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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 19 9.9%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 22 11.5%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 75 39.1%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 44 22.9%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 32 16.7%

  • Total voters
    192
  • Poll closed .

S M H R

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अध्याय - 159
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"आय हाय! समय नहीं है तेरे पास।" शालिनी ने आंखें फैलाई____"ज़्यादा बातें न कर मेरे सामने। मुझे पता है कि आज कल तू खाली बैठी जीजा जी के हसीन ख़यालों में ही खोई रहती है, बात करती है।"

उसकी बात सुन कर रागिनी झूठा गुस्सा दिखाते हुए उसे मारने के लिए दौड़ी तो शालिनी हंसते हुए भाग ली। उसके जाने के बाद रागिनी भी मंद मंद मुस्कुराते हुए घर के अंदर चली गई।



अब आगे....


अगले दो दिनों के भीतर ही हवेली में नात रिश्तेदार आ गए। मेरे ननिहाल वाले और चाची के मायके से भी आ गए। मेरे ननिहाल से नाना नानी और बड़े मामा मामी को छोड़ कर सभी आ गए जिनमें उनके बच्चे भी थे। उधर चाची के मायके से उनके बड़े भैया भाभी आए। उनके मझले भाई अवधराज नहीं आए। ऐसा शायद इस लिए कि जगताप चाचा को जो ज्ञान उन्होंने दिया था उसके चलते अब वो यहां किसी को अपना मुंह नहीं दिखाना चाहते थे। किंतु अपने बच्चों को ज़रूर भेज दिया था।

हवेली में एकदम भीड़ सी जमा हो गई थी। अंदर इंसान ही इंसान नज़र आने लगे थे। पिता जी के कहने पर मैंने सबके रहने की उचित व्यवस्था की जोकि इतनी बड़ी हवेली में कोई मुश्किल काम नहीं था। नीचे ऊपर के बहुत से कमरे खाली ही रहते थे। सबके आ जाने से एक अलग ही रौनक और चहल पहल नज़र आने लगी थी।

मेरे मझले मामा यानि अवधेश सिंह राणा और छोटे मामा यानि अमर सिंह राणा बैठक में पिता जी के पास बैठे हुए थे। मझले मामा का बेटा महेश सिंह राणा जोकि शादी शुदा था वो भी बैठक में ही था। इसके साथ ही चाची के बड़े भाई हेमराज सिंह भी बैठे हुए थे। उनकी पत्नी सुजाता अंदर मां लोगों के पास थीं। अमर मामा के लड़के लड़कियां भी अंदर ही थे।

छोटे मामा की दोनों बेटियां यानि सुमन और सुषमा जोकि उमर में कुसुम से क़रीब एक डेढ़ साल छोटी थीं वो अंदर कुसुम के साथ थीं और उनका छोटा किंतु इकलौता भाई विजय मां लोगों के पास बैठा हुआ था। मैं जब छोटा था तो अपने ननिहाल अक्सर जाया करता था और ज़्यादा समय तक वहीं रहता था लेकिन फिर जैसे जैसे बड़ा हुआ और मुझमें बदलाव आया तो मैंने वहां जाना कम कर दिया था।

मुझे भीड़ भाड़ वाला माहौल ज़्यादा पसंद नहीं था इस लिए मैं सबकी व्यवस्था करने के बाद चुपचाप अपने कमरे में पहुंच गया था। एकाएक ही हालात के बदलने से मेरे अंदर अजीब सा एहसास होने लगा था। बार बार यही ख़याल उभर आता कि अब बस कुछ ही दिनों में मेरा विवाह हो जाएगा और मैं भी शादी शुदा हो जाऊंगा। लोगों के एक ही बीवी होती है जबकि मेरी दो हो जाएंगी। एक तरफ रूपा और दूसरी तरफ रागिनी...हां अब तो भाभी को मुझे उनके नाम से पुकारना होगा। इस एहसास के साथ ही मेरे अंदर अजीब सी सिहरन दौड़ गई। पलक झपकते ही भाभी का खूबसूरत चेहरा आंखों के सामने उजागर हो गया।

उफ्फ! कितनी सुंदर हैं वो। जब भैया जीवित थे तब वो सुहागन थीं और सुहागन के रूप में उनकी सुंदरता देखते ही बनती थी। मैं यूं ही तो नहीं उनके सम्मोहन में फंस जाता था। मैंने अपने ख़यालों में फिर से उन्हें सुहागन के रूप में सजा हुआ देखा तो मेरे अंदर फिर से अजीब सी सिहरन दौड़ गई। बिजली की तरह ज़हन में ख़याल भी उभर आया कि सुंदरता की यही मूरत अब मेरी पत्नी बनने वाली है। विवाह के बाद मुझे उनके साथ पति की तरह ही पेश आना होगा। मैं सोचने लगा कि क्या मैं सहजता से ऐसा कर पाऊंगा? आख़िर वो अब तक मेरी भाभी थीं और उमर में भी मुझसे बड़ी थीं। आख़िर कैसे एक पति के रूप में मैं उनके साथ पेश आ पाऊंगा? रूपा के मामले में मुझे कोई फ़िक्र नहीं थी क्योंकि उसके मामले में मैं पहले से ही पूरी तरह सहज था। उसके साथ मैं पहले भी वो सब कुछ कर चुका था जो शादी के बाद पति पत्नी करते हैं लेकिन भाभी के बारे में तो मैंने कभी इस तरह की कोई कल्पना ही नहीं की थी। भाभी के रिश्ते में उनसे थोड़ा बहुत हंसी मज़ाक कर लेता था लेकिन उसमें भी मैं हमारे बीच की मर्यादा का सबसे ज़्यादा ख़याल रखता था।

मैं जैसे जैसे इस सबके बारे में सोचता जा रहा था वैसे वैसे मेरे अंदर बेचैनी और घबराहट सी पैदा होती का रही थी। मैं चाह कर भी खुद को सामान्य नहीं कर पा रहा था। ऐसा नहीं था कि मैं भाभी को अब अपनी पत्नी की नज़र से देखने और सोचने नहीं लगा था लेकिन जहां बात इसके आगे की आती थी वहां की बातें सोच कर मेरे जिस्म में सिहरन दौड़ने लगती थी और बड़ा अजीब सा लगने लगता था।

"क्या हाल है मेरे दूल्हे राजा?" अचानक कमरे में गूंज उठी किसी की आवाज़ से मैं उछल ही पड़ा। आंखें खोल कर देखा तो मेरे छोटे मामा अमर सिंह कमरे में दाख़िल हो कर मुझे ही देख रहे थे। चेहरे पर खुशी और होठों पर गहरी मुस्कान लिए जैसे वो मुझे चिढ़ाते से नज़र आए। छोटे मामा से मेरी खूब पटती थी।

"अरे! मामा ये आप हैं?" मैंने उठते हुए कहा____"अचानक से आपकी आवाज़ सुन कर मैं चौंक ही पड़ा था। आइए बैठिए।"

"वो तो मैं बैठूंगा ही।" मामा ने मुस्कुराते हुए कहा और फिर आ कर पलंग के किनारे पर बैठ गए। कुछ पलों तक मुझे ध्यान से देखते रहे फिर बोले____"अच्छा तो यहां अपने कमरे में अकेले पड़ा तू खुद को तैयार करने में जुटा हुआ है।"

"क...क्या मतलब है आपका?" मैं समझ तो गया लेकिन फिर भी अंजान बनते हुए पूछा।

"बेटा अच्छी तरह जानता हूं तुझे।" मामा ने घूरते हुए कहा____"मेरे सामने अंजान बनने की कोशिश मत कर। मुझे पता है कि तू आने वाले दिनों के लिए खुद को तैयार का रहा है। वैसे अच्छा ही है, तैयार करना भी चाहिए। आदमी जब एक बीवी के लिए खुद को तैयार करने की कोशिश करता है तो तेरे जीवन में तो दो दो बीवियां होंगी। ऐसे में तेरा खुद को तैयार करना उचित ही है। ख़ैर तो अब तक कितना तैयार कर लिया है तूने खुद को?"

"ऐसा कुछ नहीं है मामा।" मैंने अपनी झेंप को जबरन छुपाने की कोशिश करते हुए कहा____"क्या आपको सच में लगता है कि आपके भांजे को किसी बात के लिए तैयार करने की ज़रूरत है? आप तो जानते हैं कि औरतों के मामले में मैं बहुत आगे रहा हूं।"

"बिल्कुल जानता हूं भांजे और मानता भी हूं कि इस मामल में तू बहुत आगे रहा है।" मामा ने कहा____"लेकिन बेटा तुझे ये भी समझना चाहिए कि आम औरतों में और खुद की बीवी में धरती आसमान का फ़र्क होता है। आम औरतों के साथ तू कैसा भी बर्ताव कर के अपनी जान छुड़ा सकता है लेकिन अपनी बीवी से किसी कीमत पर जान नहीं छुड़ा सकता। इसी लिए कहता हूं कि इस मामले में तेरी बयानबाज़ी से कुछ नहीं हो सकता।"

"आप तो मुझे बेवजह डरा रहे हैं मामा।" मैंने अपने अंदर झुरझुरी सी महसूस की____"मैं भला क्यों अपनी बीवियों से जान छुड़ाने का सोचूंगा? बल्कि मैं तो खुद ही ये चाहूंगा कि वो मुझसे दूर न हों।"

"अच्छा ऐसा है क्या?" मामा ने आंखें फैला कर कहा____"फिर तो ये बड़ी अच्छी बात है। कम से कम इसी बहाने अब तू भी सही रास्ते पर आ जाएगा। सच कहूं तो मुझे बहुत खुशी हुई थी ये जान कर कि तेरा ब्याह होने वाला है लेकिन ये जान कर थोड़ी हैरानी भी हुई थी कि तेरा एक नहीं दो दो लड़कियों से ब्याह होने वाला है। तेरे नाना को भी बड़ी हैरानी हुई थी लेकिन फिर जब उन्होंने मामले की गंभीरता को समझा तो फिर वो यही कहने लगे कि ये अच्छा ही हो रहा है। इस तरह से कम से कम रागिनी बहू का जीवन भी फिर से संवर जाएगा। अन्यथा विधवा के रूप में बाकी का सारा जीवन गुज़ारना उसके लिए यकीनन हद से ज़्यादा कठिन होता।"

"ये सब तो ठीक है मामा।" मैंने थोड़ा बेचैन भाव से कहा____"लेकिन सच कहूं तो भाभी से विवाह होने की बात से मुझे बड़ा अजीब सा महसूस होता है। जिस दिन से मुझे इस बारे में पता चला है उसी दिन से जाने क्या क्या सोचते हुए खुद को समझाने की कोशिश कर रहा हूं कि आगे जो भी होगा उसका मैं सहजता से सामना कर लूंगा। मगर सच तो ये है कि अब तक मैं भाभी के लिए खुद को पूरी तरह से तैयार नहीं कर पाया हूं।"

"हां समझ सकता हूं।" मामा ने कहा____"लेकिन अब तो तुझे इसके लिए खुद को तैयार करना ही पड़ेगा। वैसे मैं तो यही कहूंगा कि तुझे इस बारे में ज़्यादा सोचना नहीं चाहिए। असल में कभी कभी ऐसा होता है कि हमें मौजूदा समय में किसी समस्या को सुलझाने का तरीका समझ में नहीं आता लेकिन जब वैसा समय आ जाता है तो सब कुछ बहुत ही सहजता से हो जाता है। इस लिए तू ये सब वक्त पर छोड़ दे। ये सोच कर कि जो होगा देखा जाएगा।"

"हम्म्म्म शायद आप सही कह रहे हैं।" मैंने सिर हिलाते हुए कहा____"और वैसे भी इसके अलावा मेरे पास कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं है। ख़ैर आप अपनी सुनाएं, मामी के साथ कैसी कट रही है जिंदगी?"

"क्या बताऊं भांजे?" मामा ने सहसा गहरी सांस ली____"बस यूं समझ ले कि किसी तरह कट ही रही है।"

"ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" मैं एकदम से चौंका____"सब ठीक तो है ना?"

"क्या ख़ाक ठीक है यार।" मामा ने जैसे खीझते हुए कहा____"साला बच्चे बड़े हो जाते हैं तो हम मर्दों को जाने कैसे कैसे समझौते करने पड़ते हैं। तेरी मामी को बहुत समझाता हूं लेकिन वो मूर्ख कुछ समझती ही नहीं है। मैंने बहुत सी ऐसी औरतों को देखा है जो ज़्यादा उमर हो जाने के बाद भी संभोग सुख का मज़ा लेती रहती हैं और एक तेरी मामी है कि साली अभी से खुद को बुड्ढी कहने लगी है।"

"फिर तो ये आपके लिए बड़ी भारी समस्या हो गई है।" मैंने चकित भाव से कहा____"ख़ैर अब आप क्या करेंगे?"

"करूंगा नहीं बल्कि करने लगा हूं भांजे।" मामा ने कहा____"तू ही बता कि ऐसे में मैं इसके अलावा करता ही क्या कि अपनी भूख मिटाने के लिए बाहर किसी औरत के पास जाऊं? तेरी मामी को भी कहा था कि अगर वो इस बारे में मेरा साथ नहीं देगी तो मुझे बाहर किसी दूसरी औरत के साथ ये सब करना पड़ेगा।"

"तो क्या ये सुनने के बाद भी मामी को समझ नहीं आया?" मैंने हैरानी से पूछा।

"पहले तो गुस्सा हो रही थी।" मामा ने कहा____"कह रही थी कि मेरे अंदर ये कैसी गर्मी चढ़ी है कि मैं इतने बडे बड़े बच्चों का बाप हो जाने के बाद भी ये सब करने पर तुला हुआ हूं? मैंने उसे समझाया कि ये तो उसके लिए अच्छी बात है कि मैं अब भी उसे संभोग का सुख देना चाहता हूं वरना ऐसी भी औरतें हैं जो अपने पति से संभोग सुख पाने के लिए तरसती हैं और फिर वो मज़बूरी में ग़ैर मर्दों से संबंध बना लेती हैं।"

"फिर क्या कहा मामी ने?" मैंने उत्सकुता से पूछा।

"दो तीन दिनों तक बात ही नहीं की उसने।" मामा ने बताया____"मैं भी गुस्सा हो गया था इस लिए मैंने भी उसे मनाने का नहीं सोचा। जब उसे ही कुछ समझ नहीं आ रहा था तो मैंने भी सोच लिया कि अब उससे इस सबकी उम्मीद रखना ही बेकार है। उसके बाद मैंने वही किया जो करने का मैंने मन बना लिया था। तुझे तो पता ही है कि हमारे खेतों में काम करने वाली ऐसी औरतों की कमी नहीं है। मैंने उन्हीं में से एक को इशारा किया और फिर उसके साथ मज़ा किया। तब से यही चल रहा है।"

"और मामी को भी ये सब पता है?" मैंने बेयकीनी से पूछा।

"हां, मैंने बता दिया था उसको।" मामा ने कहा____"जब वो अपने से ही मुझसे बोलने लगी तो मैंने एक दिन उसे सब कुछ बता दिया। ये भी कहा कि अगर वो अब भी मेरे बारे में सोचेगी तो मैं बाहर की औरतों के साथ ये सब करना बंद कर दूंगा।"

"तो फिर क्या कहा मामी ने?" मैंने बड़ी उत्सुकता से पूछा।

"अभी तो कुछ नहीं कहा।" मामा ने कहा____"लेकिन लगता है कि मान जाएगी। ऐसा मैं इस लिए कह रहा हूं क्योंकि दो दिन पहले जब इस बारे में मैंने उसे बताया था तब उसने यही कहा था कि मैं बाहर ये सब करना बंद कर दूं।"

"इसका मतलब ये दो दिन पहले की बात है।" मैंने कहा____"और मामी के ऐसा कहने का शायद मतलब भी यही है कि वो अब आपका कहना मानेंगी।"

"लगता तो यही है।" मामा ने कहा____"लेकिन दो दिन से अभी तक उसने अपनी तरफ से कोई पहल नहीं की है।"

"हो सकता है कि वो खुद पहल करने में शर्म महसूस करती हों।" मैंने जैसे संभावना ज़ाहिर की____"एक काम कीजिए, आज रात आप यहीं पर हवेली के किसी कमरे में एक साथ सोइए। मैं आप दोनों के लिए ऐसी व्यवस्था कर दूंगा। उसके बाद कमरे में आप और मामी जम के मज़ा कीजिएगा।"

"योजना तो बढ़िया है तेरी।" मामा ने खुशी ज़ाहिर करते हुए कहा____"लेकिन यहां पर अगर किसी को पता चल गया तो क्या सोचेंगे सब हम दोनों के बारे में?"

"किसी के सोचने की फ़िक्र क्यों करते हैं आप?" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"सबको पता है कि मामी आपकी अपनी ज़ायदाद हैं। उनके साथ ये सब करना किसी के लिए कोई बड़ी बात कैसे हो जाएगी?"

