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Khubsurat update dost☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 27
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अब तक,,,,,,
सरोज काकी के कहने पर अनुराधा ने मुझे लोटा गिलास में ला कर पानी पिलाया। कुछ देर हम सारे सामान के बारे में ही बातें करते रहे और बाकी जो सामान चाहिए था उसके बारे में भी। जगन काका बड़ा खुश दिख रहा था। मेरे और उसके बीच अब कोई मनमुटाव नहीं रह गया था। ख़ैर चाय पीने के बाद मैंने काकी से इजाज़त ली और मोटर साइकिल में बैठ कर अपने गांव की तरफ चल दिया।
अब आगे,,,,,,
सूरज अस्त हो चुका था और शाम का धुंधलका छाने लगा था। वातावरण में मोटर साइकिल की तेज़ आवाज़ गूँज रही थी और मैं अपनी ही धुन में आगे बढ़ा चला जा रहा था कि तभी मुझे अपने दाएं तरफ सड़क के किनारे खेतों में उगी गेहू की फसल में कुछ हलचल सी महसूस हुई। जैसा कि मैंने बताया शाम का धुंधलका छाने लगा था इस लिए मुझे कुछ ख़ास दिखाई नहीं दिया। हालांकि मैंने ज़्यादा ध्यान भी नहीं दिया और आगे बढ़ता ही रहा। तभी हलचल फिर से हुई और इस बार ये हलचल सड़क के दोनों तरफ हुई थी। ये मेरा वहम नहीं था। मेरे ज़हन में बिजली की तरह ये ख़याल आया कि कुछ तो गड़बड़ ज़रूर है। ये सोच कर मैंने मोटर साइकिल की रफ़्तार और तेज़ कर दी।
मोटर साइकिल की रफ़्तार तेज़ हुई तो सड़क के दोनों तरफ बड़ी तेज़ी से हलचल शुरू हो गई। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता मेरे सामने से एक मोटी रस्सी बड़ी ही तेज़ी से मेरी तरफ आई। ऐन वक़्त पर मैंने अपने सिर को तेज़ी से झुका लिया जिससे वो रस्सी मेरे सिर के बालों को छूती हुई पीछे निकल गई। एक पल के लिए तो मेरी रूह तक कांप गई कि ये अचानक से क्या हो गया था। ज़ाहिर था कि सड़क के दोनों तरफ कोई था जो मोटी रस्सी को हाथ में पकडे हुए था और जैसे ही मैं उस रस्सी की ज़द में आया तो दोनों तरफ से रस्सी को उठा लिया गया था। ये तो मेरी किस्मत थी कि सही समय पर मुझे वो रस्सी नज़र आ गई और मैंने ऐन वक़्त पर अपने सिर को बड़ी तेज़ी से झुका लिया था वरना उस रस्सी में फंस कर मैं मोटर साइकिल से निश्चित ही नीचे गिर जाता।
मैंने पीछे पलट कर देखने की ज़रा सी भी कोशिश नहीं की बल्कि मोटर साइकिल को और भी तेज़ी से दौड़ाता हुआ गांव की तरफ निकल गया। इतना तो मैं समझ चुका था कि गांव से दूर इस एकांत जगह पर कोई मेरे आने का पहले से ही इंतज़ार कर रहा था। कदाचित उसका मकसद यही था कि वो इस एकांत में मुझे इस तरह से गिराएगा और फिर मेरे साथ कुछ भी कर गुज़रेगा। मेरे ज़हन में उस दिन शाम का वो वाक्या उजागर हो गया था जब वो दो साए एकदम से प्रगट हो गए थे और मुझ पर हमला कर दिए थे। मेरा दिल बड़ी तेज़ी से ये सोच सोच कर धड़के जा रहा था कि इस वक़्त मैं बाल बाल बचा था वरना आज ज़रूर मैं एक गंभीर संकट में फंस जाने वाला था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आख़िर कौन हो सकता है ऐसा जो मुझे इस तरह से नुकसान पहुंचा सकता है? मेरे ज़हन में रूपचन्द्र का ख़याल आया कि क्या वो इस तरह से मुझे नुकसान पंहुचा सकता है या फिर साहूकारों में से कोई ऐसा है जो मेरी जान का दुश्मन बना बैठा है?
यही सब सोचते हुए मैं हवेली में पहुंच गया। मोटर साइकिल खड़ी कर के मैं हवेली के मुख्य दरवाज़े से होते हुए अंदर आया तो बैठक में मुझे पिता जी नज़र आए। इस वक़्त वो अकेले ही थे और अपने हाथ में लिए हुए मोटी सी किताब में कुछ पढ़ रहे थे। मेरे ज़हन में ख़याल आया कि क्या मुझे पिता जी से इस सबके बारे में बात करनी चाहिए? मेरे दिल ने कहा कि बेशक बात करनी चाहिए और हो सकता है कि इससे कुछ और भी बातें खुल जाएं। ये सोच कर मैं उनकी तरफ बढ़ा तो उन्हें मेरे आने की आहट हुई जिससे उन्होंने सिर उठा कर मेरी तरफ देखा।
"क्या बात है?" मुझे अपने क़रीब आया देख उन्होंने किताब को बंद करते हुए कहा____"सब ठीक तो है न?"
