Bhai kabhi ye bhi dekhne aur sochne ka kast uthaya karo ki story likhne wala kis daur se guzar raha hai. Bahut takleef hoti hai jab koi reader bhai bina soche samjhe is tarah ki baat kahta hai. Main aksar sochta hu ki aisa bolne wale log itni sahajta se bol kaise jate hain. Kya sach me unke andar kisi ke liye koi soft feeling nahi hoti.???Update bahut accha h lekin bahut intajar karna pad raha h aajkal new update k liye
Aapne Bilkul sahi kaha bhai.Bhai kabhi ye bhi dekhne aur sochne ka kast uthaya karo ki story likhne wala kis daur se guzar raha hai. Bahut takleef hoti hai jab koi reader bhai bina soche samjhe is tarah ki baat kahta hai. Main aksar sochta hu ki aisa bolne wale log itni sahajta se bol kaise jate hain. Kya sach me unke andar kisi ke liye koi soft feeling nahi hoti.???
Kabhi ye bhi socho bhai ki likhne me aur padh lene me zameen asmaan ka fark hota hai. Likhne ke liye fursat ka samay chahiye hota hai aur shaant man bhi. Kya kabhi ye socha hai ki likhne wala jab itni mehnat se aur itna samay laga kar update deta hai to uski mehnat ko saarthak banane ke liye ek review dena bhi readers ka farz hai. Yaha har reader yahi chaahta hai ki har roz update padhne ko mile lekin kya har reader ye sochta hai ki har update me use review bhi dena chahiye.??? Yaha lekhak jab *nice update* jaisa comment dekhta hai to uska asar ye hota hai ki uski likhne ki ichha hi mar jati hai. Baad me readers ye bolte hain ki writer time se update nahi deta,,,,
Main sabhi readers se promise kar ke kahta hu ki agar wo har update par review de to main daily update duga...lekin main achhi tarah jaanta hu ki aisa readers nahi kar sakte. Khair chhodo,,,,
good update☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 27
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अब तक,,,,,,
सरोज काकी के कहने पर अनुराधा ने मुझे लोटा गिलास में ला कर पानी पिलाया। कुछ देर हम सारे सामान के बारे में ही बातें करते रहे और बाकी जो सामान चाहिए था उसके बारे में भी। जगन काका बड़ा खुश दिख रहा था। मेरे और उसके बीच अब कोई मनमुटाव नहीं रह गया था। ख़ैर चाय पीने के बाद मैंने काकी से इजाज़त ली और मोटर साइकिल में बैठ कर अपने गांव की तरफ चल दिया।
अब आगे,,,,,,
सूरज अस्त हो चुका था और शाम का धुंधलका छाने लगा था। वातावरण में मोटर साइकिल की तेज़ आवाज़ गूँज रही थी और मैं अपनी ही धुन में आगे बढ़ा चला जा रहा था कि तभी मुझे अपने दाएं तरफ सड़क के किनारे खेतों में उगी गेहू की फसल में कुछ हलचल सी महसूस हुई। जैसा कि मैंने बताया शाम का धुंधलका छाने लगा था इस लिए मुझे कुछ ख़ास दिखाई नहीं दिया। हालांकि मैंने ज़्यादा ध्यान भी नहीं दिया और आगे बढ़ता ही रहा। तभी हलचल फिर से हुई और इस बार ये हलचल सड़क के दोनों तरफ हुई थी। ये मेरा वहम नहीं था। मेरे ज़हन में बिजली की तरह ये ख़याल आया कि कुछ तो गड़बड़ ज़रूर है। ये सोच कर मैंने मोटर साइकिल की रफ़्तार और तेज़ कर दी।
मोटर साइकिल की रफ़्तार तेज़ हुई तो सड़क के दोनों तरफ बड़ी तेज़ी से हलचल शुरू हो गई। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता मेरे सामने से एक मोटी रस्सी बड़ी ही तेज़ी से मेरी तरफ आई। ऐन वक़्त पर मैंने अपने सिर को तेज़ी से झुका लिया जिससे वो रस्सी मेरे सिर के बालों को छूती हुई पीछे निकल गई। एक पल के लिए तो मेरी रूह तक कांप गई कि ये अचानक से क्या हो गया था। ज़ाहिर था कि सड़क के दोनों तरफ कोई था जो मोटी रस्सी को हाथ में पकडे हुए था और जैसे ही मैं उस रस्सी की ज़द में आया तो दोनों तरफ से रस्सी को उठा लिया गया था। ये तो मेरी किस्मत थी कि सही समय पर मुझे वो रस्सी नज़र आ गई और मैंने ऐन वक़्त पर अपने सिर को बड़ी तेज़ी से झुका लिया था वरना उस रस्सी में फंस कर मैं मोटर साइकिल से निश्चित ही नीचे गिर जाता।
मैंने पीछे पलट कर देखने की ज़रा सी भी कोशिश नहीं की बल्कि मोटर साइकिल को और भी तेज़ी से दौड़ाता हुआ गांव की तरफ निकल गया। इतना तो मैं समझ चुका था कि गांव से दूर इस एकांत जगह पर कोई मेरे आने का पहले से ही इंतज़ार कर रहा था। कदाचित उसका मकसद यही था कि वो इस एकांत में मुझे इस तरह से गिराएगा और फिर मेरे साथ कुछ भी कर गुज़रेगा। मेरे ज़हन में उस दिन शाम का वो वाक्या उजागर हो गया था जब वो दो साए एकदम से प्रगट हो गए थे और मुझ पर हमला कर दिए थे। मेरा दिल बड़ी तेज़ी से ये सोच सोच कर धड़के जा रहा था कि इस वक़्त मैं बाल बाल बचा था वरना आज ज़रूर मैं एक गंभीर संकट में फंस जाने वाला था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आख़िर कौन हो सकता है ऐसा जो मुझे इस तरह से नुकसान पहुंचा सकता है? मेरे ज़हन में रूपचन्द्र का ख़याल आया कि क्या वो इस तरह से मुझे नुकसान पंहुचा सकता है या फिर साहूकारों में से कोई ऐसा है जो मेरी जान का दुश्मन बना बैठा है?
यही सब सोचते हुए मैं हवेली में पहुंच गया। मोटर साइकिल खड़ी कर के मैं हवेली के मुख्य दरवाज़े से होते हुए अंदर आया तो बैठक में मुझे पिता जी नज़र आए। इस वक़्त वो अकेले ही थे और अपने हाथ में लिए हुए मोटी सी किताब में कुछ पढ़ रहे थे। मेरे ज़हन में ख़याल आया कि क्या मुझे पिता जी से इस सबके बारे में बात करनी चाहिए? मेरे दिल ने कहा कि बेशक बात करनी चाहिए और हो सकता है कि इससे कुछ और भी बातें खुल जाएं। ये सोच कर मैं उनकी तरफ बढ़ा तो उन्हें मेरे आने की आहट हुई जिससे उन्होंने सिर उठा कर मेरी तरफ देखा।
"क्या बात है?" मुझे अपने क़रीब आया देख उन्होंने किताब को बंद करते हुए कहा____"सब ठीक तो है न?"
"मुझे लगता है कि सब ठीक नहीं है पिता जी।" मैंने गंभीर भाव से कहा____"अचानक से कुछ ऐसी चीज़ें होने लगी हैं जिनकी मुझे बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी।"
"हमारे कमरे में चलो।" पिता जी अपने सिंघासन से उठते हुए बोले____"वहीं पर तफ़सील से सारी बातें होंगी।"
"जी बेहतर।" मैंने अदब से कहा और उनके पीछे पीछे चल दिया। कुछ ही देर में मैं उनके साथ उनके कमरे में आ गया। पिता जी का कमरा बाकी कमरों से ज़्यादा बड़ा था और भव्य भी था।
"बैठो।" अपने बिस्तर पर बैठने के बाद उन्होंने मुझे एक कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए कहा तो मैं चुप चाप बैठ गया।
"अब बताओ।" मेरे बैठते ही उन्होंने मुझसे कहा_____"किस बारे में बात कर रहे थे तुम?"
"पिछले कुछ दिनों से।" मैंने खुद को नियंत्रित करते हुए कहा____"मेरे साथ कुछ अजीब सी घटनाएं हो रही हैं पिता जी।"
मैंने पिता जी को साए वाली सारी बातें बता दी कि कैसे एक दिन शाम को मुझे एक साया नज़र आया और उसने मुझसे बात की उसके बाद फिर दो साए और आए और उन्होंने मुझ पर हमला किया जिसमे पहले वाले साए ने उनसे भिड़ कर मुझे बचाया। मैंने पिता जी को वो वाक्या भी बताया जो अभी रास्ते में हुआ था। सारी बातें सुनने के बाद पिता जी के चेहरे पर गंभीरता छा गई। कुछ देर वो जाने क्या सोचते रहे फिर गहरी सांस लेते हुए बोले____"हमने पहले भी तुम्हें इसके लिए आगाह किया था कि आज कल वक़्त और हालात ठीक नहीं चल रहे हैं। ऐसे में तुम्हें बहुत ही ज़्यादा सम्हल कर चलने की ज़रूरत है।"
"हम कितना भी सम्हल कर चलें पिता जी।" मैंने पहलू बदलते हुए कहा____"लेकिन छिप कर हमला करने वालों का कोई क्या कर लेगा? मैं ये जानना चाहता हूं कि इस तरह का वाक्या सिर्फ मेरे साथ ही हो रहा है या हवेली के किसी और सदस्य के साथ भी ऐसा हो रहा है? अगर ये सिर्फ मेरे साथ ही हो रहा है तो ज़ाहिर है कि जो कोई भी ये कर रहा है या करवा रहा है वो सिर्फ मुझे ही अपना दुश्मन समझता है।"
"इस तरह का वाक्या अभी फिलहाल तुम्हारे साथ ही हो रहा है।" पिता जी ने सोचने वाले अंदाज़ से कहा____"किसी और के साथ यदि ऐसा हो रहा होता तो इस बारे में हमें ज़रूर पता चलता। जैसे अभी तुमने हमें अपने साथ हुए इस मामले के बारे में बताया वैसे ही हवेली के वो लोग भी बताते जिनके साथ ऐसा हुआ होता। जिस तरह के हालात बने हुए हैं उससे हमें शुरू से ही ये आभास हो रहा था कि जो कोई भी ये कर रहा है वो तुम्हें ही सबसे पहले अपना मोहरा बनाएगा। इस लिए हमने गुप्त रूप से तुम्हारी सुरक्षा के लिए एक ऐसे आदमी को लगा दिया था जो तुम्हारे आस पास ही रहे और तुम्हारी रक्षा करे। तुम जिस पहले वाले साए की बात कर रहे हो उसे हमने ही तुम्हारी सुरक्षा के लिए लगा रखा है। उसके बारे में हमारे सिवा दूसरा कोई नहीं जानता है और हां तुम भी उससे कोई बात नहीं करोगे और ना ही किसी से उसके बारे में ज़िक्र करोगे।"
"तो क्या वो हर पल मेरे आस पास ही रहता है?" मैं ये जान कर मन ही मन हैरान हुआ था कि पहला वाला साया पिता जी का आदमी था। मेरी बात सुन कर पिता जी ने कहा____"वो उसी वक़्त तुम्हारे आस पास रहेगा जब तुम हवेली से बाहर निकलोगे। उसका काम सिर्फ इतना ही है कि जैसे ही तुम हवेली से बाहर निकलो तो वो तुम्हारी सुरक्षा के लिए तुम्हारे पीछे साए की तरह लग जाए, किन्तु इस तरीके से कि तुम्हें या किसी और को उसके बारे में भनक भी न लग सके।"
"तो क्या दिन में भी वो मेरे आस पास रहता है?" मैंने कुछ सोचते हुए पूछा तो पिता जी ने कहा____"नहीं, दिन में नहीं रहता। दिन में तुम्हारी सुरक्षा के लिए हमने दूसरे लोग लगा रखे हैं जो अपना चेहरा छुपा कर नहीं रखते।"
"क्या अभी तक ये पता नहीं चला कि हमारे साथ ये सब कौन कर रहा है?" मैंने पिता जी की तरफ देखते हुए पूछा।
"ये इतना आसान नहीं है बरखुर्दार।" पिता जी ने अजीब भाव से कहा_____"गुज़रते वक़्त के साथ साथ हमें भी ये समझ आ गया है कि जो कोई भी ये सब कर रहा है वो बहुत ही शातिर है। वो ऐसा कोई भी काम नहीं करता है जिसकी वजह से उसकी ज़रा सी भी ग़लती हमारी पकड़ में या हमारी नज़र में आ जाए। यही वजह है कि अभी तक हम कुछ पता नहीं कर पाए और ना ही इस मामले में कुछ कर पाए।"
"साहूकारों के बारे में आपका क्या ख़याल है?" मैंने धड़कते हुए दिल से कहा____"उन्होंने हमसे अपने रिश्ते सुधार लिए हैं। ज़ाहिर है कि अब उनका आना जाना हवेली में लगा ही रहेगा। आपको क्या लगता है...क्या उन्होंने अपने किसी मकसद के लिए हमसे अपने सम्बन्ध सुधारे होंगे या फिर सच में वो सुधर गए हैं?"
