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Fantasy Aryamani:- A Pure Alfa Between Two World's

nain11ster

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krish1152

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Devilrudra

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भाग:–171


तीन माह बाद आर्यमणि साधना पूर्ण कर अपनी आंखें खोला। आर्यमणि का दिमाग पूर्ण रूप से व्यवस्थित हो चुका था। उसे वशीकरण से पहले और उसके बाद का पूरा ज्ञान था। योगियों के समक्ष अपने हाथ जोड़कर उन्हे आभार व्यक्त करने लगा। योगियों ने न सिर्फ आर्यमणि का आभार स्वीकार किया बल्कि अपना क्षेत्र रक्षक भी घोषित कर दिया। आर्यमणि खुशी–खुशी वहां से विदा लेकर अंतर्ध्यान हो गया।

आर्यमणि वहां से अंतर्ध्यान होकर सीधा राजधानी पहुंचा। भव्य से महल के द्वार पर आर्यमणि खड़ा था, और वहां के बनावट को बड़े ध्यान से देख रहा था.... “इतने ध्यान से क्या देख रहे हैं जमाई बाबू?”... पीछे से आर्यमणि की सास, यानी की महाती की मां ज्योत्सना पूछने लगी।

आर्यमणि, उनके पाऊं छूते..... “कुछ नही मां, इस भवन के अलौकिक बनावट को देख रहा था। इस महल में लगा हर पत्थर जैसे अपना इतिहास बता रहा हो।”...

ज्योत्सना:– हां ये बेजान से पत्थर अपनी कहानी हर पल बयान करते है। भले ही अपने पर्वत से अलग हो गये हो, पर हर पल अपनी गुण और विशेषता से यह जाहिर कर जाते है कि वह किस बड़े से साख का हिस्सा थे और इस दुनिया में क्या करने आये थे।

आर्यमणि:– हां आपने सही कहा मां... किस बड़ी साख का हिस्सा थे और दुनिया में क्या करने आये हैं।

ज्योत्सना:– लंबी साधना के बाद एक बार फिर बाल और दाढ़ी बढ़ आया है। मै मेक अप आर्टिस्ट को यहीं बुलवा दूं क्या?

आर्यमणि:– नही मां, मैं करवा लूंगा। आप किस हिचक में है वो बताईये?

ज्योत्सना:– तुम मन के अंदर की दुविधा को भांप जाते हो, क्यों? अब जब सीधे पूछ लिये हो तो मैं भी बिना बात को घुमाए कह देती हूं... पाप मेरे पति ने किया और सजा सभी रिश्तेदार भुगत रहे। घर से हर वर्ष एक लाश निकल रही है। हो सके तो इसे रोक लो..

आर्यमणि:– हम्मम आपने तो मुझे दुविधा में डाल दिया है मां। क्या जो आपके पति विजयदर्थ ने किया, उसके लिये मैं उन्हे क्षमा कर दूं?

ज्योत्सना:– मैने सुना है तुम भी एक बहुत बड़े साख, सात्त्विक आश्रम का हिस्सा हो। संसार के जिस हिस्से में रहते हो, अपने कर्म से सबको बता जाते हो की तुम किस बड़े साख के हिस्से हो और दुनिया में क्या करने आये हो। मै अपने पति के लिये माफी नही चाहती, बस वो लोग जो उनके श्राप के कारण मर रहे, उन्हे रोकना चाहती हूं।

आर्यमणि:– आप मेरी मां ही है। आपकी बात मैं टाल नही सकता। मै आपके पति को मार भी नही सकता क्योंकि मैं नही चाहता एक झटके में उसे मुक्ति मिले। ऐसे में आप बताएं मैं क्या करूं?

ज्योत्सना:– मेरे पति जिस कारण से इतने धूर्त हो चुके है, उनसे वो करण ही छीन लो। इस से बड़ी सजा क्या होगी। उन्हे राजा के पद से हटाकर राजधानी से निष्काशित कर दो।

आर्यमणि:– इसके लिये तो पहले नए राजा की घोषणा करनी होगी और माफ कीजिएगा विजयदर्थ के एक भी बच्चे उस लायक नही।

ज्योत्सना:– क्यों महाती भी नही है क्या?

आर्यमणि:– हम दोनो का विवाह होना नियति थी। जो हो गया उसे मैं बदल तो नही सकता, किंतु जब महाती की नियति मुझसे जुड़ चुकी है फिर आगे उसके किस्मत में ताज नही। आपके पास और कोई विकल्प है अन्यथा मैं विजयदर्थ को उसके श्राप के साथ छोड़ जाऊंगा। इस से बेहतरीन सजा तो मैं भी नही दे सकता था।

ज्योत्सना:– मेरे पास विकल्पों की कमी नही है। मै बिना किसी पक्षपात के सिंहासन के योग्य के नाम बताऊंगी। पहला सबसे योग्य नाम महाती ही थी। किंतु यदि वह सिंहासन का भार नहीं लेती तब दूसरा सबसे योग्य नाम यजुरेश्वर है। बौने के राज घराने का कुल दीपक। चूंकि विजयदर्थ और उसके पीछे की तीन पीढ़ियों ने अपने स्वार्थी स्वभाव के कारण राज सिंहासन के योग्यता के लिये इतनी लंबी–चौड़ी रेखा खींच चुके है कि बौनो के समुदाय ने खुद को सिंहासन के लायक ही समझना छोड़ दिया।

आर्यमणि:– हम्मम, यजुरेश्वर... ठीक है मैं इस इंसान की छानबीन करने के बाद बताता हूं। अभी आपकी आज्ञा हो तो मैं जरा अपने बच्चे से मिल लूं.....

ज्योत्सना:– मैं भी अपने नाती के पास ही जा रही थी... चलो साथ चलते है।

आर्यमणि और उसकी सास दोनो साथ में ही महाती से मिलने पहुंच गये। आर्यमणि को देख महाती प्यारी सी मुस्कान बिखेरते.... “आप कब लौटे पतिदेव”...

आर्यमणि अपना ध्यान अपने बच्चे पर लगाते... “अभी थोड़े समय पहले ही पहुंचा हूं।”

ज्योत्सना दोनो के बीच से अपनी नाती को हटाते.... “तुम दोनो आराम से बातें करो जबतक मैं इस सैतान को घुमाकर लाती हूं।”..

ज्योत्सना के जाते ही उस कमरे में बिलकुल खामोशी पसर गयी। न तो आर्यमणि को कुछ समझ में आ रहा था कि क्या कहे और न ही महाती अपने संकोच से बाहर निकल पा रही थी। कुछ देर दोनो ही खामोशी से नीचे तल को देखते रहे। महाती किसी तरह संकोच वश धीमी सी आवाज में कही.... “सुनिए”..

आर्यमणि, अपनी नजरे जहां जमाए था वहीं जमाए रखा। महाती की आवाज सुनकर बिना उसे देखे.... “हां..”..

महाती:– अब क्या मुझसे इतनी नफरत हो गयी कि मेरे ओर देखे बिना ही बात करेंगे...

आर्यमणि, फिर भी बिना महाती को देखे जवाब दिया.... “तो क्या मुझे नफरत नहीं होनी चाहिए। तुम मेरी मानसिक मनोस्थिति जानती थी, फिर भी मुझसे विवाह की।”..

महाती:– शायद मैं आपके नफरत के ही लायक हूं। ठीक है आपका जो भी निर्णय होगा वह मैं खुशी–खुशी स्वीकार लूंगी...

आर्यमणि:– वैदिक मंत्र पढ़े गये थे। 5 योगियों ने मिलकर हमारा विवाह तय किया था, इसे न स्वीकारने की हिम्मत मुझमें नहीं। थोड़ा वक्त दो मुझे...

महाती २ कदम आगे आकर आर्यमणि का हाथ थामते.... “आप मेरे हृदय में भगवान की तरह थे। आपसे शादी का निर्णय लेना आसान नही था। एक ओर दिल गुदगुदा रहा था तो दूसरे ओर आपके सम्मोहन में होना उतना ही खटक रहा था। मै शादी से साफ इंकार कर चुकी थी, परंतु नियति कुछ और ही थी। आपके साथ इतना लंबा वक्त बिता। आपके साथ इतने प्यार भरे पल संजोए। मै शायद भूल भी चुकी थी कि आपका सम्मोहन जब टूटेगा तब क्या होगा? शायद मैं आज के वक्त की कल्पना नहीं करना चाहती थी। और आज देखिए शादी के इतने साल बाद मेरे पति ही मेरे लिये अंजान हो गये।”...

आर्यमणि:– मैं तुम्हारे लिये अंजान नही हूं महा। बस सम्मोहन टूटने के बाद तुम मेरे लिये अंजान सी हो गयी हो। ये शादी मुझे स्वीकार है, बस थोड़ा वक्त दो।

महा:– यदि आपकी शादी आपके माता पिता की मर्जी से हुई होती। वही परंपरागत शादी जिसमे लड़का और लड़की अंजान रहते है तो क्या आप ऐसी बातें करते? जब शादी स्वीकार है तो मुझे भी स्वीकार कीजिए। जब मेरे करीब ही रहना नहीं पसंद करेंगे, जब मुझे देखेंगे ही नही, तो मैं कैसे आपको पसंद आ सकती हूं?

आर्यमणि:– तुम जिस दिन मेरी दुविधा समझोगी... खैर उस दिन शायद तुम मेरी दुविधा समझो ही नही। मै क्या कहूं कुछ समझ में ही नही आ रहा।

महाती एक कदम और आगे लेती अपना सर आर्यमणि के सीने से टिकाती..... “मैं जानती हूं आपके हृदय में रूही दीदी है, जिस वजह से आपको ये सब धोखा लग रहा है। आप इतना नही सोचिए। पहले भी आपने मुझमें रूही दीदी को देखा था, आगे भी मुझे उसी नजर से देखते रहिए। आपके पग–पग मैं साथ निभाती रहूंगी। आपके जीवन में स्त्री प्रेम की जगह को पूरा भर दूंगी।”

आर्यमणि, अपनी नजरे नीची कर महाती से नजरें मिलाते..... “महा तुम्हारा प्रेम–भाव अतुलनीय है। लेकिन कुछ वर्ष शायद तुम्हे मुझसे दूर रहना पड़े।”

महाती:– ऐसे अपनेपन से बात करते अच्छे लगते हैं जी। आप मेरी और अन्यंस की चिंता नही कीजिए। दीदी (रूही) और परिवार के हर खून का बदला आप ऐसे लेना की दोबारा कोई हमारे परिवार को आंख उठा कर न देख सके। लेकिन उन सब से पहले घर की बड़ी बेटी को ढूंढ लाओ। अमेया को मैं अपने आंचल तले बड़ी करूंगी।

आर्यमणि:– हम्म्म ठीक है, काम शुरू करने से पहले अमेया तुम्हारे पास होगी। मै आज तुम्हारे और अन्यांस के साथ पूरा समय बिताऊंगा। उसके बाद कल मैं पहले नाग लोक की भूमि पर जाऊंगा, उसके बाद कहीं और।

महाती खुशी से आर्यमणि को चूम ली। उसकी आंखों में आंसू थे और बहते आंसुओं के साथ वह कहने लगी..... “आप मेरी खुशी का अंदाजा नहीं लगा सकते। मां अम्बे की कृपा है जो आपने मुझसे मुंह न मोड़ा”..