"मुझे लगता है कि सब ठीक नहीं है पिता जी।" मैंने गंभीर भाव से कहा____"अचानक से कुछ ऐसी चीज़ें होने लगी हैं जिनकी मुझे बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी।"
"हमारे कमरे में चलो।" पिता जी अपने सिंघासन से उठते हुए बोले____"वहीं पर तफ़सील से सारी बातें होंगी।"
"जी बेहतर।" मैंने अदब से कहा और उनके पीछे पीछे चल दिया। कुछ ही देर में मैं उनके साथ उनके कमरे में आ गया। पिता जी का कमरा बाकी कमरों से ज़्यादा बड़ा था और भव्य भी था।
"बैठो।" अपने बिस्तर पर बैठने के बाद उन्होंने मुझे एक कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए कहा तो मैं चुप चाप बैठ गया।
"अब बताओ।" मेरे बैठते ही उन्होंने मुझसे कहा_____"किस बारे में बात कर रहे थे तुम?"
"पिछले कुछ दिनों से।" मैंने खुद को नियंत्रित करते हुए कहा____"मेरे साथ कुछ अजीब सी घटनाएं हो रही हैं पिता जी।"
मैंने पिता जी को साए वाली सारी बातें बता दी कि कैसे एक दिन शाम को मुझे एक साया नज़र आया और उसने मुझसे बात की उसके बाद फिर दो साए और आए और उन्होंने मुझ पर हमला किया जिसमे पहले वाले साए ने उनसे भिड़ कर मुझे बचाया। मैंने पिता जी को वो वाक्या भी बताया जो अभी रास्ते में हुआ था। सारी बातें सुनने के बाद पिता जी के चेहरे पर गंभीरता छा गई। कुछ देर वो जाने क्या सोचते रहे फिर गहरी सांस लेते हुए बोले____"हमने पहले भी तुम्हें इसके लिए आगाह किया था कि आज कल वक़्त और हालात ठीक नहीं चल रहे हैं। ऐसे में तुम्हें बहुत ही ज़्यादा सम्हल कर चलने की ज़रूरत है।"
"हम कितना भी सम्हल कर चलें पिता जी।" मैंने पहलू बदलते हुए कहा____"लेकिन छिप कर हमला करने वालों का कोई क्या कर लेगा? मैं ये जानना चाहता हूं कि इस तरह का वाक्या सिर्फ मेरे साथ ही हो रहा है या हवेली के किसी और सदस्य के साथ भी ऐसा हो रहा है? अगर ये सिर्फ मेरे साथ ही हो रहा है तो ज़ाहिर है कि जो कोई भी ये कर रहा है या करवा रहा है वो सिर्फ मुझे ही अपना दुश्मन समझता है।"
"इस तरह का वाक्या अभी फिलहाल तुम्हारे साथ ही हो रहा है।" पिता जी ने सोचने वाले अंदाज़ से कहा____"किसी और के साथ यदि ऐसा हो रहा होता तो इस बारे में हमें ज़रूर पता चलता। जैसे अभी तुमने हमें अपने साथ हुए इस मामले के बारे में बताया वैसे ही हवेली के वो लोग भी बताते जिनके साथ ऐसा हुआ होता। जिस तरह के हालात बने हुए हैं उससे हमें शुरू से ही ये आभास हो रहा था कि जो कोई भी ये कर रहा है वो तुम्हें ही सबसे पहले अपना मोहरा बनाएगा। इस लिए हमने गुप्त रूप से तुम्हारी सुरक्षा के लिए एक ऐसे आदमी को लगा दिया था जो तुम्हारे आस पास ही रहे और तुम्हारी रक्षा करे। तुम जिस पहले वाले साए की बात कर रहे हो उसे हमने ही तुम्हारी सुरक्षा के लिए लगा रखा है। उसके बारे में हमारे सिवा दूसरा कोई नहीं जानता है और हां तुम भी उससे कोई बात नहीं करोगे और ना ही किसी से उसके बारे में ज़िक्र करोगे।"
"तो क्या वो हर पल मेरे आस पास ही रहता है?" मैं ये जान कर मन ही मन हैरान हुआ था कि पहला वाला साया पिता जी का आदमी था। मेरी बात सुन कर पिता जी ने कहा____"वो उसी वक़्त तुम्हारे आस पास रहेगा जब तुम हवेली से बाहर निकलोगे। उसका काम सिर्फ इतना ही है कि जैसे ही तुम हवेली से बाहर निकलो तो वो तुम्हारी सुरक्षा के लिए तुम्हारे पीछे साए की तरह लग जाए, किन्तु इस तरीके से कि तुम्हें या किसी और को उसके बारे में भनक भी न लग सके।"
"तो क्या दिन में भी वो मेरे आस पास रहता है?" मैंने कुछ सोचते हुए पूछा तो पिता जी ने कहा____"नहीं, दिन में नहीं रहता। दिन में तुम्हारी सुरक्षा के लिए हमने दूसरे लोग लगा रखे हैं जो अपना चेहरा छुपा कर नहीं रखते।"
"क्या अभी तक ये पता नहीं चला कि हमारे साथ ये सब कौन कर रहा है?" मैंने पिता जी की तरफ देखते हुए पूछा।
"ये इतना आसान नहीं है बरखुर्दार।" पिता जी ने अजीब भाव से कहा_____"गुज़रते वक़्त के साथ साथ हमें भी ये समझ आ गया है कि जो कोई भी ये सब कर रहा है वो बहुत ही शातिर है। वो ऐसा कोई भी काम नहीं करता है जिसकी वजह से उसकी ज़रा सी भी ग़लती हमारी पकड़ में या हमारी नज़र में आ जाए। यही वजह है कि अभी तक हम कुछ पता नहीं कर पाए और ना ही इस मामले में कुछ कर पाए।"
"साहूकारों के बारे में आपका क्या ख़याल है?" मैंने धड़कते हुए दिल से कहा____"उन्होंने हमसे अपने रिश्ते सुधार लिए हैं। ज़ाहिर है कि अब उनका आना जाना हवेली में लगा ही रहेगा। आपको क्या लगता है...क्या उन्होंने अपने किसी मकसद के लिए हमसे अपने सम्बन्ध सुधारे होंगे या फिर सच में वो सुधर गए हैं?"