"तुम्हारे मन में उन लोगों के प्रति ये जो सवाल उभरा है।" पिता जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"यही सवाल गांव के लगभग हर आदमी के मन में उभरा होगा। साहूकारों ने हमसे अपने रिश्ते सुधार लिए ये कोई साधारण बात नहीं है। आज कल हर आदमी के मन में यही सवाल उभरा हुआ होगा कि क्या सच में शाहूकार लोग सुधर गए हैं और उनके मन में अब हमारे प्रति कोई बैर भाव नहीं है? इन सभी सवालों के जवाब तो हमें तभी मिलेंगे जब उनकी तरफ से कुछ ऐसा होता हुआ दिखेगा जो कि उनकी मंशा को स्पष्ट रूप से ज़ाहिर कर दे। जब तक वो शरीफ बने रहेंगे तब तक हम कुछ भी नहीं कह सकते कि उनके मन में क्या है लेकिन हां इतना ज़रूर कर सकते हैं कि उनकी तरफ से बढ़ने वाले किसी भी क़दम के लिए हम पहले से ही पूरी तरह से तैयार और सतर्क रहें।"
"मुरारी काका के हत्यारे के बारे में क्या कुछ पता चला?" मेरे पूछने पर पिता जी ने कुछ देर तक मेरी तरफ देखा फिर शांत भाव से बोले____"हमने दरोग़ा को बुलाया था और अकेले में उससे इस बारे में पूछा भी था लेकिन उसने यही कहा कि उसके हाथ अभी तक कोई सुराग़ नहीं लगा है। उसका कहना है कि अगर हमने उसे मौका-ए-वारदात पर आने दिया होता और घटना स्थल की जांच करने दी होती तो शायद उसे कोई न कोई ऐसा सुराग़ ज़रूर मिल जाता जिससे उसे मुरारी की हत्या के मामले में आगे बढ़ने के लिए कुछ मदद मिल जाती।"
"तो क्या अब ये समझा जाए कि मुरारी काका के हत्यारे का पता लगना नामुमकिन है?" मैंने कहा____"ज़ाहिर है कि जैसे जैसे दिन गुज़रते जाएंगे वैसे वैसे ये मामला और भी ढीला होता जाएगा। उस सूरत में हत्या से सम्बंधित कोई भी सुराग़ मिलना संभव तो हो ही नहीं सकेगा।"
"मुरारी के हत्यारे का पता एक दिन तो ज़रूर चलेगा।" पिता जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"देर से ही सही लेकिन हत्यारा हमारी नज़र में ज़रूर आएगा। क्योंकि हमें अंदेशा ही नहीं बल्कि यकीन भी है कि मुरारी की हत्या बेवजह नहीं हुई थी। उसकी हत्या किसी ख़ास मकसद के तहत की गई थी। मुरारी की हत्या में तुम्हें फंसाना ही हत्यारे का मकसद था लेकिन वो उस मकसद में कामयाब नहीं हुआ। शायद यही वजह है कि अब वो तुम्हारे साथ ये सब कर रहा है। उसे ये समझ आ गया है कि किसी की हत्या में तुम्हें फंसाने से तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा इस लिए अब वो सीधे तौर पर तुम्हें नुकसान पहुंचाना चाहता है।"
"बड़े भैया के बारे में कुल गुरु ने जो कुछ कहा।" मैंने धड़कते दिल से पिता जी की तरफ देखते हुए कहा_____"वो सब आपने बाकी लोगों को क्यों नहीं बताया?"
"क्या मतलब???" पिता जी मेरे मुँह से ये बात सुन कर बुरी तरह चौंके थे____"हमारा मतलब है कि ये क्या कह रहे हो तुम?"
"इस बारे में मुझे सब पता है पिता जी।" मैंने संजीदा भाव से कहा____"और मैं ये जानना चाहता हूं कि उनके बारे में जो कुछ भी कुल गुरु ने कहा क्या वो सच है? क्या सच में बड़े भैया का जीवन काल...??"
"ख़ामोश।" पिता जी एकदम से बोल पड़े____"ये सब रागिनी बहू ने बताया है न तुम्हें?"
"क्या फ़र्क पड़ता है पिता जी?" मैंने कहा____"सच जैसा भी हो वो कहीं न कहीं से सामने आ ही जाता है। आपको पता है बड़े भैया को भी अपने बारे में ये सब बातें पता है।"
"क्या????" पिता जी एक बार फिर चौंके____"उसे कैसे पता चली ये बात? हमने रागिनी को शख़्ती से मना किया था कि वो इस बात को राज़ ही रखे।"
"आख़िर क्यों पिता जी?" मैंने ज़ोर देते हुए कहा____"बड़े भैया के बारे में ये सब बातें राज़ क्यों रख रहे हैं आप?"
"ये जानना तुम्हारे लिए ज़रूरी नहीं है।" पिता जी ने कठोर भाव से कहा____"अब तुम जा सकते हो।"
"मैं अपने जीते जी बड़े भैया को कुछ नहीं होने दूंगा।" मैंने कुर्सी से उठते हुए कहा____"और जिस कुल गुरु ने मेरे बड़े भैया के बारे में ऐसी घटिया भविष्यवाणी की है उसका खून कर दूंगा मैं।"
"अपनी हद में रहो लड़के।" पिता जी एकदम से गुस्से में बोले____"गुरु जी के बारे में ऐसा बोलने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?"
"कोई मेरे भाई के बारे में ऐसी बकवास भविष्यवाणी करे।" मैंने भी शख़्त भाव से कहा____"तो क्या मैं उसकी आरती उतारूंगा? वैभव सिंह ऐसे गुरु की गर्दन उड़ा देना ज़्यादा पसंद करेगा।"
इससे पहले कि पिता जी कुछ बोलते मैं एक झटके से कमरे से बाहर आ गया। मेरे अंदर एकदम से गुस्सा भर गया था जिसे मैं शांत करने की कोशिश करते हुए अंदर बरामदे में आया। मेरी नज़र एक तरफ कुर्सी में बैठी माँ पर पड़ी। वो एक नौकरानी से कुछ कह रहीं थी। मैं सीधा आँगन से होते हुए दूसरी तरफ आया। इस तरफ विभोर और अजीत कुर्सी में बैठे हुए थे और एक कुर्सी पर चाची बैठी हुईं थी। मुझे देखते ही विभोर और अजीत कुर्सी से उठ कर खड़े हो गए। मैंने चाची को प्रणाम किया और सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया।
मैं तेज़ी से सीढ़ियां चढ़ते हुए ऊपर आया तो एकदम से किसी से टकरा गया किन्तु जल्दी ही सम्हला और अभी खड़ा ही हुआ था कि मेरी नज़र भाभी पर पड़ी। मुझसे टकरा जाने से वो भी पीछे की तरफ झोंक में चली गईं थी और पीछे मौजूद दीवार पर जा लगीं थी।
"माफ़ करना भाभी।" मैं बौखलाए हुए भाव से बोल पड़ा____"मैंने जल्दी में आपको देखा ही नहीं।"
"तुम जब देखो आंधी तूफ़ान ही बने रहते हो?" भाभी ने अपनी साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए कहा____"कहां जाने की इतनी जल्दी रहती है तुम्हें?"
"ग़लती हो गई भाभी।" मैंने मासूम सी शक्ल बनाते हुए कहा____"अब माफ़ भी कर दीजिए न।"
"हां हां ठीक है, जाओ माफ़ किया।" भाभी ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"तुम भी क्या याद रखोगे कि किस दिलदारनी से पाला पड़ा था।"
"भैया कहा हैं भाभी?" मैंने भाभी की बात पर ध्यान न देते हुए पूछा तो उन्होंने कमरे की तरफ इशारा करते हुए कहा____"तुम्हारे भैया जी कमरे में आराम फरमा रहे हैं।"
मैं भाभी की बात सुन कर उनके कमरे की तरफ बढ़ चला और वो नीचे चली गईं। कुछ ही पलों में मैं भैया के कमरे का दरवाज़ा खटखटाते हुए उन्हें आवाज़ दे रहा था। थोड़ी देर में दरवाज़ा खुला और भैया नज़र आए मुझे।
"तू यहाँ???" मुझे देखते ही बड़े भैया ने शख़्त भाव से कहा तो मैंने हैरानी से देखते हुए उनसे कहा____"हां भैया, मैं आपसे मिलने आया हूं।"
"पर मुझे तुझसे कोई बात नहीं करनी।" भैया ने गुस्से वाले अंदाज़ में कहा_____"अब इससे पहले कि मेरा हांथ उठ जाए चला जा यहाँ से।"
"ये आप क्या कह रहे हैं भैया?" मारे आश्चर्य के मेरा बुरा हाल हो गया। मुझे समझ में नहीं आया कि भैया को अचानक से क्या हो गया है और वो इतने गुस्से में क्यों हैं? कल तक तो वो मुझसे बहुत ही अच्छे से बात कर रहे थे लेकिन इस वक़्त उनका बर्ताव ऐसा क्यों है? अभी मैं ये सोच ही रहा था कि उन्होंने मुझे धक्का देते हुए गुस्से में कहा____"तुझे एक बार में बात समझ में नहीं आती क्या? दूर हो जा मेरी नज़रों के सामने से वरना तेरे लिए अच्छा नहीं होगा।"
"ये आप कैसी बातें कर रहे हैं?" मैंने फटी फटी आँखों से उन्हें देखते हुए कहा_____"क्या हो गया है आपको?"
