिए. यह सब देख कर चंदगी और ज्यादा डरने लगा. वही बग्गा राम और सेवा राम भी पब्लिक मे वहां खड़े थे. और बग्गाराम की नजर अचानक चंदगी राम पर गई. वो चौंक गया.


बग्गाराम : (सॉक) रे या मे के देखुता. (रे ये मै क्या देख रहा हु.)


सेवा राम : (हेरत) के चंदगी????


बग्गाराम : भउ बावड़ी हो गी से. (बहु पागल हो गई है.) इसके ते हार्ड(हड्डिया) भी ना बचेंगे.


वही अनाउंसमेंट होने लगा. खेल का फॉर्मेट और नियम बताए गए. नॉकआउट सिस्टम था. 24 मे से 12 जीते हुए पहलवान और 12 से 6, 6 से 3 पहलवान चुने जाने थे. और तीनो मे से बारी बारी जो भी एक जीतेगा वो पिछली साल के विजेता बिरजू से कुस्ती लढेगा. पहले लाढने वाले पहलवानो की प्रतिद्वंदी जोडिया घोषित हो गई. चंदगी के सामने पास के ही गांव का राकेश लाढने वाला था. उसकी कुस्ती का नंबर पांचवा था.

सभी पहलवानो को एक साइड लाइन मे बैठाया गया. महेमानो का स्वागत हुआ. और खेल शुरू हुआ. चंदगी को बहोत डर लग रहा था. पहेली जोड़ी की उठा पटक देख कर चंदगी को और ज्यादा डर लगने लगा. वो जो सामने खेल देख रहा था. वे सारे दाव पेच उसके भाई केतराम ने भी उसे सिखाए थे. पर डर ऐसा लग रहा था की वही दावपेच उसे नए लगने लगे. पहेली जोड़ी से एक पहलवान बहोत जल्दी ही चित हो गया. और तुरंत ही दूसरी जोड़ी का नंबर आ गया. दूसरी कुस्ती थोड़ी ज्यादा चली.

पर नतीजा उसका भी आया. उसके बाद तीसरी और फिर चौथी कुस्ती भी समाप्त हो गई. अब नंबर चंदगी का आ गया. जीते हुए पहलवान पहेले तो पब्लिक मे घूमते. वहां लोग उन्हें पैसे इनाम मे दे रहे थे. आधा पैसा, एक पैसा जितना. उनके पास ढेर सारी चिल्लर पैसे जमा होने लगी. उसके बाद वो जीते पहलवान एक साइड लाइन मे बैठ जाते. और हरे हुए मुँह लटकाए मैदान से बहार जा रहे थे. बगल मे बैठा राकेश खड़ा हुआ.


राकेश : चाल. इब(अब) अपणा नम्बर आ लिया.


चंदगी डरते हुए खड़ा हुआ. और डरते हुए मैदान मे आ गया. सभी चंदगी को देख कर हैरान रहे गए. दूसरे गांव वाले भी चंदगी को जानते थे. राकेश के मुकाबले चंदगी बहोत दुबला पतला था. हलाकि चंदगी का बदन भी कशरती हो चूका था. उसने बहोत महेनत की थी. मैच रेफरी ने दोनों को तैयार होने को कहा. और कुश्ती शुरू करने का इशारा दिया. दोनों ही लढने वाली पोजीशन लिए तैयार थे. बस चंदगी थोड़ा डर रहा था. हिशारा मिलते ही पहले राकेश आगे आया. और चंदगी पर पकड़ बना ने की कोशिश करने लगा. वही पोजीसन चंदगी ने भी बनाई.

मगर वो पहले से बचने की कोशिश करने लगा. दोनों ही पहलवानो ने एक दूसरे की तरफ झूकते हुए एक दूसरे के बाजु पकडे. और दोनों ही एक दूसरे की तरफ झूक गए. दोनों इसी पोजीशन मे बस ऐसे ही खड़े हो गए. सब सोच रहे थे की राकेश अभी चंदगी को पटकेगा. पर वो पटक ही नहीं रहा था. कुछ ज्यादा समय हुआ तो मैच रेफरी आगे आए. और दोनों को छुड़वाने के लिए दोनों को बिच से पकड़ते है. लोगो ने देखा. सारे हैरान रहे गए. राकेश के दोनों हाथ झूल गए.

वो अपनी ग्रीप छोड़ चूका था. छूट ते ही वो पहले जमीन पर गिर गया. खुद चंदगी ने ही झट से उसे सहारा देकर खड़ा किया. मैच रेफरी ने राकेश से बात की. वो मुँह लटकाए मरी मरी सी हालत मे बस हा मे सर हिला रहा था. उसके बाद वो रोनी सूरत बनाएं मैदान के बहार जाने लगा. उसके दोनों हाथ निचे ऐसे झूल रहे थे. जैसे लकवा मार गया हो. हकीकत यह हुआ की चंदगी ने डर से राकेश पर जब ग्रीप ली. तो उसने इतनी जोर से अपने पंजे कस दिए की राकेश का खून बंद हो गया. और खून का बहाव बंद होने से राकेश के हाथ ही बेजान हो गए थे. यह किसी को समझ नहीं आया. पर वहां आए चीफ गेस्ट को पता चल गया था की वास्तव मे हुआ क्या है.