आर्यमणि:– पूरे वैदिक मंत्रों के बीच 5 तपस्वी ने हमारा विवाह करवाया था। तुम्हे छोड़ने का अर्थ होता अपना धर्म को छोड़ देना।

महाती पूरी खुश थी। अपनी खुशी में वो मात्र राजधानी ही नही, बल्कि समस्त महासागर में चल रहे काम से सबको छुट्टी दे दी। कैदियों के प्रदेश से लगभग 10 लाख कैदियों को उनके ग्रह पर छोड़ दिया गया। अगले एक दिन तक दोनो साथ रहे और एक दूसरे के साथ काफी प्यारा वक्त बिताया। इस पूरे एक दिन में आर्यमणि, विजयदर्थ को भी सजा देने का ठान चुका था।

यूं तो विजयदर्थ के संदेश पूरे दिन मिलते रहे किंतु आर्यमणि उस से मिलना नही चाहता था। महासागर को छोड़ने से पहले विजयदर्थ और आर्यमणि आमने–सामने थे और पूरी सभा लगी हुई थी। सभा में महाती के अलावा विजयदर्थ के बचे हुये 3 बेटे और एक बेटी भी मौजूद थी। उन सबकी मौजूदगी में आर्यमणि ने साफ–साफ शब्दों में कह दिया....

“यदि विजयदर्थ बौने समुदाय के यजुरेश्वर को राजा बनाते है तथा उसके राजा बनने के उपरांत वह अपनी कुल धन संपत्ति छोड़, अपने परिवार के साथ राजधानी छोड़कर किसी अन्य जगह साधारण नागरिक का जीवन शुरू करते है। तो ही मैं विजयदर्थ को उसके किये के लिये माफ करूंगा।”..

एक राजा से उसकी गद्दी छीन ली। एक राज परिवार से उसकी कुल धन संपत्ति छीनकर, उसे आम लोगों की तरह गुमनामी में जीने की सजा दे डाली। ये तो विजयदर्थ के लिये हर वर्ष अपनो के लाश देखने से भी बड़ी सजा थी। किंतु जुबान तो जुबान होती है, जो विजयदर्थ ने योगियों को दिया था... “आर्यमणि जो भी सजा देगा मंजूर होगा।”... और दिल पर पत्थर रखकर विजयदर्थ और उसके पूरे परिवार ने इस प्रस्ताव पर सहमति जता दिया।

विदा लेने पहले आर्यमणि एक बार अपने बच्चे अन्यांस को गोद में लिया और महाती से कुछ औपचारिक बाते की। नागलोक के भू–भाग पर जाने के लिये उसकी सवारी भी पहुंच चुकी थी, जिसे आर्यमणि वर्षों बाद देख रहा था। चहकीली नजरों के सामने थी और पहले के मुकाबले उसका शरीर काफी विकसित भी हो चुका था। हां लेकिन शारीरिक विकास के साथ–साथ चहकीली की भावना भी पहले जैसी नहीं दिखी। वह बिलकुल खामोश और शांत थी।

आर्यमणि यूं तो तल पर ही खड़ा था, किंतु उसके उसके शरीर से उसकी आत्मा धुएं समान निकली जो चाहकीली के चेहरे के बराबर थी। चहकीली उस आत्मा को देख अपनी आंखे बड़ी करती.... “चाचू ये आप हो?”

आर्यमणि:– हां ये मैं ही हूं...

चहकीली:– पर आप ऐसे कैसे मेटल टूथ की तरह दिखने लगे। बिलकुल पारदर्शी और धुएं समान...

आर्यमणि:– मेरा दिखना छोड़ो और तुम अपनी बताओ। इतनी गुमसुम शक्ल क्यों बनाई हुई हो।

चहकीली:– हम जानवर है ना... और जानवरों की कोई भावना नहीं होती...

आर्यमणि:– ये बात न तुम मेरी रूही से कहना, जो अब भी उस आइलैंड पर इंतजार कर रही है।

चहकीली:– क्या आंटी की आत्मा? तो क्या वहां अलबेली और इवान भी मिलेंगे...

आर्यमणि:– नही उन दोनो को तो रूही ने स्वर्ग लोक भेज दिया और खुद यहीं रुक गयी ताकि अपनी और उन दोनो की अधूरी इच्छाएं पूरी करवा सके।

चहकीली:– आप झूठ बोल रहे हो ना चाचू...

आर्यमणि:– अभी तुम मेरे साथ चल रही हो ना, तो चलकर खुद ही देख लेना...

चहकीली:– मैं आपकी बातों में नही उलझती। वैसे चाचू एक बात पूछूं..

आर्यमणि:– हां पूछो..

चहकीली:– चाचू क्या आपका खून नही खौलता? चाचू आप रूही चाची को भूलकर महाती के साथ खुश कैसे हो सकते हो?

आर्यमणि:– “खुश दिखना और अंदर से खुश रहना 2 अलग–अलग बातें होती है। वैसे भी रूही और महाती में एक बात सामान है... वो दोनो ही मुझे बेहद चाहती है। इस बात से फर्क नही पड़ता की मैं क्या चाहता हूं। उनको जब खुशी देखता हूं तब मैं भी अंदर से खुश हो जाता हूं। फिर ये मलाल नहीं रहता की मेरी पसंद क्या थी।”

“चहकीली एक बात पता है, एकमात्र सत्य मृत्यु है। इसे खुशी–खुशी स्वीकार करना चाहिए। हां मानता हूं कि रूही, अलबेली और इवान की हत्या नही होनी चाहिए थी। किसी के दिमागी फितूर का शिकर मेरा परिवार हुआ। अतः उन्हें मैं दंड भी ऐसा दूंगा की उन्हे अपने जीवित रहने पर अफसोस होगा। बाकी मैं जब भी अपनी रूही, अलबेली और इवान को याद करूंगा तो मुस्कुराकर ही याद करूंगा। तुम भी अपनी मायूसी को तोड़ो।”

चहकीली:– केवल एक शर्त मैं मायूसी छोड़ सकती हूं। निमेषदर्थ को आप मेरे हवाले कर दीजिए...

आर्यमणि:– तुम्हे निमेष चाहिए था तो उस वक्त क्यों नही बोली जब मैं उसका पाऊं काट रहा था। उसी वक्त मैं तुम्हे निमेष को दे देता। जनता हूं तुम उसे मृत्यु ही देती लेकिन तुम्हारी खुशी के लिये इतना तो कर ही सकता था।

चहकीली:– बिलकुल नहीं... मै उसे मारना नही चाहती हूं...

आर्यमणि:– फिर तुम उसके साथ क्या करोगी? और ये क्यों भुल जाती हो, निमेष को सिर्फ महासागर से निष्काशित किया गया था, ना की उसकी सारी शक्तियों को छीनकर निष्कासित किया गया था। निमेष के पास अब भी उसके आंखों की जहरीली तरंगे और वो दंश है, जो थल पर भी उतना ही कारगर असर करते है। नमूना मैं नागलोक के भू–भाग पर देख चुका हूं।

चहकीली:– मुझे निमेष तो चाहिए लेकिन उसका मैं कुछ नही करूंगी, बल्कि सब तुम करोगे चाचू...

आर्यमणि:– मैं क्या करूंगा...

चहकीली:– उस निमेषदर्थ को शक्तिहीन कर दोगे। फिर मल निकासी के ऊपर जो मेरे पेट पर सर्जरी किये थे, उस जगह को चिड़कर, निमेषदर्थ को मल निकास नली के अंदर की दीवार से टांक देना। बस इतना कर देना...

आर्यमणि:– किसी दूसरे को सजा देने के लिये मैं तुम्हे दर्द दे दूं, ऐसा नहीं हो सकता...

चहकीली:– फिर मेरी उदासी कभी नही जायेगी। चाचू मेरे दिल का बोझ बस एक आपकी हां पर टिका है। मना मत करो ना...

मायूस सी उसकी आंखें थी और मासूम सा चेहरा। आर्यमणि, चहकीली के दिल की भावना को मेहसूस करते, उसके प्रस्ताव पर अपनी हामी भर दिया। चहकीली पुराने रंग में एक बार फिर चहकती हुई गुलाटी लगा दी और आर्यमणि को अपने पंख में लॉक करके नागलोक के भू–भाग पर चल दी।
Shaandaar 👍👍👍
 

Vk248517

I love Fantasy and Sci-fiction story.
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N
भाग:–169


लगभग 2 महीने बीते होंगे जब राजधानी में जश्न का माहोल था। एक बड़े से शोक के बाद इस जश्न ने जैसे विजयदर्थ को प्रायश्चित का मौका दिया था। वह मौका था आर्यमणि और महाती के विवाह का। जबसे विजयदर्थ ने आर्यमणि पर त्वरित सम्मोहन किया था, उसके कुछ दिन बाद से ही आर्यमणि, महाती के साथ रह रहा था। यूं तो चटपटे खबरों में महाती का नाम अक्सर आर्यमणि के साथ जोड़ा जाता। किंतु महाती ने किसी भी बात की परवाह नही की।

परंतु एक दिन योगी वशुकीनाथ, महाती के मन की चेतनाओं में आये और उन्होंने जल्द से जल्द आर्यमणि से विवाह करने का विचार दिया। कुछ वार्तालाप योगी वशुकीनाथ और महाती के बीच हुई। किसी सम्मोहित व्यक्ति से बिना उसकी मर्जी के शादी करना महाती को गलत लग रहा था। लेकिन सही–गलत के इस विचार को योगी जी ने सिरे से नकार दिया। त्वरित सम्मोहन से बाहर लाने की महाती की कोशिश और नित्य दिन आर्यमणि को योग और साधना का ध्यान करवाना ही काफी था, एक सच्चा साथी की पहचान के लिये। फिर आर्यमणि के प्रति महाती का सच्चा लगाव और उसके अंतर्मन का प्यार योगीयों से छिपा भी नही था।

जबसे योगियों ने आर्यमणि के साथ अन्याय किया था, तबसे वह आर्यमणि की कुंडली पर लगातार ध्यान लगाए थे। यूं तो भविष्य कोई देख नहीं सकता परंतु एक अनुमान के हिसाब से जो उन योगियों को दिखा, उस अनुसार कुछ अर्चनो को आर्यमणि की अकेली किस्मत मात नही दे सकती थी। उन अर्चनों के वक्त कुछ ग्रहों को अपनी सही दशा में होना अति आवश्यक था और यह तभी संभव था जब आर्यमणि की किस्मत किसी अनोखे कुंडली वाली स्त्री से जुड़ी हुई हो।

योगियों ने साफ शब्दों में कह दिया, “गुरु आर्यमणि जब कभी भी सम्मोहन से बाहर होंगे, उन्हे तुम्हारी जरूरत होगी। यह भी सत्य है कि तंद्रा टूटने के बाद वह शादी नहीं कर सकते इसलिए तुम्हारा अभी उनसे शादी अनिवार्य है।”

महाती:– गुरुवर किंतु बिना उनकी मर्जी के शादी करने से वो मुझे स्वीकारेंगे क्या?

