अध्याय - 155
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रागिनी तब तक रसोई से का चुकी थी लेकिन वंदना को पूरा यकीन था कि उसने उसका ये वाक्य ज़रूर सुन लिया होगा। बहरहाल, रागिनी को शर्म के मारे यूं भाग गई देख वंदना हल्के से हंसने लगी थी। फिर एकदम से उसने मन ही मन ऊपर वाले को याद कर के कहा____"हे ऊपर वाले! अब कुछ भी बुरा मत करना मेरी ननद के साथ।"
अब आगे....
वीरेंद्र सिंह के आने से और उसके द्वारा रागिनी भाभी के राज़ी हो जाने की बात सुन लेने से मां बहुत ज़्यादा खुश थीं। जगताप चाचा और मेनका चाची के दिए हुए झटके और दुख को जैसे वो एक ही पल में भूल गईं थी। आज काफी दिनों बाद मैं उनके चेहरे पर खुशी की असली चमक देख रहा था।
सबको पता चल चुका था कि रागिनी भाभी मुझसे विवाह करने को राज़ी हो गईं हैं। कुसुम कुछ ज़्यादा ही खुशी से उछल रही थी। उधर मेनका चाची भी खुश थीं, ये अलग बात है कि कभी भी उनके चेहरे पर दुख और पीड़ा के भाव उभर आते थे। कदाचित उन्हें अपने और जगताप चाचा द्वारा किए गए कर्म याद आ जाते थे जिसके चलते वो दुखी हो जातीं थी।
रसोई में वीरेंद्र सिंह के लिए बढ़िया बढ़िया पकवान बन रहे थे। आम तौर पर मां रसोई में कम ही जातीं थी लेकिन आज वो रसोई में ही मौजूद थीं। निर्मला काकी और मेनका चाची दोनों ही पकवान बनाने में लगी हुईं थी। मेनका चाची सब कुछ वैसा ही करती जा रहीं थी जैसा मां कहती जा रहीं थी। कुसुम और कजरी बाकी के छोटे मोटे काम में उनकी मदद कर रहीं थी।
इधर मैं अपने कमरे से निकल कर सीधा बैठक में आ गया था, जहां पर किशोरी लाल और वीरेंद्र सिंह बैठे हुए थे। बैठक में काफी देर तक हमारी आपस में दुनिया जहान की बातें होती रहीं। उसके बाद जब अंदर से कुसुम ने आ कर हम सबको खाना खाने के लिए अंदर चलने को कहा तो हम सब बैठक से उठ गए।
गुसलखाने से स्वच्छ होने के बाद मैं, वीरेंद्र भैया और किशोरी लाल भोजन करने बैठे। मेनका चाची और निर्मला काकी ने हम सबके सामने थाली रखी। सच में काफी अच्छा भोजन नज़र आ रहा था। खाने की खुशबू भी बहुत बढ़िया आ रही थी। हम सबने खाना शुरू किया। पिता जी नहीं थे इस लिए खाने के दौरान थोड़ी बहुत इधर उधर की बातें हुईं। खाने के बाद हम सब उठे।
अब सोने का समय था इस लिए मैं वीरेंद्र सिंह को मेहमान कक्ष में ले गया और वहां पर उसको सोने को कहा। वीरेंद्र सिंह उमर में मुझसे बहुत बड़ा था इस लिए मेरी उससे ज़्यादा बातें नहीं हुईं। वैसे भी ये जो नया रिश्ता बन गया था उसके चलते मैं उसके सामने थोड़ा संकोच और झिझक महसूस करने लगा था। मैंने उसको आराम से सो जाने को कहा और सुबह मिलने का कह कर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।
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महेंद्र सिंह की हवेली में काफी चहल पहल थी। रात के समय हवेली में काफी रौनक नज़र आ रही थी। गांव में बिजली का कोई भरोसा नहीं रहता था इस लिए ज्ञानेंद्र सिंह शहर से जनरेटर ले आया था ताकि हवेली के अंदर और बाहर पर्याप्त मात्रा में रोशनी रहे। कम समय में जितना इंतज़ाम किया जा सकता था उससे ज़्यादा ही किया था ज्ञानेंद्र सिंह ने।
ज्ञानेंद्र सिंह के बेटे का जन्मदिन था इस लिए ख़ास ख़ास लोगों को ही बुलाया गया था जिनमें से सर्व प्रथम दादा ठाकुर यानि ठाकुर प्रताप सिंह ही थे। ज्ञानेंद्र सिंह के भी कुछ ख़ास मित्रगण थे। महेंद्र सिंह ने अर्जुन सिंह को भी बुलवाया था।
हवेली के बाहर लंबे चौड़े मैदान में चांदनी लगी हुई थी। उसी के नीचे एक मंच बनाया गया था। नाच गाने का प्रबंध था जिसके लिए ज्ञानेंद्र सिंह ने शहर से कलाकार बुलाए थे। दूसरी तरफ हवेली के अंदर एक बड़े से हाल में अलग ही नज़ारा था। पूजा तो दिन में ही हो गई थी किंतु रात में मेहमानों को भोजन कराने के लिए हाल में ही बढ़िया व्यवस्था की गई थी। एक बड़ी सी आयताकार मेज़ थी जिसके दोनों तरफ लकड़ी की कुर्सियां लगी हुईं थी। मेज़ पर नई नवेली चादर बिछी हुई थी और बड़ी सी मेज में थोड़ी थोड़ी दूरी के अंतराल में ख़ूबसूरत फूलों के छोटे छोटे गमले रखे हुए थे जिनकी महक दूर तक फैल रही थी।
सभी मेहमान आ चुके थे। सब दादा ठाकुर से मिले और उन्हें हाथ जोड़ कर प्रणाम किया। दादा ठाकुर की मौजूदगी सबके लिए जैसे बहुत ही ख़ास थी। सब जानते थे कि दादा ठाकुर कितनी महान हस्ती हैं। बहरहाल, मिलने मिलाने के बाद महेंद्र सिंह ने सबसे पहले सभी से भोजन करने का आग्रह किया, उसके बाद नाच गाना देखने का।
भोजन वाकई में बहुत स्वादिष्ट बना हुआ था। सभी मेहमानों ने भर पेट खाया और फिर बाहर मंच पर आ गए। मंच के ऊपर मोटे मोटे गद्दे बिछे हुए थे और उनके पीछे मोटे मोटे तकिए रखे हुए थे। मंच काफी विशाल था जिसके चलते सभी ख़ास मेहमान बड़े आराम से उसमें आ सकते थे। मंच के नीचे एक बड़े से घेरे में नाचने वाली कई लड़कियां मौजूद थीं। उनके एक तरफ संगीत बजाने वाले कुछ कलाकार बैठे हुए थे। उसके बाद बाकी का जो मैदान था उसमें गांव के लोगों की भीड़ जमा थी जो नाच गाना देखने आए थे।
ऐसा नहीं था कि दादा ठाकुर को नाच गाना पसंद नहीं था लेकिन उन्हें ये तब पसंद आता था जब ये सब मर्यादा के अनुकूल हो। ज़्यादातर वो शास्त्रीय संगीत सुनना पसंद करते थे। उनके पिता के समय में जो नाच गाना होता था वो बहुत ही ज़्यादा अमर्यादित होता था जिसे वो कभी पसंद नहीं करते थे। यहां पर ज्ञानेंद्र सिंह ने जो कार्यक्रम शुरू करवाया था वो कुछ हद तक उन्हें पसंद था, हालाकि लड़कियों का अभद्र तरीके से नाचना उन्हें ज़रा भी पसंद नहीं आ रहा था लेकिन ख़ामोशी से इस लिए बैठे हुए थे कि वो नहीं चाहते थे कि उनकी वजह से महेंद्र सिंह और ज्ञानेंद्र सिंह की खुशियों पर कोई खलल पड़े। दूसरी वजह ये भी थी कि वो इसी बहाने कुछ देर के लिए अपने अंदर की पीड़ा को भूल जाना चाहते थे।
बहरहाल नाच गाना चलता रहा। लोग ये सब देख कर खुशी से झूमते रहे। वातावरण में संगीत कम लोगों का शोर ज़्यादा सुनाई दे रहा था। आख़िर दो घण्टे बाद नाच गाना बंद हुआ और सभी मेहमान जाने लगे। महेंद्र सिंह के आग्रह पर अर्जुन सिंह भी रुक गए। दादा ठाकुर और अर्जुन सिंह को मेहमान कक्ष में सोने की व्यवस्था थी।
अर्जुन सिंह जब अपने कमरे में सोने लगे तो महेंद्र सिंह दादा ठाकुर के कमरे में आए। दादा ठाकुर पलंग पर लेट चुके थे और खुली आंखों से कुछ सोच रहे थे। महेंद्र सिंह को आया देख वो उठे और अधलेटी सी अवस्था में आ गए।
"हमने आपको तकलीफ़ तो नहीं दी ना ठाकुर साहब?" महेंद्र सिंह ने बड़े नम्र भाव से पास ही रखी एक कुर्सी पर बैठते हुए पूछा____"असल में सबके बीच आपसे ज़्यादा बातें करने का अवसर ही नहीं मिला।"
"ऐसी कोई बात नहीं है मित्र।" दादा ठाकुर ने कहा____"हमें भी अभी नींद नहीं आ रही थी। अच्छा हुआ आप आ गए।"
"काफी समय से हम आपसे एक बात कहना चाहते थे लेकिन फिर कहने का मौका ही नहीं मिला।" महेंद्र सिंह ने थोड़ी गंभीरता अख़्तियार करते हुए कहा____"हालात कुछ ऐसे हो गए जिनकी आपके साथ साथ हमने भी कभी कल्पना नहीं की थी। उन हालातों में हमने उस बात को आपसे कहना उचित नहीं समझा था। अब जबकि सब कुछ ठीक हो गया है तो हम सोचते हैं कि आपसे वो बात कह ही दें। शायद इससे बेहतर मौका हमें कहीं और ना मिले।"
"बिल्कुल कहिए मित्र।" दादा ठाकुर ने सामान्य भाव से कहा____"हम भी जानना चाहते हैं कि ऐसी कौन सी बात है जिसे कहने के लिए हमारे मित्र को इतना इंतज़ार करना पड़ा?"
