अध्याय - 164
━━━━━━༻♥༺━━━━━━
सरला ने लपक कर मेरे लंड को मुंह में भर लिया और मेरा वीर्य पीने लगी। आनंद की चरम सीमा में पहुंचने के बाद मैं एकदम शांत पड़ गया। उधर सरला सारा वीर्य गटकने के बाद अब मेरे लंड को चाट रही थी। बड़ी की कौमुक और चुदक्कड़ औरत थी शायद।
अब आगे....
तीन दिन मानों पंख लगा कर उड़ गए और विवाह का दिन आ गया। हवेली किसी दुल्हन की तरह सजी हुई थी। पिता जी मानों सब कुछ भूल कर इस पल को जी लेना चाहते थे। तभी तो ठीक उसी तरह हवेली को सजवाया था जैसे बड़े भैया के विवाह के समय सजवाया था। थोड़ा भावुक से नज़र आ रहे थे वो, कदाचित बड़े बेटे का इसी तरह विवाह करना याद आ गया था उन्हें। मां का भी यही हाल था लेकिन वो किसी तरह अपने जज़्बातों को काबू में रखे हुए थीं।
एक तरफ मुझे सजाया जा रहा था। अमर मामा मुझे सजता देख बड़ा खुश थे। हर कोई खुश था। मेरी बहनें पहले से ही सज धज कर तैयार थीं और मेरे पास ही बैठी हुईं थी। कुसुम का बस चलता तो वो खुशी के मारे उछलने कूदने लगती लेकिन जाने कैसे खुद को रोक रखा उसने? विभोर और अजीत भी सज धज कर तैयार थे। दोनों के चेहरे खुशी से चमक रहे थे। हवेली के अंदर औरतें गीत गा रहीं थी।
हवेली के बाहर पहले से ही ढोल नगाड़े बज रहे थे। बारात में जाने के लिए काफी लोग जमा हो गए थे। पिता जी को पहले से ही पता था कि लोग ज़्यादा होंगे इस लिए शहर से उन्होंने एक बस गाड़ी बुला लिया था। मेरे लिए यानि दूल्हे के लिए एक चमचमाती एंबेसडर कार आ गई थी। हमारे पास पहले से ही चार जीपें थी। महेंद्र सिंह की दो जीपें थी, अर्जुन भी अपनी दो जीपें ले आए थे। वहीं अवधेश मामा और अमर मामा की जीपें भी थी। हवेली के विशाल मैदान में वाहन ही वाहन दिख रहे थे। पिता जी ने बारात में चलने के लिए रूपचंद्र और गौरी शंकर को भी निमंत्रण दिया था इस लिए वो भी आ गए थे। उनके घर से फूलवती और सुनैना देवी भी इस वक्त हवेली में मौजूद थी और सबके साथ गीत गा रहीं थी।
आख़िर शाम होने से पहले ही मुझे दूल्हा बना कर अंदर से बाहर लाया जाने लगा। औरतें गीत गा रहीं थी और धीरे धीरे मुझे बाहर ला रहीं थी। मैं आज दूल्हा बना हुआ था। मुझे इस तरह सजाया गया था कि जैसे ही मैं बाहर आया सबके सब मुझे ही देखते रह गए। अचानक ही वातावरण बंदूकों के तेज़ धमाकों से गूंजने लगा। सबसे पहले महेंद्र सिंह ने अपनी बंदूक की नाल ऊपर कर के मानों सलामी। उनके बाद ज्ञानेंद्र सिंह, अर्जुन सिंह, संजय सिंह। पिता जी की बंदूक बड़े मामा ले रखे थे इस लिए उन्होंने एक के बाद एक फायर किया। ढोल नगाड़ों का शोर कुछ और ज़्यादा होने लगा। रूपचंद्र मुझे देखते ही मेरे पास भाग कर आया। मुझे देख वो बड़ा खुश हुआ।
अमर मामा ने मुझे कार में बैठाया। मां और मेनका चाची मेरी आरती उतार कर मुझे तिलक करने लगीं। एकाएक फिर से वातावरण में शोर उठा। मैंने देखा कार के सामने अमर मामा नाचने लगे थे। ये देख एक एक कर के बाकी लोग भी नाचने लगे। थोड़ी देर बाद जब वो रुके तो मेरी मामियां नाचने लगीं। कुसुम, सुमन और सुषमा भी नाचने लगीं।
"भाभी श्री बेटे का विवाह होने जा रहा है आज।" सहसा महेंद्र सिंह मां के पास आ कर बोले____"इस शुभ अवसर पर आपको भी खुशी से नाचना चाहिए।"
"हां जी क्यों नहीं।" मां ने मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन आपको भी हमारे साथ नाचना होगा।"
"अरे! ये भी कोई कहने की बात है भला।" महेंद्र सिंह ने हंसते हुए कहा____"हम तो वैसे भी अपने मित्र के साथ नाचने का सोच चुके थे। आपके साथ नाचना तो हमारे लिए बड़े सौभाग्य की बात है।"
"अच्छा जी ऐसा है क्या?" मां मुस्कुराईं___"तो फिर चलिए। हम भी तो देखें कि आप हमारे साथ कितना उछलते हैं।"
सबने मां और महेंद्र सिंह की बातें सुन ली थी। इस लिए सब उन्हें ही देखने लगे थे। अर्जुन सिंह तेज़ी से आए और गाना बजाने वालों को रोक कर अच्छा सा गाना बजाने को कहा। फिर क्या था वो बजाने लगे। इधर जैसे ही गाना बजना शुरू हुआ तो मां आगे बढ़ीं और नाचने लगीं। उन्हें नाचता देख सभी औरतें लड़कियां आंखें फाड़ कर उन्हें देखने लगीं। महेंद्र सिंह मुस्कुराते हुए आगे बढ़े और मां के साथ वो भी नाचने लगे। ये देख अर्जुन सिंह वगैरह सब के सब खुशी से चीखने लगे। ज्ञानेंद्र सिंह आज अपने बड़े भाई साहब को इस तरह नाचते देख पहले तो हैरान हुआ फिर खुशी से तालियां बजाने लगा। पलक झपकते ही सबको पता चल गया कि हवेली की बड़ी ठकुराईन और महेंद्र सिंह नाच रहे हैं। इस लिए सब के सब उस जगह की तरफ भागते हुए आए।
मां और महेंद्र सिंह नाचने में लगे हुए थे। मां का तो ख़ैर समझ में भी आ रहा था लेकिन महेंद्र सिंह ऐसे ही उछल रहे थे। उन्हें ताल अथवा रिदम से कोई मतलब नहीं था। सहसा उनकी नज़र मेनका चाची पर पड़ी तो नाचते हुए एकाएक वो उनकी तरफ बढ़ चले। मेनका चाची ये देख चौंकी।
"मझली ठकुराईन आप इस तरह चुपचाप क्यों खड़ी हैं?" फिर उन्होंने चाची से कहा____"आप तो वैभव की चाची हैं। आपको भी तो इस खुशी के अवसर पर नाचना चाहिए, आइए न।"
मेनका चाची उनकी बात सुन कर घबरा सी गईं। घूंघट किए वो पिता जी की तरफ देखने लगीं। उनके पीछे खड़ी औरतें उन्हें पीछे से धकेलने लगीं और कहने कि आप भी नाचिए मझली ठकुराईन। पिता जी ने शायद इशारा कर दिया था इस लिए चाची ने पलट कर महेंद्र सिंह की तरफ देखा।
"आइए न ठकुराईन।" महेंद्र सिंह ने बड़े प्रेम भाव से कहा____"हमसे अब शर्माने की ज़रूरत नहीं है। हम तो वैसे भी आने वाले समय में एक नए रिश्ते में बंध जाएंगे। क्या आपको अभी भी हमारा प्रस्ताव मंज़ूर नहीं है?"
मेनका चाची बोली तो कुछ न लेकिन आगे ज़रूर बढ़ कर आ गईं। ये देख महेंद्र सिंह खुश हो गए। मां थोड़ी देर के लिए रुक गईं थी। शायद नाचने से उनकी सांसें फूल गईं थी। उधर जैसे ही चाची आगे आईं तो अर्जुन सिंह ने दूसरा गाना बजाने का हुकुम दिया। जैसे ही दूसरा गाना बजा महेंद्र सिंह ने खुद ही नाचना शुरू कर दिया। मैं कार में बैठा ये सब देख रहा था। सबको इस तरह नाचते देख मुझे भी अच्छा लग रहा था।
महेंद्र सिंह को नाचता देख चाची भी नाचने लगीं। ये देख विभोर और अजीत खुशी से झूम उठे। वो दोनों भी अपनी मां के साथ नाचने लगे। मैंने देखा मेनका चाची सच में बहुत अच्छा नाच रहीं थी। महेंद्र सिंह ने फिर से मां को बुला लिया तो मां भी आगे बढ़ कर नाचने लगीं। पिता जी दूर से ये सब देख रहे थे। उनके चेहरे पर भी खुशी के भाव थे। सहसा महेंद्र सिंह पलटे और जा कर पिता जी का हाथ पकड़ लिया।
"ठाकुर साहब।" फिर वो बोले____"आप भी आइए न। इस शुभ अवसर पर आज आपको भी नाचना पड़ेगा। कृपया इंकार मत कीजिएगा।"
पिता जी सच में इंकार नहीं कर सके। उन्होंने मुस्कुराते हुए हां कहा और फिर उन्होंने अर्जुन सिंह और संजय सिंह को भी बुला लिया। वो दोनों भी हंसते हुए आ गए। उसके बाद शुरू हुआ ठुमकना। ये देख हर कोई ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगा। एक बार फिर से वातावरण में बंदूकें गरज उठीं।
जीवन में आज पहली लोग दादा ठाकुर को नाचते हुए देख रहे थे। उनके लिए जैसे ये पल बड़ा ही अद्भुत था। देखते ही देखते मामा लोग और बाकी लोग भी नाच में शामिल हो गए। शेरा, भुवन और रूपचंद्र भी नाचने लगे। सच में अद्भुत नज़ारा दिखने लगा था।
आख़िर कुछ देर बाद सबका नाचना बंद हुआ। पिता जी ने कहा कि अब चलना चाहिए, आगे देवी मां के मंदिर में अभी पूजा भी करनी है। उनके कहने पर सब बाराती लोग वाहनों में बैठने लगे। कुछ ही देर में काफ़िला हाथी दरवाज़े की तरफ बढ़ चला। सभी औरतें भी गीत गाते हुए आने लगीं।
थोड़ी ही देर में हम सब मंदिर पहुंच गए। मामा जी के कहने पर मैं कार से उतरा और जूते उतार कर मंदिर की तरफ बढ़ चला। मंदिर में पूजा की मैंने, नारियल तोड़ा। थोड़ी देर वहां भी नाच गाना हुआ उसके बाद फिर से बारात चल पड़ी। कुसुम के साथ सुमन और सुषमा मेरी कार में मेरे साथ ही बैठ गईं थी। उनके साथ अमर मामा भी थे। सभी औरतें मंदिर से ही वापस हवेली लौट गईं जबकि हम सब चंदनपुर के लिए चल पड़े थे।
✮✮✮✮
चंदनपुर में भी कम रौनक नहीं थी। पूरा घर दुल्हन की तरह सजा हुआ था। घर के बाहर बड़े से मैदान में चारो तरफ चांदनी लगी हुई थी। चाचा ससुर का घर बगल से ही था इस लिए दोनों घरों के बीच जो लकड़ी की बाउंड्री होती थी उसे हटा कर चौगान को एक कर दिया गया था ताकि ना तो इधर से उधर आने जाने में समस्या हो और ना ही बारातियों को बैठने के लिए जगह कम पड़े। हर जगह चांदनी लगी हुई थी। मैदान अच्छे से साफ कर दिया गया था।
वीरेंद्र सिंह, बलवीर सिंह और वीर सिंह तीनों भागे भागे फिर रहे थे। उनकी ससुराल से आए लोग भी कामों में लगे हुए थे। सबको समझा दिया गया था कि बारात के आते ही क्या क्या करना है और कैसे कैसे करना है। सबसे पहले बारातियों का अच्छे से स्वागत करना है। जल पान, नाश्ता वगैरह देना है। ये सारी बातें कल से ही समझाई जा रहीं थी।
घर के अंदर आंगन में मंडप था जहां पर विवाह होना था। ढेर सारी औरतें अलग अलग कामों में लगी हुईं थी। एक तरफ बरातियों के लिए तरह तरह के पकवान बनाए जा रहे थे।
वहीं एक कमरे में रागिनी पलंग पर मेंहदी लगाए बैठी थी। उसके चारो तरफ लड़कियों की भीड़ थी। उन सबकी मुखिया मानों शालिनी थी। गांव की कुछ और लड़कियां आ गईं थी। सब रागिनी को चारो तरफ से घेरे हुए थीं और हंसी ठिठोली कर के रागिनी का बोलना बंद किए हुए थीं।
कामिनी बीच बीच में बाहर से आती और अपनी दीदी पर एक भरपूर नज़र डाल कर चली जाती। अपनी बड़ी बहन के लिए आज वो बहुत खुश थी। हमेशा शांत और गंभीर रहने वाली लड़की इन कुछ महीनों में बहुत बदल गई थी।
ऐसे ही हंसी खुशी वक्त गुज़रता रहा और शाम घिर गई। अंदर बाहर हर जगह बल्ब लगे हुए थे जो शाम होते ही जनरेटर के द्वारा रोशन हो उठे। रंग बिरंगी चांदनी बल्बों के रोशन हो जाने से जगमग जगमग करने लगी।
"क्या सोच रही हो रागिनी?" शालिनी ने पूछा____"देख अब तो बारात के आने समय भी होने लगा है। कुछ ही देर में तेरे दूल्हे राजा आ जाएंगे। आज रात तू उनकी पत्नी बन जाएगी और कल सुबह वो तुझे अपने साथ ले जाएंगे। उसके बाद वहां हवेली के उनके कमरे में तू उनके साथ....।"
"चुप कर बेशर्म।" रागिनी झट से बोल पड़ी____"जब देखो यही चलता रहता है तेरे मन में।"
"चल मान लिया कि मेरे मन में चलता रहता है लेकिन।" शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन अब तो तेरे मन में भी चलने ही लगा होगा। मुझे यकीन है सुहागरात के बारे में सोच सोच कर ही खुशी के लड्डू फूट रहे होंगे तेरे मन में।"
"मुझे अपनी तरह मत समझ तू।" रागिनी पहले तो शरमाई फिर घूरते हुए बोली____"मैं तेरे जैसी नहीं हूं जो हर वक्त एक ही बात सोचती रहूं।"
"अच्छा, ऐसे माहौल में इसके अलावा भी क्या कोई कुछ और सोचता है?" शालिनी ने कहा____"बड़ी आई शरीफ़जादी। सब समझती हूं मैं। तू जितना शरीफ बन रही है ना उतनी है नहीं।"
"तुझे जो समझना है समझ।" रागिनी ने बुरा सा मुंह बनाया____"तुझे समझाना ही बेकार है।"
"अच्छा छोड़ गुस्सा न कर।" शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा____"और ये बता कि तूने साफ सफ़ाई तो कर ली है ना?"
"स...साफ सफ़ाई?" रागिनी को जैसे समझ ना आया____"कैसी साफ सफ़ाई?"
"अरे! अंदर की साफ सफ़ाई।" शालिनी की मुस्कान गहरी हो गई____"मेरा मतलब है कि अपने जंगल की साफ सफ़ाई कर ली है ना तूने? पता चले जीजा जी जंगल में भटक जाएं और बाहर ही ना निकल पाएं।"
रागिनी को पहले तो समझ ना आया लेकिन फिर एकदम से उसके दिमाग़ की बत्ती जली। उसे बड़ा तेज़ झटका लगा। उसने आश्चर्य से आंखें फाड़ कर शालिनी को देखा।
"कुत्ती कमीनी।" फिर वो थोड़ा गुस्से से बोली____"क्या बकवास कर रही है ये?"
"अरे! ये बकवास नहीं है मेरी लाडो।" शालिनी हंसते हुए बोली____"बल्कि मैं तो तेरी अच्छी सहेली होने के नाते तुझे याद दिला रही हूं कि तूने अपनी सारी तैयारी कर ली है कि नहीं।"
"तू ना सच में बहुत बेशर्म हो गई है।" रागिनी ने उसे घूरते हुए कहा____"अब अपनी बकवास बंद कर और जा अपने घर।"
"अरे! मुझे क्यों भगा रही है?" शालिनी चौंकी____"कहीं अकेले में कुछ करने का तो नहीं सोच लिया है तूने?"
"कुछ भी मत बोल।" रागिनी ने कहा____"मैं अकेले में भला क्या करूंगी? वो तो मैं तुझे जाने को इस लिए कह रही हूं कि घर जा कर तू भी खुद को तैयार कर ले। उसके बाद क्या पता तुझे जाने का मौका मिले या न मिले।"
"तू मेरी चिंता मत कर।" शालिनी ने कहा____"सविता आने वाली है। उसके आते ही चली जाऊंगी।"
✮✮✮✮
उस वक्त शाम के क़रीब साढ़े सात बज रहे थे जब बारात चंदनपुर पहुंची। बारात के रुकने की व्यवस्था घर से कुछ ही दूरी पर कर दी गई थी अतः बारात वहीं पहुंच कर रुकी। वीरेंद्र सिंह और बलवीर सिंह फ़ौरन ही पहुंच गए सबको उचित जगह पर बैठाने के लिए। जनवासे में भी अच्छा खासा इंतज़ाम था।
बलवीर और वीरेंद्र दोनों ही सबको बैठाने के बाद जल पान करवाने लगे। मैं भी एक जगह बैठ गया था। मेरे पास मेरी बहनें थीं, अमर मामा थे, भुवन था और रूपचंद्र भी था। बड़े मामा का लड़का थोड़ी दूरी पर बैठा था। वो उमर में मुझसे काफी बड़ा था इस लिए उससे ज़्यादा मैं घुला मिला नहीं था। हालाकि वो मुझे छोटा भाई मान कर बहुत स्नेह देता था।
ख़ैर कुछ समय रुकने के बाद हम सब वहां से वीरेंद्र सिंह के घर की तरफ चल पड़े। मैं और मेरी बहनें फिर से कार में बैठ गए। कार के आगे बैंड बाजा वाले चलने लगे। मामा का लड़का रूपचंद्र के साथ मिल कर आतिशबाजियां करते हुए आगे आगे चलने लगा। बैंड बाजा वालों के बीच कई लोग नाचने भी लगे थे। इस चक्कर में चलने की रफ़्तार धीमी हो गई।
"वो देखिए भैया।" कार की पिछली सीट में बैठी कुसुम एकदम से बोल पड़ी____"लगता है भाभी का घर वहां पर है। देखिए कितना जगमग जगमग दिख रहा है वहां।"
कुसुम की खुशी और उत्साह में कही गई ये बात सुन कर मैं बरबस ही मुस्कुरा उठा। मेरी निगाह भी उस तरफ चली गई जहां पर कुसुम ने इशारा किया था। सचमुच रागिनी भाभी का घर काफी जगमग कर रहा था। मुझे याद आया कि इसी तरह बड़े भैया के विवाह के समय भी जगमग जगमग हो रहा था।
एकाएक ही भैया का ख़याल आ गया मुझे। आंखों के सामने उनका चेहरा उभर आया। मेरे अंदर अजीब सी अनुभूति हुई। मन में ख़याल उभरा कि ये ऊपर वाले का कैसा विचित्र खेल है कि जो मेरे बड़े भैया की पत्नी थीं आज मैं उन्हें ही अपनी पत्नी बनाने आया हूं। मन थोड़ा सा बोझिल हो गया। मैंने मन ही मन भैया से इसके लिए माफ़ी मांगी।
कुछ ही देर में आख़िर हम सब वीरेंद्र सिंह के घर पहुंच गए। वहां पहले से ही द्वार पर हमारे स्वागत के लिए सब घर वाले खड़े थे। मेरी कार चौगान के बाहर ही फूलों के द्वारा बनाए गए दरवाज़े के पास जा कर रुक गई थी। बाकी बाराती लोग आगे बढ़े। वहां स्वागत में खड़े लोग फूल माला पहना कर सबका स्वागत करने लगे। बलभद्र जी ने सबसे पहले पिता जी के गले में फूल माला डाल कर उनका स्वागत किया और तिलक लगाया। उनके बाद महेंद्र सिंह, मामा लोग आदि का इसी तरह स्वागत हुआ।
कुछ समय बाद भाभी के पिता यानि वीरभद्र सिंह हाथों में आरती की थाली लिए मेरे पास आए। अमर मामा ने कार का दरवाज़ा खोल दिया तो उन्होंने मेरी आरती उतार कर तिलक लगाया। मामा ने मुझे कार से बाहर आने का इशारा किया तो मैं चुपचाप आ गया। मेरे पीछे पीछे मेरी बहनें भी उतर आईं।
जब बड़े भैया का विवाह हुआ था तब इसी तरह वीरभद्र जी उन्हें लेने आए थे और फिर उन्हें अपनी गोद में उठा कर उस जगह तक ले गए थे जहां पर द्वारचार होना था।
"मेरी दिली इच्छा तो यही है महाराज कि आपको अपनी गोद में उठा कर ले चलूं।" फिर उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए भारी गले से कहा____"किंतु बात के चलते पांव में ताक़त नहीं है। इस लिए मुझे माफ़ करना महाराज, मैं आपको गोद में उठा कर नहीं ले जा सकूंगा। आपको अपने पैरों पर ही चल कर आना होगा।"
"कोई बात नहीं समधी जी।" अमर मामा प्रेम भाव से बोल पड़े____"कोई ज़रूरी नहीं कि गोद में दामाद को उठा कर ले जाने पर ही आपका प्रेम भाव दिखेगा। वो तो कैसे भी दिख सकता है। आप इस बात के लिए चिंतित न हों, मेरा भांजा अपने पैरों पर चल कर ही जाएगा।"
वीरभद्र जी ने कृतज्ञता से मामा को देखा और फिर हाथ जोड़ कर मुझे चलने को कहा तो मैं चल पड़ा। कुछ ही पलों में मैं उस जगह पर आ गया जहां पर द्वारचार और पूजा होनी थी। ढेर सारी औरतें और लड़कियां सिर पर कलशा लिए गाना गाने लगीं थी।
बहरहाल बड़े ही विधिवत तरीके से द्वारचार हुआ। कलशा ली हुई औरतों और लड़कियों को पिता जी ने उनका नेग दिया। उसके बाद मामा मुझे वापस ले गए। अगली विधि लड़की के चढ़ाव की थी जो घर के अंदर आंगन में मंडप के नीचे होती थी। तब तक यहां बारातियों का खाना पीना होता था। चढ़ाव के बाद दूल्हा अंदर जाता था और विवाह की शुभ लग्न में दुल्हन के साथ पूरे रीति रिवाज से दोनों का विवाह होता था।
बहरहाल द्वारचार के बाद बारातियों का खाना पीना शुरू हो गया था। उधर घर के अंदर मंडप के नीचे रागिनी भाभी का चढ़ाव होने लगा था। पिता जी, मामा लोग और महेंद्र सिंह सब वहीं बैठे थे। सबकी नज़रें भाभी पर टिकीं थी। रागिनी भाभी सिर झुकाए बैठी थीं। पंडित अपने मंत्र पढ़ रहे थे। नाउ और पंडित अलग अलग रीति रिवाज तथा विधि के अनुसार अपना काम कर रहे थे। पिता जी अपनी होने वाली बहू के लिए गहने लाए थे जिन्हें उन्होंने सौंप दिया था। आंगन में भारी मात्रा में बैठी औरतें एक साथ गाना गा रहीं थी।
चढ़ाव संपन्न हुआ तो बधू को उठा कर अंदर ले जाया गया। अब इसके बाद उस समय का इंतज़ार था जब विवाह के प्रारंभ होने का शुभ मुहूर्त आता। तब तक पिता जी और बाकी लोगों ने भी वीरभद्र जी के कहने पर खाना खाया।
विवाह का शुभ मुहूर्त कुछ ही देर में आ गया तो मुझे अंदर मंडप में ले जाया गया। मेरी धड़कनें एकाएक ही बढ़ चलीं थी। मेरे मन में ख़याल उभरा कि अब मैं एक पति के रूप में अपनी भाभी के साथ मंडप में बैठने वाला हूं। इसके बाद से मेरा उनसे पुराना रिश्ता हमेशा हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। ज़ाहिर है इसके साथ ही उस रिश्ते के सारे एहसास और सारी मर्यादाएं भी समाप्त हो जाएंगी। उन सबकी जगह एक नया रिश्ता बन जाएगा और फिर उस नए रिश्ते के साथ ही नए एहसास और नए विचारों का जन्म हो जाएगा। ये सब सोचते ही मेरे समूचे जिस्म में एक अजीब सी सर्द लहर दौड़ गई। मुझे पता ही न चला कि कब मैं अंदर मंडप में आ गया। चौंका तब जब मामा ने मुझे हौले से पुकार कर बैठने को कहा।
मेरे आते ही आंगन में बैठी औरतों का गीत एक अलग ही तरह से गूंजने लगा। घर के बाहर बैंड बाजा वाले अपना काम किए जा रहे थे और अंदर औरतें मीठे मीठे गीत गाने में मगन थीं।
मेरे आसन पर बैठते ही दोनों तरफ के पंडित जी शुरू हो गए। उनके कहे अनुसार मैं क्रियाएं करने लगा। रागिनी भाभी को अभी बुलाया नहीं गया था। शायद थोड़ी पूजा के बाद ही उनका आगमन होना था। मेरा मन बार बार उनकी तरफ ही चला जाता था और मैं ये सोचने लगता था कि जब वो आएंगी और मेरे बगल से बैठ जाएंगी तब कैसा महसूस होगा मुझे? क्या उनका भी इस समय मेरे जैसा ही हाल होगा?
