UPDATE 9
अभय के जाते ही कुछ देर बाद जब संध्या पलटी देखा वहा अभय कहीं नहीं है संध्या समझ गई की अभय चला गया है अपने आसू पोच कार में बैठते ही स्टार्ट करके निकल गई हवेली की ओर रास्ते भर संध्या के चेहरे पे हल्की मुस्कान के साथ आखों में हल्की नामी थी जैसे खुशी में होती है
अभय –कमाल है बचपन में जैसे छोर के गया था आज भी बिल्कुल वैसी की वैसी है मेरी ठकुराइन जाने क्यू उसे देख के सुकून तो मिला लेकिन गुस्सा आगया मुझे (हस्ते हुए) अच्छे तरीके से रुला दिया अपनी ठकुराइन को कोई बात नही मेरी ठकुराइन अभी तो शुरुवात है अभी तो बहोत कुछ शुरू होना बाकी है मेरी ठकुराइन
तूने कितना झेला है ये मैं नहीं जानता
लेकिन मैंने जितना झेला है
ये मेरा दिल जनता है
हॉस्टल की ओर चलते चलते रास्ते भर में अभय खुद से बाते करते हुए जा रहा था हॉस्टल आते ही उसने अपने हाथ की घड़ी को देखी जिसमे अभी 11:30 हो रहे थे
अभय –यार बहुत थक गया हूं रात भी काफी हो गई है आराम कर लेता हूं आज
इतना बोलते ही अभय हॉस्टल में जाने लगा के तभी उसके नजर हॉस्टल से थोड़ी दूर वाले खेत पर पड़ी। जहां कुछ आदमी काम कर रहे थे, वो उस खेत में फावड़ा लेकर खुदाई कर रहे थे। ये देख कर ना जाने अभय को क्या हुआ, इसके चेहरे पर गुस्से के भाव उमड़ पड़े।
अभय – (भागते हुए वहा पहुंचा जिस खेत में खुदाई हो रही थी गुस्से में बोला) ऐ रुक, क्या कर रहा है तू ? ये पेड़ क्यूं काट रहा है? तुझे पता नही की हरे भरे पेड़ को काटना किसी के मर्डर करने के बराबर है।"
अभय की गुस्से में भरी भारी आवाज को सुनकर, वहा काम कर रहे सभी मजदूर सकते में आ गए, और अभय को अजीब नजरो से देखने लगे। उन मजदूरों में से एक आदमी , जो शायद वह खड़ा हो कर काम करवा रहा था वो बोल...
आदमी – ओ छोरे, क्यूं हमारा समय खोटी कर रहा है। तुझे पता नही की यहां एक डिग्री कॉलेज बनना है। और हम उसी की नीव खोद रहे है। अब जाओ यहां से, पढ़ाई लिखाई करो, और हमे हमारा काम करने दो।
अभय --(उसकी बात सुन बहुत गुस्से में बोला) अबे तुम लोग पागल हो गए हो क्या? ये सारी ज़मीन उपजाऊं है। कोई ऊसर नही जो कोई भी आएगा और खोद कर डिग्री कॉलेज खड़ा कर देगा। अब अगर एक भी फावड़ा इस धरती पर पड़ा, कसम से बोल रहा हूं, जो पहला फावड़ा चलाएगा, उसके ऊपर मेरा दूसरा फावड़ा चलेगा।
अभय की गुस्से से भरी बात सुनकर, वो सब मजदूर एक दूसरे का मुंह देखने लगते है, अपने मजदूरों को यूं अचंभित देखकर वो काम करवाने वाला आदमी बोला...
आदमी – ऐ खोदो रे तुम लोग अरे छोरे, जा ना यहां से, क्यूं मजाक कर रहा है?
अभय –(फावड़ा उठा के) मैने सोच लिया है जिसने भी पहला फावड़ा मारा तो उसके सर पे दूसरा फावड़ा पड़ेगा मेरा और क्या कहा तुमने मजाक मत कर तो चल आज तुझे बताऊंगा मजाक कैसे सच होता है
अभि की बात सुनते ही, उन मजदूरों के हाथ से फावड़ा छूट गया, ये देखकर वो आदमी गुस्से में बोला...