योगी:– तुम्हारी लगन और प्यार एक पत्नी के रूप में स्वीकारने पर विवश कर देगी। यदि यह प्रेम उन्हे विवश ना कर सकी तो तुम दोनो की संतान गुरु आर्यमणि को तुम्हे स्वीकारने पर विवश अवश्य कर देगी। वजह चाहे जो भी हो वो तुम्हे स्वीकार करेंगे। बस सवाल एक ही है, क्या गुरु आर्यमणि को तुम पति के रूप में स्वीकार कर सकती हो। तुम्हे पहले ही बता दूं उनके साथ जीवन बिताना आसान नहीं होगा और न ही तुम महलों वाला सुख देख पाओगी।

महाती के लिये तो मानो अविष्मरणीय घटना उसके दिमाग में चल रही थी। आर्यमणि संग भावनाएं तो तब ही जुड़ चुके थे, जब उनकी निहस्वर्थ भावना को देखी। चूंकि आर्यमणि पहले से शादी–सुदा थे, इसलिए मन के अंदर किसी भगवान का दर्जा देकर वह पूजा करती थी। परंतु आज योगियों की बातें सुनने के बाद महाती अपनी भावना को काबू न कर पायी।

विवाह के प्रस्ताव पर अपनी हामी भरने के बाद महाती ने मन की चेतनाओं में ही उसने विवाह का शुभ मुहरत भी पूछ लीया। चूंकि योगी राजधानी नही आते इसलिए कुछ लोगों की मौजूदगी में महाती, आर्यमणि के साथ योगियों के स्थान तक गयी और वैदिक मंत्रों के बीच पूर्ण विधि से दोनो का विवाह सम्पन्न हो गया।

विवाह संपन्न होने के साथ ही जश्न का सिलसिला भी शुरू हो गया। कई दिनों बाद विजयदर्थ के चेहरे पर भी मुस्कान आयी थी। फिर तो पूरे शहरी राज्यों में जलसे और रंगारंग कार्यक्रम का दौर शुरू हो गया। महाती, आर्यमणि के साथ शहरी क्षेत्रों का भ्रमण करती नागलोक के दरवाजे पर थी। नभीमन स्वयं पातल लोक के दरवाजे पर स्वागत के लिये पहुंचा और नए जोड़ों को आशीर्वाद दिलवाने शेषनाग के मंदिर तक लेकर आये।

महाती के आग्रह पर नाभिमन ने आर्यमणि से टेलीपैथी भी करने की कोशिश की। दिमाग के अंदर अपनी ध्वनि पहुंचाकर आर्यमणि को वशीकरण से आजाद करने की कोशिश। किंतु आर्यमणि ने तो जैसे अपने दिमाग के चारो ओर फैंस लगा रखा हो। किसी भी विधि से नाभिमन आर्यमणि के दिमाग में घुस ना सका।

वहीं वशीकरण के जाल में फंसा आर्यमणि को ऐसा लग रहा था की वह रूही के साथ अपने खुशियों के पल बिता रहा है और बाकी सारी दुनिया उसके प्यार से जल रही है, इसलिए उसने खुद से पूरी दुनिया को ही ब्लॉक कर रखा था। योगियों के साथ की गयी कोशिश का भी वही नतीजा हुआ था। आर्यमणि किसी को अपने दिमाग में घुसने ही नही दे रहा था। और बिना आर्यमणि के दिमाग में घुसे वशीकरण से मुक्त नही करवाया जा सकता था।

खैर, महाती वहां से निराश निकली। बस खुशी इस बात की थी कि विजयदर्थ के सम्मोहन के बाद भी आर्यमणि महाती से काफी ज्यादा प्यार जता रहा था। जब विवाह नही हुआ था तब कभी–कभी महाती को यह प्यार काफी भारी पड़ जाता था। लेकिन विवाह के बाद महाती अंदर ही अंदर आर्यमणि से उसी भारी प्यार के इंतजार में थी।

बहुत ज्यादा इंतजार भी नही करना पड़ा। शादी के बाद जब देश भ्रमण करके लौटे, तब उसी रात फूलों को सेज सजी थी। मखमल का बिस्तर लगाया गया था। पहली ऐसी रात थी जब महाती और आर्यमणि एक साथ एक कमरे में होते। महाती पूरी दुल्हन के लिबास में पूरा घूंघट डाले सेज पर बैठी उसका इंतजार कर रही थी। धराम की आवाज के साथ दरवाजा खुला और फिर दरवाजा बंद।

ये रात बड़ी सुहानी थी। महाती अपने पिया से मिलने वाली थी। मन मचल रहा था, बदन तड़प रहा था। हृदय में विच्छोभ तरंगे उठ रही थी। शारीरिक संभोग से पहले उसके एहसास का ये थ्रिल अनोखा था। कभी दिल घबरा रहा था तो कभी श्वास चढ़ जाती। धड़कन तब धक से रह गयी जब आर्यमणि ने पहला कदम आगे बढ़ाया। कदमों की थाप ने तो जैसे और भी जीना दुभर कर दिया हो।

फिर वो आर्यमणि के कठोर हाथों का पहला स्पर्श। कोमल कली से बदन पर रोएं खड़े हो गये, वह लचर सी गयी और बिस्तर पर सीधी लेट गयी। फिर तो पहले होटों से होंठ टकराए। मधुर एहसास का एक जाम था, जिसे होटों से लगाते ही महाती मदहोश हो गयी। कसमसाती, तिलमिलाती दुविधा और झिझक के बीच उसने भी अपने पहले चुम्बन का भरपूर आनंद उठाया।

स्वांस उखड़ सी गयी थी। चढ़ती श्वंस के साथ ऊपर उठते वक्षों को आर्यमणि ने कपड़ों के ऊपर से ही दबोच लिया। कोरे बदन पर ये कठोर छुवन एक नया एहसास का दौर शुरू कर रही थी। बेकरारी बड़ी थी और रोमांच हर पल बढ़ता जा रहा था। जैसे–जैसे आर्यमणि आगे बढ़ रहा था, उत्तेजना से महाती के हाथ–पाऊं कांप रहे थे।

जैसे ही एक–एक करके आर्यमणि ने लाज की डोर खोलना शुरू किया, महाती उत्तेजना और लाज के बीच फंसती जा रही थी। चोली के सारे गांठ खोलने के बाद जैसे ही आर्यमणि ने चोली को बदन से अलग किया, महाती अपने हाथ से कैंची बनाती, अपने वक्षों को उनके बीच छिपा लिया। आज तक कभी वह निर्वस्त्र नही हुई थी, इसलिए मारे लाज की वो मरी जा रही थी।

आर्यमणि पूरे सुरूर के साथ आगे बढ़ रहा था। अपने दोनो हाथ से महाती की कलाई को जैसे ही आर्यमणि ने थामा, आने वाला पल की कल्पना कर महाती ने करवट ले लिया। महाती ने जैसे ही करवट लिया आर्यमणि ने बिना वक्त गवाए लहंगे की डोर को खींच दिया। दुविधा में फंसी महाती अपने स्तनों को छिपाती या हाथों से लहंगे को पकड़ती जो धीरे–धीरे नीचे सरक रही थी।

लहंगा इतना नीचे तक सरक चुका था कि महाती के गुप्तांग के दिखने की शुरवात होने ही वाली थी। महाती झट से अपना लहंगा संभाली और अगले ही पल आर्यमणि के हाथ उसके खुले वक्षों को मिज रहे थे। गहरे श्वनास खींचने के साथ ही महाती की सिसकारी निकल गयी। हालत अब तो और पतली हो गयी थी।

महाती जितना विरोध कर रही थी, आर्यमणि को उतना ही मजा आ रहा था। अंत में माहती ने खुद ही आत्मसमर्पण कर दिया। अपनी आंखें मूंदकर वह चित लेट गयी और आर्यमणि ने संगमरमर से तराशे बदन पर अपने होटों से पूरा मोहर लगाते चला गया। महाती तो मारे उत्तेजना के 2 बार चरम सुख प्राप्त कर चुकी थी।

आर्यमणि के हाथ महाती के तराशे बदन पर रेंग रहे थे। ऐसा लग रहा था महाती का बदन और भी चमक रहा था और वह और भी ज्यादा आकर्षित कर रही थी। फिर अचानक ही आर्यमणि के हाथ का स्पर्श कहीं गायब हो गया। महाती कुछ पल प्रतीक्षा की। किंतु जब उत्तेजना को भड़काने वाली स्पर्श उसके बदन से दूर रहा, तब किसी तरह हिम्मत करके महाती अपनी आंखें खोल ली। आंख खोली और तुरंत अपना चेहरा अपने हाथ से ढक ली।

दिल में तूफान उमड़ आया था। धड़कने बेकाबू हो गयी थी। आर्यमणि का हाहाकारी देख महाती के अंदर पूरा हाहाकार मचा हुआ था। हालत केवल महाती की खराब नही थी बल्कि आर्यमणि का जोश भी अपने चरम पर था। इतना आकर्षक और कामुक स्त्री को पूर्णतः निर्वस्त्र देखकर रुकना भी बैमानी ही था।

आर्यमणि कूदकर बिस्तर पर चढ़ा। महाती के दोनो पाऊं खोलकर, उसके दोनो पाऊं के बीच में आया। योनि को छिपाए हथेली को थोड़ा जोड़ लगाकर हटाया और हटाने के साथ ही अपना लिंग, महाती के योनि से टीका दिया। फिर तो बड़े आराम से आर्यमणि इंच दर इंच अपना लिंग धीरे–धीरे महाती के योनि के अंदर घुसाने लगा।