कुछ समय बाद आख़िर उन्हें भी बुलाया गया। थोड़ी ही देर में वो अंदर से आती दिखीं। ना चाहते हुए भी मेरी गर्दन घूम गई और मेरी नज़रें उन पर जा टिकीं। कई सारी लड़कियों से घिरी वो सोलह श्रृंगार किए धीरे धीरे चली आ रहीं थी। मैं अपलक उस सुंदरता की मूरत को देखता ही रह गया। तभी किसी ने मुझे मानों नींद से जगाया तो मैं एकदम से हड़बड़ा गया। पलट कर देखा तो रूपचंद्र मेरे पास ही बैठा मुस्करा रहा था।
"कम से कम सबके सामने तो दीदी को ऐसे न घूरो।" उसने धीमें से कहा____"वरना लोग सोचेंगे कि दूल्हा तो बड़ा बेशर्म है।"
मैं रूपचंद्र की इस बात से बुरी तरह झेंप गया। मुझे शर्मिंदगी भी महसूस हुई। मन ही मन सोचा कि सच ही तो कह रहा है वो। अगर मैं ऐसे ही अपलक उन्हें घूरता रहूंगा तो सच में लोग मुझे बेशर्म समझ बैठेंगे। वैसे भी ज़्यादातर लोगों को तो पता ही है कि मैं कैसे चरित्र का इंसान रहा हूं। बात अगर किसी और की होती तो शायद इतना कोई न सोचता मगर यहां बात उनकी है जिनसे मेरा देवर भाभी का रिश्ता था।
मेरी धड़कनें उस वक्त थम सी गईं जब उन सारी लड़कियों ने भाभी को ला कर मेरे बगल से बैठा दिया। उफ्फ! कितना अद्भुत एहसास था वो। अगर रूपा एक अद्भुत लड़की है तो इस वक्त रागिनी भाभी भी मेरे लिए अद्भुत ही लगने लगीं थी। मेरे बगल से उनके बैठ जाने से बड़ा अद्भुत एहसास होने लगा था मुझे। मेरा जी चाहा कि अपनी गर्दन को हल्का सा मोड़ कर उन्हें फिर से एक नज़र देख लूं मगर चाह कर भी मैं ऐसा करने की हिम्मत न जुटा सका। धाड़ धाड़ बजती धड़कनों की धमक किसी हथौड़े की तरह कानों में पड़ती सी महसूस हो रहीं थी। मेरे अंदर एक अजीब सी हलचल मच गई थी। मैंने खुद को बड़ी मुश्किल से सम्हाल कर सामान्य होने की कोशिश की।
एक तरफ औरतों के मधुर गीत तो दूसरी तरफ पंडितों के मंत्रोच्चार वातावरण में अलग ही नाद का आभास कराने लगे। बड़े भैया के विवाह के समय मैंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया था क्योंकि मैं लड़कियां ताड़ने में व्यस्त हो गया था लेकिन आज पता चल रहा था कि विवाह में कितनी सारी विधियां और कितने सारे रीति रिवाज़ होते हैं। रात आधी गुज़र गई थी किंतु विवाह अभी तक संपन्न न हुआ था। जाने कैसी कैसी विधियां और रस्में होती चली जा रहीं थी।
भाभी के पीछे ही उनकी छोटी बहन कामिनी और उनकी सहेली शालिनी बैठी हुई थी। बीच बीच में वो भाभी की चुनरी को ठीक करने लग जाती थीं। उनके पीछे औरतें बनरा बियाह जैसे गीत गाने में मशगूल थीं। उनके गाने ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। इधर मेरी तरफ थोड़ी पीछे कुसुम, सुमन और सुषमा बैठी सारी क्रियाएं देख रहीं थी। थोड़ी दूरी पर विभोर और अजीत भी बैठे हुए थे। रूपचंद्र उठ कर अमर मामा के पास चला गया था। अमर मामा औरतों के पास ही बैठे हुए थे और उनके गीतों का आनंद ले रहे थे।
रात भर जाने कैसी कैसी विधियां और रस्में हुईं। मैं और भाभी ख़ामोशी से पंडित के निर्देशों पर अपना कार्य एक साथ करते रहे।
उस वक्त सुबह होने लगी थी जब वीरेंद्र लावा परसने की रस्म के लिए आया। उसके हाथ में एक सूपा था और सूपे में कुछ चीज़ें पड़ीं थी। पंडित जी के निर्देशानुसार भाभी मेरे आगे खड़ी हो गईं और मैं उनके पीछे। उनके दोनों हाथ आगे की तरफ अंजुली की शक्ल में जुड़ गए थे। इधर पीछे से मुझे उनके हाथों की अंजुली के नीचे अपने हाथों की अंजुली बना कर रखनी थी। ख़ैर लावा परसना शुरू हुआ। वीरेंद्र सूपे से चीजें उठा कर भाभी की अंजुली में डालता, इधर भाभी पंडित के कहने पर अपनी अंजुली को नीचे की तरफ से खोल कर सारी चीज़ें मेरी अंजुली में गिरा देतीं और फिर मैं नीचे गिरा देता। यही प्रक्रिया काफी देर तक चलती रही। पीछे से मेरा पूरा जिस्म भाभी से सटा हुआ था और इस स्थिति में मुझे बड़ा अजीब भी लग रहा था। ख़ैर क्या कर सकता था, ये विधि अथवा रस्म ही ऐसी थी।
वीरभद्र जी ने कन्यादान वगैरह किया। फेरे हुए, सिंदूर चढ़ाया, मंगलसूत्र पहनाया मैंने। पंडित जी ने पति पत्नी के सात वचन बता कर हमसे क़बूल करवाया। सातों वचन क़बूल करने के बाद भाभी को मेरे बाएं तरफ बैठा दिया गया। यानि अब वो पूर्ण रूप से मेरी पत्नी बन चुकीं थी।
सुबह का उजाला होने लगा था। पांव पूजने की रस्म शुरू हो गई। पीतल की एक बड़ी सी परात में पीला पीला गाढ़ा सा थोड़ा पानी भरा हुआ था। उसके बीच आटे की गोलाकार मोटी सी लोई पड़ी थी, बीच में कुछ था उसके। बहरहाल, एक एक कर के सभी घर वाले हम दोनों का पांव पूजने आने लगे। अपने साथ कोई न कोई वस्तु भेंट अथवा दान करने के लिए भी लाते। तिलक लगाते, पांव पूजते, उपहार देते और फिर प्रणाम करके चले जाते। ऐसे ही सूरज निकलने तक चलता रहा।
विवाह संपन्न हुआ तो रागिनी को अंदर ले जाया गया। अमर मामा जब मुझे ले जाने लगे तो मैने देखा मेरे जूते ग़ायब हैं। विवाह के समय सालियां अपने जीजा के जूते चुराती थीं और वापस तभी करती थीं जब नेग के रूप में उनकी मनचाही मांग पूरी की जाती थी।
मैं समझ चुका था कि मेरे जूते कामिनी ने ही चुराए होंगे और अब वो मेरे जूते तभी लौटाएगी जब मैं उसकी मनचाही मांग पूरी करूंगा। कुसुम को शायद इस रस्म का पता था इस लिए वो अब मुझे देख मुस्कुराने लगी थी।
"भांजे कब तक चुपचाप खड़ा रहेगा?" अमर मामा ने मुझसे कहा____"अपने जूते मांग अपनी साली से।"
"क्या हुआ जीजा जी?" शालिनी भागती हुई आई और मुस्कुराते हुए बोली____"कुछ खो गया है क्या आपका?"
"अरे! आप भी यहीं हैं?" मैं शालिनी को देख चौंक सा गया था____"सारी रात कहां ग़ायब थीं आप?"
"मैं तो आपके बिल्कुल पास ही बैठी थी?" उसने मुस्कुराते हुए कहा____"अपनी सहेली रागिनी के ठीक पीछे। शायद आपने देखा ही नहीं।"
"हां शायद।" मैं हल्के से मुस्कुराया।
"देखते भी कैसे जनाब।" शालिनी ने मानों मुझे छेड़ा____"आप तो बस अपनी दुल्हन को ही देखने में व्यस्त थे। किसी और को तो तब देखते जब उसके जैसा कोई होता आस पास।"
"ऐसा कुछ नहीं है।" मैं थोड़ा झेंप गया____"ख़ैर ये तो बताइए कि मेरे जूते कौन ले गया है? मुझे जाना है यहां से। रात भर बैठा रहा हूं, सुबह की क्रिया के लिए जाना है अब।"
"अच्छा जी, ज़्यादा परेशानी वाली बात तो नहीं है ना?" शालिनी मुस्कुराई____"रही बात जूतों की तो वो कामिनी चुरा के ले गई है।"
"उनको बुलाइए।" मैंने कहा____"और कहिए कि मेरे जूते दे दें। चोरी करना अच्छी बात नहीं होती है।"
"दुनिया में यही एक रस्म है जीजा जी।" शालिनी ने कहा____"जिसमें चोरी करना बहुत अच्छा माना जाता है। ख़ैर अगर आपको अपने जूते वापस चाहिए तो मनचाहा नेग देना पड़ेगा आपको।"
"ठीक है।" मैंने कहा____"कामिनी को बुलाइए, उन्हें नेग दिया जाएगा।"
शालिनी ने खड़े खड़े ही कामिनी को आवाज़ दे कर बुला लिया। वो भागते हुए आई और मुझे मुस्कुराते हुए देखने लगी।
"क्या हुआ दीदी?" फिर उसने शालिनी से कहा____"किस लिए बुलाया है आपने मुझे?"
"जीजा जी अपने जूते मांग रहे हैं।" शालिनी ने उसे बताया____"और बदले में तुझे तेरा नेग भी देने को कह रहे हैं। अब तू बेझिझक हो के मांग ले इनसे जो तुझे चाहिए।"
"हां मांग लीजिए सरकार।" मैं मुस्कुराया____"आप तो वैसे भी मेरी पहली मोहब्बत हैं। आपके लिए तो जां हाज़िर है।"
"ज़्यादा फ़िज़ूल की बातें मत कीजिए।" कामिनी ने झूठी नाराज़गी दिखाई____"मुझे नेग के रूप में आपसे और तो कुछ नहीं चाहिए लेकिन हां एक वचन ज़रूर चाहिए। क्या आप दे सकते हैं?"
"बिल्कुल दे सकता हूं।" मैंने दृढ़ता से कहा____"आपने पहली बार मुझसे कुछ मांगा है तो यकीन मानिए मैं आपकी मांग ज़रूर पूरी करूंगा। कहिए कैसा वचन चाहिए आपको?"
"यही कि आप मेरी दीदी को हमेशा खुश रखेंगे।" कामिनी ने सहसा गंभीर हो कर कहा____"उन्हें कभी दुखी नहीं होने देंगे और बहुत सारा प्यार देंगे उनको। मुझे अपने नेग के रूप में आपसे इन्हीं बातों का वचन चाहिए।"
मैं देखता रह गया कामिनी को और मैं ही क्या बल्कि अमर मामा, कुसुम, सुमन, सुषमा, रूपचंद्र और यहां तक कि खुद शालिनी भी। मुझे कामिनी से ऐसी उम्मीद हर्गिज़ नहीं थी। अवाक् सा देखता रह गया था मैं।
"क्या हुआ जीजा जी?" जब मैं उसे देखता ही रहा तो वो जैसे मुझे होश में लाई____"क्या आप मुझे मेरा ऐसा नेग नहीं देंगे?"
"आपको मुझसे इस तरह का नेग मांगने की ज़रूरत नहीं थी कामिनी।" मैंने कहा____"क्योंकि मैं तो वैसे भी अपनी तरफ से यही करने वाला था लेकिन फिर भी अगर आप इन बातों का मुझसे वचन ही चाहती हैं तो ठीक है। मैं आपको वचन देता हूं कि मैं हमेशा आपकी दीदी को खुश रखूंगा। उन्हें कभी दुखी नहीं करूंगा और सच्चे दिल से उनसे प्रेम करूंगा।"
मेरा इतना कहना था कि कामिनी का चेहरा खुशी से चमक उठा लेकिन आंखें नम हो गईं उसकी। वो फ़ौरन ही पलटी और भागती हुई अंदर की तरफ चली गई। कुछ ही पलों में जब वो आई तो उसके हाथ में मेरे जूते थे। उसने जूतों को मेरे पैरों के पास रख दिया।
"ये रहे आपके जूते।" फिर उसने मुस्कुराते हुए कहा____"पहन लीजिए और ख़ुशी से जाइए।"
"आप बहुत अच्छी लड़की हैं कामिनी।" मैंने उससे कहा____"मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वो आपको हमेशा खुश रखे और आपको पति के रूप में एक ऐसा व्यक्ति मिले जो आपको अथाह प्रेम करे।"
"तुमने भले ही अपने जीजा से नेग के रूप में ये वचन लिया है बेटी।" अमर मामा ने अधीरता से कहा____"लेकिन तुम्हारी बातें हृदय को छू गई हैं। ऐसे शुभ अवसर पर हर रस्म और हर नेग का अपना महत्व होता है। अतः अपने भांजे की तरफ से मैं अपनी खुशी से तुम्हें ये कुछ रुपए देना चाहता हूं। इसे अन्यथा मत लेना बेटी, ये बस एक अच्छी लड़की के प्रति सच्ची भावना को ब्यक्त करने जैसा है।"
कहने के साथ ही मामा ने अपने पैंट की जेब से पचास के नोटों की एक गड्डी निकाल कर कामिनी की तरफ बढ़ा दिया। कामिनी थोड़ा झिझकी लेकिन फिर उसने हाथ बढ़ा कर वो गड्डी ले ली।
"आपने मुझे बेटी कहा और सच्ची भावना से दिया है।" फिर उसने कहा____"इस लिए मैं इन्हें आपसे न ले कर आपकी भावनाओं को आहत नहीं करूंगी।"
उसके बाद मैंने अपने जूते पहने और सबके साथ बाहर की तरफ चल पड़ा। कुछ ही समय में विदाई का कार्यक्रम शुरू हो जाने वाला था।
"मुझे तो लगा था कि तू अपने जीजा जी से बहुत कुछ मांगेगी।" शालिनी ने कामिनी से कहा____"लेकिन तूने तो ऐसी चीज़ मांग ली जिसके बारे में शायद ही किसी ने कल्पना की होगी। वैसे सच कहती हूं तूने जीजा जी से नेग में इस तरह का वचन मांग कर बहुत ही अद्भुत कार्य किया है। इससे ये भी पता चलता है कि तू अपनी दीदी को कितना चाहती है और उसकी कितनी फ़िक्र करती है। मुझे तुझ पर नाज़ है छोटी। ख़ैर चल आ जा, रागिनी को विदाई के लिए तैयार भी करना है।"
कामिनी उसके साथ खुशी खुशी अंदर की तरफ चली दी। विदाई के लिए हर कोई जल्दी जल्दी काम में लग गया था। पांव पूजन में बहुत सारा उपहार मिल गया था जिसे उठा कर बाहर रखा जा रहा था।
━━━━✮━━━━━━━━━━━✮━━━━
Fabulous update.......Bhaiअध्याय - 164
━━━━━━༻♥༺━━━━━━
सरला ने लपक कर मेरे लंड को मुंह में भर लिया और मेरा वीर्य पीने लगी। आनंद की चरम सीमा में पहुंचने के बाद मैं एकदम शांत पड़ गया। उधर सरला सारा वीर्य गटकने के बाद अब मेरे लंड को चाट रही थी। बड़ी की कौमुक और चुदक्कड़ औरत थी शायद।
अब आगे....
तीन दिन मानों पंख लगा कर उड़ गए और विवाह का दिन आ गया। हवेली किसी दुल्हन की तरह सजी हुई थी। पिता जी मानों सब कुछ भूल कर इस पल को जी लेना चाहते थे। तभी तो ठीक उसी तरह हवेली को सजवाया था जैसे बड़े भैया के विवाह के समय सजवाया था। थोड़ा भावुक से नज़र आ रहे थे वो, कदाचित बड़े बेटे का इसी तरह विवाह करना याद आ गया था उन्हें। मां का भी यही हाल था लेकिन वो किसी तरह अपने जज़्बातों को काबू में रखे हुए थीं।
एक तरफ मुझे सजाया जा रहा था। अमर मामा मुझे सजता देख बड़ा खुश थे। हर कोई खुश था। मेरी बहनें पहले से ही सज धज कर तैयार थीं और मेरे पास ही बैठी हुईं थी। कुसुम का बस चलता तो वो खुशी के मारे उछलने कूदने लगती लेकिन जाने कैसे खुद को रोक रखा उसने? विभोर और अजीत भी सज धज कर तैयार थे। दोनों के चेहरे खुशी से चमक रहे थे। हवेली के अंदर औरतें गीत गा रहीं थी।
हवेली के बाहर पहले से ही ढोल नगाड़े बज रहे थे। बारात में जाने के लिए काफी लोग जमा हो गए थे। पिता जी को पहले से ही पता था कि लोग ज़्यादा होंगे इस लिए शहर से उन्होंने एक बस गाड़ी बुला लिया था। मेरे लिए यानि दूल्हे के लिए एक चमचमाती एंबेसडर कार आ गई थी। हमारे पास पहले से ही चार जीपें थी। महेंद्र सिंह की दो जीपें थी, अर्जुन भी अपनी दो जीपें ले आए थे। वहीं अवधेश मामा और अमर मामा की जीपें भी थी। हवेली के विशाल मैदान में वाहन ही वाहन दिख रहे थे। पिता जी ने बारात में चलने के लिए रूपचंद्र और गौरी शंकर को भी निमंत्रण दिया था इस लिए वो भी आ गए थे। उनके घर से फूलवती और सुनैना देवी भी इस वक्त हवेली में मौजूद थी और सबके साथ गीत गा रहीं थी।
आख़िर शाम होने से पहले ही मुझे दूल्हा बना कर अंदर से बाहर लाया जाने लगा। औरतें गीत गा रहीं थी और धीरे धीरे मुझे बाहर ला रहीं थी। मैं आज दूल्हा बना हुआ था। मुझे इस तरह सजाया गया था कि जैसे ही मैं बाहर आया सबके सब मुझे ही देखते रह गए। अचानक ही वातावरण बंदूकों के तेज़ धमाकों से गूंजने लगा। सबसे पहले महेंद्र सिंह ने अपनी बंदूक की नाल ऊपर कर के मानों सलामी। उनके बाद ज्ञानेंद्र सिंह, अर्जुन सिंह, संजय सिंह। पिता जी की बंदूक बड़े मामा ले रखे थे इस लिए उन्होंने एक के बाद एक फायर किया। ढोल नगाड़ों का शोर कुछ और ज़्यादा होने लगा। रूपचंद्र मुझे देखते ही मेरे पास भाग कर आया। मुझे देख वो बड़ा खुश हुआ।
अमर मामा ने मुझे कार में बैठाया। मां और मेनका चाची मेरी आरती उतार कर मुझे तिलक करने लगीं। एकाएक फिर से वातावरण में शोर उठा। मैंने देखा कार के सामने अमर मामा नाचने लगे थे। ये देख एक एक कर के बाकी लोग भी नाचने लगे। थोड़ी देर बाद जब वो रुके तो मेरी मामियां नाचने लगीं। कुसुम, सुमन और सुषमा भी नाचने लगीं।
"भाभी श्री बेटे का विवाह होने जा रहा है आज।" सहसा महेंद्र सिंह मां के पास आ कर बोले____"इस शुभ अवसर पर आपको भी खुशी से नाचना चाहिए।"
"हां जी क्यों नहीं।" मां ने मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन आपको भी हमारे साथ नाचना होगा।"
"अरे! ये भी कोई कहने की बात है भला।" महेंद्र सिंह ने हंसते हुए कहा____"हम तो वैसे भी अपने मित्र के साथ नाचने का सोच चुके थे। आपके साथ नाचना तो हमारे लिए बड़े सौभाग्य की बात है।"
"अच्छा जी ऐसा है क्या?" मां मुस्कुराईं___"तो फिर चलिए। हम भी तो देखें कि आप हमारे साथ कितना उछलते हैं।"
सबने मां और महेंद्र सिंह की बातें सुन ली थी। इस लिए सब उन्हें ही देखने लगे थे। अर्जुन सिंह तेज़ी से आए और गाना बजाने वालों को रोक कर अच्छा सा गाना बजाने को कहा। फिर क्या था वो बजाने लगे। इधर जैसे ही गाना बजना शुरू हुआ तो मां आगे बढ़ीं और नाचने लगीं। उन्हें नाचता देख सभी औरतें लड़कियां आंखें फाड़ कर उन्हें देखने लगीं। महेंद्र सिंह मुस्कुराते हुए आगे बढ़े और मां के साथ वो भी नाचने लगे। ये देख अर्जुन सिंह वगैरह सब के सब खुशी से चीखने लगे। ज्ञानेंद्र सिंह आज अपने बड़े भाई साहब को इस तरह नाचते देख पहले तो हैरान हुआ फिर खुशी से तालियां बजाने लगा। पलक झपकते ही सबको पता चल गया कि हवेली की बड़ी ठकुराईन और महेंद्र सिंह नाच रहे हैं। इस लिए सब के सब उस जगह की तरफ भागते हुए आए।
मां और महेंद्र सिंह नाचने में लगे हुए थे। मां का तो ख़ैर समझ में भी आ रहा था लेकिन महेंद्र सिंह ऐसे ही उछल रहे थे। उन्हें ताल अथवा रिदम से कोई मतलब नहीं था। सहसा उनकी नज़र मेनका चाची पर पड़ी तो नाचते हुए एकाएक वो उनकी तरफ बढ़ चले। मेनका चाची ये देख चौंकी।
"मझली ठकुराईन आप इस तरह चुपचाप क्यों खड़ी हैं?" फिर उन्होंने चाची से कहा____"आप तो वैभव की चाची हैं। आपको भी तो इस खुशी के अवसर पर नाचना चाहिए, आइए न।"
मेनका चाची उनकी बात सुन कर घबरा सी गईं। घूंघट किए वो पिता जी की तरफ देखने लगीं। उनके पीछे खड़ी औरतें उन्हें पीछे से धकेलने लगीं और कहने कि आप भी नाचिए मझली ठकुराईन। पिता जी ने शायद इशारा कर दिया था इस लिए चाची ने पलट कर महेंद्र सिंह की तरफ देखा।
"आइए न ठकुराईन।" महेंद्र सिंह ने बड़े प्रेम भाव से कहा____"हमसे अब शर्माने की ज़रूरत नहीं है। हम तो वैसे भी आने वाले समय में एक नए रिश्ते में बंध जाएंगे। क्या आपको अभी भी हमारा प्रस्ताव मंज़ूर नहीं है?"
