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Romance I LOVE YOU (me tujse pyar karta hu)

gauravrani

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अप्रैल का महीना शुरू हो चुका था। दिल्ली की गर्मी अपने तेवर दिखा रही थी। जैसे-जैसे दिन चढ़ता, गर्मी तेज होने लगती, इसलिए सुबह जल्दी ऑफिस चले जाना और शाम को देर तक ऑफिस में बैठे रहने का रूटीन बना लिया था। ऑफिस में एसी की ठंडक अब सुकून देने लगी थी। ऑफिस से लौटकर कमरे पर पहुँचा ही था, कि पापा का फोन आ गया था। ‘‘हलो पापा, कैसे हो आप!’’ ‘‘हम अच्छे हैं जनाब, आप कैसे हैं।’’ ‘‘मैं भी अच्छा हूँ और अभी ऑफिस से आया हूँ।’’ ‘‘तो, कल तो संडे है, आओगे न इस बार घर?’’ ‘‘हाँ पापा, रात में ही तीन बजे निकलूँगा।’’ ‘‘ठीक है, आओ; चलते ही फोन करना।’’ ऑफिस की छुट्टी थी। तीन महीने बाद पहली बार मैं अपने घर ऋषिकेश के लिए निकला था। स्नेहा जब से मिलीं थी, तब से मैं घर ही नहीं गया था। जब भी घर जाने की बात करता था, तो स्नेहा का चेहरा उदास हो जाता था और उन्हें परेशान करके मैं कभी खुश नहीं रह सकता था। तीन महीने से घर पर पापा, मम्मी, छोटा भाई और बहन इंत़जार कर रहे थे मेरे आने का, पर मैं हर संडे किसी न किसी काम का बहाना लगा देता था... यही वजह थी कि पिछले महीने होली पर भी मैं ऋषिकेश नहीं गया था।
 

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सुबह के तीन बज रहे थे। कश्मीरी गेट से ऋषिकेश के लिए वॉल्वो में बैठ चुका था, तभी स्नेहा का फोन आया। ‘‘कहाँ हो ईशान?’’ ‘‘कश्मीरी गेट, वॉल्वो में; पर ये बताओ, अभी एक घंटे पहले ही तो मैंने सुलाया था तुमको... मना किया था कॉल मत करना, आराम से सोना, मैं दिन निकलने पर कॉल करूँगा।’’ ‘‘यार तुम जा रहे हो, वो भी दो दिन के लिए; मुझे बहुत डर लग रहा है... कैसे रहूँगी तुम्हारे बिना?’’- स्नेहा ये बोलते-बोलते रोने लगी थी। ‘‘स्नेहा...स्नेहा...प्लीज! रोना बंद करो यार।’’ ‘‘ईशान, प्लीज मत जाओ न यार, प्लीज वापस आ जाओ मेरे पास, प्लीज वापस आ जाओ।’’- स्नेहा ये कहते-कहते रोए जा रही थीं। उनके आँसू नहीं थम रहे थे। मैंने उन्हें खूब समझाया। ‘‘मैं जल्दी आऊँगा स्नेहा, बच्चों की तरह ज़िद क्यों कर रहे हो। रोना बंद करो।’’ ‘‘ठीक है, नहीं रोऊँगी; पर वादा करो, मुझे कॉल करते रहोगे और हर पल मुझसे बात करोगे।’’ ‘‘ओके... प्रॉमिस; अब बिलकुल चुप हो जाओ और आराम से सो जाओ, मेरी बस चलने वाली है।’
 

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हम्म... अपना ध्यान रखना।’’ ‘‘हाँ और तुम भी ध्यान रखना अपना; आई लव यू।’’ ‘‘लव यू टू... आई विल मिस यू माई डियर।’’ - स्नेहा ने इतना बोलते ही फोन रख दिया। जैसे-जैसे बस दिल्ली को छोड़ती जा रही थी, वैसे-वैसे स्नेहा का ख़याल बढ़ता जा रहा था। उनसे पहली बार दूर जा रहा था। अब तक हर एक दिन उनसे ही शुरू होता था और उन पर ही खत्म होता था... लेकिन आज ये पहला दिन था, जो उनकी आँखों में आए आँसुओं से शुरू हुआ था। यहाँ मेरे जाने से स्नेहा जितना परेशान थी, उतनी ही खुशी ऋषिकेश में मेरे आने की थी। दिल्ली से बस निकली ही थी और पापा ने फोन कर दिया था। ‘‘हाँ बेटा, निकले?’’- पापा ने फोन पर बोला। ‘‘हाँ पापा, निकल चुका हूँ; गाजियाबाद पार कर चुकी है वॉल्वो।’’ ‘‘चलो, अपना ध्यान रखना।’’ गाजियाबाद से आगे बढ़ते ही स्नेहा के बारे में सोचते-सोचते मेरी आँख लग गई थी। मेरठ से आगे एक ढाबे पर बस रुकी हुई थी। बस के शीशे के बाहर छाया
 