"चटाक्क्।" मेरे बाएं गाल पर उनका ज़ोरदार थप्पड़ पड़ा जिससे कुछ पलों के लिए मेरे कान ही झनझना गए, जबकि उन्होंने गुस्से में कहा_____"मैंने कह दिया न कि मुझे तुझसे कोई बात नहीं करना। अब जा वरना तेरे जिस्म के टुकड़े टुकड़े कर दूंगा।"
कहने के साथ ही भैया ने मुझे ज़ोर का धक्का दिया और फिर पलट कर कमरे के अंदर दाखिल हो कर तेज़ी से दरवाज़ा बंद कर लिया। मैं भौचक्का सा बंद हो चुके दरवाज़े की तरफ देखता रह गया था। मेरा ज़हन जैसे कुंद सा पड़ गया था। मेरी आँखें जैसे इस सबको देखने के बाद भी यकीन नहीं कर पा रहीं थी। कुछ पलों बाद जब मेरे ज़हन ने काम किया तो मैं पलटा और अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।
कमरे में आ कर मैं पलंग पर लेट गया और अभी जो कुछ भी हुआ था उसके बारे में सोचने लगा। मुझे अभी भी यकीन नहीं हो रहा था कि भैया मुझसे गुस्सा थे और उस गुस्से में उन्होंने मुझे थप्पड़ मार दिया है। मेरे ज़हन में एक ही पल में न जाने कितने ही सवाल मानो तांडव सा करने लगे। आख़िर क्या हो गया था बड़े भैया को? वो इतने गुस्से में क्यों थे? क्या भाभी की वजह से वो पहले से ही गुस्से में थे? कल ही की तो बात है वो मुझसे कितना स्नेह और प्यार से बातें कर रहे थे और अपने साथ मुझे भांग वाला शरबत पिला रहे थे। मुझे अपने सीने से भी लगाया था उन्होंने। उस वक़्त मैंने देखा था कि वो कितना खुश थे लेकिन अभी जो कुछ मैंने देखा सुना और जो कुछ हुआ वो सब क्या था? सोचते सोचते मेरे दिमाग़ की नसें तक दर्द करने लगीं मगर कुछ समझ न आया मुझे। फिर ये सोच कर मैंने इन सब बातों को अपने ज़हन से निकालने का सोचा कि भाभी से इस बारे में पूछूंगा।
रात में कुसुम मुझे खाना खाने के लिए बुलाने आई तो मैं चुप चाप खाना खाने चला गया। इस दौरान भी मेरे ज़हन में बड़े भैया ही रहे। हम सबके बीच एक कुर्सी पर वो भी खाना खा रहे थे और मैं बार बार उनकी तरफ देखने लगता था। वो हमेशा की तरह ख़ामोशी से खाना खा रहे थे और मैं उनके चेहरे के भावों को समझने की कोशिश कर रहा था किन्तु इस वक़्त उनके चेहरे पर ऐसे कोई भी भाव नहीं थे जिससे मैं किसी बात का अंदाज़ा लगा सकता। ख़ैर खाना खाने के बाद सब लोग अपने अपने कमरे में चले गए और मैं ये सोचने लगा कि भाभी से अगर अकेले में मुलाक़ात हो जाए तो मैं उनसे बड़े भैया के इस बर्ताव के बारे में कुछ पूछ सकूं लेकिन दुर्भाग्य से मुझे ऐसा मौका मिला ही नहीं और मजबूरन मुझे अपने कमरे में चले जाना पड़ा।
अपने कमरे में पलंग पर लेटा मैं काफी देर तक सोचता रहा और फिर न जाने कब मेरी आँख लग गई। पता नहीं मुझे सोए हुए कितना वक़्त गुज़रा था लेकिन इस वक़्त मेरी पलकों के तले एक ख़्वाब चल रहा था। वो ख़्वाब ठीक वैसा ही था जैसा उस रात मुंशी चंद्रकांत के घर सोते समय मैंने देखा था। मैं किसी वीराने में अकेला पड़ा हुआ था। मेरे आस पास अँधेरा था लेकिन उस अँधेरे में भी मैं देख सकता था कि मेरे चारो तरफ से काला गाढ़ा धुआँ अपनी बाहें फैलाए हुए आ रहा है। मैं उस धुएं को देख कर बुरी तरह घबराने लगता हूं। कुछ ही देर में वो काला गाढ़ा धुआँ मेरे जिस्म को चारो तरफ से छूने लगता है और धीरे धीरे मैं उस धुएं मैं डूबने लगता हूं। ख़ुद को काले धुएं में डूबता देख मैं बुरी तरह अपने हाथ पैर चलाता हूं और मारे दहशत के पूरी शक्ति से चीख़ता भी हूं लेकिन मेरी आवाज़ मेरे हलक से बाहर नहीं निकलती। जैसे जैसे मैं उस धुएं में डूब रहा था वैसे वैसे डर और घबराहट से मेरा बुरा हाल हुआ जा रहा था। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कोई मेरा गला दबाता जा रहा है और मैं अपने बचाव के लिए कुछ भी नहीं कर पा रहा हूं। एक वक़्त ऐसा भी आया जब मेरा समूचा जिस्म उस काले गाढ़े धुएं में डूब गया और तभी मैं बुरी तरह छटपटाते हुए एकदम से उठ बैठता हूं।
मेरी नींद टूट चुकी थी। मैं बौखलाया सा कमरे में इधर उधर देखने लगा। मेरी साँसें धौकनी की मानिन्द चल रहीं थी। समूचा जिस्म पसीने से तर बतर था। कमरे में बिजली का बल्ब जल रहा था और कमरे की छत में कुण्डे पर झूलता हुआ पंखा अपनी मध्यम गति से चल रहा था। हर तरफ गहन ख़ामोशी छाई हुई थी और इस ख़ामोशी में अगर कोई आवाज़ गूँज रही थी तो वो थी मेरी उखड़ी हुई साँसों की आवाज़।
कुछ पल लगे मेरे ज़हन को जाग्रित होने में और फिर मुझे समझ आया कि मैं आज फिर से वही बुरा ख़्वाब देख रहा था जो उस रात मुंशी के घर में देखा था और उसके चलते मैं बुरी तरह से चीख़ कर उठ बैठा था किन्तु आज मैं चीख़ते हुए नहीं उठा था। हालांकि ख़्वाब में मैं पूरी शक्ति से चीख़ रहा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर इस तरह का ख़्वाब आने का क्या मतलब है? ये कोई इत्तेफ़ाक़ नहीं हो सकता था। एक ही ख़्वाब बार बार नहीं आ सकता था। ऐसा नहीं था कि मैं कभी ख़्वाब नहीं देखता था बल्कि वो तो मैं हर रात ही देखता था लेकिन वो सारे ख़्वाब सामान्य होते थे लेकिन ये ख़्वाब सामान्य नहीं था। इस तरह का ख़्वाब आज दूसरी बार देखा था मैंने। मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि अचानक से इस तरह का ख़्वाब आने के पीछे कोई ऐसी वजह तो नहीं है जिसके बारे में फिलहाल मैं सोच नहीं पा रहा हूं?
काफी देर तक मैं पलंग पर बैठा इस ख़्वाब के बारे में सोचता रहा। मेरी आँखों से नींद गायब हो चुकी थी। मेरा गला सूख गया था इस लिए पानी से अपने गले को तर करने का सोच कर मैं पलंग से नीचे उतरा और दरवाज़ा खोल कर कमरे से बाहर आ गया।
हवेली में हर तरफ कब्रिस्तान के जैसा सन्नाटा छाया हुआ था। अँधेरा तो नहीं था क्योंकि बिजली के बल्ब जगह जगह पर जल रहे थे जिससे उजाला था। मैं नंगे पैर ही राहदरी से चलते हुए सीढ़ियों की तरफ बढ़ चला। दूसरे छोर पर आ कर मैं उस गलियारे के पास रुका जिस गलियारे पर भैया भाभी का कमरा था और उनके बाद थोड़ा आगे चल कर एक तरफ विभोर अजीत का कमरा और उनके कमरे के सामने कुसुम का कमरा था। मैंने गलियारे पर नज़र डाली। गलियारा एकदम सुनसान ही था। कहीं से ज़रा सी भी आहट नहीं सुनाई दे रही थी।
गलियारे से नज़र हटा कर मैं पलटा और सीढ़ियों से उतरते हुए नीचे आ गया। नीचे बड़े से गलियारे के एक तरफ कोने में एक बड़ा सा मटका रखा हुआ था। मैं उस मटके के पास गया और गिलास से पानी निकाल कर मैंने पानी पिया। ठंडा पानी हलक से नीचे उतरा तो काफी राहत मिली।
दो गिलास पानी पी कर मैं वापस सीढ़ियों की तरफ आया और सीढ़ियों से चढ़ कर ऊपर आ गया। अभी मैं लम्बी राहदरी पर ही आया था कि तभी बिजली चली गई। बिजली के जाते ही हर तरफ काला अँधेरा छा गया। कुछ पल रुकने के बाद मैं अपने कमरे की तरफ बढ़ा ही था कि तभी छन छन की आवाज़ ने मेरे कान खड़े कर दिए। बिजली की तरह मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि इस वक़्त ये पायल के छनकने की आवाज़ कैसे? छन छन की आवाज़ मेरे पीछे से आई थी। मेरे दिल की धड़कनें अनायास ही तेज़ हो गईं थी। तभी एक बार फिर से छन छन की आवाज़ हुई तो मेरे मुख से अनायास ही निकल गया____"कौन है?"
मैंने जैसे ही कौन है कहा तो एकदम से छन छन की आवाज़ तेज़ हो गई और ऐसा लगा जैसे कोई सीढ़ियों की तरफ भागा है। मैं तेज़ी से पलटा और मैं भी सीढ़ियों की तरफ लपका। छन छन की आवाज़ अभी भी मुझे दूर जाती हुई सुनाई दे रही थी। अँधेरा बहुत था इसके बावजूद मैं तेज़ी से सीढ़ियां उतरते हुए नीचे आया था लेकिन तब तक आवाज़ आनी बंद हो चुकी थी। नीचे दोनों तरफ लम्बी चौड़ी राहदरी थी और मैं एक जगह खड़ा हो कर अँधेरे में इधर उधर किसी को देखने की कोशिश कर रहा था। मुझे समझ न आया कि इतनी जल्दी छन छन की आवाज़ कैसे बंद हो सकती है? ये तो निश्चित था कि छन छन की आवाज़ किसी लड़की या औरत के पायल की थी लेकिन सवाल ये था कि इतनी रात को इस वक़्त ऐसी कौन सी लड़की या औरत हो सकती है जो ऊपर से इस तरह नीचे भाग कर आई थी? हवेली में कई सारी नौकरानियाँ थी और उनके पैरों में भी ऐसी पायलें थी। इस लिए अब ये पता करना बहुत ही मुश्किल था कि इस वक़्त वो कौन रही होगी?