खून की हल्की धार बह गयी। ऐसा लग रहा था कोई खंजर चिड़ते हुये अंदर घुस रहा है। महाती की सारी उत्तेजना दर्द मे तब्दील हो गयी। किंतु अपने होंठ को दातों तले दबाकर महाती अपने पहले मिलन को धीरे–धीरे आगे बढ़ने दे रही थी। कुछ देर तक धीरे–धीरे लिंग अंदर बाहर होता रहा। इसी बीच धीरे–धीरे महाती का दर्द भी गायब होता जा रहा था और उत्तेजना हावी होती रही। फिर तो सारे बैरियर जैसे टूट गये हो। रफ्तार धीरे–धीरे पकड़ता गया। फिर तो अंधाधुन रफ्तार बढ़ती रही। बिना रुके धक्के पर धक्का लगता रहा। महाती की सिसकारियां तेज और लंबी होती जा रही थी।

संभोग के असीम आनंद का अनुभव दोनो ही ले रहे थे और दोनो ही काफी मजे में थे। तभी उत्तेजना को थाम दे ऐसा बहाव दोनो के गुप्तांगों से एक साथ निकला। दोनो ही साथ–साथ बह गये और आस पास ही निढल होकर लेट गये। गहरी नींद के बाद जब महाती की आंखें खुली तब नजर सीधा आर्यमणि के झूलते लिंग पर गयी और वह शर्माकर अपने कपड़े समेटकर भागी।

कुछ देर में खुद को पूरी तरह से नई नवेली दुल्हन की तरह तैयार कर, महाती जैसे ही दरवाजे के बाहर आयी, बाहर कई दासियां इंतजार कर रही थी। दासियां सवालिया नजरों से महाती को देखी और महाती इसके जवाब ने बस शर्माकर मुश्कुरा दी। फिर तो दासियों में भी हर्षोल्लास छा गया। प्रथम मिलन की सूचना चारो ओर थी और पूरी राजधानी खिल रही थी।

कई दिनों तक राजधानी में जश्न चलता रहा। विवाह के बाद महाती खुद में पूर्ण होने का अनुभूति तो कर रही थी, किंतु एक वशीकरण वाले इंसान से बिना उसकी मर्जी के विवाह करना महाती को खटकता ही रहा। किंतु हर बार जब वह मायूस होती, योगियों की एक ही बात दिमाग में घूमती..... “यदि प्रेम सच्चा हो तो आर्यमणि कभी न कभी तुम्हे स्वीकार जरूर करेगा।” खैर महीने बीते, साल गुजर गये। सामान्य सा सुखी दंपत्य जीवन चलता रहा।

इधर विजयदर्थ अपना ज्यादातर वक्त कैद में फसे लोगों के प्रबंधन में गुजारता था। चर्चा यदि करें कैदियों के प्रदेश और वहां फसने वाले कैदियों की तो.... कैदियों के प्रदेश में वही लोग कैदी होते थे जिनकी जान किसी कारणवश महासागर में गिड़कर लगभग जाने वाली होती थी। ज्यादातर लोगों के विमान क्षतिग्रस्त होने के कारण ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होती थी।

ऐसा नहीं था कि कैदियों को रिहाई का मौका नही मिलता। उन सबको कुछ आसान सा काम दिया जाता था और काम पूरा करने के लिये पर्याप्त से भी ज्यादा वक्त मिलता था। किंतु आज तक कभी ऐसा हुआ नही की कैद में फसे लोगों ने कोई भी आसान सा काम पूरा करके दिया हो। इसका सबसे बड़ा कारण तो उस जगह को बनावट थी, और कैद में केवल पृथ्वी वाशी ही नही फंसते बल्कि दूसरे ग्रह के लोग भी उतने ही फंसते थे।

दरअसल अंतरिक्ष में बने ब्लैक होल का एक सीधा रास्ता महासागरीय साम्राज्य भी था। ब्लैक होल में फंसने का अर्थ ही था लगभग तय मृत्यु अथवा अंतहीन सफर। अंतरिक्ष में जो भी विमान ब्लैक होल में फंसता उनमें से कुछ विमान सीधा कैदियों के प्रदेश में आकर फंसता। एक ऐसा कैद जिसकी कल्पना भी कोई कर नही सकता।

यदि एक नजर इस विशेष प्रकार की कैद पर डाले तो.... कैदियों के प्रदेश के 2 रास्ते थे। एक सीधा रास्ता अर्थात पृथ्वी पर फैले महासागर का लाखों वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र और दूसरा रास्ता अंतरिक्ष में फैले ब्लैक होल से होकर सीधा महासागर का रास्ता। दोनो ही रास्ते एक दूसरे के ऊपर नीचे थे। इसकी संरचना थोड़ी जटिल थी, जिसे आसान शब्दों में यदि समझा जाये तो पृथ्वी से महासागर के पानी का सतह था और आकाश से भी महासागर के पानी का सतह था।

दोनो ओर से जब नीचे गहराइयों में जाते तब बिलकुल मध्य भाग को जीरो प्वाइंट कहते थे। सबसे कमाल यह जीरो प्वाइंट ही था, और समझने में सबसे जटिल। किसी भी सतह से पानी में डूबे हो, फिर वो आकाश के ओर से पानी का सतह हो या फिर पृथ्वी के ओर से पानी का सतह। अनंत गहराई में जाने के बाद पाऊं जमाने वाले तल की उम्मीद तो रहती है। किंतु कैदियों के प्रदेश जाने वाले रास्ते में कोई तल नही था।

आकाश और पृथ्वी के ओर से जो भी कैदियों के प्रदेश जाता था, वहां कोई तल नही था, बल्कि दोनो रास्तों के मध्य भाग को जीरो प्वाइंट कहते थे। जीरो प्वाइंट पर पहुंचने के बाद भले ही तल की जगह पानी दिख रहा हो परंतु जीरो प्वाइंट के नीचे नही तैर सकते। इसका सीधा अर्थ था कि यदि कोई आकाश के ओर से आ रहा है तो वह जीरो प्वाइंट पर आने के बाद और नीचे नही जा सकता बल्कि जिस रास्ते नीचे आया है उसी रास्ते ऊपर जायेगा। और यही नियम पृथ्वी के ओर से भी था।

इस जीरो प्वाइंट के आधे किलोमीटर ऊपर या नीचे कुछ नही था, उसके बाद शुरू होती थी 8–10 किलोमीटर की पतले–पतले पर्वत की मीनार। यह मीनार जीरो प्वाइंट के दोनो ओर बिलकुल किसी मिरर इमेज की तरह थे, जो दोनो ओर से एक जैसे बनावट की थी। कैदियों के प्रदेश में ऐसी मीनारें लाखो किलोमीटर में फैले हुये थे। पर्वत के इन्ही मिनारों के बीच ऊपर से लेकर नीचे तक कई छोटे–छोटे गुफा बने थे, जिनमे कैदी रहते थे।

यहां फसने वालों की संख्या अरबों में थी। जिन्हे पूरा क्षेत्र घूमने की पूरी छूट थी। अपनी रिहाई की मांग करने की भी पूरी छूट थी। विजयदर्थ ऐसा नहीं था कि किसी को जबरदस्ती रोक के रखता। बस उसका यही कहना था कि... “हम नही होते तो तुम्हारी मृत्यु लगभग तय थी, इसलिए कोई भी एक छोटा सा काम कर दो और बदले में अपनी रिहाई ले लो।”...

हां और यह भी सत्य था कि काम उन्हे छोटे–छोटे ही मिलते थे। जैसे कुर्सी बनाना, मनोरंजन करना, इत्यादि इत्यादि। परंतु महासागर की वह ऐसी कैद थी जहां महासागर का कोई तल ही नही था। जीरो प्वाइंट के 20 किलोमीटर ऊपर पानी का सतह, और नीचे जीरो प्वाइंट जो पूरा पानी पर खड़ा था। जब कोई संसाधन ही नही तो काम कैसे पूरा होगा। ऊपर से केकड़े जैसा वहां के कैदियों का समुदाय। कहीं से किसी के निकलने की उम्मीद होती तो दूसरे फसे लोग उनका काम बिगाड़ देते।

विजयदर्थ का सारा दिनचर्या कैदियों को सुनने और उन्हे मीनार में जगह देने में चला जाता। कुछ कैदी जो अपनी पूरी उम्र बिताकर मर जाते, उनके बच्चों को महासागरीय शहर में तरह–तरह के काम करने के लिये भेज दिया जाता। महारहरीय साम्राज्य का जितने भी मजदूरों वाले काम थे, वो इन्ही कैदियों से करवाए जाते थे।

देखते–देखते 2 साल से ऊपर हो चुके थे। इस बीच विजयदर्थ ने अपनी एक और पत्नी और अपने एक और बेटे की मृत्यु को भी देखा। हृदय कांप सा गया। मन में लगातार वियोग सा उठता और एक ही सवाल दिमाग में घूमता... “और कितने दिन उसे श्राप को झेलना होगा?” इस दौरान विजयदर्थ के लिये एक ही खुशी की बात थी, महाती ने एक पुत्र को जन्म दिया था, जिसके साथ आर्यमणि का लगाव अतुलनीय था।

हर सभा में आर्यमणि सबके साथ बैठता लेकिन वह पूर्णतः मौन ही रहता। जबसे वसीकरण हुआ था, तबसे आर्यमणि ने एक शब्द भी नही बोला था। दिमाग के अंदर एक ही छवि रुकी थी, जो उसे खुश रखती थी। वह यहां रूही के साथ था और उसका पूरा पैक यहीं महासागर की गहराइयों में मजे कर रहा है।

आर्यमणि के मन में एक भ्रम जाल बना हुआ था, जिसमे आर्यमणि उलझा हुआ था। वह पूर्णतः मौन था किंतु मन के भीतर उसकी अपनी ही एक खुशियों की दुनिया थी, और सांसारिक जीवन का सुख वह महाती के साथ भोग रहा था। इन्ही चेतनाओं की दुनिया में एक दिन किसी लड़की ने दस्तक दी। ऐसी दस्तक जिसका इंतजार न जाने कबसे विजयदर्थ और महाती कर रहे थे।

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भाग:–170


आर्यमणि के मन में एक भ्रम जाल बना हुआ था, जिसमे आर्यमणि उलझा हुआ था। वह पूर्णतः मौन था किंतु मन के भीतर उसकी अपनी ही एक खुशियों की दुनिया थी, और सांसारिक जीवन का सुख वह महाती के साथ भोग रहा था। इन्ही चेतनाओं की दुनिया में एक दिन किसी लड़की ने दस्तक दी। ऐसी दस्तक जिसका इंतजार न जाने कबसे विजयदर्थ और महाती कर रहे थे।