"तुम्हारे मन में उन लोगों के प्रति ये जो सवाल उभरा है।" पिता जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"यही सवाल गांव के लगभग हर आदमी के मन में उभरा होगा। साहूकारों ने हमसे अपने रिश्ते सुधार लिए ये कोई साधारण बात नहीं है। आज कल हर आदमी के मन में यही सवाल उभरा हुआ होगा कि क्या सच में शाहूकार लोग सुधर गए हैं और उनके मन में अब हमारे प्रति कोई बैर भाव नहीं है? इन सभी सवालों के जवाब तो हमें तभी मिलेंगे जब उनकी तरफ से कुछ ऐसा होता हुआ दिखेगा जो कि उनकी मंशा को स्पष्ट रूप से ज़ाहिर कर दे। जब तक वो शरीफ बने रहेंगे तब तक हम कुछ भी नहीं कह सकते कि उनके मन में क्या है लेकिन हां इतना ज़रूर कर सकते हैं कि उनकी तरफ से बढ़ने वाले किसी भी क़दम के लिए हम पहले से ही पूरी तरह से तैयार और सतर्क रहें।"
"मुरारी काका के हत्यारे के बारे में क्या कुछ पता चला?" मेरे पूछने पर पिता जी ने कुछ देर तक मेरी तरफ देखा फिर शांत भाव से बोले____"हमने दरोग़ा को बुलाया था और अकेले में उससे इस बारे में पूछा भी था लेकिन उसने यही कहा कि उसके हाथ अभी तक कोई सुराग़ नहीं लगा है। उसका कहना है कि अगर हमने उसे मौका-ए-वारदात पर आने दिया होता और घटना स्थल की जांच करने दी होती तो शायद उसे कोई न कोई ऐसा सुराग़ ज़रूर मिल जाता जिससे उसे मुरारी की हत्या के मामले में आगे बढ़ने के लिए कुछ मदद मिल जाती।"
"तो क्या अब ये समझा जाए कि मुरारी काका के हत्यारे का पता लगना नामुमकिन है?" मैंने कहा____"ज़ाहिर है कि जैसे जैसे दिन गुज़रते जाएंगे वैसे वैसे ये मामला और भी ढीला होता जाएगा। उस सूरत में हत्या से सम्बंधित कोई भी सुराग़ मिलना संभव तो हो ही नहीं सकेगा।"
"मुरारी के हत्यारे का पता एक दिन तो ज़रूर चलेगा।" पिता जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"देर से ही सही लेकिन हत्यारा हमारी नज़र में ज़रूर आएगा। क्योंकि हमें अंदेशा ही नहीं बल्कि यकीन भी है कि मुरारी की हत्या बेवजह नहीं हुई थी। उसकी हत्या किसी ख़ास मकसद के तहत की गई थी। मुरारी की हत्या में तुम्हें फंसाना ही हत्यारे का मकसद था लेकिन वो उस मकसद में कामयाब नहीं हुआ। शायद यही वजह है कि अब वो तुम्हारे साथ ये सब कर रहा है। उसे ये समझ आ गया है कि किसी की हत्या में तुम्हें फंसाने से तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा इस लिए अब वो सीधे तौर पर तुम्हें नुकसान पहुंचाना चाहता है।"
"बड़े भैया के बारे में कुल गुरु ने जो कुछ कहा।" मैंने धड़कते दिल से पिता जी की तरफ देखते हुए कहा_____"वो सब आपने बाकी लोगों को क्यों नहीं बताया?"
"क्या मतलब???" पिता जी मेरे मुँह से ये बात सुन कर बुरी तरह चौंके थे____"हमारा मतलब है कि ये क्या कह रहे हो तुम?"
"इस बारे में मुझे सब पता है पिता जी।" मैंने संजीदा भाव से कहा____"और मैं ये जानना चाहता हूं कि उनके बारे में जो कुछ भी कुल गुरु ने कहा क्या वो सच है? क्या सच में बड़े भैया का जीवन काल...??"
"ख़ामोश।" पिता जी एकदम से बोल पड़े____"ये सब रागिनी बहू ने बताया है न तुम्हें?"
"क्या फ़र्क पड़ता है पिता जी?" मैंने कहा____"सच जैसा भी हो वो कहीं न कहीं से सामने आ ही जाता है। आपको पता है बड़े भैया को भी अपने बारे में ये सब बातें पता है।"
"क्या????" पिता जी एक बार फिर चौंके____"उसे कैसे पता चली ये बात? हमने रागिनी को शख़्ती से मना किया था कि वो इस बात को राज़ ही रखे।"
"आख़िर क्यों पिता जी?" मैंने ज़ोर देते हुए कहा____"बड़े भैया के बारे में ये सब बातें राज़ क्यों रख रहे हैं आप?"
