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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 19 9.9%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 22 11.5%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 75 39.3%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 44 23.0%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 31 16.2%

  • Total voters
    191

DARK WOLFKING

Supreme
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259
nice update ..to sapna dekha vaibhav ne 😁..
sahukar kyu rishte sudharna chahte hai iska pata lagana chahta hai vaibhav .
aur rupa se kaise mulakat huyi ,,kaise usko pyar me fasake bhoga yahi soch raha tha vaibhav..
to rupa se hi saari baat pata karne ka socha hai 🤔..
aur ab ye kaun aa gaya kheto ki taraf jisko dekhke vaibhav chownk gaya .
 

Moon Light

Prime
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अपडेट 18

जब दिमाग मे टेंशन रहती है तो अक्सर सपनों के रूप में वैसा ही प्रतिविम्ब बन जाता है जिस प्रकार की टेंशन हो...

इस सपने का कोई लिंक होगा...? या बस ये एक सपना है... वैसे पहली बार हुआ है ऐसा तो शायद नॉर्मल सपना हो....!!!

जैसा कि पहले भी मैं कह चुकी हूं... उसी को फिर कहती हैं... हम शस्त्रुओं से नही बल्कि अपनों से जल्द परास्त होते हैं.... मतलब जो काम हम शत्रू बनकर नही कर सकते वो काम हम अपना पन दिखाकर कर सकते हैं... वही साहूकार करना चाहते हैं.... अपने पन के पीछे साजिश होगी और कोई बड़ी साजिश

साहूकार के घर मे रूपा नाम की लड़की है जो प्रेम करती है वैभव से, उसके द्वारा शायद कुछ राज़ पता लग सकें...!!

और अंत मे बुग्गी पर कौन शख्स हो सकता है...!!!
चाचा ? माँ ? या भाभी ?

देखते हैं नए अपडेट में :love:

Too Good :good:
 

Chutiyadr

Well-Known Member
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 18
----------☆☆☆----------



अब तक,,,,,

जाने कितनी ही देर तक मैं इसी सब के बारे में सोचता रहा और फिर पता ही नहीं चला कि कब मेरी आँख लग गई और मैं नींद की आगोश में चला गया। नींद में मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मेरे चारो तरफ गाढ़ा काला धुआँ फैलता जा रहा है और मैं उस धुएं में धीरे धीरे समाता जा रहा हूं। मैं अपने हाथ पैर ज़ोर ज़ोर से चला रहा था मगर मेरे हाथ पैर चलने से भी कुछ नहीं हो रहा बल्कि मैं निरंतर उस धुएं में समाता ही जा रहा था और फिर तभी मैं ज़ोर से चीख पड़ा।

अब आगे,,,,,



"क्या हुआ...क्या हुआ???" मेरे बाएं तरफ दूसरी चारपाई पर सोया पड़ा मुंशी मेरी चीख सुन कर ज़ोर से उछल पड़ा था____"छोटे ठाकुर क्या हुआ? आप अचानक इस तरह चीख क्यों पड़े?"

मुंशी की ये बात सुन कर मैंने इधर उधर देखा। चीखने के साथ ही मैं उठ बैठा था। हर तरफ अँधेरा था और इस वक़्त मुझे कुछ दिख नहीं रहा था। हलांकि अपने बाएं तरफ से मुंशी की ये आवाज़ ज़रूर सुनी थी मैंने किन्तु उसके पूछने पर मैं कुछ बोल न सका था। मेरे ज़हन में अभी भी वही सब चल रहा था। मैं एक जगह पर लेटा हुआ था और कहीं से गाढ़ा काला धुआँ फैलते हुए आया और मैं उसमे डूबता ही जा रहा था। उस धुएं से बचने के लिए मैं बड़ी तेज़ी से अपने हाथ पैर चला रहा था और चीख भी रहा था मगर मेरी आवाज़ खुद मुझे ही नहीं सुनाई दे रही थी। मेरे हाथ पैर चलाने का भी कोई असर नहीं हो रहा था बल्कि मैं निरंतर उस धुएं में डूबता ही जा रहा था।

"छोटे ठाकुर।" मैं अभी इन ख़यालों में ही खोया था कि मुंशी की आवाज़ फिर से मेरे कानों में पड़ी____"आप कुछ बोलते क्यों नहीं? क्या हुआ है आपको? आप इतनी ज़ोर से चीख क्यों पड़े थे?"

"मुंशी जी?" अपने आपको सम्हालते हुए मैंने मुंशी को पुकारा तो उसने जी छोटे ठाकुर कहा जिस पर मैंने कहा____"हर तरफ इतना अँधेरा क्यों है?"
"वो इस लिए छोटे ठाकुर कि इस वक्त रात है।" मुंशी ने कहा____"और रात में सोते समय हम दिए बुझा कर ही सोते हैं। अगर आप कहें तो मैं दिए जलवा देता हूं। बिजली तो है ही नहीं।"

अभी मैं कुछ बोलने ही वाला था कि तभी अंदर से हाथ में दिया लिए मुंशी की बीवी और उसका बेटा रघुवीर तेज़ी से चलते हुए आए। दिए की रौशनी में अँधेरा दूर हुआ तो मैंने अपने आस पास देखा। इस वक्त मेरी हालत थोड़ी अजीब सी हो गई थी।

"क्या हुआ छोटे ठाकुर?" मुंशी की बीवी ने ब्याकुल भाव से मुझसे पूछा तो उसके जवाब में मुंशी ने कहा____"मुझे तो लगता है प्रभा कि छोटे ठाकुर सोते समय कोई डरावना सपना देख रहे थे जिसकी वजह से वो इतना ज़ोर से चीख पड़े थे।"

"छोटे ठाकुर हमारे घर में पहली बार सोये हैं।" प्रभा ने कहा____"इस लिए हो सकता है कि न‌ई जगह पर सोने से ऐसा हुआ हो। ख़ैर सपना ही तो था। इसमें घबराने जैसी कोई बात नहीं है। आप आराम से सो जाइए छोटे ठाकुर। हम सब यहीं हैं।"

"शायद तुम सही कह रही हो काकी।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"मैं यकीनन सपना ही देख रहा था। वैसे बड़ा अजीब सा सपना था। मैंने आज से पहले कभी ऐसा कोई सपना नहीं देखा और ना ही इस तरह डर कर चीखा था।"

"कभी कभी ऐसा होता है छोटे ठाकुर।" मुंशी ने कहा____"नींद में हम ऐसा सपना देखने लगते हैं जिसे हमने पहले कभी नहीं देखा होता और उस सपने को हकीक़त मान कर हम उसी के हिसाब से प्रतिक्रिया कर बैठते हैं। ख़ैर अब आप आराम सो जाइए और अगर अँधेरे में आपको सोने में समस्या है तो हम ये जलता हुआ दिया यहीं पर रखवा देते हैं आपके लिए।"

"नहीं ऐसी बात नहीं है मुंशी जी।" मैंने कहा____"अँधेरे में सोने में मुझे कोई समस्या नहीं है। पिछले चार महीने तो मैं उस बंज़र ज़मीन में झोपड़ा बना कर रात के अँधेरे में अकेला ही सोता था और ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं उस अकेलेपन में कभी डरा होऊं। ख़ैर आप लोग जाइए मैं अब ठीक हूं।"

मेरे कहने पर प्रभा काकी और रघुवीर अंदर चले गए। प्रभा ने जलता हुआ दिया वहीं दिवार पर बने एक आले पर रख दिया था। उन दोनों के जाने के बाद मैंने मुंशी को भी सो जाने के लिए कहा और खुद भी चारपाई पर लेट गया। काफी देर तक मेरे ज़हन में वो सपना घूमता रहा और फिर पता नहीं कब मैं सो गया। इस बार के सोने पर मैंने कोई सपना नहीं देखा बल्कि रात भर चैन से सोता रहा।

सूबह हुई तो मैं उठा और दिशा मैदान से फुर्सत हो कर आया। मुंशी ने सुबह ही मेरे लिए बढ़िया नास्ता बनाने को कह दिया था। इस लिए मैं मुंशी के साथ ही नास्ता करने बैठ गया। नास्ते के बाद मैं मुंशी के साथ बाहर बैठक में आ गया।

"कल क्या हुआ था इस बारे में तो आपको पता चल ही गया होगा।" मैंने मुंशी की तरफ देखते हुए कहा____"वैसे क्या मैं आपसे जान सकता हूं कि साहूकारों के लिए क्या न्याय किया दादा ठाकुर ने?"

"कल आपके और साहूकारों के बीच जो कुछ भी हुआ था।" मुंशी ने कहा____"उसके बारे में साहूकारों ने ठाकुर साहब के पास जा कर कोई फ़रियाद नहीं की।"
"क्या मतलब??" मैंने चौंकते हुए पूछा।

"असल में ये बात तो शाहूकार मणिशंकर और हरिशंकर भी जानते थे कि जो कुछ हुआ था उसमे ग़लती मानिक की ही थी।" मुंशी ने कहा____"वो लोग भी ये समझते थे कि मानिक को कल आपके साथ उस लहजे में बात नहीं करनी चाहिए थी। उसके बाद कल मणिशंकर के बेटों ने जो कुछ किया उसमे भी ग़लती उन्हीं की थी। उनकी ग़लती इस लिए क्योंकि उन्हें आपसे उलझना ही नहीं चाहिए था। अगर उन्हें लगता था कि उनके या उनके बेटे के साथ आपने ग़लत किया है तो उसके लिए उन्हें सीधा दादा ठाकुर के पास न्याय के लिए जाना चाहिए था जबकि उन्होंने ऐसा नहीं किया बल्कि मणिशंकर ने कल रास्ते में आपको रोका और आपसे उस सम्बन्ध में बात शुरू कर दी।"

"वैसे ग़लती तो मेरी भी थी मुंशी जी।" मैंने गंभीर भाव से कहा____"माना कि कल मानिक ने ग़लत लहजे में मुझसे बात की थी और मैंने उसके लिए उसे सज़ा भी थी मगर उसके बाद मणिशंकर से मुझे उलटे तरीके से बात नहीं करनी चाहिए थी। वो मुझसे उम्र में बड़े थे और इस नाते मुझे सभ्यता से उनसे बात करनी चाहिए थी लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। हलांकि ऐसा इसी लिए हुआ क्योंकि उस वक़्त मैं बेहद गुस्से में था। ख़ैर जो हुआ सो हुआ लेकिन ये बात समझ में नहीं आई कि साहूकारों ने इस सबके लिए दादा ठाकुर से न्याय की मांग क्यों नहीं की?"

"जैसा कि मैंने आपको बताया कि वो लोग इस सब में अपनी भी ग़लती मानते थे इस लिए उन्होंने ठाकुर साहब से न्याय की मांग नहीं की।" मुंशी ने कहा____"दूसरी बात ये हैं कि कुछ दिन पहले ही मणिशंकर और हरिशंकर ठाकुर साहब से दोनों खानदान के बीच के रिश्ते सुधार लेने के बारे में बातचीत की थी। इस लिए वो ये भी नहीं चाहते थे कि इस झगड़े की वजह से सुधरने वाले सम्बन्ध इस सब से ख़राब हो जाएं। ख़ैर आप तो कल वहां थे नहीं इस लिए आपको पता भी नहीं होगा कि कल ठाकुर साहब और साहूकारों के बीच आपस में अपने रिश्ते सुधार लेने का फैसला हो चुका है। इस फैसले के बाद कल शाम को होलिका दहन पर भी शाहूकार ठाकुर साहब के साथ ही रहे और ख़ुशी ख़ुशी होलिका दहन का सारा कार्यक्रम हुआ। आज रंगों का पर्व है इस लिए आज भी शाहूकार और उनका पूरा परिवार हवेली में जमा होगा और वहां पर रंगों के इस त्यौहार पर ख़ुशी ख़ुशी सब एक दूसरे से गले मिलेंगे।"

"क्या आपको नहीं लगता मुंशी जी कि ये सब बहुत ही अजीब है?" मैंने मुंशी की तरफ ध्यान से देखते हुए कहा____"मेरा मतलब है कि जो शाहूकार हमेशा ही हमारे खिलाफ़ रहे हैं उन्होंने हमसे अपने रिश्ते सुधार लेने की बात ही नहीं कही बल्कि अपने रिश्ते सुधार भी लिए। क्या आपको लगता है कि ये सब उन्होंने हम ठाकुरों से सच्चे प्रेम के लिए किया होगा?"

