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AailaNice story![]()
Kisi ke hisse me makan aayaUPDATE 4
गांव में हर साल एक मेला लगा करता है जहा पे ठकूरो के कुलदेवी का मंदिर था हर साल वहा पे बंजारे आते थे 10 से 15 दिन के लिए और तभी मेला शुरू हो जाता था गांव। में 10 से 15 दिन तक मेले के चलते पूरा गांव इक्कठा हो जाता था जैसे कोई त्योहार हो गांव वाले वहा जाते झूला झूलते बंजारों से नई नई प्रकार के वस्तु खरीदते साथ ही कुल देवी की पूजा करते थे ठाकुरों के साथ और उस वक्त ठाकुर अपने परिवार के साथ मेले में घूमते फिरते थे लेकिन इस बार गांव वालो की हिम्मत जवाब दे गईं थी कर्ज के चलते
इन सब बातो से अंजान हवेली में अभय के गम में डूबी हुई थी संध्या जिसका फायदा उठा रहा था रमन जो गांव वालो को जमीन को हड़प रहा था कर्ज और ब्याज के नाम पे ताकि डिग्री कॉलेज की स्थापना करवा सके जिसकी स्वीकृति रमन को संध्या से लेनी थी हवेली में गमहीन माहोल के चलते रमन इस बारे में बात नही कर पा रहा था संध्या से
जबकि संध्या अमन का मुंह देख कर जीने लगी थीं, लेकिन हर रात अभय की यादों में आंसू बहाती थी, और ये उसका रोज का रूटीन बन गया था।
और इस तरफ गांव वालों की हर रोज़ मीटिंग होती थीं , की ठाकुराइन से जाकर इस बारे में पूछे की उसने ऐसा क्यूं किया? क्यूं उनकी ज़मीन हड़प ली उसने? पर गांव वाले भी ये समय सही नहीं समझे।
दीन बीतता गया, संध्या भी अब नॉर्मल होने लगी थीं, वो अमन को हद से ज्यादा प्यार करने लगी थीं। हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी ख्वाहिश अमन की यूं ही पूरी हो जाती।
देखते ही देखते महीने सालों में व्यतीत होने लगे,,
एक दिन की बात है हवेली में सब नाश्ते की टेबल पर बैठे थे, अमन के सामने पड़ी प्लेट मे देसी घी के पराठे पड़े थे। जिसे वो बहुत चाव से खा रहा था। और मालती अमन को ही गौर से देख रही थीं, की संध्या कितने प्यार से अमन को अपने हाथों से खिला रही थीं।
अमन --"बस करो ना बड़ी मां, अब नहीं खाया जाता, मेरा पेट भर गया हैं।"
संध्या --"बस बेटा, ये आखिरी पराठा, हैं। खा ले।"
अमन ने किसी तरह वो पराठा खाया, मालती अभि भी उन दोनो को ही देख रही थीं कि तभी उसे पुरानी बात याद आई।
जब एक दिन इसी तरह से सब नाश्ता कर रहे थे, अभय भी नाश्ता करते हुऐ गपागप ४ पराठे खा चुका था और पांचवा पराठा खाने के लिऐ मांग रहा था तब
संध्या – (पराठा देते हुऐ अभय से बोली) और कितना खायेगा तेरा तो पेट नहीं भर रहा हैं।
अभय –(हस्ते हुए) तेरे हाथ के पराठे जितने खाऊं पेट तो भर जाता है लेकिन दिल नही भरता
वो दृश्य और आज के दृश्य से मालती किस बात का अनुमान लगा रही थीं ये तो नहीं पता, पर तभी संध्या की नज़रे भी मालती पर पड़ती हैं तो पाती हैं की, मालती उसे और अमन को ही देख रही थीं।
मालती को इस तरह दिखते हुऐ संध्या बोल पड़ी...
संध्या --"तू ऐसे क्या देख रही हैं मालती? नज़र लगाएगी क्या मेरे बेटे को?
संध्या की बात मालती के दिल मे चुभ सी गई,और फिर अचानक ही बोल पड़ी।
मालती --"नहीं दीदी बस पुरानी बातें याद आ गई थीं, अभय की।
और कहते हुऐ मालती अपने कमरे में चली जाती है। संध्या मालती को जाते हुऐ वही खड़ी देखती रहती है......