"ये जानना तुम्हारे लिए ज़रूरी नहीं है।" पिता जी ने कठोर भाव से कहा____"अब तुम जा सकते हो।"
"मैं अपने जीते जी बड़े भैया को कुछ नहीं होने दूंगा।" मैंने कुर्सी से उठते हुए कहा____"और जिस कुल गुरु ने मेरे बड़े भैया के बारे में ऐसी घटिया भविष्यवाणी की है उसका खून कर दूंगा मैं।"
"अपनी हद में रहो लड़के।" पिता जी एकदम से गुस्से में बोले____"गुरु जी के बारे में ऐसा बोलने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?"
"कोई मेरे भाई के बारे में ऐसी बकवास भविष्यवाणी करे।" मैंने भी शख़्त भाव से कहा____"तो क्या मैं उसकी आरती उतारूंगा? वैभव सिंह ऐसे गुरु की गर्दन उड़ा देना ज़्यादा पसंद करेगा।"
इससे पहले कि पिता जी कुछ बोलते मैं एक झटके से कमरे से बाहर आ गया। मेरे अंदर एकदम से गुस्सा भर गया था जिसे मैं शांत करने की कोशिश करते हुए अंदर बरामदे में आया। मेरी नज़र एक तरफ कुर्सी में बैठी माँ पर पड़ी। वो एक नौकरानी से कुछ कह रहीं थी। मैं सीधा आँगन से होते हुए दूसरी तरफ आया। इस तरफ विभोर और अजीत कुर्सी में बैठे हुए थे और एक कुर्सी पर चाची बैठी हुईं थी। मुझे देखते ही विभोर और अजीत कुर्सी से उठ कर खड़े हो गए। मैंने चाची को प्रणाम किया और सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया।
मैं तेज़ी से सीढ़ियां चढ़ते हुए ऊपर आया तो एकदम से किसी से टकरा गया किन्तु जल्दी ही सम्हला और अभी खड़ा ही हुआ था कि मेरी नज़र भाभी पर पड़ी। मुझसे टकरा जाने से वो भी पीछे की तरफ झोंक में चली गईं थी और पीछे मौजूद दीवार पर जा लगीं थी।
"माफ़ करना भाभी।" मैं बौखलाए हुए भाव से बोल पड़ा____"मैंने जल्दी में आपको देखा ही नहीं।"
"तुम जब देखो आंधी तूफ़ान ही बने रहते हो?" भाभी ने अपनी साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए कहा____"कहां जाने की इतनी जल्दी रहती है तुम्हें?"
"ग़लती हो गई भाभी।" मैंने मासूम सी शक्ल बनाते हुए कहा____"अब माफ़ भी कर दीजिए न।"
"हां हां ठीक है, जाओ माफ़ किया।" भाभी ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"तुम भी क्या याद रखोगे कि किस दिलदारनी से पाला पड़ा था।"
"भैया कहा हैं भाभी?" मैंने भाभी की बात पर ध्यान न देते हुए पूछा तो उन्होंने कमरे की तरफ इशारा करते हुए कहा____"तुम्हारे भैया जी कमरे में आराम फरमा रहे हैं।"
मैं भाभी की बात सुन कर उनके कमरे की तरफ बढ़ चला और वो नीचे चली गईं। कुछ ही पलों में मैं भैया के कमरे का दरवाज़ा खटखटाते हुए उन्हें आवाज़ दे रहा था। थोड़ी देर में दरवाज़ा खुला और भैया नज़र आए मुझे।
"तू यहाँ???" मुझे देखते ही बड़े भैया ने शख़्त भाव से कहा तो मैंने हैरानी से देखते हुए उनसे कहा____"हां भैया, मैं आपसे मिलने आया हूं।"
"पर मुझे तुझसे कोई बात नहीं करनी।" भैया ने गुस्से वाले अंदाज़ में कहा_____"अब इससे पहले कि मेरा हांथ उठ जाए चला जा यहाँ से।"
"ये आप क्या कह रहे हैं भैया?" मारे आश्चर्य के मेरा बुरा हाल हो गया। मुझे समझ में नहीं आया कि भैया को अचानक से क्या हो गया है और वो इतने गुस्से में क्यों हैं? कल तक तो वो मुझसे बहुत ही अच्छे से बात कर रहे थे लेकिन इस वक़्त उनका बर्ताव ऐसा क्यों है? अभी मैं ये सोच ही रहा था कि उन्होंने मुझे धक्का देते हुए गुस्से में कहा____"तुझे एक बार में बात समझ में नहीं आती क्या? दूर हो जा मेरी नज़रों के सामने से वरना तेरे लिए अच्छा नहीं होगा।"
"ये आप कैसी बातें कर रहे हैं?" मैंने फटी फटी आँखों से उन्हें देखते हुए कहा_____"क्या हो गया है आपको?"