"उस बात को कहने में हमें थोड़ा झिझक हो रही है ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने सच में झिझकते हुए कहा____"लेकिन दिल यही चाहता है कि आपसे अपने मन की बात कह ही दें। हमारी आपसे गुज़ारिश है कि आप बेहद शांत मन से हमारी वो बात सुन लें उसके बाद आपका जो भी फ़ैसला होगा उसे हम अपने सिर आंखों पर रख लेंगे।"
"आपको अपने दिल की कोई भी बात हमसे कहने में झिझकने की आवश्यकता नहीं है।" दादा ठाकुर ने कहा____"आप हमारे मित्र हैं। हम अच्छी तरह जानते हैं कि आप हमसे जो भी कहेंगे अच्छा ही कहेंगे।"
"हमारी मंशा तो यही है ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने कहा____"और यकीन मानिए, हमारे मन में आपके लिए ना पहले कभी कोई ग़लत ख़याल आया था और ना ही कभी आ सकता है।"
"आपको ये सब कहने की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है।" दादा ठाकुर ने अधीरता से कहा____"हम अच्छी तरह जानते हैं कि आप हमारे ऐसे मित्र हैं जिन्होंने जीवन में कभी भी हमारे लिए ग़लत नहीं सोचा। आप अपनी बात बेफ़िक्र हो कर और बेझिझक हो के कहिए। हम आपको वचन देते हैं कि हम आपकी बात पूरी शांति से और पूरे मन से सुनेंगे।"
"आपका बहुत बहुत धन्यवाद ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने जैसे मन ही मन राहत की सांस लेते हुए कहा____"बात दरअसल ये है कि हम काफी समय से आपसे ये कहना चाहते थे कि क्यों न हम अपनी मित्रता को एक हसीन रिश्ते में बदल लें। स्पष्ट शब्दों में कहें तो ये कि हम अपने बेटे राघवेंद्र का विवाह आपकी भतीजी कुसुम के साथ करने की हसरत रखते हैं। क्या आप हमारी मित्रता को ऐसे हसीन रिश्ते में बदलने की कृपा करेंगे? हम जानते हैं कि आपसे हमने ऐसी बात कह दी है जिसे आपसे कहने की हमारी औकात नहीं है लेकिन फिर भी एक मित्र होने के नाते आपसे अपने बेटे के लिए आपकी भतीजी का हाथ मांगने की गुस्ताख़ी कर रहे हैं।"
महेंद्र सिंह की ये बातें सुन कर दादा ठाकुर फ़ौरन कुछ बोल ना सके। चेहरे पर हैरानी के भाव लिए वो कुछ सोचते नज़र आए। ये देख महेंद्र सिंह की धड़कनें रुक गईं सी महसूस हुई।
"क...क्या हुआ ठाकुर साहब?" महेंद्र सिंह ने घबराए से लहजे में पूछा____"क्या आपको हमारी बातों से धक्का लगा है? देखिए अगर आपको हमारी बातों से चोट पहुंची हो तो हमें माफ़ कर दीजिए।"
"नहीं नहीं मित्र।" दादा ठाकुर ने अधीरता से कहा____"आप माफ़ी मत मांगिए। आपकी बातों से हमें बिलकुल भी चोट नहीं पहुंची है लेकिन हां, धक्का ज़रूर लगा है। धक्का इस बात का लगा है कि जो बात कभी हम आपसे कहना चाहते थे वही बात आज आपने खुद ही हमसे कह दी।"
"ये...ये क्या कह रहे हैं आप?" महेंद्र ने अविश्वास भरे भाव से कहा____"हमारा मतलब है कि क्या सच में आप हमसे ऐसा कहना चाहते थे?"