मैं काफी देर तक इस इंतज़ार में सीढ़ियों के पास खड़ा रहा कि शायद वो छन छन की आवाज़ फिर कहीं से सुनाई दे जाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऐसा लग रहा था जैसे कि वो जो कोई भी थी वो एकदम से गायब ही हो गई थी। मजबूरन मुझे वापस लौटना पड़ा। कुछ ही देर में मैं वापस ऊपर आ गया। मैंने गलियारे की तरफ देखा किन्तु अँधेरे में कुछ दिखने का सवाल ही नहीं था लेकिन इतना तो पक्का हो चुका था कि वो जो कोई भी थी इसी गलियारे से आई थी। अब सवाल ये था कि इस गलियारे में वो किसके कमरे में थी? भैया भाभी के कमरे में उसके होने का सवाल ही नहीं था, तो क्या वो विभोर और अजीत के कमरे में थी? हालांकि सवाल तो ये भी था कि वो जो कोई भी थी तो क्या वो हवेली की कोई नौकरानी ही थी या फिर हवेली की ही कोई महिला?
अपने कमरे में आ कर मैंने दरवाज़ा अंदर से बंद किया और पलंग पर लेट गया। काफी देर तक मैं इस बारे में सोचता रहा लेकिन मैं किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाया। इस वाकये के चलते मैं अपने उस ख़्वाब के बारे में भूल ही गया था जो इस सबके पहले मैं नींद में देख रहा था। पता नहीं कब मेरी आँख लग गई और मैं फिर से सो गया।
सुबह कुसुम के जगाने पर ही मेरी आँख खुली। सुबह सुबह उसे मुस्कुराते हुए देखा तो मेरे भी होठों पर मुस्कान उभर आई। वो हाथ में चाय का प्याला लिए खड़ी थी।
"अब उठ भी जाइए छोटे ठाकुर।" उसने मुस्कुराते हुए कहा____"ज़रा नज़र उठा कर खिड़की से आफ़ताब को देखिए, वो चमकते हुए अपने उगे होने की गवाही देगा।"
"वाह! क्या बात है।" मैंने उठते हुए कहा____"मेरी बहना तो शायरी भी करती है।"
"सब आपकी नज़रे इनायत का असर है।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए बड़ी अदा से कहा____"वरना हम में ऐसा हुनर कहां?"
"कल रात में तूने खाना ही खाया था न?" मैंने अपनी कमीज पहनते हुए कहा____"या खाने में मिर्ज़ा ग़ालिब को खाया था?"
"आपको ना हमारी क़दर है और ना ही हमारी शायरी की।" कुसुम ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"ख़ैर कोई बात नहीं। आप चाय पीजिए, मुझे अभी याद आया कि माँ ने मुझे जल्दी वापस आने को कहा था।"
मैंने कुसुम के हाथ से चाय का प्याला लिया तो वो पलट कर कमरे से बाहर निकल गई। उसका चेहरा उतर गया था ये मैंने साफ़ देखा था। मुझे समझ न आया कि अचानक से उसका चेहरा क्यों उतर गया था और वो बहाना बना कर कमरे से चली क्यों गई थी। ख़ैर मैंने चाय के प्याले को एक तरफ लकड़ी के मेज पर रखा और तेज़ी से कमरे से निकल गया। असल में मुझे बड़ी ज़ोरों की मुतास लगी थी। मैं तेज़ी से चलते हुए नीचे गुसलखाने में पहुंचा। मूतने के बाद मैंने हाथ मुँह धोया और वापस कमरे में आ कर चाय पीने लगा।
कल शाम वाला भैया का बर्ताव मेरे ज़हन में आया तो मैं एक बार फिर से उनके बारे में सोचने लगा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि बड़े भैया कल शाम को मुझसे इस तरह क्यों पेश आए थे? आख़िर अचानक से क्या हो गया था उन्हें? मैंने इस बारे में भाभी से पूछने का निश्चय कर चाय ख़त्म की और कमरे से निकल गया। सबसे पहले तो मैं गुसलखाने में जा कर नित्य क्रिया से फुर्सत हो कर नहाया धोया और कमरे में आ कर दूसरे कपड़े पहन कर नीचे आ गया।
आज भाभी मुझे आँगन में तुलसी की पूजा करते हुए नहीं दिखी थीं, शायद मुझे देरी हो गई थी। सुबह के वक़्त वैसे भी उनसे मिलना मुश्किल था। मैं चाहता था कि उनसे तभी मिलूं जब उनके पास समय हो और वो अकेली हों। ख़ैर इस तरफ आ कर मैं कुछ देर माँ के पास बैठा उनसे इधर उधर की बातें करता रहा। उसके बाद पिता जी के साथ बैठ कर हम सबने नास्ता किया। नास्ता करने के बाद मैंने अपनी मोटर साइकिल ली और हवेली से बाहर की तरफ निकल गया। अभी मैं हाथी दरवाज़े के पास ही आया था कि बाहर मुझे मणिशंकर अपनी बीवी के साथ मिल गया। मुझे देखते ही उसने मुझसे मुस्कुराते हुए दुआ सलाम की जिसके जवाब में मैंने भी उसे सलाम किया।
"सुबह सुबह इधर कहां भटक रहे हो मणि काका?" मैंने मुस्कुराते हुए पूछा तो उसने कहा_____"ठाकुर साहब से मिलने जा रहा हूं छोटे ठाकुर। कुछ ज़रूरी काम भी है उनसे।"
"चलिए अच्छी बात है।" मैंने कहा____"वो हवेली में ही हैं। अच्छा अब मैं चलता हूं।"
"ठीक है बेटा।" मणि शंकर ने सिर हिलाते हुए कहा तो मैं आगे बढ़ चला।
रास्ते में मैं ये सोचता जा रहा था कि मणि शंकर अपनी बीवी के साथ हवेली क्यों जा रहा था? आख़िर ऐसा कौन सा ज़रूरी काम होगा उसे जिसके लिए वो अपने साथ अपनी बीवी को भी ले कर हवेली आया था? साहूकारों के घर के सामने आया तो देखा आज चबूतरे पर कोई नहीं था। मैंने एक नज़र साहूकारों के घरों पर डाली और आगे बढ़ गया। मुझे याद आया कि मुझे रूपा से मिलना था लेकिन शायद अब उससे मेरा मिलना संभव नहीं था क्योंकि रूपचन्द्र को मेरे और उसके सम्बन्धों के बारे में पता चल चुका था। वैसे कल शिव शंकर ने मुझसे कहा था कि उसके बड़े भाई लोग मुझे अपने घर बुलाने की बात कर रहे थे। अगर ये बात सच है तो इसी बहाने मेरा आना जाना साहूकारों के घरों में हो सकता था। मैं भी अब इस इंतज़ार में था कि कब ये लोग मुझे बुलाते हैं। एक बार ऐसा हो गया तो फिर मैं बिना बुलाए भी आसानी से उन लोगों के घर जा सकता था। हालांकि उसके लिए मुझे अपनी छवि को उनके बीच अच्छी बनानी थी जो कि मैंने सोच ही लिया था कि बनाऊंगा।
मुंशी चंद्रकांत के घर के सामने आया तो मुझे रजनी का ख़याल आ गया। साली न जाने कब से रूपचन्द्र से चुदवा रही थी और मुझे इसकी भनक तक नहीं लगने दी थी। मन तो कर रहा था कि उसकी चूत में गोली मार दूं लेकिन मैं पहले ये जानना चाहता था कि आख़िर उन दोनों के बीच ये सब शुरू कैसे हुआ?
मुंशी के घर का दरवाज़ा बंद था इस लिए मैं आगे ही निकल गया। कुछ आगे आया तो मुझे याद आया कि कल शाम जब मैं वापस आ रहा था तब यहाँ पर किसी ने मुझे रस्सी के द्वारा मोटर साइकिल से गिराने की कोशिश की थी। मैं एक बार फिर से ये सोचने लगा कि कौन कर सकता है ऐसा?
हमेशा अपने में ही मस्त रहने वाला मैं अब गंभीर हो गया था और आज कल जो कुछ मेरे साथ हो रहा था उसके बारे में गहराई से सोचने भी लगा था। मैं समझ चुका था कि अच्छी खासी चल रही मेरी ज़िन्दगी की माँ चुद गई है और कुछ हिजड़ों की औलादें हैं जो मुझे अपने जाल में फंसाने की कोशिश कर रहे हैं। वो जानते हैं कि सामने से वो मेरा कुछ नहीं उखाड़ सकते हैं इस लिए कायरों की तरह छिप कर वार करने की मंशा बनाए बैठे हैं।
कुछ देर में मैं अपनी बंज़र ज़मीन के पास पहुंच गया। मैंने देखा काफी सारे लोग काम में लगे हुए थे। मकान की नीव खुद चुकी थी और अब उसमे दीवार खड़ी की जा रही थी। हवेली के दो दो ट्रेक्टर शहर से सीमेंट बालू और ईंट लाने में लगे हुए थे। एक तरफ कुएं की खुदाई हो रही थी जो कि काफी गहरा खुद चुका था। कुएं के अंदर पानी दिख रहा था जो कि अभी गन्दा ही था जिसे कुछ लोग बाल्टी में भर भर कर बाहर फेंक रहे थे। कुल मिला कर काम ज़ोरों से चल रहा था। पेड़ के पास मोटर साइकिल में बैठ कर मैं सारा काम धाम देख रहा था और फिर तभी अचानक मेरे ज़हन में एक ख़याल आया। उस ख़याल के आते ही मेरे होठों पर एक मुस्कान फैल गई। मैंने मोटर साइकिल चालू की और शहर की तरफ निकल गया।
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बहुत ही खूबसूरत अपडेट था.. अब बैभव का ऐसे जगन और काकी को समाज के ठेकेदारों के असलियत समझाई तो जगन के अंदर बैभव के लिए जो द्वेष थे वो समाप्त होने लगे थे और अपडेट के अंत तक अब जगन कर मन में शायद द्वेष भी ना रहा हो जैसा उसके के खुश दिखने से लग रहा था ,और अनुराधा का बैभव के इतने बोलने के बाद भी उसके नाम न लेना फिर जब बैभव ने साथ बैठ कर खाने को बोलने से उसके चहरे पर उलझन आना क्या ये दर्शाता है की अनुराधा के मन में बैभव के लिए कुछ है और जब बैभव उनके घर आया था तभी बिना दुपट्टे लिए बाहर आना फिर मुसकुराते हुए अंदर चली जाना इस संदेह को हवा देती है क्यूँ की अनुराधा के घर मोटर साइकिल लिए सिर्फ बैभव ही आता है जिसका पता अनुराधा को भी है ..☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 26
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अब तक,,,,,
भुवन ने मुझे बताया कि वो आदमी पानी विचारता है। इस लिए मैंने उस आदमी से कहा कि यहाँ पर विचार कर बताओ कि किस जगह पर अच्छा पानी हो सकता है। मेरे कहने पर वो आदमी भुवन के साथ चल दिया। मैं खुद भी उसके साथ ही था। काफी देर तक वो इधर से उधर घूमता रहा और अपने हाथ ली हुई एक अजीब सी चीज़ को ज़मीन पर रख कर कुछ करता रहा। एक जगह पर वो काफी देर तक बैठा पता नहीं क्या करता रहा उसके बाद उसने मुझसे कहा कि इस जगह पानी का बढ़िया स्त्रोत है छोटे ठाकुर। इस लिए इस जगह पर कुंआ खोदना लाभदायक होगा।
उस आदमी के कहे अनुसार मैंने भुवन से कहा कि वो कुछ मजदूरों को कुंआ खोदने के काम पर लगा दे। मेरे कहने पर भुवन ने चार पांच लोगों को उस जगह पर कुंआ खोदने के काम पर लगा दिया। पानी विचारने वाले उस आदमी ने शायद भुवन को पहले ही कुछ चीज़ें बता दी थी इस लिए भुवन ने उस जगह पर अगरबत्ती जलाई और एक नारियल रख दिया। ख़ैर कुछ ही देर में कुएं की खुदाई शुरू हो गई। भुवन उस आदमी को भेजने वापस चला गया। इधर मैं भी मजदूरों को ज़रूरी निर्देश दे कर मुरारी काका के घर की तरफ चल दिया।
अब आगे,,,,,
अभी मैं आधे रास्ते में ही था कि मेरे ज़हन में ख़याल आया कि एक बार मुरारी काका के खेतों की तरफ भी हो आऊं। ये सोच कर मैंने मोटर साइकिल को मुरारी काका के खेतों की तरफ मोड़ दिया। कुछ ही देर में मैं मुरारी काका के खेतों में पहुंच गया। मोटर साइकिल की तेज़ आवाज़ सुन कर खेतों में कटाई कर रहे किसानों का ध्यान मेरी तरफ गया। मैंने आम के पेड़ के नीचे मोटर साइकिल खड़ी की। आम के पेड़ के नीचे ही मुरारी काका का खलिहान बना हुआ था। सरोज काकी खलिहान में ही एक तरफ खटिया पर बैठी हुई थी। मुझे देखते ही वो खटिया से उठ गई।
"कटाई ठीक से चल रही है न काकी?" मैंने सरोज काकी के पास आते हुए पूछा तो काकी ने कहा____"हां बेटा ठीक से ही चल रही है। तुमने जिन दो लोगों को भेजा है उन्होंने आधे से ज़्यादा खेत काट दिया है। मुझे लगता है कि आज ही सब कट जाएगा।"
"तुम चिंता मत करना काकी।" काकी ने मुझे खटिया में बैठने का इशारा किया तो मैंने खटिया में बैठते हुए कहा____"कटाई के बाद ये दोनों तुम्हारी फसल की गहाई भी करवा देंगे।"
"वो तो ठीक है बेटा।" काकी ने थोड़े चिंतित भाव से कहा____"लेकिन मुझे चिंता जगन की है और गांव वालों की भी। जगन को तो मैं समझा दूंगी लेकिन गांव वालों को कैसे समझाऊंगी?"