दरअसल कैदियों के प्रदेश में ब्रह्मांड का एक प्रबल वीर योद्धा, निश्चल, अपने एक कमाल की साथी ओर्जा के साथ पहुंचा था। पहुंचा शब्द इसलिए क्योंकि कुछ दिन पहले उस योद्धा निश्चल के ग्रह से एक विमान उड़ी थी जो ब्लैक होल में फंस गयी। उस विमान पर निश्चल की बहन सेरिन और पूरा क्रू मेंबर साथ में थे। उसी विमान की तलाश में पीछे से निश्चल भी ब्लैक होल में घुसा और अपनी बहन की तरह वह भी कैदियों के प्रदेश में फंस गया।

वो पहले भी चर्चा हुई थी ना केकड़े की कहानी। यदि कैदियों के प्रदेश से कोई निकालना भी चाहे तो दूसरे कैदी उसका काम बिगाड़ देते है। ठीक वैसे ही निश्चल के साथ भी हुआ। निश्चल अपनी साथी ओर्जा की मदद से अपने विमान में घुसने की कोशिश कर रहा था, ताकि विजयदर्थ को कोई अनोखा भेंट देकर यहां से निकला जाए। ठीक उसी वक्त करोड़ों कैदी एक साथ आये और उस विशाल से विमान को ऐसा क्षतिग्रस्त किया की उसके अंदर की कोई भी वस्तु किसी काम की नही रह गयी थी।

यदि किसी के कैद से निकलने की उम्मीद को ही मार दे, फिर तो उस व्यक्ति का आवेशित होना जायज है। ऊपर से निश्चल एक “विगो सिग्मा, अनक्लासिफाइड अल्फा” था। ऐसा वीर योद्धा जो सदियों में एक बार पैदा होता है। जमीन पर उसकी गति और बेरहम खंजर का का खौफ पूरे ब्रह्मांड में स्थापित था।

उसके अलावा निश्चल के साथ सफर कर रही लड़की ओर्जा अपने प्लेनेट की एक भगोड़ी थी। और वह जिस प्लेनेट की भगोड़ी थी, वह प्लेनेट ही नही अपितु यूनिवर्स का एक पूरा हिस्सा ही रहस्यमई था, जिसपर एक अकेला शासक अष्टक अपने कोर प्लेनेट से सकड़ों ग्रहों पर राज करता था। और उन सभी सैकड़ों ग्रह पर कोई भी दूसरा समुदाय नही बल्कि अष्टक के वंशज ही रहते थे। अष्टक के वंशजों में एक से बढ़कर एक नगीने थे, जो अकेला चाह ले तो पूरे ग्रह पर कब्जा कर ले। उन्ही नागिनो में सबसे कीमती नगीना थी अर्सीमिया। अर्सीमिया के पास टेलीपैथी और दिमाग पर काबू पाने की ऐसी असीम शक्ति थी कि वह एक ही वक्त में अष्टक के असंख्य वंशज के दिमाग से जुड़ी रहती। इस प्रकार से बिना किसी भी ग्रह पर कोई शासक बनाए अष्टक एक ही जगह से सारा कंट्रोल अपने हाथ में रखता था।

अर्सीमिया ही वह धुरी थी जिसके वजह से असीम ताकत रखने वाले असंख्य लोग एक कमांड में काम करते थे। और अर्सीमिया ही वह वजह थी जिसके कारण अष्टक का साम्राज्य रहस्य बना हुआ था, क्योंकि कोई भी बाहरी उनके क्षेत्र में घुसे उस से पहले ही अर्सीमिया टेलीपैथी के जरिए उसके दिमाग में होती थी और नजदीकी सैन्य टुकड़ी उनका काम तमाम कर देती।

अर्सीमिया के पास दिमाग में घुसने की ऐसी शक्ति थी कि यदि वह कुछ लोगों के ऊपर ध्यान लगाये, तो वह अनंत और विशाल फैले ब्रह्मांड के एक छोड़ से दूसरे छोड़ तक टेलीपैथी कर सकती थी। वहीं अगर पूरे जन जाति के दिमाग में घुसना है तो वह एक वक्त में अनंत फैले ब्रह्मांड के 30 फीसदी हिस्से में बसने वाले हर प्राणी के दिमाग में एक साथ घुस भी सकती थी और ऐसा भूचाल मचाती की उसका दिमाग भी फाड़ सकती थी।

ओर्जा, अर्सीमिया की ही सबसे आखरी संतान थी और ठीक अर्सीमिया की तरह ही उसकी टेलीपैथी की शक्ति भी थी। हां साथ में उसे अपने पिता से विगो समुदाय की शक्ति भी मिली थी, जिसके बारे में ओर्जा को कोई ज्ञान नहीं था। ओर्जा जब अपने कोर प्लेनेट से भागी तब वह अपनी मां अर्सीमिया के दिमाग में घुसकर उसका दिमाग ऐसे खराब करके भागी थी कि वह कोमा में चली गयी। उसके बाद तो रहस्यमय अष्टक का टोटल कम्युनिकेशन लूल होने से उसका रहस्य ब्रह्मांड के दूसरे ग्रहों पर खुलना शुरू हो चुका था।

निश्चल और ओर्जा दोनो ही कमाल के थे। भागने के क्रम में ही ओर्जा, निश्चल से मिली और उसी के साथ सफर करते हुये महासागर की गहराइयों तक पहुंच गयी। दोनो ही विजयदर्थ के कैदी थे और निश्चल भेंट स्वरूप उसे अपनी हाई टेक्नोलॉजी के कुछ इक्विपमेंट अपने विमान से देने की सोच रहा था, ताकि इस बेकार की कैद से उसे आजादी मिले। परंतु दूसरे कैदियों ने पूरा मामला बिगाड़ दिया और निश्चल आवेश में आकर पूरी भिड़ से लड़ गया।

निश्चल पूरी भिड़ से तो लड़ गया किंतु जलीय तंत्र में वह किसी आम इंसान की तरह था, जो भीड़ के हाथों मार खा रहा था। तभी ओर्जा ने जो ही पूरी भिड़ के दिमाग में घुसकर उत्पात मचाया की फिर दोबारा किसी ने निश्चल और ओर्जा को छुआ तक नहीं। हां लेकिन निश्चल की हालत खराब थी और उसे इलाज की सख्त जरूरत थी।

ओर्जा अपनी शक्तियों से तुरंत विजयदर्थ को बुलायी। विजयदर्थ जब निश्चल की हालत देखा तब उसने तुरंत आर्यमणि को बुलवाया और निश्चल को हील करवा दिया। ओर्जा अब तक जितने बार भी आर्यमणि को देखी, तब मौन ही देखी थी। बस यहीं से उसे एक उम्मीद की किरण नजर आने लगी और वह टेलीपैथी के जरिए आर्यमणि से कनेक्ट हो गयी।

आर्यमणि के माश्तिस्क में उसकी पहली आवाज ऐसे गूंजी की आर्यमणि अपना सर पकड़ कर बैठ गया। महाती उस वक्त आर्यमणि के साथ ही थी और अचानक ही सर पकड़कर बैठे देख काफी चिंतित हो गयी। पल भर में ही वहां डॉक्टर्स की लाइन लगी थी, और हर किसी ने यही कहा की आर्यमणि को कुछ नही हुआ है।

वहीं दिमाग के अंदर गूंजे ओर्जा की आवाज ने आर्यमणि के दिमागी दुनिया को हिला दिया था। आर्यमणि को यही लगता रहा की कोई खतरा है, जो उसके परिवार के ओर तेजी से बढ़ रहा था। आर्यमणि, ओर्जा की आवाज लगातार सुनता रहा लेकिन हर बार उस आवाज को नजरंदाज ही किया। हर बार जब वह आवाज मस्तिष्क में गूंजती, आर्यमणि की चेतनाओं की दुनिया धुंधली पड़ जाती।

आंखों में ग्लिच पैदा होने लगा। हमेशा साथ रहने वाली रूही, कभी उसे रूही तो कभी महाती दिख रही थी। ओर्जा लगातार आर्यमणि के मस्तिष्क में गूंज रही थी और धीरे–धीरे उसके यादों का चक्र धूमिल होता जा रहा था। ओर्जा के संपर्क का यह चौथा दिन था, जब आर्यमणि की तंद्रा टूटी और वह वशीकरण मंत्र से पूर्णतः मुक्त था। मुक्त तो हो गया था लेकिन दिमाग की यादें पूर्णतः अस्त–व्यस्त हो चुकी थी। कल्पना और सच्चाई के बीच आर्यमणि का दिमाग जूझ रहा था।

कभी उसे अल्फा पैक की हत्या मात्र एक सपना लगता और सच्चाई यही समझ में आती की विजयदर्थ ने छल से पूरे अल्फा पैक को यहीं महासागर की गहराई में फंसा रखा है। तो कभी वह वियोग से रोने लगता। सारी सिद्धियां जैसे मन की चेतनाओं में कहीं गुम हो चुकी थी। महाती और अपने बच्चे अन्याश से कटा–कटा सा रहने लगा था। आर्यमणि को लग रहा था कि महाती से विवाह और उस विवाह से पैदा हुआ लड़का मात्र एक छल है, जो विजयदर्थ का किया धरा है। इस साजिश में उसकी बेटी महाती भी विजयदर्थ का साथ दे रही थी।

आर्यमणि की जबसे तंद्रा टूटी थी वह कुछ भी तय नहीं कर पा रहा था। इस बीच ओर्जा लगातार आर्यमणि के दिमाग के अंदर अपनी आवाज पहुंचाती रही, लेकिन आर्यमणि उसे नजरंदाज कर अपनी ही व्यथा में खोया रहा। ओर्जा के संपर्क करने का यह छठवां दिन था जब आर्यमणि अपनी समस्या को दरकिनार करते ओर्जा से बात किया... “हां ओर्जा मैं तुम्हे सुन सकता हूं।”...