"हां मित्र।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ली____"ये तब की बात है जब हमारे परिवार के सदस्यों पर वैसे संकट जैसे हालात नहीं थे जैसों से जूझ कर हम सब यहां पहुंचे हैं और इतना ही नहीं उनमें हमने अपनों को भी खोया। ख़ैर कुसुम भले ही हमारे छोटे भाई जगताप की बेटी थी लेकिन उसको हम अपनी ही बेटी मानते आए हैं। हमारे मन में कई बार ये ख़याल आया था कि हम अपनी बेटी का विवाह आपके बेटे राघवेंद्र से करें। बहरहाल, हमारा ये ख़याल ख़याल ही रह गया और हालात ऐसे हो गए जैसे कुदरत का क़हर ही हम पर बरसने लगा था। हमने अपने बड़े बेटे और छोटे भाई को खो दिया। अगर अपने अंदर का सच बताएं मित्र तो वो यही है कि अंदर से अब हम पूरी तरह से टूट चुके हैं। इस सबके बाद अगर हमें बाकी सबका ख़याल न होता तो कब का हम सब कुछ छोड़ कर किसी ऐसी दुनिया में चले गए होते जहां न कोई माया मोह होता और ना ही किसी तरह का बंधन....अगर कुछ होता तो सिर्फ शांति।"
"ऐसा मत कहिए ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने अधीरता से कहा____"आप जैसे विशाल हृदय वाले इंसान को इस तरह से विचलित होना शोभा नहीं देता। हम मानते हैं कि पिछले कुछ समय में आपने जो कुछ सहा है और जो कुछ खोया है वो वाकई में असहनीय था लेकिन आप भी जानते हैं कि ये सब ऊपर वाले के ही खेल होते हैं। वो हम इंसानों को मोहरा बना कर जाने कैसे कैसे खेल खेलता रहता है।"
"अगर बात सिर्फ खेल की ही होती तो कदाचित हमें इतनी तकलीफ़ ना हुई होती मित्र।" दादा ठाकुर ने सहसा दुखी हो कर कहा____"यहां तो ऐसी बात हुई है जिसके बारे में हम कल्पना ही नहीं कर सकते थे। उस दिन जब आप हमारे यहां आए थे और सफ़ेदपोश के बारे में पूछ रहे थे तो हमने आपको उसके बार में पूछने से मना कर दिया था। जानते हैं क्यों? क्योंकि हम ऐसी हालत में ही नहीं हैं कि किसी को सफ़ेदपोश के बारे में बता सकें। आप जब वापस चले गए तो हमें ये सोच कर दुख हो रहा था कि हमने अपने मित्र को इस बारे में नहीं बताया। भला ये कैसी मित्रता है कि हम अपने मित्र से ही कोई बात छुपाएं? मित्र तो वो होता है ना जो अपने मित्र से कुछ भी न छुपाए लेकिन हमने छुपाया मित्र। अपने दिल पर पत्थर रख कर छुपाया हमने।"
"ऐसा मत कहिए ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह दादा ठाकुर को आहत और दुखी हालत में देख खुद भी दुखी नज़र आए____"यकीन मानिए आपके छुपाए जाने से हमें बिलकुल भी बुरा नहीं लगा था। हां, ये सोच कर दुख ज़रूर हुआ था कि ये विधाता की कैसी क्रूरता है जिसके चलते आपकी ऐसी दशा हो गई थी? आप इस बारे में ये सब सोच कर खुद को दुखी मत कीजिए मित्र। हमारी आपसे वर्षों की मित्रता है और हम वर्षों से आपको जानते हैं कि आप कितने महान इंसान हैं।"
"नहीं मित्र।" दादा ठाकुर के चेहरे पर एकाएक कठोरता के भाव उभर आए____"हमारे जैसा इंसान अब महान नहीं रहा। भला वो इंसान महान हो भी कैसे सकता है जिसने एक ही झटके में इतने सारे लोगों को मार डाला हो? वो इंसान महान कैसे हो सकता है जिसने हर किसी से सफ़ेदपोश का सच छुपाया और....और वो व्यक्ति भला कैसे महान हो सकता है मित्र जिसके अपने ही छोटे भाई ने सफ़ेदपोश के रूप में अपने ही बड़े भाई और उसके समूचे परिवार को नेस्तनाबूत कर देने का षडयंत्र रचा?"
"ये....ये क्या कह रहे हैं आप?" महेंद्र सिंह को ज़बरदस्त झटका लगा____"आपके छोटे भाई जगताप थे सफ़ेदपोश? हे भगवान! ये कैसे हो सकता है?"
"यही सच है मित्र।" दादा ठाकुर ने आहत भाव से कहा____"इसी लिए तो हम ये बात किसी को बता नहीं सकते कि सफ़ेदपोश असल में हमारा ही छोटा भाई जगताप था।"
"बड़ी हैरतअंगेज़ बात बता रहे हैं आप।" महेंद्र सिंह के चेहरे पर अभी भी आश्चर्य नाच रहा था____"लेकिन अगर आपके भाई ही सफ़ेदपोश थे तो फिर वो आपके द्वारा पकड़े कैसे गए? हमारा मतलब है कि उनकी तो साहूकारों ने चंद्रकांत के साथ मिल कर हत्या कर दी थी ना? फिर वो ज़िंदा कैसे हुए?"
"उसके ज़िंदा होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता मित्र।" दादा ठाकुर ने कहा____"सच बात ये है कि उसकी मौत के बाद सफ़ेदपोश का लिबास उसकी पत्नी यानि मेनका ने पहन लिया था और फिर उसी ने उसके काम को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया था।"
"हे भगवान! ये तो और भी ज़्यादा आश्चर्यचकित कर देने वाली बात है।" महेंद्र सिंह ने आश्चर्य से आंखें फैलाते हुए कहा____"यकीन नहीं होता कि एक औरत होने के बावजूद उन्होंने सफ़ेदपोश बन कर ऐसे दुस्साहस से भरे काम किए।"
"सच जानने के बाद हम भी इसी तरह चकित हुए थे।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन उससे ज़्यादा ये सोच कर दुखी हुए कि हमारे अपने ही हमें अपना जन्म जात शत्रु माने हुए थे और हमें मिटाने पर तुले हुए थे।"
महेंद्र सिंह के पूछने पर दादा ठाकुर ने संक्षेप में सारा किस्सा बता दिया जिसे सुन कर महेंद्र की मानों बोलती ही बंद हो गई। आख़िर कुछ देर में उनकी हालत सामान्य हुई।
"वाकई, ये सच तो यकीनन दिल दहला देने वाला और पूरी तरह जान निकाल देने वाला है।" फिर उन्होंने कहा____"आपके मुख से ये सब सुनने के बाद जब हमारी ख़ुद की हालत बहुत अजीब सी हो गई है तो आपकी हालत का अंदाज़ा हम बखूबी लगा सकते हैं। समझ में नहीं आ रहा कि जगताप जैसे सुलझे हुए इंसान के मन में ये सब करने का ख़याल कैसे आ गया था? क्या सच में इंसान की सोच इतना जल्दी गिर जाती है? क्या सच में इंसान धन दौलत के लालच में और सिर्फ अपने हितों के बारे में सोचने के चलते इतना क्रूर बन जाता है? ठाकुर साहब, आपकी तरह हम भी ये कल्पना नहीं कर सकते थे लेकिन सच तो सच ही है। हम आपसे यही कहेंगे कि इस सबके बारे में सोच कर अपने आपको दुखी मत रखिए। इस संसार में सच की सूरत ज़्यादातर कड़वी ही देखने को मिलती है।"
"सही कहा आपने।" दादा ठाकुर ने कहा____"हम भी इस कड़वे सच को हजम करने की नाकाम कोशिशों में लगे हुए हैं। ख़ैर अब हम आपसे ये कहना चाहते हैं कि इस सच को जानने के बाद भी क्या आप अपने बेटे का विवाह हमारी बेटी से करने का सोचते हैं?"