"चटाक्क्।" मेरे बाएं गाल पर उनका ज़ोरदार थप्पड़ पड़ा जिससे कुछ पलों के लिए मेरे कान ही झनझना गए, जबकि उन्होंने गुस्से में कहा_____"मैंने कह दिया न कि मुझे तुझसे कोई बात नहीं करना। अब जा वरना तेरे जिस्म के टुकड़े टुकड़े कर दूंगा।"
कहने के साथ ही भैया ने मुझे ज़ोर का धक्का दिया और फिर पलट कर कमरे के अंदर दाखिल हो कर तेज़ी से दरवाज़ा बंद कर लिया। मैं भौचक्का सा बंद हो चुके दरवाज़े की तरफ देखता रह गया था। मेरा ज़हन जैसे कुंद सा पड़ गया था। मेरी आँखें जैसे इस सबको देखने के बाद भी यकीन नहीं कर पा रहीं थी। कुछ पलों बाद जब मेरे ज़हन ने काम किया तो मैं पलटा और अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।
कमरे में आ कर मैं पलंग पर लेट गया और अभी जो कुछ भी हुआ था उसके बारे में सोचने लगा। मुझे अभी भी यकीन नहीं हो रहा था कि भैया मुझसे गुस्सा थे और उस गुस्से में उन्होंने मुझे थप्पड़ मार दिया है। मेरे ज़हन में एक ही पल में न जाने कितने ही सवाल मानो तांडव सा करने लगे। आख़िर क्या हो गया था बड़े भैया को? वो इतने गुस्से में क्यों थे? क्या भाभी की वजह से वो पहले से ही गुस्से में थे? कल ही की तो बात है वो मुझसे कितना स्नेह और प्यार से बातें कर रहे थे और अपने साथ मुझे भांग वाला शरबत पिला रहे थे। मुझे अपने सीने से भी लगाया था उन्होंने। उस वक़्त मैंने देखा था कि वो कितना खुश थे लेकिन अभी जो कुछ मैंने देखा सुना और जो कुछ हुआ वो सब क्या था? सोचते सोचते मेरे दिमाग़ की नसें तक दर्द करने लगीं मगर कुछ समझ न आया मुझे। फिर ये सोच कर मैंने इन सब बातों को अपने ज़हन से निकालने का सोचा कि भाभी से इस बारे में पूछूंगा।
रात में कुसुम मुझे खाना खाने के लिए बुलाने आई तो मैं चुप चाप खाना खाने चला गया। इस दौरान भी मेरे ज़हन में बड़े भैया ही रहे। हम सबके बीच एक कुर्सी पर वो भी खाना खा रहे थे और मैं बार बार उनकी तरफ देखने लगता था। वो हमेशा की तरह ख़ामोशी से खाना खा रहे थे और मैं उनके चेहरे के भावों को समझने की कोशिश कर रहा था किन्तु इस वक़्त उनके चेहरे पर ऐसे कोई भी भाव नहीं थे जिससे मैं किसी बात का अंदाज़ा लगा सकता। ख़ैर खाना खाने के बाद सब लोग अपने अपने कमरे में चले गए और मैं ये सोचने लगा कि भाभी से अगर अकेले में मुलाक़ात हो जाए तो मैं उनसे बड़े भैया के इस बर्ताव के बारे में कुछ पूछ सकूं लेकिन दुर्भाग्य से मुझे ऐसा मौका मिला ही नहीं और मजबूरन मुझे अपने कमरे में चले जाना पड़ा।
अपने कमरे में पलंग पर लेटा मैं काफी देर तक सोचता रहा और फिर न जाने कब मेरी आँख लग गई। पता नहीं मुझे सोए हुए कितना वक़्त गुज़रा था लेकिन इस वक़्त मेरी पलकों के तले एक ख़्वाब चल रहा था। वो ख़्वाब ठीक वैसा ही था जैसा उस रात मुंशी चंद्रकांत के घर सोते समय मैंने देखा था। मैं किसी वीराने में अकेला पड़ा हुआ था। मेरे आस पास अँधेरा था लेकिन उस अँधेरे में भी मैं देख सकता था कि मेरे चारो तरफ से काला गाढ़ा धुआँ अपनी बाहें फैलाए हुए आ रहा है। मैं उस धुएं को देख कर बुरी तरह घबराने लगता हूं। कुछ ही देर में वो काला गाढ़ा धुआँ मेरे जिस्म को चारो तरफ से छूने लगता है और धीरे धीरे मैं उस धुएं मैं डूबने लगता हूं। ख़ुद को काले धुएं में डूबता देख मैं बुरी तरह अपने हाथ पैर चलाता हूं और मारे दहशत के पूरी शक्ति से चीख़ता भी हूं लेकिन मेरी आवाज़ मेरे हलक से बाहर नहीं निकलती। जैसे जैसे मैं उस धुएं में डूब रहा था वैसे वैसे डर और घबराहट से मेरा बुरा हाल हुआ जा रहा था। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कोई मेरा गला दबाता जा रहा है और मैं अपने बचाव के लिए कुछ भी नहीं कर पा रहा हूं। एक वक़्त ऐसा भी आया जब मेरा समूचा जिस्म उस काले गाढ़े धुएं में डूब गया और तभी मैं बुरी तरह छटपटाते हुए एकदम से उठ बैठता हूं।