"हां तू सही कह रहा है।" मामा का चेहरा चमक उठा था____"तो फिर ठीक है भांजे। तू आज रात हमारे लिए बढ़िया सा इंतज़ाम कर दे। मैं भी आज तेरी मामी के साथ इतने समय की पूरी कसर निकालूंगा। साली बहुत मना करती थी ना तो अब बताऊंगा उसे।"

"अपने जज़्बातों पर काबू रखिए मामा।" मैंने हंसते हुए कहा____"जो भी करना बड़े एहतियात से और बड़े प्यार से करना। ये नहीं कि आपकी करतूतों से बाकी सबको भी पता चल जाए कि ठाकुर अमर सिंह अपनी बीवी की चीखें निकाल रहे हैं।"

"मर्द को मज़ा भी तो तभी आता है भांजे।" मामा ने मुस्कुराते हुए कहा____"जब औरत उसके द्वारा पेले जाने से हलक फाड़ कर चीखे। रहम की भीख मांगे।"

"चीखने तक तो ठीक है मामा।" मैंने कहा____"लेकिन रहम की भीख मांगने वाली स्थिति अच्छी नहीं होती। वो स्थिति पाशविक होती है जोकि मर्दों को शोभा नहीं देती।"

"अरे वाह!" मामा ने हैरानी से मेरी तरफ देखा____"ये तू कह रहा है? बड़ी हैरानी की बात है ये तो। मतलब कमाल ही हो गया। हद है, तू तो सच में देव मानुष बन गया है मेरे भांजे।"

"देव मानुष तो नहीं।" मैंने जैसे संशोधन किया____"लेकिन हां एक अच्छा इंसान ज़रूर बनना चाहता हूं। अपने उस अतीत को भूल जाना चाहता हूं जिसमें मैंने जाने कैसे कैसे कुकर्म किए थे।"

"चल अच्छी बात है।" मामा ने मेरा कंधा दबाते हुए कहा____"मैं तो पहले भी तुझसे कहा करता था कि ये सब छोड़ दे लेकिन तब शायद तू ऐसी मानसिकता में ही नहीं था कि तेरे समझ में कुछ आता। ख़ैर अच्छा हुआ कि अब तेरी सोच बदल गई है और तू अच्छा इंसान बनने का सोचने लगा है। उम्मीद करता हूं कि भविष्य में तू जीजा जी से भी बड़ा इंसान बन जाएगा।"

"नहीं मामा।" मैंने अधीरता से कहा____"मैं कभी भी पिता जी से बड़ा या उनके जैसा नहीं बन पाऊंगा। ऐसा इस लिए क्योंकि उनका नाम शुरू से ही हर मामले में साफ और बेदाग़ रहा है। उन्होंने शुरू से ही हर किसी के साथ अच्छा बर्ताव किया था और सबके दुख दूर करते आए हैं। मैंने तो अपने अब तक के जीवन में ऐसे कोई नेक काम किए ही नहीं हैं बल्कि जो भी किया है बुरा ही किया है। इस लिए उनके जैसा इस जन्म में तो बन ही नहीं सकता। किंतु हां ये कोशिश ज़रूर रहेगी कि अब से जो भी करूं वो अच्छा ही करूं।"

कुछ देर और मामा से बातें हुईं उसके बाद दोपहर के खाने का समय हो गया तो हम दोनों कमरे से बाहर निकल गए। मामा से बातें कर के मुझे बहुत अच्छा महसूस हो रहा था।

✮✮✮✮

दोपहर को थोड़ी देर आराम करने के बाद पिता जी और मझले मामा एक साथ किसी काम से बाहर चले गए जबकि बाकी लोग बैठक में बातें करने लगे। मैं भी बैठक में बैठा था और सबकी बातें सुन रहा था। अंदर सभी औरतें और लड़कियां काम में लगीं हुईं थी। ऐसा लग रहा था जैसे किसी को भी एक पल के लिए फुर्सत नहीं थी। कुछ औरतें गेंहू चावल और दाल साफ कर रहीं थी। हवेली के मुलाजिम हवेली को चमकाने में लगे हुए थे, कुछ हवेली के बाहर चारो तरफ की सफाई में लगे हुए थे।

अमर मामा दो बार मुझसे पूछ चुके थे कि आज रात मैंने उनका और मामी का हसीन मिलन कराने के लिए व्यवस्था की है या नहीं? मैंने मुस्कुराते हुए यही कहा कि वो फ़िक्र न करें। बच्चे बड़े हो रहे थे उनके फिर भी उनका अपना बचपना जैसे अभी तक नहीं गया था। मैंने उनसे कह तो दिया था कि वो फ़िक्र न करें लेकिन मैं खुद नहीं जानता था कि मैं सब कुछ करूंगा कैसे? कमरे का इंतज़ाम तो मैं बड़ी आसानी से कर सकता था लेकिन भीड़ भाड़ के माहौल में मामी को उनके पास पहुंचाना जैसे टेढ़ी खीर थी।

बहरहाल शाम तक दुनिया जहान की बातें चलती रहीं उसके बाद अंदर से एक नौकरानी सबके लिए चाय ले कर आ गई। हम सबने चाय पी। इस बीच सबने ये इच्छा जताई कि कुछ देर के लिए गांव घूम लिया जाए। मर्दों के पास फिलहाल के लिए जैसे कोई काम ही नहीं था। उधर पिता जी अभी तक नहीं आए थे।

मामा लोग गांव घूमने चले गए जबकि मैं हवेली के अंदर चला गया। मुझे समय रहते मामा का काम करना था लेकिन समझ नहीं आ रहा था कि कैसे करूं? मामी के पास जा कर उनसे खुल कर कुछ कह भी नहीं सकता था। यही सब सोचते हुए मैं अपने कमरे में लेटा हुआ था कि तभी मेरे कमरे का दरवाज़ा खुला और कुसुम के साथ मामा की लड़कियां आ गईं।

"आप यहां हैं और हम आपको बैठक में ढूंढने गए थे।" कुसुम ने आते ही कहा____"चलिए उठिए आपको बड़ी मां बुला रहीं हैं।"

"आप यहां अकेले कमरे में क्या कर रहे हैं भैया?" सुमन ने मेरे क़रीब आ कर कहा____"हम सबके साथ क्यों नहीं बैठते हैं?"

"वो इस लिए मेरी प्यारी बहना क्योंकि तेरे इस भैया को भीड़ भाड़ में रहना पसंद नहीं है।" मैंने बड़े स्नेह से उसकी तरफ देखते हुए कहा____"ख़ैर ये बता यहां तुम दोनों को अच्छा लग रहा है ना?"

"हां भैया।" सुषमा ने खुशी से कहा____"हमें यहां बहुत अच्छा लग रहा है। कुसुम दीदी से हमने बहुत सारी बातें की। दोनों बुआ से बातें की और हां छोटी बुआ के यहां से जो उनके भैया भाभी आए हैं उनसे भी बातें की।"

"ओह! तुम दोनों ने तो सबसे बातें कर ली और सबसे जान पहचान कर ली।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"और अपने इस भैया से बातें करने का अब ध्यान आया है तुम दोनों को, हां?"

"वो हम लोग सबके पास बैठे बातें कर रहे थे न इस लिए आपसे मिलने का समय ही नहीं मिला हमें।" सुमन ने मासूमियत से कहा____"पर अब तो हम अपने भैया के पास आ ही गए ना?"

"चलो अच्छा किया।" मैंने कहा____"अच्छा अब तुम लोग जाओ। मैं भी जा कर देखता हूं कि मां ने किस लिए बुलाया है मुझे?"

थोड़ी ही देर में हम सब नीचे आ गए। मैं मां से मिला और पूछा कि किस लिए मुझे बुलाया है उन्होंने तो मां ने कहा कि मेरी मामियां मुझे पूछ रहीं थी इस लिए बुलाया। ख़ैर मैं दोनों मामियों से मिला। बड़ी मामी ने तो कुशलता ही पूछी किंतु छोटी मामी थोड़ा मज़ाकिया अंदाज़ से मुझे छेड़ने लगीं। सबके सामने मैं शर्माने लगा तो सब हंसने लगीं। कुछ देर बाद मैंने छोटी मामी से कहा कि मुझे उनसे ज़रूरी बात करनी है इस लिए क्या वो रात में मेरे कमरे में आ सकती हैं? मामी मेरी इस बात से राज़ी हो गईं। मैं मन ही मन ये सोच कर खुश हो गया कि चलो काम बन गया।

बहरहाल समय गुज़रा और रात हो गई। पिता जी आ गए थे। हम सब उनके साथ खाना खाने बैठे। आज काफी समय बाद हवेली में इस तरह की रौनक देखने को मिल रही थी। सब खुश थे, इसी हंसी खुशी में खाना ख़त्म हुआ और फिर सब बैठक में आ गए। बैठक में थोड़ी देर इस बारे में चर्चा हुई कि कल क्या क्या करना है उसके बाद सब सोने चले गए। मैं पहले ही अपने कमरे में पहुंच गया था। थोड़ी ही देर में छोटे मामा आ गए।

"अरे! भांजे तूने कुछ किया है या नहीं?" उन्होंने आते ही अपने मतलब की बात पूछी____"देख अब तो सोने का समय भी हो गया है और तूने अब तक अपनी मामी को मेरे पास नहीं भेजा।"

"फ़िक्र मत कीजिए मामा।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने मामी को अपने कमरे में बुलाया है। वो आएंगी तो उन्हें किसी बहाने आपके पास भेज दूंगा। थोड़ा सबर कीजिए, आप तो ऐसे उतावले हो रहे हैं जैसे ये सब आप पहली बार करने वाले हैं।"

"अरे! पहली बार नहीं है मानता हूं।" मामा ने खिसियाते हुए कहा____"लेकिन साला लगता तो यही है कि तेरी मामी को पहली बार ही भोगने को मिलेगा। मुझे लगता है कि ऐसा इस लिए लग रहा है क्योंकि काफी समय हो गया उसके साथ मज़ा किए।"

"हां हां समझ गया मैं।" मैंने हल्के से हंसते हुए कहा____"अब आप जाइए। मामी खा पी कर ही आएंगी तब तक आपको इंतज़ार करना पड़ेगा।"

"अब तो इंतज़ार ही करना पड़ेगा भांजे।" मामा ने गहरी सांस ली____"बस तू बीच में धोखा मत करवा देना।"

मामा की इस बात पर मैं हंसा, जबकि वो बाहर निकल गए। मैंने ऊपर ही उनके लिए एक कमरे की व्यवस्था कर दी थी। अब बस इन्तज़ार था मामी के आने का। अगर वो मेरे कमरे में आएंगी तभी कुछ हो सकता था।



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Nice update
 
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Pagal king

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मामा मामी के चक्कर में मैं ना तो रूपा के बारे में सोच पा रहा था और ना ही रागिनी भाभी के बारे में। ज़हन में बस यही चल रहा था कि क्या मामी मेरे कमरे में आएंगी? उनका मेरे कमरे में आना इस लिए भी थोड़ा मुश्किल था क्योंकि औरतें जब सबके पास बैठ कर बातें करने में मशगूल हो जाती हैं तो फिर उन्हें बाकी किसी चीज़ का होश ही नहीं रहता है। दूसरी बात ये भी हो सकती थी कि रात के इस वक्त शायद वो सच में ही न आएं।

बहरहाल, मैं इंतज़ार ही कर सकता था। मुझे ये सोच कर भी हंसी आ रही थी कि मामा बेचारे मन में जाने कैसे कैसे ख़याली पुलाव बनाते हुए अपनी बीवी के आने की प्रतिक्षा कर रहे होंगे। अगर आज वो नहीं आईं तो यकीनन सुबह मुझे उनके गुस्से का शिकार हो जाना पड़ेगा।

क़रीब एक घंटे बाद मेरे कमरे में दस्तक हुई। रात के क़रीब ग्यारह बज रहे थे। आम दिनों की अपेक्षा ये समय ज़्यादा ही था किंतु शादी ब्याह वाले माहौल में थोड़ी देर सवेर हो ही जाती थी। खैर, दत्सक हुई तो मैं समझ गया कि ज़रूर मामी ही आई होंगी। मामी के आने के एहसास से अचानक ही मेरी धड़कनें तेज़ हो गईं।

इससे पहले कि उन्हें दुबारा दस्तक देनी पड़ती मैं फ़ौरन ही दरवाज़े के पास पहुंचा और दरवाज़ा खोल दिया। बाहर सचमुच मामी ही खड़ी थीं। सुर्ख साड़ी में इस वक्त वो ग़ज़ब ही ढा रहीं थी। तीन तीन बच्चों की मां होने के बाद भी रोहिणी मामी भरपूर जवान नज़र आती थीं।

"माफ़ करना वैभव आने में देर हो गई मुझे।" मुझ पर नज़र पड़ते ही उन्होंने अपनी मधुर आवाज़ में कहा____"असल में खाना पीना करने के बाद बर्तन धुलवाने में व्यस्त हो गई थी मैं। अभी जब काम से फारिग हुई तो एकदम से याद आया कि तुमने कोई ज़रूरी बात करने के लिए मुझे बुलाया था।"

"कोई बात नहीं मामी।" मैं दरवाज़े से एक तरफ हटते हुए बोला____"आप अंदर आ जाइए।"

मेरे कहने पर मामी कमरे में आ गईं। इधर मेरी धड़कनें ये सोच कर तेज़ हो गईं कि अब कैसे मामी को मामा तक पहुंचाऊं?

"अब बताओ वैभव।" मैं सोच ही रहा था कि तभी मेरे कानों में मामी की आवाज़ पड़ी____"मुझसे कौन सी ज़रूरी बात करनी थी तुम्हें?"

"वो आपको मुझे मामा के बारे में कुछ बताना था।" मैंने खुद को सम्हालते हुए बड़ी हिम्मत जुटा कर कहा____"आज मामा मुझसे मिले तो मैंने देखा कि वो बहुत परेशान थे। मेरे पूछने पर भी मुझे कुछ नहीं बताया। फिर मैंने सोचा कि इस बारे में आपसे पूछूंगा। मैं आपसे जानना चाहता हूं मामी कि मेरे मामा आख़िर किस बात से इतना परेशान हैं? आख़िर ऐसी कौन सी बात थी जिसे वो मुझको भी नहीं बता सके?"

मामी मेरी ये बातें सुन कर फ़ौरन कुछ ना बोल सकीं। उनके चेहरे पर सोचो के भाव उभर आए थे। इधर मेरी धड़कनें धाड़ धाड़ कर के बजे जा रहीं थी। मैं खुल कर इस बारे में उनसे कुछ कह नहीं सकता था इस लिए मैंने इस तरह से उनसे बात की ताकि वो इस बात से शर्मिंदगी न महसूस करें कि मुझे उनके बीच की इतनी बड़ी बात पता है। आख़िर हमारे बीच रिश्ता ही ऐसा था जिसके चलते मुझे मर्यादा का ख़याल रखना था।

"क्या हुआ मामी?" मामी जब सोचो में ही गुम रहीं तो मैंने चिंता ज़ाहिर करते हुए उन्हें सोचो से बाहर खींचा____"आप एकदम से क्या सोचने लगीं? मुझे बताइए मामी कि आख़िर बात क्या है? मेरे मामा आख़िर किस बात से इतना ज़्यादा परेशान हैं?"

"कोई बड़ी बात नहीं है वैभव।" मामी ने थोड़ी झिझक और थोड़ा गंभीरता से कहा____"तुम उनके लिए इतनी चिंता मत करो।"

"ऐसे कैसे चिंता न करूं मामी?" मैंने फिक्रमंदी से कहा____"वो मेरे मामा हैं। मैं भला ये कैसे सहन कर लूंगा कि मेरे मामा किसी बात से परेशान रहें? मैं जानना चाहता हूं कि आख़िर उन्हें हुआ क्या है? आपको तो पता ही होगा तो बताइए ना मुझे?"

"वो असल में बात ये है वैभव कि मुझे भी इस बारे में ठीक से पता नहीं है।" मामी ने नज़रें चुराते हुए कहा____"वो कई दिनों से परेशान हैं और मैंने उनसे पूछा भी था लेकिन उन्होंने ठीक से कुछ नहीं बताया।"

"ऐसा कैसे हो सकता है मामी?" मैंने हैरानी ज़ाहिर की____"आप उनकी पत्नी हैं, आपको तो उनसे पूछना ही चाहिए था। उनकी परेशानी के बारे में जान कर आपको उनकी परेशानी भी दूर करनी चाहिए थी।"

"हां मैं समझती हूं वैभव।" मामी ने कहा____"मैं भी चाहती हूं कि उनकी परेशानी दूर हो जाए।"

"अगर आप सच में ऐसा चाहती हैं तो आपको इस बारे में बिल्कुल भी देर नहीं करनी चाहिए।" मैंने अच्छा मौका जान कर कहा____"वो आपके पति हैं और आप उनकी पत्नी इस लिए आप दोनों को एक दूसरे से अपनी अपनी परेशानी बतानी चाहिए और फिर उसको दूर करने का भी प्रयास करना चाहिए।"

"हां ये तो तुम सही कह रहे हो।" मामी ने कहा____"तुम्हारे विवाह के बाद जब हम वापस घर जाएंगे तो मैं उनसे उनकी परेशानी के बारे में ज़ोर दे कर पूछूंगी।"

"मेरा विवाह होने में अभी काफी समय है मामी।" मैंने कहा____"क्या इतने समय तक मामा को परेशानी की हालत में रखना ठीक होगा? मेरा ख़याल है कि बिल्कुल भी ठीक नहीं होगा, इस लिए आपको जल्द से जल्द उनकी परेशानी दूर करने का क़दम उठाना चाहिए।"

"हां लेकिन यहां मैं उनसे कैसे बात कर सकूंगी वैभव?" मामी ने जैसे अपनी समस्या ज़ाहिर की____"तुम्हें तो पता ही है कि यहां इतने लोगों के रहते मैं इस बारे में उनसे बात नहीं कर पाऊंगी और ये उचित भी नहीं होगा।"

"बात जब समस्या वाली हो मामी तो इंसान को ना तो उचित अनुचित के बारे में सोचना चाहिए और ना ही लोगों की परवाह करनी चाहिए।" मैंने स्पष्ट भाव से कहा____"इंसान को सिर्फ ये सोचना चाहिए कि उसकी समस्या का जल्द से जल्द निदान हो जाए। वैसे इस समय भी कोई समस्या वाली बात नहीं है। इत्तेफ़ाक से मैंने मामा के सोने का इंतज़ाम यहीं ऊपर ही एक कमरे में कर दिया था। आप एक काम कीजिए, इसी समय उनके पास जाइए और उनसे उनकी परेशानी जान कर उनकी परेशानी को दूर करने का प्रयास कीजिए।"

"ये...ये तुम क्या कह रहे हो वैभव?" मामी ने एकदम से घबराहट जैसे अंदाज़ से मेरी तरफ देखा____"यहां सबके बीच इस तरह मैं उनसे कैसे मिल सकती हूं। लोगों को पता चला तो सब क्या सोचेंगे इस बारे में?"