आदमी – तुम सब पागल हो गए क्या? ये छोरा मजाक की दो बातें क्या बोल दिया तुम लोग तो दिल पर ले लिए।
अभय – अबे ओ तूने तो नही लिया ना अपने दिल में क्यों की तुझे तो मजाक लग रही है बात मेरी चल तू ही उठा ले फावड़ा
आदमी – (अभय की निडरता देख डर से अपना बैग उठाते हुए बोला) बहुत चर्बी चढ़ी है ना तुझे, रुक अभि मालिक को लेकर आता हूं, फिर देखना क्या होता है?
अभय – अबे रुक मेरी चर्बी निकालना प्यादो की बस की बात नही है इसलिए रानी को भेज ना
आदमी –( अभय की ऐसी बात ना समझ ते हुए) क्या मतलब
अभय – अबे जाके ठकुराइन को लेके आ समझा निकल
वहा खड़ा एक मजदूर अभय की बेबाक बाते ध्यान से सुन रहा था। जैसे ही काम करवाने वाला आदमी हवेली के लिए भागा। वो मजदूर भी चुपके से वहा से गांव की तरफ बढ़ा.....
इधर गांव का एक झुंड, सरपंच के घर पर एकत्रित थी। सरपंच कुर्सी लगा कर उन गांव वालो के सामने बैठा था।
सरपंच --"देखो मंगलू, मुझे भी दुख है इस बात का। पर अब कुछ नही हो सकता, ठाकुर साहब से बात की मैने मगर कुछ फायदा नहीं हुआ। अब उन खेतो पर कॉलेज बन कर ही रहेगा, अब तो मान्यता भी मिल गई है डिग्री की।
मंगलू --(बेबसी से बोला) नही देखा जा रहा है मालिक, वो सिर्फ खेत ही नही, हमारा और हमारे परिवार का पेट भरने वाला अन्न का खजाना है, सब कुछ है हमारे लिए, उन खेतो में फावड़ा सिर्फ अनाज उगाने के लिए पड़ते थे मालिक, मगर आज जब उन्ही खेतों में फावड़ा पड़ रहे है कालेज बनाने के लिए तो, ऐसा लग रहा है वो फावड़ा हमारी किस्मत पर पड़ रहा है। कुछ तो करिए मालिक!
सरपंच --(गुस्से में कुर्सी से उठ के बोला) तुम सब को एक बार बोलने पर समझ नही आता क्या? बोला ना अब कुछ नही हो सकता। जब देखो मुंह उठा कर चले आते है...
तभी वो आदमी भागते भागते गांव तक के मुखीया की घर की तरफ आ गया।
इधर गांव वालो से बात करके सरपंच अपने घर के अंदर जाने के लिए मुड़ा....
और गांव वाले हांथ जोड़े इसी आस में थे की शायद कुछ होगा , मगर सरपंच की बात सुनकर उन लोगो का दिल पूरी तरह से टूट गया और जमीन पर बैठे हुए गांव के वो भोले भाले लोग, निराश मन से उठे और अपने घर की तरफ जाने के लिए मुड़े ही थे की किसी की आवाज आई उनको...
मंगलू काका.... मंगलू काका....
गांव वालो ने देखा की गांव का एक आदमी मंगलू का नाम लेते हुए भागा चला आ रहा है। ये देख कर गांव वाले थोड़ा चकित हो गए, और आपस में ही बड़बड़ाने लगी...
अरे ई तो कल्लू है, ऐसा कहे चिल्लाते हुए भागे आ रहा है?
मंगलू -- अरे का हुआ, कल्लू? तू इतनी तेजी से कहे भाग रहा है? का बात है?
कल्लू --(अपनी उखड़ी हुई सासो को काबू करते हुए बोला) वो खेतों... खेतों में खुदाई...खुदाई...
मंगलू --(दबे मन से) हा पता है कल्लू, पर अब कुछ नही हो सकता, खेतो की खुदाई अब नही रुकेगी।
कल्लू –( चिल्लाते हुए बोला) काका...खुदाई रुक गई... ई ई ई है...
कल्लू की ये बात से गांव वालो के शरीर में सिरहन पैदा हो गई...
आश्चर्य से कल्लू की तरफ देखते हुए, अपनी आंखे बड़ी करते हुए सब गांव वालो में अफरा तफरी मच गई, घर के अंदर जा रहा सरपंच भी कल्लू की वाणी सुनकर सकते में आ गया। और पीछे मुड़ते हुए कल्लू की तरफ देखते हुए बोला...
