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अप्रैल का महीना शुरू हो चुका था। दिल्ली की गर्मी अपने तेवर दिखा रही थी। जैसे-जैसे दिन चढ़ता, गर्मी तेज होने लगती, इसलिए सुबह जल्दी ऑफिस चले जाना और शाम को देर तक ऑफिस में बैठे रहने का रूटीन बना लिया था। ऑफिस में एसी की ठंडक अब सुकून देने लगी थी। ऑफिस से लौटकर कमरे पर पहुँचा ही था, कि पापा का फोन आ गया था। ‘‘हलो पापा, कैसे हो आप!’’ ‘‘हम अच्छे हैं जनाब, आप कैसे हैं।’’ ‘‘मैं भी अच्छा हूँ और अभी ऑफिस से आया हूँ।’’ ‘‘तो, कल तो संडे है, आओगे न इस बार घर?’’ ‘‘हाँ पापा, रात में ही तीन बजे निकलूँगा।’’ ‘‘ठीक है, आओ; चलते ही फोन करना।’’ ऑफिस की छुट्टी थी। तीन महीने बाद पहली बार मैं अपने घर ऋषिकेश के लिए निकला था। स्नेहा जब से मिलीं थी, तब से मैं घर ही नहीं गया था। जब भी घर जाने की बात करता था, तो स्नेहा का चेहरा उदास हो जाता था और उन्हें परेशान करके मैं कभी खुश नहीं रह सकता था। तीन महीने से घर पर पापा, मम्मी, छोटा भाई और बहन इंत़जार कर रहे थे मेरे आने का, पर मैं हर संडे किसी न किसी काम का बहाना लगा देता था... यही वजह थी कि पिछले महीने होली पर भी मैं ऋषिकेश नहीं गया था।