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रात का अँधेरा छँट चुका था। सूरज निकलने को बेताब था। ‘‘ओ हलो... मिस्टर...''- बराबर वाली सीट पर बैठी एक लड़की ने मुझे उठाने की कोशिश की थी। मैंने अपनी भारी आँखों को खोलने की कोशिश की, तो देखा कि साथ वाली सीट पर बैठी एक 23-24 साल की बहुत खूबसूरत लड़की मेरी तरफ देखकर मुस्करा रही है। ‘गुड मार्निंग!'- उसने कहा। ‘गुड मार्निंग' ‘‘बस रुकी हुई है, सब लोग नीचे टी-ब्रेकफास्ट ले रहे हैं; तुम नहीं चलोगे?’’ ‘‘चलता हूँ यार, आई रियली वांट ए टी।’’ वो मेरे साथ ही बस से उतरी थी। मैं मुँह धोकर वॉशरूम से वापस आया, तब तक उसने कॉफी ऑर्डर कर दी थी। ‘‘आई एम ईशान एंड थैंक्स मुझे उठाने के लिए।’’ ‘‘माई सेल्फ अनन्या एंड इट्स ओके; तुम सो रहे थे, मुझे लगा जगा देना चाहिए; वैसे ऋषिकेश जा रहे हो या हरिद्वार?’’
 

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आय एम गोइंग टू ऋषिकेश।’’- उसके सवाल का जवाब देते हुए मैंने स्नेहा को मैसेज कर दिया था कि मैं मेरठ पहुँच चुका हूँ। ‘‘ओके... यू आर फ्रॉम दिल्ली ऑर ऋषिकेश?’’- यह उसका अगला सवाल था। ‘‘आय एम फ्रॉम ऋषिकेश एंड वर्किंग इन दिल्ली। एंड वॉट अबाउट यू?’’ इतने में ही स्नेहा का मैसेज आ गया था- ‘‘ओके, टेक केयर... घर पहुँचकर मुझे तुरंत कॉल करना, आई रियली वांट टू टॉक टू यू।’’ ‘‘आई एम फ्रॉम दिल्ली; ऋषिकेश में मेरी मौसी रहती हैं, सो वीकेंड पर जा रही हूँ।’’- अनन्या ने मुस्कराते हुए बताया। ‘‘ओह! अच्छा... दिल्ली में कहाँ से?’’ ‘‘मयूर बिहार।’’ ‘‘ओह, गुड; मैं भी वहीं रहता हूँ।’’ ‘‘कहाँ, मयूर विहार में?’’ ‘हाँ।' ‘‘दैट्स ग्रेट।’’ ‘‘और तुम्हारा ऑफिस...?’’ ‘‘सेक्टर-18 नोएडा।’’ ‘गुड।'
 

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बस चलने का अनाउंसमेंट हो गया था। सब लोग बस में बैठ रहे थे। अनन्या, सामने वाली सीट पर पैर रखकर बो़fफक्र अंदा़ज में बैठी थी। उसे देखकर मुझे लगा, जैसे उसका चलने का मन नहीं है। ‘‘अनन्या, चलें?’’ ‘‘ओह हाँ, चलो-चलो।’’ उसने तुरंत अपनी स्लीपर पहनी और हम दोनों बस की तरफ बढ़ गए। ‘‘क्या मैं विंडो की तरफ बैठ जाऊँ?’’- अनन्या ने बस के अंदर पूछा। ‘‘हाँ, बैठ जाओ।’’ ‘थैंक्स।'- उसने मुस्कराते हुए कहा और विंडो सीट पर बैठ गई। ‘‘इट्स ओके अनन्या।’’ ‘‘तो अब मुझे इयरफोन बैग में रख देना चाहिए न?’’ ‘क्यों?’ ‘‘अब तो तुम मिल गए हो न, रास्ते भर बातें करते चलेंगे न।’’ ‘‘हाँ, श्योर।’’ अभी तक अनन्या को मैं जितना समझ पाया था, उसके हिसाब से वो बहुत ही बोल्ड और बिंदास लड़की थी, जो अपने हर पल को खुशी से जीना चाहती थी
 