सरपंच --(चौक के) क्या खुदाई रुक गई, पागल है क्या तू?
कल्लू --"अरे सच कह रहा हूं सरपंच जी, एक 17 , 18 साल का लौंडा, आकर खुदाई रुकवा दी। कसम से बता रहा हूं सरपंच जी, क्या लड़का है? एक दम निडर, ऐसी बाते बोलता है की पूछो मत। अरे वो गया है अपना कॉन्ट्रैक्टर ठाकुर के पास, ठाकुर को बुलाने।
सरपंच के साथ साथ गांव वालो के भी होश उड़ गए थे, सब गांव वालो में खलबली मच गई, और उस लड़के को देखने के लिए सारा झुंड उस खेतों की तरफ़ टूट पड़ा। फिर क्या था? औरते भी पीछे कहा रहने वाली थी, वो लोग भी अपना घूंघट चढ़ाए पीछे पीछे चल दी।
वहा पर खड़ा राज और उसके दोस्त भी इस बात से हैरान थे। राज भी अपने दोस्त के साथ साइकल पर बैठ कर चल दिया, पर गांव वालो की भीड़ जो रास्ते पर चल रही थी, उसकी वजह से राज और उसके दोस्तो की सायकिल क्रॉस नही हो पा रहा था। राज के अंदर , बहुत ज्यादा उत्सुकता थी उस जगह पहुंचने की, मगर रास्ता तो जाम था। इस पर वो थोड़ा चिड़चिड़ाते हुऐ आगे चल रही औरतों को चिल्लाते हुए बोला...
राज --"अरे देवियों, तुम लोगों का वहा क्या काम, सगाई गीत नही गाना है, जो सिर पर घूंघट ताने चल दिए...
अजय की बात सुनकर, एक औरत अजय की तरफ घूमती हुई अपनी सारी का पल्लू जैसे ही हटती है...
राज – अम्मा तू भी।
अम्मा –"हा, जरा मैं भी तो देखूं उस छोरे को, जो ना जाने कहा से हमारे लिए भगवान बनकर आ गया है, और ठाकुर के लिए शैतान।
राज – वो तो ठीक है अम्मा, पहले इन भैंसो को थोड़ा साइड कर हम लोगो को जाने दे।
राज की बात सुनकर, गांव की सभी औरते रुक गई और राज की तरफ मुड़ी...और वो औरते कुछ बोलने ही वाली थी की, राज को एक गली दिखी...
राज – अबे उस गली से निकल राजू...जल्दी नही तो भैंसे अटैक कर देंगी।
और कहते हुए वो औरतों को चिढ़ाने लगा पर तब तक राज , लल्ला और राजू ने गली में साइकिल मोड़ दी थी...
औरत – सच बता रही हूं गीता दीदी, अगर तुम्हरा छोरा गांव का चहेता नही होता ना, तो बताती इसे।
दोसर औरत – हाय री दईया, इसको तो कुछ बोलना भी हमको खुद को बुरा लगता है।
गीता देवी – अरे मुन्नी...हमारे बेटे की तारीफ बाद में कर लियो, अभि तो अपने पैर जरा तेजी से चला। इस छोरे को देखने को दिल मचल रहा है, कौन है वो? कहा से आया है? और कहे कर रहा है ये सब?
इस तरफ हवेली में जैसे ही संध्या की कार दस्तक देती है। संध्या कार से नीचे उतरती हुई, अपने नौकर भानु से बोली...
संध्या --"भानु, तू अंदर आ जल्दी।
संध्या की बात और कदमों की रफ्तार देख कर मालती और ललिता दोनो थोड़े आश्चर्य रह गई, और वो दोनो भी संध्या के पीछे पीछे हवेली के अंदर चल दी। संध्या हवेली में घुस कर सोफे के आगे पीछे अपना हाथ मलते घूमने लगी...
संध्या --(जोर से चिल्ला के) भानु....
भानु –आया मालकिन....
