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माँ की बातों में भी समझाने का भाव झलक रहा था। मैं भी ऐसा नहीं था कि शादी करना ही नहीं चाहता था... बस इस वक्त शादी की बात मुझे परेशान कर रही थी। माँ की बातों को समझकर उन्हें विश्वास दिलाया कि ऐसा कुछ नहीं है, शादी कर लूँगा। इसके बाद मैं अपने कमरे में चला गया। घर की सभी लाइटें बंद हो चुकी थीं। सब लोग अपने-अपने कमरे में जा चुके थे। कपड़े बदलकर बिस्तर पर लेटकर सबसे पहले स्नेहा को कॉल लगाया। ‘‘हैलो, स्नेहा, कैसे हो?’’ ‘‘मैं ठीक हूँ, तुम बताओ कैसे हो? घर पर सब ठीक है न।’’ ‘‘हाँ, सब ठीक है, तुम परेशान मत होना।’’ स्नेहा की बातों में एक चिंता झलक रही थी। शायद यह चिंता थी मेरी शादी की। दिनभर घर में क्या-क्या हुआ, किसने क्या कहा, सब स्नेहा को बताया। हम लोग रात तीन बजे तक बातें करते रहे। अगले दिन स्नेहा को ऑफिस जाना था। हम दोनों में से अगर कोई एक ऑफिस में नहीं होता था, तो दूसरे का मन नहीं लगता था। इसीलिए स्नेहा भी ऑफिस नहीं जाना चाहती थी। ‘‘यार ईशान, जल्दी आ जाओ न, मन ही नहीं लग रहा है तुम्हारे बिना।’’