"आप आख़िर कहना क्या चाहते हैं छोटे ठाकुर?" मुंशी ने कहा____"क्या आपको ये लगता है कि साहूकारों ने ठाकुर साहब से अपने रिश्ते इस लिए सुधारे हैं कि इसके पीछे उनकी कोई चाल है?"
"क्या आपको ऐसा नहीं लगता?" मैंने मुंशी की आँखों में झांकते हुए कहा।

"बात अजीब तो है छोटे ठाकुर।" मुंशी ने बेचैनी से पहलू बदला____"मगर इसके लिए कोई क्या कर सकता है? अगर गांव के शाहूकार ठाकुर साहब से अपने रिश्ते सुधार लेना चाहते हैं तो ये ग़लत बात तो नहीं है और ये ठाकुर साहब भी समझते हैं। ठाकुर साहब तो हमेशा से ही यही चाहते आए हैं कि गांव का हर इंसान एक दूसरे से मिल जुल कर प्रेम से रहे और अगर ऐसा हो रहा है तो ये ग़लत नहीं है। हलांकि साहूकारों के सम्बन्ध में ऐसा होना हर किसी के लिए सोचने वाली बात है और यकीनन ठाकुर साहब भी इस बारे में सोचते होंगे किन्तु जब तक साहूकारों की तरफ से ऐसा वैसा कुछ होता हुआ नहीं दिखेगा तब तक कोई कुछ भी नहीं कर सकता।"

"ख़ैर छोड़िए इस बात को।" मैंने विषय को बदलने की गरज़ से कहा____"ये बताइए कि आपने दादा ठाकुर से उस जगह पर मकान बनवाने के सम्बन्ध में बात की?"
"असल में कल इस बारे में बात करने का मौका ही नहीं मिला छोटे ठाकुर।" मुंशी ने कहा____"किन्तु आज मैं इस सम्बन्ध में ठाकुर साहब से बात करुंगा। उसके बाद आपको बताऊंगा कि क्या कहा है उन्होंने। वैसे अगर आपको बुरा न लगे तो एक बात कहना चाहता हूं आपसे।"

"जी कहिए।" मैंने मुंशी की तरफ देखते हुए कहा।
"आपको भी ठाकुर साहब से अपने रिश्ते सुधार लेने चाहिए।" मुंशी ने कहा____"मैं ठाकुर साहब के बारे में सिर्फ इतना ही कहूंगा कि वो एक ऐसे इंसान हैं जो कभी किसी का बुरा नहीं चाहते हैं और ना ही कभी कोई ग़लत फैसला करते हैं। आपको गांव से निष्कासित करने का उनका ये फैसला भी ग़लत नहीं हो सकता और ये बात मैं पूरे विश्वास के साथ कहता हूं।"

"हर किसी का अपना अपना नज़रिया होता है मुंशी जी।" मैंने कहा____"लोग एक ही बात को अपने अपने नज़रिये से देखते और सोचते हैं। मैं सिर्फ ये जानता हूं कि उस हवेली में मेरे लिए कोई जगह नहीं है और ना ही उस हवेली में मुझे कोई देखना चाहता है।"

"ऐसा आप समझते हैं छोटे ठाकुर।" मुंशी ने कहा____"जबकि ऐसी कोई बात ही नहीं है। मैं भी बचपन से उस हवेली में आता जाता रहा हूं। बड़े दादा ठाकुर के समय में मेरे पिता जी उनके मुंशी थे। बड़े दादा ठाकुर तो ऐसे थे कि उनके सामने जाने की किसी में भी हिम्मत नहीं होती थी जबकि ठाकुर साहब तो उनसे बहुत अलग हैं। जिस तरह की बातें आप अपने पिता जी से कर लेते हैं वैसी बातें बड़े दादा ठाकुर से कोई सात जन्म में भी नहीं कर सकता था। वो इस मामले में बहुत ही शख्त थे। उनके समय में अगर आपने उनसे ऐसे लहजे में बातें की होती तो आप अब तक जीवित ही नहीं रहते। उनके बाद जब ठाकुर साहब दादा ठाकुर की जगह पर आए तो उन्होंने उनकी तरह किसी पर भी ऐसी कठोरता नहीं दिखाई। उनका मानना है कि किसी के मन में अपने प्रति डर नहीं बल्कि प्रेम और सम्मान की भावना पैदा करो। ख़ैर, सच बहुत कड़वा होता है छोटे ठाकुर मगर किसी न किसी दिन उस सच को मानना ही पड़ता है। आपने अब तक सिर्फ वही किया है जिसमे सिर्फ आपकी ख़ुशी थी जबकि आपके असल कर्त्तव्य क्या हैं इस बारे में आपने कभी सोचा ही नहीं।"

"तो आप भी दादा ठाकुर की तरह मुझे प्रवचन देने लगे।" मैंने थोड़ा शख़्त भाव से कहा तो मुंशी ने हड़बड़ाते हुए कहा____"नहीं छोटे ठाकुर। मैं आपको प्रवचन नहीं दे रहा। मैं तो आपको समझाने का प्रयास कर रहा हूं कि सच क्या है और आपको क्या करना चाहिए।"

"आपको मुझे समझाने की ज़रूरत नहीं है मुंशी जी।" मैंने कहा____"मुझे अच्छी तरह पता है कि मैं क्या कर रहा हूं और मुझे क्या करना चाहिए। ख़ैर मैं चलता हूं अभी और हां उम्मीद करता हूं कि कल आप उस जगह पर मकान का निर्माण कार्य शुरू करवा देंगे।"

कहने के साथ ही मैं उठा और घर से बाहर निकल गया। मुंशी के घर से बाहर आ कर मैं पैदल ही दूसरे गांव की तरफ बढ़ चला। इस वक़्त मेरे ज़हन में यही बात चल रही थी कि अब मैं यहाँ से कहा जाऊं क्योंकि मुझे अपने लिए एक नया ठिकाना ढूढ़ना था। मुरारी काका के घर मैं जा नहीं सकता था और अपने दोस्तों को मैंने उस दिन भगा ही दिया था। आस पास खेतों में मजदूर फसल की कटाई में लगे हुए थे। सड़क के किनारे एक जगह जामुन का पेड़ था जिसके नीचे छांव में मैं बैठ गया।

जामुन के पेड़ की छांव में बैठा मैं आस पास देख रहा था और यही सोच रहा था कि जो कुछ मैंने सोचा था वो सब हो ही नहीं रहा है। आख़िर कैसे मैं अपनी बिखरी हुई ज़िन्दगी को समेटूं? मुरारी काका की हत्या का रहस्य कैसे सुलझाऊं? मेरे तीनो भाइयों का ब्योहार मेरे प्रति अगर बदला हुआ है तो इसके कारण का पता मैं कैसे लगाऊं? कुसुम को मैंने हवेली में जासूसी के काम पर लगाया था इस लिए अगर उसे कुछ पता चला भी होगा तो अब वो मुझे कैसे बतायेगी, क्योकि मैं तो अब हवेली में हूं ही नहीं। मेरे लिए ये सब अब बहुत कठिन कार्य लगने लगा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं किस तरफ जाऊं और किस तरह से इस सबका पता लगाऊं?

मुंशी चंद्रकांत के अनुसार गांव के साहूकारों ने दादा ठाकुर से अपने सम्बन्ध सुधार लिए हैं जो कि बेहद सोचने वाली और चौंकाने वाली बात थी। मेरा मन ज़रा भी इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं था कि गांव के ये शाहूकार हम ठाकुरों से बड़े नेक इरादों के तहत अपने सम्बन्ध जोड़े हैं। मुझे इसके बारे में पता लगाना होगा। आख़िर पता तो चले कि उनके मन में इस सबके पीछे कौन सी खिचड़ी पकने वाली है? मैंने सोच लिया कि इस सबका पता करने के लिए मुझे अभ कुछ न कुछ करना ही होगा।

(दोस्तों यहाँ पर मैं गांव के साहूकारों का संक्षिप्त परिचय देना ज़रूरी समझता हूं।)

वैसे तो गांव में और भी कई सारे शाहूकार थे किन्तु बड़े दादा ठाकुर की दहशत की वजह से साहूकारों के कुछ लोग ये गांव छोड़ कर दूसरी जगह जा कर बस गए थे। उनके बाद दो भाई ही बचे थे। जिनमे से बड़े भाई का ब्याह हुआ था जबकि दूसरा भाई जो छोटा था उसका ब्याह नहीं हुआ था। ब्याह न होने का कारण उसका पागलपन और मंदबुद्धि होना था। गांव में साहूकारों के परिवार का विवरण उन्हीं दो भाइयों से शुरू करते हैं।

☆ चंद्रमणि सिंह (बड़ा भाई/बृद्ध हो चुके हैं)
☆ इंद्रमणि सिंह (छोटा भाई/अब जीवित नहीं हैं)

इन्द्रमणि कुछ पागल और मंदबुद्धि था इस लिए उसका विवाह नहीं हुआ था या फिर कहिए कि उसके भाग्य में शादी ब्याह होना लिखा ही नहीं था। कुछ साल पहले गंभीर बिमारी के चलते इंद्रमणि का स्वर्गवास हो गया था।

चंद्रमणि सिंह को चार बेटे हुए। चंद्रमणि की बीवी का नाम सुभद्रा सिंह था। इनके चारो बेटों का विवरण इस प्रकार है।

☆ मणिशंकर सिंह (बड़ा बेटा)
फूलवती सिंह (मणिशंकर की बीवी)
मणिशंकर को चार संताने हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) चन्द्रभान सिंह (बड़ा बेटा/विवाहित)
कुमुद सिंह (चंद्रभान की बीवी)
इन दोनों को एक बेटी है अभी।

(२) सूर्यभान सिंह (छोटा बेटा/अविवाहित)
(३) आरती सिंह (मणिशंकर की बेटी/अविवाहित)
(४) रेखा सिंह (मणिशंकर की छोटी बेटी/अविवाहित)

☆ हरिशंकर सिंह (चंद्रमणि का दूसरा बेटा)
ललिता सिंह (हरिशंकर की बीवी)
हरिशंकर को तीन संताने हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) मानिकचंद्र सिंह (हरिशंकर का बड़ा बेटा/पिछले साल विवाह हुआ है)
नीलम सिंह (मानिक चंद्र की बीवी)
इन दोनों को अभी कोई औलाद नहीं हुई है।

(२) रूपचंद्र सिंह (हरिशंकर का दूसरा बेटा/ अविवाहित)
(३) रूपा सिंह (हरिशंकर की बेटी/अविवाहित)

☆ शिव शंकर सिंह (चंद्रमणि का तीसरा बेटा)
विमला सिंह (शिव शंकर की बीवी)
शिव शंकर को चार संताने हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) नंदिनी सिंह (शिव शंकर की बड़ी बेटी/विवाहित)
(२) मोहिनी सिंह (शिव शंकर की दूसरी बेटी/अविवाहित)
(३) गौरव सिंह (शिव शंकर का बेटा/अविवाहित)
(४) स्नेहा सिंह (शिव शंकर की छोटी बेटी/ अविवाहित)

☆ गौरी शंकर सिंह (चंद्रमणि का चौथा बेटा)
सुनैना सिंह (गौरी शंकर की बीवी)
गौरी शंकर को दो संताने हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) राधा सिंह (गौरी शंकर की बेटी/अविवाहित)
(२) रमन सिंह (गौरी शंकर का बेटा/अविवाहित)

चंद्रमणि सिंह को एक बेटी भी थी जिसके बारे में मैंने सुना था कि वो क‌ई साल पहले गांव के ही किसी आदमी के साथ भाग गई थी उसके बाद आज तक उसका कहीं कोई पता नहीं चला।