"बिल्कुल ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने दृढ़ता से कहा____"मानते हैं कि जो कुछ हुआ बहुत भयानक और हैरतअंगेज़ था लेकिन इसमें उस बच्ची का तो कहीं कोई दोष ही नहीं है। जिसने बुरी नीयत से दुष्कर्म किया उसको उसकी करनी की सज़ा मिल चुकी है। मंझली ठकुराईन को भी अपनी ग़लतियों का एहसास हो चुका है जिसके चलते वो प्रायश्चित कर रही हैं। ऐसे में हम भला ये क्यों सोचेंगे कि हम अपने बेटे का विवाह आपकी भतीजी से न करें? ठाकुर साहब, आप हमारे मित्र हैं और संबंध हमें आपसे बनाना है।"
"हमने भले ही उसे अपनी बेटी माना है मित्र।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन जिस सच्चाई से हम रूबरू हुए हैं उसके बाद ऐसा लगने लगा है जैसे अब हमारा अपने के रूप में कोई नहीं है। काश! वो सचमुच में हमारी ही बेटी होती तो हम खुशी खुशी आपका ये प्रस्ताव स्वीकार कर लेते लेकिन उसमें अब हमारा कोई हक़ नहीं है। अगर आप सच में चाहते हैं कि उसी के साथ आपके बेटे का विवाह हो तो इसके लिए आपको उसकी मां से बात करना होगा जिसने सचमुच में उसे पैदा किया है।"
"शायद आप ठीक कह रहे हैं।" महेंद्र सिंह ने सिर हिलाते हुए कहा____"इतना सब कुछ होने के बाद आपकी मानसिकता इस तरह की हो जाना स्वाभाविक ही है। वाकई पहले जैसी बात नहीं हो सकती है। ख़ैर, अगर आप सच में ऐसा ही चाहते हैं तो हम ज़रूर उन्हीं से बात करेंगे। उम्मीद है कि वो अपनी बेटी का विवाह हमारे बेटे से करने को तैयार हो जाएंगी।"
कुछ देर और इसी संबंध में बातें हुईं उसके बाद महेंद्र सिंह चले गए। उनके जाने के बाद दादा ठाकुर काफी देर तक इस बारे में सोचते रहे। मन में जाने कैसे कैसे ख़्याल उभर रहे थे जिसके चलते उनका मन व्यथित होने लगता था। बड़ी मुश्किल से उन्हें नींद आई।
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अपने कमरे में मैं पलंग पर लेटा हुआ था। मन में बहुत कुछ चल रहा था। ख़ास कर भाभी से हुई बातें। मैंने महसूस किया जैसे आज का दिन बड़ा ही ख़ास था। आज एक अजब संयोग भी हुआ था। इधर मैं अपने दिल की बातें भाभी से कहने पहुंचा और उधर मेरी तमाम उम्मीदों के विपरीत मुझे ये पता चला कि भाभी भी मुझसे विवाह करने को राज़ी हो गईं हैं। इतना ही नहीं इस बात की ख़बर देने उनका भाई मेरे साथ ही हवेली आ गया था। माना कि अब यही सच था लेकिन मुझे अब भी यकीन नहीं हो रहा था कि सचमुच ये रिश्ता एक दिन अटूट बंधन के रूप में और पूरी मान्यताओं के साथ बंध जाएगा।
मैं सोचने लगा कि वाकई में किस्मत बड़ी हैरतअंगेज़ बला होती है। या फिर ये कहूं कि ऊपर वाले का खेल बड़ा ही अजीब होता है। इंसान की हर कल्पना से परे होता है। मैं एकदम से अपनी ज़िंदगी में हुए इस अविश्वसनीय परिवर्तनों के बारे में सोचने लगा।
एक वक्त था जब मैं सिर्फ मौज मस्ती और अय्याशियों में ही मगन रहता था। मेरे लिए जैसे ज़िंदगी का असली आनंद ही इसी सब में था। मैं शुरू से ही बड़ा निडर, दुस्साहसी और गुस्सैल स्वभाव का रहा था लेकिन इस सबके बीच मेरे अंदर कहीं न कहीं कोमल भावनाएं भी थी और इस बात का बोध भी था कि कम से कम मैं अपनी कुदृष्टि अपने ही घर की बहू बेटी पर न डालूं। यानि मैं ये समझता था कि ऐसा करना ऊंचे दर्ज़े का पाप है। शायद यही वजह थी कि मैंने कभी ऐसा किया भी नहीं था। हां, भाभी के रूप सौंदर्य पर ज़रूर आकर्षित हो जाया करता था जोकि सच कहूं तो ये मेरे बस में था भी नहीं। पहले भी बता चुका हूं कि वो थीं ही इतनी सुंदर और सादगी से भरी हुईं।
जब मुझे एहसास हो गया कि मैं उनके रूप सौंदर्य से खुद को आकर्षित होने से रोक नहीं सकता तो मैंने हवेली में रहना ही कम कर दिया था। कभी दोस्तों के घर में तो कभी कहीं, यही मेरी ज़िंदगी बन गई थी। दो दो तीन तीन दिन मैं हवेली से ग़ायब रहता। जैसा कि मैंने बताया मैं बहुत ही निडर दुस्साहसी और गुस्सैल स्वभाव का था इस लिए मैं जहां भी जाता अपनी छाप छोड़ देता था। हालाकि इस सबके पीछे पिता जी का नाम भी जैसे मेरा मददगार ही होता था। कोई भी मुझसे उलझने की कोशिश नहीं करता था। यही वजह थी कि मेरे नाम का डंका दूर दूर तक बज चुका था।
मेरे दुस्साहस की वजह से बड़े बड़े लोग भी मेरे संपर्क में आ गए थे जो अपने मतलब के लिए मुझसे सहायता मांगते थे और मैं बड़े शान से उनकी सहायता कर भी देता था। ये उसी का परिणाम था कि मेरी पहुंच और मेरे संबंध आम लोगों की नज़र में हैरतअंगेज़ बात थी। जिस जगह पर और जिस चीज़ पर मैंने हाथ रख दिया वो मेरी होती थी और अगर किसी ने विरोध किया तो परिणाम बुरा ही होता था। मेरे इन कारनामों की वजह से पिता जी चकित तो होते ही थे किंतु परेशान और चिंतित भी रहते थे। मेरी हरकतों की वजह से उनका नाम ख़राब होता था। इसके लिए मुझे हर बार दंड दिया जाता था जोकि कोड़ों की मार की शक्ल में ही होता था लेकिन मजाल है कि ठाकुर वैभव सिंह में कभी कोई बदलाव आया हो। मैं बड़े शौक से पिता जी की सज़ा क़बूल करता था और कोड़ों की मार सहता था उसके बाद फिर से उसी राह पर चल पड़ता था जिसमें मुझे अत्यधिक आनन्द आता था।
गांव के साहूकारों के लड़के शुरू से ही मुझे अपना दुश्मन समझते थे। इसकी वजह सिर्फ ये नहीं थी कि बड़े दादा ठाकुर ने उनके साथ बुरा किया था बल्कि ये भी थी कि मैं उनकी सोच और कल्पनाओं से बहुत ज़्यादा उड़ान भर रहा था। ये सच है कि मैं उनसे उलझने की कभी पहल नहीं करता था लेकिन जब वो पहल करते थे तो उन्हें बक्शता भी नहीं था। अपने गांव में ही नहीं बल्कि आस पास गांवों में भी मेरा यही रवैया था। मैं मौज मस्ती और अय्याशियों में इतना खो गया था कि मुझे इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि कब मेरे दामन पर बदनामी की कालिख लग चुकी थी?
ऐसे ही ज़िंदगी गुज़र रही थी और फिर एक दिन पिता जी ने मुझे गांव से निष्कासित कर दिया। बस, यहीं से मेरी ज़िंदगी में जैसे परिवर्तन होना शुरू हो गया था। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरे जीवन में कभी ऐसे दिन आएंगे जो मुझे धीरे धीरे बदलना शुरू कर देंगे। मुरारी की लड़की अनुराधा पर जब मेरी नज़र पड़ी थी तो ये सच है कि उसको भी मैंने बाकी लड़कियों की तरह भोगना ही चाहा था लेकिन ऐसा नहीं कर सका। कदाचित ये सोच कर कि जिस घर के मुखिया ने मुझे अपना समझा और मेरी इतनी मदद की मैं उसी की बेटी की इज्ज़त कैसे ख़राब कर सकता हूं? सरोज से नाजायज़ संबंध ज़रूर बन गया था लेकिन इसमें भी सिर्फ मेरा ही बस दोष नहीं था। सरोज ने ही मुझे इसके लिए इशारा किया था और अपना जिस्म दिखा दिखा कर ये जताया था कि वो मुझसे चुदना चाहती है। मैं तो जिस्म का भूखा था ही, दूसरे निष्कासित किए जाने से अंदर गुस्सा भी भरा हुआ था इस लिए मैंने बिल्कुल भी नहीं सोचा कि ये मैं किसके साथ दुष्कर्म करने जा रहा हूं?
