- 11,431
- 24,561
- 229
घर के मुख्य द्वारा से बाहर निकलकर अभिमन्यु सीधे अपनी बाइक के पास पहुँचा और उसपर बैठ क्षणिक पलों तक कुछ सोचने-विचारने मे लगा रहता है, उसके दोनो हाथ उसकी सोच के साथ ही हिलने-डुलने लगे थे जैसे उसकी सोच से मूक वार्तालाप कर रहे हों।
"हम्म! यह मस्त रहेगा, बिलकुल ठीक। हाँ यही मस्त रहेगा" वह अचानक से बड़बडा़या और सहसा उसके मायूस चेहरे पर पुनः मुस्कान लौट आती है। तत्पश्चात उसने बाइक दौड़ा दी, यकीनन उसकी सोच पूरी हो चुकी थी।
--------------------------------------
अपने बेडरूम के बिस्तर पर बैठी वैशाली काफी देर तक अपने आँसुऔं मे ड़ूबी रही, उसे इस बात पर रोना नही आ रहा था कि उसने अभिमन्यु की चाह को अपना समर्थन नही दिया था बल्कि वह इसलिए दुखी थी कि पलभर मे कैसे एक बेटा अपनी सगी माँ की ओर इतनी गम्भीरता से आकर्षित हो गया था? स्त्रियां तो ऐसे लघु आकर्षणों पर फूली नही समातीं, काश! कि वह सिर्फ एक स्त्री ही होती तो कितना अच्छा होता मगर स्त्री होने के साथ-साथ एक विवाहित माँ होने का भी गौरव उसे प्राप्त था और ऐसे मे उसका बेटा चाहे कितना भी अधिक उसकी ओर आकर्षित हो जाता, रहता तो वह एक पराया मर्द ही।
"माँ भी तुम्हारी है अभिमन्यु क्योंकि वह भी इस घर की जायजाद मे शामिल है और जिसके इकलौते वारिस तुम ही हो बेटा, सिर्फ तुम ही हो" खुद से ऐसा बारम्बार कहते हुए वैशाली तत्काल अपने आँसुओं के पोंछ लेती है, निश्चित उसके शब्दों से उसके ममतामयी दिल का वह बोझ कम होने लगा था कि जाने-अंजाने जीवन मे पहली बार उसने स्वयं अपने बेटे का दिल तोड़ा था।
चेहरे पर टूटी-फूटी मुस्कान लिए वैशाली फौरन बिस्तर से नीचे उतरी और सर्वप्रथम उसने घर के मुख्य द्वार को लॉक किया, फिर वापस अपने बेडरूम मे लौटकर सीधे अटैच बाथरूम के भीतर घुस जाती है। अभिमन्यु ने उसे तैयार रहने को कहा था और पिछला आधा घंटा वह अपनी सोच मे ही बिता चुकी थी। अच्छे से मुंह हाथ धोकर वह अपने
वार्डरोब मे भरी पड़ी साड़ियों मे से अपनी सबसे पसंदीदा साड़ी का चुनाव करने लगती है और जल्द ही उसने उस मेहरुन रंगत की साड़ी को चुन लिया जिसे बीते मदर्स डे पर उसे उसकी बेटी अनुभा ने तोहफे मे दिया था।
"ओह हो! इस साड़ी का पेटीकोट तो मैच ही नही हो रहा और फिर पहनने को साफ-सुथरी कच्छी भी तो नही बची" वैशाली पेटीकोट का रंग साड़ी के रंग से हल्का पाकर मायूसी से बुदबुदाई, उसने सहसा गौर किया कि कैसे अब वह 'कच्छी' जैसे देशी शब्द का स्वतः ही उच्चारण करने लगी थी। शर्माते हुए पेटीकोट को बिस्तर पर फेंक उसने मैक्सी अपने गदराए बदन से अलग कर दी और ड्रेसिंग टेबल के सामने जाकर खडी़ हो जाती है।
जीवन मे दूसरी बार उसे अपने बदन मे एक अजीब-सा बदलाव नजर आ रहा था, ठीक वैसा बदलाव जैसा उसने अपनी बीती जवानी मे महसूस किया था जब वह अपने कुंवारेपन से मुक्त होने को पल-पल तड़पा करती थी। आज पुनः उसी तड़प से उसका सम्पूर्ण बदन टूट रहा है, उस तड़प के टूटने की प्रतीक्षा मे आज फिर उसका अंग-अंग बिन छुए ही फड़कने लगा है मानो किसी जवान, बलिष्ठ मर्द के नीचे दब जाने की उसकी इच्छा दोबारा जीवंत हो गई हो जिस इच्छा के तहत उसने कभी अपने भावी पति की कल्पना की थी।
कांच मे अपने अक्स को देख वह अपने बाएं हाथ की उंगलियां ब्रा के भीतर कैद अपने गोल-मटोल मम्मों के ऊपरी फुलाव पर घुमाने लगती है, उसे तत्काल वह क्षण याद आ गया जब डाइनिंग टेबल पर बैठा अभिमन्यु कितनी बेशर्मी के साथ उसके मम्मों के इसी फुलाव को खा जाने वाली नजरे घूरे जा रहा था।