ओर्जा:– शुक्र है ऊपरवाले का, आपने जवाब तो दिया। देखिए महान हीलर आर्यमणि हम यहां कैद में फंस गये है, और मेरे दोस्त का यहां से निकलना जरूरी है।

आर्यमणि, कुछ देर ओर्जा से बात करने के बाद उसे अपने दोस्त के साथ जीरो प्वाइंट के पंचायत स्थल तक आने कहा और खुद जाकर यात्रा को तैयारी करने लगा। आर्यमणि जब महल छोड़कर निकल रह था, तब महाती सामने से टकरा गयी... “मेरे जान की सवारी कहां जा रही है।”

आर्यमणि:– देखो महाती मैं कितनी बार कह चुका हूं कि मुझे जल लोक रोकने की यह घटिया सी चाल अब काम नही आयेगी। तुम्हे पता होना चाहिए की मैं वशीकरण से बाहर आ चुका हूं। और अब मैं वहां जा रहा हूं, जहां तुम लोगों ने मेरे पैक को कैद कर रखा है।

अपनी बात कहकर आर्यमणि वहां से चला गया। पीछे से महाती चिल्लाती रही की वो कई सारे यादों के बीच अब भी फंसे है, लेकिन सुनता कौन है। आर्यमणि एक सोधक जीव पर सवार हुआ और सीधा कैदियों की नगरी पहुंचा। कैदियों की नगरी में जिस स्थान पर विजयदर्थ फैसला किया करता था, वहां आर्यमणि पहुंचा। उस जगह पर एक स्त्री और एक पुरुष पहले से उसका इंतजार कर रहे थे।

विजयदर्थ के प्रति मन में घोर आक्रोश और ओर्जा के लिये उतना ही आभार लिये आर्यमणि उन दोनो के पास पहुंचा। चूंकि ओर्जा इकलौती ऐसी थी जो मन के अंदर बात कर सकती थी इसलिए वह अपना और अपने साथी का परिचय दी। उसने बताया की कैसे वो अपने साथी निश्चल के साथ पृथ्वी के लिये निकली थी और यहां आकर फंस गयी।

आर्यमणि अपने दोनो हाथ जोड़ते.... “संभवतः तुम दोनो का यहां फंसना नियति ही थी। मुझे यहां के राजा विजयदर्थ के तिलिस्म जाल से निकालने का धन्यवाद। साला ये झूठे और मक्कारों की दुनिया है और यहां के राजा को तो सही वक्त पर सजा दूंगा।"

आर्यमणि की बात सुनकर ओर्जा और निश्चल के बीच कुछ बात चीत हुई। शायद ओर्जा, निश्चल से अपने और आर्यमणि के बीच हुई बातों को बता रही थी। दोनो के बीच कुछ देर की बातचीत के बाद ओर्जा, आर्यमणि से पूछने लगी.... “तुम हो कौन और यहां कैसे फंस गये।”

आर्यमणि, ओर्जा की बात सुनकर मुस्कुराया और जवाब में बस इतना ही कहा.... “इस जलीय साम्राज्य में मेरा वजूद क्या है उसे न ही जानो तो अच्छा है। और मेरे यहां फंसे होने की लंबी कहानी है, किसी दिन दोनो फुरसत में मिलेंगे तब बताऊंगा।”...

एक बार फिर निश्चल, ओर्जा और आर्यमणि के बीच हुई बात को जानने की कोशिश करने लगा। इकलौती ओर्जा ही थी जो टेलीपैथी कम्यूनकेशन कर रही थी। बार–बार आर्यमणि की बात सुनकर निश्चल को समझाना उसे उबाऊ लगने लगा। इसलिए वह आर्यमणि और निश्चल के टेलीपैथी कम्युनिकेशन को ही जोड़ती.... “निश्चल अब तुम सीधा पूछ लो जो पूछना है।”

आर्यमणि:– मुझसे क्या बात करनी है, मैं सब जनता हूं। तुम्हारे जितने भी आदमी हैं, उन सबके नाम जुबान पर रखना और तब तक तुम उस राजा विजयदर्थ से कुछ मत कहना, जबतक मैं नहीं कहूं। बहुत कमीना है वो। उसकी बातों में उलझे तो यहां से किसी को निकलने नहीं देगा। ओर्जा अब तुम बुलाओ विजयदर्थ को, कहना तुमने उसका काम कर दिया।

ओर्जा ने ठीक वैसा ही किया जैसा आर्यमणि ने कहा था। विजयदर्थ वहां पहुंचते ही पूछने लगा की... “कौन सा काम तुम लोगों ने मेरे लिये किया है?”

आर्यमणि पीछे छिपा था। जैसे ही विजयदर्थ की बात समाप्त हुई, आर्यमणि चिंखते हुये ..... "विजयदर्थ दिल तो करता है तुम्हारी हरकत के लिये तुम्हें अभी चिरकर यहां के तिलिश्म को भंग कर दूं। बस हाथ बंधे हुये हैं। तुम्हारे भरोसे यहां के जीव और इंसान सुरक्षित है, इसलिए छोड़ रहा हूं।”

विजयदर्थ:- आर्यमणि मुझे क्षमा कर दो। मैने जो कुछ भी किया था, उसमे सिर्फ एक ही लोभ था, तुम्हे यहां रखना। लेकिन....

आर्यमणि:- मैं जब वादा कर चुका था कि यहां के समस्त जीवन को मैं यहां आकर ठीक करता रहूंगा, फिर मेरे साथ ही छल...

विजयदर्थ, अपने दोनों हाथ जोड़े।... "आप एक प्योर अल्फा है, पृथ्वी से ज्यादा जरूरीत यहां है... आप चाहो तो यहां का राजा बन जाओ। मेरी बेटी से शादी करके अपना नया जीवन शुरू कर लो और राजा बनकर यहां के पालनहार बनिए"

दरअसल महाती, राजा विजयदार्थ को पहले ही सारी घटना बता चुकी थी। वह विजयदर्थ को समझा चुकी थी कि आर्यमणि अपने यादों के बीच उलझ चुका है, वह जैसा कहे वैसा कर देने और अंत में आर्यमणि को लेकर योगियों के क्षेत्र में चले आने। यही वजह थी कि विजयदर्थ, आर्यमणि के कथानक अनुसार ही जवाब दे रहा था।

आर्यमणि:- बातों में न उलझाओ। तुम्हारे किये कि सजा मैं वापस आ कर तय करूंगा। अभी मैं, मेरे सभी साथी, ये लड़की ओर्जा, और इसके सभी साथी, यहां से निकलेंगे। बिना कोई एक शब्द बोले तुम ये अभी कर रहे हो। ओर्जा तुम केवल अपने साथियों का नाम बोलो। पहले वो लोग यहां से जायेंगे। फिर तुम दोनो के साथ मैं अपने पैक को लेकर निकलूंगा।

ओर्जा, आर्यमणि को हैरानी से देखती हुई.... “क्या तुमने अभी टेलीपैथी की है। मैने तो कोई बात ही नही की सब तुमने ही कह डाला।”

आर्यमणि:– हां मैं टेलीपैथी कर सकता हूं। बस मुझे इस विजयदर्थ से सीधी बात नही करनी थी। पर क्या करूं अपने पैक को देखने के लिये इतना व्याकुल हूं कि मुझसे रहा नही गया। अब तुम देर न करो और अपने साथियों के नाम बताओ।

आर्यमणि ने जैसा कहा ओर्जा ने ठीक वैसा ही किया। थोड़ी ही देर में उसके सभी साथी पृथ्वी के सतह पर थे। अंत में बच गये थे आर्यमणि, ओर्जा और निश्चल। आर्यमणि विजयदर्थ के ओर सवालिया नजरों से देखते... “मेरा पैक कहां है।”

विजयदर्थ:– मैं सबको एक साथ निकालता हूं। पृथ्वी की सतह पर सब मिल जायेंगे।

अपनी बात समाप्त कर विजयदर्थ ने फिर से अपने दंश को लहरा दिया। ओर्जा और निश्चल एक साथ पृथ्वी की सतह पर निकले, जबकि आर्यमणि को लेकर विजयदर्थ योगियों के क्षेत्र पहुंच गया। आर्यमणि की जब आंख खुली और खुद को योगियों के बीच पाया तब वह अपना सर पकड़कर बैठ गया। यादें एक दूसरे के ऊपर इस कदर परस्पर जुड़ रहे थे कि दिमाग की वास्तविक और काल्पनिक सोच की रेखा मिट चुकी थी।

आर्यमणि काफी मुश्किल दौड़ में था। उसे एक पल लगता की इन योगियों के साथ उसकी भिडंत हो चुकी है, तो अगले पल लगता की ये योगी मेरे स्वप्न में आये थे। मेरे साथ इन्होंने द्वंद किया और इनके एक गुरु पशुपतिनाथ जी ने अपना पूरा ज्ञान मेरे मस्तिष्क में डाला था। योगी समझ चुके थे कि आर्यमणि के साथ क्या हुआ था?

किसी तरह आर्यमणि को योगियों ने समझाया। उसे अपने बीच तीन माह की साधना पर बिठाया। 3 दिन तक तो आर्यमणि सामान्य रूप से साधना करता रहा, किंतु चौथे दिन से दिमाग की वास्तविक और काल्पनिक रेखा फिर से बनने लगी। धीरे–धीरे आर्यमणि अपने तप की गहराइयों में जाने लगा। दूसरे महीने की समाप्ति के बाद आर्यमणि योगी पशुपतिनाथ के ज्ञान की सिद्धियों को भी साधना शुरू कर चुका था।

तीन माह बाद आर्यमणि साधना पूर्ण कर अपनी आंखें खोला। आर्यमणि का दिमाग पूर्ण रूप से व्यवस्थित हो चुका था। उसे वशीकरण से पहले और उसके बाद का पूरा ज्ञान था। योगियों के समक्ष अपने हाथ जोड़कर उन्हे आभार व्यक्त करने लगा। योगियों ने न सिर्फ आर्यमणि का आभार स्वीकार किया बल्कि अपना क्षेत्र रक्षक भी घोषित कर दिया। आर्यमणि खुशी–खुशी वहां से विदा लेकर अंतर्ध्यान हो गया।

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Ye dil mage aur ek update aur de dete to Dil khus hui jata hamaar :cry2:
 

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भाग:–171


तीन माह बाद आर्यमणि साधना पूर्ण कर अपनी आंखें खोला। आर्यमणि का दिमाग पूर्ण रूप से व्यवस्थित हो चुका था। उसे वशीकरण से पहले और उसके बाद का पूरा ज्ञान था। योगियों के समक्ष अपने हाथ जोड़कर उन्हे आभार व्यक्त करने लगा। योगियों ने न सिर्फ आर्यमणि का आभार स्वीकार किया बल्कि अपना क्षेत्र रक्षक भी घोषित कर दिया। आर्यमणि खुशी–खुशी वहां से विदा लेकर अंतर्ध्यान हो गया।

आर्यमणि वहां से अंतर्ध्यान होकर सीधा राजधानी पहुंचा। भव्य से महल के द्वार पर आर्यमणि खड़ा था, और वहां के बनावट को बड़े ध्यान से देख रहा था.... “इतने ध्यान से क्या देख रहे हैं जमाई बाबू?”... पीछे से आर्यमणि की सास, यानी की महाती की मां ज्योत्सना पूछने लगी।

आर्यमणि, उनके पाऊं छूते..... “कुछ नही मां, इस भवन के अलौकिक बनावट को देख रहा था। इस महल में लगा हर पत्थर जैसे अपना इतिहास बता रहा हो।”...