कुश्ती अध्यक्ष : (माइक पर) रे के कोई जादू टोना करया(किया) के???


तभि चीफ गेस्ट खड़े हुए. और ताली बजाने लगे. एकदम से पब्लिक मे हा हा कार मच गइ. माइक पर तुरंत ही चंदगी के जीत की घोसणा कर दीं गई. मैदान और भीड़ से दूर सिर्फ माइक पर कमेंट्री सुन रही बिना ने जब सुना की उसका लाडला देवर अपने जीवन की पहेली कुश्ती जीत गया है तो उसने अपना घुंघट झट से खोल दिया. और मुस्कुराने लगी. उसकी आँखों मे खुशियों से अंशू बहे गए. पर गांव की लाज सरम कोई देख ना ले.

उसने वापस घुंघट कर लिया. वो घुंघट मे अंदर ही अंदर मुस्कुरा रही थी. पागलो के जैसे हस रही थी. जैसे उस से वो खुशी बरदास ही ना हो रही हो. केतराम भी पहले तो भीड़ मे अपने आप को छुपाने की कोसिस कर रहा था. पर जब नतीजा आया. वो भी मुस्कुराने लगा. पर भीड़ मे किसी का भी ध्यान उसपर नहीं था. वो गरीब अकेला अकेला ही मुस्कुरा रहा था. वही जीत के बाद भी चंदगी को ये पता ही नहीं चल रहा था की हुआ क्या. पब्लिक क्यों चिल्ला रही है. उसे ये पता ही नहीं चला की वो मैच जीत चूका है. मैच रेफरी ने चंदगी से मुस्कुराते हुए हाथ मिलाया.


मैच रेफरी : भाई चंदगी मुबरका. तू ते जीत गया.


तब जाकर चंदगी को पता चला. और वो मुस्कुराया. लेकिन चीफ गेस्ट बलजीत सिंह चंदगी को देख कर समझ गए थे की कुश्ती मे चंदगी ने एक नया अविष्कार किया है. मजबूत ग्रीप का महत्व लोगो को समझाया है. उसके बाद चादगी बारी बारी ऐसे ही अपनी सारी कुश्ती जीत ता चला गया. और आखरी कुश्ती जो बिरजू से थी. उसका भी नंबर आ गया. अनाउंसमेंट हो गया. अब बिरजू का मुकाबला चंदगी से होगा.

सभी तालिया बजाने लगे. चार मुकाबले जीत ने के बाद चंदगी का कॉन्फिडेंस लेवल बहोत ऊपर था.
वही बिरजू देख रहा था की चंदगी किस तरह अपने प्रतिद्वंदी को हरा रहा है. किस तरह वो बस पकड़ के जरिये ही पहलवानो के हाथ पाऊ सुन कर देता. राकेश मानसिक रूप से पहले ही मुकाबला हार गया. पर जब चंदगी के साथ उसकी कुश्ती हुई तो उसने खुदने महसूस किया की किस तरह चंदगी ने पकड़ बनाई. और वो इतनी जोर से कश्ता की खून का बहना ही बंद हो जा रहा है.

दो बार का चैंपियन राकेश बहोत जल्दी हार गया. और चंदगी राम पहलवान नया विजेता बना. उसे मान सन्मान मिला. और पुरे 101 रूपये का इनाम मिला. भीड़ से दूर बिना बेचारी जो माइक पर कमेंट्री सुनकर ही खुश हो रही थी. जीत के बाद चंदगी भाई के पास नहीं भीड़ को हटाते अपनी भाभी के पास ही गया. उसने अपनी भाभी के पाऊ छुए. यह सब सेवा राम और बग्गा राम ने भी देखा. वो अपना मुँह छुपाककर वहां से निकल गए.

गांव मे कई बार आते जाते बिना का सामना सेवा राम और बग्गा राम से हुआ. पर बिना उनसे कुछ बोलती नहीं. बस घुंघट किए वहां से चली जाती. बिना को ये जीत अब भी छोटी लग रही थी. वो कुछ और बड़ा होने का इंतजार कर रही थी. इसी बिच चंदगी राम उन्नति की सीढिया चढने लगा. वो स्कूल की तरफ से खेलते जिला चैंपियन बना. और फिर स्टेट चैंपियन भी बना.

बिना को इतना ही पता था. वो बहोत खुश हो गई. उसने अपने पति केतराम से कहकर पुरे गांव मे लड्डू बटवाए. और बिना खुद ही उसी नुक्कड़ पर लड्डू का डिब्बा लिए पहोच गई. बग्गा राम और सेवा राम ने भी बिना को आते देख लिया. और बिना को देखते ही वो वहां से मुँह छुपाकर जाने लगे. लेकिन बिना कैसे मौका छोड़ती.


बिना : राम राम चौधरी साहब. माराह चादगी पहलवान बण गया. लाड्डू (लड्डू) तो खाते जाओ.