"फिर से वही बात।" मैंने कहा____"आप फिर लोगों के बारे में सोचने लगीं? जबकि आपको किसी की परवाह न करते हुए सिर्फ अपनी समस्याओं को दूर करने के बारे में सोचना चाहिए। वैसे भी यहां किसी को कुछ पता नहीं चलने वाला। सब दिन भर के थके हुए हैं, बिस्तर में पहुंचते ही घोड़े बेंच कर सो गए होंगे। आप बेझिझक हो कर मामा के पास जाइए और मेरे बारे में तो आपको कुछ सोचने की ज़रूरत ही नहीं है क्योंकि मैं समझता हूं कि इस समय आपके लिए यही उचित है।"

मामी मुझे अपलक देखने लगीं। जैसे कुछ समझने की कोशिश कर रहीं हों। मैंने सोचा कि अगर उन्होंने इस बारे में ज़्यादा दिमाग़ लगाया तो इसी समय समझ जाएंगी कि मुझे सब कुछ पता है और इसी के चलते मैं उनको मामा के पास जाने के लिए ज़ोर दे रहा हूं। ज़ाहिर है इस बात को समझते ही उन्हें मेरे सामने शर्मिंदगी भी होगी जोकि इस वक्त मैं बिल्कुल भी नहीं चाहता था।

बहरहाल मामी ने थोड़ी सी ना नुकुर की लेकिन मैंने किसी तरह उन्हें समझा बुझा कर मामा के कमरे में जाने के लिए मना ही लिया और खुद उन्हें ले कर मामा के कमरे के पास पहुंच गया। मामी मेरी वजह से बहुत ज़्यादा असहज महसूस कर रहीं थी। चेहरे पर लाज की सुर्खी भी छा गई थी। मैंने दरवाज़े पर दस्तक दी और फिर चुपचाप पलट कर अपने कमरे में आ गया। इस बीच मैंने दरवाज़ा खुलने की हल्की आवाज़ सुन ली थी। ज़ाहिर है दरवाज़े के बाहर अपनी पत्नी को खड़ा देख मामा उन्हें अंदर बुला ही लेंगे। अब इतना तो वो कर ही सकते थे।

✮✮✮✮

अगली सुबह मामा नीचे बरामदे में कुर्सी पर बैठे चाय पी रहे थे। उनके चेहरे पर खुशी की चमक दिख रही थी। कुछ दूरी पर मां चाची मामी और बाकी लड़कियां बैठी काम कर रहीं थी। मामा चाय पीते हुए बार बार मामी को देख रहे थे। मैंने जब ये देखा तो मुस्कुरा उठा।

"क्या हाल है मामा।" मैं उनके पास पहुंचते ही उनसे मुस्कुराते हुए पूछा____"इस हवेली में कल की रात कैसी गुज़री आपकी?"

मेरी बात सुनते ही मामा पहले तो सकपकाए फिर एकदम से मुस्कुराते हुए मेरी तरफ देखा और धीरे से कहा____"एकदम ज़बरदस्त भांजे।"

उधर मेरी आवाज़ रोहिणी मामी के कानों में भी पड़ चुकी थी जिसके चलते उन्होंने एक झटके से गर्दन घुमा कर मेरी तरफ देखा। इत्तेफ़ाक से मेरी नज़र भी उनकी तरफ घूम गई। मेरी और मामी की नज़र मिली। घूंघट तो किया हुआ था उन्होंने लेकिन घूंघट का पल्लू इस वक्त सिर्फ उनके सिर को ढंके हुए था। मुझसे नज़र मिलते ही उनके चेहरे पर लाज और शर्म की लाली छा गई और उन्होंने शर्मा कर झट से अपना चेहरा वापस घुमा लिया। मेरे लिए ये समझ लेना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं था कि उनको पता चल गया है कि ये सारा किया धरा मेरा ही था, बल्कि ये कहना चाहिए कि ये सारी योजना ही मामा भांजे की थी।

"फिर तो अच्छी बात है मामा।" मैंने अपनी आवाज़ को सामान्य से थोड़ा ऊंचा करते हुए कहा ताकि मामी भी सुन सकें____"उम्मीद करता हूं अब से हर रोज़ इसी तरह आपकी रात ज़बरदस्त गुज़रेगी।"

"तू मेरा सबसे अच्छा भांजा है वैभव।" मामा कुछ ज़्यादा ही खुश थे इस लिए अपनी खुशी को ज़ाहिर करते हुए बोले____"और मुझे हमेशा तुझ पर नाज़ रहेगा।"

"अरे! ऐसा क्यों कहते हैं मामा?" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने भला ऐसा क्या कर दिया है जिसके चलते आपको हमेशा मुझ पर नाज़ रहेगा?"

"अरे! तेरी ही वजह से तो सबको खुशियां मिली हैं।" मामा ने अपनी बात एक बहाने के रूप में कही____"वरना सबके सब खुशियों के लिए तरस ही रहे थे।"

मैंने देखा, मामी ने गर्दन घुमा कर फिर से हमारी तरफ देखा। एक बार फिर से इत्तेफ़ाकन मेरी नज़र उनसे टकरा गई और उन्होंने एकदम से शर्मा कर अपना चेहरा वापस घुमा लिया। मैं समझ गया कि इस वक्त मामी अंदर ही अंदर बुरी तरह शर्मा रही हैं और शायद वो ये सोच कर भी चकित होंगी कि हम दोनों मामा भांजे कैसे इस तरह की बातें बहाने बहाने से कर रहे हैं।

"वैसे तो इसमें मेरा कोई विशेष योगदान नहीं है मामा।" मैंने उसी मुस्कान के साथ कहा____"पर यदि आप इसके लिए मुझे ही श्रेय दे रहे हैं तो मैं आपको बता दूं कि बदले में मुझे भी आपको कुछ देना होगा। सिर्फ बातें कह देने से काम नहीं चलेगा।"

"अरे! तू बता ना भांजे कि बदले में तुझे क्या चाहिए?" मामा ने एकदम से सीना चौड़ा करते हुए कहा____"तेरा ये मामा तुझे वचन देता है कि तू जो मांगेगा मैं तुझे दूंगा।"

"अच्छा क्या सच में?" मैंने ग़ौर से उनकी तरफ देखा।

"अरे! क्या तुझे अपने मामा पर भरोसा नहीं है भांजे?" मामा ने इस तरह की शक्ल बना कर कहा जैसे मैंने उनकी तौहीन कर दी हो।

"नहीं ऐसी तो बात नहीं है मामा।" मैंने एक नज़र मामी पर डालने के बाद कहा____"मैं तो बस ये कहना चाहता था कि वचन देने से पहले आपको अच्छी तरह सोच लेना चाहिए था कि मैं जो मांगूंगा आप वो दे भी सकेंगे या नहीं?"

"देख भांजे।" मामा ने जैसे निर्णायक भाव से कहा____"अब तो मैं तुझे वचन दे चुका हूं इस लिए अब कुछ सोचने विचारने का सवाल ही पैदा नहीं होता। तू बस बेझिझक हो के मांग जो तुझे चाहिए।"

मैंने देखा मामी चकित भाव से हमारी तरफ ही देखने लगीं थी। मैं उन्हें देख मुस्कुराया और फिर मामा से कहा____"ठीक है मामा, लेकिन मैं अपने लिए आपसे कुछ नहीं मागूंगा। मैं तो सिर्फ इतना ही चाहता हूं कि जैसे कल की रात आपके लिए अच्छी गुज़री है वैसी ही हर रात आपकी गुज़रे।"

"अरे! तू तो सच में मेरा कमाल का भांजा है वैभव।" मामा पहले तो हैरान हुए फिर खुशी से मुस्कुराते हुए बोले____"अपने लिए कुछ नहीं मांगा बल्कि मेरी खुशी की चाहत रखी।"

"क्यों न रखूं मामा।" मैंने एक बार फिर से मामी की तरफ एक नज़र डाली, फिर कहा____"आप मेरे सबसे अच्छे वाले मामा हैं और मुझे पता है कि खुशियों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत आपको है। रही मेरी बात तो, आप तो अच्छी तरह जानते हैं कि मुझे मौजूदा समय में किसी से कुछ मांगने की ज़रूरत ही नहीं है।"

"तुम दोनों मामा भांजे किस बारे में बातें कर रहे हो?" अचानक मां ने गर्दन घुमा कर हमारी तरफ देखते हुए पूछा तो मैं और मामा एकदम से हड़बड़ा गए। उधर मामी के चेहरे का भी रंग उड़ता नज़र आया। मां की बात सुन कर मामा ने जल्दी से खुद को सम्हाला और संतुलित भाव से कहा____"अरे! ये हमारी आपस की बातें हैं दीदी, आप नहीं समझेंगी।"

"अच्छा।" मां के माथे पर शिकन उभरी___"ऐसी भला कौन सी बातें कर रहे हो तुम दोनों जिन्हें मैं समझ ही नहीं सकती, हां?"

"भांजे अब क्या करें यार?" मामा एकदम से चिंतित हो कर मेरी तरफ देख बोले____"दीदी को क्या जवाब दूं? तू ही जल्दी से कुछ सोच और बता उन्हें।"

"क्या हुआ कुछ बोल क्यों नहीं रहा तू?" मां ने मामा की तरफ ध्यान से देखते हुए पूछा और फिर मेरी तरफ देखने लगीं।

"क्या मां आप भी अपना काम छोड़ कर हम मामा भांजे की बातों पर ध्यान देने लगीं।" मैंने झूठी नाराज़गी दिखाते हुए कहा____"हम तो बस ऐसे ही बातें कर रहे हैं, है ना मामा?"

"ह...हां हां और नहीं तो क्या?" मामा एकदम से हकलाते हुए बोल पड़े____"हम तो ऐसे ही समय बिताने के लिए बातें कर रहे हैं दीदी। आप मन लगा कर अपना काम कीजिए ना।"

मैंने देखा मामी हमारी तरफ देखते हुए मुस्कुराए जा रहीं थी। इधर मामा की बात सुन कर मां ने हम दोनों को बारी बारी से घूर कर देखा और फिर पलट कर सबके साथ काम में लग गईं। कहने की ज़रूरत नहीं कि हम दोनों मामा भांजे ने राहत की लंबी सांस ली।

"तूने फंसवा दिया था हम दोनों को।" फिर मामा ने धीरे से मुझसे कहा____"क्या ज़रूरत थी ऊंची आवाज़ में बातें करने की। अच्छा हुआ कि दीदी को समझ नहीं आया वरना हम दोनों की ख़ैर नहीं थी।"

"सही कह रहे हैं आप।" मैंने कहा____"बाल बाल बचे। मैं तो बस मामी को सुनाने के चक्कर में थोड़ा ऊंची आवाज़ में बोल रहा था। मुझे नहीं पता था कि मां भी हमारी बातें सुनने लगेंगी। वैसे क्या लगता है आपको, उन्हें हमारी बातें समझ आ गई होंगी?"

"क्या पता।" मामा ने कंधे उचकाए____"लेकिन अब इतना पता है कि हमें अब यहां से खिसक लेना चाहिए। कहीं ऐसा न हो तेरी मामी नाराज़ हो जाए और फिर वो मुझे अपने पास आने ही न दे। अगर एसा हुआ तो समझ ही सकता है कि तेरी दुआएं और चाहतें मिट्टी में ही मिल जाएंगी।"

मैंने मुस्कुराते हुए हां में सिर हिलाया। उसके बाद हम दोनों ही अपना अपना चाय का खाली प्याला वहीं छोड़ कर बाहर की तरफ खिसक लिए। मामी मुस्कुराते हुए हमें जाता देख रहीं थी।

बाहर बैठक में बाकी सब बैठे हुए थे और आज के कार्यक्रम की रणनीति बना रहे थे। मामा भी उनके बीच जा कर बैठ गए जबकि मैं हवेली से बाहर निकल गया। कई दिनों से मैं हवेली में ही था और इस वजह से मुझे घुटन सी होने लगी थी। वैसे तो मां चाची और मामी लोगों ने भी मुझसे कहा था कि अब से मैं हवेली में ही रहूं लेकिन मेरा मन अब थोड़ा ऊब चुका था। मैं बाहर की खुली हवा लेना चाहता था इस लिए मोटर साईकिल में बैठ कर चल दिया।

✮✮✮✮

मेरी मोटर साईकिल सीधा उस जगह पर पहुंच कर रुकी जहां पर अनुराधा का विदाई स्थल था। आज वातारण में थोड़ा कोहरे जैसी धुंध छाई हुई थी जिसकी वजह से धूप के ताप का बिल्कुल भी एहसास नहीं हो रहा था। मैंने अपने बदन पर ऊन का स्वेटर पहन रखा था।

अनुराधा के विदाई स्थल के पास पहुंच कर मैं घुटनों के बल कच्ची ज़मीन पर बैठ गया। इस जगह आने से एक अलग ही अनुभूति होती थी। कुछ समय के लिए जैसे मैं सब कुछ भूल जाता था। बंद पलकों में अनुराधा के साथ बिताए हुए लम्हों की तस्वीरें देखते हुए मैं बस उन्हीं में खो जाता था। उसके बाद सामने देखते हुए उससे काफी देर तक अपने दिल की बातें करता रहता। मैं उसको सब कुछ बताता था कि आज मेरे साथ क्या क्या हुआ और आगे क्या होने वाला है। फिर एकाएक मेरा मन उससे ये कहते हुए भारी हो जाता कि काश! तुम जीवित अवस्था में मेरे पास होती तो मुझे अलग ही खुशी होती। ऊपर बैठे विधाता से उसे वापस करने की मिन्नतें करता और अनुराधा से ये कहते हुए माफियां मांगता कि मेरे कुकर्मों की वजह से आज वो इस दुनियां में नहीं है।

कुछ समय बाद मैं उठा और वहीं से सरोज काकी के घर चल पड़ा। आज कई दिनों बाद मैं उसके घर आया था। मुझे आया देख वो बड़ा खुश हुई। मैंने पहले ही उसको बता दिया था कि भाभी के साथ मेरा विवाह होने वाला है और फिर रूपा के साथ भी।

"कल मेरी बेटी रूपा भी यहां अपनी एक बहन के साथ आई थी।" सरोज काकी ने कहा____"मुझसे कह रही थी कि अब वो विवाह होने तक मेरे पास नहीं आ पाएगी। इस लिए मैं अनूप के साथ ही उसके घर पर रहूं।"

"हां तो इसमें ग़लत क्या है काकी?" मैंने अधीरता से कहा____"तुम्हें उसके विवाह तक उसके घर पर ही रहना चाहिए।"

"हां मैं समझती हूं।" सरोज काकी ने कहा____"लेकिन थोड़ा संकोच होता है, ये सोच कर कि मैं एक मामूली से किसान की औरत हूं और वो बड़े लोग हैं।"

"छोटे बड़े जैसी कोई बात नहीं है काकी।" मैंने कहा____"अगर होती तो अब तक जो कुछ हुआ है वो न हुआ होता। क्या तुमने कभी महसूस किया है कि मैंने या मेरे घर वालों ने तुम्हें छोटा होने का एहसास कराया है अथवा रूपा और उसके घर वालों ने ऐसा कभी किया है?"

"मैं मानती हूं कि ऐसा तुम में से किसी ने नहीं किया वैभव।" सरोज काकी ने कहा____"और सच कहूं तो इसके लिए मैं खुद को बहुत सौभाग्यशाली समझती हूं लेकिन कहीं न कहीं मुझे अपनी स्थिति का एहसास तो होता ही है कि मैं एक छोटी हैसियत वाली हूं और मुझे अपनी हद में रहना चाहिए।"

"ऐसा कह कर तुम हम सबकी भावनाओं को ठेस पहुंचा रही हो काकी।" मैंने संजीदा हो कर कहा____"हम में से किसी ने भी कभी तुम्हारे बारे में ऐसा कुछ नहीं सोचा है। जहां प्रेम होता है वहां हैसियत वाली बात ही नहीं होती। अनुराधा से मिलने से पहले मैं हैसियत के बारे में सोच भी सकता था लेकिन उससे मिलने के बाद और उससे प्रेम होने के बाद मेरे दिलो दिमाग़ से हैसियत संबंधित बातों का वजूद ही मिट चुका है। अगर ऐसा न होता तो अनुराधा की मौत के बाद मैं उसे अपनी दुल्हन बना कर विदा न करता। आज भी मैं उसको अपनी पहली पत्नी ही मानता हूं और उस नाते तुम मेरी सास हो, अनूप मेरा साला है। क्या अब भी तुम्हें लगता है कि इसमें हैसियत की बात है? क्या अब भी तुम्हें लगता है कि तुम हम में से किसी से छोटी हो?"