मालती के जाते ही, संध्या भी अपने कमरे में चली गई। संध्या गुम सूम सी अपने बेड पर बैठी थीं, उसे अजीब सी बेचैनी हो रही थीं। वो मालती की कही हुई बात पर गौर करने लगी। वो उस दीन को याद करने लगी जब उसने अभय की जम कर पिटाई की थीं। उस दीन हवेली के नौकर भी अभय की पिटाई देख कर सहम गए थे।
बात कुछ यूं थीं की, रमन हवेली में लहू लुहान हो कर अपना सर पकड़े पहुंचा। संध्या उस समय हवेली के हॉल में ही बैठी थीं। संध्या ने जब देखा की रमन के सर से खून बह रहा है, और रमन अपने सर को हाथों से पकड़ा है, तो संध्या घबरा गई। और सोफे पर से उठते हुऐ बोली...
संध्या --" ये...ये क्या हुआ तुम्हे? सर पर चोट कैसे लग गई?
बोलते हुऐ संध्या ने नौकर को आवाज लगाई और डॉक्टर को बुलाने के लिऐ बोली....
संध्या की बात सुनकर रमन कुछ नहीं बोला, बस अपने खून से सने हांथ को सर पर रखे कराह रहा था। रमन को यूं ख़ामोश दर्द में करहता देख, संध्या गुस्से में बोली....
संध्या --"मैं कुछ पूंछ रही हूं तुमसे? कैसे हुआ ये?
"अरे ये क्या बताएंगे बड़ी ठाकुराइन, मैं बताता हूं..."
इस अनजानी आवाज़ ने सांध्य का ध्यान खींचा, तो पाई सामने मुनीम खड़ा था। मुनीम को देख कर रमन गुस्से में चिल्लाया....
रमन --"मुनीम जी, आप जाओ यहां से, कुछ नहीं हुआ है भाभी। ये बस मेरी गलती की वजह से ही अनजाने में लग गया।"
"नहीं बड़ी ठाकुराइन, झूंठ बोल रहे है छोटे मालिक। ये तो आपके...."
रमन --"मुनीम जी... मैने कहा ना आप जाओ।
रमन ने मुनीम की बात बीच में ही काटते हुऐ बोला। मगर इस बार सांध्या ने जोर देते हुऐ कहा....
संध्या --"मुनीम जी, बात क्या है... साफ - साफ बताओ मुझे?"
संध्या की बात सुनकर, मुनीम बिना देरी के बोल पड़ा....
मुनीम --"वो... बड़ी ठाकुराइन, छोटे मालिक का सर अभय बाबा ने पत्थर मार कर फोड़ दीया।"
ये सुनकर संध्या गुस्से में लाल हो गई.…
संध्या --"अभय ने!! पर वो ऐसा क्यूं करेगा?"
मुनीम --"अब क्या बताऊं बड़ी ठाकुराइन, छोटे मालिक और मै बाग की तरफ़ जा रहे थे, तो देखा अभय बाबा गांव के नीच जाति के बच्चों के साथ खेल-कूद कर रहे थे। पता नहीं कौन थे चमार थे, केवट था या पता नहीं कौन से जाति के थे वो बच्चे। यही देख कर छोटे मालिक ने अभय को डाट दिया, ये कहते हुऐ की अपनी बराबरी के जाति वालों के बच्चों के साथ खेलो, हवेली का नाम मत खराब करो। ये सुन कर अभय बाबा, छोटे मालिक से जुबान लड़ाते हुए बोले
अभय – ये सब मेरे दोस्त है, और दोस्ती जात पात नहीं देखती, अगर इनसे दोस्ती करके इनके साथ खेलने में हवेली का नाम खराब होता है तो हो जाए, मुझे कुछ फरक नहीं पड़ता।"
संध्या --"फिर क्या हुआ?