मेनका चाची बोली तो कुछ न लेकिन आगे ज़रूर बढ़ कर आ गईं। ये देख महेंद्र सिंह खुश हो गए। मां थोड़ी देर के लिए रुक गईं थी। शायद नाचने से उनकी सांसें फूल गईं थी। उधर जैसे ही चाची आगे आईं तो अर्जुन सिंह ने दूसरा गाना बजाने का हुकुम दिया। जैसे ही दूसरा गाना बजा महेंद्र सिंह ने खुद ही नाचना शुरू कर दिया। मैं कार में बैठा ये सब देख रहा था। सबको इस तरह नाचते देख मुझे भी अच्छा लग रहा था।
महेंद्र सिंह को नाचता देख चाची भी नाचने लगीं। ये देख विभोर और अजीत खुशी से झूम उठे। वो दोनों भी अपनी मां के साथ नाचने लगे। मैंने देखा मेनका चाची सच में बहुत अच्छा नाच रहीं थी। महेंद्र सिंह ने फिर से मां को बुला लिया तो मां भी आगे बढ़ कर नाचने लगीं। पिता जी दूर से ये सब देख रहे थे। उनके चेहरे पर भी खुशी के भाव थे। सहसा महेंद्र सिंह पलटे और जा कर पिता जी का हाथ पकड़ लिया।
"ठाकुर साहब।" फिर वो बोले____"आप भी आइए न। इस शुभ अवसर पर आज आपको भी नाचना पड़ेगा। कृपया इंकार मत कीजिएगा।"
पिता जी सच में इंकार नहीं कर सके। उन्होंने मुस्कुराते हुए हां कहा और फिर उन्होंने अर्जुन सिंह और संजय सिंह को भी बुला लिया। वो दोनों भी हंसते हुए आ गए। उसके बाद शुरू हुआ ठुमकना। ये देख हर कोई ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगा। एक बार फिर से वातावरण में बंदूकें गरज उठीं।
जीवन में आज पहली लोग दादा ठाकुर को नाचते हुए देख रहे थे। उनके लिए जैसे ये पल बड़ा ही अद्भुत था। देखते ही देखते मामा लोग और बाकी लोग भी नाच में शामिल हो गए। शेरा, भुवन और रूपचंद्र भी नाचने लगे। सच में अद्भुत नज़ारा दिखने लगा था।
आख़िर कुछ देर बाद सबका नाचना बंद हुआ। पिता जी ने कहा कि अब चलना चाहिए, आगे देवी मां के मंदिर में अभी पूजा भी करनी है। उनके कहने पर सब बाराती लोग वाहनों में बैठने लगे। कुछ ही देर में काफ़िला हाथी दरवाज़े की तरफ बढ़ चला। सभी औरतें भी गीत गाते हुए आने लगीं।
थोड़ी ही देर में हम सब मंदिर पहुंच गए। मामा जी के कहने पर मैं कार से उतरा और जूते उतार कर मंदिर की तरफ बढ़ चला। मंदिर में पूजा की मैंने, नारियल तोड़ा। थोड़ी देर वहां भी नाच गाना हुआ उसके बाद फिर से बारात चल पड़ी। कुसुम के साथ सुमन और सुषमा मेरी कार में मेरे साथ ही बैठ गईं थी। उनके साथ अमर मामा भी थे। सभी औरतें मंदिर से ही वापस हवेली लौट गईं जबकि हम सब चंदनपुर के लिए चल पड़े थे।
✮✮✮✮
चंदनपुर में भी कम रौनक नहीं थी। पूरा घर दुल्हन की तरह सजा हुआ था। घर के बाहर बड़े से मैदान में चारो तरफ चांदनी लगी हुई थी। चाचा ससुर का घर बगल से ही था इस लिए दोनों घरों के बीच जो लकड़ी की बाउंड्री होती थी उसे हटा कर चौगान को एक कर दिया गया था ताकि ना तो इधर से उधर आने जाने में समस्या हो और ना ही बारातियों को बैठने के लिए जगह कम पड़े। हर जगह चांदनी लगी हुई थी। मैदान अच्छे से साफ कर दिया गया था।
वीरेंद्र सिंह, बलवीर सिंह और वीर सिंह तीनों भागे भागे फिर रहे थे। उनकी ससुराल से आए लोग भी कामों में लगे हुए थे। सबको समझा दिया गया था कि बारात के आते ही क्या क्या करना है और कैसे कैसे करना है। सबसे पहले बारातियों का अच्छे से स्वागत करना है। जल पान, नाश्ता वगैरह देना है। ये सारी बातें कल से ही समझाई जा रहीं थी।
घर के अंदर आंगन में मंडप था जहां पर विवाह होना था। ढेर सारी औरतें अलग अलग कामों में लगी हुईं थी। एक तरफ बरातियों के लिए तरह तरह के पकवान बनाए जा रहे थे।
वहीं एक कमरे में रागिनी पलंग पर मेंहदी लगाए बैठी थी। उसके चारो तरफ लड़कियों की भीड़ थी। उन सबकी मुखिया मानों शालिनी थी। गांव की कुछ और लड़कियां आ गईं थी। सब रागिनी को चारो तरफ से घेरे हुए थीं और हंसी ठिठोली कर के रागिनी का बोलना बंद किए हुए थीं।
कामिनी बीच बीच में बाहर से आती और अपनी दीदी पर एक भरपूर नज़र डाल कर चली जाती। अपनी बड़ी बहन के लिए आज वो बहुत खुश थी। हमेशा शांत और गंभीर रहने वाली लड़की इन कुछ महीनों में बहुत बदल गई थी।
ऐसे ही हंसी खुशी वक्त गुज़रता रहा और शाम घिर गई। अंदर बाहर हर जगह बल्ब लगे हुए थे जो शाम होते ही जनरेटर के द्वारा रोशन हो उठे। रंग बिरंगी चांदनी बल्बों के रोशन हो जाने से जगमग जगमग करने लगी।
"क्या सोच रही हो रागिनी?" शालिनी ने पूछा____"देख अब तो बारात के आने समय भी होने लगा है। कुछ ही देर में तेरे दूल्हे राजा आ जाएंगे। आज रात तू उनकी पत्नी बन जाएगी और कल सुबह वो तुझे अपने साथ ले जाएंगे। उसके बाद वहां हवेली के उनके कमरे में तू उनके साथ....।"
"चुप कर बेशर्म।" रागिनी झट से बोल पड़ी____"जब देखो यही चलता रहता है तेरे मन में।"
"चल मान लिया कि मेरे मन में चलता रहता है लेकिन।" शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन अब तो तेरे मन में भी चलने ही लगा होगा। मुझे यकीन है सुहागरात के बारे में सोच सोच कर ही खुशी के लड्डू फूट रहे होंगे तेरे मन में।"
"मुझे अपनी तरह मत समझ तू।" रागिनी पहले तो शरमाई फिर घूरते हुए बोली____"मैं तेरे जैसी नहीं हूं जो हर वक्त एक ही बात सोचती रहूं।"
"अच्छा, ऐसे माहौल में इसके अलावा भी क्या कोई कुछ और सोचता है?" शालिनी ने कहा____"बड़ी आई शरीफ़जादी। सब समझती हूं मैं। तू जितना शरीफ बन रही है ना उतनी है नहीं।"
"तुझे जो समझना है समझ।" रागिनी ने बुरा सा मुंह बनाया____"तुझे समझाना ही बेकार है।"
"अच्छा छोड़ गुस्सा न कर।" शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा____"और ये बता कि तूने साफ सफ़ाई तो कर ली है ना?"
"स...साफ सफ़ाई?" रागिनी को जैसे समझ ना आया____"कैसी साफ सफ़ाई?"
"अरे! अंदर की साफ सफ़ाई।" शालिनी की मुस्कान गहरी हो गई____"मेरा मतलब है कि अपने जंगल की साफ सफ़ाई कर ली है ना तूने? पता चले जीजा जी जंगल में भटक जाएं और बाहर ही ना निकल पाएं।"
रागिनी को पहले तो समझ ना आया लेकिन फिर एकदम से उसके दिमाग़ की बत्ती जली। उसे बड़ा तेज़ झटका लगा। उसने आश्चर्य से आंखें फाड़ कर शालिनी को देखा।
"कुत्ती कमीनी।" फिर वो थोड़ा गुस्से से बोली____"क्या बकवास कर रही है ये?"
"अरे! ये बकवास नहीं है मेरी लाडो।" शालिनी हंसते हुए बोली____"बल्कि मैं तो तेरी अच्छी सहेली होने के नाते तुझे याद दिला रही हूं कि तूने अपनी सारी तैयारी कर ली है कि नहीं।"
"तू ना सच में बहुत बेशर्म हो गई है।" रागिनी ने उसे घूरते हुए कहा____"अब अपनी बकवास बंद कर और जा अपने घर।"
"अरे! मुझे क्यों भगा रही है?" शालिनी चौंकी____"कहीं अकेले में कुछ करने का तो नहीं सोच लिया है तूने?"
"कुछ भी मत बोल।" रागिनी ने कहा____"मैं अकेले में भला क्या करूंगी? वो तो मैं तुझे जाने को इस लिए कह रही हूं कि घर जा कर तू भी खुद को तैयार कर ले। उसके बाद क्या पता तुझे जाने का मौका मिले या न मिले।"
"तू मेरी चिंता मत कर।" शालिनी ने कहा____"सविता आने वाली है। उसके आते ही चली जाऊंगी।"
✮✮✮✮
उस वक्त शाम के क़रीब साढ़े सात बज रहे थे जब बारात चंदनपुर पहुंची। बारात के रुकने की व्यवस्था घर से कुछ ही दूरी पर कर दी गई थी अतः बारात वहीं पहुंच कर रुकी। वीरेंद्र सिंह और बलवीर सिंह फ़ौरन ही पहुंच गए सबको उचित जगह पर बैठाने के लिए। जनवासे में भी अच्छा खासा इंतज़ाम था।
बलवीर और वीरेंद्र दोनों ही सबको बैठाने के बाद जल पान करवाने लगे। मैं भी एक जगह बैठ गया था। मेरे पास मेरी बहनें थीं, अमर मामा थे, भुवन था और रूपचंद्र भी था। बड़े मामा का लड़का थोड़ी दूरी पर बैठा था। वो उमर में मुझसे काफी बड़ा था इस लिए उससे ज़्यादा मैं घुला मिला नहीं था। हालाकि वो मुझे छोटा भाई मान कर बहुत स्नेह देता था।
ख़ैर कुछ समय रुकने के बाद हम सब वहां से वीरेंद्र सिंह के घर की तरफ चल पड़े। मैं और मेरी बहनें फिर से कार में बैठ गए। कार के आगे बैंड बाजा वाले चलने लगे। मामा का लड़का रूपचंद्र के साथ मिल कर आतिशबाजियां करते हुए आगे आगे चलने लगा। बैंड बाजा वालों के बीच कई लोग नाचने भी लगे थे। इस चक्कर में चलने की रफ़्तार धीमी हो गई।
"वो देखिए भैया।" कार की पिछली सीट में बैठी कुसुम एकदम से बोल पड़ी____"लगता है भाभी का घर वहां पर है। देखिए कितना जगमग जगमग दिख रहा है वहां।"
कुसुम की खुशी और उत्साह में कही गई ये बात सुन कर मैं बरबस ही मुस्कुरा उठा। मेरी निगाह भी उस तरफ चली गई जहां पर कुसुम ने इशारा किया था। सचमुच रागिनी भाभी का घर काफी जगमग कर रहा था। मुझे याद आया कि इसी तरह बड़े भैया के विवाह के समय भी जगमग जगमग हो रहा था।
एकाएक ही भैया का ख़याल आ गया मुझे। आंखों के सामने उनका चेहरा उभर आया। मेरे अंदर अजीब सी अनुभूति हुई। मन में ख़याल उभरा कि ये ऊपर वाले का कैसा विचित्र खेल है कि जो मेरे बड़े भैया की पत्नी थीं आज मैं उन्हें ही अपनी पत्नी बनाने आया हूं। मन थोड़ा सा बोझिल हो गया। मैंने मन ही मन भैया से इसके लिए माफ़ी मांगी।
कुछ ही देर में आख़िर हम सब वीरेंद्र सिंह के घर पहुंच गए। वहां पहले से ही द्वार पर हमारे स्वागत के लिए सब घर वाले खड़े थे। मेरी कार चौगान के बाहर ही फूलों के द्वारा बनाए गए दरवाज़े के पास जा कर रुक गई थी। बाकी बाराती लोग आगे बढ़े। वहां स्वागत में खड़े लोग फूल माला पहना कर सबका स्वागत करने लगे। बलभद्र जी ने सबसे पहले पिता जी के गले में फूल माला डाल कर उनका स्वागत किया और तिलक लगाया। उनके बाद महेंद्र सिंह, मामा लोग आदि का इसी तरह स्वागत हुआ।
कुछ समय बाद भाभी के पिता यानि वीरभद्र सिंह हाथों में आरती की थाली लिए मेरे पास आए। अमर मामा ने कार का दरवाज़ा खोल दिया तो उन्होंने मेरी आरती उतार कर तिलक लगाया। मामा ने मुझे कार से बाहर आने का इशारा किया तो मैं चुपचाप आ गया। मेरे पीछे पीछे मेरी बहनें भी उतर आईं।
जब बड़े भैया का विवाह हुआ था तब इसी तरह वीरभद्र जी उन्हें लेने आए थे और फिर उन्हें अपनी गोद में उठा कर उस जगह तक ले गए थे जहां पर द्वारचार होना था।
"मेरी दिली इच्छा तो यही है महाराज कि आपको अपनी गोद में उठा कर ले चलूं।" फिर उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए भारी गले से कहा____"किंतु बात के चलते पांव में ताक़त नहीं है। इस लिए मुझे माफ़ करना महाराज, मैं आपको गोद में उठा कर नहीं ले जा सकूंगा। आपको अपने पैरों पर ही चल कर आना होगा।"
"कोई बात नहीं समधी जी।" अमर मामा प्रेम भाव से बोल पड़े____"कोई ज़रूरी नहीं कि गोद में दामाद को उठा कर ले जाने पर ही आपका प्रेम भाव दिखेगा। वो तो कैसे भी दिख सकता है। आप इस बात के लिए चिंतित न हों, मेरा भांजा अपने पैरों पर चल कर ही जाएगा।"
वीरभद्र जी ने कृतज्ञता से मामा को देखा और फिर हाथ जोड़ कर मुझे चलने को कहा तो मैं चल पड़ा। कुछ ही पलों में मैं उस जगह पर आ गया जहां पर द्वारचार और पूजा होनी थी। ढेर सारी औरतें और लड़कियां सिर पर कलशा लिए गाना गाने लगीं थी।
बहरहाल बड़े ही विधिवत तरीके से द्वारचार हुआ। कलशा ली हुई औरतों और लड़कियों को पिता जी ने उनका नेग दिया। उसके बाद मामा मुझे वापस ले गए। अगली विधि लड़की के चढ़ाव की थी जो घर के अंदर आंगन में मंडप के नीचे होती थी। तब तक यहां बारातियों का खाना पीना होता था। चढ़ाव के बाद दूल्हा अंदर जाता था और विवाह की शुभ लग्न में दुल्हन के साथ पूरे रीति रिवाज से दोनों का विवाह होता था।
बहरहाल द्वारचार के बाद बारातियों का खाना पीना शुरू हो गया था। उधर घर के अंदर मंडप के नीचे रागिनी भाभी का चढ़ाव होने लगा था। पिता जी, मामा लोग और महेंद्र सिंह सब वहीं बैठे थे। सबकी नज़रें भाभी पर टिकीं थी। रागिनी भाभी सिर झुकाए बैठी थीं। पंडित अपने मंत्र पढ़ रहे थे। नाउ और पंडित अलग अलग रीति रिवाज तथा विधि के अनुसार अपना काम कर रहे थे। पिता जी अपनी होने वाली बहू के लिए गहने लाए थे जिन्हें उन्होंने सौंप दिया था। आंगन में भारी मात्रा में बैठी औरतें एक साथ गाना गा रहीं थी।
चढ़ाव संपन्न हुआ तो बधू को उठा कर अंदर ले जाया गया। अब इसके बाद उस समय का इंतज़ार था जब विवाह के प्रारंभ होने का शुभ मुहूर्त आता। तब तक पिता जी और बाकी लोगों ने भी वीरभद्र जी के कहने पर खाना खाया।
विवाह का शुभ मुहूर्त कुछ ही देर में आ गया तो मुझे अंदर मंडप में ले जाया गया। मेरी धड़कनें एकाएक ही बढ़ चलीं थी। मेरे मन में ख़याल उभरा कि अब मैं एक पति के रूप में अपनी भाभी के साथ मंडप में बैठने वाला हूं। इसके बाद से मेरा उनसे पुराना रिश्ता हमेशा हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। ज़ाहिर है इसके साथ ही उस रिश्ते के सारे एहसास और सारी मर्यादाएं भी समाप्त हो जाएंगी। उन सबकी जगह एक नया रिश्ता बन जाएगा और फिर उस नए रिश्ते के साथ ही नए एहसास और नए विचारों का जन्म हो जाएगा। ये सब सोचते ही मेरे समूचे जिस्म में एक अजीब सी सर्द लहर दौड़ गई। मुझे पता ही न चला कि कब मैं अंदर मंडप में आ गया। चौंका तब जब मामा ने मुझे हौले से पुकार कर बैठने को कहा।
मेरे आते ही आंगन में बैठी औरतों का गीत एक अलग ही तरह से गूंजने लगा। घर के बाहर बैंड बाजा वाले अपना काम किए जा रहे थे और अंदर औरतें मीठे मीठे गीत गाने में मगन थीं।
मेरे आसन पर बैठते ही दोनों तरफ के पंडित जी शुरू हो गए। उनके कहे अनुसार मैं क्रियाएं करने लगा। रागिनी भाभी को अभी बुलाया नहीं गया था। शायद थोड़ी पूजा के बाद ही उनका आगमन होना था। मेरा मन बार बार उनकी तरफ ही चला जाता था और मैं ये सोचने लगता था कि जब वो आएंगी और मेरे बगल से बैठ जाएंगी तब कैसा महसूस होगा मुझे? क्या उनका भी इस समय मेरे जैसा ही हाल होगा?
कुछ समय बाद आख़िर उन्हें भी बुलाया गया। थोड़ी ही देर में वो अंदर से आती दिखीं। ना चाहते हुए भी मेरी गर्दन घूम गई और मेरी नज़रें उन पर जा टिकीं। कई सारी लड़कियों से घिरी वो सोलह श्रृंगार किए धीरे धीरे चली आ रहीं थी। मैं अपलक उस सुंदरता की मूरत को देखता ही रह गया। तभी किसी ने मुझे मानों नींद से जगाया तो मैं एकदम से हड़बड़ा गया। पलट कर देखा तो रूपचंद्र मेरे पास ही बैठा मुस्करा रहा था।
"कम से कम सबके सामने तो दीदी को ऐसे न घूरो।" उसने धीमें से कहा____"वरना लोग सोचेंगे कि दूल्हा तो बड़ा बेशर्म है।"
मैं रूपचंद्र की इस बात से बुरी तरह झेंप गया। मुझे शर्मिंदगी भी महसूस हुई। मन ही मन सोचा कि सच ही तो कह रहा है वो। अगर मैं ऐसे ही अपलक उन्हें घूरता रहूंगा तो सच में लोग मुझे बेशर्म समझ बैठेंगे। वैसे भी ज़्यादातर लोगों को तो पता ही है कि मैं कैसे चरित्र का इंसान रहा हूं। बात अगर किसी और की होती तो शायद इतना कोई न सोचता मगर यहां बात उनकी है जिनसे मेरा देवर भाभी का रिश्ता था।
मेरी धड़कनें उस वक्त थम सी गईं जब उन सारी लड़कियों ने भाभी को ला कर मेरे बगल से बैठा दिया। उफ्फ! कितना अद्भुत एहसास था वो। अगर रूपा एक अद्भुत लड़की है तो इस वक्त रागिनी भाभी भी मेरे लिए अद्भुत ही लगने लगीं थी। मेरे बगल से उनके बैठ जाने से बड़ा अद्भुत एहसास होने लगा था मुझे। मेरा जी चाहा कि अपनी गर्दन को हल्का सा मोड़ कर उन्हें फिर से एक नज़र देख लूं मगर चाह कर भी मैं ऐसा करने की हिम्मत न जुटा सका। धाड़ धाड़ बजती धड़कनों की धमक किसी हथौड़े की तरह कानों में पड़ती सी महसूस हो रहीं थी। मेरे अंदर एक अजीब सी हलचल मच गई थी। मैंने खुद को बड़ी मुश्किल से सम्हाल कर सामान्य होने की कोशिश की।
एक तरफ औरतों के मधुर गीत तो दूसरी तरफ पंडितों के मंत्रोच्चार वातावरण में अलग ही नाद का आभास कराने लगे। बड़े भैया के विवाह के समय मैंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया था क्योंकि मैं लड़कियां ताड़ने में व्यस्त हो गया था लेकिन आज पता चल रहा था कि विवाह में कितनी सारी विधियां और कितने सारे रीति रिवाज़ होते हैं। रात आधी गुज़र गई थी किंतु विवाह अभी तक संपन्न न हुआ था। जाने कैसी कैसी विधियां और रस्में होती चली जा रहीं थी।
भाभी के पीछे ही उनकी छोटी बहन कामिनी और उनकी सहेली शालिनी बैठी हुई थी। बीच बीच में वो भाभी की चुनरी को ठीक करने लग जाती थीं। उनके पीछे औरतें बनरा बियाह जैसे गीत गाने में मशगूल थीं। उनके गाने ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। इधर मेरी तरफ थोड़ी पीछे कुसुम, सुमन और सुषमा बैठी सारी क्रियाएं देख रहीं थी। थोड़ी दूरी पर विभोर और अजीत भी बैठे हुए थे। रूपचंद्र उठ कर अमर मामा के पास चला गया था। अमर मामा औरतों के पास ही बैठे हुए थे और उनके गीतों का आनंद ले रहे थे।
रात भर जाने कैसी कैसी विधियां और रस्में हुईं। मैं और भाभी ख़ामोशी से पंडित के निर्देशों पर अपना कार्य एक साथ करते रहे।
उस वक्त सुबह होने लगी थी जब वीरेंद्र लावा परसने की रस्म के लिए आया। उसके हाथ में एक सूपा था और सूपे में कुछ चीज़ें पड़ीं थी। पंडित जी के निर्देशानुसार भाभी मेरे आगे खड़ी हो गईं और मैं उनके पीछे। उनके दोनों हाथ आगे की तरफ अंजुली की शक्ल में जुड़ गए थे। इधर पीछे से मुझे उनके हाथों की अंजुली के नीचे अपने हाथों की अंजुली बना कर रखनी थी। ख़ैर लावा परसना शुरू हुआ। वीरेंद्र सूपे से चीजें उठा कर भाभी की अंजुली में डालता, इधर भाभी पंडित के कहने पर अपनी अंजुली को नीचे की तरफ से खोल कर सारी चीज़ें मेरी अंजुली में गिरा देतीं और फिर मैं नीचे गिरा देता। यही प्रक्रिया काफी देर तक चलती रही। पीछे से मेरा पूरा जिस्म भाभी से सटा हुआ था और इस स्थिति में मुझे बड़ा अजीब भी लग रहा था। ख़ैर क्या कर सकता था, ये विधि अथवा रस्म ही ऐसी थी।
वीरभद्र जी ने कन्यादान वगैरह किया। फेरे हुए, सिंदूर चढ़ाया, मंगलसूत्र पहनाया मैंने। पंडित जी ने पति पत्नी के सात वचन बता कर हमसे क़बूल करवाया। सातों वचन क़बूल करने के बाद भाभी को मेरे बाएं तरफ बैठा दिया गया। यानि अब वो पूर्ण रूप से मेरी पत्नी बन चुकीं थी।
सुबह का उजाला होने लगा था। पांव पूजने की रस्म शुरू हो गई। पीतल की एक बड़ी सी परात में पीला पीला गाढ़ा सा थोड़ा पानी भरा हुआ था। उसके बीच आटे की गोलाकार मोटी सी लोई पड़ी थी, बीच में कुछ था उसके। बहरहाल, एक एक कर के सभी घर वाले हम दोनों का पांव पूजने आने लगे। अपने साथ कोई न कोई वस्तु भेंट अथवा दान करने के लिए भी लाते। तिलक लगाते, पांव पूजते, उपहार देते और फिर प्रणाम करके चले जाते। ऐसे ही सूरज निकलने तक चलता रहा।
विवाह संपन्न हुआ तो रागिनी को अंदर ले जाया गया। अमर मामा जब मुझे ले जाने लगे तो मैने देखा मेरे जूते ग़ायब हैं। विवाह के समय सालियां अपने जीजा के जूते चुराती थीं और वापस तभी करती थीं जब नेग के रूप में उनकी मनचाही मांग पूरी की जाती थी।
मैं समझ चुका था कि मेरे जूते कामिनी ने ही चुराए होंगे और अब वो मेरे जूते तभी लौटाएगी जब मैं उसकी मनचाही मांग पूरी करूंगा। कुसुम को शायद इस रस्म का पता था इस लिए वो अब मुझे देख मुस्कुराने लगी थी।
"भांजे कब तक चुपचाप खड़ा रहेगा?" अमर मामा ने मुझसे कहा____"अपने जूते मांग अपनी साली से।"
"क्या हुआ जीजा जी?" शालिनी भागती हुई आई और मुस्कुराते हुए बोली____"कुछ खो गया है क्या आपका?"
"अरे! आप भी यहीं हैं?" मैं शालिनी को देख चौंक सा गया था____"सारी रात कहां ग़ायब थीं आप?"
"मैं तो आपके बिल्कुल पास ही बैठी थी?" उसने मुस्कुराते हुए कहा____"अपनी सहेली रागिनी के ठीक पीछे। शायद आपने देखा ही नहीं।"
"हां शायद।" मैं हल्के से मुस्कुराया।
"देखते भी कैसे जनाब।" शालिनी ने मानों मुझे छेड़ा____"आप तो बस अपनी दुल्हन को ही देखने में व्यस्त थे। किसी और को तो तब देखते जब उसके जैसा कोई होता आस पास।"
"ऐसा कुछ नहीं है।" मैं थोड़ा झेंप गया____"ख़ैर ये तो बताइए कि मेरे जूते कौन ले गया है? मुझे जाना है यहां से। रात भर बैठा रहा हूं, सुबह की क्रिया के लिए जाना है अब।"
"अच्छा जी, ज़्यादा परेशानी वाली बात तो नहीं है ना?" शालिनी मुस्कुराई____"रही बात जूतों की तो वो कामिनी चुरा के ले गई है।"
"उनको बुलाइए।" मैंने कहा____"और कहिए कि मेरे जूते दे दें। चोरी करना अच्छी बात नहीं होती है।"
"दुनिया में यही एक रस्म है जीजा जी।" शालिनी ने कहा____"जिसमें चोरी करना बहुत अच्छा माना जाता है। ख़ैर अगर आपको अपने जूते वापस चाहिए तो मनचाहा नेग देना पड़ेगा आपको।"
"ठीक है।" मैंने कहा____"कामिनी को बुलाइए, उन्हें नेग दिया जाएगा।"
शालिनी ने खड़े खड़े ही कामिनी को आवाज़ दे कर बुला लिया। वो भागते हुए आई और मुझे मुस्कुराते हुए देखने लगी।
"क्या हुआ दीदी?" फिर उसने शालिनी से कहा____"किस लिए बुलाया है आपने मुझे?"
