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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 19 9.9%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 22 11.5%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 75 39.3%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 44 23.0%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 31 16.2%

  • Total voters
    191

snidgha12

Active Member
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2,693
144
कथा एवं कथाकार को २०० पृष्ठ तक पहुंचने कि शुभकामनाएं एवं बहुमान, मेरे विचार से इस कथा का मध्यांतर हुआ है, अभी तो कथनीय और करणिय, अवर्णनीय है, जिसका हम सभी पाठकों को प्रस्फुटित मकई खाते हुए इंतजार करना पड़ेगा
आशा है कथाकार हमारी इस व्यथा का नीराकरण अपना हठ त्याग कर कथा को पुनः शुरू कर करेंगे


 

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
78,684
115,197
354
कथा एवं कथाकार को २०० पृष्ठ तक पहुंचने कि शुभकामनाएं एवं बहुमान, मेरे विचार से इस कथा का मध्यांतर हुआ है, अभी तो कथनीय और करणिय, अवर्णनीय है, जिसका हम सभी पाठकों को प्रस्फुटित मकई खाते हुए इंतजार करना पड़ेगा
Shukriya :hug:
आशा है कथाकार हमारी इस व्यथा का नीराकरण अपना हठ त्याग कर
Kathakaar ne is kahani ko apni hath ki vajah se nahi roka hua hai mitrawar, bas samay ki kami ki vajah se roka hua hai. Dusri baat ek anya kahani ke chalte bhi ye kahani ruki huyi hai. Uske complete hote hi ye katha punah shuru ho jaayegi... :declare:
 

Raj_sharma

परिवर्तनमेव स्थिरमस्ति ||❣️
Supreme
18,723
44,259
259
Bhai subham mai aapse sich me naraj hu.
Itna Intzaar karwa k bhi aapne itni achi kahani ka satya nash kar diya.
Man sakte hai ki aapke pas samay ki kami hogi.
Par agar aisa hai to doosi kahani kaise likh rahe ho.
Raj rani ki tarah is kahani ka bhi beda gark kar diya aapne. Or dono hi kahaniya kitni umda ja rahi thi.
 

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
78,684
115,197
354
Bhai subham mai aapse sich me naraj hu.
Itna Intzaar karwa k bhi aapne itni achi kahani ka satya nash kar diya.
Man sakte hai ki aapke pas samay ki kami hogi.
Par agar aisa hai to doosi kahani kaise likh rahe ho.
Raj rani ki tarah is kahani ka bhi beda gark kar diya aapne. Or dono hi kahaniya kitni umda ja rahi thi.
Dusri kahani me ek update hapte me hi de pata hu bhai. Main to khud chahta hu ki jaldi se us kahani ko khatam kar ke ise shuru karu lekin time hi nahi mil pata likhne ka :dazed:

Raj-Rani aur kayakalp ke time me time hi time hota tha jabki ab aisa nahi hai. Jimmedariya badh gayi to naukari kar li jiski vajah se time hi nahi milta. Sab kuch hamare sochne se ya chaahne se nahi hota dost. Waqt aur halaat hi aise saamne aa jate hain ki ham kuch aur karne par majboor ho jate hain. Khair chinta mat karo....dhire dhire hi sahi lekin kahaniya zarur complete hongi. Meri koi bhi kahani adhuri nahi rahengi. :declare:
 

HalfbludPrince

मैं बादल हूं आवारा
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☆ प्यार का सबूत ☆
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अध्याय - 01


फागुन का महीना चल रहा था और मैं अपने गांव की सरहद से दूर अपने झोपड़े के बाहर छाव में बैठा सुस्ता रहा था। अभी कुछ देर पहले ही मैं अपने एक छोटे से खेत में उगी हुई गेहू की फसल को अकेले ही काट कर आया था। हालांकि अभी ज़्यादा गर्मी तो नहीं पड़ रही थी किन्तु कड़ी धूप में खेत पर पकी हुई गेहू की फसल को काटते काटते मुझे बहुत गर्मी लग आई थी इस लिए आधी फसल काटने के बाद मैं हंसिया ले कर अपने झोपड़े में आ गया था।

कहने को तो मेरे पास सब कुछ था और मेरा एक भरा पूरा परिवार भी था मगर पिछले चार महीनों से मैं घर और गांव से दूर यहाँ जंगल के पास एक झोपड़ा बना कर रह रहा था। जंगल के पास ये ज़मीन का छोटा सा टुकड़ा मुझे दिया गया था बाकी सब कुछ मुझसे छीन लिया गया था और पंचायत के फैसले के अनुसार मैं गांव के किसी भी इंसान से ना तो कोई मदद मांग सकता था और ना ही गांव का कोई इंसान मेरी मदद कर सकता था।

आज से चार महीने पहले मेरी ज़िन्दगी बहुत ही अच्छी चल रही थी और मैं एक ऐसा इंसान था जो ज़िन्दगी के हर मज़े लेना पसंद करता था। ज़िन्दगी के हर मज़े के लिए मैं हर वक़्त तत्पर रहता था। मेरे पिता जी गांव के मुखिया थे और गांव में ही नहीं बल्कि आस पास के कई गांव में भी उनका नाम चलता था। किसी चीज़ की कमी नहीं थी। पिता जी का हर हुकुम मानना जैसे हर किसी का धर्म था किन्तु मैं एक ऐसा शख़्स था जो हर बार उनके हुकुम को न मान कर वही करता था जो सिर्फ मुझे अच्छा लगता था और इसके लिए मुझे शख़्त से शख़्त सज़ा भी मिलती थी लेकिन उनकी हर सज़ा के बाद मेरे अंदर जैसे बेशर्मी और ढीढता में इज़ाफ़ा हो जाता था।

ऐसा नहीं था कि मैं पागल था या मुझ में दुनियादारी की समझ नहीं थी बल्कि मैं तो हर चीज़ को बेहतर तरीके से समझता था मगर जैसा कि मैंने बताया कि ज़िन्दगी का हर मज़ा लेना पसंद था मुझे तो बस उसी मज़े के लिए मैं सब कुछ भूल कर फिर उसी रास्ते पर चल पड़ता था जिसके लिए मुझे हर बार पिता जी मना करते थे। मेरी वजह से उनका नाम बदनाम होता था जिसकी मुझे कोई परवाह नहीं थी। घर में पिता जी के अलावा मेरी माँ थी और मेरे भैया भाभी थे। बड़े भाई का स्वभाव भी पिता जी के जैसा ही था किन्तु वो इस सबके बावजूद मुझ पर नरमी बरतते थे। माँ मुझे हर वक़्त समझाती रहती थी मगर मैं एक कान से सुनता और दूसरे कान से उड़ा देता था। भाभी से ज़्यादा मेरी बनती नहीं थी और इसकी वजह ये थी कि मैं उनकी सुंदरता के मोह में फंस कर उनके प्रति अपनी नीयत को ख़राब नहीं करना चाहता था। मुझ में इतनी तो गै़रत बांकी थी कि मुझे रिश्तों का इतना तो ख़याल रहे। इस लिए मैं भाभी से ज़्यादा ना बात करता था और ना ही उनके सामने जाता था। जबकि वो मेरी मनोदशा से बेख़बर अपना फ़र्ज़ निभाती रहतीं थी।

पिता जी मेरे बुरे आचरण की वजह से इतना परेशान हुए कि उन्होंने माँ के कहने पर मेरी शादी कर देने का फैसला कर लिया। माँ ने उन्हें समझाया था कि बीवी के आ जाने से शायद मैं सुधर जाऊं। ख़ैर एक दिन पिता जी ने मुझे बुला कर कहा कि उन्होंने मेरी शादी एक जगह तय कर दी है। पिता जी की बात सुन कर मैंने साफ़ कह दिया कि मुझे अभी शादी नहीं करना है। मेरी बात सुन कर पिता जी बेहद गुस्सा हुए और हुकुम सुना दिया कि हम वचन दे चुके हैं और अब मुझे ये शादी करनी ही पड़ेगी। पिता जी के इस हुकुम पर मैंने कहा कि वचन देने से पहले आपको मुझसे पूछना चाहिए था कि मैं शादी करुंगा की नहीं।

घर में एक मैं ही ऐसा शख्स था जो पिता जी से जुबान लड़ाने की हिम्मत कर सकता था। मेरी बातों से पिता जी बेहद ख़फा हुए और मुझे धमकिया दे कर चले गए। ऐसा नहीं था कि मैं कभी शादी ही नहीं करना चाहता था बल्कि वो तो एक दिन मुझे करना ही था मगर मैं अभी कुछ समय और स्वतंत्र रूप से रहना चाहता था। पिता जी को लगा था कि आख़िर में मैं उनकी बात मान ही लूंगा इस लिए उन्होंने घर में सबको कह दिया था कि शादी की तैयारी शुरू करें।

घर में शादी की तैयारियां चल रही थी जिनसे मुझे कोई मतलब नहीं था। मेरे ज़हन में तो कुछ और ही चल रहा था। मैंने उस दिन के बाद से घर में किसी से भी नहीं कहा कि वो मेरी शादी की तैयारी ना करें और जब मेरी शादी का दिन आया तो मैं घर से ही क्या पूरे गांव से ही गायब हो गया। मेरे पिता जी मेरे इस कृत्य से बहुत गुस्सा हुए और अपने कुछ आदमियों को मेरी तलाश करने का हुकुम सुना दिया। इधर भैया भी मुझे खोजने में लग गए मगर मैं किसी को भी नहीं मिला। मैं घर तभी लौटा जब मुझे ये पता चल गया कि जिस लड़की से मेरी शादी होनी थी उसकी शादी पिता जी ने किसी और से करवा दी है।

एक हप्ते बाद जब मैं लौट कर घर आया तो पिता जी का गुस्सा मुझ पर फूट पड़ा। वो अब मेरी शक्ल भी नहीं देखना चाहते थे। मेरी वजह से उनकी बदनामी हुई थी और उनका वचन टूट गया था। उन्होंने पंचायत बैठाई और पंचायत में पूरे गांव के सामने उन्होंने फैसला सुनाते कहा कि आज से वैभव सिंह को इस गांव से हुक्का पानी बंद कर के निकाला जाता है। आज से गांव का कोई भी इंसान ना तो इससे कोई बात करेगा और ना ही इसकी कोई मदद करेगा और अगर किसी ने ऐसा किया तो उसका भी हुक्का पानी बंद कर के उसे गांव से निकाल दिया जाएगा। पंचायत में पिता जी का ये हुकुम सुन कर गांव का हर आदमी चकित रह गया था। किसी को भी उनसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। हालांकि इतना तो वो भी समझते थे कि मेरी वजह से उन्हें कितना कुछ झेलना पड़ रहा था।

पंचायत में उस दिन पिता जी ने मुझे गांव से निकाला दे दिया था। मेरे जीवन निर्वाह के लिए उन्होंने जंगल के पास अपनी बंज़र पड़ी ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा दे दिया था। वैसे चकित तो मैं भी रह गया था पिता जी के उस फैसले से और सच कहूं तो उनके इस कठोर फैसले को सुन कर मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन ही गायब हो गई थी मगर मेरे अंदर भी उन्हीं का खून उबाल मार रहा था इस लिए मैंने भी उनके फैसले को स्वीकार कर लिया। हालांकि मेरी जगह अगर कोई दूसरा ब्यक्ति होता तो वो ऐसे फैसले पर उनसे रहम की गुहार लगाने लगता मगर मैंने ऐसा करने का सोचा तक नहीं था बल्कि फैसला सुनाने के बाद जब पिता जी ने मेरी तरफ देखा तो मैं उस वक़्त उन हालात में भी उनकी तरफ देख कर इस तरह मुस्कुराया था जैसे कि उनके इस फैसले पर भी मेरी ही जीत हुई हो। मेरे होठो की उस मुस्कान ने उनके चेहरे को तिलमिलाने पर मजबूर कर दिया था।

अच्छी खासी चल रही ज़िन्दगी को मैंने खुद गर्क़ बना लिया था। पिता जी के उस फैसले से मेरी माँ बहुत दुखी हुई थी किन्तु कोई उनके फैसले पर आवाज़ नहीं उठा सकता था। उस फैसले के बाद मैं घर भी नहीं जा पाया उस दिन बल्कि मेरा जो सामान था उसे एक बैग में भर कर मेरा बड़ा भाई पंचायत वाली जगह पर ही ला कर मेरे सामने डाल दिया था। उस दिन मेरे ज़हन में एक ही ख़याल आया था कि अपने बेटे को सुधारने के लिए क्या उनके लिए ऐसा करना जायज़ था या इसके लिए कोई दूसरा रास्ता भी हो सकता था?