जामुन के पेड़ के नीचे बैठा मैं सोच रहा था कि साहूकारों के अंदर की बात का पता कैसे लगाऊं? मेरे और उनके बीच के रिश्ते तो हमेशा से ही ख़राब रहे हैं किन्तु इसके बावजूद हरिशंकर की बेटी रूपा से मेरे अच्छे सम्बन्ध रहे हैं। साल भर पहले रूपा से मेरी नज़रें मिली थी। जैसा उसका नाम था वैसी ही थी वो। गांव के दूसरे छोर पर बने माता रानी के मंदिर में अक्सर वो जाया करती थी और मैं अपने दोस्तों के साथ इधर उधर कच्ची कलियों की तलाश में भटकता ही रहता था।

रूपा से मेरी मुलाक़ात का किस्सा भी बस संयोग जैसा ही था। मैं एक ऐसा इंसान था जो देवी देवताओं को बिलकुल भी नहीं मानता था किन्तु नए शिकार के लिए मंदिर के चक्कर ज़रूर लगाया करता था। ऐसे ही एक दिन मैं मंदिर के बाहर बैठा अपने दोस्तों के आने का इंतज़ार कर रहा था कि तभी रूपा मंदिर से बाहर आई और मेरे सामने आ कर मुझे माता रानी का प्रसाद देने के लिए अपना एक हाथ मेरी तरफ बढ़ाया तो मैंने चौंक कर उसकी तरफ देखा। दोस्तों ने बताया तो था मुझे कि साहूकारों की लड़किया बड़ी सुन्दर हैं और मस्त माल हैं लेकिन क्योंकि साहूकारों से मेरे रिश्ते ख़राब थे इस लिए मैं कभी उनकी लड़कियों की तरफ ध्यान ही नहीं देता था।

खिली हुई धूप में अपने सिर पर पीले रंग के दुपट्टे को ओढ़े रूपा बेहद ही खूबसूरत दिख रही थी और मैं उसके रूप सौंदर्य में खो सा गया था जबकि वो मेरी तरफ अपना हाथ बढ़ाए वैसी ही खड़ी थी। जब उसने मुझे अपनी तरफ खोए हुए से देखा तो उसने अपने गले को हल्का सा खंखारते हुए आवाज़ दी तो मैं हकीक़त की दुनिया में आया। मैंने हड़बड़ा कर पहले इधर उधर देखा फिर अपना हाथ प्रसाद लेने के लिए आगे कर दिया जिससे उसने मेरे हाथ में एक लड्डू रख दिया।

रूपा ने मुझे प्रसाद में लड्डू दिया तो मेरे मन में भी कई सारे लड्डू फूट पड़े थे। इससे पहले कि मैं उससे कुछ कहता वो मुस्कुराते हुए चली गई थी। इतना तो मैं समझ गया था कि उसे मेरे बारे में बिलकुल भी पता नहीं था, अगर पता होता तो वो मुझे कभी प्रसाद न देती बल्कि मेरी तरफ नफ़रत से देख कर चली जाती।

उस दिन के बाद से मेरे दिलो दिमाग़ में रूपा की छवि जैसे बैठ सी गई थी। मैं हर रोज़ माता रानी के मंदिर आता मगर वो मुझे न दिखती। मैं रूपा को देखने के लिए जैसे बेक़रार सा हो गया था। एक हप्ते बाद ठीक उसी दिन वो फिर से आई। हल्के सुर्ख रंग के शलवार कुर्ते में वो बहुत ही खूबसूरत दिख रही थी। चेहरे पर ऐसी चमक थी जैसे कई सारे सितारों ने उस पर अपना नूर लुटा दिया हो। माता रानी की पूजा कर के वो मंदिर से बाहर आई तो सीढ़ियों के नीचे उसका मुझसे सामना हो गया। उसने मुस्कुराते हुए मुझे फिर से प्रसाद देने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया तो मैं उसी की तरफ अपलक देखते हुए अपनी हथेली उसके सामने कर दी जिससे उसने फिर से मेरी हथेली पर एक लड्डू रख दिया। उसके बाद जैसे ही वो जाने लगी तो इस बार मैं बिना बोले न रह सका।

"सुनिए।" मैंने नम्र स्वर में उसे पुकारा तो उसने पलट कर मेरी तरफ देखा। उसकी आँखों में सवाल देख कर मैंने खुद की बढ़ी हुई धड़कनों को सम्हालते हुए कहा____"क्या आप जानती हैं कि मैं कौन हूं?"

"मंदिर में आया हुआ हर इंसान माता रानी का भक्त ही हो सकता है।" उसने अपनी मधुर आवाज़ में मुस्कुराते हुए कहा तो मेरे होठों पर भी मुस्कान उभर आई, जबकि उसने आगे कहा____"बाकि असल में आप कौन हैं ये भला मैं कैसे जान सकती हूं और सच तो ये है कि मैं जानना भी नहीं चाहती।"

"मेरा नाम ठाकुर वैभव सिंह है।" मैंने उसे सच बता दिया जिसे सुन कर उसके चेहरे पर चौंकने वाले भाव उभर आए और साथ ही उसके चेहरे पर घबराहट भी नज़र आने लगी।

"आपके चेहरे के भाव बता रहे हैं कि आप मेरी सूरत से नहीं बल्कि मेरे नाम से परिचित हैं।" मैंने कहा____"इस लिए ज़ाहिर है कि मेरे बारे में जान कर अब आप मुझसे नफ़रत करने लगेंगी। ऐसा इस लिए क्योंकि आपके भाइयों के साथ मेरे ताल्लुकात कभी अच्छे नहीं रहे।"

"मैंने आपके बारे में सुना है।" उसने कहा____"और ये भी जानती हूं कि दादा ठाकुर के दूसरे बेटे के साथ मेरे भाइयों का अक्सर झगड़ा होता रहता है। ये अलग बात है कि उस झगड़े में अक्सर मेरे भाई बुरी तरह पिट कर आते थे। ख़ैर मैं ये मानती हूं कि ताली एक हाथ से कभी नहीं बजती। उसके लिए दोनों हाथों का स्पर्श होना ज़रूरी होता है। कहने का मतलब ये कि अगर आपके और मेरे भाइयों के बीच झगड़ा होता है तो उसमे किसी एक की ग़लती तो नहीं होती होगी न? अगर कभी आपकी ग़लती होती होगी तो कभी मेरे भाइयों की भी तो ग़लती होगी।"

"काफी दिलचस्प बातें कर रही हैं आप।" मैं रूपा की बातों से प्रभावित हो गया था____"इसका मतलब आप उस सबके लिए सिर्फ मुझ अकेले को ही दोषी नहीं मानती हैं? मैं तो बेवजह ही इस बात के लिए अंदर से थोड़ा डर रहा था आपसे।"

"चलती हूं अब।" उसने नम्रता से कहा और पलट गई। मैंने उसे रोकना तो चाहा मगर फिर मैंने अपना इरादा बदल दिया। असल में मैं नहीं चाहता था कि वो ये समझे कि मैं उस पर डोरे डाल रहा हूं। उसे मेरे बारे में पता था तो ये भी पता होगा कि मैं लड़कियों और औरतों का कितना बड़ा रसिया इंसान हूं।

मैं रूपा के लिए काफी संजीदा हो गया था। वो मेरे दिलो दिमाग़ में छा गई थी और अब मैं उसे किसी भी कीमत पर हासिल करना चाहता था। मेरे दोस्तों को भी ये सब पता था किन्तु वो भी कुछ नहीं कर सकते थे। ख़ैर ऐसे ही दिन गुजरने लगे। मैंने ये देखा था कि वो हर हप्ते माता रानी के मंदिर पर आती थी इस लिए जिस दिन वो आती थी उस दिन मैं भी माता रानी के मंदिर पहुंच जाता था। उसके चक्कर में मैंने भी माता रानी की भक्ति शुरू कर दी थी। वो मुझे मिलती और मुझे बिना किसी द्वेष भावना के प्रसाद देती और चली जाती। मैं उससे बात करने की कोशिश करता मगर उससे बात करने में पता नहीं क्यों मुझे झिझक सी होती थी और इस चक्कर में वो चली जाती थी। मैं खुद पर हैरान होता कि मैं लड़कियों और औरतों के मामले में इतना तेज़ था मगर रूपा के सामने पता नहीं क्या हो जाता था मुझे कि मैं उससे कोई बात नहीं कर पाता था।

ऐसे ही दो महीने गुज़र गए। मैं हर हप्ते उसी के जैसे माता रानी के मंदिर जाता और उससे प्रसाद ले कर चला आता। इस बीच इतना ज़रूर बदलाव आ गया था कि हम एक दूसरे से हाल चाल पूछ लेते थे मगर मेरे लिए सिर्फ हाल चाल पूछना और बताना ही काफी नहीं था। मुझे तो उसे हासिल करना था और उसके खूबसूरत बदन का रसपान करना था। जब मैंने जान लिया कि मेरी दाल रूपा पर गलने वाली नहीं है तो मैंने माता रानी के मंदिर जाना ही छोड़ दिया। ठाकुर वैभव सिंह हार मान गया था और अपना रास्ता बदल लिया था। ऐसे ही दो हप्ते गुज़र गए और मैं माता रानी के मंदिर नहीं गया। एक तरह से अब मैं रूपा को अपने ज़हन से निकाल ही देना चाहता था किन्तु मेरे लिए ये इतना आसान नहीं था।

तीसरे हप्ते मैं अपने दोस्त के घर जा रहा था कि रास्ते में मुझे रूपा मिल गई। मैंने बिलकुल भी उम्मीद नहीं की थी कि उससे मेरा इस तरह से सामना हो जाएगा। उसे देखते ही दिल की धड़कनें बढ़ गईं और दिल में घंटियां सी बजने लगीं। वो हाथ में पूजा की थाली लिए मंदिर जा रही थी और जब हम दोनों एक दूसरे के सामने आए तो हमारी नज़रें चार हो गई जिससे उसके गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई। उसकी ये मुस्कान हमेशा की तरह मेरे मन में उम्मीद जगा देती थी मगर दो महीने बाद भी जब मेरी गाड़ी आगे नहीं बढ़ सकी थी तो मैंने अब उसको हासिल करने का इरादा ही छोड़ दिया था मगर आज तो जैसे होनी कुछ और ही होने वाली थी।

"छोटे ठाकुर जी आज कल आप मंदिर क्यों नहीं आते।" अपने सामने मुझे देखते ही उसने मुस्कुराते हुए कहा____"कहीं चले गए थे क्या?"
"मंदिर आने का फायदा क्या है रूपा?" मैंने फीकी सी मुस्कान के साथ कहा____"जिस देवी की भक्ति करने आता था उसे शायद मेरी भक्ति करना पसंद ही नहीं है। इस लिए मंदिर जाना ही छोड़ दिया।"

"कमाल है छोटे ठाकुर जी।" रूपा ने अपनी उसी मुस्कान में कहा____"आपने ये कैसे सोच लिया कि देवी को आपकी भक्ति करना पसंद नहीं है? सच्चे दिल से भक्ति कीजिए। आपकी जो भी मुराद होगी वो ज़रूर पूरी होगी।"

"मेरे जैसा नास्तिक इंसान।" मैंने रूपा की गहरी आँखों में देखते हुए कहा____"सच्चे दिल से ही भक्ति कर रहा था किन्तु मैं समझ गया हूं कि जिस देवी की मैं भक्ति कर रहा था वो देवी ना तो मुझे मिलेगी और ना ही वो मेरी मुराद पूरी करेगी।"

"इतनी जल्दी हार नहीं माननी चाहिए छोटे ठाकुर जी।" रूपा ने कहा___"इंसान को आख़िरी सांस तक प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि संभव है कि आख़िरी सांस के आख़िरी पल में उसे अपनी भक्ति करने का प्रतिफल मिल जाए।"

"यही तो समस्या है रूपा।" मैंने कहा____"कि इन्सान आख़िरी सांस तक का इंतज़ार नहीं करना चाहता बल्कि वो तो ये चाहता है कि भक्ति किये बिना ही इंसान के सारे मनोरथ सफल हो जाएं। मैं भी वैसे ही इंसानों में से हूं। ख़ैर सच तो ये है कि मैं तो मंदिर में आपकी ही भक्ति करने आता था। अब आप बताइए कि क्या आप मेरी भक्ति से प्रसन्न हुई हैं?"