"मुझे माफ़ कर दो वैभव।" सरोज काकी की आंखें भर आईं____"मैं यही समझ बैठी थी कि मेरी बेटी अनू के जाने के बाद तुमने ये रिश्ता मिटा दिया होगा।"

"नहीं, मैं ऐसा कभी नहीं कर सकता काकी।" मैंने गंभीरता से कहा____"और ना ही कभी करूंगा। मेरा प्रेम अनुराधा के गुज़र जाने से मिट जाने वाला नहीं है। मैंने तो उसके गुज़र जाने पर ही उसको अपनी पत्नी बनाया था तो अब ये रिश्ता मरते दम तक क़ायम रहेगा। तुम ही इस रिश्ते को ना मानो तो अलग बात है।"

"नहीं नहीं।" सरोज काकी जैसे तड़प उठी____"ऐसा मत कहो। ये सच है कि अभी तक मैं इस रिश्ते को महत्व नहीं दे रही थी लेकिन तुम्हारी ये बातें सुन कर मुझे एहसास हो गया है कि मैं ग़लत थी। मेरा यकीन करो बेटा, अब से मैं भी तुमको अपना दामाद ही मानूंगी और जीवन भर मानूंगी।"

"अगर तुम सच में ऐसा मानती हो।" मैंने कहा____"तो फिर अपने दामाद की बातें भी मानों काकी। रूपा ने तुम्हें अपनी मां कहा है और तुमने भी उसको अनुराधा की तरह अपनी बेटी माना है तो फिर इस रिश्ते को पूरी ईमानदारी से और पूरी निष्ठा से निभाओ। अगर उसके घर वाले चाहते हैं कि विवाह तक तुम उनके साथ ही रहो तो तुम्हें खुशी खुशी वहीं रहना चाहिए।"

"मैं अब रहूंगी बेटा।" सरोज काकी ने दृढ़ता से कहा____"अपनी बेटी रूपा को उसी तरह तुमसे विवाह कर के विदा करूंगी जैसे मैं अनुराधा को करती।"

कुछ देर और सरोज काकी से बातें हुईं उसके बाद मैं वहां से चल पड़ा। थोड़े ही समय में मैं भुवन से मिलने अपने खेतों पर पहुंच गया। भुवन खेतों पर ही था। मैं उससे मिला और उसे बरात में चलने का निमंत्रण भी दिया। भुवन इस बात से बड़ा खुश हुआ। उसके बाद मैं हवेली निकल गया।




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अत्यंत ुबसूत अपडेट भाई🫠🫠🫠
 
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Dark Cobra

CRIMSON
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64
अध्याय - 160
━━━━━━༻♥༺━━━━━━



मामा मामी के चक्कर में मैं ना तो रूपा के बारे में सोच पा रहा था और ना ही रागिनी भाभी के बारे में। ज़हन में बस यही चल रहा था कि क्या मामी मेरे कमरे में आएंगी? उनका मेरे कमरे में आना इस लिए भी थोड़ा मुश्किल था क्योंकि औरतें जब सबके पास बैठ कर बातें करने में मशगूल हो जाती हैं तो फिर उन्हें बाकी किसी चीज़ का होश ही नहीं रहता है। दूसरी बात ये भी हो सकती थी कि रात के इस वक्त शायद वो सच में ही न आएं।

बहरहाल, मैं इंतज़ार ही कर सकता था। मुझे ये सोच कर भी हंसी आ रही थी कि मामा बेचारे मन में जाने कैसे कैसे ख़याली पुलाव बनाते हुए अपनी बीवी के आने की प्रतिक्षा कर रहे होंगे। अगर आज वो नहीं आईं तो यकीनन सुबह मुझे उनके गुस्से का शिकार हो जाना पड़ेगा।

क़रीब एक घंटे बाद मेरे कमरे में दस्तक हुई। रात के क़रीब ग्यारह बज रहे थे। आम दिनों की अपेक्षा ये समय ज़्यादा ही था किंतु शादी ब्याह वाले माहौल में थोड़ी देर सवेर हो ही जाती थी। खैर, दत्सक हुई तो मैं समझ गया कि ज़रूर मामी ही आई होंगी। मामी के आने के एहसास से अचानक ही मेरी धड़कनें तेज़ हो गईं।

इससे पहले कि उन्हें दुबारा दस्तक देनी पड़ती मैं फ़ौरन ही दरवाज़े के पास पहुंचा और दरवाज़ा खोल दिया। बाहर सचमुच मामी ही खड़ी थीं। सुर्ख साड़ी में इस वक्त वो ग़ज़ब ही ढा रहीं थी। तीन तीन बच्चों की मां होने के बाद भी रोहिणी मामी भरपूर जवान नज़र आती थीं।

"माफ़ करना वैभव आने में देर हो गई मुझे।" मुझ पर नज़र पड़ते ही उन्होंने अपनी मधुर आवाज़ में कहा____"असल में खाना पीना करने के बाद बर्तन धुलवाने में व्यस्त हो गई थी मैं। अभी जब काम से फारिग हुई तो एकदम से याद आया कि तुमने कोई ज़रूरी बात करने के लिए मुझे बुलाया था।"

"कोई बात नहीं मामी।" मैं दरवाज़े से एक तरफ हटते हुए बोला____"आप अंदर आ जाइए।"

मेरे कहने पर मामी कमरे में आ गईं। इधर मेरी धड़कनें ये सोच कर तेज़ हो गईं कि अब कैसे मामी को मामा तक पहुंचाऊं?

"अब बताओ वैभव।" मैं सोच ही रहा था कि तभी मेरे कानों में मामी की आवाज़ पड़ी____"मुझसे कौन सी ज़रूरी बात करनी थी तुम्हें?"

"वो आपको मुझे मामा के बारे में कुछ बताना था।" मैंने खुद को सम्हालते हुए बड़ी हिम्मत जुटा कर कहा____"आज मामा मुझसे मिले तो मैंने देखा कि वो बहुत परेशान थे। मेरे पूछने पर भी मुझे कुछ नहीं बताया। फिर मैंने सोचा कि इस बारे में आपसे पूछूंगा। मैं आपसे जानना चाहता हूं मामी कि मेरे मामा आख़िर किस बात से इतना परेशान हैं? आख़िर ऐसी कौन सी बात थी जिसे वो मुझको भी नहीं बता सके?"

मामी मेरी ये बातें सुन कर फ़ौरन कुछ ना बोल सकीं। उनके चेहरे पर सोचो के भाव उभर आए थे। इधर मेरी धड़कनें धाड़ धाड़ कर के बजे जा रहीं थी। मैं खुल कर इस बारे में उनसे कुछ कह नहीं सकता था इस लिए मैंने इस तरह से उनसे बात की ताकि वो इस बात से शर्मिंदगी न महसूस करें कि मुझे उनके बीच की इतनी बड़ी बात पता है। आख़िर हमारे बीच रिश्ता ही ऐसा था जिसके चलते मुझे मर्यादा का ख़याल रखना था।

"क्या हुआ मामी?" मामी जब सोचो में ही गुम रहीं तो मैंने चिंता ज़ाहिर करते हुए उन्हें सोचो से बाहर खींचा____"आप एकदम से क्या सोचने लगीं? मुझे बताइए मामी कि आख़िर बात क्या है? मेरे मामा आख़िर किस बात से इतना ज़्यादा परेशान हैं?"

"कोई बड़ी बात नहीं है वैभव।" मामी ने थोड़ी झिझक और थोड़ा गंभीरता से कहा____"तुम उनके लिए इतनी चिंता मत करो।"

"ऐसे कैसे चिंता न करूं मामी?" मैंने फिक्रमंदी से कहा____"वो मेरे मामा हैं। मैं भला ये कैसे सहन कर लूंगा कि मेरे मामा किसी बात से परेशान रहें? मैं जानना चाहता हूं कि आख़िर उन्हें हुआ क्या है? आपको तो पता ही होगा तो बताइए ना मुझे?"

"वो असल में बात ये है वैभव कि मुझे भी इस बारे में ठीक से पता नहीं है।" मामी ने नज़रें चुराते हुए कहा____"वो कई दिनों से परेशान हैं और मैंने उनसे पूछा भी था लेकिन उन्होंने ठीक से कुछ नहीं बताया।"

"ऐसा कैसे हो सकता है मामी?" मैंने हैरानी ज़ाहिर की____"आप उनकी पत्नी हैं, आपको तो उनसे पूछना ही चाहिए था। उनकी परेशानी के बारे में जान कर आपको उनकी परेशानी भी दूर करनी चाहिए थी।"

"हां मैं समझती हूं वैभव।" मामी ने कहा____"मैं भी चाहती हूं कि उनकी परेशानी दूर हो जाए।"

"अगर आप सच में ऐसा चाहती हैं तो आपको इस बारे में बिल्कुल भी देर नहीं करनी चाहिए।" मैंने अच्छा मौका जान कर कहा____"वो आपके पति हैं और आप उनकी पत्नी इस लिए आप दोनों को एक दूसरे से अपनी अपनी परेशानी बतानी चाहिए और फिर उसको दूर करने का भी प्रयास करना चाहिए।"

"हां ये तो तुम सही कह रहे हो।" मामी ने कहा____"तुम्हारे विवाह के बाद जब हम वापस घर जाएंगे तो मैं उनसे उनकी परेशानी के बारे में ज़ोर दे कर पूछूंगी।"

"मेरा विवाह होने में अभी काफी समय है मामी।" मैंने कहा____"क्या इतने समय तक मामा को परेशानी की हालत में रखना ठीक होगा? मेरा ख़याल है कि बिल्कुल भी ठीक नहीं होगा, इस लिए आपको जल्द से जल्द उनकी परेशानी दूर करने का क़दम उठाना चाहिए।"

"हां लेकिन यहां मैं उनसे कैसे बात कर सकूंगी वैभव?" मामी ने जैसे अपनी समस्या ज़ाहिर की____"तुम्हें तो पता ही है कि यहां इतने लोगों के रहते मैं इस बारे में उनसे बात नहीं कर पाऊंगी और ये उचित भी नहीं होगा।"

"बात जब समस्या वाली हो मामी तो इंसान को ना तो उचित अनुचित के बारे में सोचना चाहिए और ना ही लोगों की परवाह करनी चाहिए।" मैंने स्पष्ट भाव से कहा____"इंसान को सिर्फ ये सोचना चाहिए कि उसकी समस्या का जल्द से जल्द निदान हो जाए। वैसे इस समय भी कोई समस्या वाली बात नहीं है। इत्तेफ़ाक से मैंने मामा के सोने का इंतज़ाम यहीं ऊपर ही एक कमरे में कर दिया था। आप एक काम कीजिए, इसी समय उनके पास जाइए और उनसे उनकी परेशानी जान कर उनकी परेशानी को दूर करने का प्रयास कीजिए।"

"ये...ये तुम क्या कह रहे हो वैभव?" मामी ने एकदम से घबराहट जैसे अंदाज़ से मेरी तरफ देखा____"यहां सबके बीच इस तरह मैं उनसे कैसे मिल सकती हूं। लोगों को पता चला तो सब क्या सोचेंगे इस बारे में?"

"फिर से वही बात।" मैंने कहा____"आप फिर लोगों के बारे में सोचने लगीं? जबकि आपको किसी की परवाह न करते हुए सिर्फ अपनी समस्याओं को दूर करने के बारे में सोचना चाहिए। वैसे भी यहां किसी को कुछ पता नहीं चलने वाला। सब दिन भर के थके हुए हैं, बिस्तर में पहुंचते ही घोड़े बेंच कर सो गए होंगे। आप बेझिझक हो कर मामा के पास जाइए और मेरे बारे में तो आपको कुछ सोचने की ज़रूरत ही नहीं है क्योंकि मैं समझता हूं कि इस समय आपके लिए यही उचित है।"

मामी मुझे अपलक देखने लगीं। जैसे कुछ समझने की कोशिश कर रहीं हों। मैंने सोचा कि अगर उन्होंने इस बारे में ज़्यादा दिमाग़ लगाया तो इसी समय समझ जाएंगी कि मुझे सब कुछ पता है और इसी के चलते मैं उनको मामा के पास जाने के लिए ज़ोर दे रहा हूं। ज़ाहिर है इस बात को समझते ही उन्हें मेरे सामने शर्मिंदगी भी होगी जोकि इस वक्त मैं बिल्कुल भी नहीं चाहता था।

बहरहाल मामी ने थोड़ी सी ना नुकुर की लेकिन मैंने किसी तरह उन्हें समझा बुझा कर मामा के कमरे में जाने के लिए मना ही लिया और खुद उन्हें ले कर मामा के कमरे के पास पहुंच गया। मामी मेरी वजह से बहुत ज़्यादा असहज महसूस कर रहीं थी। चेहरे पर लाज की सुर्खी भी छा गई थी। मैंने दरवाज़े पर दस्तक दी और फिर चुपचाप पलट कर अपने कमरे में आ गया। इस बीच मैंने दरवाज़ा खुलने की हल्की आवाज़ सुन ली थी। ज़ाहिर है दरवाज़े के बाहर अपनी पत्नी को खड़ा देख मामा उन्हें अंदर बुला ही लेंगे। अब इतना तो वो कर ही सकते थे।

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अगली सुबह मामा नीचे बरामदे में कुर्सी पर बैठे चाय पी रहे थे। उनके चेहरे पर खुशी की चमक दिख रही थी। कुछ दूरी पर मां चाची मामी और बाकी लड़कियां बैठी काम कर रहीं थी। मामा चाय पीते हुए बार बार मामी को देख रहे थे। मैंने जब ये देखा तो मुस्कुरा उठा।

"क्या हाल है मामा।" मैं उनके पास पहुंचते ही उनसे मुस्कुराते हुए पूछा____"इस हवेली में कल की रात कैसी गुज़री आपकी?"

मेरी बात सुनते ही मामा पहले तो सकपकाए फिर एकदम से मुस्कुराते हुए मेरी तरफ देखा और धीरे से कहा____"एकदम ज़बरदस्त भांजे।"

उधर मेरी आवाज़ रोहिणी मामी के कानों में भी पड़ चुकी थी जिसके चलते उन्होंने एक झटके से गर्दन घुमा कर मेरी तरफ देखा। इत्तेफ़ाक से मेरी नज़र भी उनकी तरफ घूम गई। मेरी और मामी की नज़र मिली। घूंघट तो किया हुआ था उन्होंने लेकिन घूंघट का पल्लू इस वक्त सिर्फ उनके सिर को ढंके हुए था। मुझसे नज़र मिलते ही उनके चेहरे पर लाज और शर्म की लाली छा गई और उन्होंने शर्मा कर झट से अपना चेहरा वापस घुमा लिया। मेरे लिए ये समझ लेना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं था कि उनको पता चल गया है कि ये सारा किया धरा मेरा ही था, बल्कि ये कहना चाहिए कि ये सारी योजना ही मामा भांजे की थी।

"फिर तो अच्छी बात है मामा।" मैंने अपनी आवाज़ को सामान्य से थोड़ा ऊंचा करते हुए कहा ताकि मामी भी सुन सकें____"उम्मीद करता हूं अब से हर रोज़ इसी तरह आपकी रात ज़बरदस्त गुज़रेगी।"

"तू मेरा सबसे अच्छा भांजा है वैभव।" मामा कुछ ज़्यादा ही खुश थे इस लिए अपनी खुशी को ज़ाहिर करते हुए बोले____"और मुझे हमेशा तुझ पर नाज़ रहेगा।"

"अरे! ऐसा क्यों कहते हैं मामा?" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने भला ऐसा क्या कर दिया है जिसके चलते आपको हमेशा मुझ पर नाज़ रहेगा?"

"अरे! तेरी ही वजह से तो सबको खुशियां मिली हैं।" मामा ने अपनी बात एक बहाने के रूप में कही____"वरना सबके सब खुशियों के लिए तरस ही रहे थे।"

मैंने देखा, मामी ने गर्दन घुमा कर फिर से हमारी तरफ देखा। एक बार फिर से इत्तेफ़ाकन मेरी नज़र उनसे टकरा गई और उन्होंने एकदम से शर्मा कर अपना चेहरा वापस घुमा लिया। मैं समझ गया कि इस वक्त मामी अंदर ही अंदर बुरी तरह शर्मा रही हैं और शायद वो ये सोच कर भी चकित होंगी कि हम दोनों मामा भांजे कैसे इस तरह की बातें बहाने बहाने से कर रहे हैं।

"वैसे तो इसमें मेरा कोई विशेष योगदान नहीं है मामा।" मैंने उसी मुस्कान के साथ कहा____"पर यदि आप इसके लिए मुझे ही श्रेय दे रहे हैं तो मैं आपको बता दूं कि बदले में मुझे भी आपको कुछ देना होगा। सिर्फ बातें कह देने से काम नहीं चलेगा।"

"अरे! तू बता ना भांजे कि बदले में तुझे क्या चाहिए?" मामा ने एकदम से सीना चौड़ा करते हुए कहा____"तेरा ये मामा तुझे वचन देता है कि तू जो मांगेगा मैं तुझे दूंगा।"

"अच्छा क्या सच में?" मैंने ग़ौर से उनकी तरफ देखा।

"अरे! क्या तुझे अपने मामा पर भरोसा नहीं है भांजे?" मामा ने इस तरह की शक्ल बना कर कहा जैसे मैंने उनकी तौहीन कर दी हो।

"नहीं ऐसी तो बात नहीं है मामा।" मैंने एक नज़र मामी पर डालने के बाद कहा____"मैं तो बस ये कहना चाहता था कि वचन देने से पहले आपको अच्छी तरह सोच लेना चाहिए था कि मैं जो मांगूंगा आप वो दे भी सकेंगे या नहीं?"

"देख भांजे।" मामा ने जैसे निर्णायक भाव से कहा____"अब तो मैं तुझे वचन दे चुका हूं इस लिए अब कुछ सोचने विचारने का सवाल ही पैदा नहीं होता। तू बस बेझिझक हो के मांग जो तुझे चाहिए।"

मैंने देखा मामी चकित भाव से हमारी तरफ ही देखने लगीं थी। मैं उन्हें देख मुस्कुराया और फिर मामा से कहा____"ठीक है मामा, लेकिन मैं अपने लिए आपसे कुछ नहीं मागूंगा। मैं तो सिर्फ इतना ही चाहता हूं कि जैसे कल की रात आपके लिए अच्छी गुज़री है वैसी ही हर रात आपकी गुज़रे।"

"अरे! तू तो सच में मेरा कमाल का भांजा है वैभव।" मामा पहले तो हैरान हुए फिर खुशी से मुस्कुराते हुए बोले____"अपने लिए कुछ नहीं मांगा बल्कि मेरी खुशी की चाहत रखी।"

"क्यों न रखूं मामा।" मैंने एक बार फिर से मामी की तरफ एक नज़र डाली, फिर कहा____"आप मेरे सबसे अच्छे वाले मामा हैं और मुझे पता है कि खुशियों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत आपको है। रही मेरी बात तो, आप तो अच्छी तरह जानते हैं कि मुझे मौजूदा समय में किसी से कुछ मांगने की ज़रूरत ही नहीं है।"

"तुम दोनों मामा भांजे किस बारे में बातें कर रहे हो?" अचानक मां ने गर्दन घुमा कर हमारी तरफ देखते हुए पूछा तो मैं और मामा एकदम से हड़बड़ा गए। उधर मामी के चेहरे का भी रंग उड़ता नज़र आया। मां की बात सुन कर मामा ने जल्दी से खुद को सम्हाला और संतुलित भाव से कहा____"अरे! ये हमारी आपस की बातें हैं दीदी, आप नहीं समझेंगी।"

"अच्छा।" मां के माथे पर शिकन उभरी___"ऐसी भला कौन सी बातें कर रहे हो तुम दोनों जिन्हें मैं समझ ही नहीं सकती, हां?"

"भांजे अब क्या करें यार?" मामा एकदम से चिंतित हो कर मेरी तरफ देख बोले____"दीदी को क्या जवाब दूं? तू ही जल्दी से कुछ सोच और बता उन्हें।"

"क्या हुआ कुछ बोल क्यों नहीं रहा तू?" मां ने मामा की तरफ ध्यान से देखते हुए पूछा और फिर मेरी तरफ देखने लगीं।

"क्या मां आप भी अपना काम छोड़ कर हम मामा भांजे की बातों पर ध्यान देने लगीं।" मैंने झूठी नाराज़गी दिखाते हुए कहा____"हम तो बस ऐसे ही बातें कर रहे हैं, है ना मामा?"