पिता जी के फैसले के बाद मैं अपना बैग ले कर उस जगह आ गया जहां पर मुझे ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा दिया गया था। एक पल में जैसे सब कुछ बदल गया था। राज कुमारों की तरह रहने वाला लड़का अब दर दर भटकने वाला एक भिखारी सा बन गया था मगर हैरानी की बात थी कि इस सब के बावजूद मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा था। ज़िन्दगी एक जगह ठहर ज़रूर गई थी लेकिन मेरे अंदर अब पहले से ज़्यादा कठोरता आ गई थी। थोड़े बहुत जो जज़्बात बचे थे वो सब जैसे ख़ाक हो चुके थे अब।

जंगल के पास मिले उस ज़मीन के टुकड़े को मैं काफी देर तक देखता रहा था। उस बंज़र ज़मीन के टुकड़े से थोड़ी ही दूरी पर जंगल था। गांव यहाँ से चार किलो मीटर दूर था जो कि घने पेड़ पौधों की वजह से दिखाई नहीं देता था। ख़ैर मैंने देखा कि ज़मीन के उस टुकड़े में बहुत ही ज़्यादा घांस उगी हुई थी। पास में कहीं भी पानी नहीं दिख रहा था। इस तरफ आस पास कोई पेड़ पौधे नहीं लगे थे। हालांकि कुछ दूरी पर जंगल ज़रूर था मगर आज तक मैं उस जंगल के अंदर नहीं गया था।

ज़मीन के उस टुकड़े को कुछ देर देखने के बाद मैं उस जंगल की तरफ चल पड़ा था। जंगल में पानी की तलाश करते हुए मैं इधर उधर भटकने लगा। काफी अंदर आने के बाद मुझे एक तरफ से पानी बहने जैसी आवाज़ सुनाई दी तो मेरे चेहरे पर राहत के भाव उभर आए। उस आवाज़ की दिशा में गया तो देखा एक नदी बह रही थी। बांये तरफ से पानी की एक बड़ी मोटी सी धार ऊपर चट्टानों से नीचे गिर रही थी और वो पानी नीचे पत्थरों से टकराते हुए दाहिनी तरफ बहने लगता था। अपनी आँखों के सामने पानी को इस तरह बहते देख मैंने अपने सूखे होठों पर जुबान फेरी और आगे बढ़ कर मैंने उस ठंडे और शीतल जल से अपनी प्यास बुझाई।

जंगल से कुछ लकड़ियां खोज कर मैंने उन्हें लिया और जंगल से बाहर अपने ज़मीन के उस टुकड़े के पास आ गया। अभी तो दिन था इस लिए कोई समस्या नहीं थी मुझे किन्तु शाम को यहाँ रहना मेरे लिए एक बड़ी समस्या हो सकती थी इस लिए अपने रहने के लिए कोई जुगाड़ करना बेहद ज़रूरी था मेरे लिए। मैंने ज़मीन के इस पार की जगह का ठीक से मुआयना किया और जो लकड़ियां मैं ले कर आया था उन्हीं में से एक लकड़ी की सहायता से ज़मीन में गड्ढा खोदना शुरू कर दिया। काफी मेहनत के बाद आख़िर मैंने चार गड्ढे खोद ही लिए और फिर उन चारो गड्ढों में चार मोटी लकड़ियों को डाल दिया। उसके बाद मैं फिर से जंगल में चला गया।

शाम ढलने से पहले ही मैंने ज़मीन के इस पार एक छोटा सा झोपड़ा बना लिया था और उसके ऊपर कुछ सूखी घास डाल कर उसे महुराईन के ब‌उडे़ से कस दिया था। झोपड़े के अंदर की ज़मीन को मैंने अच्छे से साफ़ कर लिया था। मेरे लिए यहाँ पर आज की रात गुज़ारना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं था। हालांकि मैं चाहता तो आज की रात दूसरे गांव में भी कहीं पर गुज़ार सकता था मगर मैं खुद चाहता था कि अब मैं बड़ी से बड़ी समस्या का सामना करूं।

मेरे पास खाने के लिए कुछ नहीं था इस लिए रात हुई तो बिना कुछ खाए ही उस झोपड़े के अंदर कच्ची ज़मीन पर सूखी घास बिछा कर लेट गया। झोपड़े के दरवाज़े पर मैंने चार लकड़ियां लगा कर और उसमे महुराईन का ब‌उड़ा लगा कर अच्छे से कस दिया था ताकि रात में कोई जंगली जानवर झोपड़े के अंदर न आ सके। मेरे लिए अच्छी बात ये थी कि चांदनी रात थी वरना घने अँधेरे में यकीनन मेरी हालत ख़राब हो जाती। ज़िन्दगी में पहली बार मैं ऐसी जगह पर रात गुज़ार रहा था। अंदर से मुझे डर तो लग रहा था लेकिन मैं ये भी जानता था कि अब मुझे अपनी हर रात ऐसे ही गुज़ारनी है और अगर मैं डरूंगा तो कैसे काम चलेगा?

रात भूखे पेट किसी तरह गुज़र ही गई। सुबह हुई और एक नए दिन और एक न‌ई किस्मत का उदय हुआ। जंगल में जा कर मैं नित्य क्रिया से फुर्सत हुआ। पेट में चूहे दौड़ रहे थे और मुझे कमज़ोरी का आभास हो रहा था। कुछ खाने की तलाश में मैं उसी नदी पर आ गया। नदी का पानी शीशे की तरह साफ़ था जिसकी सतह पर पड़े पत्थर साफ़ दिख रहे थे। उस नदी के पानी को देखते हुए मैं नदी के किनारे किनारे आगे बढ़ने लगा। कुछ दूरी पर आ कर मैं रुका। यहाँ पर नदी की चौड़ाई कुछ ज़्यादा थी और पानी भी कुछ ठहरा हुआ दिख रहा था। मैंने ध्यान से देखा तो पानी में मुझे मछलियाँ तैरती हुई दिखीं। मछलियों को देखते ही मेरी भूख और बढ़ ग‌ई।

नदी में उतर कर मैंने कई सारी मछलियाँ पकड़ी और अपनी शर्ट में उन्हें ले कर नदी से बाहर आ गया। अपने दोस्तों के साथ मैं पहले भी मछलियाँ पकड़ कर खा चुका था इस लिए इस वक़्त मुझे अपने उन दोस्तों की याद आई तो मैं सोचने लगा कि इतना कुछ होने के बाद उनमे से कोई मेरे पास मेरा हाल जानने नहीं आया था। क्या वो मेरे पिता जी के उस फैसले की वजह से मुझसे मिलने नहीं आये थे?

अपने पैंट की जेब से मैंने माचिस निकाली और जंगल में ज़मीन पर पड़े सूखे पत्तों को समेट कर आग जलाई। आग जली तो मैंने उसमे कुछ सूखी लकड़ियों रख दिया। जब आग अच्छी तरह से लकड़ियों पर लग गई तो मैंने उस आग में एक एक मछली को भूनना शुरू कर दिया। एक घंटे बाद मैं मछलियों से अपना पेट भर कर जंगल से बाहर आ गया। गांव तो मैं जा नहीं सकता था और ना ही गांव का कोई इंसान मेरी मदद कर सकता था इस लिए अब मुझे खुद ही सारे काम करने थे। कुछ चीज़ें मेरे लिए बेहद ज़रूरी थीं इस लिए मैं अपना बैग ले कर पैदल ही दूसरे गांव की तरफ बढ़ चला।

"वैभव।" अभी मैं अपने अतीत में खोया ही था कि तभी एक औरत की मीठी आवाज़ को सुन कर चौंक पड़ा। मैंने आवाज़ की दिशा में पलट कर देखा तो मेरी नज़र भाभी पर पड़ी।

चार महीने बाद अपने घर के किसी सदस्य को अपनी आँखों से देख रहा था मैं। संतरे रंग की साड़ी में वो बहुत ही खूबसूरत दिख रहीं थी। मेरी नज़र उनके सुन्दर चेहरे से पर जैसे जम सी गई थी। अचानक ही मुझे अहसास हुआ कि मैं उनके रूप सौंदर्य में डूबा जा रहा हूं तो मैंने झटके से अपनी नज़रें उनके चेहरे से हटा ली और सामने की तरफ देखते हुए बोला____"आप यहाँ क्यों आई हैं? क्या आपको पता नहीं है कि मुझसे मिलने वाले आदमी को भी मेरी तरह गांव से निकला जा सकता है?"

"अच्छी तरह पता है।" भाभी ने कहा_____"और इस लिए मैं हर किसी की नज़र बचा कर ही यहाँ आई हूं।"
"अच्छा।" मैंने मज़ाक उड़ाने वाले अंदाज़ से कहा____"पर भला क्यों? मेरे पास आने की आपको क्या ज़रूरत आन पड़ी? चार महीने हो गए और इन चार महीनों में कोई भी आज तक मुझसे मिलने या मेरा हाल देखने यहाँ नहीं आया फिर आप क्यों आई हैं आज?"

"मां जी के कहने पर आई हूं।" भाभी ने कहा___"तुम नहीं जानते कि जब से ये सब हुआ है तब से माँ जी तुम्हारे लिए कितना दुखी हैं। हम सब बहुत दुखी हैं वैभव मगर पिता जी के डर से हम सब चुप हैं।"

"आप यहाँ से जाओ।" मैंने एक झटके में खड़े होते हुए कहा____"मेरा किसी से कोई रिश्ता नहीं है। मैं सबके लिए मर गया हूं।"
"ऐसा क्यों कहते हो वैभव?" भाभी ने आहत भाव से मेरी तरफ देखा____"मैं मानती हूं कि जो कुछ तुम्हारे साथ हुआ है वो ठीक नहीं हुआ है लेकिन कहीं न कहीं तुम खुद इसके लिए जिम्मेदार हो।"

"क्या यही अहसास कराने आई हैं आप?" मैंने कठोर भाव से कहा____"अब इससे पहले कि मेरे गुस्से का ज्वालामुखी भड़क उठे चली जाओ आप यहाँ से वरना मैं भूल जाऊंगा कि मेरा किसी से कोई रिश्ता भी है।"

"मां ने तुम्हारे लिए कुछ भेजवाया है।" भाभी ने अपने हाथ में ली हुई कपड़े की एक छोटी सी पोटली को मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा____"इसे ले लो उसके बाद मैं चली जाऊंगी।"

"मुझे किसी से कुछ नहीं चाहिए।" मैंने शख्त भाव से कहा___"और हां तुम सब भी मुझसे किसी चीज़ की उम्मीद मत करना। मैं मरता मर जाउंगा मगर तुम में से किसी की शकल भी देखना पसंद नहीं करुंगा। ख़ास कर उनकी जिन्हें लोग माता पिता कहते हैं। अब दफा हो जाओ यहाँ से।"

मैने गुस्से में कहा और हंसिया ले कर तथा पैर पटकते हुए खेत की तरफ बढ़ गया। मैंने ये देखने की कोशिश भी नहीं की कि मेरी इन बातों से भाभी पर क्या असर हुआ होगा। इस वक़्त मेरे अंदर गुस्से का दावानल धधक उठा था और मेरा दिल कर रहा था कि सारी दुनिया को आग लगा दूं। माना कि मैंने बहुत ग़लत कर्म किए थे मगर मुझे सुधारने के लिए मेरे बाप ने जो क़दम उठाया था उसके लिए मैं अपने उस बाप को कभी माफ़ नहीं कर सकता था और ना ही वो मेरी नज़र में इज्ज़त का पात्र बन सकता था।

गुस्से में जलते हुए मैं गेहू काटता जा रहा था और रुका भी तब जब सारा गेहू काट डाला मैंने। ये चार महीने मैंने कैसे कैसे कष्ट सहे थे ये सिर्फ मैं और ऊपर बैठा भगवान ही जनता था। ख़ैर गेहू जब कट गया तो मैं उसकी पुल्लियां बना बना कर एक जगह रखने लगा। ये मेरी कठोर मेहनत का नतीजा था कि बंज़र ज़मीन पर मैंने गेहू उगाया था। आज के वक़्त में मेरे पास फूटी कौड़ी नहीं थी। चार महीने पहले जो कुछ था भी तो उससे ज़रूरी चीज़ें ख़रीद लिया था मैंने और ये एक तरह से अच्छा ही किया था मैंने वरना इस ज़मीन पर ये फसल मैं तो क्या मेरे फ़रिश्ते भी नहीं उगा सकते थे।


---------☆☆☆---------
Just started reading this one, pahla hi update mujhe kundan thakur ki yad dila gaya
 

HalfbludPrince

मैं बादल हूं आवारा
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☆ प्यार का सबूत ☆
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अध्याय - 02

अब तक,,,,

गुस्से में जलते हुए मैं गेहू काटता जा रहा था और रुका भी तब जब सारा गेहू काट डाला मैंने। ये चार महीने मैंने कैसे कैसे कष्ट सहे थे ये सिर्फ मैं और ऊपर बैठा भगवान ही जनता था। ख़ैर गेहू जब कट गया तो मैं उसकी पुल्लियां बना बना कर एक जगह रखने लगा। ये मेरी कठोर मेहनत का नतीजा था कि बंज़र ज़मीन पर मैंने गेहू उगाया था। आज के वक़्त में मेरे पास फूटी कौड़ी नहीं थी। चार महीने पहले जो कुछ था भी तो उससे ज़रूरी चीज़ें ख़रीद लिया था मैंने और ये एक तरह से अच्छा ही किया था मैंने वरना इस ज़मीन पर ये फसल मैं तो क्या मेरे फ़रिश्ते भी नहीं उगा सकते थे।

अब आगे,,,,,

गेंहू की पुल्लियां बना कर मैंने एक जगह रख दिया था। ज़मीन का ये टुकड़ा ज़्यादा बड़ा नहीं था। मुश्किल से पच्चीस किलो गेहू का बीज डाला था मैंने। घर वालोें के द्वारा भले ही कष्ट मिला था मुझे मगर ऊपर वाला ज़्यादा तो नहीं पर थोड़ी बहुत मेहरबान ज़रूर हुआ था मुझ पर। जिसकी वजह से मैं इस ज़मीन पर फसल उगाने में कामयाब हो पाया था।