"जीजा जी अपने जूते मांग रहे हैं।" शालिनी ने उसे बताया____"और बदले में तुझे तेरा नेग भी देने को कह रहे हैं। अब तू बेझिझक हो के मांग ले इनसे जो तुझे चाहिए।"
"हां मांग लीजिए सरकार।" मैं मुस्कुराया____"आप तो वैसे भी मेरी पहली मोहब्बत हैं। आपके लिए तो जां हाज़िर है।"
"ज़्यादा फ़िज़ूल की बातें मत कीजिए।" कामिनी ने झूठी नाराज़गी दिखाई____"मुझे नेग के रूप में आपसे और तो कुछ नहीं चाहिए लेकिन हां एक वचन ज़रूर चाहिए। क्या आप दे सकते हैं?"
"बिल्कुल दे सकता हूं।" मैंने दृढ़ता से कहा____"आपने पहली बार मुझसे कुछ मांगा है तो यकीन मानिए मैं आपकी मांग ज़रूर पूरी करूंगा। कहिए कैसा वचन चाहिए आपको?"
"यही कि आप मेरी दीदी को हमेशा खुश रखेंगे।" कामिनी ने सहसा गंभीर हो कर कहा____"उन्हें कभी दुखी नहीं होने देंगे और बहुत सारा प्यार देंगे उनको। मुझे अपने नेग के रूप में आपसे इन्हीं बातों का वचन चाहिए।"
मैं देखता रह गया कामिनी को और मैं ही क्या बल्कि अमर मामा, कुसुम, सुमन, सुषमा, रूपचंद्र और यहां तक कि खुद शालिनी भी। मुझे कामिनी से ऐसी उम्मीद हर्गिज़ नहीं थी। अवाक् सा देखता रह गया था मैं।
"क्या हुआ जीजा जी?" जब मैं उसे देखता ही रहा तो वो जैसे मुझे होश में लाई____"क्या आप मुझे मेरा ऐसा नेग नहीं देंगे?"
"आपको मुझसे इस तरह का नेग मांगने की ज़रूरत नहीं थी कामिनी।" मैंने कहा____"क्योंकि मैं तो वैसे भी अपनी तरफ से यही करने वाला था लेकिन फिर भी अगर आप इन बातों का मुझसे वचन ही चाहती हैं तो ठीक है। मैं आपको वचन देता हूं कि मैं हमेशा आपकी दीदी को खुश रखूंगा। उन्हें कभी दुखी नहीं करूंगा और सच्चे दिल से उनसे प्रेम करूंगा।"
मेरा इतना कहना था कि कामिनी का चेहरा खुशी से चमक उठा लेकिन आंखें नम हो गईं उसकी। वो फ़ौरन ही पलटी और भागती हुई अंदर की तरफ चली गई। कुछ ही पलों में जब वो आई तो उसके हाथ में मेरे जूते थे। उसने जूतों को मेरे पैरों के पास रख दिया।
"ये रहे आपके जूते।" फिर उसने मुस्कुराते हुए कहा____"पहन लीजिए और ख़ुशी से जाइए।"
"आप बहुत अच्छी लड़की हैं कामिनी।" मैंने उससे कहा____"मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वो आपको हमेशा खुश रखे और आपको पति के रूप में एक ऐसा व्यक्ति मिले जो आपको अथाह प्रेम करे।"
"तुमने भले ही अपने जीजा से नेग के रूप में ये वचन लिया है बेटी।" अमर मामा ने अधीरता से कहा____"लेकिन तुम्हारी बातें हृदय को छू गई हैं। ऐसे शुभ अवसर पर हर रस्म और हर नेग का अपना महत्व होता है। अतः अपने भांजे की तरफ से मैं अपनी खुशी से तुम्हें ये कुछ रुपए देना चाहता हूं। इसे अन्यथा मत लेना बेटी, ये बस एक अच्छी लड़की के प्रति सच्ची भावना को ब्यक्त करने जैसा है।"
कहने के साथ ही मामा ने अपने पैंट की जेब से पचास के नोटों की एक गड्डी निकाल कर कामिनी की तरफ बढ़ा दिया। कामिनी थोड़ा झिझकी लेकिन फिर उसने हाथ बढ़ा कर वो गड्डी ले ली।
"आपने मुझे बेटी कहा और सच्ची भावना से दिया है।" फिर उसने कहा____"इस लिए मैं इन्हें आपसे न ले कर आपकी भावनाओं को आहत नहीं करूंगी।"
उसके बाद मैंने अपने जूते पहने और सबके साथ बाहर की तरफ चल पड़ा। कुछ ही समय में विदाई का कार्यक्रम शुरू हो जाने वाला था।
"मुझे तो लगा था कि तू अपने जीजा जी से बहुत कुछ मांगेगी।" शालिनी ने कामिनी से कहा____"लेकिन तूने तो ऐसी चीज़ मांग ली जिसके बारे में शायद ही किसी ने कल्पना की होगी। वैसे सच कहती हूं तूने जीजा जी से नेग में इस तरह का वचन मांग कर बहुत ही अद्भुत कार्य किया है। इससे ये भी पता चलता है कि तू अपनी दीदी को कितना चाहती है और उसकी कितनी फ़िक्र करती है। मुझे तुझ पर नाज़ है छोटी। ख़ैर चल आ जा, रागिनी को विदाई के लिए तैयार भी करना है।"
कामिनी उसके साथ खुशी खुशी अंदर की तरफ चली दी। विदाई के लिए हर कोई जल्दी जल्दी काम में लग गया था। पांव पूजन में बहुत सारा उपहार मिल गया था जिसे उठा कर बाहर रखा जा रहा था।
━━━━✮━━━━━━━━━━━✮━━━━
Behtareen update bro,अध्याय - 164
━━━━━━༻♥༺━━━━━━
सरला ने लपक कर मेरे लंड को मुंह में भर लिया और मेरा वीर्य पीने लगी। आनंद की चरम सीमा में पहुंचने के बाद मैं एकदम शांत पड़ गया। उधर सरला सारा वीर्य गटकने के बाद अब मेरे लंड को चाट रही थी। बड़ी की कौमुक और चुदक्कड़ औरत थी शायद।
अब आगे....
तीन दिन मानों पंख लगा कर उड़ गए और विवाह का दिन आ गया। हवेली किसी दुल्हन की तरह सजी हुई थी। पिता जी मानों सब कुछ भूल कर इस पल को जी लेना चाहते थे। तभी तो ठीक उसी तरह हवेली को सजवाया था जैसे बड़े भैया के विवाह के समय सजवाया था। थोड़ा भावुक से नज़र आ रहे थे वो, कदाचित बड़े बेटे का इसी तरह विवाह करना याद आ गया था उन्हें। मां का भी यही हाल था लेकिन वो किसी तरह अपने जज़्बातों को काबू में रखे हुए थीं।
एक तरफ मुझे सजाया जा रहा था। अमर मामा मुझे सजता देख बड़ा खुश थे। हर कोई खुश था। मेरी बहनें पहले से ही सज धज कर तैयार थीं और मेरे पास ही बैठी हुईं थी। कुसुम का बस चलता तो वो खुशी के मारे उछलने कूदने लगती लेकिन जाने कैसे खुद को रोक रखा उसने? विभोर और अजीत भी सज धज कर तैयार थे। दोनों के चेहरे खुशी से चमक रहे थे। हवेली के अंदर औरतें गीत गा रहीं थी।
हवेली के बाहर पहले से ही ढोल नगाड़े बज रहे थे। बारात में जाने के लिए काफी लोग जमा हो गए थे। पिता जी को पहले से ही पता था कि लोग ज़्यादा होंगे इस लिए शहर से उन्होंने एक बस गाड़ी बुला लिया था। मेरे लिए यानि दूल्हे के लिए एक चमचमाती एंबेसडर कार आ गई थी। हमारे पास पहले से ही चार जीपें थी। महेंद्र सिंह की दो जीपें थी, अर्जुन भी अपनी दो जीपें ले आए थे। वहीं अवधेश मामा और अमर मामा की जीपें भी थी। हवेली के विशाल मैदान में वाहन ही वाहन दिख रहे थे। पिता जी ने बारात में चलने के लिए रूपचंद्र और गौरी शंकर को भी निमंत्रण दिया था इस लिए वो भी आ गए थे। उनके घर से फूलवती और सुनैना देवी भी इस वक्त हवेली में मौजूद थी और सबके साथ गीत गा रहीं थी।
आख़िर शाम होने से पहले ही मुझे दूल्हा बना कर अंदर से बाहर लाया जाने लगा। औरतें गीत गा रहीं थी और धीरे धीरे मुझे बाहर ला रहीं थी। मैं आज दूल्हा बना हुआ था। मुझे इस तरह सजाया गया था कि जैसे ही मैं बाहर आया सबके सब मुझे ही देखते रह गए। अचानक ही वातावरण बंदूकों के तेज़ धमाकों से गूंजने लगा। सबसे पहले महेंद्र सिंह ने अपनी बंदूक की नाल ऊपर कर के मानों सलामी। उनके बाद ज्ञानेंद्र सिंह, अर्जुन सिंह, संजय सिंह। पिता जी की बंदूक बड़े मामा ले रखे थे इस लिए उन्होंने एक के बाद एक फायर किया। ढोल नगाड़ों का शोर कुछ और ज़्यादा होने लगा। रूपचंद्र मुझे देखते ही मेरे पास भाग कर आया। मुझे देख वो बड़ा खुश हुआ।
अमर मामा ने मुझे कार में बैठाया। मां और मेनका चाची मेरी आरती उतार कर मुझे तिलक करने लगीं। एकाएक फिर से वातावरण में शोर उठा। मैंने देखा कार के सामने अमर मामा नाचने लगे थे। ये देख एक एक कर के बाकी लोग भी नाचने लगे। थोड़ी देर बाद जब वो रुके तो मेरी मामियां नाचने लगीं। कुसुम, सुमन और सुषमा भी नाचने लगीं।
"भाभी श्री बेटे का विवाह होने जा रहा है आज।" सहसा महेंद्र सिंह मां के पास आ कर बोले____"इस शुभ अवसर पर आपको भी खुशी से नाचना चाहिए।"
"हां जी क्यों नहीं।" मां ने मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन आपको भी हमारे साथ नाचना होगा।"
"अरे! ये भी कोई कहने की बात है भला।" महेंद्र सिंह ने हंसते हुए कहा____"हम तो वैसे भी अपने मित्र के साथ नाचने का सोच चुके थे। आपके साथ नाचना तो हमारे लिए बड़े सौभाग्य की बात है।"
"अच्छा जी ऐसा है क्या?" मां मुस्कुराईं___"तो फिर चलिए। हम भी तो देखें कि आप हमारे साथ कितना उछलते हैं।"
सबने मां और महेंद्र सिंह की बातें सुन ली थी। इस लिए सब उन्हें ही देखने लगे थे। अर्जुन सिंह तेज़ी से आए और गाना बजाने वालों को रोक कर अच्छा सा गाना बजाने को कहा। फिर क्या था वो बजाने लगे। इधर जैसे ही गाना बजना शुरू हुआ तो मां आगे बढ़ीं और नाचने लगीं। उन्हें नाचता देख सभी औरतें लड़कियां आंखें फाड़ कर उन्हें देखने लगीं। महेंद्र सिंह मुस्कुराते हुए आगे बढ़े और मां के साथ वो भी नाचने लगे। ये देख अर्जुन सिंह वगैरह सब के सब खुशी से चीखने लगे। ज्ञानेंद्र सिंह आज अपने बड़े भाई साहब को इस तरह नाचते देख पहले तो हैरान हुआ फिर खुशी से तालियां बजाने लगा। पलक झपकते ही सबको पता चल गया कि हवेली की बड़ी ठकुराईन और महेंद्र सिंह नाच रहे हैं। इस लिए सब के सब उस जगह की तरफ भागते हुए आए।
मां और महेंद्र सिंह नाचने में लगे हुए थे। मां का तो ख़ैर समझ में भी आ रहा था लेकिन महेंद्र सिंह ऐसे ही उछल रहे थे। उन्हें ताल अथवा रिदम से कोई मतलब नहीं था। सहसा उनकी नज़र मेनका चाची पर पड़ी तो नाचते हुए एकाएक वो उनकी तरफ बढ़ चले। मेनका चाची ये देख चौंकी।
"मझली ठकुराईन आप इस तरह चुपचाप क्यों खड़ी हैं?" फिर उन्होंने चाची से कहा____"आप तो वैभव की चाची हैं। आपको भी तो इस खुशी के अवसर पर नाचना चाहिए, आइए न।"
मेनका चाची उनकी बात सुन कर घबरा सी गईं। घूंघट किए वो पिता जी की तरफ देखने लगीं। उनके पीछे खड़ी औरतें उन्हें पीछे से धकेलने लगीं और कहने कि आप भी नाचिए मझली ठकुराईन। पिता जी ने शायद इशारा कर दिया था इस लिए चाची ने पलट कर महेंद्र सिंह की तरफ देखा।
"आइए न ठकुराईन।" महेंद्र सिंह ने बड़े प्रेम भाव से कहा____"हमसे अब शर्माने की ज़रूरत नहीं है। हम तो वैसे भी आने वाले समय में एक नए रिश्ते में बंध जाएंगे। क्या आपको अभी भी हमारा प्रस्ताव मंज़ूर नहीं है?"
मेनका चाची बोली तो कुछ न लेकिन आगे ज़रूर बढ़ कर आ गईं। ये देख महेंद्र सिंह खुश हो गए। मां थोड़ी देर के लिए रुक गईं थी। शायद नाचने से उनकी सांसें फूल गईं थी। उधर जैसे ही चाची आगे आईं तो अर्जुन सिंह ने दूसरा गाना बजाने का हुकुम दिया। जैसे ही दूसरा गाना बजा महेंद्र सिंह ने खुद ही नाचना शुरू कर दिया। मैं कार में बैठा ये सब देख रहा था। सबको इस तरह नाचते देख मुझे भी अच्छा लग रहा था।
महेंद्र सिंह को नाचता देख चाची भी नाचने लगीं। ये देख विभोर और अजीत खुशी से झूम उठे। वो दोनों भी अपनी मां के साथ नाचने लगे। मैंने देखा मेनका चाची सच में बहुत अच्छा नाच रहीं थी। महेंद्र सिंह ने फिर से मां को बुला लिया तो मां भी आगे बढ़ कर नाचने लगीं। पिता जी दूर से ये सब देख रहे थे। उनके चेहरे पर भी खुशी के भाव थे। सहसा महेंद्र सिंह पलटे और जा कर पिता जी का हाथ पकड़ लिया।
"ठाकुर साहब।" फिर वो बोले____"आप भी आइए न। इस शुभ अवसर पर आज आपको भी नाचना पड़ेगा। कृपया इंकार मत कीजिएगा।"
पिता जी सच में इंकार नहीं कर सके। उन्होंने मुस्कुराते हुए हां कहा और फिर उन्होंने अर्जुन सिंह और संजय सिंह को भी बुला लिया। वो दोनों भी हंसते हुए आ गए। उसके बाद शुरू हुआ ठुमकना। ये देख हर कोई ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगा। एक बार फिर से वातावरण में बंदूकें गरज उठीं।
जीवन में आज पहली लोग दादा ठाकुर को नाचते हुए देख रहे थे। उनके लिए जैसे ये पल बड़ा ही अद्भुत था। देखते ही देखते मामा लोग और बाकी लोग भी नाच में शामिल हो गए। शेरा, भुवन और रूपचंद्र भी नाचने लगे। सच में अद्भुत नज़ारा दिखने लगा था।
आख़िर कुछ देर बाद सबका नाचना बंद हुआ। पिता जी ने कहा कि अब चलना चाहिए, आगे देवी मां के मंदिर में अभी पूजा भी करनी है। उनके कहने पर सब बाराती लोग वाहनों में बैठने लगे। कुछ ही देर में काफ़िला हाथी दरवाज़े की तरफ बढ़ चला। सभी औरतें भी गीत गाते हुए आने लगीं।
थोड़ी ही देर में हम सब मंदिर पहुंच गए। मामा जी के कहने पर मैं कार से उतरा और जूते उतार कर मंदिर की तरफ बढ़ चला। मंदिर में पूजा की मैंने, नारियल तोड़ा। थोड़ी देर वहां भी नाच गाना हुआ उसके बाद फिर से बारात चल पड़ी। कुसुम के साथ सुमन और सुषमा मेरी कार में मेरे साथ ही बैठ गईं थी। उनके साथ अमर मामा भी थे। सभी औरतें मंदिर से ही वापस हवेली लौट गईं जबकि हम सब चंदनपुर के लिए चल पड़े थे।
✮✮✮✮
चंदनपुर में भी कम रौनक नहीं थी। पूरा घर दुल्हन की तरह सजा हुआ था। घर के बाहर बड़े से मैदान में चारो तरफ चांदनी लगी हुई थी। चाचा ससुर का घर बगल से ही था इस लिए दोनों घरों के बीच जो लकड़ी की बाउंड्री होती थी उसे हटा कर चौगान को एक कर दिया गया था ताकि ना तो इधर से उधर आने जाने में समस्या हो और ना ही बारातियों को बैठने के लिए जगह कम पड़े। हर जगह चांदनी लगी हुई थी। मैदान अच्छे से साफ कर दिया गया था।
वीरेंद्र सिंह, बलवीर सिंह और वीर सिंह तीनों भागे भागे फिर रहे थे। उनकी ससुराल से आए लोग भी कामों में लगे हुए थे। सबको समझा दिया गया था कि बारात के आते ही क्या क्या करना है और कैसे कैसे करना है। सबसे पहले बारातियों का अच्छे से स्वागत करना है। जल पान, नाश्ता वगैरह देना है। ये सारी बातें कल से ही समझाई जा रहीं थी।
घर के अंदर आंगन में मंडप था जहां पर विवाह होना था। ढेर सारी औरतें अलग अलग कामों में लगी हुईं थी। एक तरफ बरातियों के लिए तरह तरह के पकवान बनाए जा रहे थे।
वहीं एक कमरे में रागिनी पलंग पर मेंहदी लगाए बैठी थी। उसके चारो तरफ लड़कियों की भीड़ थी। उन सबकी मुखिया मानों शालिनी थी। गांव की कुछ और लड़कियां आ गईं थी। सब रागिनी को चारो तरफ से घेरे हुए थीं और हंसी ठिठोली कर के रागिनी का बोलना बंद किए हुए थीं।
कामिनी बीच बीच में बाहर से आती और अपनी दीदी पर एक भरपूर नज़र डाल कर चली जाती। अपनी बड़ी बहन के लिए आज वो बहुत खुश थी। हमेशा शांत और गंभीर रहने वाली लड़की इन कुछ महीनों में बहुत बदल गई थी।
ऐसे ही हंसी खुशी वक्त गुज़रता रहा और शाम घिर गई। अंदर बाहर हर जगह बल्ब लगे हुए थे जो शाम होते ही जनरेटर के द्वारा रोशन हो उठे। रंग बिरंगी चांदनी बल्बों के रोशन हो जाने से जगमग जगमग करने लगी।
"क्या सोच रही हो रागिनी?" शालिनी ने पूछा____"देख अब तो बारात के आने समय भी होने लगा है। कुछ ही देर में तेरे दूल्हे राजा आ जाएंगे। आज रात तू उनकी पत्नी बन जाएगी और कल सुबह वो तुझे अपने साथ ले जाएंगे। उसके बाद वहां हवेली के उनके कमरे में तू उनके साथ....।"
"चुप कर बेशर्म।" रागिनी झट से बोल पड़ी____"जब देखो यही चलता रहता है तेरे मन में।"
"चल मान लिया कि मेरे मन में चलता रहता है लेकिन।" शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन अब तो तेरे मन में भी चलने ही लगा होगा। मुझे यकीन है सुहागरात के बारे में सोच सोच कर ही खुशी के लड्डू फूट रहे होंगे तेरे मन में।"
"मुझे अपनी तरह मत समझ तू।" रागिनी पहले तो शरमाई फिर घूरते हुए बोली____"मैं तेरे जैसी नहीं हूं जो हर वक्त एक ही बात सोचती रहूं।"
"अच्छा, ऐसे माहौल में इसके अलावा भी क्या कोई कुछ और सोचता है?" शालिनी ने कहा____"बड़ी आई शरीफ़जादी। सब समझती हूं मैं। तू जितना शरीफ बन रही है ना उतनी है नहीं।"
"तुझे जो समझना है समझ।" रागिनी ने बुरा सा मुंह बनाया____"तुझे समझाना ही बेकार है।"
"अच्छा छोड़ गुस्सा न कर।" शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा____"और ये बता कि तूने साफ सफ़ाई तो कर ली है ना?"
"स...साफ सफ़ाई?" रागिनी को जैसे समझ ना आया____"कैसी साफ सफ़ाई?"
"अरे! अंदर की साफ सफ़ाई।" शालिनी की मुस्कान गहरी हो गई____"मेरा मतलब है कि अपने जंगल की साफ सफ़ाई कर ली है ना तूने? पता चले जीजा जी जंगल में भटक जाएं और बाहर ही ना निकल पाएं।"
रागिनी को पहले तो समझ ना आया लेकिन फिर एकदम से उसके दिमाग़ की बत्ती जली। उसे बड़ा तेज़ झटका लगा। उसने आश्चर्य से आंखें फाड़ कर शालिनी को देखा।
"कुत्ती कमीनी।" फिर वो थोड़ा गुस्से से बोली____"क्या बकवास कर रही है ये?"
"अरे! ये बकवास नहीं है मेरी लाडो।" शालिनी हंसते हुए बोली____"बल्कि मैं तो तेरी अच्छी सहेली होने के नाते तुझे याद दिला रही हूं कि तूने अपनी सारी तैयारी कर ली है कि नहीं।"
"तू ना सच में बहुत बेशर्म हो गई है।" रागिनी ने उसे घूरते हुए कहा____"अब अपनी बकवास बंद कर और जा अपने घर।"
"अरे! मुझे क्यों भगा रही है?" शालिनी चौंकी____"कहीं अकेले में कुछ करने का तो नहीं सोच लिया है तूने?"