"क्या मतलब??" मैंने न समझने वाले भाव से पूछा तो काकी ने कहा____"मतलब ये कि तुम्हारी इस मदद से गांव के कुछ लोग तरह तरह की बातें बनाएंगे। मुझे डर है कि वो कहीं ऐसी बातें न बनाएं जिससे मेरी और मेरी बेटी की इज्ज़त पर दाग़ लग जाए।"
"ये तुम क्या कह रही हो काकी?" मैंने हैरानी से कहा____"इसमें तुम्हारी और तुम्हारी बेटी की इज्ज़त पर दाग़ लगने वाली कौन सी बात हो जाएगी भला?"
"तुम समझ नहीं रहे हो बेटा।" सरोज ने बेबस भाव से कहा____"ये तो तुम भी जानते ही होंगे न कि सब तुम्हारे चरित्र के बारे में कैसी राय रखते हैं। तुम्हारे चरित्र के बारे में सोच कर ही गांव के कुछ लोग ऐसी बातें सोचेंगे और दूसरों से करेंगे भी। वो यही कहेंगे कि तुमने हमारी मदद सिर्फ इस लिए की होगी क्योंकि तुम्हारी मंशा मेरी बेटी को फ़साने की है।"
"तुम अच्छी तरह जानती हो काकी कि मेरे ज़हन में ऐसी बात दूर दूर तक नहीं है।" मैंने कहा____"मेरे चरित्र को जानने वालों को क्या ये समझ नहीं आता कि अगर मेरे मन में यही सब बातें होती तो क्या अब तक मैं तुम्हारी बेटी के साथ कुछ ग़लत न कर चुका होता?"
"मैं तो अच्छी तरह जानती हूं बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"लेकिन लोगों को कैसे कोई समझा सकता है? उन्हें तो बातें बनाने के लिए मौका और मुद्दा दोनों ही मिल ही जाएगा न।"
"गांव और समाज के लोग कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचते काकी।" मैंने ज़ोर देते हुए कहा____"तुम चाहे लाख नेक काम करो इसके बावजूद लोग तुम्हारी अच्छाई का गुड़गान नहीं करेंगे बल्कि वो सिर्फ इस बात की कोशिश में लगे रहेंगे कि तुम्हारे में बुराई क्या है और तुम्हारे बारे में बुरा कैसे कहा जाए? इस लिए अगर गांव समाज के लोगों का सोच कर चलोगी तो हमेशा दब्बू बन के ही रहोगी। जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ पाओगी। गांव समाज के लोग दूसरों की कमियां खोजने के लिए फुर्सत से बैठे होते हैं। उनके पास दूसरा कोई काम नहीं होता। तुम ये बताओ काकी कि गांव समाज में ऐसा कौन है जो दूध का धुला हुआ बैठा है? इस हमाम में सब नंगे ही हैं। कमियां सब में होती हैं। दब के रहने वाले लोग उनकी कमियों का किसी से ज़िक्र नहीं करते जबकि ख़ुद को अच्छा समझने वाले धूर्त किस्म के होते हैं जो सिर्फ ढिंढोरा पीटते हैं।"
"बात तो तुम्हारी ठीक है बेटा।" सरोज काकी ने बेचैनी से पहलू बदला____"लेकिन इस समाज में अकेली औरत का जीना इतना आसान भी तो नहीं होता। ख़ास कर तब जब उसका मरद ईश्वर के घर पहुंच गया हो। उसे बहुत कुछ सोच समझ कर चलना पड़ता है।"
"मैं ये सब बातें जानता हूं काकी।" मैंने कहा____"लेकिन मैं ये भी समझता हूं कि किसी से इतना दब के भी नहीं रहना चाहिए कि लोग उसे दबाते दबाते ज़मीन में ही गाड़ दें। अपना हर काम सही से करो और निडर हो कर करो तो कोई माई लाल कुछ नहीं उखाड़ सकता। ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं जगन काका से भी मिलना चाहता था। उनसे मिल कर परसों के कार्यक्रम के बारे में बात करनी थी।"
"जगन खाना खाने गया है।" सरोज काकी ने कहा____"आता ही होगा घर से। मुझे तो उसकी भी चिंता है कि कहीं वो इस सब से नाराज़ न हो जाए।"
"चिंता मत करो काकी।" मैंने कहा____"मैं जगन काका को अच्छे से समझा दूंगा।"
मेरी बात सुन कर काकी अभी कुछ बोलने ही वाली थी कि तभी उसकी नज़र दूर से आते हुए जगन पर पड़ी। उसे देख कर सरोज काकी ने मुझे इशारा किया तो मैंने भी जगन की तरफ देखा। जगन हांथ में एक लट्ठ लिए तेज़ क़दमों से इसी तरफ चला आ रहा था। कुछ ही देर में जब वो हमारे पास आ गया तो उसकी नज़र मुझ पर पड़ी। उसने घूर कर देखा मुझे।
"छोटे ठाकुर तुम यहाँ??" फिर उसने चौंकने वाले भाव से मुझसे कहा तो मैंने हल्की मुस्कान में कहा____"तुमसे ही मिलने आया था काका लेकिन तुम थे नहीं। काकी ने बताया कि तुम खाना खाने घर गए हुए हो तो सोचा तुम्हारे आने का इंतज़ार ही कर लेता हूं।"
"मुझसे भला क्या काम हो सकता है तुम्हें?" जगन ने घूरते हुए ही कहा मुझसे____"और ये मैं क्या देख रहा हूं छोटे ठाकुर? तुम्हारे गांव के ये दो मजदूर मेरे भाई के खेत की कटाई क्यों कर रहे हैं?"
"वो मेरे कहने से ही कर रहे हैं काका।" मैंने शांत भाव से कहा____"मुरारी काका ने मेरे लिए इतना कुछ किया था तो मेरा भी तो फ़र्ज़ बनता है कि उनके एहसानों का क़र्ज़ जितना हो सके तो चुका ही दूं। काकी ने तो इसके लिए मुझे बहुत मना किया लेकिन मैं ही नहीं माना। मैंने मुरारी काका का वास्ता दिया तब जा के काकी राज़ी हुई। तुम तो जानते हो काका कि मुरारी काका मेरे लिए किसी फ़रिश्ते से कम नहीं थे इस लिए ऐसे वक़्त में भी अगर मैं उनके परिवार के लिए कुछ न करूं तो मुझसे बड़ा एहसान फरामोश दुनिया में भला कौन होगा?"