भानु करीब - करीब भागते हुए हवेली के अंदर पहुंचा।
भानू -- जी कहिए मालकिन।
संध्या -- सुनो भानू अपने हॉस्टल में एक लड़का आया है। तो आज से तुम उस हॉस्टल में ही रहोगे और उसे जिस भी चीज की जरूरत पड़ेगी, वो हर एक चीज उसे मिल जानी चाहिए।
भानू --"जी मालकिन
संध्या -"ठीक है, जाओ और रमिया को भेज देना।
ये सुनकर भानू वहा से चला जाता है। मलती बड़े गौर से संध्या को देख रही थी, पर संध्या का ध्यान मालती की तरफ नही था। संध्या ना जाने क्या सोचते हुए इधर उधर बस हाथ मलते हुए चहल कदमी कर रही थी, उसे देख कर ऐसा लग रहा था मानो किसी चीज की छटपटाहट में पड़ी है। तभी वहां पर रमिया भी आ गई।
रमिया --"जी मालकिन, आपने बुलाया हमको?
संध्या -- (रमिया के आते ही झट से बोली) हां सुन रमिया, आज से तू हर रोज सुबह और शाम हॉस्टल में जायेगी, और वहा पर जो एक नया लड़का आया है, उसके लिए खाना बनाना है। और हां याद रखना खाना एकदम अच्छा होना चाहिए। समझी।
रमिया --जैसा आप कहे मालकिन।
संध्या की हरकते बहुत देर से देख रही मालती अचानक हंस पड़ी, मलती को हंसते देख संध्या का ध्यान अब जाकर मालती पर पड़ा...
संध्या -- बस मलती मैं इस पर कुछ बात नही करना चाहती। मुझे पता है तुम्हारी हंसी का कारण क्या है? पर...
मालती –पर...पर क्या दीदी?
मलती ने संध्या की बात बीच में ही काटते हुए बोली...
मलती --"कही आपको ये तो नहीं लग रहा की, वो अभय है? वैसे भी आपकी बेताबी देख कर तो यही समझ आ रहा है मुझे। दीदी आपने शायद उस लड़के को ध्यान से परखा नही, वो लड़का जरा हट के है। कैसी कैसी बातें बोल रहा था देखा नही आपने? बिलकुल निडर, सच कहूं तो अगर वो अभय होता तो, तो तुम्हे देखते ही भीगी बिल्ली बन जाता। पर ऐसा हुआ नहीं, उसने तो आपको ही भीगी बिल्ली बना दीया, हा... हा... हा।
संध्या -- देखो मालती, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं, मुझे बक्श दो बस।
मलती -- क्या हुआ दीदी? मैने ऐसा क्या कह दिया? जो देखा वही तो बोल रही हूं। चलो एक पल के लिए मान भी लेते है की, वो अभय है। तो आपको क्या लगता है, नौकरों को भेज कर उसकी देखभाल करा कर क्या साबित करना चाहती हो आप? आप ये सब करोगी और आप को लगता है, वो पिघलकर मां.. मां... मां करते हुए आपके गले से लिपट जायेगा। इतना आसान नहीं है दीदी। मैं ख़ुद भगवान से दुआ कर रही हूं की ये हमारा अभय ही हो, पर एक बात याद रखना अगर ये हमारा अभय हुआ, तो एक बात पर गौर जरूर करना की, वो घर छोड़ कर भागा था, और आपको पता है ना की घर छोड़ कर कौन भागता है? वो जिसे उस घर में अपने सब बेगाने लगते है। अरे वो तो बच्चा था, जब भागा था। ना जाने कैसे जिया होगा, किस हाल में रहा होगा। कितने दिन भूखा रहा होगा? रोया होगा, अपनो के प्यार के लिए तड़पा होगा। अरे जब उस हाल में वो खुद को पाल लिया, तो आज अपना ये दो टके का प्यार दिखा कर, सब कुछ इतनी आसानी से ठीक करना चाहती हो।
मलती की बात संध्या के दिल को चीरते हुए उसकें दिल में घुस गई.....संध्या की आंखे से आशुओं की धारा रुक ही नही रही थी।
संध्या -- मैं कुछ ठीक नहीं करना चाहती, और...और ये भी जानती हूं की ये इतना आसान नहीं है। मैं वही कर रही हूं जो मेरे दिल के रहा है।
मलती -- ये दिल ही तो है दीदी, कुछ भी कहता रहता है। वो लड़का थोड़ा अलबेला है, पहेली मुलाकात में ही कैसा घाव कर गया....
कहते हुए मालती अपने कमरे की तरफ चल देती है, और संध्या रोते हुए धड़ाम से सोफे पर गिर जाती है.....