"कुछ भी मत बोल।" रागिनी ने कहा____"मैं अकेले में भला क्या करूंगी? वो तो मैं तुझे जाने को इस लिए कह रही हूं कि घर जा कर तू भी खुद को तैयार कर ले। उसके बाद क्या पता तुझे जाने का मौका मिले या न मिले।"
"तू मेरी चिंता मत कर।" शालिनी ने कहा____"सविता आने वाली है। उसके आते ही चली जाऊंगी।"
✮✮✮✮
उस वक्त शाम के क़रीब साढ़े सात बज रहे थे जब बारात चंदनपुर पहुंची। बारात के रुकने की व्यवस्था घर से कुछ ही दूरी पर कर दी गई थी अतः बारात वहीं पहुंच कर रुकी। वीरेंद्र सिंह और बलवीर सिंह फ़ौरन ही पहुंच गए सबको उचित जगह पर बैठाने के लिए। जनवासे में भी अच्छा खासा इंतज़ाम था।
बलवीर और वीरेंद्र दोनों ही सबको बैठाने के बाद जल पान करवाने लगे। मैं भी एक जगह बैठ गया था। मेरे पास मेरी बहनें थीं, अमर मामा थे, भुवन था और रूपचंद्र भी था। बड़े मामा का लड़का थोड़ी दूरी पर बैठा था। वो उमर में मुझसे काफी बड़ा था इस लिए उससे ज़्यादा मैं घुला मिला नहीं था। हालाकि वो मुझे छोटा भाई मान कर बहुत स्नेह देता था।
ख़ैर कुछ समय रुकने के बाद हम सब वहां से वीरेंद्र सिंह के घर की तरफ चल पड़े। मैं और मेरी बहनें फिर से कार में बैठ गए। कार के आगे बैंड बाजा वाले चलने लगे। मामा का लड़का रूपचंद्र के साथ मिल कर आतिशबाजियां करते हुए आगे आगे चलने लगा। बैंड बाजा वालों के बीच कई लोग नाचने भी लगे थे। इस चक्कर में चलने की रफ़्तार धीमी हो गई।
"वो देखिए भैया।" कार की पिछली सीट में बैठी कुसुम एकदम से बोल पड़ी____"लगता है भाभी का घर वहां पर है। देखिए कितना जगमग जगमग दिख रहा है वहां।"
कुसुम की खुशी और उत्साह में कही गई ये बात सुन कर मैं बरबस ही मुस्कुरा उठा। मेरी निगाह भी उस तरफ चली गई जहां पर कुसुम ने इशारा किया था। सचमुच रागिनी भाभी का घर काफी जगमग कर रहा था। मुझे याद आया कि इसी तरह बड़े भैया के विवाह के समय भी जगमग जगमग हो रहा था।
एकाएक ही भैया का ख़याल आ गया मुझे। आंखों के सामने उनका चेहरा उभर आया। मेरे अंदर अजीब सी अनुभूति हुई। मन में ख़याल उभरा कि ये ऊपर वाले का कैसा विचित्र खेल है कि जो मेरे बड़े भैया की पत्नी थीं आज मैं उन्हें ही अपनी पत्नी बनाने आया हूं। मन थोड़ा सा बोझिल हो गया। मैंने मन ही मन भैया से इसके लिए माफ़ी मांगी।
कुछ ही देर में आख़िर हम सब वीरेंद्र सिंह के घर पहुंच गए। वहां पहले से ही द्वार पर हमारे स्वागत के लिए सब घर वाले खड़े थे। मेरी कार चौगान के बाहर ही फूलों के द्वारा बनाए गए दरवाज़े के पास जा कर रुक गई थी। बाकी बाराती लोग आगे बढ़े। वहां स्वागत में खड़े लोग फूल माला पहना कर सबका स्वागत करने लगे। बलभद्र जी ने सबसे पहले पिता जी के गले में फूल माला डाल कर उनका स्वागत किया और तिलक लगाया। उनके बाद महेंद्र सिंह, मामा लोग आदि का इसी तरह स्वागत हुआ।
कुछ समय बाद भाभी के पिता यानि वीरभद्र सिंह हाथों में आरती की थाली लिए मेरे पास आए। अमर मामा ने कार का दरवाज़ा खोल दिया तो उन्होंने मेरी आरती उतार कर तिलक लगाया। मामा ने मुझे कार से बाहर आने का इशारा किया तो मैं चुपचाप आ गया। मेरे पीछे पीछे मेरी बहनें भी उतर आईं।
जब बड़े भैया का विवाह हुआ था तब इसी तरह वीरभद्र जी उन्हें लेने आए थे और फिर उन्हें अपनी गोद में उठा कर उस जगह तक ले गए थे जहां पर द्वारचार होना था।
"मेरी दिली इच्छा तो यही है महाराज कि आपको अपनी गोद में उठा कर ले चलूं।" फिर उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए भारी गले से कहा____"किंतु बात के चलते पांव में ताक़त नहीं है। इस लिए मुझे माफ़ करना महाराज, मैं आपको गोद में उठा कर नहीं ले जा सकूंगा। आपको अपने पैरों पर ही चल कर आना होगा।"
"कोई बात नहीं समधी जी।" अमर मामा प्रेम भाव से बोल पड़े____"कोई ज़रूरी नहीं कि गोद में दामाद को उठा कर ले जाने पर ही आपका प्रेम भाव दिखेगा। वो तो कैसे भी दिख सकता है। आप इस बात के लिए चिंतित न हों, मेरा भांजा अपने पैरों पर चल कर ही जाएगा।"
वीरभद्र जी ने कृतज्ञता से मामा को देखा और फिर हाथ जोड़ कर मुझे चलने को कहा तो मैं चल पड़ा। कुछ ही पलों में मैं उस जगह पर आ गया जहां पर द्वारचार और पूजा होनी थी। ढेर सारी औरतें और लड़कियां सिर पर कलशा लिए गाना गाने लगीं थी।
बहरहाल बड़े ही विधिवत तरीके से द्वारचार हुआ। कलशा ली हुई औरतों और लड़कियों को पिता जी ने उनका नेग दिया। उसके बाद मामा मुझे वापस ले गए। अगली विधि लड़की के चढ़ाव की थी जो घर के अंदर आंगन में मंडप के नीचे होती थी। तब तक यहां बारातियों का खाना पीना होता था। चढ़ाव के बाद दूल्हा अंदर जाता था और विवाह की शुभ लग्न में दुल्हन के साथ पूरे रीति रिवाज से दोनों का विवाह होता था।
बहरहाल द्वारचार के बाद बारातियों का खाना पीना शुरू हो गया था। उधर घर के अंदर मंडप के नीचे रागिनी भाभी का चढ़ाव होने लगा था। पिता जी, मामा लोग और महेंद्र सिंह सब वहीं बैठे थे। सबकी नज़रें भाभी पर टिकीं थी। रागिनी भाभी सिर झुकाए बैठी थीं। पंडित अपने मंत्र पढ़ रहे थे। नाउ और पंडित अलग अलग रीति रिवाज तथा विधि के अनुसार अपना काम कर रहे थे। पिता जी अपनी होने वाली बहू के लिए गहने लाए थे जिन्हें उन्होंने सौंप दिया था। आंगन में भारी मात्रा में बैठी औरतें एक साथ गाना गा रहीं थी।
चढ़ाव संपन्न हुआ तो बधू को उठा कर अंदर ले जाया गया। अब इसके बाद उस समय का इंतज़ार था जब विवाह के प्रारंभ होने का शुभ मुहूर्त आता। तब तक पिता जी और बाकी लोगों ने भी वीरभद्र जी के कहने पर खाना खाया।
विवाह का शुभ मुहूर्त कुछ ही देर में आ गया तो मुझे अंदर मंडप में ले जाया गया। मेरी धड़कनें एकाएक ही बढ़ चलीं थी। मेरे मन में ख़याल उभरा कि अब मैं एक पति के रूप में अपनी भाभी के साथ मंडप में बैठने वाला हूं। इसके बाद से मेरा उनसे पुराना रिश्ता हमेशा हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। ज़ाहिर है इसके साथ ही उस रिश्ते के सारे एहसास और सारी मर्यादाएं भी समाप्त हो जाएंगी। उन सबकी जगह एक नया रिश्ता बन जाएगा और फिर उस नए रिश्ते के साथ ही नए एहसास और नए विचारों का जन्म हो जाएगा। ये सब सोचते ही मेरे समूचे जिस्म में एक अजीब सी सर्द लहर दौड़ गई। मुझे पता ही न चला कि कब मैं अंदर मंडप में आ गया। चौंका तब जब मामा ने मुझे हौले से पुकार कर बैठने को कहा।
मेरे आते ही आंगन में बैठी औरतों का गीत एक अलग ही तरह से गूंजने लगा। घर के बाहर बैंड बाजा वाले अपना काम किए जा रहे थे और अंदर औरतें मीठे मीठे गीत गाने में मगन थीं।
मेरे आसन पर बैठते ही दोनों तरफ के पंडित जी शुरू हो गए। उनके कहे अनुसार मैं क्रियाएं करने लगा। रागिनी भाभी को अभी बुलाया नहीं गया था। शायद थोड़ी पूजा के बाद ही उनका आगमन होना था। मेरा मन बार बार उनकी तरफ ही चला जाता था और मैं ये सोचने लगता था कि जब वो आएंगी और मेरे बगल से बैठ जाएंगी तब कैसा महसूस होगा मुझे? क्या उनका भी इस समय मेरे जैसा ही हाल होगा?
कुछ समय बाद आख़िर उन्हें भी बुलाया गया। थोड़ी ही देर में वो अंदर से आती दिखीं। ना चाहते हुए भी मेरी गर्दन घूम गई और मेरी नज़रें उन पर जा टिकीं। कई सारी लड़कियों से घिरी वो सोलह श्रृंगार किए धीरे धीरे चली आ रहीं थी। मैं अपलक उस सुंदरता की मूरत को देखता ही रह गया। तभी किसी ने मुझे मानों नींद से जगाया तो मैं एकदम से हड़बड़ा गया। पलट कर देखा तो रूपचंद्र मेरे पास ही बैठा मुस्करा रहा था।
"कम से कम सबके सामने तो दीदी को ऐसे न घूरो।" उसने धीमें से कहा____"वरना लोग सोचेंगे कि दूल्हा तो बड़ा बेशर्म है।"
मैं रूपचंद्र की इस बात से बुरी तरह झेंप गया। मुझे शर्मिंदगी भी महसूस हुई। मन ही मन सोचा कि सच ही तो कह रहा है वो। अगर मैं ऐसे ही अपलक उन्हें घूरता रहूंगा तो सच में लोग मुझे बेशर्म समझ बैठेंगे। वैसे भी ज़्यादातर लोगों को तो पता ही है कि मैं कैसे चरित्र का इंसान रहा हूं। बात अगर किसी और की होती तो शायद इतना कोई न सोचता मगर यहां बात उनकी है जिनसे मेरा देवर भाभी का रिश्ता था।
मेरी धड़कनें उस वक्त थम सी गईं जब उन सारी लड़कियों ने भाभी को ला कर मेरे बगल से बैठा दिया। उफ्फ! कितना अद्भुत एहसास था वो। अगर रूपा एक अद्भुत लड़की है तो इस वक्त रागिनी भाभी भी मेरे लिए अद्भुत ही लगने लगीं थी। मेरे बगल से उनके बैठ जाने से बड़ा अद्भुत एहसास होने लगा था मुझे। मेरा जी चाहा कि अपनी गर्दन को हल्का सा मोड़ कर उन्हें फिर से एक नज़र देख लूं मगर चाह कर भी मैं ऐसा करने की हिम्मत न जुटा सका। धाड़ धाड़ बजती धड़कनों की धमक किसी हथौड़े की तरह कानों में पड़ती सी महसूस हो रहीं थी। मेरे अंदर एक अजीब सी हलचल मच गई थी। मैंने खुद को बड़ी मुश्किल से सम्हाल कर सामान्य होने की कोशिश की।
एक तरफ औरतों के मधुर गीत तो दूसरी तरफ पंडितों के मंत्रोच्चार वातावरण में अलग ही नाद का आभास कराने लगे। बड़े भैया के विवाह के समय मैंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया था क्योंकि मैं लड़कियां ताड़ने में व्यस्त हो गया था लेकिन आज पता चल रहा था कि विवाह में कितनी सारी विधियां और कितने सारे रीति रिवाज़ होते हैं। रात आधी गुज़र गई थी किंतु विवाह अभी तक संपन्न न हुआ था। जाने कैसी कैसी विधियां और रस्में होती चली जा रहीं थी।
भाभी के पीछे ही उनकी छोटी बहन कामिनी और उनकी सहेली शालिनी बैठी हुई थी। बीच बीच में वो भाभी की चुनरी को ठीक करने लग जाती थीं। उनके पीछे औरतें बनरा बियाह जैसे गीत गाने में मशगूल थीं। उनके गाने ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। इधर मेरी तरफ थोड़ी पीछे कुसुम, सुमन और सुषमा बैठी सारी क्रियाएं देख रहीं थी। थोड़ी दूरी पर विभोर और अजीत भी बैठे हुए थे। रूपचंद्र उठ कर अमर मामा के पास चला गया था। अमर मामा औरतों के पास ही बैठे हुए थे और उनके गीतों का आनंद ले रहे थे।
रात भर जाने कैसी कैसी विधियां और रस्में हुईं। मैं और भाभी ख़ामोशी से पंडित के निर्देशों पर अपना कार्य एक साथ करते रहे।
उस वक्त सुबह होने लगी थी जब वीरेंद्र लावा परसने की रस्म के लिए आया। उसके हाथ में एक सूपा था और सूपे में कुछ चीज़ें पड़ीं थी। पंडित जी के निर्देशानुसार भाभी मेरे आगे खड़ी हो गईं और मैं उनके पीछे। उनके दोनों हाथ आगे की तरफ अंजुली की शक्ल में जुड़ गए थे। इधर पीछे से मुझे उनके हाथों की अंजुली के नीचे अपने हाथों की अंजुली बना कर रखनी थी। ख़ैर लावा परसना शुरू हुआ। वीरेंद्र सूपे से चीजें उठा कर भाभी की अंजुली में डालता, इधर भाभी पंडित के कहने पर अपनी अंजुली को नीचे की तरफ से खोल कर सारी चीज़ें मेरी अंजुली में गिरा देतीं और फिर मैं नीचे गिरा देता। यही प्रक्रिया काफी देर तक चलती रही। पीछे से मेरा पूरा जिस्म भाभी से सटा हुआ था और इस स्थिति में मुझे बड़ा अजीब भी लग रहा था। ख़ैर क्या कर सकता था, ये विधि अथवा रस्म ही ऐसी थी।
वीरभद्र जी ने कन्यादान वगैरह किया। फेरे हुए, सिंदूर चढ़ाया, मंगलसूत्र पहनाया मैंने। पंडित जी ने पति पत्नी के सात वचन बता कर हमसे क़बूल करवाया। सातों वचन क़बूल करने के बाद भाभी को मेरे बाएं तरफ बैठा दिया गया। यानि अब वो पूर्ण रूप से मेरी पत्नी बन चुकीं थी।
सुबह का उजाला होने लगा था। पांव पूजने की रस्म शुरू हो गई। पीतल की एक बड़ी सी परात में पीला पीला गाढ़ा सा थोड़ा पानी भरा हुआ था। उसके बीच आटे की गोलाकार मोटी सी लोई पड़ी थी, बीच में कुछ था उसके। बहरहाल, एक एक कर के सभी घर वाले हम दोनों का पांव पूजने आने लगे। अपने साथ कोई न कोई वस्तु भेंट अथवा दान करने के लिए भी लाते। तिलक लगाते, पांव पूजते, उपहार देते और फिर प्रणाम करके चले जाते। ऐसे ही सूरज निकलने तक चलता रहा।
विवाह संपन्न हुआ तो रागिनी को अंदर ले जाया गया। अमर मामा जब मुझे ले जाने लगे तो मैने देखा मेरे जूते ग़ायब हैं। विवाह के समय सालियां अपने जीजा के जूते चुराती थीं और वापस तभी करती थीं जब नेग के रूप में उनकी मनचाही मांग पूरी की जाती थी।
मैं समझ चुका था कि मेरे जूते कामिनी ने ही चुराए होंगे और अब वो मेरे जूते तभी लौटाएगी जब मैं उसकी मनचाही मांग पूरी करूंगा। कुसुम को शायद इस रस्म का पता था इस लिए वो अब मुझे देख मुस्कुराने लगी थी।
"भांजे कब तक चुपचाप खड़ा रहेगा?" अमर मामा ने मुझसे कहा____"अपने जूते मांग अपनी साली से।"
"क्या हुआ जीजा जी?" शालिनी भागती हुई आई और मुस्कुराते हुए बोली____"कुछ खो गया है क्या आपका?"
"अरे! आप भी यहीं हैं?" मैं शालिनी को देख चौंक सा गया था____"सारी रात कहां ग़ायब थीं आप?"
"मैं तो आपके बिल्कुल पास ही बैठी थी?" उसने मुस्कुराते हुए कहा____"अपनी सहेली रागिनी के ठीक पीछे। शायद आपने देखा ही नहीं।"
"हां शायद।" मैं हल्के से मुस्कुराया।
"देखते भी कैसे जनाब।" शालिनी ने मानों मुझे छेड़ा____"आप तो बस अपनी दुल्हन को ही देखने में व्यस्त थे। किसी और को तो तब देखते जब उसके जैसा कोई होता आस पास।"
"ऐसा कुछ नहीं है।" मैं थोड़ा झेंप गया____"ख़ैर ये तो बताइए कि मेरे जूते कौन ले गया है? मुझे जाना है यहां से। रात भर बैठा रहा हूं, सुबह की क्रिया के लिए जाना है अब।"
"अच्छा जी, ज़्यादा परेशानी वाली बात तो नहीं है ना?" शालिनी मुस्कुराई____"रही बात जूतों की तो वो कामिनी चुरा के ले गई है।"
"उनको बुलाइए।" मैंने कहा____"और कहिए कि मेरे जूते दे दें। चोरी करना अच्छी बात नहीं होती है।"
"दुनिया में यही एक रस्म है जीजा जी।" शालिनी ने कहा____"जिसमें चोरी करना बहुत अच्छा माना जाता है। ख़ैर अगर आपको अपने जूते वापस चाहिए तो मनचाहा नेग देना पड़ेगा आपको।"
"ठीक है।" मैंने कहा____"कामिनी को बुलाइए, उन्हें नेग दिया जाएगा।"
शालिनी ने खड़े खड़े ही कामिनी को आवाज़ दे कर बुला लिया। वो भागते हुए आई और मुझे मुस्कुराते हुए देखने लगी।
"क्या हुआ दीदी?" फिर उसने शालिनी से कहा____"किस लिए बुलाया है आपने मुझे?"
"जीजा जी अपने जूते मांग रहे हैं।" शालिनी ने उसे बताया____"और बदले में तुझे तेरा नेग भी देने को कह रहे हैं। अब तू बेझिझक हो के मांग ले इनसे जो तुझे चाहिए।"
"हां मांग लीजिए सरकार।" मैं मुस्कुराया____"आप तो वैसे भी मेरी पहली मोहब्बत हैं। आपके लिए तो जां हाज़िर है।"
"ज़्यादा फ़िज़ूल की बातें मत कीजिए।" कामिनी ने झूठी नाराज़गी दिखाई____"मुझे नेग के रूप में आपसे और तो कुछ नहीं चाहिए लेकिन हां एक वचन ज़रूर चाहिए। क्या आप दे सकते हैं?"
"बिल्कुल दे सकता हूं।" मैंने दृढ़ता से कहा____"आपने पहली बार मुझसे कुछ मांगा है तो यकीन मानिए मैं आपकी मांग ज़रूर पूरी करूंगा। कहिए कैसा वचन चाहिए आपको?"
"यही कि आप मेरी दीदी को हमेशा खुश रखेंगे।" कामिनी ने सहसा गंभीर हो कर कहा____"उन्हें कभी दुखी नहीं होने देंगे और बहुत सारा प्यार देंगे उनको। मुझे अपने नेग के रूप में आपसे इन्हीं बातों का वचन चाहिए।"
मैं देखता रह गया कामिनी को और मैं ही क्या बल्कि अमर मामा, कुसुम, सुमन, सुषमा, रूपचंद्र और यहां तक कि खुद शालिनी भी। मुझे कामिनी से ऐसी उम्मीद हर्गिज़ नहीं थी। अवाक् सा देखता रह गया था मैं।
"क्या हुआ जीजा जी?" जब मैं उसे देखता ही रहा तो वो जैसे मुझे होश में लाई____"क्या आप मुझे मेरा ऐसा नेग नहीं देंगे?"
"आपको मुझसे इस तरह का नेग मांगने की ज़रूरत नहीं थी कामिनी।" मैंने कहा____"क्योंकि मैं तो वैसे भी अपनी तरफ से यही करने वाला था लेकिन फिर भी अगर आप इन बातों का मुझसे वचन ही चाहती हैं तो ठीक है। मैं आपको वचन देता हूं कि मैं हमेशा आपकी दीदी को खुश रखूंगा। उन्हें कभी दुखी नहीं करूंगा और सच्चे दिल से उनसे प्रेम करूंगा।"
मेरा इतना कहना था कि कामिनी का चेहरा खुशी से चमक उठा लेकिन आंखें नम हो गईं उसकी। वो फ़ौरन ही पलटी और भागती हुई अंदर की तरफ चली गई। कुछ ही पलों में जब वो आई तो उसके हाथ में मेरे जूते थे। उसने जूतों को मेरे पैरों के पास रख दिया।
"ये रहे आपके जूते।" फिर उसने मुस्कुराते हुए कहा____"पहन लीजिए और ख़ुशी से जाइए।"
"आप बहुत अच्छी लड़की हैं कामिनी।" मैंने उससे कहा____"मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वो आपको हमेशा खुश रखे और आपको पति के रूप में एक ऐसा व्यक्ति मिले जो आपको अथाह प्रेम करे।"
"तुमने भले ही अपने जीजा से नेग के रूप में ये वचन लिया है बेटी।" अमर मामा ने अधीरता से कहा____"लेकिन तुम्हारी बातें हृदय को छू गई हैं। ऐसे शुभ अवसर पर हर रस्म और हर नेग का अपना महत्व होता है। अतः अपने भांजे की तरफ से मैं अपनी खुशी से तुम्हें ये कुछ रुपए देना चाहता हूं। इसे अन्यथा मत लेना बेटी, ये बस एक अच्छी लड़की के प्रति सच्ची भावना को ब्यक्त करने जैसा है।"
कहने के साथ ही मामा ने अपने पैंट की जेब से पचास के नोटों की एक गड्डी निकाल कर कामिनी की तरफ बढ़ा दिया। कामिनी थोड़ा झिझकी लेकिन फिर उसने हाथ बढ़ा कर वो गड्डी ले ली।
"आपने मुझे बेटी कहा और सच्ची भावना से दिया है।" फिर उसने कहा____"इस लिए मैं इन्हें आपसे न ले कर आपकी भावनाओं को आहत नहीं करूंगी।"
उसके बाद मैंने अपने जूते पहने और सबके साथ बाहर की तरफ चल पड़ा। कुछ ही समय में विदाई का कार्यक्रम शुरू हो जाने वाला था।
"मुझे तो लगा था कि तू अपने जीजा जी से बहुत कुछ मांगेगी।" शालिनी ने कामिनी से कहा____"लेकिन तूने तो ऐसी चीज़ मांग ली जिसके बारे में शायद ही किसी ने कल्पना की होगी। वैसे सच कहती हूं तूने जीजा जी से नेग में इस तरह का वचन मांग कर बहुत ही अद्भुत कार्य किया है। इससे ये भी पता चलता है कि तू अपनी दीदी को कितना चाहती है और उसकी कितनी फ़िक्र करती है। मुझे तुझ पर नाज़ है छोटी। ख़ैर चल आ जा, रागिनी को विदाई के लिए तैयार भी करना है।"
कामिनी उसके साथ खुशी खुशी अंदर की तरफ चली दी। विदाई के लिए हर कोई जल्दी जल्दी काम में लग गया था। पांव पूजन में बहुत सारा उपहार मिल गया था जिसे उठा कर बाहर रखा जा रहा था।
━━━━✮━━━━━━━━━━━✮━━━━
अब तो वैभब की और रागिनी की सुहागरात का सीन होगा जिसका सभी पाठकों को बेसब्री से इंतजार थाअध्याय - 164
━━━━━━༻♥༺━━━━━━
सरला ने लपक कर मेरे लंड को मुंह में भर लिया और मेरा वीर्य पीने लगी। आनंद की चरम सीमा में पहुंचने के बाद मैं एकदम शांत पड़ गया। उधर सरला सारा वीर्य गटकने के बाद अब मेरे लंड को चाट रही थी। बड़ी की कौमुक और चुदक्कड़ औरत थी शायद।
अब आगे....