रूपा मेरी ये बात सुन कर एकदम से भौचक्की रह गई। आँखें फाड़े वो मेरी तरफ इस तरह देखने लगी थी जैसे अचानक ही मेरी खोपड़ी मेरे धड़ से अलग हो कर हवा में कत्थक करने लगी हो।

"ये आप क्या कह रहे हैं छोटे ठाकुर जी?" फिर रूपा ने चकित भाव से कहा____"आप माता रानी के मंदिर में मेरी भक्ति करने आते थे?"
"इसमे इतना चकित होने वाली कौन सी बात है रूपा?" मैंने कहा____"इन्सान को जो देवी जैसी लगे उसी की तो भक्ति करनी चाहिए ना? मेरी नज़र में तो आप ही देवी हैं इस लिए मैं आपकी ही भक्ति कर रहा था।"

"बड़ी अजीब बातें कर रहे हैं आप।" रूपा जैसे बौखला सी गई थी____"भला ऐसा भी कहीं होता है? चलिए हमारा रास्ता छोड़िए। हमें मंदिर जाने में देर हो रही है।"
"जी बिल्कुल।" मैंने एक तरफ हटते हुए कहा____"आप मंदिर जाइए और अपनी देवी की भक्ति कीजिए और मैं अपनी देवी की भक्ति करुंगा।"

"करते रहिए।" रूपा ने कहा____"लेकिन याद रखिएगा ये देवी आपकी भक्ति से प्रसन्न होने वाली नहीं है। मैं समझ गई हूं कि आपकी मंशा क्या है। मैंने बहुत कुछ सुना है आपके बारे में।"
"बिल्कुल सुना होगा।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"वैभव सिंह चीज़ ही ऐसी है कि हर कोई उसके बारे में जानता है। ख़ैर मैं बस ये कहना चाहता हूं कि भक्ति का जो उसूल है उसे आप तोड़ नहीं सकती हैं। इंसान जब किसी देवी देवता की भक्ति करता है तो देवी देवता उसकी भक्ति का प्रतिफल उसे ज़रूर देते हैं। इस लिए इस बात को आप भी याद रखिएगा कि मेरी भक्ति का फल आपको भी देना होगा।"

"भक्ति का सबसे बड़ा नियम ये है छोटे ठाकुर जी कि बिना किसी इच्छा के भक्ति करना चाहिए।" रूपा ने कहा____"अगर भक्त के मन में भगवान से कुछ पाने की लालसा होती है तो फिर उसकी भक्ति भक्ति नहीं कहलाती। ऐसे में कोई भी देवी देवता फल देने के लिए बाध्य नहीं होते।"

"मैं बस ये जानता हूं कि मेरी देवी इतनी कठोर नहीं है।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"कि वो अपनी भक्ति करने वाले पर कोई नियम बना के रखे।"

रूपा मेरी सुन कर कुछ पलों तक मुझे देखती रही और फिर बिना कुछ बोले ही चली गई। उसके जाने के बाद मैं भी मुस्कुराते हुए दोस्त के घर की तरफ चला गया। आज मैं खुश था कि इस मामले में रूपा से कोई बात तो हुई। अब देखना ये था कि इन सब बातों का रूपा पर क्या असर होता है।

कुछ दिन ऐसे ही गुज़रे और फिर एक रात मैं हरिशंकर के घर पहुंच गया। घर के पिछवाड़े से होते हुए मैं रात के अँधेरे का फायदा उठाते हुए उस जगह पर पहुंच गया जहां पर रूपा के कमरे की खिड़की थी। मेरी किस्मत अच्छी थी कि उस तरफ बांस की एक सीढ़ी रखी हुई थी जिसे ले कर मैं रूपा के कमरे की खिड़की के नीचे दीवार पर लगा दिया। आस पास कोई नहीं था। मैं बहुत सोच विचार कर के ही यहाँ आया था। हलांकि यहाँ आना मेरे लिए ख़तरे से खाली नहीं था किन्तु वैभव सिंह उस बाला का नाम था जो ना तो किसी ख़तरे से डरता था और ना ही किसी के बाप से।

सीधी से चढ़ कर मैं खिड़की के पास पहुंच गया। दूसरे माले पर बने छज्जे पर चढ़ कर मैंने खिड़की के खुले हुए पल्ले से अंदर की तरफ देखा। कमरे में बिजली के बल्ब का धीमा प्रकाश था। आज दिन में ही मैंने पता करवा लिया था कि रूपा का कमरा कहां पर है इस लिए मुझे ज़्यादा परेशानी नहीं हुई थी। ख़ैर खिड़की के पल्ले से अंदर की तरफ देखा तो रूपा कमरे में रखे एक पलंग पर लेटी हुई नज़र आई। वो सीधा लेटी हुई थी और छत पर धीमी गति से चल रहे पंखे को घूर रही थी। यकीनन वो किसी ख़यालों में गुम थी। मैंने खिड़की के पल्ले को हाथ से थपथपाया तो उसकी तन्द्रा टूटी और उसने चौंक कर इधर उधर देखा।

मैंने दूसरी बार खिड़की के पल्ले को थपथपाया तो उसका ध्यान खिड़की की तरफ गया तो वो एकदम से घबरा गई। उसे लगा खिड़की पर कोई चोर है लेकिन तभी मैंने खिड़की के अंदर अपना सिर डाला और उसे हलके से आवाज़ दी। बिजली के बल्ब की धीमी रौशनी में मुझ पर नज़र पड़ते ही वो बुरी तरह चौंकी। आँखें हैरत से फट पड़ी उसकी, जैसे यकीन ही न आ रहा हो कि खिड़की पर मैं हूं। मैंने उसे खिड़की के पास आने का इशारा किया तो वो घबराये हुए भाव लिए खिड़की के पास आई।

"छोटे ठाकुर जी आप इस वक्त यहाँ कैसे?" मेरे पास आते ही उसने घबराये हुए लहजे में कहा।
"अपनी देवी के दर्शन करने आया हूं।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"क्या करूं इस देवी का चेहरा आँखों में इस क़दर बस गया है कि उसे देखे बिना चैन ही नहीं आता। इस लिए न दिन देखा न रात। बस चला आया अपनी देवी के दर्शन करने।"

"ये आप बहुत ग़लत कर रहे हैं छोटे ठाकुर जी।" रूपा ने इस बार थोड़े नाराज़ लहजे में कहा____"आप यहाँ से चले जाइये वरना मैं शोर कर के सबको यहाँ बुला लूंगी। उसके बाद क्या होगा ये आप भी बेहतर जानते हैं।"

"मैं तो बस अपनी देवी के दर्शन करने ही आया था रूपा।" मैंने कहा____"मेरे दिल में कोई ग़लत भावना नहीं है और अगर तुम शोर कर के अपने घर वालों को यहाँ बुलाना ही चाहती हो तो शौक से बुलाओ। तुम भी अच्छी तरह जानती हो कि इससे मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा बल्कि उल्टा तुम्हारे घर वाले तुम्हारे ही बारे में ग़लत सोचने लगेंगे।"

रूपा मेरी ये बात सुन कर हैरत से मेरी तरफ देखने लगी थी। उसके चेहरे पर चिंता और परेशानी के भाव उभर आये थे। मुझे उसके चेहरे पर ऐसे भाव देख कर बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा।

"चिंता मत करो रूपा।" मैंने कहा____"मैं ऐसा कोई भी काम नहीं करुंगा जिससे मेरी देवी के बारे में कोई भी ग़लत सोचे। दिल में अपनी देवी को देखने की बहुत इच्छा थी इस लिए रात के इस वक़्त यहाँ आया हूं। अब अपनी देवी को देख लिया है इस लिए जा रहा हूं। तुम भी आराम से सो जाओ। मैं दुआ करुंगा कि मेरी देवी को अपनी नींद में अपने इस भक्त का ही सपना आए।"

इतना कह कर मैं रूपा को हैरान परेशान हालत में छोड़ कर छज्जे से उतर कर सीढ़ी पर आया और फिर सीढ़ी से नीचे। बांस की सीढ़ी को उठा कर मैंने उसे उसी जगह पर रख दिया जहां पर वो पहले रखी हुई थी। उसके बाद मैं जैसे यहाँ आया था वैसे ही निकल भी गया।

ऐसे ही दिन गुजरने लगे। मैं अक्सर रात में रूपा की खिड़की पर पहुंच जाता और उसे देख कर वापस आ जाता। कुछ दिनों तक तो रूपा मेरी ऐसी हरकतों से बेहद चिंतित और परेशान रही किन्तु धीरे धीरे वो भी इस सबकी आदी हो गई। उसके बाद ऐसा भी हुआ कि रूपा को भी मेरा इस तरह से उसके पास आना अच्छा लगने लगा। फिर तो हालात ऐसे बन गए कि रूपा भी मुझसे ख़ुशी ख़ुशी बातें करने लगी। उसे भी मेरा रात में इस तरह छुप कर उसके कमरे की खिड़की के पास आना अच्छा लगने लगा। मैं समझ गया था कि रूपा अब मेरे जाल में फंस गई है और इससे मैं खुश भी था। वो हप्ते में माता रानी के मंदिर जाती थी किन्तु अब वो हर रोज़ जाने लगी थी। धीरे धीरे हमारे बीच हर तरह की बातें होने लगीं और फिर वो दिन भी आ गया जब रूपा के ही कमरे में और उसकी ही ख़ुशी से मैंने उसको भोगा। हलांकि इस हालात पर पहुंचने में दो महीने लग गए थे मगर मैं उसके साथ ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं करना चाहता था। रूपा ने खुल कर मुझसे कह दिया था कि वो मुझसे प्रेम करने लगी है मगर उसे भोगने के बाद मैंने उसे अच्छी तरह समझाया था कि हम दोनों के खानदान के बीच के रिश्ते अच्छे नहीं हैं इस लिए हम दोनों का प्रेम एक दर्द की दास्ताँ बन कर रह जाएगा। इससे अच्छा तो यही है कि हम अपने इस प्रेम को अपने दिल तक ही सीमित रखें।

रूपा भी जानती थी कि हम दोनों के खानदान के बीच जो सम्बन्ध थे वो कभी भी अच्छे नहीं रहे थे। इस लिए रूपा ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया। मैंने रूपा को वचन दिया था कि मैं कभी भी उसे रुसवा नहीं करुंगा बल्कि हमेशा उसकी और उसके प्रेम की इज्ज़त करुंगा। उसके बाद जब भी रूपा को प्रेम मिलन की इच्छा होती तो वो मंदिर के बहाने आ कर मुझसे मिलती और कहती कि आज रात मैं उसके घर आऊं। रूपा के साथ मेरा सम्बन्ध गांव की बाकी हर लड़कियों से बहुत अलग था।

अभी मैं रूपा के बारे में ये सब सोच ही रहा था कि तभी मेरी नज़र दूर से आती हुई बग्घी पर पड़ी। मैं समझ गया कि हवेली का कोई सदस्य मेरी तलाश करता हुआ इस तरह आ रहा है। बग्घी अभी दूर ही थी इस लिए मैं जामुन के उस पेड़ से निकल कर खेतों में घुस गया। मैंने मन ही मन सोच लिया था कि साहूकारों के अंदर की बात का पता मैं रूपा के द्वारा ही लगाऊंगा। खेत में गेहू की पकी हुई फसल खड़ी थी और मैं उसी के बीच बैठ गया था जिससे किसी की नज़र मुझ पर नहीं पड़ सकती थी। कुछ ही देर में बग्घी मेरे सामने सड़क पर आई। मेरी नज़र बग्घी में बैठे हुए शख़्स पर पड़ी तो मैं हलके से चौंक पड़ा।


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Ye chhota thakur sala pura chutiya aadami hai.. :noo:
Khair ab hero bhi wahi hai to kuchh na kuchh to ho jayega uska.. :D
 

Raj_sharma

परिवर्तनमेव स्थिरमस्ति ||❣️
Supreme
18,716
44,163
259
☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 18
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अब तक,,,,,

जाने कितनी ही देर तक मैं इसी सब के बारे में सोचता रहा और फिर पता ही नहीं चला कि कब मेरी आँख लग गई और मैं नींद की आगोश में चला गया। नींद में मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मेरे चारो तरफ गाढ़ा काला धुआँ फैलता जा रहा है और मैं उस धुएं में धीरे धीरे समाता जा रहा हूं। मैं अपने हाथ पैर ज़ोर ज़ोर से चला रहा था मगर मेरे हाथ पैर चलने से भी कुछ नहीं हो रहा बल्कि मैं निरंतर उस धुएं में समाता ही जा रहा था और फिर तभी मैं ज़ोर से चीख पड़ा।

अब आगे,,,,,



"क्या हुआ...क्या हुआ???" मेरे बाएं तरफ दूसरी चारपाई पर सोया पड़ा मुंशी मेरी चीख सुन कर ज़ोर से उछल पड़ा था____"छोटे ठाकुर क्या हुआ? आप अचानक इस तरह चीख क्यों पड़े?"