आस पास के गांव के लोगों को भी पता चल गया था कि ठाकुर प्रताप सिंह ने अपने छोटे बेटे को गांव से निकाल दिया है और उसका हुक्का पानी बंद करवा दिया है। सबको ये भी पता चल गया था कि गांव के हर ब्यक्ति को शख्ती से कहा गया था कि वो मुझसे किसी भी तरह से ताल्लुक न रखें और ना ही मेरी कोई मदद करें। ये बात जंगल के आग की तरह हर तरफ फ़ैल गई थी जिसकी वजह से दूसरे गांव वाले जो मेरे पिता को मान सम्मान देते थे उन्होंने मुझसे बात करना बंद कर दिया था। हालांकि मेरे पिता जी ने दूसरे गांव वालों को ऐसा करने के लिए नहीं कहा था किन्तु वो इसके बावजूद उनके ऐसे फैसले को अपने ऊपर भी ले लिए थे।

दुनिया बहुत बड़ी है और दुनिया में तरह तरह के लोग पाए जाते हैं जो अपनी मर्ज़ी के भी मालिक होते हैं। कहने का मतलब ये कि दूसरे गांव के कुछ लोग ऐसे भी थे जो चोरी छिपे मेरे पास आ जाया करते थे और मेरी मदद करते थे। उन्हीं में से एक आदमी था मुरारी सिंह।

मुरारी सिंह मेरी ही बिरादरी का था किन्तु उसकी हैसियत मेरे बाप जैसी नहीं थी। अपने खेतों पर वो भी काम करता था और रात में देसी दारु हलक के नीचे उतार कर लम्बा हो जाता था। उसके अपने परिवार में उसकी बीवी और दो बच्चे थे। एक लड़की थी जिसका नाम अनुराधा था और लड़के का नाम अनूप था। उसकी लड़की अनुराधा मेरी ही उम्र की थी। हल्का सांवला रंग जो कि उसकी सुंदरता का ही प्रतीक जान पड़ता था।

मुरारी के ज़ोर देने पर मैं किसी किसी दिन उसके घर चला जाया करता था। वैसे तो मुझ में नशा करने वाला कोई ऐब नहीं था किन्तु मुरारी के साथ मैं भी बीड़ी पी लिया करता था। वो मुझसे देसी दारु पीने को कहता तो मैं साफ़ इंकार कर देता था। बीड़ी भी मैं तभी पीता था जब वो मेरे पास झोपड़े में आता था। उसके घर में मैं जब भी जाता था तो उसकी बीवी अक्सर मेरे बाप के ऐसे फैसले की बातें करती और उसकी बेटी अनुराधा चोर नज़रों से मुझे देखती रहती थी। अगर मैं अपने मन की बात कहूं तो वो यही है कि मुरारी की लड़की मुझे अच्छी लगती थी। हालांकि उसके लिए मेरे दिल में प्यार जैसी कोई भावना नहीं थी बल्कि मुझे तो हमेशा की तरह आज भी ज़िन्दगी के हर मज़े से लेने से ही मतलब है। प्यार व्यार क्या होता है ये मैं समझना ही नहीं चाहता था।

इन चार महीनों में मुझे एक ही औरत ने मज़ा दिया था और वो थी खुद मुरारी की बीवी सरोज किन्तु ये बात उसके पति या उसकी बेटी को पता नहीं थी और मैं भला ये चाह भी कैसे सकता था कि उन्हें इसका पता चले। मुरारी ने मेरी बहुत मदद की थी। मुझे तो पता भी नहीं था कि ज़मीन में कैसे खेती की जाती है।

शुरुआत में तो मैं हर रोज़ उस बंज़र ज़मीन पर उगी घास को ही हटाने का प्रयास करता रहा था। हालांकि मेरे ज़हन में बार बार ये ख़याल भी आता था कि ये सब छोंड़ कर शहर चला जाऊं और फिर कभी लौट के यहाँ न आऊं मगर फिर मैं ये सोचने लगता कि मेरे बाप ने मुझे यहाँ पर ला पटका है तो एक बार मुझे भी उसे दिखाना है कि मैं यहां क्या कर सकता हूं। बस इसी बात के चलते मैंने सोच लिया था कि अब चाहे जो हो जाये किन्तु मैं इस बंज़र ज़मीन पर फसल उगा कर ही दम लूंगा। शुरुआत में मुझे बहुत मुश्किलें हुईं थी। दूसरे गांव जा कर मैं कुछ लोगों से कहता कि मेरी उस ज़मीन पर हल से जुताई कर दें मगर कोई मेरी बात नहीं सुनता था। एक दिन मुरारी कहीं से भटकता हुआ मेरे पास आया और उसने मुझे उस बंज़र ज़मीन पर पसीना बहाते हुए और कुढ़ते हुए देखा तो उसे मुझ पर दया आ गई थी।

मुरारी ने मेरे कंधे पर अपना हाथ रख कर कहा था छोटे ठाकुर मैं जानता हूं कि आस पास का कोई भी आदमी तुम्हारी मदद करने नहीं आता है क्यों कि वो सब बड़े ठाकुर के तलवे चाटने वाले कुत्ते हैं लेकिन मैं तुम्हारी मदद ज़रूर करुंगा।

उसी शाम को मुरारी अपने बैल और हल ले कर मेरे पास आ गया और उसने उस बंज़र ज़मीन का सीना चीरना शुरू कर दिया। मैं उसके साथ ही चलते हुए बड़े ग़ौर से देखता जा रहा था कि वो कैसे ज़मीन की जुताई करता है और कैसे हल की मुठिया पकड़ कर बैलों को हांकता है। असल में मैं इस बात से तो खुश हो गया था कि मुरारी मेरी मदद कर रहा था लेकिन मैं ये भी नहीं चाहता था कि उसके इस उपकार की वजह से उस पर किसी तरह की मुसीबत आ जाए। इस लिए मैं बड़े ग़ौर से उसे हल चलाते हुए देखता रहा था। उसके बाद मैंने उससे कहा कि वो मुझे भी हल चलाना सिखाये तो उसने मुझे सिखाया। आख़िर एक दो दिन में मैं पक्का हल चलाने वाला किसान बन गया। उसके बाद मैंने खुद ही अपने हाथ से अपने उस बंज़र खेत को जोतना शुरू कर दिया था।

ज़मीन ज़्यादा ठोस तो नहीं थी किन्तु फिर भी वैसी नहीं बन पाई थी जिससे कि उसमे फसल उगाई जा सके। मुरारी का कहना था कि अगर बारिश हो जाये तो उम्मीद की जा सकती है। मुरारी की बात सुन कर मैं सोच में पड़ गया था कि इस ज़मीन को पानी कहां से मिले? भगवान को तो अपनी मर्ज़ी के अनुसार ही बरसना था। इधर ज़मीन की परत निकल जाने से मैं दिन भर मिट्टी के डेलों से घास निकालता रहता। ऐसे ही एक हप्ता गुज़र गया मगर पानी का कहीं से कोई जुगाड़ बनता नहीं दिख रहा था। पानी के बिना सब बेकार ही था। उस दिन तो मैं निराश ही हो गया था जब मुरारी ने ये कहा था कि गेंहू की फसल तभी उगेगी जब उसको भी कम से कम तीन बार पानी दिया जा सके। यहाँ तो पानी मिलना भी भगवान के भरोसे ही था।

एक दिन मैं थका हारा अपने झोपड़े पर गहरी नींद में सो रहा था कि मेरी नींद बादलों की गड़गड़ाहट से टूट गई। झोपड़े के दरवाज़े के पार देखा तो धूप गायब थी और हवा थोड़ी तेज़ चलती नज़र आ रही थी। मैं जल्दी से झोपड़े के बाहर निकला तो देखा आसमान में घने काले बादल छाये हुए थे। हर तरफ काले बादलों की वजह से अँधेरा सा प्रतीत हो रहा था। बादलों के बीच बिजली कौंध जाती थी और फिर तेज़ गड़गड़ाहट होने लगती थी। ये नज़ारा देख कर मैं इस तरह खुश हुआ जैसे विसाल रेगिस्तान में मेरे सूख चुके हलक को तर करने के लिए पानी की एक बूँद नज़र आ गई हो। भगवान ने मुझ पर दया करने का निर्णय किया था। मेरा दिल कर कर रहा था कि मैं इस ख़ुशी में उछलने लगूं।

थोड़ी ही देर में हवा और तेज़ हो गई और फिर आसमान से मोटी मोटी पानी की बूंदें ज़मीन पर टपकने लगीं। हवा थोड़ी तेज़ थी जिससे मेरा झोपड़ा हिलने लगा था। हालांकि मुझे अपने झोपड़े की कोई परवाह नहीं थी। मैं तो बस यही चाहता था कि आज ये बादल इतना बरसें कि संसार के हर जीव की प्यास बुझ जाये और जैसे भगवान ने मेरे मन की बात सुन ली थी। देखते ही देखते तेज़ बारिश शुरू हो गई। बारिश में भीगने से बचने के लिए मैं झोपड़े के अंदर नहीं गया बल्कि अपने उस जुते हुए खेत के बीच में आ कर खड़ा हो गया। दो पल में ही मैं पूरी तरह भीग गया था। बारिश इतनी तेज़ थी कि सब कुछ धुंधला धुंधला सा दिखाई दे रहा था। मैं तो ईश्वर से यही कामना कर रहा था कि अब ये बारिश रुके ही नहीं।

उस दिन रात तक बारिश हुई थी। मेरे जुते हुए खेत में पानी ही पानी दिखने लगा था। मेरी नज़र मेरे झोपड़े पर पड़ी तो मैं बस मुस्कुरा उठा। बारिश और हवा की तेज़ी से वो उलट कर दूर जा कर बिखरा पड़ा था। अब बस चार लकड़ियां ही ज़मीन में गड़ी हुई दिख रही थीं। मुझे अपने झोपड़े के बर्बाद हो जाने का कोई दुःख नहीं था क्यों कि मैं उसे फिर से बना सकता था किन्तु बारिश को मैं फिर से नहीं करवा सकता था। ईश्वर ने जैसे मेरे झोपड़े को बिखेर कर अपने पानी बरसाने का मुझसे मोल ले लिया था।

बारिश जब रुक गई तो रात में मुरारी भागता हुआ मेरे पास आया था। हाथ में लालटेन लिए था वो। मेरे झोपड़े को जब उसने देखा तो मुझसे बोला कि अब रात यहाँ कैसे गुज़ार पाओगे छोटे ठाकुर? उसकी बात पर मैंने कहा कि मुझे रात गुज़ारने की कोई चिंता नहीं है बल्कि मैं तो इस बात से बेहद खुश हूं कि जिस चीज़ की मुझे ज़रूरत थी भगवान ने वो चीज़ मुझे दे दी है।

मुरारी मेरी बात सुन कर बस मुस्कुराने लगा था फिर उसने कहा कि कल वो मेरे लिए एक अच्छा सा झोपड़ा बना देगा किन्तु आज की रात मैं उसके घर पर ही गुज़ारूं। मैं मुरारी की बात सुन कर उसके साथ उसके घर चला गया था। उसके घर पर मैंने खाना खाया और वहीं एक चारपाई पर सो गया था। मुरारी ने कहा था कि आज तो मौसम भी शराबी है इस लिए वो बिना देसी ठर्रा चढ़ाये सोयेगा नहीं और उसने वही किया भी था।

ऐसा पहली बार हुआ था कि मैं रात में मुरारी के घर पर रुक रहा था। ख़ैर रात में सबके सोने के बाद मुरारी की बीवी चुपके से मेरे पास आई और मुझे हल्की आवाज़ में जगाया उसने। चारो तरफ अँधेरा था और मुझे तुरंत समझ न आया कि मैं कहां हूं। सरोज की आवाज़ जब फिर से मेरे कानों में पड़ी तो मुझे अहसास हुआ कि मैं आज मुरारी के घर पर हूं। ख़ैर सरोज ने मुझसे धीरे से कहा कि आज उसका बहुत मन है इस लिए घर के पीछे चलते हैं और अपना काम कर के चुप चाप लौट आएंगे। सरोज की इस बात से मैंने उससे कहा कि अगर तुम्हारी बेटी को पता चल गया तो वो कहीं हंगामा न खड़ा कर दे इस लिए ये करना ठीक नहीं है मगर सरोज न मानी इस लिए मजबूरन मुझे उसके साथ घर के पीछे जाना ही पड़ा।

घर के पीछे आ कर मैंने सरोज से एक बार फिर कहा कि ये सब यहाँ करना ठीक नहीं है मगर सरोज पर तो जैसे हवश का बुखार चढ़ गया था। उसने ज़मीन में अपने घुटनों के बल बैठ कर मेरे पैंट को खोला और कच्छे से मेरे लिंग को निकाल कर उसे सहलाने लगी। मेरी रंगों में दौड़ते हुए खून में जल्दी ही उबाल आ गया और मेरा लिंग सरोज के सहलाने से तन कर पूरा खड़ा हो गया। सरोज ने फ़ौरन ही मेरे तने हुए लिंग को अपने मुँह में भर लिया और उसे कुल्फी की तरह चूसने लगी। मेरे जिस्म में मज़े की लहर दौड़ने लगी जिससे मैंने अपने दोनों हाथों से सरोज के सिर को पकड़ा और उसके मुँह में अपने लिंग को अंदर तक घुसाते हुए अपनी कमर को आगे पीछे हिलाने लगा। सरोज जिस तरह से मेरे लिंग को अपने मुंह में डाल कर चूस रही थी उससे पलक झपकते ही मैं मज़े के सातवें आसमान में उड़ने लगा था।

मज़े की इस तरंग की वजह से मेरे ज़हन से अब ये बात निकल चुकी थी कि ये सब करते हुए अगर मुरारी ने या उसकी लड़की अनुराधा ने हमें देख लिया तो क्या होगा। कोई और वक़्त होता और कोई और जगह होती तो मैं सरोज के साथ तरीके से मज़े लेता मगर इस वक़्त बस एक ही तरीका था कि सरोज का घाघरा उठा कर उसकी योनि में अपने लिंग को घुसेड़ कर धक्के लगाने शुरू कर दूं।