"ह...हां हां और नहीं तो क्या?" मामा एकदम से हकलाते हुए बोल पड़े____"हम तो ऐसे ही समय बिताने के लिए बातें कर रहे हैं दीदी। आप मन लगा कर अपना काम कीजिए ना।"

मैंने देखा मामी हमारी तरफ देखते हुए मुस्कुराए जा रहीं थी। इधर मामा की बात सुन कर मां ने हम दोनों को बारी बारी से घूर कर देखा और फिर पलट कर सबके साथ काम में लग गईं। कहने की ज़रूरत नहीं कि हम दोनों मामा भांजे ने राहत की लंबी सांस ली।

"तूने फंसवा दिया था हम दोनों को।" फिर मामा ने धीरे से मुझसे कहा____"क्या ज़रूरत थी ऊंची आवाज़ में बातें करने की। अच्छा हुआ कि दीदी को समझ नहीं आया वरना हम दोनों की ख़ैर नहीं थी।"

"सही कह रहे हैं आप।" मैंने कहा____"बाल बाल बचे। मैं तो बस मामी को सुनाने के चक्कर में थोड़ा ऊंची आवाज़ में बोल रहा था। मुझे नहीं पता था कि मां भी हमारी बातें सुनने लगेंगी। वैसे क्या लगता है आपको, उन्हें हमारी बातें समझ आ गई होंगी?"

"क्या पता।" मामा ने कंधे उचकाए____"लेकिन अब इतना पता है कि हमें अब यहां से खिसक लेना चाहिए। कहीं ऐसा न हो तेरी मामी नाराज़ हो जाए और फिर वो मुझे अपने पास आने ही न दे। अगर एसा हुआ तो समझ ही सकता है कि तेरी दुआएं और चाहतें मिट्टी में ही मिल जाएंगी।"

मैंने मुस्कुराते हुए हां में सिर हिलाया। उसके बाद हम दोनों ही अपना अपना चाय का खाली प्याला वहीं छोड़ कर बाहर की तरफ खिसक लिए। मामी मुस्कुराते हुए हमें जाता देख रहीं थी।

बाहर बैठक में बाकी सब बैठे हुए थे और आज के कार्यक्रम की रणनीति बना रहे थे। मामा भी उनके बीच जा कर बैठ गए जबकि मैं हवेली से बाहर निकल गया। कई दिनों से मैं हवेली में ही था और इस वजह से मुझे घुटन सी होने लगी थी। वैसे तो मां चाची और मामी लोगों ने भी मुझसे कहा था कि अब से मैं हवेली में ही रहूं लेकिन मेरा मन अब थोड़ा ऊब चुका था। मैं बाहर की खुली हवा लेना चाहता था इस लिए मोटर साईकिल में बैठ कर चल दिया।

✮✮✮✮

मेरी मोटर साईकिल सीधा उस जगह पर पहुंच कर रुकी जहां पर अनुराधा का विदाई स्थल था। आज वातारण में थोड़ा कोहरे जैसी धुंध छाई हुई थी जिसकी वजह से धूप के ताप का बिल्कुल भी एहसास नहीं हो रहा था। मैंने अपने बदन पर ऊन का स्वेटर पहन रखा था।

अनुराधा के विदाई स्थल के पास पहुंच कर मैं घुटनों के बल कच्ची ज़मीन पर बैठ गया। इस जगह आने से एक अलग ही अनुभूति होती थी। कुछ समय के लिए जैसे मैं सब कुछ भूल जाता था। बंद पलकों में अनुराधा के साथ बिताए हुए लम्हों की तस्वीरें देखते हुए मैं बस उन्हीं में खो जाता था। उसके बाद सामने देखते हुए उससे काफी देर तक अपने दिल की बातें करता रहता। मैं उसको सब कुछ बताता था कि आज मेरे साथ क्या क्या हुआ और आगे क्या होने वाला है। फिर एकाएक मेरा मन उससे ये कहते हुए भारी हो जाता कि काश! तुम जीवित अवस्था में मेरे पास होती तो मुझे अलग ही खुशी होती। ऊपर बैठे विधाता से उसे वापस करने की मिन्नतें करता और अनुराधा से ये कहते हुए माफियां मांगता कि मेरे कुकर्मों की वजह से आज वो इस दुनियां में नहीं है।

कुछ समय बाद मैं उठा और वहीं से सरोज काकी के घर चल पड़ा। आज कई दिनों बाद मैं उसके घर आया था। मुझे आया देख वो बड़ा खुश हुई। मैंने पहले ही उसको बता दिया था कि भाभी के साथ मेरा विवाह होने वाला है और फिर रूपा के साथ भी।

"कल मेरी बेटी रूपा भी यहां अपनी एक बहन के साथ आई थी।" सरोज काकी ने कहा____"मुझसे कह रही थी कि अब वो विवाह होने तक मेरे पास नहीं आ पाएगी। इस लिए मैं अनूप के साथ ही उसके घर पर रहूं।"

"हां तो इसमें ग़लत क्या है काकी?" मैंने अधीरता से कहा____"तुम्हें उसके विवाह तक उसके घर पर ही रहना चाहिए।"

"हां मैं समझती हूं।" सरोज काकी ने कहा____"लेकिन थोड़ा संकोच होता है, ये सोच कर कि मैं एक मामूली से किसान की औरत हूं और वो बड़े लोग हैं।"

"छोटे बड़े जैसी कोई बात नहीं है काकी।" मैंने कहा____"अगर होती तो अब तक जो कुछ हुआ है वो न हुआ होता। क्या तुमने कभी महसूस किया है कि मैंने या मेरे घर वालों ने तुम्हें छोटा होने का एहसास कराया है अथवा रूपा और उसके घर वालों ने ऐसा कभी किया है?"

"मैं मानती हूं कि ऐसा तुम में से किसी ने नहीं किया वैभव।" सरोज काकी ने कहा____"और सच कहूं तो इसके लिए मैं खुद को बहुत सौभाग्यशाली समझती हूं लेकिन कहीं न कहीं मुझे अपनी स्थिति का एहसास तो होता ही है कि मैं एक छोटी हैसियत वाली हूं और मुझे अपनी हद में रहना चाहिए।"

"ऐसा कह कर तुम हम सबकी भावनाओं को ठेस पहुंचा रही हो काकी।" मैंने संजीदा हो कर कहा____"हम में से किसी ने भी कभी तुम्हारे बारे में ऐसा कुछ नहीं सोचा है। जहां प्रेम होता है वहां हैसियत वाली बात ही नहीं होती। अनुराधा से मिलने से पहले मैं हैसियत के बारे में सोच भी सकता था लेकिन उससे मिलने के बाद और उससे प्रेम होने के बाद मेरे दिलो दिमाग़ से हैसियत संबंधित बातों का वजूद ही मिट चुका है। अगर ऐसा न होता तो अनुराधा की मौत के बाद मैं उसे अपनी दुल्हन बना कर विदा न करता। आज भी मैं उसको अपनी पहली पत्नी ही मानता हूं और उस नाते तुम मेरी सास हो, अनूप मेरा साला है। क्या अब भी तुम्हें लगता है कि इसमें हैसियत की बात है? क्या अब भी तुम्हें लगता है कि तुम हम में से किसी से छोटी हो?"

"मुझे माफ़ कर दो वैभव।" सरोज काकी की आंखें भर आईं____"मैं यही समझ बैठी थी कि मेरी बेटी अनू के जाने के बाद तुमने ये रिश्ता मिटा दिया होगा।"

"नहीं, मैं ऐसा कभी नहीं कर सकता काकी।" मैंने गंभीरता से कहा____"और ना ही कभी करूंगा। मेरा प्रेम अनुराधा के गुज़र जाने से मिट जाने वाला नहीं है। मैंने तो उसके गुज़र जाने पर ही उसको अपनी पत्नी बनाया था तो अब ये रिश्ता मरते दम तक क़ायम रहेगा। तुम ही इस रिश्ते को ना मानो तो अलग बात है।"

"नहीं नहीं।" सरोज काकी जैसे तड़प उठी____"ऐसा मत कहो। ये सच है कि अभी तक मैं इस रिश्ते को महत्व नहीं दे रही थी लेकिन तुम्हारी ये बातें सुन कर मुझे एहसास हो गया है कि मैं ग़लत थी। मेरा यकीन करो बेटा, अब से मैं भी तुमको अपना दामाद ही मानूंगी और जीवन भर मानूंगी।"

"अगर तुम सच में ऐसा मानती हो।" मैंने कहा____"तो फिर अपने दामाद की बातें भी मानों काकी। रूपा ने तुम्हें अपनी मां कहा है और तुमने भी उसको अनुराधा की तरह अपनी बेटी माना है तो फिर इस रिश्ते को पूरी ईमानदारी से और पूरी निष्ठा से निभाओ। अगर उसके घर वाले चाहते हैं कि विवाह तक तुम उनके साथ ही रहो तो तुम्हें खुशी खुशी वहीं रहना चाहिए।"

"मैं अब रहूंगी बेटा।" सरोज काकी ने दृढ़ता से कहा____"अपनी बेटी रूपा को उसी तरह तुमसे विवाह कर के विदा करूंगी जैसे मैं अनुराधा को करती।"

कुछ देर और सरोज काकी से बातें हुईं उसके बाद मैं वहां से चल पड़ा। थोड़े ही समय में मैं भुवन से मिलने अपने खेतों पर पहुंच गया। भुवन खेतों पर ही था। मैं उससे मिला और उसे बरात में चलने का निमंत्रण भी दिया। भुवन इस बात से बड़ा खुश हुआ। उसके बाद मैं हवेली निकल गया।




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अध्याय - 155
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रागिनी तब तक रसोई से का चुकी थी लेकिन वंदना को पूरा यकीन था कि उसने उसका ये वाक्य ज़रूर सुन लिया होगा। बहरहाल, रागिनी को शर्म के मारे यूं भाग गई देख वंदना हल्के से हंसने लगी थी। फिर एकदम से उसने मन ही मन ऊपर वाले को याद कर के कहा____"हे ऊपर वाले! अब कुछ भी बुरा मत करना मेरी ननद के साथ।"


अब आगे....


वीरेंद्र सिंह के आने से और उसके द्वारा रागिनी भाभी के राज़ी हो जाने की बात सुन लेने से मां बहुत ज़्यादा खुश थीं। जगताप चाचा और मेनका चाची के दिए हुए झटके और दुख को जैसे वो एक ही पल में भूल गईं थी। आज काफी दिनों बाद मैं उनके चेहरे पर खुशी की असली चमक देख रहा था।

सबको पता चल चुका था कि रागिनी भाभी मुझसे विवाह करने को राज़ी हो गईं हैं। कुसुम कुछ ज़्यादा ही खुशी से उछल रही थी। उधर मेनका चाची भी खुश थीं, ये अलग बात है कि कभी भी उनके चेहरे पर दुख और पीड़ा के भाव उभर आते थे। कदाचित उन्हें अपने और जगताप चाचा द्वारा किए गए कर्म याद आ जाते थे जिसके चलते वो दुखी हो जातीं थी।

रसोई में वीरेंद्र सिंह के लिए बढ़िया बढ़िया पकवान बन रहे थे। आम तौर पर मां रसोई में कम ही जातीं थी लेकिन आज वो रसोई में ही मौजूद थीं। निर्मला काकी और मेनका चाची दोनों ही पकवान बनाने में लगी हुईं थी। मेनका चाची सब कुछ वैसा ही करती जा रहीं थी जैसा मां कहती जा रहीं थी। कुसुम और कजरी बाकी के छोटे मोटे काम में उनकी मदद कर रहीं थी।

इधर मैं अपने कमरे से निकल कर सीधा बैठक में आ गया था, जहां पर किशोरी लाल और वीरेंद्र सिंह बैठे हुए थे। बैठक में काफी देर तक हमारी आपस में दुनिया जहान की बातें होती रहीं। उसके बाद जब अंदर से कुसुम ने आ कर हम सबको खाना खाने के लिए अंदर चलने को कहा तो हम सब बैठक से उठ गए।

गुसलखाने से स्वच्छ होने के बाद मैं, वीरेंद्र भैया और किशोरी लाल भोजन करने बैठे। मेनका चाची और निर्मला काकी ने हम सबके सामने थाली रखी। सच में काफी अच्छा भोजन नज़र आ रहा था। खाने की खुशबू भी बहुत बढ़िया आ रही थी। हम सबने खाना शुरू किया। पिता जी नहीं थे इस लिए खाने के दौरान थोड़ी बहुत इधर उधर की बातें हुईं। खाने के बाद हम सब उठे।

अब सोने का समय था इस लिए मैं वीरेंद्र सिंह को मेहमान कक्ष में ले गया और वहां पर उसको सोने को कहा। वीरेंद्र सिंह उमर में मुझसे बहुत बड़ा था इस लिए मेरी उससे ज़्यादा बातें नहीं हुईं। वैसे भी ये जो नया रिश्ता बन गया था उसके चलते मैं उसके सामने थोड़ा संकोच और झिझक महसूस करने लगा था। मैंने उसको आराम से सो जाने को कहा और सुबह मिलने का कह कर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।

✮✮✮✮

महेंद्र सिंह की हवेली में काफी चहल पहल थी। रात के समय हवेली में काफी रौनक नज़र आ रही थी। गांव में बिजली का कोई भरोसा नहीं रहता था इस लिए ज्ञानेंद्र सिंह शहर से जनरेटर ले आया था ताकि हवेली के अंदर और बाहर पर्याप्त मात्रा में रोशनी रहे। कम समय में जितना इंतज़ाम किया जा सकता था उससे ज़्यादा ही किया था ज्ञानेंद्र सिंह ने।

ज्ञानेंद्र सिंह के बेटे का जन्मदिन था इस लिए ख़ास ख़ास लोगों को ही बुलाया गया था जिनमें से सर्व प्रथम दादा ठाकुर यानि ठाकुर प्रताप सिंह ही थे। ज्ञानेंद्र सिंह के भी कुछ ख़ास मित्रगण थे। महेंद्र सिंह ने अर्जुन सिंह को भी बुलवाया था।

हवेली के बाहर लंबे चौड़े मैदान में चांदनी लगी हुई थी। उसी के नीचे एक मंच बनाया गया था। नाच गाने का प्रबंध था जिसके लिए ज्ञानेंद्र सिंह ने शहर से कलाकार बुलाए थे। दूसरी तरफ हवेली के अंदर एक बड़े से हाल में अलग ही नज़ारा था। पूजा तो दिन में ही हो गई थी किंतु रात में मेहमानों को भोजन कराने के लिए हाल में ही बढ़िया व्यवस्था की गई थी। एक बड़ी सी आयताकार मेज़ थी जिसके दोनों तरफ लकड़ी की कुर्सियां लगी हुईं थी। मेज़ पर नई नवेली चादर बिछी हुई थी और बड़ी सी मेज में थोड़ी थोड़ी दूरी के अंतराल में ख़ूबसूरत फूलों के छोटे छोटे गमले रखे हुए थे जिनकी महक दूर तक फैल रही थी।

सभी मेहमान आ चुके थे। सब दादा ठाकुर से मिले और उन्हें हाथ जोड़ कर प्रणाम किया। दादा ठाकुर की मौजूदगी सबके लिए जैसे बहुत ही ख़ास थी। सब जानते थे कि दादा ठाकुर कितनी महान हस्ती हैं। बहरहाल, मिलने मिलाने के बाद महेंद्र सिंह ने सबसे पहले सभी से भोजन करने का आग्रह किया, उसके बाद नाच गाना देखने का।

भोजन वाकई में बहुत स्वादिष्ट बना हुआ था। सभी मेहमानों ने भर पेट खाया और फिर बाहर मंच पर आ गए। मंच के ऊपर मोटे मोटे गद्दे बिछे हुए थे और उनके पीछे मोटे मोटे तकिए रखे हुए थे। मंच काफी विशाल था जिसके चलते सभी ख़ास मेहमान बड़े आराम से उसमें आ सकते थे। मंच के नीचे एक बड़े से घेरे में नाचने वाली कई लड़कियां मौजूद थीं। उनके एक तरफ संगीत बजाने वाले कुछ कलाकार बैठे हुए थे। उसके बाद बाकी का जो मैदान था उसमें गांव के लोगों की भीड़ जमा थी जो नाच गाना देखने आए थे।

ऐसा नहीं था कि दादा ठाकुर को नाच गाना पसंद नहीं था लेकिन उन्हें ये तब पसंद आता था जब ये सब मर्यादा के अनुकूल हो। ज़्यादातर वो शास्त्रीय संगीत सुनना पसंद करते थे। उनके पिता के समय में जो नाच गाना होता था वो बहुत ही ज़्यादा अमर्यादित होता था जिसे वो कभी पसंद नहीं करते थे। यहां पर ज्ञानेंद्र सिंह ने जो कार्यक्रम शुरू करवाया था वो कुछ हद तक उन्हें पसंद था, हालाकि लड़कियों का अभद्र तरीके से नाचना उन्हें ज़रा भी पसंद नहीं आ रहा था लेकिन ख़ामोशी से इस लिए बैठे हुए थे कि वो नहीं चाहते थे कि उनकी वजह से महेंद्र सिंह और ज्ञानेंद्र सिंह की खुशियों पर कोई खलल पड़े। दूसरी वजह ये भी थी कि वो इसी बहाने कुछ देर के लिए अपने अंदर की पीड़ा को भूल जाना चाहते थे।

बहरहाल नाच गाना चलता रहा। लोग ये सब देख कर खुशी से झूमते रहे। वातावरण में संगीत कम लोगों का शोर ज़्यादा सुनाई दे रहा था। आख़िर दो घण्टे बाद नाच गाना बंद हुआ और सभी मेहमान जाने लगे। महेंद्र सिंह के आग्रह पर अर्जुन सिंह भी रुक गए। दादा ठाकुर और अर्जुन सिंह को मेहमान कक्ष में सोने की व्यवस्था थी।

अर्जुन सिंह जब अपने कमरे में सोने लगे तो महेंद्र सिंह दादा ठाकुर के कमरे में आए। दादा ठाकुर पलंग पर लेट चुके थे और खुली आंखों से कुछ सोच रहे थे। महेंद्र सिंह को आया देख वो उठे और अधलेटी सी अवस्था में आ गए।

"हमने आपको तकलीफ़ तो नहीं दी ना ठाकुर साहब?" महेंद्र सिंह ने बड़े नम्र भाव से पास ही रखी एक कुर्सी पर बैठते हुए पूछा____"असल में सबके बीच आपसे ज़्यादा बातें करने का अवसर ही नहीं मिला।"

"ऐसी कोई बात नहीं है मित्र।" दादा ठाकुर ने कहा____"हमें भी अभी नींद नहीं आ रही थी। अच्छा हुआ आप आ गए।"

"काफी समय से हम आपसे एक बात कहना चाहते थे लेकिन फिर कहने का मौका ही नहीं मिला।" महेंद्र सिंह ने थोड़ी गंभीरता अख़्तियार करते हुए कहा____"हालात कुछ ऐसे हो गए जिनकी आपके साथ साथ हमने भी कभी कल्पना नहीं की थी। उन हालातों में हमने उस बात को आपसे कहना उचित नहीं समझा था। अब जबकि सब कुछ ठीक हो गया है तो हम सोचते हैं कि आपसे वो बात कह ही दें। शायद इससे बेहतर मौका हमें कहीं और ना मिले।"

"बिल्कुल कहिए मित्र।" दादा ठाकुर ने सामान्य भाव से कहा____"हम भी जानना चाहते हैं कि ऐसी कौन सी बात है जिसे कहने के लिए हमारे मित्र को इतना इंतज़ार करना पड़ा?"