मुंशी की ये बात सुन कर मैंने इधर उधर देखा। चीखने के साथ ही मैं उठ बैठा था। हर तरफ अँधेरा था और इस वक़्त मुझे कुछ दिख नहीं रहा था। हलांकि अपने बाएं तरफ से मुंशी की ये आवाज़ ज़रूर सुनी थी मैंने किन्तु उसके पूछने पर मैं कुछ बोल न सका था। मेरे ज़हन में अभी भी वही सब चल रहा था। मैं एक जगह पर लेटा हुआ था और कहीं से गाढ़ा काला धुआँ फैलते हुए आया और मैं उसमे डूबता ही जा रहा था। उस धुएं से बचने के लिए मैं बड़ी तेज़ी से अपने हाथ पैर चला रहा था और चीख भी रहा था मगर मेरी आवाज़ खुद मुझे ही नहीं सुनाई दे रही थी। मेरे हाथ पैर चलाने का भी कोई असर नहीं हो रहा था बल्कि मैं निरंतर उस धुएं में डूबता ही जा रहा था।

"छोटे ठाकुर।" मैं अभी इन ख़यालों में ही खोया था कि मुंशी की आवाज़ फिर से मेरे कानों में पड़ी____"आप कुछ बोलते क्यों नहीं? क्या हुआ है आपको? आप इतनी ज़ोर से चीख क्यों पड़े थे?"

"मुंशी जी?" अपने आपको सम्हालते हुए मैंने मुंशी को पुकारा तो उसने जी छोटे ठाकुर कहा जिस पर मैंने कहा____"हर तरफ इतना अँधेरा क्यों है?"
"वो इस लिए छोटे ठाकुर कि इस वक्त रात है।" मुंशी ने कहा____"और रात में सोते समय हम दिए बुझा कर ही सोते हैं। अगर आप कहें तो मैं दिए जलवा देता हूं। बिजली तो है ही नहीं।"

अभी मैं कुछ बोलने ही वाला था कि तभी अंदर से हाथ में दिया लिए मुंशी की बीवी और उसका बेटा रघुवीर तेज़ी से चलते हुए आए। दिए की रौशनी में अँधेरा दूर हुआ तो मैंने अपने आस पास देखा। इस वक्त मेरी हालत थोड़ी अजीब सी हो गई थी।

"क्या हुआ छोटे ठाकुर?" मुंशी की बीवी ने ब्याकुल भाव से मुझसे पूछा तो उसके जवाब में मुंशी ने कहा____"मुझे तो लगता है प्रभा कि छोटे ठाकुर सोते समय कोई डरावना सपना देख रहे थे जिसकी वजह से वो इतना ज़ोर से चीख पड़े थे।"

"छोटे ठाकुर हमारे घर में पहली बार सोये हैं।" प्रभा ने कहा____"इस लिए हो सकता है कि न‌ई जगह पर सोने से ऐसा हुआ हो। ख़ैर सपना ही तो था। इसमें घबराने जैसी कोई बात नहीं है। आप आराम से सो जाइए छोटे ठाकुर। हम सब यहीं हैं।"

"शायद तुम सही कह रही हो काकी।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"मैं यकीनन सपना ही देख रहा था। वैसे बड़ा अजीब सा सपना था। मैंने आज से पहले कभी ऐसा कोई सपना नहीं देखा और ना ही इस तरह डर कर चीखा था।"

"कभी कभी ऐसा होता है छोटे ठाकुर।" मुंशी ने कहा____"नींद में हम ऐसा सपना देखने लगते हैं जिसे हमने पहले कभी नहीं देखा होता और उस सपने को हकीक़त मान कर हम उसी के हिसाब से प्रतिक्रिया कर बैठते हैं। ख़ैर अब आप आराम सो जाइए और अगर अँधेरे में आपको सोने में समस्या है तो हम ये जलता हुआ दिया यहीं पर रखवा देते हैं आपके लिए।"

"नहीं ऐसी बात नहीं है मुंशी जी।" मैंने कहा____"अँधेरे में सोने में मुझे कोई समस्या नहीं है। पिछले चार महीने तो मैं उस बंज़र ज़मीन में झोपड़ा बना कर रात के अँधेरे में अकेला ही सोता था और ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं उस अकेलेपन में कभी डरा होऊं। ख़ैर आप लोग जाइए मैं अब ठीक हूं।"

मेरे कहने पर प्रभा काकी और रघुवीर अंदर चले गए। प्रभा ने जलता हुआ दिया वहीं दिवार पर बने एक आले पर रख दिया था। उन दोनों के जाने के बाद मैंने मुंशी को भी सो जाने के लिए कहा और खुद भी चारपाई पर लेट गया। काफी देर तक मेरे ज़हन में वो सपना घूमता रहा और फिर पता नहीं कब मैं सो गया। इस बार के सोने पर मैंने कोई सपना नहीं देखा बल्कि रात भर चैन से सोता रहा।

सूबह हुई तो मैं उठा और दिशा मैदान से फुर्सत हो कर आया। मुंशी ने सुबह ही मेरे लिए बढ़िया नास्ता बनाने को कह दिया था। इस लिए मैं मुंशी के साथ ही नास्ता करने बैठ गया। नास्ते के बाद मैं मुंशी के साथ बाहर बैठक में आ गया।

"कल क्या हुआ था इस बारे में तो आपको पता चल ही गया होगा।" मैंने मुंशी की तरफ देखते हुए कहा____"वैसे क्या मैं आपसे जान सकता हूं कि साहूकारों के लिए क्या न्याय किया दादा ठाकुर ने?"

"कल आपके और साहूकारों के बीच जो कुछ भी हुआ था।" मुंशी ने कहा____"उसके बारे में साहूकारों ने ठाकुर साहब के पास जा कर कोई फ़रियाद नहीं की।"
"क्या मतलब??" मैंने चौंकते हुए पूछा।

"असल में ये बात तो शाहूकार मणिशंकर और हरिशंकर भी जानते थे कि जो कुछ हुआ था उसमे ग़लती मानिक की ही थी।" मुंशी ने कहा____"वो लोग भी ये समझते थे कि मानिक को कल आपके साथ उस लहजे में बात नहीं करनी चाहिए थी। उसके बाद कल मणिशंकर के बेटों ने जो कुछ किया उसमे भी ग़लती उन्हीं की थी। उनकी ग़लती इस लिए क्योंकि उन्हें आपसे उलझना ही नहीं चाहिए था। अगर उन्हें लगता था कि उनके या उनके बेटे के साथ आपने ग़लत किया है तो उसके लिए उन्हें सीधा दादा ठाकुर के पास न्याय के लिए जाना चाहिए था जबकि उन्होंने ऐसा नहीं किया बल्कि मणिशंकर ने कल रास्ते में आपको रोका और आपसे उस सम्बन्ध में बात शुरू कर दी।"

"वैसे ग़लती तो मेरी भी थी मुंशी जी।" मैंने गंभीर भाव से कहा____"माना कि कल मानिक ने ग़लत लहजे में मुझसे बात की थी और मैंने उसके लिए उसे सज़ा भी थी मगर उसके बाद मणिशंकर से मुझे उलटे तरीके से बात नहीं करनी चाहिए थी। वो मुझसे उम्र में बड़े थे और इस नाते मुझे सभ्यता से उनसे बात करनी चाहिए थी लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। हलांकि ऐसा इसी लिए हुआ क्योंकि उस वक़्त मैं बेहद गुस्से में था। ख़ैर जो हुआ सो हुआ लेकिन ये बात समझ में नहीं आई कि साहूकारों ने इस सबके लिए दादा ठाकुर से न्याय की मांग क्यों नहीं की?"

"जैसा कि मैंने आपको बताया कि वो लोग इस सब में अपनी भी ग़लती मानते थे इस लिए उन्होंने ठाकुर साहब से न्याय की मांग नहीं की।" मुंशी ने कहा____"दूसरी बात ये हैं कि कुछ दिन पहले ही मणिशंकर और हरिशंकर ठाकुर साहब से दोनों खानदान के बीच के रिश्ते सुधार लेने के बारे में बातचीत की थी। इस लिए वो ये भी नहीं चाहते थे कि इस झगड़े की वजह से सुधरने वाले सम्बन्ध इस सब से ख़राब हो जाएं। ख़ैर आप तो कल वहां थे नहीं इस लिए आपको पता भी नहीं होगा कि कल ठाकुर साहब और साहूकारों के बीच आपस में अपने रिश्ते सुधार लेने का फैसला हो चुका है। इस फैसले के बाद कल शाम को होलिका दहन पर भी शाहूकार ठाकुर साहब के साथ ही रहे और ख़ुशी ख़ुशी होलिका दहन का सारा कार्यक्रम हुआ। आज रंगों का पर्व है इस लिए आज भी शाहूकार और उनका पूरा परिवार हवेली में जमा होगा और वहां पर रंगों के इस त्यौहार पर ख़ुशी ख़ुशी सब एक दूसरे से गले मिलेंगे।"

"क्या आपको नहीं लगता मुंशी जी कि ये सब बहुत ही अजीब है?" मैंने मुंशी की तरफ ध्यान से देखते हुए कहा____"मेरा मतलब है कि जो शाहूकार हमेशा ही हमारे खिलाफ़ रहे हैं उन्होंने हमसे अपने रिश्ते सुधार लेने की बात ही नहीं कही बल्कि अपने रिश्ते सुधार भी लिए। क्या आपको लगता है कि ये सब उन्होंने हम ठाकुरों से सच्चे प्रेम के लिए किया होगा?"