सरोज ने मेरे मना करने के बावजूद मेरे लिंग को जी भर के चूसा और फिर खड़ी हो कर अपने घाघरे को अपने दोनों हाथों से ऊपर उठाने लगी। उसकी चोली में कैद उसके भारी भरकम खरबूजे चोली को फाड़ कर बाहर आने को बेताब हो रहे थे। मुझसे रहा न गया तो मैंने अपने दोनों हाथ बढ़ा कर उन्हें पकड़ लिया और ज़ोर ज़ोर से मसलने लगा जिससे सरोज की सिसकारियां शांत वातावरण में फ़ैल ग‌ईं।

सरोज के खरबूजों को मसलने के बाद मैंने उसे पलटा दिया। वो समझ गई कि अब उसे क्या करना था इस लिए वो अपने घाघरे को कमर तक चढा कर पूरी तरह नीचे झुक गई जिससे उसका पिछवाड़ा मेरे सामने मेरे लिंग के पास आ गया। मैंने लिंग को अपने एक हाथ से पकड़ा और उसकी योनि में सेट कर के कमर को आगे कर दिया। मेरा लिंग उसकी दहकती हुई योनि में अंदर तक समाता चला गया। सरोज ने एक सिसकी ली और अपने सामने की दीवार का सहारा ले लिया ताकि वो आगे की तरफ न जा सके।

ऐसे वक़्त में तरीके से काम करना ठीक नहीं था इस लिए मैंने सरोज की योनि में अपना लिंग उतार कर धक्के लगाने शुरू कर दिए। मैंने सरोज की कमर को अच्छे से पकड़ लिया था और तेज़ तेज़ धक्के लगाने शुरू कर दिए थे। मेरे हर धक्के पर थाप थाप की आवाज़ आने लगी तो मैंने धक्के इस अंदाज़ से लगाने शुरू कर दिए कि मेरा जिस्म उसके पिछवाड़े पर न टकराए। उधर झुकी हुई सरोज मज़े से आहें भरने लगी थी। हालांकि उसने अपने एक हाथ से अपना मुँह बंद कर लिया था मगर इसके बावजूद उसके मुख से आवाज़ निकल ही जाती थी। तेज़ तेज़ धक्के लगाते हुए मैं जल्दी से अपना पानी निकाल देना चाहता था मगर ऐसा हो नहीं रहा था। इस वक़्त मेरे लिए मेरी ये खूबी मुसीबत का सबब भी बन सकती थी मगर मैं अब क्या कर सकता था?

सरोज कई दिनों की प्यासी थी इस लिए तेज़ धक्कों की बारिश से वो थोड़ी ही देर में झड़ कर शिथिल पड़ गई मगर मैं वैसे ही लगा रहा। थोड़ी देर में वो फिर से मज़े में आहें भरने लगी। आख़िर मुझे भी आभास होने लगा कि मैं भी अपने चरम पर पहुंचने वाला हूं इस लिए मैंने और तेज़ धक्के लगाने शुरू कर दिए मगर तभी सरोज आगे को खिसक गई जिससे मेरा लिंग उसकी योनि से बाहर आ गया। मुझे उस पर बेहद गुस्सा आया और मैं इस गुस्से में उससे कुछ कहने ही वाला था कि उसने कहा कि झुके झुके उसकी कमर दुखने लगी है तो मैंने उसकी एक टांग को ऊपर उठा कर खड़े खड़े सम्भोग करने के लिए कहा तो उसने वैसा ही किया। एक हाथ से उसने दीवार का सहारा लिया और फिर अपनी एक टांग को हवा में उठाने लगी। मैंने उसकी उस टांग को एक हाथ से पकड़ लिया और फिर आगे बढ़ कर उसकी योनि में अपने लिंग को डाल दिया।

एक बार फिर से तेज़ धक्कों की शुरुआत हो चुकी थी। सरोज की सिसकिया फिर से फ़िज़ा में गूंजने लगी थीं जिसे वो बड़ी मुश्किल से रोंक पा रही थी। कुछ ही देर में सरोज का जिस्म कांपने लगा और वो फिर से झड़ गई। झड़ते ही उसमे खड़े रहने की शक्ति न रही इस लिए मुझे फिर से अपने लिंग को उसकी योनि से बाहर निकालना पड़ा किन्तु इस बार उसने नीचे बैठ कर मेरे लिंग को अपने मुँह में भर लिया था और मुझे इशारा किया कि मैं उसके मुँह में ही अपना पानी गिरा दूं। सरोज के इशारे पर मैं शुरू हो गया। कुछ देर मैं उसके मुख में ही धीरे धीरे धक्के लगाता रहा उसके बाद सरोज ने मेरे लिंग को पकड़ कर हिलाना शुरू कर दिया जिससे थोड़ी ही देर में मैं मज़े की चरम सीमा पर पहुंच गया और सरोज के मुख में ही अपना सारा पानी गिरा दिया जिसे उसने सारा का सारा हलक के नीचे उतार लिया। उसके बाद हम जिस तरह दबे पाँव आये थे उसी तरह दबे पाँव घर के अंदर भी चले आए।

अभी मैं अपनी चारपाई पर आ कर चुप चाप लेटा ही था कि अंदर कहीं से कुछ गिरने की आवाज़ आई तो मेरी रूह तक काँप ग‌ई। मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि कहीं किसी को हमारे इस कर्म काण्ड का पता तो नहीं चल गया? उस रात यही सोचते सोचते मैं सो गया था। दूसरे दिन मैं उठा तो मेरी नज़र मुरारी की लड़की अनुराधा पर पड़ी। वो मेरी चारपाई के पास ही हाथ में चाय से भरा एक स्टील का छोटा सा गिलास लिए खड़ी थी। मैंने उठ कर उससे चाय का गिलास लिया तो वो चुप चाप चली गई।

मुरारी से मेरी पहचान को इतना समय हो गया था और मैं उसके घर भी आता रहता था किन्तु इतने दिनों में आज तक अनुराधा से मेरी कोई बात नहीं हो पाई थी। वो अपनी माँ से ज़्यादा सुन्दर थी। उसका साँवला चेहरा हमेशा सादगी और मासूमियत से भरा रहता था। मैं जब भी उसे देखता था तो मेरी धड़कनें थम सी जाती थी मगर उससे कुछ बोलने के लिए मेरे पास कोई वजह नहीं होती थी। उसकी ख़ामोशी देख कर मेरी हिम्मत भी जवाब दे जाती थी। हालांकि उसका छोटा भाई अनूप मुझसे बड़े अच्छे से बात करता था और मेरे आने पर वो खुश भी हो जाता था। ऐसा इस लिए क्योंकि मेरे आने से जब उसकी माँ मुझे नमकीन और बिस्कुट नास्ते में देती तो मैं उसे भी खिलाता था।

चाय पीते हुए मैं अनुराधा की तरफ भी देख लेता था। वो रसोई के पास ही बैठी हंसिया से आलू काट रही थी। मेरी नज़र जब भी उस पर पड़ी थी तो मैं उसे अपनी तरफ ही देखते हुए पाया था। हमारी नज़रें जब आपस में टकरा जातीं तो वो फ़ौरन ही अपनी नज़रें झुका लेती थी किन्तु आज ऐसा नहीं था। आज जब हमारी नज़रें मिलती थीं तो वो अजीब सा मुँह बना लेती थी। पहले तो मुझे उसका यूं मुँह बनाना समझ में न आया किन्तु फिर एकदम से मेरे ज़हन में कल रात वाला वाक्या उभर आया और फिर ये भी याद आया कि जब मैं और सरोज अपना काम करके वापस आये थे तो किसी चीज़ के गिरने की आवाज़ आई थी।

मेरे दिमाग़ में बड़ी तेज़ी से ये ख़याल उभरा कि कहीं रात में अनुराधा को हमारे बारे में पता तो नहीं चल गया? मैं चारपाई पर जैसे ही लेटने लगा था वैसे ही किसी चीज़ के गिरने की आवाज़ आई थी। हालांकि रात में हर तरफ अँधेरा था और कुछ दिख नहीं रहा था मगर अनुराधा का इस वक़्त मुझे देख कर इस तरह से मुँह बनाना मेरे मन में शंका पैदा करने लगा था जो कि मेरे लिए अच्छी बात हरगिज़ नहीं थी। इन सब बातों को सोचते ही मेरे अंदर घबराहट उभरने लगी और मुझे अनुराधा के सामने इस तरह चारपाई पर बैठना अब मुश्किल लगने लगा। मैंने जल्दी से चाय ख़त्म की और चारपाई से उठ कर खड़ा हो गया। मुरारी मुझे कहीं दिख नहीं रहा था और ना ही उसकी बीवी सरोज मुझे दिख रही थी। मैंने अनुराधा से पूछने का सोचा। ये पहली बार था जब मैं उससे कुछ बोलने वाला था या कुछ पूछने वाला था। मैंने उससे उसके पिता के बारे में पूछा तो उसने कुछ पल मुझे देखा और फिर धीरे से कहा कि वो दिशा मैदान को गए हैं।

"ठीक है फिर।" मैंने उसकी तरफ देखते हुए संतुलित स्वर में कहा____"उनसे कहना कि मैं चाय पी कर अपने खेत पर चला गया हूं।"
"क्या मैं आपसे कुछ पूछ सकती हूं?" मैं अभी दरवाज़े की तरफ बढ़ा ही था कि पीछे से उसकी आवाज़ सुन कर ठिठक गया और फिर पलट कर धड़कते हुए दिल से उसकी तरफ देखा।

"हां पूछो।" मैंने अपनी बढ़ चुकी धड़कनों को किसी तरह सम्हालते हुए कहा।
"वो कल रात आप और मां।" उसने अटकते हुए लहजे से नज़रें चुराते हुए कहा____"कहां गए थे अँधेरे में?"

उसके पूछने पर मैं समझ गया कि कल रात किसी चीज़ के गिरने से जो आवाज़ हुई थी उसकी वजह अनुराधा ही थी। किन्तु उसके पूछने पर मेरे मन में सवाल उभरा कि क्या उसने हमें वो सब करते हुए देख लिया होगा? इस ख़्याल के साथ ही मेरी हालत ख़राब होने लगी।

"वो मुझे नींद नहीं आ रही थी।" फिर मैंने आनन फानन में उसे जवाब देते हुए कहा____"इस लिए बाहर गया था किन्तु तुम ये क्यों कह रही हो कि मैं और तुम्हारी माँ कहां गए थे? क्या काकी भी रात में कहीं गईं थी?"

"क्या आपको उनके जाने का पता नहीं है?" उसने अपनी आंखें सिकोड़ते हुए पूछा तो मेरी धड़कनें और भी तेज़ हो ग‌ईं।
"मुझे भला कैसे पता होगा?" मैंने अपने माथे पर उभर आए पसीने को महसूस करते हुए कहा____"अँधेरा बहुत था इस लिए मैंने उन्हें नहीं देखा।"


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सरोज को पेल दिया और अनुराधा को मालूम भी हो गया बढ़िया
 

HalfbludPrince

मैं बादल हूं आवारा
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 03
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अब तक,,,,

"वो मुझे नींद नहीं आ रही थी।" फिर मैंने आनन फानन में उसे जवाब देते हुए कहा____"इस लिए बाहर गया था किन्तु तुम ये क्यों कह रही हो कि मैं और तुम्हारी माँ कहां गए थे? क्या काकी भी रात में कहीं गईं थी?"

"क्या आपको उनके जाने का पता नहीं है?" उसने अपनी आंखें सिकोड़ते हुए पूछा तो मेरी धड़कनें और भी तेज़ हो ग‌ईं।
"मुझे भला कैसे पता होगा?" मैंने अपने माथे पर उभर आए पसीने को महसूस करते हुए कहा____"अँधेरा बहुत था इस लिए मैंने उन्हें नहीं देखा।"

अब आगे,,,,,

मेरी बात सुन कर अनुराधा मुझे ख़ामोशी से देखने लगी थी। उसका अंदाज़ ऐसा था जैसे वो मेरे चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रही हो और साथ ही ये पता भी कर रही हो कि मैं झूठ बोल रहा हूं या सच? उसके इस तरह देखने से मुझे मेरी धड़कनें रूकती हुई सी महसूस हुईं। जीवन में पहली बार मैं किसी लड़की के सामने अंदर से इतना घबराया हुआ महसूस कर रहा था। ख़ैर इससे पहले कि वो मुझसे कुछ और कहती मैं फौरन ही पलट कर दरवाज़े से बाहर निकल गया। पीछे से इस बार उसने भी मुझे रोकने की कोशिश नहीं की थी।

मुरारी के घर से मैं तेज़ तेज़ क़दमों से चलते हुए सीधा जंगल की तरफ निकल गया। मेरे कानों में अभी भी अनुराधा की बातें गूंज रही थीं और मैं ये सोचे जा रहा था कि क्या सच में उसे पता चल गया है या वो मुझसे ये सब पूछ कर अपनी शंका का समाधान करना चाहती थी? मैं ये सब सोचते हुए किसी भी नतीजे पर नहीं पहुंच सका, किन्तु मेरे मन में ये ख़याल ज़रूर उभरा कि अगर उसने सच में देख लिया होगा या फिर उसे पता चल गया होगा तो मेरे लिए ये ठीक नहीं होगा क्यों कि अनुराधा अब मेरे दिमाग में घर कर चुकी थी और मैं उसे किसी भी कीमत पर भोगना चाहता था। अगर उसे इस सबका पता चल गया होगा तो मेरी ये मंशा कभी पूरी नहीं हो सकती थी क्यों कि उस सूरत में मेरे प्रति उसके ख़याल बदल जाने थे। उसके मन में मेरे प्रति यही छवि बन जानी थी कि मैं एक निहायत ही गिरा हुआ इंसान हूं जिसने उसकी माँ के साथ ग़लत काम किया था।

जंगल में पहुंच कर मैं नित्य क्रिया से फ़ारिग हुआ और फिर नहा धो कर वापस अपने खेत पर आ गया था। मेरे दिमाग़ से अनुराधा का ख़याल और उसकी बातें जा ही नहीं थी और हर गुज़रते पल के साथ मेरे अंदर एक बेचैनी सी बढ़ती जा रही थी जो अब मुझे परेशान करने लगी थी। मेरा मन अब किसी भी काम में नहीं लग रहा था। जाने कितनी ही देर तक मैं अपने खेत के पास बैठा इन ख़यालों में डूबा रहा था।

"छोटे ठाकुर।" एक जानी पहचानी आवाज़ को सुन कर मैंने पलट कर आवाज़ की दिशा में देखा। मुरारी सिंह मेरी तरफ बढ़ा चला आ रहा था और उसी ने ज़ोर की आवाज़ देते हुए कहा था____"आज क्या तुमने तय कर लिया है कि सारी फसल काट कर और उसे गाह कर उसका सारा अनाज झोपड़े में रख लेना है?"