संध्या अपने आप में टूट सी गई थी, वो कुछ भी नही समझ पा रही थी की, वो क्या करे ? और क्या न करे?उसकी आंखो से बह रहे आंसुओ को समझने वाला कोई नहीं था। कोई था भी, तो वो था सिर्फ उसका दिल।
कहने को लोग कहेंगे की संध्या के साथ जो हो रहा है सही हो रहा है इसकी जिम्मेदार वो खुद है
लेकिन क्या सच में एसा होता है क्या सच में ताली एक हाथ से ही बजती है बिल्कुल भी नही
खेर
सोफे पर बैठी रो रही संध्या, बार बार गुस्से में अपने हाथ को सोफे पर मारती। शायद उसे खुद पर गुस्सा आ रहा था। पर वो बेचारी कर भी क्या सकती थी? रोती हुई संध्या अपने कमरे में उठ कर जा ही रही थी की, वो कॉन्ट्रैक्टर वहा पहुंच गया...
कॉन्ट्रैक्टर – नमस्ते मालकिन
संध्या एक पल के लिए रुकी पर पलटी नही, वो अपनी साड़ी से बह रहे अपनी आंखो से अंसुओ को पहले पोछती है , फिर पलटी...
संध्या -- अरे सुजीत जी, आप यहां, क्या हुआ काम नहीं चल रहा है क्या कॉलेज का?
सुजीत -- अरे ठाकुराइन जी, हम तो अपना काम ही कर रहे थे। पर न जाने कहा से एक छोकरा आ गया। और मजदूरों को काम करने से रोक दिया।
संध्या -- ये क्या बात कर रहे हो सुजीत जी, एक छोकरा ने आकर आप लोगो से मजाक क्या कर दिया, आप लोग डर गए?
सुजीत -- मैने भी उस छोकरे से यही कहा था ठाकुराइन, की क्या मजाक कर रहा है छोकरे? तो कहता है, अक्सर मुझे जानने वालों को लगता है की मेरा मजाक सच होता है। फिर क्या था मजदूरों के हाथ से फावड़ा ही छूट गया, क्यूंकि उसने कहा था की अगर अब एक भी फावड़ा इस खेत में पड़ा तो दूसरा फावड़ा तुम लोगो के सर पर पड़ेगा।
उस कॉन्ट्रैक्टर की मजाक वाली बात पर संध्या का जैसे ही ध्यान आया यही मजाक वाली बात अभय ने भी संध्या को कही थी। तभी कुछ सोच के संध्या झट से बोल पड़ी...
सांध्य -- आ...आपने कुछ किया तो नही ना उसे?
सुजीत --अरे मैं क्या करता ठाकुराइन? वो नही माना तो, मैने उसको बोला की तू रुक अभि ठाकुर साहब को बुला कर लाता हूं।
संध्या – अच्छा फिर, उसने क्या कहा?
सुजीत -- अरे बहुत ही तेज मालूम पड़ता है वो ठाकुराइन, बोला की रानी को बुला कर ला, ये प्यादे मेरा कुछ नही बिगाड़ पाएंगे।
ये सुनकर, संध्या के चेहरे पर ना जाने क्यूं बड़ी सी मुस्कान फैल गई, जिसे उस कॉन्ट्रैक्टर ने ठाकुराइन का चेहरा देखते हुए बोला...
सुजीत -- कमाल है ठाकुराइन, कल का उस छोकरे ने आपका काम रुकवा दिया, और आप है मुस्कुरा रही है।
कॉन्ट्रैक्टर की बात सुनकर, संध्या अपने चेहरे की मुस्कुराहट को सामान्य करती हुई कुछ बोलने ही वाली थी की...
अरे, सुजीत जी आप यहां। क्या हुआ काम शुरू नही किया क्या अभि तक?
ये आवाज सुनते ही, कॉन्ट्रैक्टर और संध्या दोनो की नजरे उस आवाज़ का पीछा की तो पाए की ये रमन सिंह था।
सुजीत -- काम तो शुरू ही किया था ठाकुर साहब, की तभी न जाने कहा से एक छोकरा आ गया, और काम ही रुकवा दिया।
ये सुनकर रमन के चेहरे पर गुस्से की छवि उभरने लगी...
रमन -- क्या!! एक छोकरा?
सुजीत -- हां, ठाकुर साहब,, इसी लिए तो मैं ठाकुराइन के पास आया था।
रमन -- इसके लिए, भाभी के पास आने की क्या जरूरत थी? मुझे फोन कर देते, मैं मेरे लट्ठहेर भेज देता। जहा दो लाठी पड़ती , सब होश ठिकाने आ जाता उसका जा...