मुनीम --"फिर क्या बड़ी मालकिन, छोटे मालिक ने अभय बाबा से कहा की, अगर भाभी को पता चला तो तेरी खैर नहीं, तो इस पर अभय बाबा ने कहा, अरे वो तो बकलोल है, दिमाग नाम का चीज़ तो है ही नहीं मेरी मां में, वो क्या बोलेगी, ज्यादा से ज्यादा दो चार थप्पड़ मारेगी और क्या, पर तेरा सर तो मै अभी फोडूंगा। और कहते हुऐ अभय बाबा ने जमीन पर पड़ा पत्थर उठा कर छोटे मालिक को दे मारा, और वहां से भाग गए।"
मुनीम की बात सुनकर तो मानो सांध्य का पारा चरम पर था, गुस्से मे आपने दांत की किटकिती बजाते हुऐ बोली...
सांध्य --"बच्चा समझ कर, मैं उसे हर बार नज़र अंदाज़ करते गई। पर अब तो उसके अंदर बड़े छोटे की कद्र भी खत्म होती जा रही है। आज रमन का सर फोड़ा है, और मेरे बारे में भी बुरा भला बोलने लगा है, हद से ज्यादा ही बिगड़ता जा रहा है, आने दो उसे आज बताती हूं की, मैं कितनी बड़ी बकलोल हूं..."
.... भाभी, भाभी... कहां हो तुम, अंदर हों क्या?
इस आवाज़ ने, सांध्य को भूत काल की यादों से वर्तमान की धरती पर ला पटका, अपनी नम हो चुकी आंखो के कोने से छलक पड़े आंसू के कतरों को अपनी हथेली से पोछते हुऐ, सुर्ख पड़ चुकी आवाज़ में बोली...
सांध्य --"हां, अंदर ही हूं।"
बोलते हुऐ वो दरवाज़े की तरफ़ देखने लगी... कमरे में रमन दाखिल हुआ, और संध्या के करीब आते हुऐ बेड पर उसके बगल में बैठते हुऐ बोला।
रमन --"भाभी, मैने सोचा है की, गांव में पिता जी के नाम से एक डिग्री कॉलेज बनवा जाए, अब देखो ना यहां से शहर काफी दूर है, आस - पास के कई गांव के विद्यार्थी को दूर शहरों में जाकर पढ़ाई करनी पड़ती है। अगर हमने अपना डिग्री कॉलेज बनवा कर मान्यता हंसील कर ली, तो विद्यार्थियों को पढ़ाई में आसानी हो जाएंगी।"
रमन की बात सुनते हुऐ, सांध्य बोली.....
संध्या --"ये तो बहुत अच्छी बात है, तुम्हारे बड़े भैया की भी यही ख्वाहिश थीं, वो अभय के नाम पर डिग्री कॉलेज बनाना चाहते थे, पर अब तो अभय रहा ही नहीं, बनवा दो अभय के नाम से ही... वो नहीं कम।से कम मेरे बच्चे का नाम तो रहेगा।"
रमन --"ओ... हो भाभी, तो पहले ही बताना चाहिए था, मैने तो मान्यता लेने वाले फॉर्म पर पिता जी के नाम से भर कर अप्लाई कर दिया। ठीक हैं मैं मुनीम से कह कर चेंज करवाने की कोशिश करूंगा।"
रमन की बात सुनकर संध्या ने कहा...
संध्या --"नहीं ठीक है, रहने दो। पिता जी का नाम भी ठीक है।"
रमन --"ठीक है भाभी, जैसा तुम कहो।"
और ये कह कर रमन जाने लगा तभी... सन्ध्या ने रमन को रोकते हुऐ....
संध्या --"अ... रमन।"
रमन रुकते हुऐ, संध्या की तरफ़ पलटते हुऐ...
रमन --"हां भाभी।"
संध्या --"एक बात पूंछू??"
संध्या की ठहरी और गहरी आवाज़ में ये बात सुनकर रमन एक पल के लिऐ सोच की उलझन में उलझते हुऐ, उलझे हुऐ स्वर मे बोला...
संध्या --"क्या उस रात अभय ने तुम्हे मेरे कमरे में आते देखा था ?
संध्या की ये बात सुन के रमन हड़बड़ा गया उसे हैरानी होने लगी की इतने साल के बाद आज संध्या ऐसी बात क्यों पूछ रही है
रमान -- (अपना थूक निगलते हुए) म..मु..मुझे नहीं लगता भाभी , अभय ने देखा होगा , वैसे भी वो तो 9 साल का बच्चा था भाभी, उसे भला कैसे पता चलेगा? पर आज इतने सालों बाद क्यूं?"