मेरी बात सुन कर जगन मेरी तरफ देखता रह गया। शायद वो समझने की कोशिश कर रहा था कि मेरी बातों में कहीं मेरा कोई निजी स्वार्थ तो नहीं है? कुछ देर की ख़ामोशी के बाद जगन काका ने कहा____"माना कि ये सब कर के तुम मेरे भाई का एहसान चुका रहे हो छोटे ठाकुर लेकिन मैं ये हरगिज़ नहीं चाह सकता कि तुम्हारी वजह से मेरे गांव के लोग मेरे घर परिवार के बारे में उल्टी सीधी बातें करने लगें।"
"गांव समाज के लोग कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचते काका।" मैंने वही बात दोहराई जो इसके पहले सरोज काकी से कही थी____"समाज के लोग तो दूसरों की कमियां ही खोजते रहते हैं। तुम चाहे लाख अच्छे अच्छे काम करो मगर समाज के लोग तुम्हारे द्वारा किए गए अच्छे काम में भी बुराई ही खोजेंगे। मेरे ऊपर मुरारी काका के बड़े उपकार हैं काका। आज अगर मैं ऐसे वक़्त में उनकी मदद नहीं करुंगा तो इसी गांव समाज के लोग मेरे बारे में ये कहते फिरेंगे कि जिस मुरारी ने मुसीबत में दादा ठाकुर के लड़के की इतनी मदद की थी उसने मुरारी के गुज़र जाने के बाद उसके परिवार की तरफ पलट कर ये देखने की कोशिश भी नहीं की कि वो किस हाल में हैं? जगन काका दुनिया के लोग मौका देख कर हर तरह की बातें करना जानते हैं। तुम अच्छा करोगे तब भी वो तुम्हें ग़लत ही कहेंगे और ग़लत करोगे तब तो ग़लत कहेंगे ही। हालांकि इस समाज में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें इंसान की अच्छाईयां भी दिखती हैं और वो दिल से क़बूल करते हुए ये कहते हैं कि फला इंसान बहुत अच्छा है।"
"शायद तुम ठीक कह रहे हो छोटे ठाकुर।" जगन काका ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"ये सच है कि आज का इंसान कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचता है। तुमने जो कुछ कहा वो एक कड़वा सच है लेकिन ग़रीब आदमी करे भी तो क्या? समाज के ठेकेदारों के बीच उसे दब के ही रहना पड़ता है।"
"समाज के लोगों को ठेकेदार बनाया किसने है काका?" मैंने जगन काका की तरफ देखते हुए कहा____"हमारे तुम्हारे जैसे लोगों ने ही उन्हें ठेकेदार बना रखा है। ये ठेकेदार क्या दूध के धुले हुए होते हैं जो हर किसी पर कीचड़ उछालते रहते हैं? क्या तुम नहीं जानते कि समाज के इन ठेकेदारों का दामन भी किसी न किसी चीज़ से दाग़दार हुआ पड़ा है? लोग बड़े शौक से दूसरों पर ऊँगली उठाते हैं काका लेकिन वो ये नहीं देखते कि दूसरों की तरफ उनकी एक ही ऊँगली उठी हुई होती है जबकि उनकी खुद की तरफ उनकी बाकी की चारो उंगलियां उठी हुई होती हैं। समाज के सामने उतना ही झुको काका जितने में मान सम्मान बना रहे लेकिन इतना भी न झुको कि कमर ही टूट जाए।"
जगन काका मेरी बात सुन कर कुछ न बोले। पास ही खड़ी सरोज काकी भी चुप थी। कुछ देर मैं उन दोनों की तरफ देखता रहा उसके बाद बोला____"मैं पहले भी तुमसे कह चुका हूं काका कि अब मैं पहले जैसा नहीं रहा और आज भी यही कहता हूं। मैं सच्चे दिल से मुरारी काका के लिए कुछ करना चाहता हूं। मैं हर रोज़ ये सोचता हूं कि मुरारी काका मुझे ऊपर से देखते हुए सोच रहे होंगे कि उनके जाने के बाद मैं उनके परिवार के लिए कुछ करता हूं कि नहीं? उन्होंने मेरी मदद बिना किसी स्वार्थ के की थी तो क्या मैं इतना बेगैरत और असमर्थ हूं कि उनके एहसानों का क़र्ज़ भी न चुका सकूं? तुम ही बताओ काका कि तुम मेरी जगह होते तो क्या ऐसे वक़्त में मुरारी काका के परिवार वालों से मुँह मोड़ कर चले जाते? क्या तुम एक पल के लिए भी ये न सोचते कि तुम्हारे मुसीबत के दिनों में मुरारी काका ने तुम्हारी कितनी मदद की थी?"
"मुझे माफ़ कर दो छोटे ठाकुर।" जगन काका ने हाथ जोड़ते हुए कहा____"मैं अभी तक तुम्हारे बारे में ग़लत ही सोच रहा था किन्तु तुम्हारी इन बातों से मुझे एहसास हो गया है कि तुम ग़लत नहीं हो। यकीनन तुम्हारी जगह अगर मैं होता तो यही करता। मुझे ख़ुशी हुई कि तुम एक अच्छे इंसान की तरह अपना फ़र्ज़ निभा रहे हो।"
"अगर तुम सच में समझते हो काका कि मैं सच्चे दिल से अपना फ़र्ज़ निभा रहा हूं।" मैंने कहा____"तो अब तुम मुझे मेरा फ़र्ज़ निभाने से रोकोगे नहीं। परसों मुरारी काका की तेरहवीं है और मैं चाहता हूं कि मुरारी काका की तेरहवीं अच्छे तरीके से हो। जिस किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तो तुम मुझसे बेझिझक हो कर बोलो। वक़्त ज़्यादा नहीं है इस लिए अभी बताओ कि तेरहवीं के दिन किस किस चीज़ की ज़रूरत होगी। मैं हर ज़रूरत की चीज़ शहर से मगवा दूंगा।"
"इसकी क्या ज़रूरत है छोटे ठाकुर?" जगन ने झिझकते हुए कहा____"हम अपने हिसाब से सब कर लेंगे।"
"इसका मतलब तो यही हुआ न काका।" मैंने कहा____"कि तुम मुझे मेरा फ़र्ज़ नहीं निभाने देना चाहते। मुरारी काका मेरे पिता समान थे इस नाते भी मेरा ये फ़र्ज़ बनता है कि मैं अपना फ़र्ज़ निभाने में कोई कसर न छोडूं। मुझे मुरारी काका के लिए इतना कर लेने दो काका। तुम कहो तो मैं तुम्हारे पैरों में गिर कर इस सब के लिए तुमसे भीख भी मांग लूं।"
"नहीं नहीं छोटे ठाकुर।" मैं खटिया से उठ कर खड़ा हुआ तो जगन एकदम से हड़बड़ा कर बोल पड़ा_____"ये कैसी बातें कर रहे हो तुम? तुम अगर सब कुछ अपने तरीके से ही करना चाहते हो तो ठीक है। मैं तुम्हें अब किसी भी बात के लिए मना नहीं करुंगा।"
"तो फिर चलो मेरे साथ।" मैंने कहा तो जगन ने चौंकते हुए कहा____"पर कहां चलूं छोटे ठाकुर?"
"अरे! मेरे साथ शहर चलो काका।" मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"परसों मुरारी काका की तेरहवीं है इस लिए आज ही शहर से सारा ज़रूरत का सामान खरीद कर ले आएंगे। उसके बाद बाकी का यहाँ देख लेंगे।"
"पर इस वक़्त कैसे?" जगन मेरी बातें सुन कर बुरी तरह हैरान था____"मेरा मतलब है कि क्या अभी हम शहर चलेंगे?"
"क्या काका।" मैंने कहा____"अभी जाने में क्या ख़राबी है? अभी तो पूरा दिन पड़ा है। हम शहर से सारा ज़रूरत का सामान ले कर शाम होने से पहले ही यहाँ आ जाएंगे।"
मेरी बात सुन कर जगन काका उलझन में पड़ गया था। हैरान तो सरोज काकी भी थी किन्तु वो ज़ाहिर नहीं कर रही थी। वो भली भाँति जानती थी कि इस मामले में मैं मानने वाला नहीं था। उधर जगन ने सरोज काकी की तरफ देखते हुए कहा____"भौजी तुम क्या कहती हो?"
"मैं क्या कहूं जगन?" सरोज काकी ने शांत भाव से कहा____"तुम्हें जो ठीक लगे करो। मुझे कोई समस्या नहीं है।"
"तो ठीक है फिर।" जगन ने जैसे फैसला करते हुए कहा____"मैं छोटे ठाकुर के साथ शहर जा रहा हूं। तेरहवीं के दिन जो जो सामान लगता हो वो सब बता दो मुझे।"
"क्या तुम्हें पता नहीं है?" सरोज काकी ने कहा____"कि तेरहवीं के दिन क्या क्या सामान लगता है?"
"थोड़ा बहुत पता तो है मुझे।" जगन ने कहा____"फिर भी अगर कुछ छूट जाए तो बता दो मुझे।"
जगन काका के कहने पर सरोज काकी सामान के बारे में सोचने लगी। इधर मैंने उन दोनों से कहा कि तुम दोनों तब तक सारे सामान के बारे में अच्छे से सोच लो तब तक मैं खाना खा के आता हूं। मेरी बात सुन कर दोनों ने हां में सिर हिला दिया। मैं मोटर साइकिल में बैठा और उसे चालू कर के सरोज काकी के घर की तरफ चल पड़ा। जगन काका से बात कर के अब मैं बेहतर महसूस कर रहा था। आख़िर जगन काका को मैंने इस सब के लिए मना ही लिया था।
जगन काका से हुई बातों के बारे में सोचते हुए मैं कुछ ही देर में मुरारी काका के घर पहुंच गया। मोटर साइकिल को मुरारी काका के घर के बाहर खड़ी कर के जैसे ही मैं नीचे उतरा तभी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ मुझे सुनाई दी। मैंने गर्दन मोड़ कर देखा दरवाज़े के उस पार हरे रंग का शलवार कुर्ता पहने अनुराधा खड़ी थी। सीने में उसके दुपट्टा नहीं था जिससे मुझे उसके सीने के उभार साफ़ साफ़ दिखाई दिए किन्तु मैंने जल्दी ही उसके सीने से अपनी नज़र हटा कर उसके चेहरे पर डाली तो उसके होठों पर हल्की सी मुस्कान सजी दिखी मुझे। जैसे ही हम दोनों की नज़रें मिली तो वो जल्दी से पलट गई। ऐसा पहली बार ही हुआ था कि उसने अपने गले में दुपट्टा नहीं डाला था। शायद मोटर साइकिल की आवाज़ सुन कर वो जल्दी से दरवाज़ा खोलने आई थी और इस जल्दबाज़ी में वो अपने गले में दुपट्टा डालना भूल गई थी। ख़ैर उसके पलट कर चले जाने से मैं हल्के से मुस्कुराया और फिर दरवाज़े की तरफ बढ़ चला।
मैं अंदर आँगन में आया तो देखा उसने अपने गले में दुपट्टा डाल लिया था। मैंने मन ही मन सोचा कि इस काम में बड़ी जल्दबाज़ी दिखाई उसने। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने मुझे अपने सीने के उभारों को देखते हुए देख लिया हो और उसे अचानक से याद आया हो कि वो जल्दबाज़ी में दुपट्टा डालना भूल गई थी। मुझे मेरा ये ख़याल जायज़ लगा क्योंकि मैंने देखा था कि वो जल्दी ही पलट गई थी।
"मैं आपके ही आने का इंतज़ार कर रही थी छोटे ठाकुर।" मुझे आँगन में आया देख उसने मेरी तरफ देखते हुए धीमे स्वर में कहा____"ख़ाना तो कब का बना हुआ है।"
"हां वो मैं तुम्हारे खेतों की तरफ चला गया था।" मैंने कहा____"वहां पर जगन काका से काफी देर तक बातें होती रहीं। परसों काका की तेरहवीं है न तो उसी सिलसिले में बातें हो रही थी। अभी मुझे खाना खा कर जल्दी जाना भी है। मैं जगन काका को ले कर शहर जा रहा हूं ताकि वहां से ज़रूरी सामान ला सकूं।"
"क्या काका आपकी बात मान गए?" अनुराधा ने हैरानी भरे भाव से पूछा तो मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम्हारे हिसाब से क्या उन्हें मेरी बात नहीं माननी चाहिए थी?"