कई बार मन बनाया कि किसी दिन अकेले में अनुराधा को पटाने की कोशिश करूंगा और उसको अपने मोह जाल में फंसाऊंगा लेकिन हर बार जाने क्यों ऐसा करने के लिए मेरे ज़मीर ने मुझे रोक लिया। उसकी मासूमियत, उसका भोलापन धीरे धीरे ही सही लेकिन मेरे दिलो दिमाग़ में जैसे घर करने लगा था। मुझे पता ही नहीं चला कि कब मैं उसकी मासूमियत, उसके भोलेपन और उसकी सादगी पर मर मिटा था। मेरे सामने उसका छुई मुई हो जाना, शर्म से सिमट जाना, मेरे ठकुराईन कहने पर पहले तो नाराज़ होना और फिर शर्म के साथ मुस्कराने लगना ये सब मेरे दिल में रफ़्ता रफ़्ता एक अलग ही एहसास पैदा करते जा रहे थे। एक समय ऐसा आया जब मैं खुद महसूस करने लगा कि मेरे दिल में अनुराधा के प्रति एक ऐसी भावना ने जन्म ले लिया है जो अब तक किसी के लिए भी पैदा नहीं हुई थी। फिर एक दिन उसने मुझे बड़ी कठोरता से दुत्कार दिया और मुझे ये एहसास करा दिया कि मैं किसी कीमत पर उसे हासिल नहीं कर सकता हूं। हालाकि ऐसा मेरा कोई इरादा भी नहीं था लेकिन उसकी नज़र में तो ऐसा ही था। उस दिन बड़ी तकलीफ़ हुई थी मुझे। ऐसा लगा था जैसे पहली बार किसी ने मेरे दिल को चीर दिया हो। मामला जब दिल से संबंध रखने लगता है तो उसकी एक अलग ही कहानी शुरू हो जाती है जिसके एहसास में इंसान बड़ा विचित्र सा हो जाता है। वही मेरे साथ हुआ। अनुराधा से दूर हो जाना पड़ा, किंतु ये दूरी भी जैसे नियति का ही कोई खेल थी। यकीनन मेरे जैसे चरित्र का लड़का इस दूरी से इतना विचलित नहीं होता और एक बार फिर से अपने पुराने अवतार में आ जाता लेकिन ऐसा नहीं हुआ। नियति मुझे प्रेम का पाठ पढ़ाना चाहती थी। मेरे दिल में ठूंस ठूंस कर प्रेम के एहसास भर देना चाहती थी और ऐसा ही हुआ। मैं भला कैसे नियति के विरुद्ध चला जाता? आज तक भला कोई जा पाया है जो मैं चला जाता?
मैं क्या जनता था कि नियति मेरे साथ आगे चल कर कितना बड़ा धोखा करने वाली थी। एक तरफ तो वो मेरे दिल में प्रेम के एहसास भर रही थी और दूसरी तरफ जिसके लिए एहसास भर रही थी उसको हमेशा के लिए मुझसे दूर कर देने का समान भी जुटाए जा रही थी। अगर मुझे पता होता कि मेरे प्रेम के चलते उस मासूम का ऐसा भनायक अंजाम होगा तो मैं कभी उसके क़रीब न जाता। मुझे ऐसा प्रेम नहीं चाहिए था और ना ही अपने लिए ऐसा बदलाव चाहिए था जिसके चलते किसी निर्दोष का जीवन ही छिन जाए। मगर ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ, बल्कि हुआ तो वो जिसने हम सबको हिला कर रख दिया।
बहरहाल, वक्त कभी नहीं रुकता। वो चलता ही जाता है और उसी के साथ चीज़ें भी बदलती जाती हैं। मेरे जीवन में रूपा का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। बड़ी अजीब लड़की है वो। एक ऐसे लड़के से प्रेम कर बैठी थी जो हमेशा प्रेम को बकवास कहता था। इतना सब कुछ होने के बाद जब फिर से उससे मुलाक़ात हुई तो इस बार मैं उसके प्रेम को बकवास नहीं कह सका। कहता भी कैसे? प्रेम जैसी बला से अच्छी तरह वाकिफ़ जो हो गया था मैं, बल्कि ये कहना चाहिए कि नियति ने मुझे अच्छी तरह प्रेम से परिचित करा दिया था।
मैं पूरे यकीन से कहता हूं कि रूपा इस युग की लड़की नहीं हो सकती। वो ग़लती से इस युग में पैदा हो गई है। इस युग की लड़की के अंदर इतने अद्भुत गुण नहीं हो सकते। ख़ैर, सच जो भी हो लेकिन ये तो सच ही था कि ऐसी अद्भुत लड़की ने मुझे एक नया जीवन दिया और उससे भी बढ़ कर मुझसे प्रेम किया। एक ऐसा प्रेम जिसके बारे में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। उसका हृदय मानों ब्रम्हांड की तरह विशाल है। वो सब कुछ क़बूल कर सकती है। वो सबको अपना समझ सकती है। मुझे बेइंतहा प्रेम करती है लेकिन मुझ पर अपना कोई हक़ नहीं समझती। मैं नतमस्तक हूं उसके इस प्रेम के सामने। काश! हर जन्म में वो मुझे इसी रूप में मिले, लेकिन एक शर्त है कि मेरे अंदर भी उसके जैसा ही प्रेम हो ताकि मैं भी उसको उसी के जैसा प्रेम कर सकूं।
बहरहाल, ये सब कुछ मेरी कल्पनाओं से परे था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि ऐसा भी कभी होगा लेकिन हुआ। उधर नियति का जैसे अभी भी मन नहीं भरा था तो उसने फिर से एक बार कुछ ऐसा किया जो एक बार फिर मेरे लिए कल्पना से परे था। मेरी भाभी को मेरी पत्नी बनाने का खेल रचा नियति ने। वजह, आप सब जानते हैं। माना कि ये एक जायज़ वजह है लेकिन ये भी तो ख़याल रखना चाहिए था कि क्या कोई इतनी आसानी से ये हजम भी कर लेगा? ख़ैर ऐसा लगता है जैसे कुछ सवालों के जवाब ही नहीं होते और अगर होते हैं तो बताए नहीं जाते।
पलंग पर लेटा मैं जाने क्या क्या सोचे जा रहा था। कुछ ही देर में जैसे मैंने अपने जीवन को शुरू से जी लिया था। आज के हालात और आज की तस्वीर बड़ी अजब थी। बहरहाल, जो कुछ भी था उसको क़बूल करना ही जैसे अब सबके हित में था और ये मैं समझ भी चुका था। मैं अपनी भाभी को हमेशा ख़ुश देखना चाहता हूं। अगर उनकी ख़ुशी के लिए मुझे इस हद तक भी गुज़र जाना लिखा है तो यकीनन गुज़र जाऊंगा।
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अध्याय - 156
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सुबह हुई।
नित्य कर्म से फुर्सत होने के बाद हम सब नाश्ता करने बैठे हुए थे। इस बीच मां बड़ी ही खुशदिली से वीरेंद्र से उसके घर वालों का हाल चाल पूछ रहीं थी। हालाकि कल भी वो ये सब पूछ चुकीं थी लेकिन जाने क्यों वो फिर से उससे पूंछे जा रहीं थी। मेनका चाची भी अपने चेहरे पर खुशी के भाव लिए रागिनी भाभी के बारे में पूछने में लगी हुईं थी। सबके बीच मैं ख़ामोशी से नाश्ता कर रहा था। एक तरफ किशोरी लाल भी बैठा नाश्ता कर रहा था। उधर कुसुम का अपना अलग ही हिसाब किताब था। वो भी कुरेद कुरेद कर वीरेंद्र सिंह से रागिनी भाभी के बारे में जाने क्या क्या पूछे जा रही थी। वीरेंद्र सिंह नाश्ता कम और जवाब देने में ज़्यादा व्यस्त हो गया था। मैं मन ही मन ये सोच कर मुस्कुरा उठा कि बेचारे को शांति से कोई नाश्ता भी नहीं करने दे रहा है।
आख़िर सबने वीरेंद्र सिंह पर मानो रहम किया और उसे शांति से नाश्ता करने दिया। नाश्ते के बाद हम सब बैठक में आ गए। बैठक में बैठे हुए हमें अभी थोड़ा ही समय हुआ था कि पिता जी आ गए। महेंद्र सिंह ख़ुद यहां तक उन्हें छोड़ने आए थे। पिता जी ने उन्हें अंदर आने को कहा लेकिन वो ज़रूरी काम का बोल कर वापस चले गए।
पिता जी पर नज़र पड़ते ही हम सब अपनी अपनी कुर्सी से उठ कर खड़े हो गए। उधर पिता जी आए और अपने सिंहासन पर बैठ गए। मैंने नौकरानी को आवाज़ दे कर कहा कि वो पिता जी के लिए पानी ले आए।
"हमें देर तो नहीं हुई ना यहां आने में?" पिता जी ने वीरेंद्र सिंह से मुखातिब हो कर नर्म भाव से कहा____"हमने अपने मित्र महेंद्र सिंह को स्पष्ट शब्दों में कहा था कि सुबह जितना जल्दी हो सके वो हमें हवेली वापस भेजने चलेंगे। ख़ैर नास्था वगैरह हुआ या नहीं?"