संध्या अपनी गहरी और करुण्डता भरे लहज़े में बोली...
संध्या – उस मनहूस रात के बाद ना जाने क्यूं , मुझे बेचैनी सी होती रहती है, ऐसा लगता है की मेरा दिल भटक रहा है किसी के लिऐ, मुझे पता है की मेरा दिल मेरे अभय के लिऐ भटकता रहता है, मैं खुद से ही अंदर अंदर लड़ती रहती हूं, रात भर रोती रहती हूं, सोचती हूं की मेरा अभय कही से आ जाए बस, ताकी मैं उसे बता सकूं की मैं उससे कितना प्यार करती हूं, माना की मैने बहुत गलतियां की हैं, मैंने उसे जानवरों की तरह पीटा, पर ये सब सिर्फ़ गुस्से में आकर। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई, मैं ये ख़ुद को नहीं समझा पा रही हूं, उसे कैसे समझाती। मैं थक गई हूं, जिंदगी बेरंग सी लगने लगी हैं। हर पल उसे भुलाने की कोशिश करती हूं, लेकिन मेरा दिल मुझसे हर बार कहता है की, मेरा अभय आएगा एक दिन जरूर आएगा तू इंतजार कर ? (रोते हुए) हे भगवान क्या करूं? कहां जाऊं? कोई तो राह दिखा दे तू ? नही तो मेरे अभय को वापस भेज दे मेरे पास
कहते हुऐ सन्ध्या फिर रोने लगती है...!
अब रो कर कुछ हासिल नहीं होगा दीदी,"
इस आवाज को सुन रमन और संध्या ने नज़र उठा कर देखा तो सामने मालती खड़ी थीं, संध्या रुवांसी आंखो से मालती की तरफ़ देखते हुऐ थोड़ी चेहरे बेबसी की मुस्कान लाती हुई संध्या मालती से बोली...
संध्या --"एक मां को जब, उसके ही बेटे के लिऐ कोई ताना मारे तो उस मां पर क्या बीतती है, वो एक मां ही समझ सकती है।"
संध्या की बात मालती समझ गई थीं की सन्ध्या का इशारा आज सुबह नाश्ता करते हुऐ उसकी कही हुई बात की तरफ़ थीं
मालती --"अच्छा! तो दीदी आप ताना मारने का बदला ताना मार कर ही ले रही है।"
संध्या को बात भी मालती की बात समझते देरी नहीं लगी, और झट से छटपटाते हुऐ बोली...
संध्या --"नहीं... नहीं, भगवान के लिऐ तू ऐसा ना समझ की, मैं तुझे ताना मार रही हूं। तेरी बात बिलकुल ठीक थीं, मैने कभी अपने अभय को ज्यादा खाना खाने पर ताना मारी थीं, मेरी मति मारी गई थीं, बुद्धि भ्रष्ट हो गई थीं, इस लिऐ ऐसे शब्द मुंह से निकल रहे थे।"
मालती चुप चाप खड़ी संध्या की बात सुनते हुऐ भावुक हो चली आवाज़ मे बोली...
मालती --"भगवान ने मुझे मां बनने का सौभाग्य तो नहीं दीया, पर हां इतना तो पता है दीदी की, बुद्धि हीन मां हो चाहे मति मारी गई मां हो, पागल मां हो चाहे शैतान की ही मां क्यूं ना हो... अपने बच्चे को हर स्थिति में सिर्फ प्यार ही करती है।"
कहते हुऐ मालती रोते हुए अपने कमरे से चली जाति है... और इधर मालती की बातें संध्या को अंदर ही अंदर एक बदचलन मां की उपाधि के तख्ते पर बिठा गई थीं, जो संध्या बर्दाश्त नहीं कर पाई।।
और जोर - जोर से उस कमरे में इस तरह चिल्लाने लगी जैसे पागल खाने में पागल व्यक्ति...
संध्या – ..... हां.... हां मैं एक गिरी हुई औरत हूं, यही सुनना चाहती है ना तू, लेकिन एक बात सुन ले तू भी, मेरे बेटे को मुझसे ज्यादा कोई प्यार नहीं कर सकता है इस दुनिया में...
मालती – अब क्या फ़ायदा दीदी, अब तो प्यार करने वाला रहा ही नहीं... फिर किसको सुना रही हो?"