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अनजान लोगों से भी हाथ आगे बढ़ाकर दोस्ती कर लेना उसे पसंद था। हाँ, समझदार थी और सही-ग़लत में फर्क समझती थी। बस, मेरठ से आगे बढ़ चली थी। अनन्या और मेरी बातें शुरू हो चुकी थीं। कितना हँसती थी वो बात करते-करते। ‘‘तो कब से हो दिल्ली में?’’- उसने पूछा। ‘‘चार साल से।’’ ‘‘कहाँ जॉब करते हो तुम?’’ ‘‘मैं एक इवेंट मैनेजमेंट कंपनी में असिस्टेंट मैनेजर हूँ; हम लोग पॉलिटिकल और एंटरटेनमेंट की इवेंट ऑर्गेनाइज करते हैं।’’ ‘‘ओके, कूल।’’ ‘‘वैसे तुम क्या करती हो?’’ ‘‘मैंने फैशन डिजाइनिंग से पोस्ट ग्रेजुएशन किया है और अभी दो महीने पहले ही मेरी जॉब लगी है; आई एम वर्किंग एज ए कॉस्टयूम डिजाइनर इन कनॉट प्लेस।’’ ‘‘वाह...गुड! और तुम्हारी फैमिली?’’ ‘‘मेरी फैमिली में पापा हैं, मम्मी हैं और एक छोटा भाई है; हम लोग बचपन से दिल्ली में ही रहते हैं। पापा बैंक में सीनियर मैनेजर हैं और मम्मी हाउस वाइफ हैं; भाई, दिल्ली यूनिवर्सिटी से बी.कॉम. की पढ़ाई कर रहा है
 

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ओके...गुड।’’ ‘‘और तुम्हारी फैमिली में कौन-कौन हैं?’’ ‘‘पापा, मम्मी, मैं, छोटा भाई और बहन।’’ ‘ओके।' एक-दूसरे की फेमिली, जॉब और इधर-उधर की बात करते-करते कब हमारी बस हरिद्वार पहुँच गई, पता ही नहीं चला। मुझे घर के पास पहुँचने की खुशी थी, तो अनन्या को अपनी मौसी से मिलने का उत्साह था। इसके साथ एक और खुशी हम दोनों को थी... ये खुशी थी एक दोस्त को पाने की खुशी। मुझे अनन्या के रूप में एक अच्छी दोस्त मिल गई थी। ‘‘तो घर पर सब बहुत खुश होंगे न?’’- अनन्या ने पूछा। ‘‘हाँ, बहुत; तीन महीने बाद आया हूँ घर।’’ ‘‘गुड। मैं भी पाँच महीने पहले आई थी। पैरेंट्स भी आए थे और हम लोगों ने रॉफ्टिंग की थी, खूब मजा आया था; नीलकंठ दर्शन के लिए भी गए थे हम लोग।’’ ‘‘ओके कूल।’’ ‘‘तो वापस कब जाओगे तुम?’’ ‘‘मैं दो दिन रहूँगा, संडे और मंडे; ट्यूज्डे मॉर्निंग में वापस।’’
 

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ओके... मैं भी दो दिन रहूँगी और ट्यूज्डे को निकलूँगी; ऑफिस है ट्यूसडे को। तो फिर ऐसा करते हैं, अगर कोई प्रॉब्लम न हो, तो हम साथ वापस जा सकते हैं, अच्छा रहेगा ना? खूब बातें करेंगे।’’- उसने मेरी तरफ मुड़ते हुए पूछा। ‘‘कोई प्रॉब्लम नहीं है, पर मैं सुबह जल्दी निकलूँगा।’’ ‘‘मुझे भी जल्दी निकलना है; ऑफिस पहुँचना है न 11 बजे।’’ ‘‘ओके, तब फिर साथ ही चलेंगे।’’ ‘‘मजा आएगा सच में... तो तुम्हारा मोबाइल नंबर... फोन से टच में रहेंगे न।’’ सुबह के 10 बजे थे और बस ऋषिकेश बस स्टैंड पहुँच चुकी थी। सब लोग अपना सामान उतारने लगे थे। हम दोनों भी सीट से खड़े हो चुके थे और लगेज उतारने लगे थे। ‘‘अनन्या, ये मेरा कार्ड है; प्लीज मेरे नंबर पर एक मिस्ड कॉल दे देना।’’ ‘‘ओके...थैंक्स।’’ ‘‘तो अनन्या, कहाँ है तुम्हारी मौसी का घर?’’ ‘‘डॉक्टर कॉलोनी।’’
 

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अच्छा...मेरे घर के पास ही है, मैं ड्रॉप कर देता हूँ तुम्हें।’’ ‘‘ओके...नो प्रॉब्लम।’’ ‘‘ऑटो..ऑटो! रेलवे रोड चलोगे?’’ ‘‘बैठिए सर।’’ मैं और अनन्या ऑटो में बैठ गए थे। ‘‘भइया, डॉक्टर कॉलोनी होते हुए रेलवे रोड चलना।’’- मैंने ऑटो वाले से कहा। ‘‘ओके सर।’’ ‘‘अच्छा अनन्या, पूरे सफर की सबसे अच्छी बात क्या रही?’’ ‘‘बेशक, तुमसे मिलना।’’ ‘‘ओह! सच?’’ ‘‘हाँ, बिलकुल।’’ ‘‘मेरे लिए भी; वरना सोते-सोते ऋषिकेश तक आता।’’ ‘‘बस भइया, इधर ही रोक देना।’’- अनन्या ने ऑटो वाले से कहा। अनन्या की मौसी का घर आ चुका था। ‘‘ईशान, मेरा घर आ गया है; आओ अंदर, मौसी की फेमिली से मिलना।’’
 
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