"आप आख़िर कहना क्या चाहते हैं छोटे ठाकुर?" मुंशी ने कहा____"क्या आपको ये लगता है कि साहूकारों ने ठाकुर साहब से अपने रिश्ते इस लिए सुधारे हैं कि इसके पीछे उनकी कोई चाल है?"
"क्या आपको ऐसा नहीं लगता?" मैंने मुंशी की आँखों में झांकते हुए कहा।

"बात अजीब तो है छोटे ठाकुर।" मुंशी ने बेचैनी से पहलू बदला____"मगर इसके लिए कोई क्या कर सकता है? अगर गांव के शाहूकार ठाकुर साहब से अपने रिश्ते सुधार लेना चाहते हैं तो ये ग़लत बात तो नहीं है और ये ठाकुर साहब भी समझते हैं। ठाकुर साहब तो हमेशा से ही यही चाहते आए हैं कि गांव का हर इंसान एक दूसरे से मिल जुल कर प्रेम से रहे और अगर ऐसा हो रहा है तो ये ग़लत नहीं है। हलांकि साहूकारों के सम्बन्ध में ऐसा होना हर किसी के लिए सोचने वाली बात है और यकीनन ठाकुर साहब भी इस बारे में सोचते होंगे किन्तु जब तक साहूकारों की तरफ से ऐसा वैसा कुछ होता हुआ नहीं दिखेगा तब तक कोई कुछ भी नहीं कर सकता।"

"ख़ैर छोड़िए इस बात को।" मैंने विषय को बदलने की गरज़ से कहा____"ये बताइए कि आपने दादा ठाकुर से उस जगह पर मकान बनवाने के सम्बन्ध में बात की?"
"असल में कल इस बारे में बात करने का मौका ही नहीं मिला छोटे ठाकुर।" मुंशी ने कहा____"किन्तु आज मैं इस सम्बन्ध में ठाकुर साहब से बात करुंगा। उसके बाद आपको बताऊंगा कि क्या कहा है उन्होंने। वैसे अगर आपको बुरा न लगे तो एक बात कहना चाहता हूं आपसे।"

"जी कहिए।" मैंने मुंशी की तरफ देखते हुए कहा।
"आपको भी ठाकुर साहब से अपने रिश्ते सुधार लेने चाहिए।" मुंशी ने कहा____"मैं ठाकुर साहब के बारे में सिर्फ इतना ही कहूंगा कि वो एक ऐसे इंसान हैं जो कभी किसी का बुरा नहीं चाहते हैं और ना ही कभी कोई ग़लत फैसला करते हैं। आपको गांव से निष्कासित करने का उनका ये फैसला भी ग़लत नहीं हो सकता और ये बात मैं पूरे विश्वास के साथ कहता हूं।"

"हर किसी का अपना अपना नज़रिया होता है मुंशी जी।" मैंने कहा____"लोग एक ही बात को अपने अपने नज़रिये से देखते और सोचते हैं। मैं सिर्फ ये जानता हूं कि उस हवेली में मेरे लिए कोई जगह नहीं है और ना ही उस हवेली में मुझे कोई देखना चाहता है।"

"ऐसा आप समझते हैं छोटे ठाकुर।" मुंशी ने कहा____"जबकि ऐसी कोई बात ही नहीं है। मैं भी बचपन से उस हवेली में आता जाता रहा हूं। बड़े दादा ठाकुर के समय में मेरे पिता जी उनके मुंशी थे। बड़े दादा ठाकुर तो ऐसे थे कि उनके सामने जाने की किसी में भी हिम्मत नहीं होती थी जबकि ठाकुर साहब तो उनसे बहुत अलग हैं। जिस तरह की बातें आप अपने पिता जी से कर लेते हैं वैसी बातें बड़े दादा ठाकुर से कोई सात जन्म में भी नहीं कर सकता था। वो इस मामले में बहुत ही शख्त थे। उनके समय में अगर आपने उनसे ऐसे लहजे में बातें की होती तो आप अब तक जीवित ही नहीं रहते। उनके बाद जब ठाकुर साहब दादा ठाकुर की जगह पर आए तो उन्होंने उनकी तरह किसी पर भी ऐसी कठोरता नहीं दिखाई। उनका मानना है कि किसी के मन में अपने प्रति डर नहीं बल्कि प्रेम और सम्मान की भावना पैदा करो। ख़ैर, सच बहुत कड़वा होता है छोटे ठाकुर मगर किसी न किसी दिन उस सच को मानना ही पड़ता है। आपने अब तक सिर्फ वही किया है जिसमे सिर्फ आपकी ख़ुशी थी जबकि आपके असल कर्त्तव्य क्या हैं इस बारे में आपने कभी सोचा ही नहीं।"

"तो आप भी दादा ठाकुर की तरह मुझे प्रवचन देने लगे।" मैंने थोड़ा शख़्त भाव से कहा तो मुंशी ने हड़बड़ाते हुए कहा____"नहीं छोटे ठाकुर। मैं आपको प्रवचन नहीं दे रहा। मैं तो आपको समझाने का प्रयास कर रहा हूं कि सच क्या है और आपको क्या करना चाहिए।"

"आपको मुझे समझाने की ज़रूरत नहीं है मुंशी जी।" मैंने कहा____"मुझे अच्छी तरह पता है कि मैं क्या कर रहा हूं और मुझे क्या करना चाहिए। ख़ैर मैं चलता हूं अभी और हां उम्मीद करता हूं कि कल आप उस जगह पर मकान का निर्माण कार्य शुरू करवा देंगे।"

कहने के साथ ही मैं उठा और घर से बाहर निकल गया। मुंशी के घर से बाहर आ कर मैं पैदल ही दूसरे गांव की तरफ बढ़ चला। इस वक़्त मेरे ज़हन में यही बात चल रही थी कि अब मैं यहाँ से कहा जाऊं क्योंकि मुझे अपने लिए एक नया ठिकाना ढूढ़ना था। मुरारी काका के घर मैं जा नहीं सकता था और अपने दोस्तों को मैंने उस दिन भगा ही दिया था। आस पास खेतों में मजदूर फसल की कटाई में लगे हुए थे। सड़क के किनारे एक जगह जामुन का पेड़ था जिसके नीचे छांव में मैं बैठ गया।

जामुन के पेड़ की छांव में बैठा मैं आस पास देख रहा था और यही सोच रहा था कि जो कुछ मैंने सोचा था वो सब हो ही नहीं रहा है। आख़िर कैसे मैं अपनी बिखरी हुई ज़िन्दगी को समेटूं? मुरारी काका की हत्या का रहस्य कैसे सुलझाऊं? मेरे तीनो भाइयों का ब्योहार मेरे प्रति अगर बदला हुआ है तो इसके कारण का पता मैं कैसे लगाऊं? कुसुम को मैंने हवेली में जासूसी के काम पर लगाया था इस लिए अगर उसे कुछ पता चला भी होगा तो अब वो मुझे कैसे बतायेगी, क्योकि मैं तो अब हवेली में हूं ही नहीं। मेरे लिए ये सब अब बहुत कठिन कार्य लगने लगा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं किस तरफ जाऊं और किस तरह से इस सबका पता लगाऊं?

मुंशी चंद्रकांत के अनुसार गांव के साहूकारों ने दादा ठाकुर से अपने सम्बन्ध सुधार लिए हैं जो कि बेहद सोचने वाली और चौंकाने वाली बात थी। मेरा मन ज़रा भी इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं था कि गांव के ये शाहूकार हम ठाकुरों से बड़े नेक इरादों के तहत अपने सम्बन्ध जोड़े हैं। मुझे इसके बारे में पता लगाना होगा। आख़िर पता तो चले कि उनके मन में इस सबके पीछे कौन सी खिचड़ी पकने वाली है? मैंने सोच लिया कि इस सबका पता करने के लिए मुझे अभ कुछ न कुछ करना ही होगा।

(दोस्तों यहाँ पर मैं गांव के साहूकारों का संक्षिप्त परिचय देना ज़रूरी समझता हूं।)

वैसे तो गांव में और भी कई सारे शाहूकार थे किन्तु बड़े दादा ठाकुर की दहशत की वजह से साहूकारों के कुछ लोग ये गांव छोड़ कर दूसरी जगह जा कर बस गए थे। उनके बाद दो भाई ही बचे थे। जिनमे से बड़े भाई का ब्याह हुआ था जबकि दूसरा भाई जो छोटा था उसका ब्याह नहीं हुआ था। ब्याह न होने का कारण उसका पागलपन और मंदबुद्धि होना था। गांव में साहूकारों के परिवार का विवरण उन्हीं दो भाइयों से शुरू करते हैं।

☆ चंद्रमणि सिंह (बड़ा भाई/बृद्ध हो चुके हैं)
☆ इंद्रमणि सिंह (छोटा भाई/अब जीवित नहीं हैं)

इन्द्रमणि कुछ पागल और मंदबुद्धि था इस लिए उसका विवाह नहीं हुआ था या फिर कहिए कि उसके भाग्य में शादी ब्याह होना लिखा ही नहीं था। कुछ साल पहले गंभीर बिमारी के चलते इंद्रमणि का स्वर्गवास हो गया था।

चंद्रमणि सिंह को चार बेटे हुए। चंद्रमणि की बीवी का नाम सुभद्रा सिंह था। इनके चारो बेटों का विवरण इस प्रकार है।

☆ मणिशंकर सिंह (बड़ा बेटा)
फूलवती सिंह (मणिशंकर की बीवी)
मणिशंकर को चार संताने हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) चन्द्रभान सिंह (बड़ा बेटा/विवाहित)
कुमुद सिंह (चंद्रभान की बीवी)
इन दोनों को एक बेटी है अभी।

(२) सूर्यभान सिंह (छोटा बेटा/अविवाहित)
(३) आरती सिंह (मणिशंकर की बेटी/अविवाहित)
(४) रेखा सिंह (मणिशंकर की छोटी बेटी/अविवाहित)

☆ हरिशंकर सिंह (चंद्रमणि का दूसरा बेटा)
ललिता सिंह (हरिशंकर की बीवी)
हरिशंकर को तीन संताने हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) मानिकचंद्र सिंह (हरिशंकर का बड़ा बेटा/पिछले साल विवाह हुआ है)
नीलम सिंह (मानिक चंद्र की बीवी)
इन दोनों को अभी कोई औलाद नहीं हुई है।

(२) रूपचंद्र सिंह (हरिशंकर का दूसरा बेटा/ अविवाहित)
(३) रूपा सिंह (हरिशंकर की बेटी/अविवाहित)

☆ शिव शंकर सिंह (चंद्रमणि का तीसरा बेटा)
विमला सिंह (शिव शंकर की बीवी)
शिव शंकर को चार संताने हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) नंदिनी सिंह (शिव शंकर की बड़ी बेटी/विवाहित)
(२) मोहिनी सिंह (शिव शंकर की दूसरी बेटी/अविवाहित)
(३) गौरव सिंह (शिव शंकर का बेटा/अविवाहित)
(४) स्नेहा सिंह (शिव शंकर की छोटी बेटी/ अविवाहित)

☆ गौरी शंकर सिंह (चंद्रमणि का चौथा बेटा)
सुनैना सिंह (गौरी शंकर की बीवी)
गौरी शंकर को दो संताने हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) राधा सिंह (गौरी शंकर की बेटी/अविवाहित)
(२) रमन सिंह (गौरी शंकर का बेटा/अविवाहित)

चंद्रमणि सिंह को एक बेटी भी थी जिसके बारे में मैंने सुना था कि वो क‌ई साल पहले गांव के ही किसी आदमी के साथ भाग गई थी उसके बाद आज तक उसका कहीं कोई पता नहीं चला।

जामुन के पेड़ के नीचे बैठा मैं सोच रहा था कि साहूकारों के अंदर की बात का पता कैसे लगाऊं? मेरे और उनके बीच के रिश्ते तो हमेशा से ही ख़राब रहे हैं किन्तु इसके बावजूद हरिशंकर की बेटी रूपा से मेरे अच्छे सम्बन्ध रहे हैं। साल भर पहले रूपा से मेरी नज़रें मिली थी। जैसा उसका नाम था वैसी ही थी वो। गांव के दूसरे छोर पर बने माता रानी के मंदिर में अक्सर वो जाया करती थी और मैं अपने दोस्तों के साथ इधर उधर कच्ची कलियों की तलाश में भटकता ही रहता था।

रूपा से मेरी मुलाक़ात का किस्सा भी बस संयोग जैसा ही था। मैं एक ऐसा इंसान था जो देवी देवताओं को बिलकुल भी नहीं मानता था किन्तु नए शिकार के लिए मंदिर के चक्कर ज़रूर लगाया करता था। ऐसे ही एक दिन मैं मंदिर के बाहर बैठा अपने दोस्तों के आने का इंतज़ार कर रहा था कि तभी रूपा मंदिर से बाहर आई और मेरे सामने आ कर मुझे माता रानी का प्रसाद देने के लिए अपना एक हाथ मेरी तरफ बढ़ाया तो मैंने चौंक कर उसकी तरफ देखा। दोस्तों ने बताया तो था मुझे कि साहूकारों की लड़किया बड़ी सुन्दर हैं और मस्त माल हैं लेकिन क्योंकि साहूकारों से मेरे रिश्ते ख़राब थे इस लिए मैं कभी उनकी लड़कियों की तरफ ध्यान ही नहीं देता था।