"नहीं मेरे कहने का मतलब वो नहीं था।" अनुराधा ने झेंपते हुए जल्दी से कहा____"मैंने तो ऐसा इस लिए कहा कि वो आपसे नाराज़ थे।"
"वो बेवजह ही मुझसे नाराज़ थे अनुराधा।" मैंने कहा____"और ये बात तुम भी जानती हो। ख़ैर मैंने उन्हें दुनियादारी की बातें समझाई तब जा कर उन्हें समझ आया कि मैं मुरारी काका के लिए जो कुछ भी कर रहा हूं वो सच्चे दिल से ही कर रहा हूं।"
"आप हाथ मुँह धो लीजिए।" अनुराधा ने लोटे में पानी लाते हुए कहा____"मैं आपके लिए खाना लगा देती हूं।"
"क्या तुमने भी अभी खाना नहीं खाया?" वो मेरे क़रीब आई तो मैंने उसकी तरफ देखते हुए पूंछा।
"वो मैं आपके आने का इंतज़ार कर रही थी।" उसने नज़र झुका कर कहा____"इस लिए मैंने भी नहीं खाया।"
"ये तो ग़लत किया तुमने।" मैंने उसके हाथ से पानी से भरा लोटा लेते हुए कहा____"मेरी वजह से तुम्हें भूखा नहीं रहना चाहिए था। अगर मैं यहाँ खाना खाने नहीं आता तो क्या तुम ऐसे ही भूखी रहती?"
"जब ज़्यादा भूख लगती तो फिर खाना ही पड़ता मुझे।" अनुराधा ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"उस सूरत में आपको बचा हुआ खाना ही खाने को मिलता।"
"तो क्या हुआ।" मैंने नर्दे के पास पानी से हाथ धोते हुए कहा____"मैं बचा हुआ भी खा लेता। आख़िर तुम्हारे हाथ का बना हुआ खाना मैं कैसे नहीं खाता?"
"अब बातें न बनाइए।" अनुराधा मुस्कुराते हुए पलट गई____"जल्दी से हाथ मुँह धो कर आइए।"
"जो हुकुम आपका।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा तो वो कुछ न बोली, बल्कि रसोई की तरफ तेज़ी से बढ़ गई। मैं समझ सकता था कि मेरी बात सुन कर वो फिर से मुस्कुराई होगी। असल में जब वो मुस्कुराती थी तो उसके दोनों गालों पर हल्के गड्ढे पड़ जाते थे जिससे उसकी मुस्कान और भी सुन्दर लगने लगती थी।
मैं हाथ मुँह धो कर रसोई के पास बरामदे में आ गया। ज़मीन में एक चादर बिछी हुई थी और सामने लकड़ी का एक पीढ़ा रखा हुआ था। पीढ़े के बगल से लोटा गिलास में पानी रखा हुआ था। मैं आया और उसी चादर में बैठ गया। इस वक़्त मेरी धड़कनें ये सोच कर थोड़ी बढ़ गईं थी कि इस वक़्त घर में मैं और अनुराधा दोनों अकेले ही हैं। हालांकि उसका छोटा भाई अनूप भी था जो आज कहीं दिख नहीं रहा था। कुछ ही देर में अनुराधा आई और थाली को मेरे सामने लकड़ी के पीढ़े पर रख दिया। थाली में दाल चावल और पानी लगा कर हाथ से पोई हुई रोटियां रखी हुईं थी। थाली के एक कोने में कटी हुई प्याज अचार के साथ रखी हुई थी और एक तरफ हरी मिर्च। अनुराधा थाली रखने के बाद फिर से रसोई में चली गई थी और जब वो वापस आई तो उसके हाथ में एक कटोरी थी जिसमे भांटा का भरता था। भांटा का भरता देख कर मैं खुश हो गया।
"वाह! ये सबसे अच्छा काम किया तुमने।" मैंने अनुराधा की तरफ देखते हुए कहा____"भांटा का भरता बना दिया तो कसम से दिल ख़ुशी से झूम उठा है। अब एक काम और करो और वो ये कि तुम भी अपनी थाली ले कर यहीं आ जाओ। तुम्हें भूखा रहने की अब कोई ज़रूरत नहीं है।"
"आप खा लीजिए छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने कहा____"मैं बाद में खा लूंगी।"
"एक तो तुम मुझे छोटे ठाकुर न बोला करो।" मैंने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"जब तुम मुझे छोटे ठाकुर बोलती हो तो मुझे ऐसा लगता है जैसे कि मैं कितना बुड्ढा हूं। क्या मैं तुम्हें बुड्ढा नज़र आता हूं? अरे अभी तो मेरी उम्र खेलने कूदने की है। तुमसे भी मैं उम्र में छोटा ही होऊंगा।"
"हाय राम! कितना झूठ बोलते हैं आप।" अनुराधा पहले तो हंसी फिर आँखें फाड़ते हुए बोली____"आप मुझसे छोटे कैसे हो सकते हैं भला?"
"क्यों नहीं हो सकता?" मैंने कहा____"असल में मेरे दाढ़ी मूंछ हैं इस लिए मैं तुमसे बड़ा दिखता हूं वरना मैं तो तुमसे तीन चार साल छोटा ही होऊंगा।"
"मुझे बेवकूफ न बनाइए।" अनुराधा ने मुझे घूरते हुए कहा____"मां बता रही थी मुझे कि जब दादा ठाकुर की दूसरी औलाद तीन साल की हो गई थी तब मैं पैदा हुई थी। इसका मतलब आप मुझसे तीन साल बड़े हैं और आप खुद को मुझसे छोटा बता रहे हैं?"
"अरे! काकी ने तुमसे झूठ कह दिया होगा।" मैंने रोटी का निवाला मुँह में डालने के बाद कहा____"ख़ैर जो भी हो लेकिन अब से तुम मुझे छोटे ठाकुर नहीं कहोगी और ये तुम्हें मानना ही होगा।"
"तो फिर मैं क्या कहूंगी आपको?" अनुराधा ने उलझन पूर्ण भाव से कहा तो मैंने कहा____"हम दोनों की उम्र में थोड़ा ही अंतर है तो तुम मेरा नाम भी ले सकती हो।"
"हाय राम!" अनुराधा ने चौंकते हुए कहा____"मैं भला आपका नाम कैसे ले सकती हूं? मेरे बाबू भी तो आपका नाम नहीं लेते थे तो फिर मैं कैसे ले सकती हूं। ना ना छोटे ठाकुर। मैं आपका नाम नहीं ले सकती। माँ को पता चल गया तो वो मुझे बहुत मारेगी।"
"काकी कुछ नहीं कहेगी तुम्हें।" मैंने कहा____"मैं काकी से कह दूंगा कि मैंने ही तुम्हें मेरा नाम लेने के लिए कहा है। चलो अब मेरा नाम ले कर मुझे पुकारो एक बार। मैं भी तो सुनूं कि तुम्हारे मुख से मेरा नाम कैसा लगता है?"
"नहीं नहीं छोटे ठाकुर।" अनुराधा बुरी तरह हड़बड़ा गई____"मैं आपका नाम नहीं ले सकती।"
"जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।" मैंने कहा____"तो अब से मैं भी तुम्हें छोटी ठकुराइन कहा करुंगा।"
"छोटी ठकुराइन???" अनुराधा बुरी तरह चौंकी____"ये क्या कह रहे हैं आप?"
"सही तो कह रहा हूं।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"ठाकुर तो तुम भी हो। काकी बड़ी ठकुराइन हो गई और तुम छोटी ठकुराईन।"
"ऐसे थोड़ी न होता है।" अनुराधा ने अपने हाथ को झटकते हुए कहा____"वो तो बड़े लोगों को ऐसा कहते हैं। हम तो ग़रीब लोग हैं।"
"इंसान छोटा बड़ा रुपए पैसे या ज़्यादा ज़मीन जायदाद होने से नहीं होता अनुराधा।" मैंने उसकी आँखों में देखते हुए कहा____"बल्कि छोटा बड़ा दिल से होता है। जिसका दिल जितना अच्छा होता है वो उतना ही महान और बड़ा होता है। इन चार महीनों में इतना तो मैं देख ही चुका हूं कि तुम सबका दिल कितना बड़ा है और अच्छा भी है। इस लिए मेरी नज़र में तुम सब महान और बड़े लोग हो। ऐसे में अगर मैं तुम्हें ठकुराइन कहूंगा तो हर्गिज़ ग़लत नहीं होगा।"
"आप घुमावदार बातें कर के मुझे उलझा रहे हैं छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने कहा____"मैं तो इतना जानती हूं कि आज के ज़माने में दिल बड़ा होने से कुछ नहीं होता बल्कि जिसके पास आपके जैसा रुतबा और धन दौलत हो वही बड़ा आदमी होता है।"
"आज के ज़माने की सच्चाई भले ही यही हो।" मैंने कहा____"लेकिन असल सच्चाई वही है जिसके बारे में अभी मैं तुम्हें बता चुका हूं। हम ऐसे बड़े लोग हैं जो किसी की ज़रा सी बुरी बात भी बरदास्त नहीं कर सकते जबकि तुम लोग ऐसे बड़े लोग हो जो बड़ी से बड़ी बुरी बात भी बरदास्त कर लेते हो। तो अब तुम ही बताओ अनुराधा कि हम में से बड़ा कौन हुआ? बड़ा वही हुआ न जिसमें हर तरह की बात को सहन कर लेने की क्षमता होती है? रूपया पैसा धन दौलत ऐसी चीज़े हैं जिनके असर से इंसान घमंडी हो जाता है और वो इंसान को इंसान नहीं समझता जबकि जिसके पास इस तरह की दौलत नहीं होती वो कम से कम इंसान को इंसान तो समझता है। आज के युग में जो कोई इंसान को इंसान समझे वही बड़ा और महान है।"
मेरी बातें सुन कर अनुराधा इस बार कुछ न बोली। शायद इस बार उसे मेरी बात काटने के लिए कोई जवाब ही नहीं सूझा था। वैसे मैंने बात ग़लत नहीं कही थी, हक़ीक़त तो वास्तव में यही है। ख़ैर अनुराधा जब एकटक मेरी तरफ देखती ही रही तो मैंने बात बदलते हुए कहा____"तो ठकुराइन जी, आप अपनी भी थाली ले आइए और मुझ छोटे आदमी के साथ बैठ कर खाना खाइए ताकि मुझे भी थोड़ा अच्छा महसूस हो।"
"आप ऐसे बात करेंगे तो मैं आपसे बात नहीं करुंगी।" अनुराधा ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा____"मुझे आपकी ऐसी बात बिलकुल भी अच्छी नहीं लगी।"
"तो तुम भी मुझे छोटे ठाकुर न कहो।" मैंने कहा____"मुझे भी तुम्हारे मुख से अपने लिए छोटे ठाकुर सुनना अच्छा नहीं लगता और अब अगर तुमने दुबारा मुझे छोटे ठाकुर कहा तो मैं ये खाना छोड़ कर चला जाऊंगा यहाँ से।"
"ये क्या कह रहे हैं आप?" अनुराधा के माथे पर शिकन उभर आई____"भगवान के लिए ऐसी ज़िद मत कीजिए।"
"तुम भी तो ज़िद ही कर रही हो।" मैंने उसकी तरफ देखते हुए कहा____"तुम्हें अपना तो ख़याल है लेकिन मेरा कोई ख़याल ही नहीं है। ये कहां का इन्साफ हुआ भला?"
अनुराधा मेरी बात सुन कर बेबस भाव से देखने लगी थी मुझे। उसके चेहरे पर बेचैनी के भाव गर्दिश करते हुए नज़र आ रहे थे। इस वक़्त जिस तरह के भाव उसके चेहरे पर उभर आये थे उससे वो बहुत ही मासूम दिखने लगी थी और मैं ये सोचने लगा था कि कहीं मैंने उस पर कोई ज़्यादती तो नहीं कर दी?