संध्या –(गुस्से में चिल्ला के) जबान को संभाल के रमन...
संध्या गुस्से में रमन की बात को बीच में ही काटते हुए बोली। जिसे सुनकर रमन के चेहरे के रंग बेरंग हो गए। और असमंजस के भाव में बोला।
रमन -- भाभी, ये क्या कह रही हो तुम?
संध्या -- (चिल्ला के) मैं क्या कह रही हूं उस पर नही, तुम क्या कह रहे हो उस पर ध्यान दो। तुम मेरे... आ..आ..एक लड़के को बिना वजह लट्ठहेरो से पिटवावोगे। अब यही काम बचा है तुम्हारा।
रमन -- (चौकते हुए झट से बोला) बिना वजह, अरे वो छोकरा काम रुकवा दिया, और तुम कह रही हो की बिना वजह।
संध्या -- हां, पहले चल कर पता तो करते है, की उसने आखिर ऐसा क्यूं किया। समझाएंगे उसे, हो सकता है मान जायेगा। लेकिन तुम सीधा लाठी डंडे की बात करने लगे। ये अच्छी बात नहीं है रमन समझे। चलो सुजीत जी मै चलती हूं।
फिर संध्या कॉन्ट्रैक्टर के साथ, हवेली से बाहर जाने लगती है। एक पल के लिए तो रमन अश्र्याचकित अवस्था में वही खड़ा रहा, लेकिन जल्द ही वो भी उन लोगो के पीछे पीछे चल पड़ा...
गांव की भरी भरकम भीड़ उस खेत की तरफ आगे बढ़ रही थी। और एक तरफ से ठाकुराइन भी अपनी कार में बैठ कर निकल चुकी थीं। जल्द दोनो पलटन एक साथ ही उस खेत पर पहुंची। संध्या कार से उतरते हुए गांव वालो की इतनी संख्या में भीड़ देख कर रमन से बोली...
संध्या -- ये गांव वाले यहां क्या कर रहे है?
संध्या की बात सुनकर और गांव वालो की भीड़ को देख कर रमन को पसीने आने लगे। रमन अपने माथे पर से पसीने को पोछत्ते हुए बोला...
रमन -- प...पता नही भाभी, व...वही तो देख कर मैं भी हैरान हूं।
संध्या अब आगे बढ़ी और उसके साथ साथ कॉन्ट्रैक्टर और रमन भी।
रमन –(मन में) ये गांव वाले यहां क्या कर रहे है कही संध्या को देख अपनी जमीन की बात छेड़ दी तो सारा प्लान चौपट हो जाएगा मेरा क्या करो कुछ समझ नही आ रहा है मुझे
इधर नजदीक पहुंचने पर संध्या को, अभय दिखा। जो अपने कानो में इयरफोन लगाए गाना सुन रहा था। और अपनी धुन में मस्त था। अभय को पता ही नही था की, पूरी गांव के साथ साथ ठाकुराइन और रमन ठाकुर भी आ गए थे।
जबकि गांव वालो ने अभय को देखा तो देखते ही रह गए। वही राज और उसकी मां गीता की नजरे अभय के ऊपर ही थी। पर अभय अपनी मस्ती में मस्त गाने सुन रहा था।
रमन -- वो छोकरे, कौन है तू? और काम क्यूं बंद करा दिया?
अभय अभि भी अपनी मस्ती में मस्त गाने सुनने में व्यस्त था। उसे रमन की बात सुनाई ही नही पड़ी। ये देख कर रमन फिर से बोला...
रमन -- वो छोरे.....सुनाई नही दे रहा है क्या?
राज -- (हस्ते हुए रमन से) अरे क्या ठाकुर साहब आप देख नही रहे हो की उसने अपने कान में इयरफोन लगाया है। कैसे सुनेगा?
ये सुनकर सब गांव वाले हंसने लगे, ठाकुराइन भी हस पड़ी। ये देख कर रमन गुस्से में आगे बढ़ा और अभय के नजदीक पहुंच कर उसके कान से इयरफोन निकालते हुए बोला...
रमन -- यहां नाटक चल रहा है क्या? कौन है तू? और काम रुकवाने की तेरी हिम्मत कैसे हुई?