ज्योत्सना:– हां ये बेजान से पत्थर अपनी कहानी हर पल बयान करते है। भले ही अपने पर्वत से अलग हो गये हो, पर हर पल अपनी गुण और विशेषता से यह जाहिर कर जाते है कि वह किस बड़े से साख का हिस्सा थे और इस दुनिया में क्या करने आये थे।

आर्यमणि:– हां आपने सही कहा मां... किस बड़ी साख का हिस्सा थे और दुनिया में क्या करने आये हैं।

ज्योत्सना:– लंबी साधना के बाद एक बार फिर बाल और दाढ़ी बढ़ आया है। मै मेक अप आर्टिस्ट को यहीं बुलवा दूं क्या?

आर्यमणि:– नही मां, मैं करवा लूंगा। आप किस हिचक में है वो बताईये?

ज्योत्सना:– तुम मन के अंदर की दुविधा को भांप जाते हो, क्यों? अब जब सीधे पूछ लिये हो तो मैं भी बिना बात को घुमाए कह देती हूं... पाप मेरे पति ने किया और सजा सभी रिश्तेदार भुगत रहे। घर से हर वर्ष एक लाश निकल रही है। हो सके तो इसे रोक लो..

आर्यमणि:– हम्मम आपने तो मुझे दुविधा में डाल दिया है मां। क्या जो आपके पति विजयदर्थ ने किया, उसके लिये मैं उन्हे क्षमा कर दूं?

ज्योत्सना:– मैने सुना है तुम भी एक बहुत बड़े साख, सात्त्विक आश्रम का हिस्सा हो। संसार के जिस हिस्से में रहते हो, अपने कर्म से सबको बता जाते हो की तुम किस बड़े साख के हिस्से हो और दुनिया में क्या करने आये हो। मै अपने पति के लिये माफी नही चाहती, बस वो लोग जो उनके श्राप के कारण मर रहे, उन्हे रोकना चाहती हूं।

आर्यमणि:– आप मेरी मां ही है। आपकी बात मैं टाल नही सकता। मै आपके पति को मार भी नही सकता क्योंकि मैं नही चाहता एक झटके में उसे मुक्ति मिले। ऐसे में आप बताएं मैं क्या करूं?

ज्योत्सना:– मेरे पति जिस कारण से इतने धूर्त हो चुके है, उनसे वो करण ही छीन लो। इस से बड़ी सजा क्या होगी। उन्हे राजा के पद से हटाकर राजधानी से निष्काशित कर दो।

आर्यमणि:– इसके लिये तो पहले नए राजा की घोषणा करनी होगी और माफ कीजिएगा विजयदर्थ के एक भी बच्चे उस लायक नही।

ज्योत्सना:– क्यों महाती भी नही है क्या?

आर्यमणि:– हम दोनो का विवाह होना नियति थी। जो हो गया उसे मैं बदल तो नही सकता, किंतु जब महाती की नियति मुझसे जुड़ चुकी है फिर आगे उसके किस्मत में ताज नही। आपके पास और कोई विकल्प है अन्यथा मैं विजयदर्थ को उसके श्राप के साथ छोड़ जाऊंगा। इस से बेहतरीन सजा तो मैं भी नही दे सकता था।

ज्योत्सना:– मेरे पास विकल्पों की कमी नही है। मै बिना किसी पक्षपात के सिंहासन के योग्य के नाम बताऊंगी। पहला सबसे योग्य नाम महाती ही थी। किंतु यदि वह सिंहासन का भार नहीं लेती तब दूसरा सबसे योग्य नाम यजुरेश्वर है। बौने के राज घराने का कुल दीपक। चूंकि विजयदर्थ और उसके पीछे की तीन पीढ़ियों ने अपने स्वार्थी स्वभाव के कारण राज सिंहासन के योग्यता के लिये इतनी लंबी–चौड़ी रेखा खींच चुके है कि बौनो के समुदाय ने खुद को सिंहासन के लायक ही समझना छोड़ दिया।

आर्यमणि:– हम्मम, यजुरेश्वर... ठीक है मैं इस इंसान की छानबीन करने के बाद बताता हूं। अभी आपकी आज्ञा हो तो मैं जरा अपने बच्चे से मिल लूं.....

ज्योत्सना:– मैं भी अपने नाती के पास ही जा रही थी... चलो साथ चलते है।

आर्यमणि और उसकी सास दोनो साथ में ही महाती से मिलने पहुंच गये। आर्यमणि को देख महाती प्यारी सी मुस्कान बिखेरते.... “आप कब लौटे पतिदेव”...

आर्यमणि अपना ध्यान अपने बच्चे पर लगाते... “अभी थोड़े समय पहले ही पहुंचा हूं।”

ज्योत्सना दोनो के बीच से अपनी नाती को हटाते.... “तुम दोनो आराम से बातें करो जबतक मैं इस सैतान को घुमाकर लाती हूं।”..

ज्योत्सना के जाते ही उस कमरे में बिलकुल खामोशी पसर गयी। न तो आर्यमणि को कुछ समझ में आ रहा था कि क्या कहे और न ही महाती अपने संकोच से बाहर निकल पा रही थी। कुछ देर दोनो ही खामोशी से नीचे तल को देखते रहे। महाती किसी तरह संकोच वश धीमी सी आवाज में कही.... “सुनिए”..

आर्यमणि, अपनी नजरे जहां जमाए था वहीं जमाए रखा। महाती की आवाज सुनकर बिना उसे देखे.... “हां..”..

महाती:– अब क्या मुझसे इतनी नफरत हो गयी कि मेरे ओर देखे बिना ही बात करेंगे...

आर्यमणि, फिर भी बिना महाती को देखे जवाब दिया.... “तो क्या मुझे नफरत नहीं होनी चाहिए। तुम मेरी मानसिक मनोस्थिति जानती थी, फिर भी मुझसे विवाह की।”..

महाती:– शायद मैं आपके नफरत के ही लायक हूं। ठीक है आपका जो भी निर्णय होगा वह मैं खुशी–खुशी स्वीकार लूंगी...

आर्यमणि:– वैदिक मंत्र पढ़े गये थे। 5 योगियों ने मिलकर हमारा विवाह तय किया था, इसे न स्वीकारने की हिम्मत मुझमें नहीं। थोड़ा वक्त दो मुझे...

महाती २ कदम आगे आकर आर्यमणि का हाथ थामते.... “आप मेरे हृदय में भगवान की तरह थे। आपसे शादी का निर्णय लेना आसान नही था। एक ओर दिल गुदगुदा रहा था तो दूसरे ओर आपके सम्मोहन में होना उतना ही खटक रहा था। मै शादी से साफ इंकार कर चुकी थी, परंतु नियति कुछ और ही थी। आपके साथ इतना लंबा वक्त बिता। आपके साथ इतने प्यार भरे पल संजोए। मै शायद भूल भी चुकी थी कि आपका सम्मोहन जब टूटेगा तब क्या होगा? शायद मैं आज के वक्त की कल्पना नहीं करना चाहती थी। और आज देखिए शादी के इतने साल बाद मेरे पति ही मेरे लिये अंजान हो गये।”...

आर्यमणि:– मैं तुम्हारे लिये अंजान नही हूं महा। बस सम्मोहन टूटने के बाद तुम मेरे लिये अंजान सी हो गयी हो। ये शादी मुझे स्वीकार है, बस थोड़ा वक्त दो।

महा:– यदि आपकी शादी आपके माता पिता की मर्जी से हुई होती। वही परंपरागत शादी जिसमे लड़का और लड़की अंजान रहते है तो क्या आप ऐसी बातें करते? जब शादी स्वीकार है तो मुझे भी स्वीकार कीजिए। जब मेरे करीब ही रहना नहीं पसंद करेंगे, जब मुझे देखेंगे ही नही, तो मैं कैसे आपको पसंद आ सकती हूं?

आर्यमणि:– तुम जिस दिन मेरी दुविधा समझोगी... खैर उस दिन शायद तुम मेरी दुविधा समझो ही नही। मै क्या कहूं कुछ समझ में ही नही आ रहा।

महाती एक कदम और आगे लेती अपना सर आर्यमणि के सीने से टिकाती..... “मैं जानती हूं आपके हृदय में रूही दीदी है, जिस वजह से आपको ये सब धोखा लग रहा है। आप इतना नही सोचिए। पहले भी आपने मुझमें रूही दीदी को देखा था, आगे भी मुझे उसी नजर से देखते रहिए। आपके पग–पग मैं साथ निभाती रहूंगी। आपके जीवन में स्त्री प्रेम की जगह को पूरा भर दूंगी।”

आर्यमणि, अपनी नजरे नीची कर महाती से नजरें मिलाते..... “महा तुम्हारा प्रेम–भाव अतुलनीय है। लेकिन कुछ वर्ष शायद तुम्हे मुझसे दूर रहना पड़े।”

महाती:– ऐसे अपनेपन से बात करते अच्छे लगते हैं जी। आप मेरी और अन्यंस की चिंता नही कीजिए। दीदी (रूही) और परिवार के हर खून का बदला आप ऐसे लेना की दोबारा कोई हमारे परिवार को आंख उठा कर न देख सके। लेकिन उन सब से पहले घर की बड़ी बेटी को ढूंढ लाओ। अमेया को मैं अपने आंचल तले बड़ी करूंगी।

आर्यमणि:– हम्म्म ठीक है, काम शुरू करने से पहले अमेया तुम्हारे पास होगी। मै आज तुम्हारे और अन्यांस के साथ पूरा समय बिताऊंगा। उसके बाद कल मैं पहले नाग लोक की भूमि पर जाऊंगा, उसके बाद कहीं और।

महाती खुशी से आर्यमणि को चूम ली। उसकी आंखों में आंसू थे और बहते आंसुओं के साथ वह कहने लगी..... “आप मेरी खुशी का अंदाजा नहीं लगा सकते। मां अम्बे की कृपा है जो आपने मुझसे मुंह न मोड़ा”..