मेरी नींद टूट चुकी थी। मैं बौखलाया सा कमरे में इधर उधर देखने लगा। मेरी साँसें धौकनी की मानिन्द चल रहीं थी। समूचा जिस्म पसीने से तर बतर था। कमरे में बिजली का बल्ब जल रहा था और कमरे की छत में कुण्डे पर झूलता हुआ पंखा अपनी मध्यम गति से चल रहा था। हर तरफ गहन ख़ामोशी छाई हुई थी और इस ख़ामोशी में अगर कोई आवाज़ गूँज रही थी तो वो थी मेरी उखड़ी हुई साँसों की आवाज़।
कुछ पल लगे मेरे ज़हन को जाग्रित होने में और फिर मुझे समझ आया कि मैं आज फिर से वही बुरा ख़्वाब देख रहा था जो उस रात मुंशी के घर में देखा था और उसके चलते मैं बुरी तरह से चीख़ कर उठ बैठा था किन्तु आज मैं चीख़ते हुए नहीं उठा था। हालांकि ख़्वाब में मैं पूरी शक्ति से चीख़ रहा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर इस तरह का ख़्वाब आने का क्या मतलब है? ये कोई इत्तेफ़ाक़ नहीं हो सकता था। एक ही ख़्वाब बार बार नहीं आ सकता था। ऐसा नहीं था कि मैं कभी ख़्वाब नहीं देखता था बल्कि वो तो मैं हर रात ही देखता था लेकिन वो सारे ख़्वाब सामान्य होते थे लेकिन ये ख़्वाब सामान्य नहीं था। इस तरह का ख़्वाब आज दूसरी बार देखा था मैंने। मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि अचानक से इस तरह का ख़्वाब आने के पीछे कोई ऐसी वजह तो नहीं है जिसके बारे में फिलहाल मैं सोच नहीं पा रहा हूं?
काफी देर तक मैं पलंग पर बैठा इस ख़्वाब के बारे में सोचता रहा। मेरी आँखों से नींद गायब हो चुकी थी। मेरा गला सूख गया था इस लिए पानी से अपने गले को तर करने का सोच कर मैं पलंग से नीचे उतरा और दरवाज़ा खोल कर कमरे से बाहर आ गया।
हवेली में हर तरफ कब्रिस्तान के जैसा सन्नाटा छाया हुआ था। अँधेरा तो नहीं था क्योंकि बिजली के बल्ब जगह जगह पर जल रहे थे जिससे उजाला था। मैं नंगे पैर ही राहदरी से चलते हुए सीढ़ियों की तरफ बढ़ चला। दूसरे छोर पर आ कर मैं उस गलियारे के पास रुका जिस गलियारे पर भैया भाभी का कमरा था और उनके बाद थोड़ा आगे चल कर एक तरफ विभोर अजीत का कमरा और उनके कमरे के सामने कुसुम का कमरा था। मैंने गलियारे पर नज़र डाली। गलियारा एकदम सुनसान ही था। कहीं से ज़रा सी भी आहट नहीं सुनाई दे रही थी।
गलियारे से नज़र हटा कर मैं पलटा और सीढ़ियों से उतरते हुए नीचे आ गया। नीचे बड़े से गलियारे के एक तरफ कोने में एक बड़ा सा मटका रखा हुआ था। मैं उस मटके के पास गया और गिलास से पानी निकाल कर मैंने पानी पिया। ठंडा पानी हलक से नीचे उतरा तो काफी राहत मिली।
दो गिलास पानी पी कर मैं वापस सीढ़ियों की तरफ आया और सीढ़ियों से चढ़ कर ऊपर आ गया। अभी मैं लम्बी राहदरी पर ही आया था कि तभी बिजली चली गई। बिजली के जाते ही हर तरफ काला अँधेरा छा गया। कुछ पल रुकने के बाद मैं अपने कमरे की तरफ बढ़ा ही था कि तभी छन छन की आवाज़ ने मेरे कान खड़े कर दिए। बिजली की तरह मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि इस वक़्त ये पायल के छनकने की आवाज़ कैसे? छन छन की आवाज़ मेरे पीछे से आई थी। मेरे दिल की धड़कनें अनायास ही तेज़ हो गईं थी। तभी एक बार फिर से छन छन की आवाज़ हुई तो मेरे मुख से अनायास ही निकल गया____"कौन है?"
मैंने जैसे ही कौन है कहा तो एकदम से छन छन की आवाज़ तेज़ हो गई और ऐसा लगा जैसे कोई सीढ़ियों की तरफ भागा है। मैं तेज़ी से पलटा और मैं भी सीढ़ियों की तरफ लपका। छन छन की आवाज़ अभी भी मुझे दूर जाती हुई सुनाई दे रही थी। अँधेरा बहुत था इसके बावजूद मैं तेज़ी से सीढ़ियां उतरते हुए नीचे आया था लेकिन तब तक आवाज़ आनी बंद हो चुकी थी। नीचे दोनों तरफ लम्बी चौड़ी राहदरी थी और मैं एक जगह खड़ा हो कर अँधेरे में इधर उधर किसी को देखने की कोशिश कर रहा था। मुझे समझ न आया कि इतनी जल्दी छन छन की आवाज़ कैसे बंद हो सकती है? ये तो निश्चित था कि छन छन की आवाज़ किसी लड़की या औरत के पायल की थी लेकिन सवाल ये था कि इतनी रात को इस वक़्त ऐसी कौन सी लड़की या औरत हो सकती है जो ऊपर से इस तरह नीचे भाग कर आई थी? हवेली में कई सारी नौकरानियाँ थी और उनके पैरों में भी ऐसी पायलें थी। इस लिए अब ये पता करना बहुत ही मुश्किल था कि इस वक़्त वो कौन रही होगी?