मुरारी की बातें सुन कर मैंने चौंक कर अपने हाथों की तरफ देखा। मेरे हाथ में गेहू की पुल्लियों का एक गट्ठा था जिसे मैं रस्सी से बाँध रहा था। गुज़र चुके दिनों की याद में मैं इस क़दर खो गया था कि मुझे पता ही नहीं चला कि मैं वर्तमान में क्या कर रहा था। मैंने खेत में चारो तरफ नज़र घुमाई तो देखा मैंने गेहू की सारी पुल्लियों को रस्सी से बाँध बाँध कर एक जगह इकठ्ठा कर लिया था। मुझे अपने द्वारा किये गए इस काम को देख कर बड़ी हैरानी हुई। फिर मुझे याद आया कि आज घर से भाभी आईं थी और मैं उनसे बात करते हुए बेहद गुस्सा हो गया था। गुस्से में मैंने जाने क्या क्या कह दिया था उन्हें। मुझे अहसास हुआ कि मुझे इस तरह उनसे गुस्से में बात नहीं करनी चाहिए थी। आख़िर उनकी तो कोई ग़लती नहीं थी।

वैसे हक़ीक़त ये थी कि मुझे गुस्सा भी इस बात पर आ गया था कि इन चार महीनों में मेरे घर का कोई भी सदस्य मुझसे मिलने नहीं आया था और ना ही ये देखने आया था कि घर गांव से निकाले जाने के बाद मैं किस तरह से यहाँ जी रहा हूं। भाभी ने ये कह दिया कि माँ मेरे लिए बहुत दुखी हैं तो क्या उससे मुझे संतुष्टि मिल जाएगी? मेरे माँ बाप को तो जैसे कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता था कि मैं यहाँ किस हाल में हूं। अपने मान सम्मान को बढ़ाने के लिए कोई फैसला करना बहुत आसान होता है लेकिन अगर यही फैसला खुद उनके लिए होता और वो खुद ऐसी परिस्थिति में होते तब पता चलता कि कैसा महसूस होता है। सारी दुनियां मुझे बुरा कहे मगर मुझे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला था। मेरे अंदर तो माँ बाप के लिए नफ़रत में जैसे और भी इज़ाफ़ा हो गया था।

इन चार महीनों में मैं इतना तो सीख ही गया था कि मुसीबत में कोई किसी का साथ नहीं देता। सब साले मतलब के रिश्ते हैं और मतलब के यार हैं। जब मेरे अपनों का ये हाल था तो गैरों के बारे में क्या कहता? मेरे दोस्तों में से कोई भी मेरे पास नहीं आया था। जब भी ये सोचता था तो मेरे अंदर गुस्से का ज्वालामुखी धधक उठता था और मन करता था कि ऐसे मतलबी दोस्तों को जान से मार दूं।

"क्या हुआ छोटे ठाकुर?" मुरारी ने मुझे ख़यालों में गुम देखा तो इस बार वो थोड़ा चिंतित भाव से पूछ बैठा था____"आज क्या हो गया है तुम्हें? कहां इतना खोये हुए हो?"

"काका देशी है क्या तुम्हारे पास?" मैंने गेहू के गट्ठे को एक बड़े गट्ठे के पास फेंकते हुए मुरारी से पूछा तो वो हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए बोला____"देशी??? ये क्या कह रहे हो छोटे ठाकुर? क्या आज देशी चढ़ाने का इरादा है?"

"मुझे समझ आ गया है काका।" मैंने मुरारी के पास आते हुए कहा____"कि दुनिया में कोई भी चीज़ बुरी नहीं होती, बल्कि देशी जैसी चीज़ तो बहुत ही अच्छी होती है। अगर तुम्हारे पास है तो लाओ काका। आज मैं भी इसे पिऊंगा और इसके नशे को महसूस करुंगा।"

"छोटे ठाकुर।" मुरारी मुझे बड़े ध्यान से देखते हुए बोला____"आख़िर बात क्या है? कुछ हुआ है क्या?"
"क्या तुम्हें लगता है काका कि कुछ हो सकता है?" मैंने फीकी सी मुस्कान में कहा____"अपने साथ तो जो होना था वो चार महीने पहले ही हो चुका है। अब तो बस ये फसल गाह लूं और अपने बाप को दिखा दूं कि उसने मुझे तोड़ने का भले ही पूरा प्रबंध किया था मगर मैं ज़रा भी नहीं टूटा बल्कि पहले से और भी ज़्यादा मजबूत हो गया हूं।"

मुरारी मेरे मुख से ऐसी बातें सुन कर हैरान था। ऐसा नहीं था कि उसने ऐसी बातें मेरे मुख से पहले सुनी नहीं थी किन्तु आज वो हैरान इस लिए था क्योंकि आज मेरी आवाज़ में और मेरे बोलने के अंदाज़ में भारीपन था। मेरे चेहरे पर आज उसे एक दर्द दिख रहा था।

"ऐसे क्या देख रहे हो काका?" मैंने मुरारी के कंधे पर अपना हाथ रख कर कहा____"देशी हो तो निकाल कर दो न मुझे। यकीन मानो काका आज तुम्हारी देशी पीने का बहुत मन कर रहा है।"

"छोटे ठाकुर।" मुरारी ने संजीदगी से कहा____"अभी तो नहीं है मेरे पास लेकिन अगर तुम सच में पीना चाहते हो तो मैं घर से ले आऊंगा।"
"अरे तो तुम्हें क्या लगा काका?" मैंने मुरारी से दो कदम पीछे हटते हुए कहा____"मैं क्या तुमसे मज़ाक कर रहा हूं? अभी जाओ और घर से देशी लेकर आओ। आज हम दोनों साथ में बैठ कर देशी शराब पिएँगे।"

मुरारी मेरी बातों से अचंभित था और मेरी तरफ ऐसे देख रहा था जैसे कि मैं एकदम से पागल हो गया हूं। ख़ैर मेरे ज़ोर देने पर मुरारी वापस अपने घर की तरफ चला गया। वो तेज़ तेज़ क़दमों से चला जा रहा था और उसे जाता देख मेरे होठों पर मुस्कान उभर आई थी। इस वक़्त सच में मेरे अंदर एक द्वन्द सा चल रहा था। एक आग सी लगी हुई थी मेरे अंदर जो मुझे जलाये जा रही थी और मैं चाहता था कि ये आग और भी ज़्यादा भड़के। मेरे दिलो दिमाग़ में बड़ी तेज़ी से विचारों का बवंडर घूमे जा रहा था।

मुरारी के जाने के बाद मैं अपने झोपड़े की तरफ आ गया। आज बहुत ज्यादा मेहनत की थी मैंने और अब मुझे थकान महसूस हो रही थी। जिस्म से पसीने की बदबू भी आ रही थी इस लिए मैंने सोचा कि नहा लिया जाये ताकि थोड़ी राहत महसूस हो। मिट्टी के दो बड़े बड़े मटके थे मेरे पास जिनमे पानी भर कर रखता था मैं और एक लोहे की बाल्टी थी। मैंने एक मटके से बाल्टी में पानी भरा और झोपड़े के पास ही रखे एक सपाट पत्थर के पास बाल्टी को रख दिया। उसके बाद मैंने अपने जिस्म से बनियान और तौलिये को उतार कर उस सपाट पत्थर के पास आ गया।

पानी से पहले मैंने हाथ पैर धोये और फिर लोटे में पानी भर भर कर अपने सिर पर डालने लगा। मिट्टी के मटके का पानी बड़ा ही शीतल था। जैसे ही वो ठंडा पानी मेरे जिस्म पर पड़ा तो मुझे बेहद आनंद आया। हाथों से अच्छी तरह जिस्म को मला मैंने और फिर से लोटे में पानी भर भर कर अपने सिर पर डालने लगा। बाल्टी का पानी ख़त्म हुआ तो मटके से और पानी लिया और फिर से नहाना शुरू कर दिया। नहाने के बाद थोड़े बचे पानी से मैंने कच्छा बनियान धोया और गन्दा पानी फेंक कर बाल्टी को झोपड़े के पास रख दिया। गीले कच्छे बनियान को मैंने वहीं एक तरफ झोपड़े के ऊपर फैला कर डाल दिया।

नहाने के बाद अब मुझे बहुत ही अच्छा लग रहा था। दिन ढलने लगा था और शाम का धुंधलका धीरे धीरे बढ़ने लगा था। नहाने के बाद मैंने दूसरा कच्छा बनियान पहन लिया और ऊपर से पैंट शर्ट भी। अभी मैं कपड़े पहन कर झोपड़े से बाहर आया ही था कि मुरारी आ गया।

मुरारी देशी शराब के दो ठर्रे ले कर आया था। मुरारी के बड़े उपकार थे मुझ पर और मैं हमेशा सोचता था कि अगर वो न होता तो क्या मैं इस बंज़र ज़मीन पर अकेले फसल उगा पाता? बेशक मैंने बहुत मेहनत की थी मगर खेत में हल चलाना और बीज बोना उसी ने सिखाया था मुझे। उसके बाद जब गेहू की फसल कुछ बड़ी हुई तो उसी की मदद से मैंने खेत को पानी से क‌ई बार सींचा था। सिंचाई के लिए कोई नशीन तो थी नहीं इस लिए उसकी बैल गाडी ले कर मैं जंगल जाता और जंगल के अंदर मौजूद उस नदी से ड्रमों में पानी भर कर लाता था। नदी से ड्रमों में पानी भर कर लाता और फिर उस पानी को अपने खेत में डालता था। किसी किसी दिन मुरारी इस काम में मेरा साथ देता था। उसके अपने भी खेत थे जिनमे वो ब्यस्त रहता था। किसी किसी दिन उसकी बीवी सरोज भी आ जाया करती थी और थोड़ी बहुत मेरी मदद कर देती थी। हालांकि उसके आने का प्रयोजन कुछ और ही होता था।

मुरारी के इन उपकारों के बारे में जब भी मैं सोचता तो मुझे अपने उस काम की याद आ जाती जो मैं उसकी बीवी के साथ करता था। हालांकि मैं उसकी बीवी के साथ जो भी करता था उसमे उसकी बीवी की भी बराबर रज़ामंदी होती थी किन्तु इसके बावजूद मुझे अपने अंदर एक ग्लानि सी महसूस होती थी और उस ग्लानि के लिए मैं ईश्वर से माफ़ी भी मांगता था।

मुरारी की बेटी अनुराधा से मैं बहुत कम बात करता था। उस दिन के हादसे के बाद मैं उसके सामने जाने से ही कतराने लगा था। हालांकि उस हादसे के बाद उसने कभी मुझसे उस बारे में कुछ नहीं पूछा था बल्कि अब तो ऐसा भी होता था कि अगर मैं मुरारी के साथ उसके घर जाता तो वो मुझे देख कर हल्के से मुस्कुरा देती थी। जब वो हल्के से मुस्कुराती थी तो मेरे मन के तार एकदम से झनझना उठते थे और दिल में जज़्बातों और हसरतों का तूफ़ान सा खड़ा हो जाता था मगर फिर मैं खुद को सम्हाल कर उसके सामने से हट जाता था। अनुराधा को अब तक जितना मैंने जाना था उसका सार यही था कि वो एक निहायत ही शरीफ लड़की थी जिसमे सादगी और मासूमियत कूट कूट कर भरी हुई थी।

मुरारी का घर गांव के एकांत में बना हुआ था जहां पर उसके खेत थे। मुरारी का एक भाई और था जिसका घर गांव में बना हुआ था। अनुराधा ज़्यादातर घर में ही रहती थी या फिर अपने माँ बाप और भाई के साथ खेतों पर काम करने चली जाती थी। मैं उसके बारे में हमेशा सोचता था कि गांव में ऐसी लड़की मेरे जैसे हवस के पुजारियों से अब तक कैसे बची हुई थी?