"जी अभी कुछ देर पहले ही हुआ है।" वीरेंद्र सिंह ने कहा____"आपका आदेश था कि मैं आपसे मिल कर ही जाऊं इस लिए आपके आने की प्रतीक्षा कर रहा था।"
"बहुत अच्छा किया बेटा।" पिता जी ने कहा____"हमें बहुत अच्छा लगा। ख़ास कर ये सुन कर अच्छा लगा है कि हमारी बहू ने वैभव से विवाह करना स्वीकार कर लिया है। वैसे सच कहें तो हम ख़ुद को अपनी बहू का अपराधी भी महसूस करते हैं। ऐसा इस लिए क्योंकि हमने बिना उससे कुछ पूछे उसके जीवन का इतना बड़ा फ़ैसला कर लिया था और फिर इस विवाह के संबंध में समधी जी से चर्चा भी कर डाली। बस इसी बात को सोच कर हमें लगता है कि हमने अपनी बहू पर ज़बरदस्ती ये रिश्ता थोप दिया है। हमें सबसे पहले उससे ही इस संबंध में पूछना चाहिए था।"
"आप ऐसा न कहें दादा ठाकुर जी।" महेंद्र सिंह ने अधीरता से कहा____"आपने जो भी किया है वो मेरी बहन की भलाई और खुशी के लिए ही किया है। वैसे भी, आपने तो स्पष्ट रूप से यही कहा था कि ये रिश्ता तभी होगा जब रागिनी की तरफ से स्वीकृति मिलेगी अन्यथा नहीं। ऐसे में अपराधी महसूस करने का सवाल ही नहीं पैदा होता।"
तभी नौकरानी पानी ले कर आ गई। उसने पिता जी को पानी दिया जिसे पिता जी ने पी कर गिलास को उसे वापस पकड़ा दिया। नौकरानी चुपचाप वापस चली गई।
"तुम्हें तो सब कुछ पता ही है वीरेंद्र बेटा।" पिता जी ने गंभीरता से कहा____"कि पिछले कुछ महीनों में हमने यहां क्या क्या देखा सुना और सहा है। सच कहें तो इस सबके चलते दिलो दिमाग़ ऐसा हो गया है कि कुछ सूझता ही नहीं है कि क्या करें और कैसे करें? जो गुज़र गए उनका तो दुख सताता ही है लेकिन अपनी बहू का बेरंग जीवन देख के और भी बहुत तकलीफ़ होती है। अब तो एक ही इच्छा है कि हमारी बहू का जीवन फिर से संवर जाए और वो खुश रहने लगे, उसके बाद फिर हमें उस परवरदिगार से किसी भी चीज़ की चाहत नहीं रहेगी।"
"कृपया ऐसा मत कहें आप।" वीरेंद्र सिंह ने अधीरता से कहा____"आप ही ऐसी निराशावादी बातें करेंगे तो उनका क्या होगा जो आपके अपने हैं?"
"जिसके भाग्य में जो होता है उसे वही मिलता है वीरेंद्र।" पिता जी ने गंभीरता से कहा____"कोई लाख कोशिश कर ले किन्तु ऊपर वाले की मर्ज़ी के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सकता। ख़ैर, छोड़ो इन बातों को। हम तुमसे ये कहना चाहते हैं कि हमारी तरफ से हमारी बहू से माफ़ी मांग लेना और उससे कहना कि हमने उससे बिना पूछे उसके जीवन का फ़ैसला ज़रूर किया है लेकिन इसके पीछे हमारी भावना सिर्फ यही थी कि उसका जीवन फिर से संवर जाए और उसकी बेरंग ज़िन्दगी फिर से खुशियों के रंगों से भर जाए। उससे ये भी कहना कि वो इस रिश्ते को स्वीकार करने के लिए ख़ुद को मजबूर न समझे, बल्कि वो वही करे जो करने को उसकी आत्मा गवाही दे। हम उसके हर फ़ैसले का पूरे आदर के साथ सम्मान करेंगे।"
"ये आप कैसी बातें कर रहे हैं दादा ठाकुर जी?" वीरेंद्र सिंह ने चकित भाव से कहा____"कृपया ऐसा न कहें। ये तो मेरी बहन का सौभाग्य है कि उसे आपके जैसे देवता समान ससुर मिले हैं जो उसकी इतनी फ़िक्र करते हैं। दुख सुख तो हर इंसान के जीवन में आते हैं लेकिन दुख दूर करने वाले आप जैसे माता पिता बड़े भाग्य से मिलते हैं। सच कहूं तो मुझे बहुत खुशी हो रही है कि आपने मेरी बहन के बारे में इतना बड़ा फ़ैसला लिया ताकि उसका जीवन जो उमर भर के लिए दुख और तकलीफ़ों से भर जाने वाला था वो फिर से ख़ुशहाल हो जाए।"
"इस वक्त ज़्यादा कुछ नहीं कहेंगे बेटा।" पिता जी ने गहरी सांस ली____"समधी जी से कहना कि किसी दिन हम समय निकाल कर उनसे मिलने आएंगे।"
वीरेंद्र सिंह ने सिर हिलाया। कुछ देर बाद वीरेंद्र सिंह ने जाने की इजाज़त मांगी तो पिता जी ने ख़ुशी से दे दी। वीरेंद्र सिंह ने पिता जी के पैर छुए, फिर मेरे छुए और फिर अंदर मां और चाची के पैर छूने चला गया। थोड़ी देर में वापस आया और फिर हवेली के बाहर की तरफ चल पड़ा। पिता जी भी बाहर तक उसे छोड़ने गए। कुछ ही पलों में वीरेंद्र सिंह अपनी जीप में बैठ कर चला गया।
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मैं जब निर्माण कार्य वाली जगह पर पहुंचा तो रूपचंद्र मुझे वहीं मिला। मुझे देखते ही वो मेरे पास आया। उसके चेहरे पर चमक थी। मुझे समझ ना आया कि सुबह सुबह किस बात के चलते उसके चेहरे पर चमक दिख रही है?
"तो रागिनी दीदी तुमसे विवाह करने के लिए राज़ी हो गईं हैं ना?" फिर उसने मुस्कुराते हुए जब ये कहा तो मैं एकदम से चौंक गया।
"तुम्हें कैसे पता चला?" मैंने हैरानी से पूछा।
"कुछ देर पहले मैंने रागिनी दीदी के भाई साहब को जीप में बैठे जाते देखा था।" रूपचंद्र ने बताया____"वो हवेली की तरफ से आए थे और मेरे घर के सामने से ही निकल गए थे। उस दिन तुम्हीं ने बताया था कि जब दीदी इस रिश्ते के लिए राज़ी हो जाएंगी तो उनके राज़ी होने की ख़बर यहां भेज दी जाएगी अथवा कोई न कोई ख़बर देने तुम्हारे पिता जी के पास आएगा। थोड़ी देर पहले जब मैंने दीदी के भाई को देखा तो समझ गया कि रागिनी दीदी तुमसे ब्याह करने को राज़ी हो गई हैं और इसी लिए उनके भाई साहब यहां आए थे। ख़ैर कल तुम भी तो गए थे ना दीदी से मिलने तो क्या हुआ वहां? क्या दीदी से तुम्हारी बात हुई?"
"हां।" मैंने कहा____"पहले तो लगा था कि पता नहीं कैसे मैं उनसे अपने दिल की बात कह सकूंगा लेकिन फिर आख़िरकार कह ही दिया। सच कहूं तो जिन बातों के चलते मैं परेशान था वैसी ही बातें सोच कर वो खुद भी परेशान थीं। बहरहाल, उनसे बातें करने के बाद मेरे मन का बोझ दूर हो गया था।"
"तो अब क्या विचार है?" रूपचंद्र ने पूछा____"मेरा मतलब है कि अब तो दीदी भी राज़ी हो गईं हैं तो अब तुम्हारे पिता जी क्या करेंगे?"