चिल्लाती हुई संध्या की बात सुनकर मालती भी चिल्लाकर कमरे से बाहर निकलते हुई बोली और फिर वो भी नम आंखों के साथ अपने कमरे में चली गई....इस बीच इन सब बातो के चलते रमन को वहा रुकना खतरे से खाली न लगा इसीलिए चुप चाप कमरे से पहले ही निकल गया रमन
संध्या रोते रोते जाने लगी अपने कमरे की तरफ लेकिन तभी अपने कमरे में ना जाके अभय के कमरे की तरफ चली गई अभय के कमरे को गौर से देखने लगी तभी संध्या की नजर टेबल पर पड़ी जहा अभय पढ़ाई करता था टेबल में रखी अभय की स्कूल की किताबो को देख इसे टेबल की दराज में रखने के दराज को खोलते ही संध्या की नजर पेंटिंग पर पड़ी उसे दराज से नकलते ही संध्या पेंटिंग को देखने लगी हर पेंटिंग के नीचे कुछ लाइनें लिखी थी अभय ने
1 = पेंटिंग
रिश्तों की इस किताब में, माँ-बाप का पन्ना सबसे खास,
उनके बिना ज़िंदगी लगे बिल्कुल उदास।
वो छांव हैं, तपते सूरज में आराम जैसे,
माँ की वो एक नजर, और पापा का वो एक नाम जैसे।
2 = पेंटिंग
ज़िन्दगी में मां बाप के सिवा कोई अपना नहीं होता,
टूट जाए ख्वाब तो सपना पूरा नहीं होता,
ज़िंदगी भर पूजा करूगा अपने मां बाप की ,
क्यों की मां बाप से बड़ा भगवान नहीं होता।
3 = पेंटिंग
तेरे साथ गुजरे लम्हे ही तो
अब मेरे जीने का सहारा है
तुझे कैसे बताऊं बाबा
तेरी यादों का हमें हर हिस्सा प्यारा है बाबा
4 = पेंटिंग
माता पिता के बिना दुनिया की हर चीज कोरी हैं, दुनिया का सबसे सुंदर संगीत मेरी माँ की लोरी हैं..!!
5 = पेंटिंग
जिस के होने से मैं खुद को मुक्कम्मल मानता हूँ, मेरे पिता के बाद मैं बस अपने माँ को जानता हूँ..!!
6 = पेंटिंग
दिल में दर्द सा होता है आँखें ये भर-भर जाती हैं, माँ तेरे साथ बिताये पलों की यादें मुझे जब जब आती हैं।
अभय की बनाई आखरी तस्वीर में सूखे हुए आसू का कतरा देख समझ गई संध्या की तस्वीर बनाते वक्त अभय रो रहा था साथ उसमे लिखी कविता को पड़ के संध्या जमीन में बैठ तस्वीरों को अपने सीने से लगाए रोते रोते बोलने लगी
संध्या – लौट आ लौट आ मेरे बच्चे , तेरी मां तेरे बिना बिल्कुल अधूरी हो गई है , तू जो सजा दे दे सब मंजूर है मुझे , बस एक बार तू लौट के आजा अभय , तुझे कबी नही रोकूगी चाहे कुछ भी कर तू
रोते रोते संध्या जमीन में सो गईं
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जारी रहेगा![]()
Good job very nice n awesome mind blowing updateUPDATE 8
वो लड़का रास्ते पर चलते चलते गांव को देखने लगा
लड़का – आज भी वही खुशबू जो बरसों पहले आया करती थी खेतो की वही सड़क वही आम का बगीचा कुछ भी नही बदला सिवाय इस सेल फोन टावर के सिवा कुछ भी नया नहीं है यहां जाने मेरे अपने मुझे आज भी पहचान पाएंगे की नही (मुस्कुराते हुए रास्ते पर चलने लगा चलते हुए कई जगहों से गुजरा जहा उसने देखा खेल कूद का मैदान को देख मुस्कुराते हुए आगे बड़ा और फिर आई नदी जिसे देख हसने लगा)
अंत में सड़क के तीन मोहाने पर पहुंच कर उसके सामने अमरूद का बड़ा सा बगीचा नजर आया उसे देखते ही उसने अपना बैग सड़क पे रख दिया और पेड़ के सामने जाके खड़ा होगया उस पेड़ पे हाथ रख के जैसे कुछ याद करने लगा और तभी उसकी नीली आखों से आसू की एक बूंद निकल आई