"उस बात को कहने में हमें थोड़ा झिझक हो रही है ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने सच में झिझकते हुए कहा____"लेकिन दिल यही चाहता है कि आपसे अपने मन की बात कह ही दें। हमारी आपसे गुज़ारिश है कि आप बेहद शांत मन से हमारी वो बात सुन लें उसके बाद आपका जो भी फ़ैसला होगा उसे हम अपने सिर आंखों पर रख लेंगे।"

"आपको अपने दिल की कोई भी बात हमसे कहने में झिझकने की आवश्यकता नहीं है।" दादा ठाकुर ने कहा____"आप हमारे मित्र हैं। हम अच्छी तरह जानते हैं कि आप हमसे जो भी कहेंगे अच्छा ही कहेंगे।"

"हमारी मंशा तो यही है ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने कहा____"और यकीन मानिए, हमारे मन में आपके लिए ना पहले कभी कोई ग़लत ख़याल आया था और ना ही कभी आ सकता है।"

"आपको ये सब कहने की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है।" दादा ठाकुर ने अधीरता से कहा____"हम अच्छी तरह जानते हैं कि आप हमारे ऐसे मित्र हैं जिन्होंने जीवन में कभी भी हमारे लिए ग़लत नहीं सोचा। आप अपनी बात बेफ़िक्र हो कर और बेझिझक हो के कहिए। हम आपको वचन देते हैं कि हम आपकी बात पूरी शांति से और पूरे मन से सुनेंगे।"

"आपका बहुत बहुत धन्यवाद ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने जैसे मन ही मन राहत की सांस लेते हुए कहा____"बात दरअसल ये है कि हम काफी समय से आपसे ये कहना चाहते थे कि क्यों न हम अपनी मित्रता को एक हसीन रिश्ते में बदल लें। स्पष्ट शब्दों में कहें तो ये कि हम अपने बेटे राघवेंद्र का विवाह आपकी भतीजी कुसुम के साथ करने की हसरत रखते हैं। क्या आप हमारी मित्रता को ऐसे हसीन रिश्ते में बदलने की कृपा करेंगे? हम जानते हैं कि आपसे हमने ऐसी बात कह दी है जिसे आपसे कहने की हमारी औकात नहीं है लेकिन फिर भी एक मित्र होने के नाते आपसे अपने बेटे के लिए आपकी भतीजी का हाथ मांगने की गुस्ताख़ी कर रहे हैं।"

महेंद्र सिंह की ये बातें सुन कर दादा ठाकुर फ़ौरन कुछ बोल ना सके। चेहरे पर हैरानी के भाव लिए वो कुछ सोचते नज़र आए। ये देख महेंद्र सिंह की धड़कनें रुक गईं सी महसूस हुई।

"क...क्या हुआ ठाकुर साहब?" महेंद्र सिंह ने घबराए से लहजे में पूछा____"क्या आपको हमारी बातों से धक्का लगा है? देखिए अगर आपको हमारी बातों से चोट पहुंची हो तो हमें माफ़ कर दीजिए।"

"नहीं नहीं मित्र।" दादा ठाकुर ने अधीरता से कहा____"आप माफ़ी मत मांगिए। आपकी बातों से हमें बिलकुल भी चोट नहीं पहुंची है लेकिन हां, धक्का ज़रूर लगा है। धक्का इस बात का लगा है कि जो बात कभी हम आपसे कहना चाहते थे वही बात आज आपने खुद ही हमसे कह दी।"

"ये...ये क्या कह रहे हैं आप?" महेंद्र ने अविश्वास भरे भाव से कहा____"हमारा मतलब है कि क्या सच में आप हमसे ऐसा कहना चाहते थे?"

"हां मित्र।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ली____"ये तब की बात है जब हमारे परिवार के सदस्यों पर वैसे संकट जैसे हालात नहीं थे जैसों से जूझ कर हम सब यहां पहुंचे हैं और इतना ही नहीं उनमें हमने अपनों को भी खोया। ख़ैर कुसुम भले ही हमारे छोटे भाई जगताप की बेटी थी लेकिन उसको हम अपनी ही बेटी मानते आए हैं। हमारे मन में कई बार ये ख़याल आया था कि हम अपनी बेटी का विवाह आपके बेटे राघवेंद्र से करें। बहरहाल, हमारा ये ख़याल ख़याल ही रह गया और हालात ऐसे हो गए जैसे कुदरत का क़हर ही हम पर बरसने लगा था। हमने अपने बड़े बेटे और छोटे भाई को खो दिया। अगर अपने अंदर का सच बताएं मित्र तो वो यही है कि अंदर से अब हम पूरी तरह से टूट चुके हैं। इस सबके बाद अगर हमें बाकी सबका ख़याल न होता तो कब का हम सब कुछ छोड़ कर किसी ऐसी दुनिया में चले गए होते जहां न कोई माया मोह होता और ना ही किसी तरह का बंधन....अगर कुछ होता तो सिर्फ शांति।"

"ऐसा मत कहिए ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने अधीरता से कहा____"आप जैसे विशाल हृदय वाले इंसान को इस तरह से विचलित होना शोभा नहीं देता। हम मानते हैं कि पिछले कुछ समय में आपने जो कुछ सहा है और जो कुछ खोया है वो वाकई में असहनीय था लेकिन आप भी जानते हैं कि ये सब ऊपर वाले के ही खेल होते हैं। वो हम इंसानों को मोहरा बना कर जाने कैसे कैसे खेल खेलता रहता है।"

"अगर बात सिर्फ खेल की ही होती तो कदाचित हमें इतनी तकलीफ़ ना हुई होती मित्र।" दादा ठाकुर ने सहसा दुखी हो कर कहा____"यहां तो ऐसी बात हुई है जिसके बारे में हम कल्पना ही नहीं कर सकते थे। उस दिन जब आप हमारे यहां आए थे और सफ़ेदपोश के बारे में पूछ रहे थे तो हमने आपको उसके बार में पूछने से मना कर दिया था। जानते हैं क्यों? क्योंकि हम ऐसी हालत में ही नहीं हैं कि किसी को सफ़ेदपोश के बारे में बता सकें। आप जब वापस चले गए तो हमें ये सोच कर दुख हो रहा था कि हमने अपने मित्र को इस बारे में नहीं बताया। भला ये कैसी मित्रता है कि हम अपने मित्र से ही कोई बात छुपाएं? मित्र तो वो होता है ना जो अपने मित्र से कुछ भी न छुपाए लेकिन हमने छुपाया मित्र। अपने दिल पर पत्थर रख कर छुपाया हमने।"

"ऐसा मत कहिए ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह दादा ठाकुर को आहत और दुखी हालत में देख खुद भी दुखी नज़र आए____"यकीन मानिए आपके छुपाए जाने से हमें बिलकुल भी बुरा नहीं लगा था। हां, ये सोच कर दुख ज़रूर हुआ था कि ये विधाता की कैसी क्रूरता है जिसके चलते आपकी ऐसी दशा हो गई थी? आप इस बारे में ये सब सोच कर खुद को दुखी मत कीजिए मित्र। हमारी आपसे वर्षों की मित्रता है और हम वर्षों से आपको जानते हैं कि आप कितने महान इंसान हैं।"

"नहीं मित्र।" दादा ठाकुर के चेहरे पर एकाएक कठोरता के भाव उभर आए____"हमारे जैसा इंसान अब महान नहीं रहा। भला वो इंसान महान हो भी कैसे सकता है जिसने एक ही झटके में इतने सारे लोगों को मार डाला हो? वो इंसान महान कैसे हो सकता है जिसने हर किसी से सफ़ेदपोश का सच छुपाया और....और वो व्यक्ति भला कैसे महान हो सकता है मित्र जिसके अपने ही छोटे भाई ने सफ़ेदपोश के रूप में अपने ही बड़े भाई और उसके समूचे परिवार को नेस्तनाबूत कर देने का षडयंत्र रचा?"

"ये....ये क्या कह रहे हैं आप?" महेंद्र सिंह को ज़बरदस्त झटका लगा____"आपके छोटे भाई जगताप थे सफ़ेदपोश? हे भगवान! ये कैसे हो सकता है?"

"यही सच है मित्र।" दादा ठाकुर ने आहत भाव से कहा____"इसी लिए तो हम ये बात किसी को बता नहीं सकते कि सफ़ेदपोश असल में हमारा ही छोटा भाई जगताप था।"

"बड़ी हैरतअंगेज़ बात बता रहे हैं आप।" महेंद्र सिंह के चेहरे पर अभी भी आश्चर्य नाच रहा था____"लेकिन अगर आपके भाई ही सफ़ेदपोश थे तो फिर वो आपके द्वारा पकड़े कैसे गए? हमारा मतलब है कि उनकी तो साहूकारों ने चंद्रकांत के साथ मिल कर हत्या कर दी थी ना? फिर वो ज़िंदा कैसे हुए?"

"उसके ज़िंदा होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता मित्र।" दादा ठाकुर ने कहा____"सच बात ये है कि उसकी मौत के बाद सफ़ेदपोश का लिबास उसकी पत्नी यानि मेनका ने पहन लिया था और फिर उसी ने उसके काम को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया था।"

"हे भगवान! ये तो और भी ज़्यादा आश्चर्यचकित कर देने वाली बात है।" महेंद्र सिंह ने आश्चर्य से आंखें फैलाते हुए कहा____"यकीन नहीं होता कि एक औरत होने के बावजूद उन्होंने सफ़ेदपोश बन कर ऐसे दुस्साहस से भरे काम किए।"

"सच जानने के बाद हम भी इसी तरह चकित हुए थे।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन उससे ज़्यादा ये सोच कर दुखी हुए कि हमारे अपने ही हमें अपना जन्म जात शत्रु माने हुए थे और हमें मिटाने पर तुले हुए थे।"

महेंद्र सिंह के पूछने पर दादा ठाकुर ने संक्षेप में सारा किस्सा बता दिया जिसे सुन कर महेंद्र की मानों बोलती ही बंद हो गई। आख़िर कुछ देर में उनकी हालत सामान्य हुई।

"वाकई, ये सच तो यकीनन दिल दहला देने वाला और पूरी तरह जान निकाल देने वाला है।" फिर उन्होंने कहा____"आपके मुख से ये सब सुनने के बाद जब हमारी ख़ुद की हालत बहुत अजीब सी हो गई है तो आपकी हालत का अंदाज़ा हम बखूबी लगा सकते हैं। समझ में नहीं आ रहा कि जगताप जैसे सुलझे हुए इंसान के मन में ये सब करने का ख़याल कैसे आ गया था? क्या सच में इंसान की सोच इतना जल्दी गिर जाती है? क्या सच में इंसान धन दौलत के लालच में और सिर्फ अपने हितों के बारे में सोचने के चलते इतना क्रूर बन जाता है? ठाकुर साहब, आपकी तरह हम भी ये कल्पना नहीं कर सकते थे लेकिन सच तो सच ही है। हम आपसे यही कहेंगे कि इस सबके बारे में सोच कर अपने आपको दुखी मत रखिए। इस संसार में सच की सूरत ज़्यादातर कड़वी ही देखने को मिलती है।"

"सही कहा आपने।" दादा ठाकुर ने कहा____"हम भी इस कड़वे सच को हजम करने की नाकाम कोशिशों में लगे हुए हैं। ख़ैर अब हम आपसे ये कहना चाहते हैं कि इस सच को जानने के बाद भी क्या आप अपने बेटे का विवाह हमारी बेटी से करने का सोचते हैं?"

"बिल्कुल ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने दृढ़ता से कहा____"मानते हैं कि जो कुछ हुआ बहुत भयानक और हैरतअंगेज़ था लेकिन इसमें उस बच्ची का तो कहीं कोई दोष ही नहीं है। जिसने बुरी नीयत से दुष्कर्म किया उसको उसकी करनी की सज़ा मिल चुकी है। मंझली ठकुराईन को भी अपनी ग़लतियों का एहसास हो चुका है जिसके चलते वो प्रायश्चित कर रही हैं। ऐसे में हम भला ये क्यों सोचेंगे कि हम अपने बेटे का विवाह आपकी भतीजी से न करें? ठाकुर साहब, आप हमारे मित्र हैं और संबंध हमें आपसे बनाना है।"

"हमने भले ही उसे अपनी बेटी माना है मित्र।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन जिस सच्चाई से हम रूबरू हुए हैं उसके बाद ऐसा लगने लगा है जैसे अब हमारा अपने के रूप में कोई नहीं है। काश! वो सचमुच में हमारी ही बेटी होती तो हम खुशी खुशी आपका ये प्रस्ताव स्वीकार कर लेते लेकिन उसमें अब हमारा कोई हक़ नहीं है। अगर आप सच में चाहते हैं कि उसी के साथ आपके बेटे का विवाह हो तो इसके लिए आपको उसकी मां से बात करना होगा जिसने सचमुच में उसे पैदा किया है।"

"शायद आप ठीक कह रहे हैं।" महेंद्र सिंह ने सिर हिलाते हुए कहा____"इतना सब कुछ होने के बाद आपकी मानसिकता इस तरह की हो जाना स्वाभाविक ही है। वाकई पहले जैसी बात नहीं हो सकती है। ख़ैर, अगर आप सच में ऐसा ही चाहते हैं तो हम ज़रूर उन्हीं से बात करेंगे। उम्मीद है कि वो अपनी बेटी का विवाह हमारे बेटे से करने को तैयार हो जाएंगी।"

कुछ देर और इसी संबंध में बातें हुईं उसके बाद महेंद्र सिंह चले गए। उनके जाने के बाद दादा ठाकुर काफी देर तक इस बारे में सोचते रहे। मन में जाने कैसे कैसे ख़्याल उभर रहे थे जिसके चलते उनका मन व्यथित होने लगता था। बड़ी मुश्किल से उन्हें नींद आई।

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अपने कमरे में मैं पलंग पर लेटा हुआ था। मन में बहुत कुछ चल रहा था। ख़ास कर भाभी से हुई बातें। मैंने महसूस किया जैसे आज का दिन बड़ा ही ख़ास था। आज एक अजब संयोग भी हुआ था। इधर मैं अपने दिल की बातें भाभी से कहने पहुंचा और उधर मेरी तमाम उम्मीदों के विपरीत मुझे ये पता चला कि भाभी भी मुझसे विवाह करने को राज़ी हो गईं हैं। इतना ही नहीं इस बात की ख़बर देने उनका भाई मेरे साथ ही हवेली आ गया था। माना कि अब यही सच था लेकिन मुझे अब भी यकीन नहीं हो रहा था कि सचमुच ये रिश्ता एक दिन अटूट बंधन के रूप में और पूरी मान्यताओं के साथ बंध जाएगा।

मैं सोचने लगा कि वाकई में किस्मत बड़ी हैरतअंगेज़ बला होती है। या फिर ये कहूं कि ऊपर वाले का खेल बड़ा ही अजीब होता है। इंसान की हर कल्पना से परे होता है। मैं एकदम से अपनी ज़िंदगी में हुए इस अविश्वसनीय परिवर्तनों के बारे में सोचने लगा।

एक वक्त था जब मैं सिर्फ मौज मस्ती और अय्याशियों में ही मगन रहता था। मेरे लिए जैसे ज़िंदगी का असली आनंद ही इसी सब में था। मैं शुरू से ही बड़ा निडर, दुस्साहसी और गुस्सैल स्वभाव का रहा था लेकिन इस सबके बीच मेरे अंदर कहीं न कहीं कोमल भावनाएं भी थी और इस बात का बोध भी था कि कम से कम मैं अपनी कुदृष्टि अपने ही घर की बहू बेटी पर न डालूं। यानि मैं ये समझता था कि ऐसा करना ऊंचे दर्ज़े का पाप है। शायद यही वजह थी कि मैंने कभी ऐसा किया भी नहीं था। हां, भाभी के रूप सौंदर्य पर ज़रूर आकर्षित हो जाया करता था जोकि सच कहूं तो ये मेरे बस में था भी नहीं। पहले भी बता चुका हूं कि वो थीं ही इतनी सुंदर और सादगी से भरी हुईं।

जब मुझे एहसास हो गया कि मैं उनके रूप सौंदर्य से खुद को आकर्षित होने से रोक नहीं सकता तो मैंने हवेली में रहना ही कम कर दिया था। कभी दोस्तों के घर में तो कभी कहीं, यही मेरी ज़िंदगी बन गई थी। दो दो तीन तीन दिन मैं हवेली से ग़ायब रहता। जैसा कि मैंने बताया मैं बहुत ही निडर दुस्साहसी और गुस्सैल स्वभाव का था इस लिए मैं जहां भी जाता अपनी छाप छोड़ देता था। हालाकि इस सबके पीछे पिता जी का नाम भी जैसे मेरा मददगार ही होता था। कोई भी मुझसे उलझने की कोशिश नहीं करता था। यही वजह थी कि मेरे नाम का डंका दूर दूर तक बज चुका था।

मेरे दुस्साहस की वजह से बड़े बड़े लोग भी मेरे संपर्क में आ गए थे जो अपने मतलब के लिए मुझसे सहायता मांगते थे और मैं बड़े शान से उनकी सहायता कर भी देता था। ये उसी का परिणाम था कि मेरी पहुंच और मेरे संबंध आम लोगों की नज़र में हैरतअंगेज़ बात थी। जिस जगह पर और जिस चीज़ पर मैंने हाथ रख दिया वो मेरी होती थी और अगर किसी ने विरोध किया तो परिणाम बुरा ही होता था। मेरे इन कारनामों की वजह से पिता जी चकित तो होते ही थे किंतु परेशान और चिंतित भी रहते थे। मेरी हरकतों की वजह से उनका नाम ख़राब होता था। इसके लिए मुझे हर बार दंड दिया जाता था जोकि कोड़ों की मार की शक्ल में ही होता था लेकिन मजाल है कि ठाकुर वैभव सिंह में कभी कोई बदलाव आया हो। मैं बड़े शौक से पिता जी की सज़ा क़बूल करता था और कोड़ों की मार सहता था उसके बाद फिर से उसी राह पर चल पड़ता था जिसमें मुझे अत्यधिक आनन्द आता था।

गांव के साहूकारों के लड़के शुरू से ही मुझे अपना दुश्मन समझते थे। इसकी वजह सिर्फ ये नहीं थी कि बड़े दादा ठाकुर ने उनके साथ बुरा किया था बल्कि ये भी थी कि मैं उनकी सोच और कल्पनाओं से बहुत ज़्यादा उड़ान भर रहा था। ये सच है कि मैं उनसे उलझने की कभी पहल नहीं करता था लेकिन जब वो पहल करते थे तो उन्हें बक्शता भी नहीं था। अपने गांव में ही नहीं बल्कि आस पास गांवों में भी मेरा यही रवैया था। मैं मौज मस्ती और अय्याशियों में इतना खो गया था कि मुझे इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि कब मेरे दामन पर बदनामी की कालिख लग चुकी थी?