खिली हुई धूप में अपने सिर पर पीले रंग के दुपट्टे को ओढ़े रूपा बेहद ही खूबसूरत दिख रही थी और मैं उसके रूप सौंदर्य में खो सा गया था जबकि वो मेरी तरफ अपना हाथ बढ़ाए वैसी ही खड़ी थी। जब उसने मुझे अपनी तरफ खोए हुए से देखा तो उसने अपने गले को हल्का सा खंखारते हुए आवाज़ दी तो मैं हकीक़त की दुनिया में आया। मैंने हड़बड़ा कर पहले इधर उधर देखा फिर अपना हाथ प्रसाद लेने के लिए आगे कर दिया जिससे उसने मेरे हाथ में एक लड्डू रख दिया।

रूपा ने मुझे प्रसाद में लड्डू दिया तो मेरे मन में भी कई सारे लड्डू फूट पड़े थे। इससे पहले कि मैं उससे कुछ कहता वो मुस्कुराते हुए चली गई थी। इतना तो मैं समझ गया था कि उसे मेरे बारे में बिलकुल भी पता नहीं था, अगर पता होता तो वो मुझे कभी प्रसाद न देती बल्कि मेरी तरफ नफ़रत से देख कर चली जाती।

उस दिन के बाद से मेरे दिलो दिमाग़ में रूपा की छवि जैसे बैठ सी गई थी। मैं हर रोज़ माता रानी के मंदिर आता मगर वो मुझे न दिखती। मैं रूपा को देखने के लिए जैसे बेक़रार सा हो गया था। एक हप्ते बाद ठीक उसी दिन वो फिर से आई। हल्के सुर्ख रंग के शलवार कुर्ते में वो बहुत ही खूबसूरत दिख रही थी। चेहरे पर ऐसी चमक थी जैसे कई सारे सितारों ने उस पर अपना नूर लुटा दिया हो। माता रानी की पूजा कर के वो मंदिर से बाहर आई तो सीढ़ियों के नीचे उसका मुझसे सामना हो गया। उसने मुस्कुराते हुए मुझे फिर से प्रसाद देने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया तो मैं उसी की तरफ अपलक देखते हुए अपनी हथेली उसके सामने कर दी जिससे उसने फिर से मेरी हथेली पर एक लड्डू रख दिया। उसके बाद जैसे ही वो जाने लगी तो इस बार मैं बिना बोले न रह सका।

"सुनिए।" मैंने नम्र स्वर में उसे पुकारा तो उसने पलट कर मेरी तरफ देखा। उसकी आँखों में सवाल देख कर मैंने खुद की बढ़ी हुई धड़कनों को सम्हालते हुए कहा____"क्या आप जानती हैं कि मैं कौन हूं?"

"मंदिर में आया हुआ हर इंसान माता रानी का भक्त ही हो सकता है।" उसने अपनी मधुर आवाज़ में मुस्कुराते हुए कहा तो मेरे होठों पर भी मुस्कान उभर आई, जबकि उसने आगे कहा____"बाकि असल में आप कौन हैं ये भला मैं कैसे जान सकती हूं और सच तो ये है कि मैं जानना भी नहीं चाहती।"

"मेरा नाम ठाकुर वैभव सिंह है।" मैंने उसे सच बता दिया जिसे सुन कर उसके चेहरे पर चौंकने वाले भाव उभर आए और साथ ही उसके चेहरे पर घबराहट भी नज़र आने लगी।

"आपके चेहरे के भाव बता रहे हैं कि आप मेरी सूरत से नहीं बल्कि मेरे नाम से परिचित हैं।" मैंने कहा____"इस लिए ज़ाहिर है कि मेरे बारे में जान कर अब आप मुझसे नफ़रत करने लगेंगी। ऐसा इस लिए क्योंकि आपके भाइयों के साथ मेरे ताल्लुकात कभी अच्छे नहीं रहे।"

"मैंने आपके बारे में सुना है।" उसने कहा____"और ये भी जानती हूं कि दादा ठाकुर के दूसरे बेटे के साथ मेरे भाइयों का अक्सर झगड़ा होता रहता है। ये अलग बात है कि उस झगड़े में अक्सर मेरे भाई बुरी तरह पिट कर आते थे। ख़ैर मैं ये मानती हूं कि ताली एक हाथ से कभी नहीं बजती। उसके लिए दोनों हाथों का स्पर्श होना ज़रूरी होता है। कहने का मतलब ये कि अगर आपके और मेरे भाइयों के बीच झगड़ा होता है तो उसमे किसी एक की ग़लती तो नहीं होती होगी न? अगर कभी आपकी ग़लती होती होगी तो कभी मेरे भाइयों की भी तो ग़लती होगी।"

"काफी दिलचस्प बातें कर रही हैं आप।" मैं रूपा की बातों से प्रभावित हो गया था____"इसका मतलब आप उस सबके लिए सिर्फ मुझ अकेले को ही दोषी नहीं मानती हैं? मैं तो बेवजह ही इस बात के लिए अंदर से थोड़ा डर रहा था आपसे।"

"चलती हूं अब।" उसने नम्रता से कहा और पलट गई। मैंने उसे रोकना तो चाहा मगर फिर मैंने अपना इरादा बदल दिया। असल में मैं नहीं चाहता था कि वो ये समझे कि मैं उस पर डोरे डाल रहा हूं। उसे मेरे बारे में पता था तो ये भी पता होगा कि मैं लड़कियों और औरतों का कितना बड़ा रसिया इंसान हूं।

मैं रूपा के लिए काफी संजीदा हो गया था। वो मेरे दिलो दिमाग़ में छा गई थी और अब मैं उसे किसी भी कीमत पर हासिल करना चाहता था। मेरे दोस्तों को भी ये सब पता था किन्तु वो भी कुछ नहीं कर सकते थे। ख़ैर ऐसे ही दिन गुजरने लगे। मैंने ये देखा था कि वो हर हप्ते माता रानी के मंदिर पर आती थी इस लिए जिस दिन वो आती थी उस दिन मैं भी माता रानी के मंदिर पहुंच जाता था। उसके चक्कर में मैंने भी माता रानी की भक्ति शुरू कर दी थी। वो मुझे मिलती और मुझे बिना किसी द्वेष भावना के प्रसाद देती और चली जाती। मैं उससे बात करने की कोशिश करता मगर उससे बात करने में पता नहीं क्यों मुझे झिझक सी होती थी और इस चक्कर में वो चली जाती थी। मैं खुद पर हैरान होता कि मैं लड़कियों और औरतों के मामले में इतना तेज़ था मगर रूपा के सामने पता नहीं क्या हो जाता था मुझे कि मैं उससे कोई बात नहीं कर पाता था।

ऐसे ही दो महीने गुज़र गए। मैं हर हप्ते उसी के जैसे माता रानी के मंदिर जाता और उससे प्रसाद ले कर चला आता। इस बीच इतना ज़रूर बदलाव आ गया था कि हम एक दूसरे से हाल चाल पूछ लेते थे मगर मेरे लिए सिर्फ हाल चाल पूछना और बताना ही काफी नहीं था। मुझे तो उसे हासिल करना था और उसके खूबसूरत बदन का रसपान करना था। जब मैंने जान लिया कि मेरी दाल रूपा पर गलने वाली नहीं है तो मैंने माता रानी के मंदिर जाना ही छोड़ दिया। ठाकुर वैभव सिंह हार मान गया था और अपना रास्ता बदल लिया था। ऐसे ही दो हप्ते गुज़र गए और मैं माता रानी के मंदिर नहीं गया। एक तरह से अब मैं रूपा को अपने ज़हन से निकाल ही देना चाहता था किन्तु मेरे लिए ये इतना आसान नहीं था।

तीसरे हप्ते मैं अपने दोस्त के घर जा रहा था कि रास्ते में मुझे रूपा मिल गई। मैंने बिलकुल भी उम्मीद नहीं की थी कि उससे मेरा इस तरह से सामना हो जाएगा। उसे देखते ही दिल की धड़कनें बढ़ गईं और दिल में घंटियां सी बजने लगीं। वो हाथ में पूजा की थाली लिए मंदिर जा रही थी और जब हम दोनों एक दूसरे के सामने आए तो हमारी नज़रें चार हो गई जिससे उसके गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई। उसकी ये मुस्कान हमेशा की तरह मेरे मन में उम्मीद जगा देती थी मगर दो महीने बाद भी जब मेरी गाड़ी आगे नहीं बढ़ सकी थी तो मैंने अब उसको हासिल करने का इरादा ही छोड़ दिया था मगर आज तो जैसे होनी कुछ और ही होने वाली थी।

"छोटे ठाकुर जी आज कल आप मंदिर क्यों नहीं आते।" अपने सामने मुझे देखते ही उसने मुस्कुराते हुए कहा____"कहीं चले गए थे क्या?"
"मंदिर आने का फायदा क्या है रूपा?" मैंने फीकी सी मुस्कान के साथ कहा____"जिस देवी की भक्ति करने आता था उसे शायद मेरी भक्ति करना पसंद ही नहीं है। इस लिए मंदिर जाना ही छोड़ दिया।"

"कमाल है छोटे ठाकुर जी।" रूपा ने अपनी उसी मुस्कान में कहा____"आपने ये कैसे सोच लिया कि देवी को आपकी भक्ति करना पसंद नहीं है? सच्चे दिल से भक्ति कीजिए। आपकी जो भी मुराद होगी वो ज़रूर पूरी होगी।"

"मेरे जैसा नास्तिक इंसान।" मैंने रूपा की गहरी आँखों में देखते हुए कहा____"सच्चे दिल से ही भक्ति कर रहा था किन्तु मैं समझ गया हूं कि जिस देवी की मैं भक्ति कर रहा था वो देवी ना तो मुझे मिलेगी और ना ही वो मेरी मुराद पूरी करेगी।"

"इतनी जल्दी हार नहीं माननी चाहिए छोटे ठाकुर जी।" रूपा ने कहा___"इंसान को आख़िरी सांस तक प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि संभव है कि आख़िरी सांस के आख़िरी पल में उसे अपनी भक्ति करने का प्रतिफल मिल जाए।"

"यही तो समस्या है रूपा।" मैंने कहा____"कि इन्सान आख़िरी सांस तक का इंतज़ार नहीं करना चाहता बल्कि वो तो ये चाहता है कि भक्ति किये बिना ही इंसान के सारे मनोरथ सफल हो जाएं। मैं भी वैसे ही इंसानों में से हूं। ख़ैर सच तो ये है कि मैं तो मंदिर में आपकी ही भक्ति करने आता था। अब आप बताइए कि क्या आप मेरी भक्ति से प्रसन्न हुई हैं?"

रूपा मेरी ये बात सुन कर एकदम से भौचक्की रह गई। आँखें फाड़े वो मेरी तरफ इस तरह देखने लगी थी जैसे अचानक ही मेरी खोपड़ी मेरे धड़ से अलग हो कर हवा में कत्थक करने लगी हो।

"ये आप क्या कह रहे हैं छोटे ठाकुर जी?" फिर रूपा ने चकित भाव से कहा____"आप माता रानी के मंदिर में मेरी भक्ति करने आते थे?"
"इसमे इतना चकित होने वाली कौन सी बात है रूपा?" मैंने कहा____"इन्सान को जो देवी जैसी लगे उसी की तो भक्ति करनी चाहिए ना? मेरी नज़र में तो आप ही देवी हैं इस लिए मैं आपकी ही भक्ति कर रहा था।"

"बड़ी अजीब बातें कर रहे हैं आप।" रूपा जैसे बौखला सी गई थी____"भला ऐसा भी कहीं होता है? चलिए हमारा रास्ता छोड़िए। हमें मंदिर जाने में देर हो रही है।"
"जी बिल्कुल।" मैंने एक तरफ हटते हुए कहा____"आप मंदिर जाइए और अपनी देवी की भक्ति कीजिए और मैं अपनी देवी की भक्ति करुंगा।"

"करते रहिए।" रूपा ने कहा____"लेकिन याद रखिएगा ये देवी आपकी भक्ति से प्रसन्न होने वाली नहीं है। मैं समझ गई हूं कि आपकी मंशा क्या है। मैंने बहुत कुछ सुना है आपके बारे में।"
"बिल्कुल सुना होगा।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"वैभव सिंह चीज़ ही ऐसी है कि हर कोई उसके बारे में जानता है। ख़ैर मैं बस ये कहना चाहता हूं कि भक्ति का जो उसूल है उसे आप तोड़ नहीं सकती हैं। इंसान जब किसी देवी देवता की भक्ति करता है तो देवी देवता उसकी भक्ति का प्रतिफल उसे ज़रूर देते हैं। इस लिए इस बात को आप भी याद रखिएगा कि मेरी भक्ति का फल आपको भी देना होगा।"