"छोटे ठाकुर।" मुरारी की आवाज़ से मैं ख़यालों से बाहर आया____"तुम्हारे लिए अलग से देशी का एक ठर्रा ले कर आया हूं और घर से चने भी भुनवा कर लाया हूं। वैसे मैं तो ऐसे ही पी लेता हूं इसे।"

"तो मैं भी ऐसे ही पी लूंगा इसे।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"काकी को क्यों परेशान किया चने भुनवा कर?"
"क्या बात करते हो छोटे ठाकुर।" मुरारी ने बुरा सा मुँह बनाया____"ये चने तो मैंने अनुराधा बिटिया से भुनवाये हैं। तुम्हारी काकी तो ससुरी मेरी सुनती ही नहीं है कभी।"

"ऐसा क्यों काका?" मुरारी की इस बात से मैंने पूछा____"काकी तुम्हारी क्यों नहीं सुनती है?"
"अब तुमसे क्या बताऊं छोटे ठाकुर?" मुरारी ने देशी ठर्रे का ढक्कन खोलते हुए कहा____"उम्र में मुझसे छोटे हो और रिश्ते में मेरे भतीजे भी लगते हो इस लिए तुमसे वो सब बातें नहीं कह सकता।"

"उम्र में मैं छोटा हूं और रिश्ते में तुम्हारा भतीजा भी लगता हूं।" मैंने फिर से मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन दारू तो पिला ही रहे हो ना काका? क्या इसके लिए तुमने सोचा कुछ? जबकि बाकी चीज़ों के लिए तुम मुझे उम्र और रिश्ते का हवाला दे रहे हो।"

"बात तो तुम्हारी ठीक है छोटे ठाकुर।" मुरारी ने देशी शराब को एक गिलास में उड़ेलते हुए कहा____"लेकिन इसकी बात अलग है और उसकी अलग।"
"अरे! क्या इसकी उसकी लगा रखे हो काका?" मैंने कहा____"हमारे बीच क्या रिश्ता है उसको गोली मारो। मैं तो बस इतना जानता हूं कि आज के वक़्त में मेरा तुम्हारे सिवा कोई नहीं है। इन चार महीनो में जिस तरह से तुमने मेरा साथ दिया है और मेरी मदद की है उसे मैं कभी नहीं भुला सकता। इस लिए तुम मेरे लिए हर रिश्ते से बढ़ कर हो।"

"तुम कुछ ज़्यादा ही मुझे मान दे रहे हो छोटे ठाकुर।" मुरारी ने एक दूसरे गिलास में देशी को उड़ेलते हुए कहा____"जब कि सच तो ये है कि मैंने जो कुछ किया है उसमे मेरा भी कोई न कोई स्वार्थ था।"

"सबसे पहले तो तुम मुझे छोटे ठाकुर बोलना बंद करो काका।" मैंने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"मुझे इस शब्द से नफ़रत हो गई है। तुम जब भी मुझे इस नाम से बुलाते हो तो मुझे इस नाम से जुड़ा हर रिश्ता याद आ जाता है, जो मुझे तकलीफ देने लगता है। इस लिए अब से तुम मुझे सिर्फ वैभव बुलाओगे।"

"मैं तुम्हें नाम से कैसे बुला सकता हूं छोटे ठाकुर?" मुरारी ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"अगर कहीं से बड़े ठाकुर को इस बात का पता चल गया तो वो मेरी खाल उधेड़वा देंगे।"

"ऐसा कुछ नहीं होगा काका।" मैंने शख्त भाव से कहा____"अगर होना होता तो पहले ही हो जाता। तुम्हें क्या लगता है तुम्हारे उस बड़े ठाकुर को क्या ये पता नहीं होगा कि तुम मेरी मदद करते हो? उसे ज़रूर पता होगा। वो अपने आदमियों के द्वारा मेरी हर पल की ख़बर रखता होगा लेकिन उसने आज तक तुम्हारे या तुम्हारे परिवार के साथ कुछ नहीं किया। इस लिए इस बात से बेफिक्र रहो और हां अगर वो ऐसा करेगा भी तो मैं तुम्हारे सामने तुम्हारी ढाल बन कर खड़ा हो जाउंगा। उसके बाद मैं भी देखूगा कि तुम्हारा वो बड़ा ठाकुर क्या उखाड़ लेता है।"

"अपने पिता से इतनी नफ़रत ठीक नहीं है छोटे ठाकुर।" मुरारी मेरी बातें सुन कर थोड़ा सहम गया था____"माना कि उन्होंने ये सब कर के अच्छा नहीं किया है मगर उनके ऐसा करने के पीछे भी कोई न कोई वजह ज़रूर होगी।"

"तुम मेरे सामने उस इंसान की तरफदारी मत करो काका।" मैंने गुस्से से कहा____"वो मेरा कोई नहीं है और ना ही मेरी नज़र में उसकी कोई अहमियत है। सोचा था कि आज तुम्हारे साथ देशी पिऊंगा और तुमसे अपने दिल की बातें करुंगा मगर तुमने मेरा मूड ख़राब कर दिया। ले जाओ अपनी इस शराब को।"

"छोटे ठाकुर।" मुरारी ने भय और आश्चर्य से बोला ही था कि मैं गुस्से से उबलते हुए चीख पड़ा____"ख़ामोश! अपना ये सामान समेटो और चले जाओ यहाँ से। मुझे किसी की ज़रूरत नहीं है। तुम सब उस घटिया इंसान के तलवे चाटने वाले कुत्ते हो। चले जाओ मेरी नज़रों के सामने से।"

मुझे इस वक़्त इतना गुस्सा आ गया था कि मैं खुद आवेश में कांपने लगा था। मुरारी मेरा ये रूप देख कर बुरी तरह घबरा गया था। मैं मिट्टी के बने उस छोटे चबूतरे से उठा और अँधेरे में ही जंगल की तरफ चल पड़ा। इस वक़्त मैं नफ़रत और गुस्से की आग में बुरी तरह जलने लगा था। मेरा मन कर रहा था कि सारी दुनिया को आग लगा दूं।

मैं तेज़ी से जंगल की तरफ बढ़ता जा रहा था। मैं खुद नहीं जानता था कि इस वक़्त मैं अँधेरे में जंगल की तरफ क्यों जा रहा था। मैं तो बस इतना सोच पा रहा था कि अपने इस गुस्से से मैं किसी का खून कर दूं?

मैं जंगल में अभी दाखिल ही हुआ था कि मेरे कानों में मुरारी की आवाज़ पड़ी। वो पीछे से मुझे आवाज़ें लगा रहा था। उसकी आवाज़ से साफ़ पता चल रहा था कि वो भागते हुए मेरी तरफ ही आ रहा है किन्तु मैं उसकी आवाज़ सुन कर भी रुका नहीं बल्कि जंगल में आगे बढ़ता ही रहा। हालांकि रात अभी नहीं हुई थी किन्तु शाम घिर चुकी थी और शाम का धुंधलका छा गया था। जंगल में तो और भी ज़्यादा अँधेरा दिख रहा था।

"रूक जाओ छोटे ठाकुर।" मुरारी की आवाज़ मुझे अपने एकदम पास से सुनाई दी। मैं उसे दिख तो नहीं रहा था किन्तु ज़मीन पर सूखे पत्तों पर मेरे चलने की आवाज़ हो रही थी जिससे वो अंदाज़े से मेरे पास आ गया था।

"छोटे ठाकुर रुक जाओ।" मुरारी हांफते हुए बोला____"मुझे माफ़ कर दो। मैं कसम खा के कहता हूं कि आज के बाद बड़े ठाकुर का ज़िक्र ही नहीं करुंगा और ये भी यकीन मानो कि मैं औरों की तरह उनके तलवे चाटने वाला कुत्ता नहीं हूं।"

"मैंने तुम्हें मना किया था ना कि मुझे छोटे ठाकुर मत कहो।" मैंने पलट कर गुस्से में मुरारी का गला पकड़ लिया और गुर्राते हुए बोला____"मगर तुम्हारे भेजे में मेरी ये बात अब तक नहीं घुसी। तुम्हें बताया था ना कि मुझे इस नाम से ही नफ़रत है? मेरा बस चले तो मैं अपने नाम से जुड़े हर नाम को मिट्टी में मिला दूं।"

"माफ़ कर दो वैभव।" मुरारी मेरे द्वारा अपना गला दबाये जाने से अटकते हुए स्वर में बोला____"आज के बाद मैं तुम्हें उस नाम से नहीं बुलाऊंगा।"

मुरारी के ऐसा कहने पर मैंने झटके से उसके गले से अपना पंजा खींच लिया। मुरारी ने फ़ौरन ही अपने दोनों हाथों से अपने गले को सहलाना शुरू कर दिया। उसकी साँसें चढ़ी हुई थी।

"अब चलो वैभव।" फिर मुरारी ने अपनी उखड़ी हुई साँसों को सम्हालते हुए कहा____"यहां से चलो। इस वक़्त यहाँ पर रुकना ठीक नहीं है। चलो हम साथ में बैठ कर देशी का लुत्फ़ उठाएंगे। क्या अपने काका की इतनी सी बात भी नहीं मानोगे?"

मुरारी की इन बातों से मेरे अंदर का गुस्सा शांत होने लगा और मैं चुप चाप जंगल से बाहर की तरफ वापस चल दिया। मेरे चलने पर मुरारी भी मेरे पीछे पीछे चल दिया। कुछ ही देर में हम दोनों वापस मेरे झोपड़े पर आ ग‌ए। झोपड़े पर लालटेन जल रही थी। मैं आया और चुप चाप मिट्टी के उसी चबूतरे पर बैठ गया जिसमे मैं पहले बैठा था। गुस्सा गायब हुआ तो मुझे अहसास हुआ कि मैंने मुरारी से जो कुछ भी कहा था और उसके साथ जो कुछ भी किया था वो बिल्कुल ठीक नहीं था। मुझे अपनी ग़लती का बोध हुआ और मुझे अपने आप पर शर्मिंदगी होने लगी। मुरारी रिश्ते और उम्र में मुझसे बड़ा था और सबसे बड़ी बात ये कि ऐसे वक़्त में सिर्फ उसी ने मेरा साथ दिया था और मैंने उसका ही गिरहबान पकड़ लिया था।

"मुझे माफ़ कर दो काका।" फिर मैंने धीमे स्वर में मुरारी से कहा____"मैंने गुस्से में तुम्हारे साथ ठीक नहीं किया। मेरी इस ग़लती के लिए मुझे जो चाहो सजा दे दो।"

"नहीं वैभव नहीं।" मुरारी ने मेरी तरफ बड़े स्नेह से देखते हुए कहा___"तुम्हें माफ़ी मांगने की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं अच्छी तरह समझता हूं कि ऐसे वक़्त में तुम्हारी मनोदशा ही ऐसी है कि तुम्हारी जगह अगर कोई भी होता तो यही करता। इस लिए भूल जाओ सब कुछ और इस देशी का मज़ा लो।"

"तुम सच में बहुत अच्छे हो काका।" मैंने उसकी तरफ देखते हुए कहा____"इतना कुछ होने के बाद भी तुम मेरे पास बैठे हो और सब कुछ भूल जाने को कह रहे हो।"
"अब छोड़ो भी इस बात को।" मुरारी ने अपना गिलास उठाते हुए कहा____"चलो उठाओ अपना गिलास और अपनी नाक बंद कर के एक ही सांस में पी जाओ इसे।"

"नाक बंद कर के क्यों काका?" मैंने ना समझने वाले अंदाज़ से पूछा____"क्या इसे नाक बंद कर के पिया जाता है?"
"हा हा हा हा नहीं वैभव।" मुरारी ने हंसते हुए कहा____"नाक बंद कर के पीने को इस लिए कह रहा हूं क्योंकि इसकी गंध बहुत ख़राब होती है। अगर पीते वक़्त इसकी गंध नाक में घुस जाये तो इंसान का कलेजा हिल जाता है और पहली बार पीने वाला तो फिर इसे पीने का सोचेगा भी नहीं।"

"अच्छा ऐसी बात है।" मैंने समझते हुए कहा____"फिर तो मैं अपनी नाक बंद कर के ही पियूंगा इसे मगर मेरी एक शर्त है काका।"
"कैसी शर्त वैभव?" मुरारी ने मेरी तरफ सवालिया निगाहों से देखा।
"शर्त ये है कि अब से हमारे बीच उम्र और रिश्ते की कोई बात नहीं रहेगी।" मैंने अपना गिलास उठा कर कहा____"हम दोनों एक दूसरे से हर तरह की बातें बेझिझक हो कर करेंगे। बोलो शर्त मंजूर है ना?"