ऐसे ही ज़िंदगी गुज़र रही थी और फिर एक दिन पिता जी ने मुझे गांव से निष्कासित कर दिया। बस, यहीं से मेरी ज़िंदगी में जैसे परिवर्तन होना शुरू हो गया था। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरे जीवन में कभी ऐसे दिन आएंगे जो मुझे धीरे धीरे बदलना शुरू कर देंगे। मुरारी की लड़की अनुराधा पर जब मेरी नज़र पड़ी थी तो ये सच है कि उसको भी मैंने बाकी लड़कियों की तरह भोगना ही चाहा था लेकिन ऐसा नहीं कर सका। कदाचित ये सोच कर कि जिस घर के मुखिया ने मुझे अपना समझा और मेरी इतनी मदद की मैं उसी की बेटी की इज्ज़त कैसे ख़राब कर सकता हूं? सरोज से नाजायज़ संबंध ज़रूर बन गया था लेकिन इसमें भी सिर्फ मेरा ही बस दोष नहीं था। सरोज ने ही मुझे इसके लिए इशारा किया था और अपना जिस्म दिखा दिखा कर ये जताया था कि वो मुझसे चुदना चाहती है। मैं तो जिस्म का भूखा था ही, दूसरे निष्कासित किए जाने से अंदर गुस्सा भी भरा हुआ था इस लिए मैंने बिल्कुल भी नहीं सोचा कि ये मैं किसके साथ दुष्कर्म करने जा रहा हूं?

कई बार मन बनाया कि किसी दिन अकेले में अनुराधा को पटाने की कोशिश करूंगा और उसको अपने मोह जाल में फंसाऊंगा लेकिन हर बार जाने क्यों ऐसा करने के लिए मेरे ज़मीर ने मुझे रोक लिया। उसकी मासूमियत, उसका भोलापन धीरे धीरे ही सही लेकिन मेरे दिलो दिमाग़ में जैसे घर करने लगा था। मुझे पता ही नहीं चला कि कब मैं उसकी मासूमियत, उसके भोलेपन और उसकी सादगी पर मर मिटा था। मेरे सामने उसका छुई मुई हो जाना, शर्म से सिमट जाना, मेरे ठकुराईन कहने पर पहले तो नाराज़ होना और फिर शर्म के साथ मुस्कराने लगना ये सब मेरे दिल में रफ़्ता रफ़्ता एक अलग ही एहसास पैदा करते जा रहे थे। एक समय ऐसा आया जब मैं खुद महसूस करने लगा कि मेरे दिल में अनुराधा के प्रति एक ऐसी भावना ने जन्म ले लिया है जो अब तक किसी के लिए भी पैदा नहीं हुई थी। फिर एक दिन उसने मुझे बड़ी कठोरता से दुत्कार दिया और मुझे ये एहसास करा दिया कि मैं किसी कीमत पर उसे हासिल नहीं कर सकता हूं। हालाकि ऐसा मेरा कोई इरादा भी नहीं था लेकिन उसकी नज़र में तो ऐसा ही था। उस दिन बड़ी तकलीफ़ हुई थी मुझे। ऐसा लगा था जैसे पहली बार किसी ने मेरे दिल को चीर दिया हो। मामला जब दिल से संबंध रखने लगता है तो उसकी एक अलग ही कहानी शुरू हो जाती है जिसके एहसास में इंसान बड़ा विचित्र सा हो जाता है। वही मेरे साथ हुआ। अनुराधा से दूर हो जाना पड़ा, किंतु ये दूरी भी जैसे नियति का ही कोई खेल थी। यकीनन मेरे जैसे चरित्र का लड़का इस दूरी से इतना विचलित नहीं होता और एक बार फिर से अपने पुराने अवतार में आ जाता लेकिन ऐसा नहीं हुआ। नियति मुझे प्रेम का पाठ पढ़ाना चाहती थी। मेरे दिल में ठूंस ठूंस कर प्रेम के एहसास भर देना चाहती थी और ऐसा ही हुआ। मैं भला कैसे नियति के विरुद्ध चला जाता? आज तक भला कोई जा पाया है जो मैं चला जाता?

मैं क्या जनता था कि नियति मेरे साथ आगे चल कर कितना बड़ा धोखा करने वाली थी। एक तरफ तो वो मेरे दिल में प्रेम के एहसास भर रही थी और दूसरी तरफ जिसके लिए एहसास भर रही थी उसको हमेशा के लिए मुझसे दूर कर देने का समान भी जुटाए जा रही थी। अगर मुझे पता होता कि मेरे प्रेम के चलते उस मासूम का ऐसा भनायक अंजाम होगा तो मैं कभी उसके क़रीब न जाता। मुझे ऐसा प्रेम नहीं चाहिए था और ना ही अपने लिए ऐसा बदलाव चाहिए था जिसके चलते किसी निर्दोष का जीवन ही छिन जाए। मगर ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ, बल्कि हुआ तो वो जिसने हम सबको हिला कर रख दिया।

बहरहाल, वक्त कभी नहीं रुकता। वो चलता ही जाता है और उसी के साथ चीज़ें भी बदलती जाती हैं। मेरे जीवन में रूपा का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। बड़ी अजीब लड़की है वो। एक ऐसे लड़के से प्रेम कर बैठी थी जो हमेशा प्रेम को बकवास कहता था। इतना सब कुछ होने के बाद जब फिर से उससे मुलाक़ात हुई तो इस बार मैं उसके प्रेम को बकवास नहीं कह सका। कहता भी कैसे? प्रेम जैसी बला से अच्छी तरह वाकिफ़ जो हो गया था मैं, बल्कि ये कहना चाहिए कि नियति ने मुझे अच्छी तरह प्रेम से परिचित करा दिया था।

मैं पूरे यकीन से कहता हूं कि रूपा इस युग की लड़की नहीं हो सकती। वो ग़लती से इस युग में पैदा हो गई है। इस युग की लड़की के अंदर इतने अद्भुत गुण नहीं हो सकते। ख़ैर, सच जो भी हो लेकिन ये तो सच ही था कि ऐसी अद्भुत लड़की ने मुझे एक नया जीवन दिया और उससे भी बढ़ कर मुझसे प्रेम किया। एक ऐसा प्रेम जिसके बारे में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। उसका हृदय मानों ब्रम्हांड की तरह विशाल है। वो सब कुछ क़बूल कर सकती है। वो सबको अपना समझ सकती है। मुझे बेइंतहा प्रेम करती है लेकिन मुझ पर अपना कोई हक़ नहीं समझती। मैं नतमस्तक हूं उसके इस प्रेम के सामने। काश! हर जन्म में वो मुझे इसी रूप में मिले, लेकिन एक शर्त है कि मेरे अंदर भी उसके जैसा ही प्रेम हो ताकि मैं भी उसको उसी के जैसा प्रेम कर सकूं।

बहरहाल, ये सब कुछ मेरी कल्पनाओं से परे था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि ऐसा भी कभी होगा लेकिन हुआ। उधर नियति का जैसे अभी भी मन नहीं भरा था तो उसने फिर से एक बार कुछ ऐसा किया जो एक बार फिर मेरे लिए कल्पना से परे था। मेरी भाभी को मेरी पत्नी बनाने का खेल रचा नियति ने। वजह, आप सब जानते हैं। माना कि ये एक जायज़ वजह है लेकिन ये भी तो ख़याल रखना चाहिए था कि क्या कोई इतनी आसानी से ये हजम भी कर लेगा? ख़ैर ऐसा लगता है जैसे कुछ सवालों के जवाब ही नहीं होते और अगर होते हैं तो बताए नहीं जाते।

पलंग पर लेटा मैं जाने क्या क्या सोचे जा रहा था। कुछ ही देर में जैसे मैंने अपने जीवन को शुरू से जी लिया था। आज के हालात और आज की तस्वीर बड़ी अजब थी। बहरहाल, जो कुछ भी था उसको क़बूल करना ही जैसे अब सबके हित में था और ये मैं समझ भी चुका था। मैं अपनी भाभी को हमेशा ख़ुश देखना चाहता हूं। अगर उनकी ख़ुशी के लिए मुझे इस हद तक भी गुज़र जाना लिखा है तो यकीनन गुज़र जाऊंगा।




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अध्याय - 156
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सुबह हुई।
नित्य कर्म से फुर्सत होने के बाद हम सब नाश्ता करने बैठे हुए थे। इस बीच मां बड़ी ही खुशदिली से वीरेंद्र से उसके घर वालों का हाल चाल पूछ रहीं थी। हालाकि कल भी वो ये सब पूछ चुकीं थी लेकिन जाने क्यों वो फिर से उससे पूंछे जा रहीं थी। मेनका चाची भी अपने चेहरे पर खुशी के भाव लिए रागिनी भाभी के बारे में पूछने में लगी हुईं थी। सबके बीच मैं ख़ामोशी से नाश्ता कर रहा था। एक तरफ किशोरी लाल भी बैठा नाश्ता कर रहा था। उधर कुसुम का अपना अलग ही हिसाब किताब था। वो भी कुरेद कुरेद कर वीरेंद्र सिंह से रागिनी भाभी के बारे में जाने क्या क्या पूछे जा रही थी। वीरेंद्र सिंह नाश्ता कम और जवाब देने में ज़्यादा व्यस्त हो गया था। मैं मन ही मन ये सोच कर मुस्कुरा उठा कि बेचारे को शांति से कोई नाश्ता भी नहीं करने दे रहा है।

आख़िर सबने वीरेंद्र सिंह पर मानो रहम किया और उसे शांति से नाश्ता करने दिया। नाश्ते के बाद हम सब बैठक में आ गए। बैठक में बैठे हुए हमें अभी थोड़ा ही समय हुआ था कि पिता जी आ गए। महेंद्र सिंह ख़ुद यहां तक उन्हें छोड़ने आए थे। पिता जी ने उन्हें अंदर आने को कहा लेकिन वो ज़रूरी काम का बोल कर वापस चले गए।

पिता जी पर नज़र पड़ते ही हम सब अपनी अपनी कुर्सी से उठ कर खड़े हो गए। उधर पिता जी आए और अपने सिंहासन पर बैठ गए। मैंने नौकरानी को आवाज़ दे कर कहा कि वो पिता जी के लिए पानी ले आए।

"हमें देर तो नहीं हुई ना यहां आने में?" पिता जी ने वीरेंद्र सिंह से मुखातिब हो कर नर्म भाव से कहा____"हमने अपने मित्र महेंद्र सिंह को स्पष्ट शब्दों में कहा था कि सुबह जितना जल्दी हो सके वो हमें हवेली वापस भेजने चलेंगे। ख़ैर नास्था वगैरह हुआ या नहीं?"

"जी अभी कुछ देर पहले ही हुआ है।" वीरेंद्र सिंह ने कहा____"आपका आदेश था कि मैं आपसे मिल कर ही जाऊं इस लिए आपके आने की प्रतीक्षा कर रहा था।"

"बहुत अच्छा किया बेटा।" पिता जी ने कहा____"हमें बहुत अच्छा लगा। ख़ास कर ये सुन कर अच्छा लगा है कि हमारी बहू ने वैभव से विवाह करना स्वीकार कर लिया है। वैसे सच कहें तो हम ख़ुद को अपनी बहू का अपराधी भी महसूस करते हैं। ऐसा इस लिए क्योंकि हमने बिना उससे कुछ पूछे उसके जीवन का इतना बड़ा फ़ैसला कर लिया था और फिर इस विवाह के संबंध में समधी जी से चर्चा भी कर डाली। बस इसी बात को सोच कर हमें लगता है कि हमने अपनी बहू पर ज़बरदस्ती ये रिश्ता थोप दिया है। हमें सबसे पहले उससे ही इस संबंध में पूछना चाहिए था।"

"आप ऐसा न कहें दादा ठाकुर जी।" महेंद्र सिंह ने अधीरता से कहा____"आपने जो भी किया है वो मेरी बहन की भलाई और खुशी के लिए ही किया है। वैसे भी, आपने तो स्पष्ट रूप से यही कहा था कि ये रिश्ता तभी होगा जब रागिनी की तरफ से स्वीकृति मिलेगी अन्यथा नहीं। ऐसे में अपराधी महसूस करने का सवाल ही नहीं पैदा होता।"

तभी नौकरानी पानी ले कर आ गई। उसने पिता जी को पानी दिया जिसे पिता जी ने पी कर गिलास को उसे वापस पकड़ा दिया। नौकरानी चुपचाप वापस चली गई।

"तुम्हें तो सब कुछ पता ही है वीरेंद्र बेटा।" पिता जी ने गंभीरता से कहा____"कि पिछले कुछ महीनों में हमने यहां क्या क्या देखा सुना और सहा है। सच कहें तो इस सबके चलते दिलो दिमाग़ ऐसा हो गया है कि कुछ सूझता ही नहीं है कि क्या करें और कैसे करें? जो गुज़र गए उनका तो दुख सताता ही है लेकिन अपनी बहू का बेरंग जीवन देख के और भी बहुत तकलीफ़ होती है। अब तो एक ही इच्छा है कि हमारी बहू का जीवन फिर से संवर जाए और वो खुश रहने लगे, उसके बाद फिर हमें उस परवरदिगार से किसी भी चीज़ की चाहत नहीं रहेगी।"

"कृपया ऐसा मत कहें आप।" वीरेंद्र सिंह ने अधीरता से कहा____"आप ही ऐसी निराशावादी बातें करेंगे तो उनका क्या होगा जो आपके अपने हैं?"

"जिसके भाग्य में जो होता है उसे वही मिलता है वीरेंद्र।" पिता जी ने गंभीरता से कहा____"कोई लाख कोशिश कर ले किन्तु ऊपर वाले की मर्ज़ी के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सकता। ख़ैर, छोड़ो इन बातों को। हम तुमसे ये कहना चाहते हैं कि हमारी तरफ से हमारी बहू से माफ़ी मांग लेना और उससे कहना कि हमने उससे बिना पूछे उसके जीवन का फ़ैसला ज़रूर किया है लेकिन इसके पीछे हमारी भावना सिर्फ यही थी कि उसका जीवन फिर से संवर जाए और उसकी बेरंग ज़िन्दगी फिर से खुशियों के रंगों से भर जाए। उससे ये भी कहना कि वो इस रिश्ते को स्वीकार करने के लिए ख़ुद को मजबूर न समझे, बल्कि वो वही करे जो करने को उसकी आत्मा गवाही दे। हम उसके हर फ़ैसले का पूरे आदर के साथ सम्मान करेंगे।"

"ये आप कैसी बातें कर रहे हैं दादा ठाकुर जी?" वीरेंद्र सिंह ने चकित भाव से कहा____"कृपया ऐसा न कहें। ये तो मेरी बहन का सौभाग्य है कि उसे आपके जैसे देवता समान ससुर मिले हैं जो उसकी इतनी फ़िक्र करते हैं। दुख सुख तो हर इंसान के जीवन में आते हैं लेकिन दुख दूर करने वाले आप जैसे माता पिता बड़े भाग्य से मिलते हैं। सच कहूं तो मुझे बहुत खुशी हो रही है कि आपने मेरी बहन के बारे में इतना बड़ा फ़ैसला लिया ताकि उसका जीवन जो उमर भर के लिए दुख और तकलीफ़ों से भर जाने वाला था वो फिर से ख़ुशहाल हो जाए।"

"इस वक्त ज़्यादा कुछ नहीं कहेंगे बेटा।" पिता जी ने गहरी सांस ली____"समधी जी से कहना कि किसी दिन हम समय निकाल कर उनसे मिलने आएंगे।"

वीरेंद्र सिंह ने सिर हिलाया। कुछ देर बाद वीरेंद्र सिंह ने जाने की इजाज़त मांगी तो पिता जी ने ख़ुशी से दे दी। वीरेंद्र सिंह ने पिता जी के पैर छुए, फिर मेरे छुए और फिर अंदर मां और चाची के पैर छूने चला गया। थोड़ी देर में वापस आया और फिर हवेली के बाहर की तरफ चल पड़ा। पिता जी भी बाहर तक उसे छोड़ने गए। कुछ ही पलों में वीरेंद्र सिंह अपनी जीप में बैठ कर चला गया।

✮✮✮✮

मैं जब निर्माण कार्य वाली जगह पर पहुंचा तो रूपचंद्र मुझे वहीं मिला। मुझे देखते ही वो मेरे पास आया। उसके चेहरे पर चमक थी। मुझे समझ ना आया कि सुबह सुबह किस बात के चलते उसके चेहरे पर चमक दिख रही है?