लड़का – (हल्की मुस्कुराहट के साथ) बहुत पुराना याराना है तुझसे मेरा बरसों के बाद भी भूले से भी नही भूला मैं तुझे (इतना बोलते ही जाने कैसा गुस्सा आया उसने तुरंत एक पंच उस पेड़ में मार दिया पांच पड़ते ही पेड़ में हल्की दरार आगयी साथ ही उस लड़के को भी हाथ में खरोच लग गई उसके बाद वो लड़का वापस आया रास्ते की तरफ आते ही झुक के जैसे ही अपना बैग उठाया तभी पीछे से कार के हॉर्न के आवाज आई जिसे सुन के
लड़का –(हस्ते हुए) आ गई मेरी ठकुराइन (बोल के कार की तरफ पलट गया)
जी हा ये कार संध्या ठाकुर की थी जो इस वक्त ललिता और मालती के साथ हवेली को लौट रही थी
वो लड़का अपने कदम उस कार की तरफ बढ़ाते हुए नजदीक पहुंचा। और कार के कांच को अपनी हाथ की उंगलियों से खटखटाया कांच निचे होते ही उसके कानो में एक आवाज गूंजी...
संध्या –"कौन हो तुम? कहा जाना है तुम्हे?
और तभी संध्या उस लड़के की नीले आखों को गौर से देखने लगी संध्या उसकी आखों को खो सी गई थी की तभी
मालती – कौन है दीदी?"
एक और आवाज ने उस लड़के के कानो पर दस्तक दी। वो देख तो नहीं सका की किसकी आवाज है, पर आवाज से जरूर पहेचान गया था की ये आवाज किसकी है। पर इससे भी उस लड़के को कोइ फर्क नही पड़ा।
संध्या --"एक लड़का है, कहा जाना है तुम्हे? नए लगते हो इस गांव में
लड़का –(संध्या की बात सुन मुस्कुरा के बोला) मुझे तो आप नई लगती है इस गांव में मैडम नही तो मुझे जरूर पहेचान लेती। मैं तो पुराना चावल हूं इस गांव का। और आप... आप तो इस गांव की बदचलन...आ...मेरा मतलब बहुत ही उच्च हस्ती की ठाकुराइन है। हजारों एकड़ की जमीन है। और आपका नाम मिस संध्या सिंह है। जो बी ए तक की पढ़ाई की है, और वो भी नकल कर कर के पास हुई है। नकल करने वाला कोई और नहीं बल्कि आपके पतिदेव ठाकुर मनन सिंह जी थे। क्या इतना काफी है मेरे गांव का पुराना चावल होने का की कुछ और भी बताऊं।"
संध्या के कान में ऐसी फड़फड़ाती हुई जैसे चिड़िया उड़ गई हो और मुंह खुला का खुला साथ ही आंखो और चेहरे पर आश्चर्य के भाव वो आंखे फाड़े लड़के को बस देखती रह गई...और उस लड़के ने जब संध्या के भाव देखे तो, उसने कांच के अंदर हाथ बढ़ाते हुए संध्या के आंखो के सामने ले जाकर एक चुटकी बजाते हुए...
लड़का --"कहा खो गई आप मैडम? आपने कहीं सच तो नही मान लिया? ये मेरी आदत है यूं अजनबियों से मजाक करने की।"
संध्या होश में तो जरूर आती है, पर अभी भी वो सदमे में थी में थी। पीछे सीट पर बैठी मालती, ललिता का भी कुछ यूं ही हाल था। तीनो को समझ में नहीं आ रहा था की, ये सारी बाते इस लड़के को कैसे मालूम? और ऊपर से कह रहा है की ये मजाक था। संध्या का दिमाग काम करना बंद हो गया था,।
संध्या --" ये...ये तुम मजाक कर ...कर रहे थे?
लड़का --(मन ही मन गुस्से के साथ होठो से मुस्कुरा कर बोला) मैडम कुछ समझा नहीं, आप क्या बोल रही है? वर्ड रिपीट मत करिए, और फिल्मों के जैसा डायलॉग तो मत ही बोलिए, साफ साफ स्पष्ट शब्दों में पूछिए।"
संध्या --"मैं कह रही थी की, क्या तुम सच में मजाक कर रहे थे?"