"भक्ति का सबसे बड़ा नियम ये है छोटे ठाकुर जी कि बिना किसी इच्छा के भक्ति करना चाहिए।" रूपा ने कहा____"अगर भक्त के मन में भगवान से कुछ पाने की लालसा होती है तो फिर उसकी भक्ति भक्ति नहीं कहलाती। ऐसे में कोई भी देवी देवता फल देने के लिए बाध्य नहीं होते।"

"मैं बस ये जानता हूं कि मेरी देवी इतनी कठोर नहीं है।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"कि वो अपनी भक्ति करने वाले पर कोई नियम बना के रखे।"

रूपा मेरी सुन कर कुछ पलों तक मुझे देखती रही और फिर बिना कुछ बोले ही चली गई। उसके जाने के बाद मैं भी मुस्कुराते हुए दोस्त के घर की तरफ चला गया। आज मैं खुश था कि इस मामले में रूपा से कोई बात तो हुई। अब देखना ये था कि इन सब बातों का रूपा पर क्या असर होता है।

कुछ दिन ऐसे ही गुज़रे और फिर एक रात मैं हरिशंकर के घर पहुंच गया। घर के पिछवाड़े से होते हुए मैं रात के अँधेरे का फायदा उठाते हुए उस जगह पर पहुंच गया जहां पर रूपा के कमरे की खिड़की थी। मेरी किस्मत अच्छी थी कि उस तरफ बांस की एक सीढ़ी रखी हुई थी जिसे ले कर मैं रूपा के कमरे की खिड़की के नीचे दीवार पर लगा दिया। आस पास कोई नहीं था। मैं बहुत सोच विचार कर के ही यहाँ आया था। हलांकि यहाँ आना मेरे लिए ख़तरे से खाली नहीं था किन्तु वैभव सिंह उस बाला का नाम था जो ना तो किसी ख़तरे से डरता था और ना ही किसी के बाप से।

सीधी से चढ़ कर मैं खिड़की के पास पहुंच गया। दूसरे माले पर बने छज्जे पर चढ़ कर मैंने खिड़की के खुले हुए पल्ले से अंदर की तरफ देखा। कमरे में बिजली के बल्ब का धीमा प्रकाश था। आज दिन में ही मैंने पता करवा लिया था कि रूपा का कमरा कहां पर है इस लिए मुझे ज़्यादा परेशानी नहीं हुई थी। ख़ैर खिड़की के पल्ले से अंदर की तरफ देखा तो रूपा कमरे में रखे एक पलंग पर लेटी हुई नज़र आई। वो सीधा लेटी हुई थी और छत पर धीमी गति से चल रहे पंखे को घूर रही थी। यकीनन वो किसी ख़यालों में गुम थी। मैंने खिड़की के पल्ले को हाथ से थपथपाया तो उसकी तन्द्रा टूटी और उसने चौंक कर इधर उधर देखा।

मैंने दूसरी बार खिड़की के पल्ले को थपथपाया तो उसका ध्यान खिड़की की तरफ गया तो वो एकदम से घबरा गई। उसे लगा खिड़की पर कोई चोर है लेकिन तभी मैंने खिड़की के अंदर अपना सिर डाला और उसे हलके से आवाज़ दी। बिजली के बल्ब की धीमी रौशनी में मुझ पर नज़र पड़ते ही वो बुरी तरह चौंकी। आँखें हैरत से फट पड़ी उसकी, जैसे यकीन ही न आ रहा हो कि खिड़की पर मैं हूं। मैंने उसे खिड़की के पास आने का इशारा किया तो वो घबराये हुए भाव लिए खिड़की के पास आई।

"छोटे ठाकुर जी आप इस वक्त यहाँ कैसे?" मेरे पास आते ही उसने घबराये हुए लहजे में कहा।
"अपनी देवी के दर्शन करने आया हूं।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"क्या करूं इस देवी का चेहरा आँखों में इस क़दर बस गया है कि उसे देखे बिना चैन ही नहीं आता। इस लिए न दिन देखा न रात। बस चला आया अपनी देवी के दर्शन करने।"

"ये आप बहुत ग़लत कर रहे हैं छोटे ठाकुर जी।" रूपा ने इस बार थोड़े नाराज़ लहजे में कहा____"आप यहाँ से चले जाइये वरना मैं शोर कर के सबको यहाँ बुला लूंगी। उसके बाद क्या होगा ये आप भी बेहतर जानते हैं।"

"मैं तो बस अपनी देवी के दर्शन करने ही आया था रूपा।" मैंने कहा____"मेरे दिल में कोई ग़लत भावना नहीं है और अगर तुम शोर कर के अपने घर वालों को यहाँ बुलाना ही चाहती हो तो शौक से बुलाओ। तुम भी अच्छी तरह जानती हो कि इससे मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा बल्कि उल्टा तुम्हारे घर वाले तुम्हारे ही बारे में ग़लत सोचने लगेंगे।"

रूपा मेरी ये बात सुन कर हैरत से मेरी तरफ देखने लगी थी। उसके चेहरे पर चिंता और परेशानी के भाव उभर आये थे। मुझे उसके चेहरे पर ऐसे भाव देख कर बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा।

"चिंता मत करो रूपा।" मैंने कहा____"मैं ऐसा कोई भी काम नहीं करुंगा जिससे मेरी देवी के बारे में कोई भी ग़लत सोचे। दिल में अपनी देवी को देखने की बहुत इच्छा थी इस लिए रात के इस वक़्त यहाँ आया हूं। अब अपनी देवी को देख लिया है इस लिए जा रहा हूं। तुम भी आराम से सो जाओ। मैं दुआ करुंगा कि मेरी देवी को अपनी नींद में अपने इस भक्त का ही सपना आए।"

इतना कह कर मैं रूपा को हैरान परेशान हालत में छोड़ कर छज्जे से उतर कर सीढ़ी पर आया और फिर सीढ़ी से नीचे। बांस की सीढ़ी को उठा कर मैंने उसे उसी जगह पर रख दिया जहां पर वो पहले रखी हुई थी। उसके बाद मैं जैसे यहाँ आया था वैसे ही निकल भी गया।

ऐसे ही दिन गुजरने लगे। मैं अक्सर रात में रूपा की खिड़की पर पहुंच जाता और उसे देख कर वापस आ जाता। कुछ दिनों तक तो रूपा मेरी ऐसी हरकतों से बेहद चिंतित और परेशान रही किन्तु धीरे धीरे वो भी इस सबकी आदी हो गई। उसके बाद ऐसा भी हुआ कि रूपा को भी मेरा इस तरह से उसके पास आना अच्छा लगने लगा। फिर तो हालात ऐसे बन गए कि रूपा भी मुझसे ख़ुशी ख़ुशी बातें करने लगी। उसे भी मेरा रात में इस तरह छुप कर उसके कमरे की खिड़की के पास आना अच्छा लगने लगा। मैं समझ गया था कि रूपा अब मेरे जाल में फंस गई है और इससे मैं खुश भी था। वो हप्ते में माता रानी के मंदिर जाती थी किन्तु अब वो हर रोज़ जाने लगी थी। धीरे धीरे हमारे बीच हर तरह की बातें होने लगीं और फिर वो दिन भी आ गया जब रूपा के ही कमरे में और उसकी ही ख़ुशी से मैंने उसको भोगा। हलांकि इस हालात पर पहुंचने में दो महीने लग गए थे मगर मैं उसके साथ ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं करना चाहता था। रूपा ने खुल कर मुझसे कह दिया था कि वो मुझसे प्रेम करने लगी है मगर उसे भोगने के बाद मैंने उसे अच्छी तरह समझाया था कि हम दोनों के खानदान के बीच के रिश्ते अच्छे नहीं हैं इस लिए हम दोनों का प्रेम एक दर्द की दास्ताँ बन कर रह जाएगा। इससे अच्छा तो यही है कि हम अपने इस प्रेम को अपने दिल तक ही सीमित रखें।

रूपा भी जानती थी कि हम दोनों के खानदान के बीच जो सम्बन्ध थे वो कभी भी अच्छे नहीं रहे थे। इस लिए रूपा ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया। मैंने रूपा को वचन दिया था कि मैं कभी भी उसे रुसवा नहीं करुंगा बल्कि हमेशा उसकी और उसके प्रेम की इज्ज़त करुंगा। उसके बाद जब भी रूपा को प्रेम मिलन की इच्छा होती तो वो मंदिर के बहाने आ कर मुझसे मिलती और कहती कि आज रात मैं उसके घर आऊं। रूपा के साथ मेरा सम्बन्ध गांव की बाकी हर लड़कियों से बहुत अलग था।

अभी मैं रूपा के बारे में ये सब सोच ही रहा था कि तभी मेरी नज़र दूर से आती हुई बग्घी पर पड़ी। मैं समझ गया कि हवेली का कोई सदस्य मेरी तलाश करता हुआ इस तरह आ रहा है। बग्घी अभी दूर ही थी इस लिए मैं जामुन के उस पेड़ से निकल कर खेतों में घुस गया। मैंने मन ही मन सोच लिया था कि साहूकारों के अंदर की बात का पता मैं रूपा के द्वारा ही लगाऊंगा। खेत में गेहू की पकी हुई फसल खड़ी थी और मैं उसी के बीच बैठ गया था जिससे किसी की नज़र मुझ पर नहीं पड़ सकती थी। कुछ ही देर में बग्घी मेरे सामने सड़क पर आई। मेरी नज़र बग्घी में बैठे हुए शख़्स पर पड़ी तो मैं हलके से चौंक पड़ा।


---------☆☆☆---------
Very Good update bhai.
Ab ye Baggi me baitha saks kon hai ye suspense to rah hi gaya. Or kya hero apna ghar nahi jayega. Mujhe lagta hai use ghar pe hi rahna chahiye tabhi to sabki pol khulegi.
 

Mahi Maurya

Dil Se Dil Tak
Supreme
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55,758
304
तेरहवाँ भाग

भाभी से मिलने के लिए वैभव गया तो भाभी के मादक और सुंदर रूप ने उसके होश ही गुम कर दिए। भाभी की फिर वही बात। वैभव की बेचैनी को बढ़ाने के लिए काफी है। भाभी के रूप में देवर फँस जाता लेकिन अपने दिल पर पत्थर रख लिया वैभव ने और अपनी भाभी से बेरुखी से बात कर बाहर चला गया।

फिर साहूकार के गांव से गुजरना और उनके लड़कों का वैभव को देखकर चुप होकर घूरना जरूर कहीं न कहीं लोचा है। मुंसी की बीवी और बहू दोनों को फांस रखा है वैभव ने और आज रात रुकने के लिए भी बोल देता है।

लगता है आज रात सास और बहू दोनों की ठुकाई होने वाली है शायद थ्रीसम हो। देखते हैं क्या होता है।

मस्त मस्त सर जी।
 
Last edited:

Mahi Maurya

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चौदहवाँ भाग
अनुराधा का वैभव को ये बताना कि उसे वैभव और अपनी माँ सरोज के बीच हुई रासलीला का पता है और उसने अपनी आँखों से देखा है। वैभव के होश उड़ाने के लिए काफी था। अनुराधा ने वैभव को हर तरह से जलील किया लेकिन वैभव ने एक शब्द नहीं बोला बल्कि अपने गुनाहों की माफ़ी मांगता रहा। अनुराधा का ये इल्ज़ाम कि वैभव ने ही उसके बाप मुरारी की हत्या की है। कहाँ तक सही है। अगर सही है तो कैसे।
रास्ते में साहूकार और अपने भाई के बीच हो रही वार्तालाप को संदेह की दृष्टि से देखना और फिर साहूकार के लड़के माणिक की जबरदस्त सुताई करना वैभव के पुराने रूप को चरित्रार्थ कर रहा है।
देखते हैं आगे क्या होता है।
मस्त मस्त सर जी।।
 
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