रमन की तेज तर्रार बाते संध्या से बर्दाश ना हुई... और वो भी गुस्से में बड़ते हुए बोली...
संध्या -- रमन! पागल हो गए हो क्या, आराम से बात नहीं कर सकते हो क्या। बस अब तुम चुप रहोगे समझे मैं बात करती हूं।
रमन को शॉक पे शॉक लग रहे थे। वो हैरान था, और समझ नही पा रहा था की आखिर संध्या इस लड़के के लिए इतनी हमदर्दी क्यूं दिखा रही है। ये सोचते हुए रमन वापस संध्या के पास आ गया।
इधर गीता देवी अपने बेटे राज की मजाक वाली बात के चलते उसके पास गई ।
गीता देवी –(कान पकड़ के धीरे से) क्यों रे ठकुराइन के सामने तू रमन ठाकुर का मजाक बना रहा है जनता है ना कितनी परेशानी झेलनी पड़ रहे है हम इसके चलते , अब तू कुछ मत बोलना समझा मैं बात करती हो ठकुराइन से
ये बोल के गीता देवी जाने लगी अकेली खड़ी संध्या के पास उसने बात करने की तभी संध्या अपने आप से कुछ बोले जा रही थी जिसे गीता देवी ने सुन लिया
संध्या –(धीरे से अपने आप से बोलते हुए) जब से तुझे मिली हूं मेरी दिल की धड़कन यहीं कहे जा रही है तू अभय है मेरा अभय है ना जाने क्यों तेरे सामने आते ही मैं पिघल जा रही हू चाह के भी कुछ बोल नहीं पा रही हू लेकिन मेरा दिमाग बार बार बस एक सवाल कर रहा है मुझसे अगर ये मेरा अभय है तो वो जंगल में मिली लाश किसकी थी मैंने उस लाश को देखा तक नहीं था हे भगवान तू कुछ रास्ता दिखा मुझे क्या ये मेरा अभय है की सच में तूने एक मां के तड़पते दिल की आवाज सुन के इसे भेजा है कोई तो रास्ता दिखा या कोई तो इशारा कर मुझे ही भगवान
अभय – मैडम, थोड़ा जल्दी बोलो, रात भर सोया नही हूं नींद आ रही है मुझे।
संध्या –(अभय के आवाज से अपनी असलियत में आके हिचकिचाते हुए बोली) म... म..में कह रही थी की, ये काम तुमने क्यूं रुकवा दिया?
ठाकुराइन की हिचकिचाती आवाज किसी को रास नहीं आई, गांव वाले भी हैरान थे , की आखिर ठाकुराइन इतनी सहमी सी क्यूं बात कर रही है जबकि संध्या के बगल में खड़ी गीता देवी ठकुराइन की पहले वाली बात सुन के बस लगातार अभय को ही देखे जा रही थी
जबकि इस तरफ सब से ज्यादा चकित था रमन सिंह, वो तो अपनी भाभी का नया रूप देख रहा था। मानो वो एक प्रकार से सदमे में था। अभय बात तो कर रहा था ठाकुराइन से, मगर उसकी नजरे गांव वालों की तरफ थी। लेकिन उसकी नजरे किसी को देख ढूंढ रही थी शायद, गांव के बुजुर्ग और अधेड़ को तो उसके सब को पहेचान लिया था। पर अभी भी उसके नजरो की प्यास बुझी नही थी, शायद उसकी नजरों की प्यास बुझाने वाला उस भीड़ में नही था। इस बात का एहसास होते ही अभय , संध्या से बोला...
अभय --भला, मेरी इतनी हिम्मत कहां की, मैं ये काम रुकवा सकूं। मैं तो बस इन मजदूरों को ये हरे भरे पेड़ो को कटने से मना किया था। और वैसे भी, आप ही समझिए ना इन्हे ये, अच्छी खासी उपजाऊ जमीन पर कॉलेज बनवा कर, इन बेचारे किसानों के पेट पर लात क्यूं मार रहे है?