मैं काफी देर तक इस इंतज़ार में सीढ़ियों के पास खड़ा रहा कि शायद वो छन छन की आवाज़ फिर कहीं से सुनाई दे जाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऐसा लग रहा था जैसे कि वो जो कोई भी थी वो एकदम से गायब ही हो गई थी। मजबूरन मुझे वापस लौटना पड़ा। कुछ ही देर में मैं वापस ऊपर आ गया। मैंने गलियारे की तरफ देखा किन्तु अँधेरे में कुछ दिखने का सवाल ही नहीं था लेकिन इतना तो पक्का हो चुका था कि वो जो कोई भी थी इसी गलियारे से आई थी। अब सवाल ये था कि इस गलियारे में वो किसके कमरे में थी? भैया भाभी के कमरे में उसके होने का सवाल ही नहीं था, तो क्या वो विभोर और अजीत के कमरे में थी? हालांकि सवाल तो ये भी था कि वो जो कोई भी थी तो क्या वो हवेली की कोई नौकरानी ही थी या फिर हवेली की ही कोई महिला?
अपने कमरे में आ कर मैंने दरवाज़ा अंदर से बंद किया और पलंग पर लेट गया। काफी देर तक मैं इस बारे में सोचता रहा लेकिन मैं किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाया। इस वाकये के चलते मैं अपने उस ख़्वाब के बारे में भूल ही गया था जो इस सबके पहले मैं नींद में देख रहा था। पता नहीं कब मेरी आँख लग गई और मैं फिर से सो गया।
सुबह कुसुम के जगाने पर ही मेरी आँख खुली। सुबह सुबह उसे मुस्कुराते हुए देखा तो मेरे भी होठों पर मुस्कान उभर आई। वो हाथ में चाय का प्याला लिए खड़ी थी।
"अब उठ भी जाइए छोटे ठाकुर।" उसने मुस्कुराते हुए कहा____"ज़रा नज़र उठा कर खिड़की से आफ़ताब को देखिए, वो चमकते हुए अपने उगे होने की गवाही देगा।"
"वाह! क्या बात है।" मैंने उठते हुए कहा____"मेरी बहना तो शायरी भी करती है।"
"सब आपकी नज़रे इनायत का असर है।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए बड़ी अदा से कहा____"वरना हम में ऐसा हुनर कहां?"
"कल रात में तूने खाना ही खाया था न?" मैंने अपनी कमीज पहनते हुए कहा____"या खाने में मिर्ज़ा ग़ालिब को खाया था?"
"आपको ना हमारी क़दर है और ना ही हमारी शायरी की।" कुसुम ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"ख़ैर कोई बात नहीं। आप चाय पीजिए, मुझे अभी याद आया कि माँ ने मुझे जल्दी वापस आने को कहा था।"
मैंने कुसुम के हाथ से चाय का प्याला लिया तो वो पलट कर कमरे से बाहर निकल गई। उसका चेहरा उतर गया था ये मैंने साफ़ देखा था। मुझे समझ न आया कि अचानक से उसका चेहरा क्यों उतर गया था और वो बहाना बना कर कमरे से चली क्यों गई थी। ख़ैर मैंने चाय के प्याले को एक तरफ लकड़ी के मेज पर रखा और तेज़ी से कमरे से निकल गया। असल में मुझे बड़ी ज़ोरों की मुतास लगी थी। मैं तेज़ी से चलते हुए नीचे गुसलखाने में पहुंचा। मूतने के बाद मैंने हाथ मुँह धोया और वापस कमरे में आ कर चाय पीने लगा।
कल शाम वाला भैया का बर्ताव मेरे ज़हन में आया तो मैं एक बार फिर से उनके बारे में सोचने लगा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि बड़े भैया कल शाम को मुझसे इस तरह क्यों पेश आए थे? आख़िर अचानक से क्या हो गया था उन्हें? मैंने इस बारे में भाभी से पूछने का निश्चय कर चाय ख़त्म की और कमरे से निकल गया। सबसे पहले तो मैं गुसलखाने में जा कर नित्य क्रिया से फुर्सत हो कर नहाया धोया और कमरे में आ कर दूसरे कपड़े पहन कर नीचे आ गया।
आज भाभी मुझे आँगन में तुलसी की पूजा करते हुए नहीं दिखी थीं, शायद मुझे देरी हो गई थी। सुबह के वक़्त वैसे भी उनसे मिलना मुश्किल था। मैं चाहता था कि उनसे तभी मिलूं जब उनके पास समय हो और वो अकेली हों। ख़ैर इस तरफ आ कर मैं कुछ देर माँ के पास बैठा उनसे इधर उधर की बातें करता रहा। उसके बाद पिता जी के साथ बैठ कर हम सबने नास्ता किया। नास्ता करने के बाद मैंने अपनी मोटर साइकिल ली और हवेली से बाहर की तरफ निकल गया। अभी मैं हाथी दरवाज़े के पास ही आया था कि बाहर मुझे मणिशंकर अपनी बीवी के साथ मिल गया। मुझे देखते ही उसने मुझसे मुस्कुराते हुए दुआ सलाम की जिसके जवाब में मैंने भी उसे सलाम किया।