आर्यमणि:– पूरे वैदिक मंत्रों के बीच 5 तपस्वी ने हमारा विवाह करवाया था। तुम्हे छोड़ने का अर्थ होता अपना धर्म को छोड़ देना।

महाती पूरी खुश थी। अपनी खुशी में वो मात्र राजधानी ही नही, बल्कि समस्त महासागर में चल रहे काम से सबको छुट्टी दे दी। कैदियों के प्रदेश से लगभग 10 लाख कैदियों को उनके ग्रह पर छोड़ दिया गया। अगले एक दिन तक दोनो साथ रहे और एक दूसरे के साथ काफी प्यारा वक्त बिताया। इस पूरे एक दिन में आर्यमणि, विजयदर्थ को भी सजा देने का ठान चुका था।

यूं तो विजयदर्थ के संदेश पूरे दिन मिलते रहे किंतु आर्यमणि उस से मिलना नही चाहता था। महासागर को छोड़ने से पहले विजयदर्थ और आर्यमणि आमने–सामने थे और पूरी सभा लगी हुई थी। सभा में महाती के अलावा विजयदर्थ के बचे हुये 3 बेटे और एक बेटी भी मौजूद थी। उन सबकी मौजूदगी में आर्यमणि ने साफ–साफ शब्दों में कह दिया....

“यदि विजयदर्थ बौने समुदाय के यजुरेश्वर को राजा बनाते है तथा उसके राजा बनने के उपरांत वह अपनी कुल धन संपत्ति छोड़, अपने परिवार के साथ राजधानी छोड़कर किसी अन्य जगह साधारण नागरिक का जीवन शुरू करते है। तो ही मैं विजयदर्थ को उसके किये के लिये माफ करूंगा।”..

एक राजा से उसकी गद्दी छीन ली। एक राज परिवार से उसकी कुल धन संपत्ति छीनकर, उसे आम लोगों की तरह गुमनामी में जीने की सजा दे डाली। ये तो विजयदर्थ के लिये हर वर्ष अपनो के लाश देखने से भी बड़ी सजा थी। किंतु जुबान तो जुबान होती है, जो विजयदर्थ ने योगियों को दिया था... “आर्यमणि जो भी सजा देगा मंजूर होगा।”... और दिल पर पत्थर रखकर विजयदर्थ और उसके पूरे परिवार ने इस प्रस्ताव पर सहमति जता दिया।

विदा लेने पहले आर्यमणि एक बार अपने बच्चे अन्यांस को गोद में लिया और महाती से कुछ औपचारिक बाते की। नागलोक के भू–भाग पर जाने के लिये उसकी सवारी भी पहुंच चुकी थी, जिसे आर्यमणि वर्षों बाद देख रहा था। चहकीली नजरों के सामने थी और पहले के मुकाबले उसका शरीर काफी विकसित भी हो चुका था। हां लेकिन शारीरिक विकास के साथ–साथ चहकीली की भावना भी पहले जैसी नहीं दिखी। वह बिलकुल खामोश और शांत थी।

आर्यमणि यूं तो तल पर ही खड़ा था, किंतु उसके उसके शरीर से उसकी आत्मा धुएं समान निकली जो चाहकीली के चेहरे के बराबर थी। चहकीली उस आत्मा को देख अपनी आंखे बड़ी करती.... “चाचू ये आप हो?”

आर्यमणि:– हां ये मैं ही हूं...

चहकीली:– पर आप ऐसे कैसे मेटल टूथ की तरह दिखने लगे। बिलकुल पारदर्शी और धुएं समान...

आर्यमणि:– मेरा दिखना छोड़ो और तुम अपनी बताओ। इतनी गुमसुम शक्ल क्यों बनाई हुई हो।

चहकीली:– हम जानवर है ना... और जानवरों की कोई भावना नहीं होती...

आर्यमणि:– ये बात न तुम मेरी रूही से कहना, जो अब भी उस आइलैंड पर इंतजार कर रही है।

चहकीली:– क्या आंटी की आत्मा? तो क्या वहां अलबेली और इवान भी मिलेंगे...

आर्यमणि:– नही उन दोनो को तो रूही ने स्वर्ग लोक भेज दिया और खुद यहीं रुक गयी ताकि अपनी और उन दोनो की अधूरी इच्छाएं पूरी करवा सके।

चहकीली:– आप झूठ बोल रहे हो ना चाचू...

आर्यमणि:– अभी तुम मेरे साथ चल रही हो ना, तो चलकर खुद ही देख लेना...

चहकीली:– मैं आपकी बातों में नही उलझती। वैसे चाचू एक बात पूछूं..

आर्यमणि:– हां पूछो..

चहकीली:– चाचू क्या आपका खून नही खौलता? चाचू आप रूही चाची को भूलकर महाती के साथ खुश कैसे हो सकते हो?

आर्यमणि:– “खुश दिखना और अंदर से खुश रहना 2 अलग–अलग बातें होती है। वैसे भी रूही और महाती में एक बात सामान है... वो दोनो ही मुझे बेहद चाहती है। इस बात से फर्क नही पड़ता की मैं क्या चाहता हूं। उनको जब खुशी देखता हूं तब मैं भी अंदर से खुश हो जाता हूं। फिर ये मलाल नहीं रहता की मेरी पसंद क्या थी।”

“चहकीली एक बात पता है, एकमात्र सत्य मृत्यु है। इसे खुशी–खुशी स्वीकार करना चाहिए। हां मानता हूं कि रूही, अलबेली और इवान की हत्या नही होनी चाहिए थी। किसी के दिमागी फितूर का शिकर मेरा परिवार हुआ। अतः उन्हें मैं दंड भी ऐसा दूंगा की उन्हे अपने जीवित रहने पर अफसोस होगा। बाकी मैं जब भी अपनी रूही, अलबेली और इवान को याद करूंगा तो मुस्कुराकर ही याद करूंगा। तुम भी अपनी मायूसी को तोड़ो।”

चहकीली:– केवल एक शर्त मैं मायूसी छोड़ सकती हूं। निमेषदर्थ को आप मेरे हवाले कर दीजिए...

आर्यमणि:– तुम्हे निमेष चाहिए था तो उस वक्त क्यों नही बोली जब मैं उसका पाऊं काट रहा था। उसी वक्त मैं तुम्हे निमेष को दे देता। जनता हूं तुम उसे मृत्यु ही देती लेकिन तुम्हारी खुशी के लिये इतना तो कर ही सकता था।

चहकीली:– बिलकुल नहीं... मै उसे मारना नही चाहती हूं...

आर्यमणि:– फिर तुम उसके साथ क्या करोगी? और ये क्यों भुल जाती हो, निमेष को सिर्फ महासागर से निष्काशित किया गया था, ना की उसकी सारी शक्तियों को छीनकर निष्कासित किया गया था। निमेष के पास अब भी उसके आंखों की जहरीली तरंगे और वो दंश है, जो थल पर भी उतना ही कारगर असर करते है। नमूना मैं नागलोक के भू–भाग पर देख चुका हूं।

चहकीली:– मुझे निमेष तो चाहिए लेकिन उसका मैं कुछ नही करूंगी, बल्कि सब तुम करोगे चाचू...

आर्यमणि:– मैं क्या करूंगा...

चहकीली:– उस निमेषदर्थ को शक्तिहीन कर दोगे। फिर मल निकासी के ऊपर जो मेरे पेट पर सर्जरी किये थे, उस जगह को चिड़कर, निमेषदर्थ को मल निकास नली के अंदर की दीवार से टांक देना। बस इतना कर देना...

आर्यमणि:– किसी दूसरे को सजा देने के लिये मैं तुम्हे दर्द दे दूं, ऐसा नहीं हो सकता...

चहकीली:– फिर मेरी उदासी कभी नही जायेगी। चाचू मेरे दिल का बोझ बस एक आपकी हां पर टिका है। मना मत करो ना...

मायूस सी उसकी आंखें थी और मासूम सा चेहरा। आर्यमणि, चहकीली के दिल की भावना को मेहसूस करते, उसके प्रस्ताव पर अपनी हामी भर दिया। चहकीली पुराने रंग में एक बार फिर चहकती हुई गुलाटी लगा दी और आर्यमणि को अपने पंख में लॉक करके नागलोक के भू–भाग पर चल दी।

Awesome updates👍🎉
 

monty1203

13 मेरा 7 रहें 🙏🙏🙏🙏
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Aise kaise bina baat par ban kar diya... Koi na sahayad cool naam tha aur kisi ko chahiye hoga... Nayi I'd bana liye na... Khush rahne ka man ...



Mod ke item idhar hai kya :yikes:


Hahahaha.... Nahi abhi tak to bacha tha kahin aapke comment ko na un logon ne padh liya ho... Lucifer Saar kuch bhool chuk ho gayi ho to maaf kar Dena...

Update posted
Me too भूल चूक माफ
 

monty1203

13 मेरा 7 रहें 🙏🙏🙏🙏
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गजब नैन भाई निश्चिंल की भी एंट्री करवादी मतलब ये वो टाइम है जब जीविषा और निश्चिंल की यादास गायब थी और निश्चिंल ऊर्जा के साथ पृथ्वी पर आया था

मतलब जो आप ने( कैसा ये इश्क़ है अजब सा रिश्क़ है 2)कहानी मे दिखाया उसके हिसाब से लगता है जीविषा और निश्चिंल की यादास स्वास्तिका के हॉस्पिटल मे ट्रीटमेन्ट से नहीं बल्कि आर्य के बदौलत वापस आई थी🙏🙏🙏🙏

और हा नैन भाई इस कहानी मे दो लोगो की ऐसे है जिनकी मौत देख के काफी सुकून और शांति मिलेगी पहला वो mc न्याजो विवियान और दूसरा निमेषडार्ट इन हरामियों को बहुत ही बुरी मौत मरना और इस निमेषडार्ट को तो वही करना जो चेहकीली ने बोला था 🙏🙏🙏🙏

और नैन भाई रूही का किरदार अब भी है कहानी मे तो बिचारि अलबेली और इवान को कहे स्वर्ग भेज दिया एक आखरी मुलाक़ात तो उन से भी बनती थी और हा जब रूही से मिलने जाओ को अमया को साथ लें जाना एक माँ के दिल को सुकून मिलेगा वैसे देखा जाए तो रूही को उसकी अवकात से ज्यादा ही मिला भले कम समय के लिए कहाँ वो बादशाह खान की गलियों मे नंगी घुमाई जा रहि थी और कहाँ उसे आर्य जिसा जीवन साथी मिला जो इस पृथ्वी पर सबसे शक्तिशाली है देखा जाए तो उसने अपनी जिंगदी के जितने भी टाइम आर्य के साथ गुजरे वो काफ़ी अनमोल और बेहतरीन थे
 
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