"पता नहीं।" मैंने कहा____"लेकिन इस सबके बीच मुझे एक बात बिल्कुल भी पसंद नहीं आई और वो ये कि इस सबके बारे में हर किसी ने रूपा से छुपाया। जबकि इस बारे में तुम लोगों से पहले उसको जानने का हक़ था।"
"मैं तो उसी दिन उसको सब बता देने वाला था वैभव।" रूपचंद्र ने गहरी सांस ली____"लेकिन तुम्हारे पिता जी का ही ये कहना था कि इस बारे में उसे न बताया जाए, बल्कि बाद में बताया जाए। यही वजह थी कि जब गौरी शंकर काका ने भी मुझे बताने से रोका तो मैं रुक गया। ख़ैर तुमने तो बता ही दिया है उसे और जान भी गए हो कि उसका क्या कहना है इस बारे में। मुझे तो पहले ही पता था कि मेरी बहन को इस रिश्ते से कोई आपत्ति नहीं होगी।"
"आपत्ति हो या ना हो।" मैंने कहा____"लेकिन इस बारे में सबसे पहले उसको ही जानने का हक़ था। क्या अब भी किसी को उसकी अहमियत का एहसास नहीं है? क्या हर कोई उसको सिर्फ स्तेमाल करने वाली वस्तु ही समझता है? मैं मानता हूं कि मैंने कभी उसकी और उसके प्रेम की कद्र नहीं की थी लेकिन अब करता हूं और हद से ज़्यादा करता हूं। जिस शिद्दत के साथ उसने मुझे प्रेम किया है उसी तरह मैं भी उससे प्रेम करने की हसरत रखता हूं। हर रोज़ ऊपर वाले से यही प्रार्थना करता हूं कि मेरे दिल में उसके लिए इतनी चाहत भर दे कि उसके सिवा कोई और मुझे नज़र ही न आए।"
"मुझे यकीन है कि ऐसा ही होगा वैभव।" रूपचंद्र ने अधीरता से कहा____"तुम्हारे मुख से निकले ये शब्द ही बताते हैं कि ऐसा ज़रूर होगा, बल्कि ये कहूं तो ग़लत न होगा कि बहुत जल्द होगा।"
कुछ देर और मेरी रूपचंद्र से बातें हुई उसके बाद मैं विद्यालय वाली जगह पर चला गया, जबकि रूपचंद्र अस्पताल वाली जगह पर ही काम धाम देखने लगा। मैं सबको देख ज़रूर रहा था लेकिन मेरा मन कहीं और भटक रहा था। कभी रूपा के बारे में सोचने लगता तो कभी रागिनी भाभी के बारे में।
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"बिल्कुल सही जवाब दिया आपने महेंद्र सिंह को।" कमरे में पलंग पर दादा ठाकुर के सामने बैठी सुगंधा देवी ने कहा____"उनको अगर अपने बेटे का विवाह कुसुम के साथ करना है तो वो इस बारे में मेनका से ही बात करें। उसके बारे में किसी भी तरह का फ़ैसला करने का ना तो हमें हक़ है और ना ही हम इस बारे में कुछ सोचना चाहते हैं।"
"ये आप क्या कह रही हैं?" दादा ठाकुर के चेहरे पर तनिक हैरानी के भाव उभरे____"उसके बारे में हम नहीं सोचेंगे तो कौन सोचेगा? आख़िर हम उसके अपने हैं।"
"अपने होने का कितना अच्छा सिला मिला है हमें क्या इतना जल्दी आप भूल गए हैं?" सुगंधा देवी ने सहसा तीखे स्वर में कहा____"ठाकुर साहब, आप भी जानते हैं कि हम दोनों ने माता पिता की तरह सबको समान भाव से प्यार और स्नेह दिया था। कभी किसी चीज़ का अभाव नहीं होने दिया और ना ही कभी ये एहसास होने दिया कि इस हवेली में वो किसी के हुकुम का पालन करने के लिए बाध्य हैं। बिना माता पिता के आपने तो संघर्ष किया लेकिन अपने छोटे भाई को कभी किसी संघर्ष का हिस्सा नहीं बनाया, सिवाय इसके कि हमेशा उसे एक अच्छा इंसान बनने को प्रेरित करते रहे। इसके बावजूद हमारी नेकियों, हमारे त्याग और हमारे प्यार का ये फल मिला हमें।"
"अब इन सब बातों को मन में रखने से सिर्फ तकलीफ़ ही होगी सुगंधा।" दादा ठाकुर ने अधीरता से कहा____"हम जानते हैं कि ऐसी बातें दिलो दिमाग़ से इतना जल्दी जाने वाली नहीं हैं। हमारे खुद के दिलो दिमाग़ से भी नहीं जाती हैं लेकिन इसके बावजूद हमें सब कुछ हजम कर के सामान्य आचरण ही करना होगा। इस हवेली के, इस परिवार के सबसे बड़े सदस्य हैं हम। परिवार के मुखिया पर परिवार की सारी ज़िम्मेदारियां होती हैं। मुखिया को हर हाल में अपने परिवार की भलाई के लिए ही सोचना पड़ता है और कार्य करना पड़ता है। अपने सुखों का, अपने हितों का त्याग कर के परिवार के लोगों की खुशियों के लिए कर्म करने पड़ते हैं। गांव समाज के लोग ये नहीं देखते कि किसने क्या किया है बल्कि वो ये देखते हैं कि परिवार के मुखिया ने क्या किया है?"
"ये सब हम जानते हैं ठाकुर साहब।" सुगंधा देवी ने कहा____"और इसी लिए शुरू से ले कर अब तक हम वही करते आए हैं जिसमें सबका भला हो और सब खुश रहें लेकिन इतना कुछ करने के बाद भी अगर हमें ये सिला मिले तो हृदय छलनी हो जाता है।"
"हमारा भी आपके जैसा ही हाल है।" दादा ठाकुर ने कहा____"सच कहें तो इस संसार में अब हमें एक पल के लिए भी जीने की इच्छा नहीं होती लेकिन क्या करें? कुछ कर्तव्य, कुछ फर्ज़ निभाने अभी बाकी हैं इस लिए मन को मार कर बस करते जा रहे हैं। हम ये नहीं चाहते कि लोग ये कहने लगें कि छोटे भाई की मौत के बाद बड़े भाई ने उसके बीवी बच्चों को अनाथ बना कर बेसहारा छोड़ दिया। छोटा भाई तो रहा नहीं इस लिए उनका अच्छा बुरा सोचने वाले अब हम ही हैं और उनको अच्छा बुरा बनाने वाले भी अब हम ही हैं। जब तक हमारे भाई के बच्चों का भविष्य संवर नहीं जाता तब तक हमें एक पिता की ही तरह उनके बारे में सोचना होगा। हम आपसे सिर्फ इतना ही कहना चाहते हैं कि आप अपने मन से सारी पीड़ा और सारी बातों को निकाल दीजिए। जितना हो सके मेनका और उसके बच्चों के हितों के बारे में सोचिए। वैसे भी उसे अपनी ग़लतियों का एहसास है और वो पश्चाताप की आग में झुलस भी रही है तो अब हमें भी उसके प्रति किसी तरह की नाराज़गी अथवा द्वेष नहीं रखना चाहिए।"
"जिन्हें जीवन भर मां बन कर प्यार और स्नेह दिया है उनसे ईर्ष्या अथवा द्वेष हो ही नहीं सकता ठाकुर साहब।" सुगंधा देवी ने गहरी सांस ली____"हां नाराज़गी ज़रूर है जोकि इतना जल्दी नहीं जाएगी। बाकी हर वक्त यही कोशिश करते हैं कि उनको पहले जैसा ही प्यार और स्नेह दें।"
"हम जानते हैं कि आप कभी भी उनके बारे में बुरा नहीं सोच सकती हैं।" दादा ठाकुर ने कहा____"सच कहें तो हमारे जीवन में अगर आप न होती तो हम संघर्षों से भरा ये सफ़र कभी तय नहीं कर पाते। आपने हमारे परिवार को जिस तरह से सम्हाला है उसके लिए हम हमेशा आपके ऋणी रहेंगे।"
"ऐसा मत कहिए।" सुगंधा देवी ने अधीरता से कहा____"ये सब तो हमारा फर्ज़ था, आख़िर ये हमारा भी तो परिवार ही था। ख़ैर ये सब छोड़िए और ये बताइए कि अब बहू के बारे में क्या सोच रहे हैं आप? अब तो उसने हमारे बेटे से विवाह करने की मंजूरी भी दे दी है तो अब आगे क्या करना है?"