अभय की प्यार भरी मीठी सी आवाज सुन कर, संध्या का दिल खुशी से झूम रहा था। और इधर गांव वाले भी अभय को उनके हक में बात करता देख इसे मन ही मन दुवाएं देने लगे थे। पर एक सख्श था। जिसके मन में अधियां और तूफ़ान चल रहा था। और वो था रमन, उसकी जुबान तो कुछ नही बोल रही थी, पर उसका चेहरा सब कुछ बयां कर रहा था। की वो कितने गुस्से में है।
संध्या -- मैं भला, किसानों के पेट पर लात क्यूं मारने लगी। ये गांव वालो ने ही खुशी खुशी अपनी जमीनें दी है, कॉलेज बनवाने के लिए।
ठाकुराइन का इतना बोलना था की, वहा खड़ा मंगलू अपने हाथ जोड़ते हुए झट से बोल पड़ा...
मंगलू -- कैसी बात कर रही हो मालकिन, हमारा और हमारे परिवार का पेट भरने का यही तो एक मात्र सहारा है। हां माना की हम गांव वालो ने आपसे जो कर्जा लिया था, वो अभी चुका नही पाए। पर इसके लिए आपने हमारी जमीनों पर कॉलेज बनवाने लगी, ये तो अच्छी बात नहीं है ना मालकिन, अगर थोड़ा सा और समय दे दीजिए मालकिन, हम अपना पूरा अनाज बेच कर के आपके करके चुका देंगे।
ये बात सुनके ठाकुराइन हड़बड़ा गई, इस बात पर नही की ये गांव वाले क्या कर रहे है? बल्कि इस बात पर , की गांव वाले जो भी कर रहे है, उससे अभय उसके बारे में कुछ गलत न सोच ले। एक बात तो तय थी, की अब संध्या अभय को अपने बेटे के रूप में देखने लगी थी। भले उसे अभी यकीन हुआ हो या नहीं। वो झट से घबराहट में बोली...
संध्या -- (हैरानी से) ये कैसी बाते कर रहे हो तुम मंगलू? मैने कभी तुम सब से पैसे वापस करने की बात नहीं की। और पैसों के बदले ज़मीन की बात तो मै कभी सपने में भी सोच नही सकती...
ये सब वहा खड़ा अभय ध्यान से सुन रहा था। और जिस तरह गांव वाले बेबस होकर हाथ जोड़े अपने घुटनों पर बैठे थे , ये देख कर तो अभय का माथा ठनक गया। उसे संध्या पर इतना गुस्सा आने लगा।
अभय –( मन में) जरूर इसी ने किया है ये सब, और अब गांव वालो के सामने इसकी बेइज्जती न हो इस लिए पलटी खा रही है, वैसे इस औरत से उम्मीद भी क्या की जा सकती है? ये है ही एक कपटी औरत।
अभय -- कमाल है मैडम, क्या दिमाग लगाया है, हजार रुपए का कर्जा और लाखो की वसूली, ये सही है।
इतना कह कर अभय वहा से चल पड़ता है..., संध्या को जिस बात का डर था वही हुआ। अभय ने संध्या को ही इसका जिम्मेदार ठहराया। और ये बात संध्या के अंदर चिड़चिड़ापन पैदा करने लगी...और वहा से जाते हुए अभी के सामने आकर खड़ी हो गई। संध्या को इस तरह अपने सामने देख कुछ बोलने जा रहा था की तभी...
संध्या --(अभय का हाथ पकड़ के) तू किसकी चाहे उसकी कसम खिला दे मैं... मैं सच कह रही हूं, ये सब मैने नही किया है।
अभय --(संध्या का हाथ झटक के) आपने क्या किया है, क्या नही? उससे मुझे कोई लेना देना नही है, मैं यहां आया था इन हरे भरे पेड़ों को कटने से बचाने के लिए बस। आप लोगो का नाटक देखने नही।
कहते हुए अभय वहा से चला जाता है। संध्या का दिल एक बार फिर रोने लगा। वो अभी वही खड़ी अभय को जाते हुए देख रही थी। लेकिन जल्द ही अभय गांव वालो और संध्या की नजरों से ओझल हो चुका था।
संध्या --(अभय की ऐसी बेरुखी और गांव वालो को बात से संध्या को सबसे जाड़ा गुस्सा आया रमन पे जाते हुए रमन से बोली) रमन, ये काम अभी के अभी रोक दो। अब यहां कोई कॉलेज नही बनेगा। और हां तुम हवेली आकार मुझसे मिलो मुझे तुमसे कुछ बात करनी है।
इतना कह कर संध्या वहा से चली गई...
इतना सब कुछ होने पर रमन के होश तो छोड़ो उसकी दुनियां ही उजड़ती हुई दिखने लगी उसे।