तीन दिन मानों पंख लगा कर उड़ गए और विवाह का दिन आ गया। हवेली किसी दुल्हन की तरह सजी हुई थी। पिता जी मानों सब कुछ भूल कर इस पल को जी लेना चाहते थे। तभी तो ठीक उसी तरह हवेली को सजवाया था जैसे बड़े भैया के विवाह के समय सजवाया था। थोड़ा भावुक से नज़र आ रहे थे वो, कदाचित बड़े बेटे का इसी तरह विवाह करना याद आ गया था उन्हें। मां का भी यही हाल था लेकिन वो किसी तरह अपने जज़्बातों को काबू में रखे हुए थीं।
एक तरफ मुझे सजाया जा रहा था। अमर मामा मुझे सजता देख बड़ा खुश थे। हर कोई खुश था। मेरी बहनें पहले से ही सज धज कर तैयार थीं और मेरे पास ही बैठी हुईं थी। कुसुम का बस चलता तो वो खुशी के मारे उछलने कूदने लगती लेकिन जाने कैसे खुद को रोक रखा उसने? विभोर और अजीत भी सज धज कर तैयार थे। दोनों के चेहरे खुशी से चमक रहे थे। हवेली के अंदर औरतें गीत गा रहीं थी।
हवेली के बाहर पहले से ही ढोल नगाड़े बज रहे थे। बारात में जाने के लिए काफी लोग जमा हो गए थे। पिता जी को पहले से ही पता था कि लोग ज़्यादा होंगे इस लिए शहर से उन्होंने एक बस गाड़ी बुला लिया था। मेरे लिए यानि दूल्हे के लिए एक चमचमाती एंबेसडर कार आ गई थी। हमारे पास पहले से ही चार जीपें थी। महेंद्र सिंह की दो जीपें थी, अर्जुन भी अपनी दो जीपें ले आए थे। वहीं अवधेश मामा और अमर मामा की जीपें भी थी। हवेली के विशाल मैदान में वाहन ही वाहन दिख रहे थे। पिता जी ने बारात में चलने के लिए रूपचंद्र और गौरी शंकर को भी निमंत्रण दिया था इस लिए वो भी आ गए थे। उनके घर से फूलवती और सुनैना देवी भी इस वक्त हवेली में मौजूद थी और सबके साथ गीत गा रहीं थी।
आख़िर शाम होने से पहले ही मुझे दूल्हा बना कर अंदर से बाहर लाया जाने लगा। औरतें गीत गा रहीं थी और धीरे धीरे मुझे बाहर ला रहीं थी। मैं आज दूल्हा बना हुआ था। मुझे इस तरह सजाया गया था कि जैसे ही मैं बाहर आया सबके सब मुझे ही देखते रह गए। अचानक ही वातावरण बंदूकों के तेज़ धमाकों से गूंजने लगा। सबसे पहले महेंद्र सिंह ने अपनी बंदूक की नाल ऊपर कर के मानों सलामी। उनके बाद ज्ञानेंद्र सिंह, अर्जुन सिंह, संजय सिंह। पिता जी की बंदूक बड़े मामा ले रखे थे इस लिए उन्होंने एक के बाद एक फायर किया। ढोल नगाड़ों का शोर कुछ और ज़्यादा होने लगा। रूपचंद्र मुझे देखते ही मेरे पास भाग कर आया। मुझे देख वो बड़ा खुश हुआ।
अमर मामा ने मुझे कार में बैठाया। मां और मेनका चाची मेरी आरती उतार कर मुझे तिलक करने लगीं। एकाएक फिर से वातावरण में शोर उठा। मैंने देखा कार के सामने अमर मामा नाचने लगे थे। ये देख एक एक कर के बाकी लोग भी नाचने लगे। थोड़ी देर बाद जब वो रुके तो मेरी मामियां नाचने लगीं। कुसुम, सुमन और सुषमा भी नाचने लगीं।
"भाभी श्री बेटे का विवाह होने जा रहा है आज।" सहसा महेंद्र सिंह मां के पास आ कर बोले____"इस शुभ अवसर पर आपको भी खुशी से नाचना चाहिए।"
"हां जी क्यों नहीं।" मां ने मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन आपको भी हमारे साथ नाचना होगा।"
"अरे! ये भी कोई कहने की बात है भला।" महेंद्र सिंह ने हंसते हुए कहा____"हम तो वैसे भी अपने मित्र के साथ नाचने का सोच चुके थे। आपके साथ नाचना तो हमारे लिए बड़े सौभाग्य की बात है।"
"अच्छा जी ऐसा है क्या?" मां मुस्कुराईं___"तो फिर चलिए। हम भी तो देखें कि आप हमारे साथ कितना उछलते हैं।"
सबने मां और महेंद्र सिंह की बातें सुन ली थी। इस लिए सब उन्हें ही देखने लगे थे। अर्जुन सिंह तेज़ी से आए और गाना बजाने वालों को रोक कर अच्छा सा गाना बजाने को कहा। फिर क्या था वो बजाने लगे। इधर जैसे ही गाना बजना शुरू हुआ तो मां आगे बढ़ीं और नाचने लगीं। उन्हें नाचता देख सभी औरतें लड़कियां आंखें फाड़ कर उन्हें देखने लगीं। महेंद्र सिंह मुस्कुराते हुए आगे बढ़े और मां के साथ वो भी नाचने लगे। ये देख अर्जुन सिंह वगैरह सब के सब खुशी से चीखने लगे। ज्ञानेंद्र सिंह आज अपने बड़े भाई साहब को इस तरह नाचते देख पहले तो हैरान हुआ फिर खुशी से तालियां बजाने लगा। पलक झपकते ही सबको पता चल गया कि हवेली की बड़ी ठकुराईन और महेंद्र सिंह नाच रहे हैं। इस लिए सब के सब उस जगह की तरफ भागते हुए आए।
मां और महेंद्र सिंह नाचने में लगे हुए थे। मां का तो ख़ैर समझ में भी आ रहा था लेकिन महेंद्र सिंह ऐसे ही उछल रहे थे। उन्हें ताल अथवा रिदम से कोई मतलब नहीं था। सहसा उनकी नज़र मेनका चाची पर पड़ी तो नाचते हुए एकाएक वो उनकी तरफ बढ़ चले। मेनका चाची ये देख चौंकी।
"मझली ठकुराईन आप इस तरह चुपचाप क्यों खड़ी हैं?" फिर उन्होंने चाची से कहा____"आप तो वैभव की चाची हैं। आपको भी तो इस खुशी के अवसर पर नाचना चाहिए, आइए न।"
मेनका चाची उनकी बात सुन कर घबरा सी गईं। घूंघट किए वो पिता जी की तरफ देखने लगीं। उनके पीछे खड़ी औरतें उन्हें पीछे से धकेलने लगीं और कहने कि आप भी नाचिए मझली ठकुराईन। पिता जी ने शायद इशारा कर दिया था इस लिए चाची ने पलट कर महेंद्र सिंह की तरफ देखा।
"आइए न ठकुराईन।" महेंद्र सिंह ने बड़े प्रेम भाव से कहा____"हमसे अब शर्माने की ज़रूरत नहीं है। हम तो वैसे भी आने वाले समय में एक नए रिश्ते में बंध जाएंगे। क्या आपको अभी भी हमारा प्रस्ताव मंज़ूर नहीं है?"
मेनका चाची बोली तो कुछ न लेकिन आगे ज़रूर बढ़ कर आ गईं। ये देख महेंद्र सिंह खुश हो गए। मां थोड़ी देर के लिए रुक गईं थी। शायद नाचने से उनकी सांसें फूल गईं थी। उधर जैसे ही चाची आगे आईं तो अर्जुन सिंह ने दूसरा गाना बजाने का हुकुम दिया। जैसे ही दूसरा गाना बजा महेंद्र सिंह ने खुद ही नाचना शुरू कर दिया। मैं कार में बैठा ये सब देख रहा था। सबको इस तरह नाचते देख मुझे भी अच्छा लग रहा था।
महेंद्र सिंह को नाचता देख चाची भी नाचने लगीं। ये देख विभोर और अजीत खुशी से झूम उठे। वो दोनों भी अपनी मां के साथ नाचने लगे। मैंने देखा मेनका चाची सच में बहुत अच्छा नाच रहीं थी। महेंद्र सिंह ने फिर से मां को बुला लिया तो मां भी आगे बढ़ कर नाचने लगीं। पिता जी दूर से ये सब देख रहे थे। उनके चेहरे पर भी खुशी के भाव थे। सहसा महेंद्र सिंह पलटे और जा कर पिता जी का हाथ पकड़ लिया।
"ठाकुर साहब।" फिर वो बोले____"आप भी आइए न। इस शुभ अवसर पर आज आपको भी नाचना पड़ेगा। कृपया इंकार मत कीजिएगा।"
पिता जी सच में इंकार नहीं कर सके। उन्होंने मुस्कुराते हुए हां कहा और फिर उन्होंने अर्जुन सिंह और संजय सिंह को भी बुला लिया। वो दोनों भी हंसते हुए आ गए। उसके बाद शुरू हुआ ठुमकना। ये देख हर कोई ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगा। एक बार फिर से वातावरण में बंदूकें गरज उठीं।
जीवन में आज पहली लोग दादा ठाकुर को नाचते हुए देख रहे थे। उनके लिए जैसे ये पल बड़ा ही अद्भुत था। देखते ही देखते मामा लोग और बाकी लोग भी नाच में शामिल हो गए। शेरा, भुवन और रूपचंद्र भी नाचने लगे। सच में अद्भुत नज़ारा दिखने लगा था।
आख़िर कुछ देर बाद सबका नाचना बंद हुआ। पिता जी ने कहा कि अब चलना चाहिए, आगे देवी मां के मंदिर में अभी पूजा भी करनी है। उनके कहने पर सब बाराती लोग वाहनों में बैठने लगे। कुछ ही देर में काफ़िला हाथी दरवाज़े की तरफ बढ़ चला। सभी औरतें भी गीत गाते हुए आने लगीं।
थोड़ी ही देर में हम सब मंदिर पहुंच गए। मामा जी के कहने पर मैं कार से उतरा और जूते उतार कर मंदिर की तरफ बढ़ चला। मंदिर में पूजा की मैंने, नारियल तोड़ा। थोड़ी देर वहां भी नाच गाना हुआ उसके बाद फिर से बारात चल पड़ी। कुसुम के साथ सुमन और सुषमा मेरी कार में मेरे साथ ही बैठ गईं थी। उनके साथ अमर मामा भी थे। सभी औरतें मंदिर से ही वापस हवेली लौट गईं जबकि हम सब चंदनपुर के लिए चल पड़े थे।
✮✮✮✮
चंदनपुर में भी कम रौनक नहीं थी। पूरा घर दुल्हन की तरह सजा हुआ था। घर के बाहर बड़े से मैदान में चारो तरफ चांदनी लगी हुई थी। चाचा ससुर का घर बगल से ही था इस लिए दोनों घरों के बीच जो लकड़ी की बाउंड्री होती थी उसे हटा कर चौगान को एक कर दिया गया था ताकि ना तो इधर से उधर आने जाने में समस्या हो और ना ही बारातियों को बैठने के लिए जगह कम पड़े। हर जगह चांदनी लगी हुई थी। मैदान अच्छे से साफ कर दिया गया था।
वीरेंद्र सिंह, बलवीर सिंह और वीर सिंह तीनों भागे भागे फिर रहे थे। उनकी ससुराल से आए लोग भी कामों में लगे हुए थे। सबको समझा दिया गया था कि बारात के आते ही क्या क्या करना है और कैसे कैसे करना है। सबसे पहले बारातियों का अच्छे से स्वागत करना है। जल पान, नाश्ता वगैरह देना है। ये सारी बातें कल से ही समझाई जा रहीं थी।
घर के अंदर आंगन में मंडप था जहां पर विवाह होना था। ढेर सारी औरतें अलग अलग कामों में लगी हुईं थी। एक तरफ बरातियों के लिए तरह तरह के पकवान बनाए जा रहे थे।
वहीं एक कमरे में रागिनी पलंग पर मेंहदी लगाए बैठी थी। उसके चारो तरफ लड़कियों की भीड़ थी। उन सबकी मुखिया मानों शालिनी थी। गांव की कुछ और लड़कियां आ गईं थी। सब रागिनी को चारो तरफ से घेरे हुए थीं और हंसी ठिठोली कर के रागिनी का बोलना बंद किए हुए थीं।
कामिनी बीच बीच में बाहर से आती और अपनी दीदी पर एक भरपूर नज़र डाल कर चली जाती। अपनी बड़ी बहन के लिए आज वो बहुत खुश थी। हमेशा शांत और गंभीर रहने वाली लड़की इन कुछ महीनों में बहुत बदल गई थी।
ऐसे ही हंसी खुशी वक्त गुज़रता रहा और शाम घिर गई। अंदर बाहर हर जगह बल्ब लगे हुए थे जो शाम होते ही जनरेटर के द्वारा रोशन हो उठे। रंग बिरंगी चांदनी बल्बों के रोशन हो जाने से जगमग जगमग करने लगी।
"क्या सोच रही हो रागिनी?" शालिनी ने पूछा____"देख अब तो बारात के आने समय भी होने लगा है। कुछ ही देर में तेरे दूल्हे राजा आ जाएंगे। आज रात तू उनकी पत्नी बन जाएगी और कल सुबह वो तुझे अपने साथ ले जाएंगे। उसके बाद वहां हवेली के उनके कमरे में तू उनके साथ....।"
"चुप कर बेशर्म।" रागिनी झट से बोल पड़ी____"जब देखो यही चलता रहता है तेरे मन में।"
"चल मान लिया कि मेरे मन में चलता रहता है लेकिन।" शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन अब तो तेरे मन में भी चलने ही लगा होगा। मुझे यकीन है सुहागरात के बारे में सोच सोच कर ही खुशी के लड्डू फूट रहे होंगे तेरे मन में।"
"मुझे अपनी तरह मत समझ तू।" रागिनी पहले तो शरमाई फिर घूरते हुए बोली____"मैं तेरे जैसी नहीं हूं जो हर वक्त एक ही बात सोचती रहूं।"
"अच्छा, ऐसे माहौल में इसके अलावा भी क्या कोई कुछ और सोचता है?" शालिनी ने कहा____"बड़ी आई शरीफ़जादी। सब समझती हूं मैं। तू जितना शरीफ बन रही है ना उतनी है नहीं।"
"तुझे जो समझना है समझ।" रागिनी ने बुरा सा मुंह बनाया____"तुझे समझाना ही बेकार है।"
"अच्छा छोड़ गुस्सा न कर।" शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा____"और ये बता कि तूने साफ सफ़ाई तो कर ली है ना?"
"स...साफ सफ़ाई?" रागिनी को जैसे समझ ना आया____"कैसी साफ सफ़ाई?"
"अरे! अंदर की साफ सफ़ाई।" शालिनी की मुस्कान गहरी हो गई____"मेरा मतलब है कि अपने जंगल की साफ सफ़ाई कर ली है ना तूने? पता चले जीजा जी जंगल में भटक जाएं और बाहर ही ना निकल पाएं।"
रागिनी को पहले तो समझ ना आया लेकिन फिर एकदम से उसके दिमाग़ की बत्ती जली। उसे बड़ा तेज़ झटका लगा। उसने आश्चर्य से आंखें फाड़ कर शालिनी को देखा।
"कुत्ती कमीनी।" फिर वो थोड़ा गुस्से से बोली____"क्या बकवास कर रही है ये?"
"अरे! ये बकवास नहीं है मेरी लाडो।" शालिनी हंसते हुए बोली____"बल्कि मैं तो तेरी अच्छी सहेली होने के नाते तुझे याद दिला रही हूं कि तूने अपनी सारी तैयारी कर ली है कि नहीं।"
"तू ना सच में बहुत बेशर्म हो गई है।" रागिनी ने उसे घूरते हुए कहा____"अब अपनी बकवास बंद कर और जा अपने घर।"
"अरे! मुझे क्यों भगा रही है?" शालिनी चौंकी____"कहीं अकेले में कुछ करने का तो नहीं सोच लिया है तूने?"
"कुछ भी मत बोल।" रागिनी ने कहा____"मैं अकेले में भला क्या करूंगी? वो तो मैं तुझे जाने को इस लिए कह रही हूं कि घर जा कर तू भी खुद को तैयार कर ले। उसके बाद क्या पता तुझे जाने का मौका मिले या न मिले।"
"तू मेरी चिंता मत कर।" शालिनी ने कहा____"सविता आने वाली है। उसके आते ही चली जाऊंगी।"
✮✮✮✮
उस वक्त शाम के क़रीब साढ़े सात बज रहे थे जब बारात चंदनपुर पहुंची। बारात के रुकने की व्यवस्था घर से कुछ ही दूरी पर कर दी गई थी अतः बारात वहीं पहुंच कर रुकी। वीरेंद्र सिंह और बलवीर सिंह फ़ौरन ही पहुंच गए सबको उचित जगह पर बैठाने के लिए। जनवासे में भी अच्छा खासा इंतज़ाम था।
बलवीर और वीरेंद्र दोनों ही सबको बैठाने के बाद जल पान करवाने लगे। मैं भी एक जगह बैठ गया था। मेरे पास मेरी बहनें थीं, अमर मामा थे, भुवन था और रूपचंद्र भी था। बड़े मामा का लड़का थोड़ी दूरी पर बैठा था। वो उमर में मुझसे काफी बड़ा था इस लिए उससे ज़्यादा मैं घुला मिला नहीं था। हालाकि वो मुझे छोटा भाई मान कर बहुत स्नेह देता था।
ख़ैर कुछ समय रुकने के बाद हम सब वहां से वीरेंद्र सिंह के घर की तरफ चल पड़े। मैं और मेरी बहनें फिर से कार में बैठ गए। कार के आगे बैंड बाजा वाले चलने लगे। मामा का लड़का रूपचंद्र के साथ मिल कर आतिशबाजियां करते हुए आगे आगे चलने लगा। बैंड बाजा वालों के बीच कई लोग नाचने भी लगे थे। इस चक्कर में चलने की रफ़्तार धीमी हो गई।
"वो देखिए भैया।" कार की पिछली सीट में बैठी कुसुम एकदम से बोल पड़ी____"लगता है भाभी का घर वहां पर है। देखिए कितना जगमग जगमग दिख रहा है वहां।"
कुसुम की खुशी और उत्साह में कही गई ये बात सुन कर मैं बरबस ही मुस्कुरा उठा। मेरी निगाह भी उस तरफ चली गई जहां पर कुसुम ने इशारा किया था। सचमुच रागिनी भाभी का घर काफी जगमग कर रहा था। मुझे याद आया कि इसी तरह बड़े भैया के विवाह के समय भी जगमग जगमग हो रहा था।
एकाएक ही भैया का ख़याल आ गया मुझे। आंखों के सामने उनका चेहरा उभर आया। मेरे अंदर अजीब सी अनुभूति हुई। मन में ख़याल उभरा कि ये ऊपर वाले का कैसा विचित्र खेल है कि जो मेरे बड़े भैया की पत्नी थीं आज मैं उन्हें ही अपनी पत्नी बनाने आया हूं। मन थोड़ा सा बोझिल हो गया। मैंने मन ही मन भैया से इसके लिए माफ़ी मांगी।
कुछ ही देर में आख़िर हम सब वीरेंद्र सिंह के घर पहुंच गए। वहां पहले से ही द्वार पर हमारे स्वागत के लिए सब घर वाले खड़े थे। मेरी कार चौगान के बाहर ही फूलों के द्वारा बनाए गए दरवाज़े के पास जा कर रुक गई थी। बाकी बाराती लोग आगे बढ़े। वहां स्वागत में खड़े लोग फूल माला पहना कर सबका स्वागत करने लगे। बलभद्र जी ने सबसे पहले पिता जी के गले में फूल माला डाल कर उनका स्वागत किया और तिलक लगाया। उनके बाद महेंद्र सिंह, मामा लोग आदि का इसी तरह स्वागत हुआ।
कुछ समय बाद भाभी के पिता यानि वीरभद्र सिंह हाथों में आरती की थाली लिए मेरे पास आए। अमर मामा ने कार का दरवाज़ा खोल दिया तो उन्होंने मेरी आरती उतार कर तिलक लगाया। मामा ने मुझे कार से बाहर आने का इशारा किया तो मैं चुपचाप आ गया। मेरे पीछे पीछे मेरी बहनें भी उतर आईं।
जब बड़े भैया का विवाह हुआ था तब इसी तरह वीरभद्र जी उन्हें लेने आए थे और फिर उन्हें अपनी गोद में उठा कर उस जगह तक ले गए थे जहां पर द्वारचार होना था।
"मेरी दिली इच्छा तो यही है महाराज कि आपको अपनी गोद में उठा कर ले चलूं।" फिर उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए भारी गले से कहा____"किंतु बात के चलते पांव में ताक़त नहीं है। इस लिए मुझे माफ़ करना महाराज, मैं आपको गोद में उठा कर नहीं ले जा सकूंगा। आपको अपने पैरों पर ही चल कर आना होगा।"
"कोई बात नहीं समधी जी।" अमर मामा प्रेम भाव से बोल पड़े____"कोई ज़रूरी नहीं कि गोद में दामाद को उठा कर ले जाने पर ही आपका प्रेम भाव दिखेगा। वो तो कैसे भी दिख सकता है। आप इस बात के लिए चिंतित न हों, मेरा भांजा अपने पैरों पर चल कर ही जाएगा।"
वीरभद्र जी ने कृतज्ञता से मामा को देखा और फिर हाथ जोड़ कर मुझे चलने को कहा तो मैं चल पड़ा। कुछ ही पलों में मैं उस जगह पर आ गया जहां पर द्वारचार और पूजा होनी थी। ढेर सारी औरतें और लड़कियां सिर पर कलशा लिए गाना गाने लगीं थी।
बहरहाल बड़े ही विधिवत तरीके से द्वारचार हुआ। कलशा ली हुई औरतों और लड़कियों को पिता जी ने उनका नेग दिया। उसके बाद मामा मुझे वापस ले गए। अगली विधि लड़की के चढ़ाव की थी जो घर के अंदर आंगन में मंडप के नीचे होती थी। तब तक यहां बारातियों का खाना पीना होता था। चढ़ाव के बाद दूल्हा अंदर जाता था और विवाह की शुभ लग्न में दुल्हन के साथ पूरे रीति रिवाज से दोनों का विवाह होता था।
बहरहाल द्वारचार के बाद बारातियों का खाना पीना शुरू हो गया था। उधर घर के अंदर मंडप के नीचे रागिनी भाभी का चढ़ाव होने लगा था। पिता जी, मामा लोग और महेंद्र सिंह सब वहीं बैठे थे। सबकी नज़रें भाभी पर टिकीं थी। रागिनी भाभी सिर झुकाए बैठी थीं। पंडित अपने मंत्र पढ़ रहे थे। नाउ और पंडित अलग अलग रीति रिवाज तथा विधि के अनुसार अपना काम कर रहे थे। पिता जी अपनी होने वाली बहू के लिए गहने लाए थे जिन्हें उन्होंने सौंप दिया था। आंगन में भारी मात्रा में बैठी औरतें एक साथ गाना गा रहीं थी।
चढ़ाव संपन्न हुआ तो बधू को उठा कर अंदर ले जाया गया। अब इसके बाद उस समय का इंतज़ार था जब विवाह के प्रारंभ होने का शुभ मुहूर्त आता। तब तक पिता जी और बाकी लोगों ने भी वीरभद्र जी के कहने पर खाना खाया।
विवाह का शुभ मुहूर्त कुछ ही देर में आ गया तो मुझे अंदर मंडप में ले जाया गया। मेरी धड़कनें एकाएक ही बढ़ चलीं थी। मेरे मन में ख़याल उभरा कि अब मैं एक पति के रूप में अपनी भाभी के साथ मंडप में बैठने वाला हूं। इसके बाद से मेरा उनसे पुराना रिश्ता हमेशा हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। ज़ाहिर है इसके साथ ही उस रिश्ते के सारे एहसास और सारी मर्यादाएं भी समाप्त हो जाएंगी। उन सबकी जगह एक नया रिश्ता बन जाएगा और फिर उस नए रिश्ते के साथ ही नए एहसास और नए विचारों का जन्म हो जाएगा। ये सब सोचते ही मेरे समूचे जिस्म में एक अजीब सी सर्द लहर दौड़ गई। मुझे पता ही न चला कि कब मैं अंदर मंडप में आ गया। चौंका तब जब मामा ने मुझे हौले से पुकार कर बैठने को कहा।
मेरे आते ही आंगन में बैठी औरतों का गीत एक अलग ही तरह से गूंजने लगा। घर के बाहर बैंड बाजा वाले अपना काम किए जा रहे थे और अंदर औरतें मीठे मीठे गीत गाने में मगन थीं।
मेरे आसन पर बैठते ही दोनों तरफ के पंडित जी शुरू हो गए। उनके कहे अनुसार मैं क्रियाएं करने लगा। रागिनी भाभी को अभी बुलाया नहीं गया था। शायद थोड़ी पूजा के बाद ही उनका आगमन होना था। मेरा मन बार बार उनकी तरफ ही चला जाता था और मैं ये सोचने लगता था कि जब वो आएंगी और मेरे बगल से बैठ जाएंगी तब कैसा महसूस होगा मुझे? क्या उनका भी इस समय मेरे जैसा ही हाल होगा?