"हां मजूरी तो दे दी है उसने।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन ये भी सच है कि उसकी इस मंजूरी में उसकी मज़बूरी भी शामिल है। असल में हमने बहुत ज़ल्दबाज़ी कर दी थी। हमें इस बारे में फ़ैसला करने से पहले उससे भी एक बार पूछ लेना चाहिए था। उसको इतने बड़े धर्म संकट में नहीं डालना चाहिए था हमें।"
"हां ये तो सही कहा आपने।" सुगंधा देवी ने सिर हिला कहा____"ज़ल्दबाज़ी तो सच में की है हमने। वैसे हमने इस बारे में उससे बात करने का सोचा था लेकिन तभी वीरेंद्र आ गए और वो रागिनी को ले गए। उसके कुछ समय बाद आप इस बारे में बात करने रागिनी के पिता जी के पास चंदनपुर पहुंच गए।"
"हमें वहां पर इस बात का ख़याल तो आया था लेकिन वहां पर इस बारे में बहू से बात करना हमें ठीक नहीं लगा था।" दादा ठाकुर ने कहा____"इस तरह की बातें हम अपने सामने उससे यहीं पर करते तो ज़्यादा बेहतर होता। ख़ैर अब जो हो गया उसका क्या कर सकते हैं लेकिन हमने तय किया है कि हम किसी दिन फिर से चंदनपुर जाएंगे और इस बार ख़ास तौर पर अपनी बहू से बात करेंगे। उससे कहेंगे कि हमने उससे बिना पूछे उसके बारे में ये जो फ़ैसला किया है उसके लिए वो हमें माफ़ कर दे। उससे ये भी कहेंगे कि उसको हमारे बारे में सोचने की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है। अगर वो वैभव से विवाह करना उचित नहीं समझती है तो वो बेझिझक इससे इंकार कर सकती है। हम उसका जीवन संवारना ज़रूर चाहते हैं लेकिन उसे किसी धर्म संकट में डाल कर और मज़बूर कर के नहीं।"
"बिल्कुल ठीक कहा आपने।" सुगंधा देवी ने कहा____"उसे ये नहीं लगना चाहिए कि हम ज़बरदस्ती उसके ऊपर ये रिश्ता थोप रहे हैं। ख़ैर तो कब जा रहे हैं आप? वैसे हमारी राय तो यही है कि आपको इसके लिए ज़्यादा समय नहीं लगाना चाहिए।"
"सही कहा।" दादा ठाकुर ने कहा____"वैसे तो हमने वीरेंद्र के द्वारा बहू को संदेश भिजवा दिया है लेकिन एक दो दिन में हम ख़ुद भी वहां जाएंगे।"
"अच्छा एक बात बताइए।" सुगंधा देवी ने सोचने वाले अंदाज़ से पूछा____"आपने महेंद्र सिंह जी को सफ़ेदपोश का सच क्यों बताया?"
"वो इस लिए क्योंकि अगर न बताते तो मित्र से सच छुपाने की ग्लानि में डूबे रहते।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ले कर कहा_____"वो भी सोचते कि एक तरफ हम उन्हें अपना सच्चा मित्र कहते हैं और दूसरी तरफ मित्र से सच छुपाते हैं।"
"तो इस वजह से आपने उन्हें सफ़ेदपोश का सारा सच बता दिया?" सुगंधा देवी ने कहा।
"एक और वजह है।" दादा ठाकुर ने कहा____"और वो वजह ये जानना भी था कि जिनकी बेटी से वो अपने बेटे का विवाह करना चाहते हैं उनके बारे में ये सब जानने के बाद वो क्या कहते हैं? हमारा मतलब है कि क्या इस सच के बाद भी वो अपने बेटे का विवाह कुसुम से करने का सोचेंगे?"
"तो फिर क्या सोचा उन्होंने?" सुगंधा देवी ने पूछा____"क्या इस बारे में उन्होंने कुछ कहा आपसे?"
"ये सच जानने के बाद भी वो अपने बेटे का विवाह कुसुम से करने को तैयार हैं।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन हमने यही कहा कि अब क्योंकि पहले जैसे हालात नहीं रहे इस लिए इस बारे में हम कुछ नहीं कह सकते। अगर वो सच में ये रिश्ता करना चाहते हैं तो वो यहां आ कर लड़की की मां से बात करें।"
"तो क्या लगता है आपको?" सुगंधा देवी ने पूछा____"क्या वो मेनका से रिश्ते की बात करने यहां आएंगे?"
"उन्होंने कहा है तो अवश्य आएंगे।" दादा ठाकुर ने कहा____"वैसे अगर कुसुम महेंद्र सिंह के घर की बहू बन जाएगी तो ये मेनका के लिए अच्छा ही होगा। अच्छे खासे संपन्न लोग हैं वो। एक ही बेटा है उनके तो ज़ाहिर है कुसुम उनके घर की रानी बन कर ही रहेगी। सबसे बड़ी बात ये कि ऐसा होने से वो भी कभी किसी को सफ़ेदपोश का काला सच नहीं बताएंगे। आख़िर रिश्ता होने के बाद बदनामी के डर से वो भी कभी इस सच को उजागर करने का नहीं सोचेंगे।"
"कहते तो आप उचित ही हैं।" सुगंधा देवी ने सोचने वाले भाव से कहा____"लेकिन क्या ज़रूरी है कि वो ऐसा ही करेंगे जैसा कि आप कह रहे हैं? ऐसा भी तो हो सकता है कि वो इस सच को एक ढाल के रूप में स्तेमाल करने का सोच लें। अगर उनके मन में किसी तरह की दुर्भावना आ गई तो उससे वो हमें ही नुकसान पहुंचाने का सोच सकते हैं।"
"होने को तो कुछ भी हो सकता है।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन हमें यकीन है कि वो ऐसी गिरी हुई हरकत करने का नहीं सोच सकते। बाकी जिसकी किस्मत में जो लिखा है वो तो हो के ही रहेगा।"
थोड़ी देर और इसी संबंध में बातें हुईं उसके बाद सुगंधा देवी उठ कर कमरे से बाहर चली गईं। इधर दादा ठाकुर पलंग पर अधलेटी अवस्था में बैठे ख़ामोशी से जाने क्या सोचने लगे थे।
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दादा ठाकुर को महेंद्र सिंह द्वारा जन्मदिन में बुलाने का ये प्रयोजन था कुसुम के रिश्ते की बात करना ये तो बहुत ही अच्छा है
दादा ठाकुर ने महेंद्र सिंह को सफेद नकाबपोश के बारे में बता कर गलत किया है यह कुसुम के लिए गलत हो सकता है
ठाकुर साहब ने सही कहा की शादी का फैसला मेनका का होना चाहिए क्योंकि उन्हें अपने भाई के लिए इतना किया लेकिन बदले में धोका ही मिला
सुगंधा देवी और ठाकुर साहब की मनोदशा एक जेसी ही है रिश्तों में एक बार खटास आ जाती हैं तो एक टीस जीवनभर रहती है वही इन दोनो के साथ हुआ है