"क्या हुआ?" फिर मैंने उससे पूछा____"ऐसे क्यों देखे जा रही हो मुझे?"
"आप ऐसा क्यों चाहते हैं?" अनुराधा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"कि मैं आपका नाम लूं?"
"अगर सच सुनना चाहती हो तो सुनो।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"तुम एक ऐसी लड़की हो जिसने मेरी फितरत को बदल दिया है। मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं कि ऐसा कैसे हुआ है लेकिन इतना ज़रूर समझ गया हूं कि ऐसा तुम्हारी वजह से ही हुआ है और मेरा यकीन करो अपनी फितरत बदल जाने का मुझे कोई रंज़ नहीं है। बल्कि एक अलग ही तरह का एहसास होने लगा है जिसकी वजह से मुझे ख़ुशी भी महसूस होती है। इस लिए मैं चाहता हूं कि मेरी फितरत को बदल देने वाली लड़की मुझे छोटे ठाकुर न कहे बल्कि मेरा नाम ले। ताकि छोटे ठाकुर के नाम का प्रभाव मुझ पर फिर से न पड़े।"
मेरी बातें सुन कर अनुराधा आश्चर्य से मेरी तरफ देखने लगी थी। हालांकि मैंने उससे जो भी कहा था वो एक सच ही था। इन चार महीनो में यकीनन मेरी फितरत कुछ हद तक बदल ही गई थी वरना चार महीने पहले मैं घंटा किसी के बारे में ऐसा नहीं सोचता था।
"चार महीने पहले मैं एक ऐसा इंसान था अनुराधा।" उसे कुछ न बोलते देख मैंने कहा____"जो किसी के भी बारे में ऐसे ख़्याल नहीं रखता था बल्कि ये कहूं तो ज़्यादा बेहतर होगा कि अपनी ख़ुशी के लिए मैं जब चाहे किसी के भी साथ ग़लत कर बैठता था लेकिन जब से यहाँ आया हूं और इस घर से जुड़ा हूं तो मेरी फितरत बदल गई है और मेरी फितरत को बदल देने में तुम्हारा सबसे बड़ा योगदान है।"
"पर मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया।" अनुराधा ने बड़ी मासूमियत से कहा।
"कभी कभी ऐसा भी होता है अनुराधा कि किसी के कुछ न करने से भी बहुत कुछ हो जाता है।" मैंने कहा____"तुम समझती हो कि तुमने कुछ नहीं किया और ये बात वाकई में सच है मगर एक सच ये भी है कि तुम्हारे कुछ न करने से ही मेरी फितरत बदल गई है। तुम्हारी सादगी ने और तुम्हारे चरित्र ने मुझे बदल दिया है। शुरू में जब तुम्हें देखा था तो मेरे ज़हन में बस यही ख़्याल आया था कि तुम्हें भी बाकी लड़कियों की तरह एक दिन अपने जाल में फांस लूंगा मगर तुम भी इस बात की गवाह हो कि मैंने तुम्हारे साथ कभी कुछ ग़लत करने का नहीं सोचा। असल में मैं तुम्हारे साथ कुछ ग़लत कर ही नहीं पाया। मेरे ज़मीर ने तुम्हारे साथ कुछ ग़लत करने ही नहीं दिया। मैंने इस बारे में बहुत सोचा और तब मुझे एहसास हुआ कि ऐसा क्यों हुआ? ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं खुश हूं कि तुमने मेरी फितरत को बदल दिया है। मैं इस बात से भी खुश हूं कि तुम्हारी ही वजह से मैंने दूसरी चीज़ों के बारे में भी सोचना शुरू कर दिया है। मेरी नज़र में तुम्हारा स्थान बहुत बड़ा है अनुराधा और इसी लिए मैं चाहता हूं कि तुम मेरा नाम लो।"
"आप कुछ और लेंगे?" अनुराधा ने मेरी बात का जवाब दिए बिना पूछा____"भांटा का भरता और ले आऊं आपके लिए?"
"इतना काफी है।" मैंने कहा____"वैसे मुझे ख़ुशी होती अगर तुम भी मेरे पास ही बैठ कर खाना खाती।"
"वो मुझे आपके सामने।" अनुराधा ने नज़रें झुका कर कहा____"ख़ाना खाने में शर्म आएगी इस लिए पहले आप खा लीजिए, मैं बाद में खा लूंगी।"
"ख़ाना खाने में कैसी शर्म?" मैंने हैरानी से कहा____"मैं भी तो तुम्हारे सामने ही खा रहा हूं। मुझे तो शर्म नहीं आ रही बल्कि तुम सामने बैठी हो तो मुझे अच्छा ही लग रहा है।"
"आपकी बात अलग है।" अनुराधा ने लजाते हुए कहा____"आप एक लड़का हैं और मैं एक लड़की हूं।"
"ये तो कोई बात नहीं हुई।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम्हें मुझसे इतना शर्माने की कोई ज़रूरत नहीं है। ख़ैर अभी तो मुझे जल्दी जाना है इस लिए तुम्हें कुछ नहीं कहूंगा लेकिन अगली बार अगर तुम ऐसे शरमाओगी तो सोच लेना फिर।"
"क्या मतलब???" अनुराधा मेरी बात सुन कर बुरी तरह चौंक गई।
"अरे! डरो नहीं।" मैंने हंसते हुए कहा____"मैं तुम्हारे साथ कुछ उल्टा सीधा नहीं करुंगा बल्कि काकी से तुम्हारी शिकायत करुंगा कि तुम मुझसे शर्माती बहुत हो।"
मेरी बात सुन कर अनुराधा मुस्कुरा कर रह गई। ख़ैर मैंने खाना ख़त्म किया और थाली में ही हाथ मुँह धो कर उठ गया। मेरे उठ जाने के बाद अनुराधा ने मेरी थाली को उठाया और एक तरफ रख दिया। मैं जानता था कि जब तक मैं यहाँ रहूंगा अनुराधा की साँसें उसके हलक में अटकी हुई रहेंगी जो की स्वाभाविक बात ही थी। मुझे जगन काका को ले कर शहर भी जाना था इस लिए मैं अनुराधा से बाद में आने का कह कर घर से बाहर निकल गया। अनुराधा से आज काफी बातें की थी मैंने और मुझे उससे बातें करने में अच्छा भी लगा था।
मोटर साइकिल को चालू कर के मैं वापस मुरारी काका के खेतों की तरफ चल दिया। कुछ ही देर में मैं मुरारी काका के खेतों में पहुंच गया। जगन, सरोज काकी के पास ही खड़ा हुआ था। उसने दूसरे कपड़े पहन रखे थे। शायद वो मेरे जाने के बाद फिर से घर गया था।
"अच्छे से खा लिया है न बेटा?" मैं जैसे ही खटिया में बैठा तो सरोज काकी ने मुझसे पूछा____"अनु ने खाना ठीक से दिया है कि नहीं?"
"हां काकी।" मैंने कहा____"मेरी वजह से वो भी भूखी ही बैठी थी। मैंने उससे कहा भी कि खाना खा लो लेकिन वो कहने लगी कि मेरे बाद खाएगी।"
"वो ऐसी ही है बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"शर्मीली बहुत है वो।"
"काका सारे सामान के बारे में सोच लिया है न तुमने?" मैंने जगन की तरफ देखते हुए कहा____"अगर सोच लिया है तो फिर हमें जल्द ही शहर चलना चाहिए। क्योंकि वक़्त से हमें लौटना भी होगा और बाकी के काम भी करने होंगे।"
"मैंने भौजी से पूछ कर सारे सामान के बारे में याद कर लिया है।" जगन काका ने कहा____"तुम्हारे जाने के बाद मैं भी घर गया था। वो क्या है न कि तुम्हारे साथ शहर जाऊंगा तो कपड़े भी तो ठीक ठाक होने चाहिए थे न।"
"तो चलो फिर।" मैंने खटिया से उठते हुए कहा____"और हां काका। खेतों की कटाई और गहाई की चिंता मत करना। ये दोनों मजदूर सब कर देंगे।"
"जैसी तुम्हारी इच्छा छोटे ठाकुर।" जगन के चेहरे पर ख़ुशी की चमक नज़र आई____"चलो चलते हैं।"
मैंने मोटर साइकिल चालू किया तो जगन मेरे पीछे बैठ गया। उसके बैठते ही मैंने मोटर साइकिल को आगे बढ़ा दिया। रास्ते में मैं और जगन काका दुनिया भर की बातें करते हुए शहर पहुंच गए। शहर में हमने अलग अलग दुकानों में जा जा कर सारा सामान ख़रीदा। सारे सामान का पैसा ज़ाहिर है कि मैंने ही दिया उसके बाद हम वापस गांव की तरफ चल पड़े। शाम होने से पहले ही हम गांव पहुंच गए। मैंने मोटर साइकिल सीधा मुरारी काका के घर के सामने ही खड़ी की। जगन काका के दोनों हाथों में सामान था जो कि बड़े बड़े थैलों में था। घर के अंदर आ कर मैं आँगन में ही एक खटिया पर बैठ गया, जबकि जगन काका सारा सामान सरोज काकी के कमरे में रख आए।
सरोज काकी के कहने पर अनुराधा ने मुझे लोटा गिलास में ला कर पानी पिलाया। कुछ देर हम सारे सामान के बारे में ही बातें करते रहे और बाकी जो सामान चाहिए था उसके बारे में भी। जगन काका बड़ा खुश दिख रहा था। मेरे और उसके बीच अब कोई मनमुटाव नहीं रह गया था। ख़ैर चाय पीने के बाद मैंने काकी से इजाज़त ली और मोटर साइकिल में बैठ कर अपने गांव की तरफ चल दिया।
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Shukriya bhai,,,,Rasprad. Pratiksha agle update ki
Shukriya bhai is khubsurat sameeksha ke liye,,,,romanchak update ..shamko laut te waqt jaal bichhaya tha vaibhav ke liye kisine ,,par waqt par dimaag kaam kar gaya vaibhav ka aur rassi se takrakar girne se bach gaya ..
apne baap se is baare me baat ki aur jo jo hua hai uske saath sab bata diya , aur ab ye bhi pata chal gaya ki wo mask man vaibhav ki suraksha ke liye dada thakur ne hi rakha hai ..
sab baato se yahi lagta hai ki sirf vaibhav hi main target hai dushmano ka ..
par aaj ye bade bhaiya ne bina kuch sune aise bartaw kyu kiya vaibhav se aur thappad bhi maar diya..
kahi koi unko bhadka to nahi raha vaibhav ke khilaaf..
ye darawna sapna dobara aana vaibhav ko ,kya kuch sanket de raha hai..
raat me achanak light chali gayi aur wo aurat kaun thi jo bhag gayi ,kahi koi haweli ka hi vyakti to chhadyantra nahi rach raha hai ,,,
wo aurat kisike room me thi aisa vaibhav ko lagta hai ,par kiske ye nahi pata ..
Shukriya bhai,,,,Great update with awesome writing skills bhai![]()