लड़का --"मैं तो मजाक ही कर रहा था, मगर अक्सर मेरे जानने वाले लोग कहते है की , मेरा मजाक अक्सर सच होता है।"
संध्या , ललिता और मालती अभि भी सदमे में थे। तीनो लड़के के चेहरे को गौर से देख रही थी, पर कुछ समझ नहीं पा रही थी। बस किसी मूर्ति की तरह एकटक लड़के को देखे जा रही थी।
लड़का --"मुझे देख कर हो गया हो तो, कृपया आप मुझे ये बताएंगी की , ठाकुर परम सिंह इंटरमीडिएट कॉलेज के लिए कौन सा रास्ते पर जाना होगा?"
तिनों के चेहरे के रंग उड़े हुए थे, पर तभी संध्या ने पूछा...
संध्या --"नए स्टूडेंट हो ?"
लड़का – (मुस्कुरा के) ये कोई टूरिस्ट प्लेस तो है नही जो कंधे पर बैग रख कर घूमने आ जायेगा कोई।" जाहिर सी बात है मैडम आज से कॉलेज स्टार्ट हुए है तो, इस गांव में स्टूडेंट ही आयेंगे ना।
संध्या --"बाते काफी दिलचस्प करते हो।"
लड़का --"अब क्या करू मैडम , जब सामने इतनी खूबसूरत औरत हो तो दिलचस्पी खुद ब खुद बढ़ जाती है।, वैसे (सीरियस होके) मेरा नाम अभय है। अच्छा लगा आपसे मिलकर संध्या जी।"
ये नाम सुनते ही, पीछे बैठी ललिता और मालती फटक से दरवाजा खोलते हुए गाड़ी से नीचे उतर जाति है। और बहार खड़े अभि को देखने लगती है। संध्या की तो मानो जुबान ही अटक गई हो, गला सुख चला। तीनो के चहरे की हवाइयां उड़ चुकी थी, और संध्या का चेहरा तो देखन लायक था , इस कदर के भाव चेहरे पर थे किं शब्दों में बयां करना नामुमकिन था।
अभय –(मन में) अभि तो शुरुवात है मेरी ठाकुराइन आगे ऐसे ऐसे झटके दूंगा सबको की, झटको को भी झटका लग जायेगा।
अभय --"क्या बात है मैडम, कब से देख रहा हूं,बोल कुछ नही रही हो, सिर्फ गिरगिट की तरह चेहरे के रंग बदल रही हो बस। लगता है इस चीज में महारत हासिल है आपको
संध्या सच में गहरी सोच में पड़ गई थी, वो कुछ समझ नहीं पा रही थी , उसका सिर भी दुखने लगा था। वो कार के अंदर बैठी होश में आते हुए बोली...
संध्या --"आ जाओ बैठो , मैं तुम्हे...हॉस्टल तक छोड़ देती हूं।"
अभय --"ये हुई न काम की बात
फिर (अभय कार में बैठ जाता है)
ललिता और मालती भी सदमे में थी। तो वो भी बिना कुछ बोले कार में बैठ गई। कर हॉस्टल की तरफ चल पड़ी। संध्या चला तो रही थी कार, पर उसका ध्यान पूरा अभय पर था। वो बार बार अभय को अपनी नज़रे घुमा कर देखती । और ये बात अभय को पता थी..
अभय --"मैडम अगर मुझे देख कर हो गया हो तो, प्लीज आगे देख कर गाड़ी चलाए, नही तो अभि अभि जवानी में कदम रखा है मैने, बिना कच्छी कली तोड़े ही शहीद ना हो जाऊ,।
ये सुनकर संध्या के चेहरे पर मुस्कान फैल गई। उसके गोरे गुलाबी गाल देख कर अभय बोला...
अभि --"लगता है खूब बादाम और केसर के दूध पिया है आपने?"
संध्या --(ये सुनकर बोला) क्यूं? तुम ऐसे क्यूं बोल रहे हो"
अभि --"नही बस आपके गुलाबी गाल देख कर बोल दिया मैने, वैसे भी इतनी बड़ी जायदाद है, आपकी बादाम और केसर क्या चीज है आपके लिए।"
संध्या --(अभय की बात सुनकर कुछ सोचते हुए बोली) क्यूं क्या तुम्हारी मां तुम्हे बादाम के दूध नही पिलाती है क्या?"