"अगर तुम यही चाहते हो।" मुरारी ने मुस्कुराते हुए कहा____"तो ठीक है। मुझे तुम्हारी ये शर्त मंजूर है। अब चलो पीना शुरू करो तुम।"
"आज की ये शाम।" मैंने कहा____"हमारी गहरी दोस्ती के नाम।"

"दोस्ती??" मुरारी मेरी बात सुन कर चौंका।
"हां काका।" मैंने कहा____"अब जब हम एक दूसरे से हर तरह की बातें करेंगे तो हमारे बीच दोस्ती का एक और रिश्ता भी तो बन जायेगा ना?"
"ओह! हां समझ गया।" मुरारी धीरे से हँसा और फिर गिलास को उसने अपने अपने होठों से लगा लिया।


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मुरारी संग दोस्ती की शुरुआत सही है
 

HalfbludPrince

मैं बादल हूं आवारा
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Fauji bhai idhar :shocked:
Moon light ne jab is story ko padha to unhone bola ki isme ju ki jhalak milti hai..I don't know why she said that? Well shukriya fauji bhai :hug:
मैं तो कहानियो का रसिया हूं भाई, जहां अच्छा मिले पढ़ने को पहुंच जाता हूँ, मून लाइट ने कुछ कहा है तो सोच समझ कर ही कहा होगा
 

HalfbludPrince

मैं बादल हूं आवारा
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 04
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अब तक,,,,,

"अगर तुम यही चाहते हो।" मुरारी ने मुस्कुराते हुए कहा____"तो ठीक है। मुझे तुम्हारी ये शर्त मंजूर है। अब चलो पीना शुरू करो तुम।"
"आज की ये शाम।" मैंने कहा____"हमारी गहरी दोस्ती के नाम।"

"दोस्ती??" मुरारी मेरी बात सुन कर चौंका।
"हां काका।" मैंने कहा____"अब जब हम एक दूसरे से हर तरह की बातें करेंगे तो हमारे बीच दोस्ती का एक और रिश्ता भी तो बन जायेगा ना?"
"ओह! हां समझ गया।" मुरारी धीरे से हँसा और फिर गिलास को उसने अपने अपने होठों से लगा लिया।


अब आगे,,,,,,

शाम पूरी तरह से घिर चुकी थी और हम दोनों देशी शराब का मज़ा ले रहे थे। मैं तो पहली बार ही पी रहा था इस लिए एक ही गिलास में मुझ पर नशे का शुरूर चढ़ गया था मगर मुरारी तो पुराना पियक्कड़ था इस लिए अपनी पूरी बोतल को जल्दी ही डकार गया था। देशी शराब इतनी कड़वी और बदबूदार होगी ये मैंने सोचा भी नहीं था और यही वजह थी कि मैंने मुश्किल से अपना एक गिलास ख़त्म किया था और बाकी बोतल की शराब को मैंने मुरारी को ही पीने के लिए कह दिया था।

"लगता है तुम्हारा एक ही गिलास में काम हो गया वैभव।" मुरारी ने मुस्कुराते हुए कहा____"समझ सकता हूं कि पहली बार में यही हाल होता है। ख़ैर कोई बात नहीं धीरे धीरे आदत पड़ जाएगी तो पूरी बोतल पी जाया करोगे।"

"पूरी बोतल तो मैं भी पी लेता काका।" मैंने नशे के हल्के शुरूर में बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"मगर ये ससुरी कड़वी ही बहुत है और इसकी दुर्गन्ध से भेजा भन्ना जाता है।"

मेरी बात सुन कर मुरारी ने पहले मेरी वाली बोतल को एक ही सांस में ख़त्म किया और फिर मुस्कुराते हुए नशे में बोला____"शुरु शुरू में इसकी दुर्गन्ध की वजह से ही पीना मुश्किल होता है वैभव लेकिन फिर इसके दुर्गन्ध की आदत हो जाती है।"

मैने देखा मुरारी की आँखें नशे में लाल पड़ गईं थी और उसकी आँखें भी चढ़ी चढ़ी सी दिखने लगीं थी। नशा तो मुझे भी हो गया था किन्तु मैंने एक ही गिलास पिया था। स्टील के गिलास में आधा गिलास ही शराब डाला था मुरारी ने। इस लिए नशा तो हुआ था मुझे लेकिन अभी होशो हवास में था मैं।

"अच्छा काका तुम किस स्वार्थ की बात कर रहे थे उस वक़्त?" मैंने भुने हुए चने को मुँह में डालते हुए पूछा।
"मैंने कब बात की थी भतीजे?" मुरारी ने नशे में पहली बार मुझे भतीजा कह कर सम्बोधित किया।

"क्या काका लगता है चढ़ गई है तुम्हें।" मैंने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"तभी तो तुम्हें याद नहीं कि तुमने उस वक़्त मुझसे क्या कहा था।"
"अरे! इतने से मुझे नहीं चढ़ती भतीजे।" मुरारी ने मानो शेखी से कहा____अभी तो मैं दो चार बोतल और पी सकता हूं और उसके बाद भी मुझे नहीं चढ़ेगी।"

"नहीं काका तुम्हें चढ़ गई है।" मैंने मुरारी की आँखों में झांकते हुए कहा____"तभी तो तुम्हें याद नहीं है कि तुमने उस वक़्त मुझसे क्या कहा था। जब तुम शुरू में मेरे पास आये थे और मेरी बातों पर तुमने कहा था कि मेरी मदद भी तुमने अपने स्वार्थ की वजह से ही किया है। मैं वही जानना चाहता हूं।"

"लगता है सच में चढ़ गई है मुझे।" मुरारी ने अजीब भाव से अपने सिर को झटकते हुए कहा____"तभी मुझे याद नहीं आ रहा कि मैंने तुमसे ऐसा कब कहा था? कहीं तुम झूठ तो नहीं बोल रहे हो मुझसे?"

"क्या काका मैं भला झूठ क्यों बोलूंगा तुमसे?" मैं उसके बर्ताव पर मुस्कुराये बग़ैर न रह सका था_____"अच्छा छोड़ो उस बात को और ये बताओ कि काकी तुम्हारी क्यों नहीं सुनती है? याद है ना तुमने ये बात भी मुझसे कही थी और जब मैंने तुमसे पूछा तो तुम मुझे उम्र और रिश्ते की बात का हवाला देने लगे थे?"

"हो सकता है कि मैंने कहा होगा भतीजे।" मुरारी ऐसे बर्ताव कर रहा था जैसे परेशान हो गया हो___"साला कुछ याद ही नहीं आ रहा मुझको। लगता है आज ये ससुरी कुछ ज़्यादा ही भेजे में चढ़ गई है।"

"तुम तो कह रहे थे कि दो तीन बोतल और पी सकते हो।" मैंने कहा____"ख़ैर छोडो मैं जानता हूं कि तुम्हें ये बात भी अब याद नहीं होगी। अच्छा हुआ कि मैंने थोड़ा सा ही पिया है वरना तुम्हारी तरह मुझे भी कुछ याद नहीं रहता।"

"मुझे याद आ गया भतीजे।" मुरारी ने एक झटके से कहा____"तुम सच कहे रहे थे। मैंने तुमसे सच में कहा था कि तुम्हारी काकी ससुरी मेरी सुनती ही नहीं है। अब याद आ गया मुझे। देखा मुझे इतनी भी नहीं चढ़ी है।"

"तो फिर बताओ काका।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"आख़िर काकी तुम्हारी सुनती क्यों नहीं है?"
"अभी से सठिया गई है बुरचोदी।" मुरारी ने गाली देते हुए कहा____"एक तो वैसे भी बेटीचोद कभी मौका नहीं मिलता और अगर कभी मिलता भी है तो देती नहीं है मादरचोद।"

"वो तुम्हें क्या नहीं देती है काका?" मैं समझ तो गया था मगर मैं जान बूझ कर मुरारी से पूछा रहा था।
"वो अपनी बुर नहीं देती महतारीचोद।" मुरारी जैसे भन्ना गया था____"लेकिन आज तो मैं उसकी बुर ले के ही रहूंगा भतीजे। मैं भी देखता हूं कि आज वो बेटीचोद कैसे अपनी चूत मारने को नहीं देती मुझे। साली को ऐसे रगडू़ंगा कि उसकी बुर का भोसड़ा बना दूंगा।"

"अगर ऐसा करोगे काका।" मैंने मन ही मन हंसते हुए कहा____"तो काकी घर में शोर मचा देगी और फिर सबको पता चल जाएगा कि तुम उसके साथ क्या कर रहे हो।"
"मुझे कोई परवाह नहीं उसकी।" मुरारी ने हाथ को झटकते हुए कहा____"साला दो महीना हो गया। उस बुरचोदी ने अपनी बुर को दिखाया तक नहीं मुझे। आज नहीं छोड़ूंगा उसे। दोनों तरफ से बजाऊंगा मादरचोद को।"

"और अगर तुम्हारी बेटी अनुराधा को पता चल गया तो?" मैंने मुरारी को सचेत करने की गरज़ से कहा____"तब क्या करोगे काका? क्या तुम अपनी बेटी की भी परवाह नहीं करोगे?"
"तो क्या करू वैभव?" मुरारी ने जैसे हताश भाव से कहा____"उस बुरचोदी को भी तो मेरे बारे में सोचना चाहिए। पहले तो बड़ा हचक हचक के चुदवाती थी मुझसे। साली रंडी न घर में छोड़ती थी और ना ही खेतों में। मौका मिला नहीं कि लौड़ा निकाल के भर लेती थी अपनी बुर में।"

मुरारी को सच में देशी शराब का नशा चढ़ गया था और अब उसे इतना भी ज्ञान नहीं रह गया था कि इस वक़्त वो किससे ऐसी बातें कर रहा था। उसकी बातों से मैं जान गया था कि उसकी बीवी सरोज दो महीने से उसे चोदने को नहीं दे रही थी। दो महीने पहले उससे मेरे जिस्मानी सम्बन्ध बने थे और तब से वो मुरारी को अपनी बुर तक नहीं दिखा रही थी। मैं मुरारी की तड़प को समझ सकता था। इस लिए इस वक़्त मैं चाहता था कि वो किसी तरह अपने दिमाग़ से सरोज की बुर का ख़याल निकाल दे और अपने अंदर की इन भावनाओं को थोड़ा शांत करे।

"मैं मानता हूं काका कि काकी को तुम्हारे बारे में भी सोचना चाहिए।" फिर मैंने मुरारी काका से सहानुभूति वाले अंदाज़ में कहा____"आख़िर तुम अभी जवान हो और काकी की छलकती जवानी देख कर तुम्हारा लंड भी खड़ा हो जाता होगा।"

"वही तो यार।" मुरारी काका ने मेरी बात सुन कर झटके से सिर हिलाते हुए कहा____"लेकिन वो बुरचोदी समझती ही नहीं है कुछ। मैंने तो बच्चे होने के बाद उसे पेलना बंद ही कर दिया था मगर उस लंडचटनी को तो बच्चे होने के बाद भी लंड चाहिए था। इस लिए जब भी मौका मिलता था चुदवा लेती थी मुझसे। शुरू शुरू में तो मुझे उस रांड पर बहुत गुस्सा आता था मगर फिर जब उसने मेरा लंड चूसना शुरू किया तो कसम से मज़ा ही आने लगा। बस उसके बाद तो मैं भी उस बुरचोदी को दबा के पेलने लगा था।"

मैं मुरारी काका की बातों को सुन कर मन ही मन हैरान भी हो रहा था और हंस भी रहा था। उधर मुरारी काका ये सब बोलने के बाद अचानक रुक गया और खाली बोतल को मुँह से लगाने लगा। जब खाली बोतल से देशी शराब का एक बूँद भी उसके मुख में न गया तो खिसिया कर उसने उस बोतल को दूर फेंक दिया और दूसरी बोतल को उठा कर मुँह से लगा लिया मगर दूसरी बोतल से भी उसके मुख में एक बूँद शराब न गई तो भन्ना कर उसने उसे भी दूर फेंक दिया।

"महतारीचोद ये दोनों बोतल खाली कैसे हो गईं?" मुरारी काका ने नशे में झूमते हुए जैसे खुद से ही कहा____"घर से जब लाया था तब तो ये दोनों भरी हुईं थी।"
"कैसी बात करते हो काका?" मैंने हंसते हुए कहा____"अभी तुमने ही तो दोनों बोतलों की शराब पी है। क्या ये भी भूल गए तुम?"

"उस बुरचोदी के चक्कर में कुछ याद ही नहीं रहा मुझे।" मुरारी काका ने सिर को झटकते हुए कहा____"वैभव, आज तो मैं उस ससुरी को पेल के रहूंगा चाहे जो हो जाए।"

"दारु के नशे में कोई हंगामा न करना काका।" मैंने मुरारी काका के कंधे पर हाथ रख कर समझाते हुए कहा____"तुम्हारी बेटी अनुराधा को पता चलेगा तो क्या सोचेगी वो तुम्हारे बारे में।"

"अनुराधा?? मेरी बेटी???" मुरारी काका ने जैसे सोचते हुए कहा____"हां मेरी बेटी अनुराधा। तुम नहीं जानते वैभव, मेरी बेटी अनुराधा मेरे कलेजे का टुकड़ा है। एक वही है जो मेरा ख़याल रखती है, पर एक दिन वो भी मुझे छोड़ कर अपने ससुराल चली जाएगी। अरे! लेकिन वो ससुराल कैसे चली जाएगी भला?? मैं इतना सक्षम भी तो नहीं हूं कि अपनी फूल जैसी कोमल बेटी का ब्याह कर सकूं। वैसे एक जगह उसके ब्याह की बात की थी मैंने। मादरचोदों ने मुट्ठी भर रूपिया मांगा था मुझसे जबकि मेरे पास दहेज़ में देने के लिए तो फूटी कौड़ी भी नहीं है। खेती किसानी में जो मिलता है वो भी कर्ज़ा देने में चला जाता है। नहीं वैभव, मैं अपनी बेटी के हाथ पीले नहीं कर पाऊंगा। मेरी बेटी जीवन भर कंवारी बैठी रह जाएगी।"

मुरारी काका बोलते बोलते इतना भावुक हो गया कि उसकी आवाज़ एकदम से भर्रा गई और आँखों से आँसू छलक कर कच्ची ज़मीन पर गिर पड़े। मुरारी काका भले ही नशे में था किन्तु बातों में वो खो गया था और भावुक हो कर रो पड़ा था। उसकी ये हालत देख कर मुझे भी उसके लिए थोड़ा बुरा महसूस हुआ।

"क्या तुम मेरे लिए कुछ कर सकोगे वैभव?" नशे में झूमते मुरारी ने अचानक ही मेरी तरफ देखते हुए कहा____"अगर मैं तुमसे कुछ मांगू तो क्या तुम दे सकते हो मुझे?"