"तो रागिनी दीदी तुमसे विवाह करने के लिए राज़ी हो गईं हैं ना?" फिर उसने मुस्कुराते हुए जब ये कहा तो मैं एकदम से चौंक गया।

"तुम्हें कैसे पता चला?" मैंने हैरानी से पूछा।

"कुछ देर पहले मैंने रागिनी दीदी के भाई साहब को जीप में बैठे जाते देखा था।" रूपचंद्र ने बताया____"वो हवेली की तरफ से आए थे और मेरे घर के सामने से ही निकल गए थे। उस दिन तुम्हीं ने बताया था कि जब दीदी इस रिश्ते के लिए राज़ी हो जाएंगी तो उनके राज़ी होने की ख़बर यहां भेज दी जाएगी अथवा कोई न कोई ख़बर देने तुम्हारे पिता जी के पास आएगा। थोड़ी देर पहले जब मैंने दीदी के भाई को देखा तो समझ गया कि रागिनी दीदी तुमसे ब्याह करने को राज़ी हो गई हैं और इसी लिए उनके भाई साहब यहां आए थे। ख़ैर कल तुम भी तो गए थे ना दीदी से मिलने तो क्या हुआ वहां? क्या दीदी से तुम्हारी बात हुई?"

"हां।" मैंने कहा____"पहले तो लगा था कि पता नहीं कैसे मैं उनसे अपने दिल की बात कह सकूंगा लेकिन फिर आख़िरकार कह ही दिया। सच कहूं तो जिन बातों के चलते मैं परेशान था वैसी ही बातें सोच कर वो खुद भी परेशान थीं। बहरहाल, उनसे बातें करने के बाद मेरे मन का बोझ दूर हो गया था।"

"तो अब क्या विचार है?" रूपचंद्र ने पूछा____"मेरा मतलब है कि अब तो दीदी भी राज़ी हो गईं हैं तो अब तुम्हारे पिता जी क्या करेंगे?"

"पता नहीं।" मैंने कहा____"लेकिन इस सबके बीच मुझे एक बात बिल्कुल भी पसंद नहीं आई और वो ये कि इस सबके बारे में हर किसी ने रूपा से छुपाया। जबकि इस बारे में तुम लोगों से पहले उसको जानने का हक़ था।"

"मैं तो उसी दिन उसको सब बता देने वाला था वैभव।" रूपचंद्र ने गहरी सांस ली____"लेकिन तुम्हारे पिता जी का ही ये कहना था कि इस बारे में उसे न बताया जाए, बल्कि बाद में बताया जाए। यही वजह थी कि जब गौरी शंकर काका ने भी मुझे बताने से रोका तो मैं रुक गया। ख़ैर तुमने तो बता ही दिया है उसे और जान भी गए हो कि उसका क्या कहना है इस बारे में। मुझे तो पहले ही पता था कि मेरी बहन को इस रिश्ते से कोई आपत्ति नहीं होगी।"

"आपत्ति हो या ना हो।" मैंने कहा____"लेकिन इस बारे में सबसे पहले उसको ही जानने का हक़ था। क्या अब भी किसी को उसकी अहमियत का एहसास नहीं है? क्या हर कोई उसको सिर्फ स्तेमाल करने वाली वस्तु ही समझता है? मैं मानता हूं कि मैंने कभी उसकी और उसके प्रेम की कद्र नहीं की थी लेकिन अब करता हूं और हद से ज़्यादा करता हूं। जिस शिद्दत के साथ उसने मुझे प्रेम किया है उसी तरह मैं भी उससे प्रेम करने की हसरत रखता हूं। हर रोज़ ऊपर वाले से यही प्रार्थना करता हूं कि मेरे दिल में उसके लिए इतनी चाहत भर दे कि उसके सिवा कोई और मुझे नज़र ही न आए।"

"मुझे यकीन है कि ऐसा ही होगा वैभव।" रूपचंद्र ने अधीरता से कहा____"तुम्हारे मुख से निकले ये शब्द ही बताते हैं कि ऐसा ज़रूर होगा, बल्कि ये कहूं तो ग़लत न होगा कि बहुत जल्द होगा।"

कुछ देर और मेरी रूपचंद्र से बातें हुई उसके बाद मैं विद्यालय वाली जगह पर चला गया, जबकि रूपचंद्र अस्पताल वाली जगह पर ही काम धाम देखने लगा। मैं सबको देख ज़रूर रहा था लेकिन मेरा मन कहीं और भटक रहा था। कभी रूपा के बारे में सोचने लगता तो कभी रागिनी भाभी के बारे में।

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"बिल्कुल सही जवाब दिया आपने महेंद्र सिंह को।" कमरे में पलंग पर दादा ठाकुर के सामने बैठी सुगंधा देवी ने कहा____"उनको अगर अपने बेटे का विवाह कुसुम के साथ करना है तो वो इस बारे में मेनका से ही बात करें। उसके बारे में किसी भी तरह का फ़ैसला करने का ना तो हमें हक़ है और ना ही हम इस बारे में कुछ सोचना चाहते हैं।"

"ये आप क्या कह रही हैं?" दादा ठाकुर के चेहरे पर तनिक हैरानी के भाव उभरे____"उसके बारे में हम नहीं सोचेंगे तो कौन सोचेगा? आख़िर हम उसके अपने हैं।"

"अपने होने का कितना अच्छा सिला मिला है हमें क्या इतना जल्दी आप भूल गए हैं?" सुगंधा देवी ने सहसा तीखे स्वर में कहा____"ठाकुर साहब, आप भी जानते हैं कि हम दोनों ने माता पिता की तरह सबको समान भाव से प्यार और स्नेह दिया था। कभी किसी चीज़ का अभाव नहीं होने दिया और ना ही कभी ये एहसास होने दिया कि इस हवेली में वो किसी के हुकुम का पालन करने के लिए बाध्य हैं। बिना माता पिता के आपने तो संघर्ष किया लेकिन अपने छोटे भाई को कभी किसी संघर्ष का हिस्सा नहीं बनाया, सिवाय इसके कि हमेशा उसे एक अच्छा इंसान बनने को प्रेरित करते रहे। इसके बावजूद हमारी नेकियों, हमारे त्याग और हमारे प्यार का ये फल मिला हमें।"

"अब इन सब बातों को मन में रखने से सिर्फ तकलीफ़ ही होगी सुगंधा।" दादा ठाकुर ने अधीरता से कहा____"हम जानते हैं कि ऐसी बातें दिलो दिमाग़ से इतना जल्दी जाने वाली नहीं हैं। हमारे खुद के दिलो दिमाग़ से भी नहीं जाती हैं लेकिन इसके बावजूद हमें सब कुछ हजम कर के सामान्य आचरण ही करना होगा। इस हवेली के, इस परिवार के सबसे बड़े सदस्य हैं हम। परिवार के मुखिया पर परिवार की सारी ज़िम्मेदारियां होती हैं। मुखिया को हर हाल में अपने परिवार की भलाई के लिए ही सोचना पड़ता है और कार्य करना पड़ता है। अपने सुखों का, अपने हितों का त्याग कर के परिवार के लोगों की खुशियों के लिए कर्म करने पड़ते हैं। गांव समाज के लोग ये नहीं देखते कि किसने क्या किया है बल्कि वो ये देखते हैं कि परिवार के मुखिया ने क्या किया है?"

"ये सब हम जानते हैं ठाकुर साहब।" सुगंधा देवी ने कहा____"और इसी लिए शुरू से ले कर अब तक हम वही करते आए हैं जिसमें सबका भला हो और सब खुश रहें लेकिन इतना कुछ करने के बाद भी अगर हमें ये सिला मिले तो हृदय छलनी हो जाता है।"

"हमारा भी आपके जैसा ही हाल है।" दादा ठाकुर ने कहा____"सच कहें तो इस संसार में अब हमें एक पल के लिए भी जीने की इच्छा नहीं होती लेकिन क्या करें? कुछ कर्तव्य, कुछ फर्ज़ निभाने अभी बाकी हैं इस लिए मन को मार कर बस करते जा रहे हैं। हम ये नहीं चाहते कि लोग ये कहने लगें कि छोटे भाई की मौत के बाद बड़े भाई ने उसके बीवी बच्चों को अनाथ बना कर बेसहारा छोड़ दिया। छोटा भाई तो रहा नहीं इस लिए उनका अच्छा बुरा सोचने वाले अब हम ही हैं और उनको अच्छा बुरा बनाने वाले भी अब हम ही हैं। जब तक हमारे भाई के बच्चों का भविष्य संवर नहीं जाता तब तक हमें एक पिता की ही तरह उनके बारे में सोचना होगा। हम आपसे सिर्फ इतना ही कहना चाहते हैं कि आप अपने मन से सारी पीड़ा और सारी बातों को निकाल दीजिए। जितना हो सके मेनका और उसके बच्चों के हितों के बारे में सोचिए। वैसे भी उसे अपनी ग़लतियों का एहसास है और वो पश्चाताप की आग में झुलस भी रही है तो अब हमें भी उसके प्रति किसी तरह की नाराज़गी अथवा द्वेष नहीं रखना चाहिए।"

"जिन्हें जीवन भर मां बन कर प्यार और स्नेह दिया है उनसे ईर्ष्या अथवा द्वेष हो ही नहीं सकता ठाकुर साहब।" सुगंधा देवी ने गहरी सांस ली____"हां नाराज़गी ज़रूर है जोकि इतना जल्दी नहीं जाएगी। बाकी हर वक्त यही कोशिश करते हैं कि उनको पहले जैसा ही प्यार और स्नेह दें।"

"हम जानते हैं कि आप कभी भी उनके बारे में बुरा नहीं सोच सकती हैं।" दादा ठाकुर ने कहा____"सच कहें तो हमारे जीवन में अगर आप न होती तो हम संघर्षों से भरा ये सफ़र कभी तय नहीं कर पाते। आपने हमारे परिवार को जिस तरह से सम्हाला है उसके लिए हम हमेशा आपके ऋणी रहेंगे।"

"ऐसा मत कहिए।" सुगंधा देवी ने अधीरता से कहा____"ये सब तो हमारा फर्ज़ था, आख़िर ये हमारा भी तो परिवार ही था। ख़ैर ये सब छोड़िए और ये बताइए कि अब बहू के बारे में क्या सोच रहे हैं आप? अब तो उसने हमारे बेटे से विवाह करने की मंजूरी भी दे दी है तो अब आगे क्या करना है?"

"हां मजूरी तो दे दी है उसने।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन ये भी सच है कि उसकी इस मंजूरी में उसकी मज़बूरी भी शामिल है। असल में हमने बहुत ज़ल्दबाज़ी कर दी थी। हमें इस बारे में फ़ैसला करने से पहले उससे भी एक बार पूछ लेना चाहिए था। उसको इतने बड़े धर्म संकट में नहीं डालना चाहिए था हमें।"

"हां ये तो सही कहा आपने।" सुगंधा देवी ने सिर हिला कहा____"ज़ल्दबाज़ी तो सच में की है हमने। वैसे हमने इस बारे में उससे बात करने का सोचा था लेकिन तभी वीरेंद्र आ गए और वो रागिनी को ले गए। उसके कुछ समय बाद आप इस बारे में बात करने रागिनी के पिता जी के पास चंदनपुर पहुंच गए।"

"हमें वहां पर इस बात का ख़याल तो आया था लेकिन वहां पर इस बारे में बहू से बात करना हमें ठीक नहीं लगा था।" दादा ठाकुर ने कहा____"इस तरह की बातें हम अपने सामने उससे यहीं पर करते तो ज़्यादा बेहतर होता। ख़ैर अब जो हो गया उसका क्या कर सकते हैं लेकिन हमने तय किया है कि हम किसी दिन फिर से चंदनपुर जाएंगे और इस बार ख़ास तौर पर अपनी बहू से बात करेंगे। उससे कहेंगे कि हमने उससे बिना पूछे उसके बारे में ये जो फ़ैसला किया है उसके लिए वो हमें माफ़ कर दे। उससे ये भी कहेंगे कि उसको हमारे बारे में सोचने की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है। अगर वो वैभव से विवाह करना उचित नहीं समझती है तो वो बेझिझक इससे इंकार कर सकती है। हम उसका जीवन संवारना ज़रूर चाहते हैं लेकिन उसे किसी धर्म संकट में डाल कर और मज़बूर कर के नहीं।"

"बिल्कुल ठीक कहा आपने।" सुगंधा देवी ने कहा____"उसे ये नहीं लगना चाहिए कि हम ज़बरदस्ती उसके ऊपर ये रिश्ता थोप रहे हैं। ख़ैर तो कब जा रहे हैं आप? वैसे हमारी राय तो यही है कि आपको इसके लिए ज़्यादा समय नहीं लगाना चाहिए।"

"सही कहा।" दादा ठाकुर ने कहा____"वैसे तो हमने वीरेंद्र के द्वारा बहू को संदेश भिजवा दिया है लेकिन एक दो दिन में हम ख़ुद भी वहां जाएंगे।"

"अच्छा एक बात बताइए।" सुगंधा देवी ने सोचने वाले अंदाज़ से पूछा____"आपने महेंद्र सिंह जी को सफ़ेदपोश का सच क्यों बताया?"

"वो इस लिए क्योंकि अगर न बताते तो मित्र से सच छुपाने की ग्लानि में डूबे रहते।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ले कर कहा_____"वो भी सोचते कि एक तरफ हम उन्हें अपना सच्चा मित्र कहते हैं और दूसरी तरफ मित्र से सच छुपाते हैं।"

"तो इस वजह से आपने उन्हें सफ़ेदपोश का सारा सच बता दिया?" सुगंधा देवी ने कहा।

"एक और वजह है।" दादा ठाकुर ने कहा____"और वो वजह ये जानना भी था कि जिनकी बेटी से वो अपने बेटे का विवाह करना चाहते हैं उनके बारे में ये सब जानने के बाद वो क्या कहते हैं? हमारा मतलब है कि क्या इस सच के बाद भी वो अपने बेटे का विवाह कुसुम से करने का सोचेंगे?"

"तो फिर क्या सोचा उन्होंने?" सुगंधा देवी ने पूछा____"क्या इस बारे में उन्होंने कुछ कहा आपसे?"

"ये सच जानने के बाद भी वो अपने बेटे का विवाह कुसुम से करने को तैयार हैं।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन हमने यही कहा कि अब क्योंकि पहले जैसे हालात नहीं रहे इस लिए इस बारे में हम कुछ नहीं कह सकते। अगर वो सच में ये रिश्ता करना चाहते हैं तो वो यहां आ कर लड़की की मां से बात करें।"

"तो क्या लगता है आपको?" सुगंधा देवी ने पूछा____"क्या वो मेनका से रिश्ते की बात करने यहां आएंगे?"

"उन्होंने कहा है तो अवश्य आएंगे।" दादा ठाकुर ने कहा____"वैसे अगर कुसुम महेंद्र सिंह के घर की बहू बन जाएगी तो ये मेनका के लिए अच्छा ही होगा। अच्छे खासे संपन्न लोग हैं वो। एक ही बेटा है उनके तो ज़ाहिर है कुसुम उनके घर की रानी बन कर ही रहेगी। सबसे बड़ी बात ये कि ऐसा होने से वो भी कभी किसी को सफ़ेदपोश का काला सच नहीं बताएंगे। आख़िर रिश्ता होने के बाद बदनामी के डर से वो भी कभी इस सच को उजागर करने का नहीं सोचेंगे।"

"कहते तो आप उचित ही हैं।" सुगंधा देवी ने सोचने वाले भाव से कहा____"लेकिन क्या ज़रूरी है कि वो ऐसा ही करेंगे जैसा कि आप कह रहे हैं? ऐसा भी तो हो सकता है कि वो इस सच को एक ढाल के रूप में स्तेमाल करने का सोच लें। अगर उनके मन में किसी तरह की दुर्भावना आ गई तो उससे वो हमें ही नुकसान पहुंचाने का सोच सकते हैं।"

"होने को तो कुछ भी हो सकता है।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन हमें यकीन है कि वो ऐसी गिरी हुई हरकत करने का नहीं सोच सकते। बाकी जिसकी किस्मत में जो लिखा है वो तो हो के ही रहेगा।"

थोड़ी देर और इसी संबंध में बातें हुईं उसके बाद सुगंधा देवी उठ कर कमरे से बाहर चली गईं। इधर दादा ठाकुर पलंग पर अधलेटी अवस्था में बैठे ख़ामोशी से जाने क्या सोचने लगे थे।




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दादा ठाकुर को महेंद्र सिंह द्वारा जन्मदिन में बुलाने का ये प्रयोजन था कुसुम के रिश्ते की बात करना ये तो बहुत ही अच्छा है
दादा ठाकुर ने महेंद्र सिंह को सफेद नकाबपोश के बारे में बता कर गलत किया है यह कुसुम के लिए गलत हो सकता है
ठाकुर साहब ने सही कहा की शादी का फैसला मेनका का होना चाहिए क्योंकि उन्हें अपने भाई के लिए इतना किया लेकिन बदले में धोका ही मिला
सुगंधा देवी और ठाकुर साहब की मनोदशा एक जेसी ही है रिश्तों में एक बार खटास आ जाती हैं तो एक टीस जीवनभर रहती है वही इन दोनो के साथ हुआ है
 

Innocent_devil

Evil by heart angel by mind 🖤
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Finally ghar aa gaya, Do din ki chhutti le liya hai...ab mast taan kar sounga :yo:
साहब कम से कम रागिनी की शादी और सुहागरात वाला सीन दिखा देते तो चैन आ जाता
 
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