ना चाहते हुए भी दोनों को रुकना पड़ा. बिना उनके पास घुंघट किए सामने खड़ी हो गई. और लड्डू का डिब्बा उनके सामने कर दिया.


बिना : लाड्डू खाओ चौधरी साहब. मारा चंदगी सटेट चैम्पयण ( स्टेट चैंपियन) बण गया.


बग्गा राम : भउ(बहु) क्यों भिगो भिगो जूता मारे है.


सेवा राम : हम ते पेले (पहले) ही सर्मिन्दा से. ले चौधरी सु. जबाण (जुबान) का पक्का.


बोलते हुए सेवाराम ने अपनी पघड़ी बिना के पेरो मे रखने के लिए उतरी. पर बिना ने सेवा राम के दोनों हाथो को पकड़ लिया. और खुद ही अपने हाथो से सेवा राम को उसकी पघड़ी पहनाइ.


बिना : ओओ ना जी ना. जाटा की पघड़ी ते माथे पे ही चोखी लगे है. जे तम ना बोलते तो मारा चंदगी कित पहलवान बणता. मे तो थारा एहसाण मानु हु. बस तम मारे चंदगी ने आशीर्वाद देओ.
(ओओ नहीं जी नहीं. जाटो की पघड़ी तो सर पर ही अच्छी लगती है. जो आप ना बोलते तो मेरा चंदगी कैसे पहलवान बनता. मै तो आप लोगो का एहसान मानती हु. बस आप मेरे चंदगी को आशीर्वाद दो.)


सेवा राम : थारा चंदगी सटेट चैम्पयण के बल्ड चैम्पयण बणेगा. देख लिए.
(तेरा चंदगी स्टेट चैंपियन क्या वर्ल्ड चैंपियन बनेगा. देख लेना.)


बिना ने झूक कर दोनों के पाऊ छुए. लेकिन चादगी राम इतने से रुकने वाले नहीं थे. वो स्पोर्ट्स कोटे से आर्मी जाट रेजीमेंट मे भार्थी हुए. दो बार नेशनल चैंपियन बने. उसके बाद वो हिन्द केशरी बने. 1969 मे उन्हें अर्जुन पुरस्कार और 1971 में पदमश्री अवार्ड से नवाजा गया। इसमें राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के अलावा हिंद केसरी, भारत केसरी, भारत भीम और रूस्तम-ए-हिंद आदि के खिताब शामिल हैं।

ईरान के विश्व चैम्पियन अबुफजी को हराकर बैंकाक एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतना उनका सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन माना जाता है। उन्होंने 1972 म्युनिख ओलम्पिक में देश का नेतृत्व किया और दो फिल्मों 'वीर घटोत्कच' और 'टारजन' में काम किया और कुश्ती पर पुस्तकें भी लिखी। 29 जून 2010 नइ दिल्ली मे उनका निधन हो गया. ये कहानी चंदगी राम जी को समर्पित है. भगवान उनकी आत्मा को शांति दे.


The end...



Jaat balwan
 
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Shetan जी, आपसे बहुत उम्मीदें थीं और आपने वो अभी पूरी कर दीं!

"चंदगी राम पहलवान" के बारे में मुझे पता नहीं। लेकिन इस कहानी के माध्यम से आपने जो चित्र खींचा है, आनंद आ गया! बहुत बढ़िया!

पात्रों की भाषा हरियाणवी है, इसलिए थोड़ा ज़मीन की सुगंध भी आ रही है कहानी से। एक सरल सी कहानी, जिसको पढ़ने में मुस्कान आ गई।
आपकी पिछली 'विजेता' कहानी के समान ही शुरू से ले कर अंत तक बस मुस्कुराता रहा इसको पढ़ते हुए। जैसा कि ऊपर समर भाई ने लिखा है - बायोग्राफी फिक्शन यहाँ पहली बार पढ़ा! क्या बात है! आपकी प्रतिभा अलग ही है।

बिना, केतराम, और चंदगी - एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों की आकाँक्षाओं के प्रतीक हैं। उनकी ज़िद कि हम विषम परिस्थितियों में भी जीतेंगे, यह उनकी जिजीविषा का प्रतीक है।
कुछ भी हुआ, बिना प्रतिशोधी नहीं है -- वो बस चाहती है कि उसका बड़ा "बेटा" तरक़्क़ी करे। उसी ने उसको जीवन में आगे जाने का मार्ग दिखाया और वो सब किया जिससे उसे तरक्की करने की प्रेरणा मिलती रहे। त्याग, संकल्प... सब कुछ है! इसलिए सीखने को भी मिलता है कहानी से।

छोटी छोटी बस तीन चार वर्तनी की त्रुटियाँ दिखीं जो पहले से बहुत कम हैं। मतलब आपने बहुत काम किया इस इस दिशा में!
अनावश्यक बाल की खाल नहीं उतारूँगा -- बहुत सुन्दर सी कहानी है। सुगम्य और रोचक!

आशा है कि इस बार आप फिर से USC जीतें और यही कहानी विजयी बने!
 
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