"क्या हुआ काका?" मैं उसकी इस बात से चौंक पड़ा था____"ये तुम क्या कह रहे हो मुझसे?"
"क्या तुम मेरे कहने पर कुछ कर सकोगे भतीजे?" मुरारी ने लाल सुर्ख आँखों से मुझे देखते हुए कहा____"बेताओ न वैभव, अगर मैं तुमसे ये कहूं कि तुम मेरी बेटी अनुराधा का हाथ हमेशा के लिए थाम लो तो क्या तुम थाम सकते हो? मेरी बेटी में कोई कमी नहीं है। उसका दिल बहुत साफ़ है। उसको घर का हर काम करना आता है। ये ज़रूर है कि वो तुम्हारी तरह किसी बड़े बाप की बेटी नहीं है मगर मेरी बेटी अनुराधा किसी से कम भी नहीं है। क्या तुम मेरी बेटी का हाथ थाम सकते हो वैभव? बताओ न वैभव...!"

मुरारी काका की इन बातों से मैं एकदम हैरान रह गया था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मुरारी काका अपनी बेटी का हाथ मेरे हाथ में देने का कैसे सोच सकता है? मैं ये तो जानता था कि दुनिया का हर बाप अपनी बेटी को किसी बड़े घर में ही ब्याहना चाहता है ताकि उसकी बेटी हमेशा खुश रहे मगर अनुराधा के लिए मैं भला कैसे सुयोग्य वर हो सकता था? मुझ में भला ऐसी कौन सी खूबी थी जिसके लिए मुरारी ऐसा चाह रहा था? हलांकि अनुराधा कैसी थी ये मुरारी को बताने की ज़रूरत ही नहीं थी क्योंकि मैं खुद जानता था कि वो एक निहायत ही शरीफ लड़की है और ये भी जानता था कि उसमे कोई कमी नहीं है मगर उसके लिए जीवन साथी के रूप में मेरे जैसा औरतबाज़ इंसान बिलकुल भी ठीक नहीं था। जहां तक मेरा सवाल था तो मैं तो शुरू से ही अनुराधा को अपनी हवश का शिकार बनाना चाहता था। ये अलग बात है कि मुरारी के अहसानों के चलते और खुद अनुराधा के साफ चरित्र के चलते मैं उस पर कभी हाथ नहीं डाल पाया था।

"तुम चुप क्यों हो वैभव?" मुझे ख़ामोश देख मुरारी ने मुझे पकड़ कर हिलाते हुए कहा____"कहीं तुम ये तो नहीं सोच रहे कि मेरे जैसा ग़रीब और मामूली इंसान तुम्हारे जैसे बड़े बाप के बेटे से अपनी बेटी का रिश्ता जोड़़ कर अपनी बेटी के लिए महलों के ख़्वाब देख रहा है? अगर ऐसा है तो कोई बात नहीं भतीजे। दरअसल काफी समय से मेरे मन में ये बात थी इस लिए आज तुमसे कह दिया। मैं जानता हूं कि मेरी कोई औका़त नहीं है कि तुम जैसे किसी अमीर लड़के से अपनी बेटी का रिश्ता जोड़ने की बात भी सोचूं।"

"ऐसी कोई बात नहीं है काका।" मैंने इस विषय को बदलने की गरज़ से कहा____"मैं अमीरी ग़रीबी में कोई फर्क नहीं करता और ना ही मुझे ये भेदभाव पसंद है। मैं तो मस्तमौला इंसान हूं जिसके बारे में हर कोई जानता है कि मैं कैसा हूं और किन चीज़ों का रसिया हूं। तुम्हारी बेटी में कोई कमी नहीं है काका मगर ख़ैर छोड़ो ये बात। इस वक़्त तुम सही हालत में नहीं हो। हम कल इस बारे में बात करेंगे।"

मेरी बात सुन कर मुरारी ने मेरी तरफ अपनी लाल सुर्ख आँखों से देखा। उसकी चढ़ी चढ़ी आंखें मेरे चेहरे के भावों का अवलोकन कर रहीं थी और इधर मैं ये सोच रहा था कि क्या उस वक़्त मुरारी काका अपने इसी स्वार्थ की बात कह रहा था? आख़िर उसके ज़हन में ये ख़याल कैसे आ गया कि वो अपनी बेटी का रिश्ता मुझसे करे? उसने ये कैसे सोच लिया था कि मैं इसके लिए राज़ी भी हो जाऊंगा?

मैंने मुरारी को उसके घर ले जाने का सोचा और उससे उठ कर घर चलने को कहा तो वो घर जाने में आना कानी करने लगा। मैंने उसे समझा बुझा कर किसी तरह शांत किया और फिर मैंने एक हाथ में लालटेन लिया और दूसरे हाथ से उसे उठाया।

पूरे रास्ते मुरारी झूमता रहा और नशे में बड़बड़ाता रहा। आख़िर मैं उसे ले कर उसके घर आया। मैंने घर का दरवाज़ा खटखटाया तो अनुराधा ने ही दरवाज़ा खोला। मेरे साथ अपने बापू को उस हालत में देख कर उसने मेरी तरफ सवालिया निगाहों से देखा तो मैंने उसे धीरे से बताया कि उसके बापू ने आज दो बोतल देशी शराब चढ़ा रखी है इस लिए उसे कोई भी ना छेड़े। अनुराधा मेरी बात समझ गई इस लिए चुप चाप एक तरफ हट गई जिससे मैं मुरारी को पकड़े आँगन में आया और एक तरफ रखी चारपाई पर उसे लेटा दिया। तब तक सरोज भी आ गई थी और आ कर उसने भी मुरारी का हाल देखा।

"ये नहीं सुधरने वाले।" सरोज ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"इस आदमी को ज़रा भी चिंता नहीं है कि जवान बेटी घर में बैठी है तो उसके ब्याह के बारे में सोचूं। घर में फूटी कौड़ी नहीं है और ये अनाज बेच बेच कर हर रोज़ दारू चढा लेते हैं।" कहने के साथ ही सरोज मेरी तरफ पलटी____"बेटा तुम इनकी संगत में दारू न पीने लगना। ये तुम्हें भी अपने जैसा बना देंगे।"

अनुराधा वहीं पास में ही खड़ी थी इस लिए सरोज मुझे बेटा कह रही थी। सरोज की बात पर मैंने सिर हिला दिया था। ख़ैर उसके बाद सरोज के ही कहने पर मैंने खाना खाया और फिर लालटेन ले कर मैं वापस अपने खेत की तरफ चल पड़ा। सरोज ने मुझे इशारे से रुकने के लिए भी कहा था मगर मैंने मना कर दिया था।

मुरारी के घर से मैं लालटेन लिए अपने खेत की तरफ जा रहा था। मेरे ज़हन में मुरारी की वो बातें ही चल रही थीं और मैं उन बातों को बड़ी गहराई से सोचता भी जा रहा था। आस पास कोई नहीं था। मुरारी का घर तो वैसे भी उसके गांव से हट कर बना हुआ था और मेरा अपना गांव यहाँ से पांच किलो मीटर दूर था। दोनों गांवों के बीच या तो खेत थे या फिर खाली मैदान जिसमे यदा कदा पेड़ पौधे और बड़ी बड़ी झाड़ियां थी। पिछले चार महीने से मैं इस रास्ते से रोज़ाना ही आता जाता था इस लिए अब मुझे रात के अँधेरे में किसी का डर नहीं लगता था। ये रास्ता हमेशा की तरह सुनसान ही रहता था। वैसे दोनों गांवों में आने जाने का रास्ता अलग था जो यहाँ से दाहिनी तरफ था और यहाँ से दूर था।

मैं हाथ में लालटेन लिए सोच में डूबा चला ही जा रहा था कि तभी मैं किसी चीज़ की आवाज़ से एकदम चौंक गया और अपनी जगह पर ठिठक गया। रात के सन्नाटे में मैंने कोई आवाज़ सुनी तो ज़रूर थी किन्तु सोच में डूबा होने की वजह से समझ नहीं पाया था कि आवाज़ किसकी थी और किस तरफ से आई थी? मैंने खड़े खड़े ही लालटेन वाले हाथ को थोड़ा ऊपर उठाया और सामने दूर दूर तक देखने की कोशिश की मगर कुछ दिखाई नहीं दिया। मैंने पलट कर पीछे देखने का सोचा और फिर जैसे ही पलटा तो मानो गज़ब हो गया। किसी ने बड़ा ज़ोर का धक्का दिया मुझे और मैं भरभरा कर कच्ची ज़मीन पर जा गिरा। मेरे हाथ से लालटेन छूट कर थोड़ी दूर लुढ़कती चली गई। शुक्र था कि लालटेन जिस जगह गिरी थी वहां पर घांस उगी हुई थी वरना उसका शीशा टूट जाता और ये भी संभव था कि उसके अंदर मौजूद मिट्टी का तेल बाहर आ जाता जिससे आग उग्र हो जाती।

कच्ची ज़मीन पर मैं पिछवाड़े के बल गिरा था और ठोकर ज़ोर से लगी थी जिससे मेरा पिछवाड़ा पके हुए फोड़े की तरह दर्द किया था। हालांकि मैं जल्दी से ही उठा था और आस पास देखा भी था कि मुझे इतनी ज़ोर से धक्का देने वाला कौन था मगर अँधेरे में कुछ दिखाई नहीं दिया। मैंने जल्दी से लालटेन को उठाया और पहले आस पास का मुआयना किया उसके बाद मैं ज़मीन पर लालटेन की रौशनी से देखने लगा। मेरा अनुमान था कि जिस किसी ने भी मुझे इस तरह से धक्का दिया था उसके पैरों के निशान ज़मीन पर ज़रूर होने चाहिये थे।

मैं बड़े ग़ौर से लालटेन की रौशनी में ज़मीन के हर हिस्से पर देखता जा रहा था किन्तु ज़मीन पर निशान तो मुझे तब मिलते जब ज़मीन पर हरी हरी घांस न उगी हुई होती। मैं जिस तरफ से आया था उस रास्ते में बस एक छोटी सी पगडण्डी ही बनी हुई थी जबकि बाकी हर जगह घांस उगी हुई थी। काफी देर तक मैं लालटेन की रौशनी में कोई निशान तलाशने की कोशिश करता रहा मगर मुझे कोई निशान न मिला। थक हार कर मैं अपने झोपड़े की तरफ चल दिया। मेरे ज़हन में ढेर सारे सवाल आ कर तांडव करने लगे थे। रात के अँधेरे में वो कौन था जिसने मुझे इतनी ज़ोर से धक्का दिया था? सवाल तो ये भी था कि उसने मुझे धक्का क्यों मारा था? वैसे अगर वो मुझे कोई नुक्सान पहुंचाना चाहता तो वो बड़ी आसानी से पहुंचा सकता था।

सोचते सोचते मैं झोपड़े में आ गया। झोपड़े के अंदर आ कर मैंने लालटेन को एक जगह रख दिया और फिर झोपड़े के खुले हुए हिस्से को लकड़ी से बनाये दरवाज़े से बंद कर के अंदर से तार में कस दिया ताकि कोई जंगली जानवर अंदर न आ सके। इन चार महीनों में आज तक मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ था और ना ही यहाँ रहते हुए किसी जंगली जानवर से मुझे कोई ख़तरा हुआ था। हालांकि शुरू शुरू में मैं यहाँ अँधेरे में अकेले रहने से डरता था जो कि स्वभाविक बात ही थी मगर अभी जो कुछ हुआ था वो थोड़ा अजीब था और पहली बार ही हुआ था।

झोपड़े के अंदर मैं सूखी घांस के ऊपर एक चादर डाल कर लेटा हुआ था और यही सोच रहा था कि आख़िर वो कौन रहा होगा जिसने मुझे इस तरह से धक्का दिया था? सबसे बड़ा सवाल ये कि धक्का देने के बाद वो गायब कहां हो गया था? क्या वो मुझे किसी प्रकार का नुकसान पहुंचाने आया था या फिर उसका मकसद कुछ और ही था? मैं उस अनजान ब्यक्ति के बारे में जितना सोचता उतना ही उलझता जा रहा था और उसी के बारे में सोचते सोचते आख़िर मेरी आँख लग गई। मैं नहीं जानता था कि आने वाली सुबह मेरे लिए कैसी सौगा़त ले कर आने वाली थी।

सुबह मेरी आँख कुछ लोगों के द्वारा शोर शराबा करने की वजह से खुली। पहले तो मुझे कुछ समझ न आया मगर जब कुछ लोगों की बातें मेरे कानों में पहुंची तो मेरे पैरों के नीचे की ज़मीन ही हिल गई। चार महीनों में ऐसा पहली बार हुआ था कि मेरे आस पास इतने सारे लोगों का शोर मुझे सुनाई दे रहा था। मैं फ़ौरन ही उठा और लकड़ी के बने उस दरवाज़े को खोल कर झोपड़े से बाहर आ गया।

बाहर आ कर देखा तो क़रीब बीस आदमी हाथों में लट्ठ लिए खड़े थे और ज़ोर ज़ोर से बोल रहे थे। उन आदमियों में से कुछ आदमी मेरे गांव के भी थे और कुछ मुरारी के गांव के। मैं जैसे ही बाहर आया तो उन सबकी नज़र मुझ पर पड़ी और वो तेज़ी से मेरी तरफ बढ़े। कुछ लोगों की आंखों में भयानक गुस्सा मैंने साफ़ देखा।



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शराब के नशे में मुरारी ने अपना सारा दुख ब्यान कर दिया, ये वैभव को धक्का कौन मार गया और इतने लोग कौन आ गए लट्ठ लेके
 
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