"सुबह सुबह इधर कहां भटक रहे हो मणि काका?" मैंने मुस्कुराते हुए पूछा तो उसने कहा_____"ठाकुर साहब से मिलने जा रहा हूं छोटे ठाकुर। कुछ ज़रूरी काम भी है उनसे।"
"चलिए अच्छी बात है।" मैंने कहा____"वो हवेली में ही हैं। अच्छा अब मैं चलता हूं।"
"ठीक है बेटा।" मणि शंकर ने सिर हिलाते हुए कहा तो मैं आगे बढ़ चला।
रास्ते में मैं ये सोचता जा रहा था कि मणि शंकर अपनी बीवी के साथ हवेली क्यों जा रहा था? आख़िर ऐसा कौन सा ज़रूरी काम होगा उसे जिसके लिए वो अपने साथ अपनी बीवी को भी ले कर हवेली आया था? साहूकारों के घर के सामने आया तो देखा आज चबूतरे पर कोई नहीं था। मैंने एक नज़र साहूकारों के घरों पर डाली और आगे बढ़ गया। मुझे याद आया कि मुझे रूपा से मिलना था लेकिन शायद अब उससे मेरा मिलना संभव नहीं था क्योंकि रूपचन्द्र को मेरे और उसके सम्बन्धों के बारे में पता चल चुका था। वैसे कल शिव शंकर ने मुझसे कहा था कि उसके बड़े भाई लोग मुझे अपने घर बुलाने की बात कर रहे थे। अगर ये बात सच है तो इसी बहाने मेरा आना जाना साहूकारों के घरों में हो सकता था। मैं भी अब इस इंतज़ार में था कि कब ये लोग मुझे बुलाते हैं। एक बार ऐसा हो गया तो फिर मैं बिना बुलाए भी आसानी से उन लोगों के घर जा सकता था। हालांकि उसके लिए मुझे अपनी छवि को उनके बीच अच्छी बनानी थी जो कि मैंने सोच ही लिया था कि बनाऊंगा।
मुंशी चंद्रकांत के घर के सामने आया तो मुझे रजनी का ख़याल आ गया। साली न जाने कब से रूपचन्द्र से चुदवा रही थी और मुझे इसकी भनक तक नहीं लगने दी थी। मन तो कर रहा था कि उसकी चूत में गोली मार दूं लेकिन मैं पहले ये जानना चाहता था कि आख़िर उन दोनों के बीच ये सब शुरू कैसे हुआ?
मुंशी के घर का दरवाज़ा बंद था इस लिए मैं आगे ही निकल गया। कुछ आगे आया तो मुझे याद आया कि कल शाम जब मैं वापस आ रहा था तब यहाँ पर किसी ने मुझे रस्सी के द्वारा मोटर साइकिल से गिराने की कोशिश की थी। मैं एक बार फिर से ये सोचने लगा कि कौन कर सकता है ऐसा?
हमेशा अपने में ही मस्त रहने वाला मैं अब गंभीर हो गया था और आज कल जो कुछ मेरे साथ हो रहा था उसके बारे में गहराई से सोचने भी लगा था। मैं समझ चुका था कि अच्छी खासी चल रही मेरी ज़िन्दगी की माँ चुद गई है और कुछ हिजड़ों की औलादें हैं जो मुझे अपने जाल में फंसाने की कोशिश कर रहे हैं। वो जानते हैं कि सामने से वो मेरा कुछ नहीं उखाड़ सकते हैं इस लिए कायरों की तरह छिप कर वार करने की मंशा बनाए बैठे हैं।
कुछ देर में मैं अपनी बंज़र ज़मीन के पास पहुंच गया। मैंने देखा काफी सारे लोग काम में लगे हुए थे। मकान की नीव खुद चुकी थी और अब उसमे दीवार खड़ी की जा रही थी। हवेली के दो दो ट्रेक्टर शहर से सीमेंट बालू और ईंट लाने में लगे हुए थे। एक तरफ कुएं की खुदाई हो रही थी जो कि काफी गहरा खुद चुका था। कुएं के अंदर पानी दिख रहा था जो कि अभी गन्दा ही था जिसे कुछ लोग बाल्टी में भर भर कर बाहर फेंक रहे थे। कुल मिला कर काम ज़ोरों से चल रहा था। पेड़ के पास मोटर साइकिल में बैठ कर मैं सारा काम धाम देख रहा था और फिर तभी अचानक मेरे ज़हन में एक ख़याल आया। उस ख़याल के आते ही मेरे होठों पर एक मुस्कान फैल गई। मैंने मोटर साइकिल चालू की और शहर की तरफ निकल गया।
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अध्याय - 27
अपनी कला को प्रदर्शित कीजिये वत्स,वाह जी वाह कमाल कर दिता तुसी। इन्ना सोंड़ा अपडेट दिता। वैसे मैं भी अपडेट्स का बढ़िया रिव्यू दे सकने में सक्षम हूं लेकिन थोड़ा काहिल हो जाता हूं इसलिए कभी कोई रिव्यू नही लिखता उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूं जबकि आप अपना समय और ऊर्जा खर्च करके कहानी लिख रहे तो आप डिजर्व भी करते हो एक बढ़िया रिव्यू, फिर भी में नही लिखता![]()