कुछ समय बाद आख़िर उन्हें भी बुलाया गया। थोड़ी ही देर में वो अंदर से आती दिखीं। ना चाहते हुए भी मेरी गर्दन घूम गई और मेरी नज़रें उन पर जा टिकीं। कई सारी लड़कियों से घिरी वो सोलह श्रृंगार किए धीरे धीरे चली आ रहीं थी। मैं अपलक उस सुंदरता की मूरत को देखता ही रह गया। तभी किसी ने मुझे मानों नींद से जगाया तो मैं एकदम से हड़बड़ा गया। पलट कर देखा तो रूपचंद्र मेरे पास ही बैठा मुस्करा रहा था।
"कम से कम सबके सामने तो दीदी को ऐसे न घूरो।" उसने धीमें से कहा____"वरना लोग सोचेंगे कि दूल्हा तो बड़ा बेशर्म है।"
मैं रूपचंद्र की इस बात से बुरी तरह झेंप गया। मुझे शर्मिंदगी भी महसूस हुई। मन ही मन सोचा कि सच ही तो कह रहा है वो। अगर मैं ऐसे ही अपलक उन्हें घूरता रहूंगा तो सच में लोग मुझे बेशर्म समझ बैठेंगे। वैसे भी ज़्यादातर लोगों को तो पता ही है कि मैं कैसे चरित्र का इंसान रहा हूं। बात अगर किसी और की होती तो शायद इतना कोई न सोचता मगर यहां बात उनकी है जिनसे मेरा देवर भाभी का रिश्ता था।
मेरी धड़कनें उस वक्त थम सी गईं जब उन सारी लड़कियों ने भाभी को ला कर मेरे बगल से बैठा दिया। उफ्फ! कितना अद्भुत एहसास था वो। अगर रूपा एक अद्भुत लड़की है तो इस वक्त रागिनी भाभी भी मेरे लिए अद्भुत ही लगने लगीं थी। मेरे बगल से उनके बैठ जाने से बड़ा अद्भुत एहसास होने लगा था मुझे। मेरा जी चाहा कि अपनी गर्दन को हल्का सा मोड़ कर उन्हें फिर से एक नज़र देख लूं मगर चाह कर भी मैं ऐसा करने की हिम्मत न जुटा सका। धाड़ धाड़ बजती धड़कनों की धमक किसी हथौड़े की तरह कानों में पड़ती सी महसूस हो रहीं थी। मेरे अंदर एक अजीब सी हलचल मच गई थी। मैंने खुद को बड़ी मुश्किल से सम्हाल कर सामान्य होने की कोशिश की।
एक तरफ औरतों के मधुर गीत तो दूसरी तरफ पंडितों के मंत्रोच्चार वातावरण में अलग ही नाद का आभास कराने लगे। बड़े भैया के विवाह के समय मैंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया था क्योंकि मैं लड़कियां ताड़ने में व्यस्त हो गया था लेकिन आज पता चल रहा था कि विवाह में कितनी सारी विधियां और कितने सारे रीति रिवाज़ होते हैं। रात आधी गुज़र गई थी किंतु विवाह अभी तक संपन्न न हुआ था। जाने कैसी कैसी विधियां और रस्में होती चली जा रहीं थी।
भाभी के पीछे ही उनकी छोटी बहन कामिनी और उनकी सहेली शालिनी बैठी हुई थी। बीच बीच में वो भाभी की चुनरी को ठीक करने लग जाती थीं। उनके पीछे औरतें बनरा बियाह जैसे गीत गाने में मशगूल थीं। उनके गाने ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। इधर मेरी तरफ थोड़ी पीछे कुसुम, सुमन और सुषमा बैठी सारी क्रियाएं देख रहीं थी। थोड़ी दूरी पर विभोर और अजीत भी बैठे हुए थे। रूपचंद्र उठ कर अमर मामा के पास चला गया था। अमर मामा औरतों के पास ही बैठे हुए थे और उनके गीतों का आनंद ले रहे थे।
रात भर जाने कैसी कैसी विधियां और रस्में हुईं। मैं और भाभी ख़ामोशी से पंडित के निर्देशों पर अपना कार्य एक साथ करते रहे।
उस वक्त सुबह होने लगी थी जब वीरेंद्र लावा परसने की रस्म के लिए आया। उसके हाथ में एक सूपा था और सूपे में कुछ चीज़ें पड़ीं थी। पंडित जी के निर्देशानुसार भाभी मेरे आगे खड़ी हो गईं और मैं उनके पीछे। उनके दोनों हाथ आगे की तरफ अंजुली की शक्ल में जुड़ गए थे। इधर पीछे से मुझे उनके हाथों की अंजुली के नीचे अपने हाथों की अंजुली बना कर रखनी थी। ख़ैर लावा परसना शुरू हुआ। वीरेंद्र सूपे से चीजें उठा कर भाभी की अंजुली में डालता, इधर भाभी पंडित के कहने पर अपनी अंजुली को नीचे की तरफ से खोल कर सारी चीज़ें मेरी अंजुली में गिरा देतीं और फिर मैं नीचे गिरा देता। यही प्रक्रिया काफी देर तक चलती रही। पीछे से मेरा पूरा जिस्म भाभी से सटा हुआ था और इस स्थिति में मुझे बड़ा अजीब भी लग रहा था। ख़ैर क्या कर सकता था, ये विधि अथवा रस्म ही ऐसी थी।
वीरभद्र जी ने कन्यादान वगैरह किया। फेरे हुए, सिंदूर चढ़ाया, मंगलसूत्र पहनाया मैंने। पंडित जी ने पति पत्नी के सात वचन बता कर हमसे क़बूल करवाया। सातों वचन क़बूल करने के बाद भाभी को मेरे बाएं तरफ बैठा दिया गया। यानि अब वो पूर्ण रूप से मेरी पत्नी बन चुकीं थी।
सुबह का उजाला होने लगा था। पांव पूजने की रस्म शुरू हो गई। पीतल की एक बड़ी सी परात में पीला पीला गाढ़ा सा थोड़ा पानी भरा हुआ था। उसके बीच आटे की गोलाकार मोटी सी लोई पड़ी थी, बीच में कुछ था उसके। बहरहाल, एक एक कर के सभी घर वाले हम दोनों का पांव पूजने आने लगे। अपने साथ कोई न कोई वस्तु भेंट अथवा दान करने के लिए भी लाते। तिलक लगाते, पांव पूजते, उपहार देते और फिर प्रणाम करके चले जाते। ऐसे ही सूरज निकलने तक चलता रहा।
विवाह संपन्न हुआ तो रागिनी को अंदर ले जाया गया। अमर मामा जब मुझे ले जाने लगे तो मैने देखा मेरे जूते ग़ायब हैं। विवाह के समय सालियां अपने जीजा के जूते चुराती थीं और वापस तभी करती थीं जब नेग के रूप में उनकी मनचाही मांग पूरी की जाती थी।
मैं समझ चुका था कि मेरे जूते कामिनी ने ही चुराए होंगे और अब वो मेरे जूते तभी लौटाएगी जब मैं उसकी मनचाही मांग पूरी करूंगा। कुसुम को शायद इस रस्म का पता था इस लिए वो अब मुझे देख मुस्कुराने लगी थी।
"भांजे कब तक चुपचाप खड़ा रहेगा?" अमर मामा ने मुझसे कहा____"अपने जूते मांग अपनी साली से।"
"क्या हुआ जीजा जी?" शालिनी भागती हुई आई और मुस्कुराते हुए बोली____"कुछ खो गया है क्या आपका?"
"अरे! आप भी यहीं हैं?" मैं शालिनी को देख चौंक सा गया था____"सारी रात कहां ग़ायब थीं आप?"
"मैं तो आपके बिल्कुल पास ही बैठी थी?" उसने मुस्कुराते हुए कहा____"अपनी सहेली रागिनी के ठीक पीछे। शायद आपने देखा ही नहीं।"
"हां शायद।" मैं हल्के से मुस्कुराया।
"देखते भी कैसे जनाब।" शालिनी ने मानों मुझे छेड़ा____"आप तो बस अपनी दुल्हन को ही देखने में व्यस्त थे। किसी और को तो तब देखते जब उसके जैसा कोई होता आस पास।"
"ऐसा कुछ नहीं है।" मैं थोड़ा झेंप गया____"ख़ैर ये तो बताइए कि मेरे जूते कौन ले गया है? मुझे जाना है यहां से। रात भर बैठा रहा हूं, सुबह की क्रिया के लिए जाना है अब।"
"अच्छा जी, ज़्यादा परेशानी वाली बात तो नहीं है ना?" शालिनी मुस्कुराई____"रही बात जूतों की तो वो कामिनी चुरा के ले गई है।"
"उनको बुलाइए।" मैंने कहा____"और कहिए कि मेरे जूते दे दें। चोरी करना अच्छी बात नहीं होती है।"
"दुनिया में यही एक रस्म है जीजा जी।" शालिनी ने कहा____"जिसमें चोरी करना बहुत अच्छा माना जाता है। ख़ैर अगर आपको अपने जूते वापस चाहिए तो मनचाहा नेग देना पड़ेगा आपको।"
"ठीक है।" मैंने कहा____"कामिनी को बुलाइए, उन्हें नेग दिया जाएगा।"
शालिनी ने खड़े खड़े ही कामिनी को आवाज़ दे कर बुला लिया। वो भागते हुए आई और मुझे मुस्कुराते हुए देखने लगी।
"क्या हुआ दीदी?" फिर उसने शालिनी से कहा____"किस लिए बुलाया है आपने मुझे?"
"जीजा जी अपने जूते मांग रहे हैं।" शालिनी ने उसे बताया____"और बदले में तुझे तेरा नेग भी देने को कह रहे हैं। अब तू बेझिझक हो के मांग ले इनसे जो तुझे चाहिए।"
"हां मांग लीजिए सरकार।" मैं मुस्कुराया____"आप तो वैसे भी मेरी पहली मोहब्बत हैं। आपके लिए तो जां हाज़िर है।"
"ज़्यादा फ़िज़ूल की बातें मत कीजिए।" कामिनी ने झूठी नाराज़गी दिखाई____"मुझे नेग के रूप में आपसे और तो कुछ नहीं चाहिए लेकिन हां एक वचन ज़रूर चाहिए। क्या आप दे सकते हैं?"
"बिल्कुल दे सकता हूं।" मैंने दृढ़ता से कहा____"आपने पहली बार मुझसे कुछ मांगा है तो यकीन मानिए मैं आपकी मांग ज़रूर पूरी करूंगा। कहिए कैसा वचन चाहिए आपको?"
"यही कि आप मेरी दीदी को हमेशा खुश रखेंगे।" कामिनी ने सहसा गंभीर हो कर कहा____"उन्हें कभी दुखी नहीं होने देंगे और बहुत सारा प्यार देंगे उनको। मुझे अपने नेग के रूप में आपसे इन्हीं बातों का वचन चाहिए।"
मैं देखता रह गया कामिनी को और मैं ही क्या बल्कि अमर मामा, कुसुम, सुमन, सुषमा, रूपचंद्र और यहां तक कि खुद शालिनी भी। मुझे कामिनी से ऐसी उम्मीद हर्गिज़ नहीं थी। अवाक् सा देखता रह गया था मैं।
"क्या हुआ जीजा जी?" जब मैं उसे देखता ही रहा तो वो जैसे मुझे होश में लाई____"क्या आप मुझे मेरा ऐसा नेग नहीं देंगे?"
"आपको मुझसे इस तरह का नेग मांगने की ज़रूरत नहीं थी कामिनी।" मैंने कहा____"क्योंकि मैं तो वैसे भी अपनी तरफ से यही करने वाला था लेकिन फिर भी अगर आप इन बातों का मुझसे वचन ही चाहती हैं तो ठीक है। मैं आपको वचन देता हूं कि मैं हमेशा आपकी दीदी को खुश रखूंगा। उन्हें कभी दुखी नहीं करूंगा और सच्चे दिल से उनसे प्रेम करूंगा।"
मेरा इतना कहना था कि कामिनी का चेहरा खुशी से चमक उठा लेकिन आंखें नम हो गईं उसकी। वो फ़ौरन ही पलटी और भागती हुई अंदर की तरफ चली गई। कुछ ही पलों में जब वो आई तो उसके हाथ में मेरे जूते थे। उसने जूतों को मेरे पैरों के पास रख दिया।
"ये रहे आपके जूते।" फिर उसने मुस्कुराते हुए कहा____"पहन लीजिए और ख़ुशी से जाइए।"
"आप बहुत अच्छी लड़की हैं कामिनी।" मैंने उससे कहा____"मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वो आपको हमेशा खुश रखे और आपको पति के रूप में एक ऐसा व्यक्ति मिले जो आपको अथाह प्रेम करे।"
"तुमने भले ही अपने जीजा से नेग के रूप में ये वचन लिया है बेटी।" अमर मामा ने अधीरता से कहा____"लेकिन तुम्हारी बातें हृदय को छू गई हैं। ऐसे शुभ अवसर पर हर रस्म और हर नेग का अपना महत्व होता है। अतः अपने भांजे की तरफ से मैं अपनी खुशी से तुम्हें ये कुछ रुपए देना चाहता हूं। इसे अन्यथा मत लेना बेटी, ये बस एक अच्छी लड़की के प्रति सच्ची भावना को ब्यक्त करने जैसा है।"
कहने के साथ ही मामा ने अपने पैंट की जेब से पचास के नोटों की एक गड्डी निकाल कर कामिनी की तरफ बढ़ा दिया। कामिनी थोड़ा झिझकी लेकिन फिर उसने हाथ बढ़ा कर वो गड्डी ले ली।
"आपने मुझे बेटी कहा और सच्ची भावना से दिया है।" फिर उसने कहा____"इस लिए मैं इन्हें आपसे न ले कर आपकी भावनाओं को आहत नहीं करूंगी।"
उसके बाद मैंने अपने जूते पहने और सबके साथ बाहर की तरफ चल पड़ा। कुछ ही समय में विदाई का कार्यक्रम शुरू हो जाने वाला था।
"मुझे तो लगा था कि तू अपने जीजा जी से बहुत कुछ मांगेगी।" शालिनी ने कामिनी से कहा____"लेकिन तूने तो ऐसी चीज़ मांग ली जिसके बारे में शायद ही किसी ने कल्पना की होगी। वैसे सच कहती हूं तूने जीजा जी से नेग में इस तरह का वचन मांग कर बहुत ही अद्भुत कार्य किया है। इससे ये भी पता चलता है कि तू अपनी दीदी को कितना चाहती है और उसकी कितनी फ़िक्र करती है। मुझे तुझ पर नाज़ है छोटी। ख़ैर चल आ जा, रागिनी को विदाई के लिए तैयार भी करना है।"
कामिनी उसके साथ खुशी खुशी अंदर की तरफ चली दी। विदाई के लिए हर कोई जल्दी जल्दी काम में लग गया था। पांव पूजन में बहुत सारा उपहार मिल गया था जिसे उठा कर बाहर रखा जा रहा था।
━━━━✮━━━━━━━━━━━✮━━━━
Thanks all...
Next update ready ho chuka hai...
बहुत ही सुंदर लाजवाब और अद्भुत रमणिय अपडेट है भाई मजा आ गयाअध्याय - 163
━━━━━━༻♥༺━━━━━━
आख़िर मेरी बातों से चाची के चेहरे पर से दुख के भाव मिटे और फिर वो मुस्कुराते हुए पलंग से नीचे उतर आईं। कुसुम मुझे भाव विभोर सी देखे जा रही थी। उसकी आंखें भरी हुई थी। ख़ैर कुछ ही पलों में हम तीनों कमरे से बाहर आ गए। चाची और कुसुम अपने अपने काम में लग गईं जबकि मैं खुशी मन से ऊपर अपने कमरे की तरफ बढ़ता चला गया।
अब आगे....
अगले दिन दोपहर को विभोर और अजीत हवेली आ गए। पिता जी ने उन्हें शहर से ले आने के लिए शेरा के साथ अमर मामा को भेजा था। दोनों जब हवेली पहुंचे तो मां और पिता जी ने उन्हें अपने हृदय से लगा लिया। जाने क्या सोच कर पिता जी की आंखें नम हो गईं। उनसे मिलने के बाद वो अपनी मां से मिले। चाची की आंखों में आंसुओं का समंदर मानों हिलोरें ले रहा था। बड़ी मुश्किल से उन्होंने खुद को सम्हाला और दोनों को खुद से छुपका लिया। कुसुम, विभोर से उमर में दस महीने छोटी थी जबकि अजीत से वो साल भर बड़ी थी। विभोर ने उसके चेहरे को प्यार और स्नेह से सहलाया और अजीत ने उसके पांव छुए। सब उन्हें देख कर बड़ा खुश थे।
विदेश की आबो हवा में रहने से दोनों अलग ही नज़र आ रहे थे। दोनों जब मेरा पांव छूने के लिए झुके तो मैंने बीच में ही रोक कर उन्हें अपने सीने से लगा लिया। ये देख मेनका चाची की आंखों से आंसू कतरा छलक ही पड़ा। साफ दिख रहा था कि वो अपने अंदर मचल रहे गुबार को बहुत मुश्किल से रोके हुए हैं। मैंने अपने दोनों छोटे भाइयों को खुद से अलग किया और फिर हाल चाल पूछ कर आराम करने को कहा।
दोपहर को खाना पीना करने के बाद मैं अपने कमरे में लेटा हुआ था कि तभी मेनका चाची कमरे में आ गईं। मैं उन्हें देख उठ कर बैठ गया।
"क्या बात है चाची?" मैंने उनसे पूछा____"मुझसे कोई काम था क्या?"
"नहीं ऐसी बात नहीं है वैभव।" चाची ने कहा____"मैं यहां तुमसे ये कहने आई हूं कि अभी थोड़ी देर में सरला (हवेली की नौकरानी) यहां आएगी। वो तुम्हारे पूरे बदन की मालिश करेगी इस लिए तुम अपने कपड़े उतार कर तैयार हो जाओ मालिश करवाने के लिए।"
"पर मालिश करने की क्या ज़रूरत है चाची?" मैंने उनसे पूछा।
"अरे! ज़रूरत क्यों नहीं है?" चाची ने मेरे पास आ कर कहा____"मेरे सबसे अच्छे बेटे का विवाह होने वाला है। उसकी सेहत का हर तरह से ख़याल रखना ज़रूरी है। अब तुम ज़्यादा कुछ मत सोचो और अपने सारे कपड़े उतार कर तैयार हो जाओ। मैं तो खुद ही तुम्हारी मालिश करना चाहती थी लेकिन दीदी ही नहीं मानी। कहने लगीं कि मालिश का काम नौकरानी कर देगी और मुझे उनके कामों में मेरी सहायता चाहिए।"
"हां तो ग़लत क्या कहा उन्होंने?" मैंने कहा____"आपके बिना हवेली में ढंग से कोई काम हो भी नहीं सकेगा और ये बात वो भी जानती हैं। तभी तो वो आपको ऐसा कह रहीं थी। ख़ैर ये सब छोड़िए और ये बताइए कि विभोर और अजीत से उनका हाल चाल पूछा आपने?"
"अभी तो वो दोनों सो रहे हैं।" चाची ने अधीरता से कहा____"शायद लंबे सफ़र के चलते थके हुए थे। शाम को जब उठेंगे तो पूछूंगी। वैसे सच कहूं तो उन्हें देख कर मन में सिर्फ एक ही ख़याल आता है कि उन दोनों से कैसे पूरे मन से बात कर सकूंगी? बार बार मन में वही सब उभर आता है और हृदय दुख से भर जाता है।"
"आपको अपनी भावनाओं को काबू में रखना होगा चाची।" मैंने कहा____"उन्हें आपके चेहरे पर ऐसे भाव नहीं दिखने चाहिए जिससे उन्हें ये लगे कि आप अंदर से दुखी हैं। ऐसे में आप भी जानती हैं कि वो भी दुखी हो जाएंगे और आपसे आपके दुख का कारण पूछने लगेंगे जोकि आप हर्गिज़ नहीं बता सकतीं हैं।"
"अभी तक उन्हें देखने को बहुत मन करता था वैभव।" चाची ने दुखी हो कर कहा____"लेकिन अब जब वो आंखों के सामने आ गए हैं तो उनसे मिलने से घबराने लगी हूं। समझ में नहीं आता कि कैसे दोनों के सामने खुद को सामान्य रख पाऊंगी मैं?"
"मैं आपके अंदर का हाल समझता हूं चाची।" मैंने कहा____"लेकिन ये भी सच है कि आपको उनसे मिलना तो पड़ेगा ही। आख़िर वो आपके बेटे हैं। माता पिता तो हर हाल में अपने बच्चों को खुश ही रखते हैं तो आपको भी उनसे खुशी से मिलना होगा और उन्हें अपना प्यार व स्नेह देना होगा।"
मेरी बात सुन कर चाची कुछ कहने ही वाली थीं कि तभी कमरे के बाहर से किसी के आने की पदचाप सुनाई पड़ी।
"लगता है सरला आ गई है।" चाची ने कहा____"तुम उससे अच्छे से मालिश करवाओ। मैं अब जा रही हूं, बाकी चिंता मत करो। किसी न किसी तरह मैं खुद को सम्हाल ही लूंगी।"
इतना कह कर मेनका चाची पलट कर कमरे से निकल गईं। उनके जाते ही कमरे में सरला दाख़िल हुई। उसके एक हाथ में मोटी सी चादर थी और दूसरे में एक कटोरी जिसमें तेल भरा हुआ था। सरला तीस साल की एक शादी शुदा औरत थी। रंग गेहुंआ था और जिस्म गठीला। उसे देखते ही मेरे जिस्म में झुरझुरी सी हुई। दो ही पलों में मेरी आंखों ने उसके समूचे बदन का मुआयना कर लिया। पहले वाला वैभव पूरी तरह से अभी ख़त्म नहीं हुआ था।
"छोटे कुंवर।" तभी सरला ने कहा____"मालकिन ने मुझे आपकी मालिश करने भेजा है। आप अपने कपड़े उतार लीजिए।"
"क्या सारे कपड़े उतारने पड़ेंगे मुझे?" मैंने उसे देखते हुए पूछा तो उसने कहा____"जी छोटे कुंवर। मालकिन ने कहा है कि आपके पूरे बदन की मालिश करनी है।"
"पूरे बदन की?" मैंने थोड़ी उलझन में उसकी तरफ देखा____"मतलब क्या मुझे अपना कच्छा भी उतारना पड़ेगा?"
सरला मेरी इस बात से थोड़ा शरमा गई। नज़रें चुराते हुए हुए बोली____"हाय राम! ये आप क्या कह रहे हैं छोटे कुंवर?"
"अरे! मैं तो तुम्हारी बात सुनने के बाद ही पूछ रहा हूं तुमसे।" मैंने कहा____"तुमने कहा कि पूरे बदन की मालिश करनी है। इसका तो यही मतलब हुआ कि मुझे अपने बाकी कपड़ों के साथ साथ अपना कच्छा भी उतार देना होगा। तभी तो पूरे बदन की मालिश होगी। भला उस जगह को क्यों छोड़ दोगी तुम?"
मेरी बात सुन कर सरला का चेहरा शर्म से लाल हो गया। मंद मंद मुस्कुराते हुए उसने बड़ी मुश्किल से कहा____"अगर आप कहेंगे तो मैं हर जगह की मालिश कर दूंगी।"
"अच्छा क्या सच में?" मैंने हैरानी से उसे देखा।
"आप अपने कपड़े उतार लीजिए।" उसने बिना मेरी तरफ देखे कहा और कमरे के फर्श पर हाथ में ली हुई मोटी चादर को बिछाने लगी।
मैं कुछ पलों तक उलझन में पड़ा उसे देखता रहा फिर अपने कपड़े उतारने लगा। जल्दी ही मैंने अपने कपड़े उतार दिए। अब मैं सिर्फ कच्छे में था। ठंड का मौसम था इस लिए थोड़ी थोड़ी ठंड लगने लगी थी मुझे। सरला ने कनखियों से मेरी तरफ देखा और फिर अपनी साड़ी के पल्लू को निकाल कर उसे कमर में खोंसने लगी।
"अब आप यहां पर लेट जाइए छोटे कुंवर।" उसने पलंग से एक तकिया ले कर उसको चादर के सिरहाने पर रखते हुए कहा____"अ...और ये क्या आपने अपना कच्छा नहीं उतारा? क्या आपको अपने बदन के हर हिस्से की मालिश नहीं करवानी है?"
"मुझे कोई समस्या नहीं है।" मैंने कहा____"वो तो मैंने इस लिए नहीं उतारा क्योंकि मैं नहीं चाहता कि तुम्हें असहज महसूस हो।"
"कहते तो आप ठीक हैं।" उसने कहा____"लेकिन मैं आपकी अच्छे से मालिश करूंगी। आख़िर आपका विवाह होने वाला है। खुशी के ऐसे अवसर पर आपको पूरी तरह से हष्ट पुष्ट करना ज़रूरी ही है।"
"क्या मतलब है तुम्हारा?" मैंने उसकी तरफ देखते हुए पूछा____"क्या तुम ये सोचती हो कि मैं अभी हष्ट पुष्ट नहीं हूं?"
"अरे! ये क्या बातें कर रहा है भांजे?" अमर मामा कमरे में आते ही बोले____"जब ये कह रही है कि हष्ट पुष्ट करना ज़रूरी है तो तुझे मान लेना चाहिए।"
"मामा आप यहां?" मैं मामा को देखते ही चौंक पड़ा।
"तुझे ढूंढ रहा था।" मामा ने कहा____"दीदी ने बताया कि तू अपने कमरे में मालिश करवा रहा है तो यहीं चला आया। मैं भी देखना चाहता था कि मेरा भांजा किस तरीके से अपनी मालिश करवाता है?"
सरला, मामा के आ जाने से और उनकी बातों से बहुत ज़्यादा असहज हो गई।
"तो देख लिया आपने?" मैंने पूछा____"या अभी और देखना है?"
"हां देख लिया और समझ भी लिया।" मामा ने मुस्कुराते हुए कहा_____"अब अगर मैं देखने बैठ जाऊंगा तो तू अच्छे से मालिश नहीं करवा सकेगा इस लिए चलता हूं मैं।" कहने के साथ ही मामा सरला से बोले____"और तुम, मेरे भांजे की अच्छे से मालिश करना। किसी भी तरह की कसर बाकी मत रखना, समझ गई न तुम?"
सरला ने शर्माते हुए हां में सिर हिलाया। उधर मामा ने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा____"और तू भी ज़्यादा नाटक मत करना, समझ गया ना?"
उनकी बात पर मैं मुस्कुरा उठा। वो जब चले गए तो सरला ने मानों राहत की सांस ली। उसके बाद उसने कमरे की खिड़की खोली और जा कर दरवाज़ा अंदर से बंद कर दिया। ये देख मेरी धड़कनें ये सोच कर तेज़ हो गईं कि कहीं ये सच में तो मुझे पूरा नंगा नहीं करने वाली है?
मैं उसी को देखे जा रहा था। उसने अपनी साड़ी को निकाल कर एक तरफ रखा और फिर पेटीकोट को अपने घुटनों तक उठा कर बाकी का हिस्सा कमर में खोंस लिया। ब्लाउज में कैद उसकी बड़ी बड़ी छातियां मानों ब्लाउज फाड़ने को तैयार थीं। उसका गदराया हुआ बदन मेरे अंदर तूफ़ान सा पैदा करने लगा।
"ऐसे मत देखिए छोटे कुंवर मुझे शर्म आ रही है?" सहसा सरला की आवाज़ से मैं चौंका____"ऐसे में कैसे मैं आपकी अच्छे से मालिश कर पाऊंगी?"
"तुम ऐसे हाल में मालिश करोगी मेरी?" मैंने उसे देखते हुए पूछा।
"और नहीं तो क्या?" उसने कहा____"साड़ी पहने पहने मालिश करूंगी तो ठीक से नहीं कर पाऊंगी और मेरी साड़ी में तेल भी लग जाएगा।"
बात तो उसने उचित ही कही थी इस लिए मैंने ज़्यादा कुछ न कहा किंतु ये ज़रूर सोचने लगा कि क्या सच में सरला मेरे पूरे बदन की मालिश करेगी?