अभय –(ये सुन कर जोर से हंसने लगा) हाहाहाहाहा हाहाहाहाहा कॉन जन्म देने वाली मां हाहाहाहाहा
संध्या --(अभय को इस तरह हंसता देख संध्या आश्चर्य के भाव में बोली) क्या हुआ कुछ गलत पूंछ लिया क्या और मैं कुछ समझी नहीं, जन्म देने वाली तो मां ही होती है।"
अभि --"इसी लिए आपको बि ए कि डिग्री के लिए नकल करना पड़ा था। मैडम, खैर छोड़ो वो सब , तुम जन्म देने वाली मां की बात कर रही थी ना। तो बात ये है की अगर मेरी मां का बस चलता तो बादाम और केसर वाली दूध की जगह जहर वालीं दूध दे देती। थोड़ा समय लगा पर मैं समझ गया था (गुस्से में) इस लिए तो मैं अपनी मां को ही छोड़ कर भाग गया था घर से
संध्या --(झटके से कार को ब्रेक लगा के बोली) अपनी मां को छोड़ कर भाग गए तुम लेकिन ये... ये ...ये भी तो हो सकता है की तुम्हे अपनी मां को समझने में भूल हुई हो।"
अभय–(संध्या की बात सुनकर, मन ही मन मुस्कुरा के) बिल्कुल सही लगा मेरा दाव बस एक और दाव और फिर गुस्से में बोला) पहेली बार सुन रहा हूं की, एक बच्चे को भी अपनी मां को समझना पड़ता है , तुम्हे इतनी भी अकल नही है की मां बेटे का प्यार पहले से ही समझा समझाया होता है।"
अभय –(कहते हुए जब संध्या की तरफ देखा तो उसकी आंखो से आसुओं किंधरा फुट रही थी। ये देख कर अभय हैरान हुआ और मन में बोला) ये तो सच में रोती है यार
संध्या – अगर तुम्हे बुरा ना लगे तो कुछ पूछ सकती हूं
अभय --"नही, कुछ मत पूछो, तुमने ऑलरेडी ऐसे सवाल पूछ कर हद पार कर दी है। मैं यह पढ़ने आया हूं, और मै नही चाहता की मेरा दिमाग फालतू की बात में उलझे।"
संध्या – नही मैं ये कहना चाहती थी की, अगर तुम्हे हॉस्टल में तकलीफ हो तो , मेरे साथ रह सकते हो।"
अभय --"जब 9 साल की उम्र में घर छोड़ा था , तब तकलीफ नहीं हुई तो अब क्या होगी? तकलीफों से लड़ना आता है मुझे मैडम मैं दो रोटी में ही खुश हु, आपकी हवेली के बादाम और केसर के दूध मुझे नही पचेगा। और वैसे भी तुम्हारा कोई बेटा नहीं है क्या? उसे खिलाओ पराठे देसी घी के भर भर के ।"
संध्या खुद खुद को संभाल नहीं पाई और कार से रोते हुए बाहर निकल जाति है...
ये देख कर अभय भी गुस्से में अपना बैग उठता है और कर से बाहर निकल कर अपने हॉस्टल की तरफ चल पड़ता है, अभय को बाहर जाते देख, खामोश बैठी मालती की भी आंखो में आसुओं की बारिश हो रही थी, वो बस अभय को जाते हुए देखती रहती है.....
पर अभय एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखता...
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जारी रहेगा
साथ में एक रिक्वेस्ट है सबसे की प्लीज अब कोई भी जल्दी अपडेट देने की बात मत करना क्यों की कल मॉर्निंग से मैं काम।में बिजी हो जाएगा
अभी मैं 3 से 4 दिन के लिए फ्री था इसलिए कंटीन्यू अपडेट दिया मैने
.bulandiyo to pasti ka haal behtar hai tere orooj se mera zawal behtar hai aur issi fareeb me sadiyaa guzaar di humne guzasta saal se shayad ye behtar hai
अपडेट आएगा लेकिन 2 से 3 दिन में