बहरहाल सरला ने कटोरी को उठाया और मेरे पैरों के पास बगल से बैठ गई। वो अब मेरे इतना पास थी कि मेरी निगाह एक ही पल में ब्लाउज से झांकती उसकी छातियों पर जम गईं। सच में काफी बड़ी और ठोस नज़र आ रहीं थी उसकी छातियां। मेरे पूरे बदन में सनसनी सी दौड़ने लगी। धड़कनें तो पहले ही तेज़ तेज़ चल रहीं थी। मैंने फ़ौरन ही उससे नज़र हटा ली और खुद पर नियंत्रण रखने के लिए आंखें बंद कर ली।
पहले तो सरला आराम से ही तेल लगा रही थी किंतु जल्दी ही उसने ज़ोर लगा कर मालिश करना शुरू कर दिया। मुझे अच्छा तो लग ही रहा था किंतु मज़ा भी आ रहा था। तेल से चिपचिपी हथेलियां जब मेरी जांघों के अंतिम छोर तक आती तो मेरे अंडकोशों में झनझनाहट होने लगती। पूरे बदन में मज़े की लहर दौड़ जाती।
"कैसा लग रहा है छोटे कुंवर?" सहसा उसकी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी तो मैंने आंखें खोल कर उसे देखा।
उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। वो घुटनों के बल झुकी सी थी जिससे मेरी नज़र जल्द ही उसके ब्लाउज से आधे से ज़्यादा झांकती छातियों पर जा कर जम गई। वो ज़ोर लगा कर नीचे से ऊपर आती तो उसकी छातियों में लहर सी पैदा हो जाती। फ़ौरन ही वो ताड़ गई कि मैं उसकी छातियां देख रहा हूं। उसे शर्म तो आई लेकिन उसने न तो कुछ कहा और ना ही अपनी छातियों को छुपाने का उपक्रम किया। बल्कि वो उसी तरह मालिश करते हुए मुझे देखती रही।
"क्या हुआ कुंवर जी?" जब मैं बिना कोई जवाब दिए उसकी छातियों को ही देखता रहा तो उसने फिर कहा____"आपने जवाब नहीं दिया?"
"ओह! हां तुमने कुछ कहा क्या?" मैं एकदम से हड़बड़ा सा गया तो इस बार वो खिलखिला कर हंस पड़ी। उसके हंसने पर मैं थोड़ा झेंप गया।
"मैं आपसे पूछ रही थी कि मेरे मालिश करने से आपको कैसा लग रहा है?" फिर उसने कहा।
"अच्छा लग रहा है।" मैंने कहा____"बस ऐसे ही करती रहो।"
वो मुस्कुराई और पलट कर कटोरी को उठा लिया। कटोरी से ढेर सारा तेल उसने मेरी जांघ पर डाला और उसे अपनी हथेली से फैला कर फिर से मालिश करने लगी। सहसा मेरी नज़र मेरे कच्छे पर पड़ी तो मैं चौंक गया। मेरा लंड अपने पूरे अवतार में खड़ा था और कच्छे को तंबू बनाए हुए था। ज़ाहिर है सरला भी ये देख चुकी होगी। मुझे बड़ा अजीब लगा और थोड़ी शर्मिंदगी भी हुई।
"क्या अब मैं उल्टा लेट जाऊं?" मैंने अपने लंड के उठान को छुपाने के लिए उससे पूछा।
"अभी नहीं छोटे कुंवर।" सरला ने मुस्कुराते हुए कहा____"अभी तो पैरों के बाद आपके पेट और सीने की मालिश करूंगी मैं। उसके बाद ही आपको उल्टा लेटना होगा।"
"ठीक है जल्दी करो फिर।" मैं अब असहज सा महसूस करने लगा था। अभी तक मुझे अपने लंड का ख़याल ही नहीं रहा था। वो साला बैठने का नाम ही नहीं ले रहा था। मैंने देखा सरला बार बार मेरे लंड को घूरने लगती थी।
आख़िर कुछ देर में जब पैरों की मालिश हो गई तो वो तेल ले कर ऊपर की तरफ आई। ना चाहते हुए भी मेरी निगाह उस पर ठहर गई। दिल की धड़कनें और भी तेज़ हो गई। उसका पेट कमर नाभि सब साफ दिख रही थी मुझे।
"आपके मामा जी कह गए हैं कि मैं आपकी मालिश करने में कोई कसर बाकी ना रखूं।" फिर उसने मुस्कुराते हुए कहा____"इस लिए अब मैं वैसी ही मालिश करूंगी और हां आप भी विरोध मत कीजिएगा।"
"कैसी मालिश करेगी तुम?" मैंने आशंकित भाव से उसे देखा।
"बस देखते जाइए।" उसने गहरी मुस्कान से कहा____"आप भी क्या याद करेंगे कि सरला ने कितनी ज़बरदस्त मालिश की थी आपकी।"
"अगर ऐसा है तो फिर ठीक है।" मैंने उत्सुकता से कहा____"मैं भी तो देखूं तुम आज कैसे मालिश करती हो मेरी।"
"ठीक है।" सरला के चेहरे पर एकाएक चमक उभर आई____"लेकिन आपको भी मेरी एक बात माननी होगी। मैं जो भी करूं आप करने देंगे और सिर्फ मालिश का आनंद लेंगे।"
"ठीक है।" मैं मुस्कुराया____"मैं तुम्हें किसी बात के लिए नहीं रोकूंगा।"
सरला मेरी बात सुन कर खुश हो गई। उसने कटोरी से मेरे सीने पर तेल डाला और उसे हथेली से फैलाने लगी। जल्दी ही वो मेरे पूरे सीने और पेट पर तेल फैला कर मालिश करने लगी। मैं बस उसको देखता रहा। मैंने पहली बार गौर किया कि वो नौकरानी ज़रूर थी लेकिन बदन से क़हर ढा रही थी। तभी मैं चौंका। वो मेरे कच्छे को पकड़ कर नीचे खिसकाने लगी।
"ये क्या कर रही हो?" मैंने झट से उसे रोका।
"आपने तो कहा था कि आप मुझे नहीं रोकेंगे?" उसने मेरी तरफ देखते हुए कहा____फिर अब क्यों रोक रहे हैं? देखिए, कच्छा नहीं उतारूंगी तो तेल लग जाएगा इसमें और वैसे भी पूरे बदन की मालिश करनी है ना तो इसे उतारना ही पड़ेगा।"
मेरे ज़हन में बिजली की तरह ख़याल उभरा कि कहीं आज ये मेरा ईमान न डगमगा दे। मुझसे ऐसी ग़लती न करवा दे जो न करने का मैंने भाभी को वचन दिया था। फिर सहसा मुझे ख़याल आया कि ये तो मेरे ऊपर निर्भर करता है कि मैं खुद पर काबू रख सकता हूं या नहीं।
मेरी इजाज़त मिलते ही सरला ने खुशी से मेरा कच्छा उतार कर मेरी टांगों से अलग कर दिया। कच्छे के उतरते ही मेरा लंड उछल कर छत की तरफ तन गया।
"हाय राम! ये....ये इतना बड़ा क्या है।" सरला की मानों चीख निकल गई।
"तुम तो ऐसे चीख उठी हो जैसे ये तुम्हारे अंदर ही घुस गया हो।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा।
"हाय राम! छोटे कुंवर ये क्या कह रहे हैं?" सरला एकदम से चौंकी____"ना जी ना। ये मेरे अंदर घुस गया तो मैं तो जीवित ही ना बचूंगी।"
"फ़िक्र मत करो।" मैंने कहा____"ये तुम्हारे अंदर वैसे भी नहीं घुसेगा। अब चलो मालिश शुरू करो। मैं भी तो देखूं कि तुम कैसी मालिश करती हो आज।"
सरला आश्चर्य से अभी भी मेरे लंड को ही घूरे जा रही थी। फिर जैसे उसे होश आया तो उसके चेहरे पर शर्म की लाली उभर आई। उधर मेरा लंड बार बार ठुमक रहा था। मेरी शर्म और झिझक अब ख़त्म हो चुकी थी।
"अब तो मैं पक्का आपकी वैसी ही मालिश करूंगी छोटे कुंवर।" फिर उसने खुशी से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"जैसा मैं कह रही थी। अब बस आप मेरा कमाल देखिए।"
कहने के साथ ही सरला अपना ब्लाउज खोलने लगी। ये देख मैं चौंका लेकिन मैंने उसे रोका नहीं। अब मैं भी देखना चाहता था कि वो क्या करने वाली है। जल्दी ही उसने अपने बदन से ब्लाउज निकाल कर एक तरफ रख दिया। उसकी छातियां सच में बड़ी और ठोस थीं। कुंवारी लड़की की तरह तनी हुईं थी। मेरा ईमान फिर से डोलने लगा। पूरे जिस्म में झुरझुरी होने लगी। उधर ब्लाउज एक तरफ रखने के बाद वो खड़ी हुई और अपना पेटीकोट खोलने लगी।
मेरी धड़कनें ये सोच कर तेज़ हो गईं क्या वो मुझसे चुदने का सोच ली है? नहीं नहीं, ऐसा मैं कभी नहीं होने दे सकता।
"ये क्या कर रही हो तुम?" मैंने उसे रोका____"अपने कपड़े क्यों उतार रही हो तुम?"
"फ़िक्र मत कीजिए कुंवर।" उसने कहा____"मैं आपके साथ वो नहीं करूंगी और कपड़े इस लिए उतार रही हूं ताकि मालिश करते समय मेरे इन कपड़ों पर तेल न लग जाए।"
मैंने राहत की सांस ली लेकिन अब ये सोचने लगा कि क्या ये नंगी हो कर मेरी मालिश करेगी? सरला ने पेटीकोट उतार कर उसे भी एक तरफ रख दिया। पेटीकोट के अंदर उसने कुछ नहीं पहना था। मोटी मोटी जांघों के बीच बालों से भरी उसकी चूत पर मेरी नज़र पड़ी तो एक बार फिर से मेरे पूरे जिस्म में सनसनी फ़ैल गई।
उधर जैसे ही सरला को एहसास हुआ कि मैं उसे देख रहा हूं तो उसने जल्दी से अपनी योनि छुपा ली। उसके चहरे पर शर्म की लाली उभर आई लेकिन हैरानी की बात थी कि वो इसके बाद भी पूरी नंगी हो गई थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर अब ये क्या करने वाली है?
"छोटे कुंवर, अपनी आंखें बंद कर लीजिए ना।" सरला ने कहा____"आप मुझे इस तरह देखेंगे तो मुझे बहुत शर्म आएगी और मैं पूरे मन से आपकी मालिश नहीं कर पाऊंगी।"
मुझे भी लगा कि यही ठीक रहेगा। मैं भी उसे नहीं देखना चाहता था क्योंकि इस हालत में देखने से मेरा अपना बुरा हाल होने लगा था। मैंने आंखें बंद कर ली तो वो मेरे क़रीब आई। कुछ देर तक पता नहीं वो क्या करती रही लेकिन फिर अचानक ही मुझे अपने ऊपर कुछ महसूस हुआ। वो तेल था जो मेरे सीने से होते हुए पेट पर आया और फिर उसकी धार मेरे लंड पर पड़ने लगी। मेरे पूरे जिस्म में आनंद की लहर दौड़ पड़ी। थोड़ी ही देर में सरला के हाथ उस तेल को मेरे पूरे बदन में फैलाने लगे।
मैं उस वक्त चौंक उठा जब सरला के हाथों ने मेरे लंड को पकड़ लिया। सरला के चिपचिपे हाथ मेरे लंड को हौले हौले सहलाते हुए उस पर तेल मलने लगे। आज काफी समय बाद किसी औरत का हाथ मेरे लंड पर पहुंचा था। आनंद की तरंगें पूरे बदन में दौड़ने लगीं थी। मैं सरला को रोकना चाहता था लेकिन मज़ा भी आ रहा था इस लिए रोक नहीं रहा था। उधर सरला बड़े आराम से मेरे लंड को तेल से भिंगो कर उसकी मालिश करने लगी थी। पहले तो वो एक हाथ से कर रही थी लेकिन अब दोनों हाथों से जैसे उसे मसलने लगी थी। मेरा लंड बुरी तरह अकड़ गया था।
"ये...ये क्या कर रही हो तुम?" आनंद से अपनी पलकें बंद किए मैंने उससे कहा।
"चुपचाप लेटे रहिए कुंवर।" सरला ने भारी आवाज़ में कहा____"ये तो अभी शुरुआत है। आगे आगे देखिए क्या होता है। आप बस मालिश का आनंद लीजिए।"
सरला की बातों से मेरे पूरे बदन में झुरझुरी हुई। उसकी आवाज़ से ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसकी सांसें भारी हो चलीं थी। कुछ देर तक वो इसी तरह मेरे लंड को तेल लगा लगा कर मसलती रही फिर एकदम से उसके हाथ हट गए। मैंने राहत की सांस ली। एकाएक मैं ये महसूस कर के चौंका कि मेरी दोनों जांघों पर कोई बहुत ही मुलायम चीज़ रख गई है। मैंने उत्सुकता के चलते आंखें खोल कर देखा तो हैरान रह गया।
सरला पूरी तरह नंगी थी। मेरी तरफ मुंह कर के वो मेरी जांघों पर बैठ गई थी। उसके दोनों पैर अलग अलग तरफ फ़ैल से गए थे। जांघों के बीच बालों से भरी चूत भी फैल गई थी जिससे उसके अंदर का गुलाबी हिस्सा थोड़ा थोड़ा नज़र आने लगा था। तभी सरला ने कटोरा उठाया। उसका ध्यान मेरी तरफ नहीं था। कटोरे में भरे तेल को उसने अपने सीने पर उड़ेलना शुरू कर दिया। कटोरे का तेल बड़ी तेज़ी से उसकी छातियों को भिगोता हुआ नीचे तरफ आया। कुछ नीचे मेरे लंड पर गिरा। सरला थोड़ा सा आगे सरक आई जिससे तेल मेरे पेट पर गिरने लगा।
सरला ने कटोरा एक तरफ रखा और फिर जल्दी जल्दी तेल को अपनी छातियों पर और पेट पर मलने लगी। उसके बाद वो आहिस्ता से मेरे ऊपर झुकने लगी। मैं उसकी इस क्रिया को चकित भाव देखे जा रहा था। कुछ ही पलों में वो मेरे ऊपर लेट सी गई। उसकी छातियां मेरे सीने में धंस गई। उसकी नाभि के नीचे मेरा लंड दब गया। मेरे पूरे जिस्म में मज़े की लहर दौड़ गई।
"ये क्या कर रही हो?" मैं भौचक्का सा बोल पड़ा तो उसने मेरी तरफ देखा।
हम दोनों की नज़रें मिलीं। वो मुस्कुरा उठी। अपने दोनों हाथ मेरे आजू बाजू जमा कर वो अपने बदन को मेरे बदन पर रगड़ने लगी। उसकी बड़ी बड़ी और ठोस छातियां मेरे जिस्म में रगड़ खाते हुए नीचे की तरफ जा कर मेरे लंड पर ठहर गईं। मेरा लंड उसकी दोनों छातियों के बीच फंस गया। सरला से मुझे ऐसे करतब की उम्मीद नहीं थी। तभी वो मेरे चेहरे की तरफ सरकने लगी। मेरा लंड उसकी छातियों का दबाव सहते हुए उसके पेट की तरफ जाने लगा। इधर उसकी छातियां मेरे सीने पर आईं उधर मेरा लंड उसकी नाभि के नीचे पहुंच कर उसकी चूत के बालों पर जा टकराया। मेरे पूरे जिस्म में मज़े की लहर दौड़ रहीं थी।
"कैसा लग रहा है कुंवर।" सरला मेरे चेहरे के एकदम पास आ कर मानों नशे में बोली____"आपको अच्छा तो लग रहा है ना?"
"तुम अच्छे की बात करती हो।" मैं मज़े के तरंग में बोला____"मुझे तो अत्यधिक मज़ा आ रहा है सरला। मुझे नहीं पता था कि तुम्हें ये कला भी आती है। कहां से सीखा है ये?"
"कहीं से नहीं सीखा कुंवर।" उसने कहा____"ये तो अचानक ही सूझ गया था मुझे।"
"यकीन नहीं होता।" मैंने कहा____"ख़ैर बहुत मज़ा आ रहा है। ऐसे ही करती रहो।"
सरला का चेहरा मेरे चेहरे के बिल्कुल क़रीब था। उसके गुलाबी होंठ मेरे एकदम पास ही थे। मेरा जी तो किया कि लपक लूं लेकिन फिर मैंने इरादा बदल दिया। मैं अपने से कुछ भी नहीं करना चाहता था।
"खुद को मत रोकिए छोटे कुंवर।" सरला मेरी मंशा समझ कर बोल पड़ी____"आज इस मालिश का भरपूर आनंद लीजिए। मुझ पर भरोसा रखिए, मैं आपको बिल्कुल भी निराश नहीं करूंगी।"
"पर तुम्हें मुझसे निराश होना पड़ेगा।" मैंने दृढ़ता से कहा____"तुम जिस चीज़ के बारे में सोच रही हो वो नहीं हो सकेगा। मैं तुम्हें इतना करने दे रहा हूं यही बहुत बड़ी बात है।"
"ठीक है जैसी आपकी मर्ज़ी।" कहने के साथ ही सरला फिर से नीचे को सरकने लगी।
मेरा बुरा हाल होने लगा था। जी कर रहा था कि एक झटके से उठ जाऊं और सरला को नीचे पटक कर उसको बुरी तरह चोदना शुरू कर दूं। अपनी इस भावना को मैंने बड़ी बेदर्दी से कुचला और आंखें बंद कर ली। उधर सरला नीचे पहुंच कर मेरे लंड को अपनी दोनों छातियों के बीच फंसाया और फिर दोनों तरफ से अपनी छातियों का दबाद देते हुए मानों मुट्ठ मारने लगी। मेरे जिस्म में और भी ज़्यादा मज़े की तरंगें उठने लगीं।
कुछ देर तक सरला अपनी छातियों से मेरे लंड को मसलती रही उसके बाद वो फिर से ऊपर सरकने लगी। उसकी ठोस छातियां मेरे जिस्म से रगड़ खाते हुए ऊपर की तरफ आने लगीं। तेल लगा होने से बड़ा अजीब सा मज़ा आ रहा था।
तभी मैं चौंका। सरला की छातियां मेरे सीने से उठ कर अचानक मेरे चेहरे से टकराईं। तेल की चिपचिपाहट मेरे चेहरे पर लग गई और तेल की गंध मेरे नथुनों में समा गई। मैंने फ़ौरन अपनी आंखें खोली। सरला एकदम से मेरे ऊपर ही सवार नज़र आई। उसकी तेल में नहाई बड़ी बड़ी छातियां मेरे चेहरे को छू रहीं थी। सरला की ये हिम्मत देख मुझे हैरानी भी हुई और थोड़ा गुस्सा भी आया। यकीनन वो मुझे उकसा रही थी। यानि वो चाहती थी कि मैं अपना आपा खो दूं और फिर वही कर बैठूं जो मैं किसी भी कीमत पर नहीं करना चाहता था। मैंने अब तक सरला के जिस्म के नाज़ुक अंगों को हाथ तक नहीं लगाया था जबकि में अंदर का हाल तो अब ऐसा था कि उसको बुरी तरह रौंद डालने के लिए मन कर रहा था मेरा। मेरे हाथ उसकी बड़ी बड़ी चूचियों को आटे की तरह गूंथ डालने को मचल रहे थे मगर मैं बेतहाशा सब्र किए हुए था। ये अलग बात है कि अपने अंदर मज़े की लहर को रोकना मेरे बस में नहीं था।
"कितनी भी कोशिश कर लो तुम।" मैंने उसकी आंखों में देखते हुए कहा____"ठाकुर वैभव सिंह को मज़बूर नहीं कर पाओगी तुम। बेहतर होगा कि तुम सिर्फ अपने काम पर ध्यान दो।"
"क्या आप मुझे चुनौती दे रहे हैं कुंवर?" सरला ने भी मेरी आंखों में देखा____"इसका मतलब आप चाहते हैं कि मैं ऐसी कोशिश करती रहूं?"
"तुम अपनी सोच के अनुसार कुछ भी मतलब निकाल सकती हो।" मैं हल्के से मुस्कुराया____"बाकी मेरे कहने का मतलब ये नहीं है कि तुम कोई कोशिश करो। तुम मेरी मालिश करने आई हो तो सिर्फ वही करो। मुझसे चुदने का ख़याल ज़हन से निकाल दो क्योंकि वो मैं नहीं करूंगा और ना ही करने दूंगा। मैंने अपनी होने वाली बीवी को बहुत पहले वचन दिया था कि मैं उनकी उम्मीदों पर खरा उतरूंगा। ऐसा कोई काम नहीं करूंगा जिसके लिए मैं अब तक बदनाम रहा हूं।"
"वाह! कुंवर जी।" सरला मुस्कुराई____"आपकी ये बात सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा। इस स्थिति में भी आप खुद को रोके हुए हैं और आपको अपने वचन का ख़याल है। ये बहुत बड़ी बात है। मैं भी आपको अब मजबूर नहीं करूंगी बल्कि आपके वचन का सम्मान करते हुए सिर्फ आपकी मालिश करूंगी। अब मैं उन सबको बताऊंगी कि आप बदल गए हैं और एक अच्छे इंसान बन गए हैं जो कहती थीं कि आप इन मामलों में बहुत बदनाम हैं।"
"तुम्हें ये सब किसी से कहने की ज़रूरत नहीं है सरला।" मैंने कहा____"तुम बस अपना काम करो और खुशी खुशी जाओ यहां से।"
"ठीक है कुंवर।" सरला ने मुस्कुराते हुए कहा____"वैसे आपसे एक विनती है।"
"कैसी विनती?"
"मेरे मालिश के चलते आपका ये मूसल।" उसने मेरे खड़े हुए लंड को देखते हुए कहा____"पूरी तरह से संभोग के लिए तैयार हो चुका है। इसके अंदर की आग को बाहर निकालना ज़रूरी है। क्या मैं आपको शांत कर दूं?"
"कैसे शांत करोगी?" मैंने पूछा।
"हाथ से ही करूंगी और कैसे?" वो हल्के से हंसी।
"ठीक है।" मैंने कहा____"तुम अपनी ये इच्छा पूरी कर सकती हो।"
सरला खुश हो गई। वो मेरे ऊपर से उठी और नंगी ही मेरे लंड के पास बैठ गई। तेल तो पहले से ही लगा हुआ था इस लिए वो लंड को पकड़ कर मुठियाने लगी।
"वैसे आपकी होने वाली दोनों पत्नियां बहुत भाग्यशाली हैं छोटे कुंवर।" फिर उसने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"उनके नसीब में इतना बड़ा औजार जो मिलने वाला है। मुझे पूरा यकीन है कि इस मामले में वो हमेशा खुश रहेंगी।"
उसकी इस बात से मुझे बड़ा अजीब सा महसूस हुआ। पलक झपकते ही मेरी आंखों के सामने रूपा और रागिनी भाभी का चेहरा चमक उठा। रूपा से तो कोई समस्या नहीं थी लेकिन रागिनी भाभी का सोच कर ही जिस्म में अजीब सा एहसास होने लगा।
"क्या मैं इसे चूम लूं कुंवर?" सरला की आवाज़ से मैं चौंका।
"ठीक है जो तुम्हें ठीक लगे कर लो।" मैंने कहा____"लेकिन जल्दी करो। मुझे बाहर भी जाना है।"
सरला फ़ौरन ही अपने काम में लग गई। वो कभी मुट्ठ मारती तो कभी झुक कर मेरे लंड को चूम लेती। फिर एकाएक ही उसने मेरे लंड को मुंह में भर लिया। उसके गरम मुख का जैसे ही एहसास हुआ तो मजे से मेरी आंखें बंद हो गईं। दोनों हाथों से लंड पकड़े वो उसे चूसे जा रही थी। मैं हैरान भी था उसकी इस हरकत से लेकिन मज़े में बोला कुछ नहीं।
मेरा बहुत मन कर रहा था कि सरला के सिर को थाम लूं और कमर उठा उठा कर उसके मुंह को ही चोदना शुरू कर दूं लेकिन मैंने अपनी इस इच्छा को बड़ी मुश्किल से रोका। हालाकि मज़े के चलते मेरी कमर खुद ही उठ जा रही थी। सरला कभी मेरे अंडकोशों को सहलाती तो कभी मुट्ठी मारते हुए लंड चूसने लगती। मेरा मज़े में बुरा हाल हुआ जा रहा था। अपनी इच्छाओं को दबा के रखना बड़ा ही मुश्किल होता जा रहा था। सरला किसी कुशल खिलाड़ी की तरह मेरा लंड चूसने में लगी हुई थी।
आख़िर दस मिनट बाद मुझे लगने लगा कि मेरी नशों में दौड़ता लहू बड़ी तेज़ी से मेरे अंडकोशों की तरफ भागता हुआ जा रहा है। सरला को भी शायद एहसास हो गया था। वो और तेज़ी से मुठ मारनी लगी।
"आह!" मेरे मुंह से मज़े में डूबी आह निकली और मुझे झटके लगने लगे।
सरला ने लपक कर मेरे लंड को मुंह में भर लिया और मेरा वीर्य पीने लगी। आनंद की चरम सीमा में पहुंचने के बाद मैं एकदम शांत पड़ गया। उधर सरला सारा वीर्य गटकने के बाद अब मेरे लंड को चाट रही थी। बड़ी की कौमुक और चुदक्कड़ औरत थी शायद।
━━━━✮━━━━━━━━━━━✮━━━━