"माँ के मम्मों पर बेटे का हक नही होगा तो क्या किसी माणिकचंद का होगा?" खुद के ही सवाल पर वैशाली हँसने लगी, अपने दोनो हाथ पीठ पर ले जाकर उसने अपनी ब्रा का हुक खोल दिखा और उसे हाथों से बाहर निकाल बिस्तर पर उछाल देती है।
ऐसे मत घूर बिच, अब तेरी ही बारी है" कांच मे देखते हुए वह अपने बदन पर बचे आखिरी वस्त्र, अपनी कच्छी से बोली और बड़ी अदा के साथ फौरन उसे सकराकर नीचे फर्श पर गिरने के लिए छोड़ दिया।
"बेशर्म निगोड़ी तू है मेरा मन्यु नही, मरोड़ना तुझे चाहिए उस बेचारे का कान नही। पूरे दिन से बह रही है, मेरी तीनो कच्छियों को गंदा कर डाला। अब क्या पहनूं पेटीकोट के नीचे? तेरे कारण आज पहली बार मुझे बिना कच्छी पहने घर की चौखट के बाहर कदम रखना पड़ेगा" अपने अश्लील कथन अनुसार ही वैशाली ने अपने दाएं हाथ के अंगूठे और प्रथम उंगली के बीच दिनभर से निरंतर रिस रही अपनी चिपचिपी चूत के दोनो स्पंदनशील होंठ एकसाथ भींच लिए और सिसियाते हुए बलपूर्वक उन्हें मरोड़ने लगती है, मानो सत्यता मे ही उन्हें सजा दे रही हो। उसकी कामुक हँसी का तो कोई पारावार शेष ना था, किसी भयानक मनोविकार से ग्रस्त पागल की भांति लगातार खिखियाते हुए पूरे जोशो-खरोश से वह अपनी चूत के अत्यंत सुंदर मुख को तीव्रता से उमेठे जा रही थी।
"उन्ह! उन्ह! तेरी गलती भी नही मुनिया। उफ्फ! रो-रोकर तू ...तू तो बस अपनी स्वभाविक चाह जता रही है, गूंगी जो है ठहरी। उन्ह! बोल नही सकती ना कि तेरी एक मोटे और लंबे--से लंड से चुदने की इच्छा है मगर किसके लंड से? तेरा मालिक माणिचंद तो यहाँ है नही, फिर किसके? बोल! बोल! किसके?" जो विध्वंशक, पापी शब्द उस मर्यादित माँ ने अपने सम्पूर्ण बीते जीवन मे कभी अपने होंठों पर नही आने दिए थे, सहसा उनके एकाएक मुंह से बाहर आते ही वैशाली अपने बाएं हाथ के अंगूठे और प्रथम उंगली के बीच अपने वास्तविक होंठों भी कसकर जकड़ लेती है। यह सोचकर कि अब उसके स्त्री शरीर के वह दोनो मुख्य अंग उसने हर संभव तरह से दबा दिए हैं हमेशा जिनके ही कारण यह धरती अनगिनत बार लहुलुहान हुई थी, मगर मन का क्या? वह तो पूर्व स्वतंत्र है।
आहऽऽ! अभिऽऽमन्युऽऽऽऽ" अपने चंचल मन के हाथों विवश सचमुच पापी बनने को उत्सुक, चुदाई की प्यासी वह अत्यंत कामलुलोप माँ दिन मे तीसरी बार अपने सगे बेटे के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष स्मरण मात्र से ही स्खलित होने लगती है।
कहते हैं कि पहली बार कोई पापी कृत्य करने के उपरान्त मनुष्य ग्लानी भाव से तड़प उठता है, दूसरी बार मे उसकी ग्लानी कुछ कम हो जाती है और जब वह बारम्बार पाप करने का आदि हो जाए तब उसके भीतर किसी भी प्रकार की कोई ग्लानी शेष नही रहती। अपनी कच्छी से अपनी स्खलित चूत का गाढ़ा रस पोंछते हुए वैशाली का मन-मस्तिष्क बेहद शांत था बजाए इसके कि वह रोए, दुखी हो; वह पूर्णरूप से संतुष्ट, निश्चिंत बिलकुल मस्त मलंग थी।
धुली ब्रा, ब्लाउज और बिना कच्छी के पेटीकोट पहनकर वैशाली अपनी नई महरुन साड़ी भी पहन चुकी थी, पेटीकोट का हल्का रंग साड़ी को एक नया व काफी शानदार फेन्सी लुक दे रहा था। अपने प्राकृतिक सुंदर चेहरे के श्रृंगार के नाम पर अधिकतर वह काजल और मैचिंग लिपस्टिक का ही प्रयोग करती थी, अपनी अत्याकर्शक बड़ी-बड़ी आँखों मे काजल लगाकर उसने मूंगिया रंगत के अपने भरे हुए होंठ गहरे महरुन रंग की लिपस्टिक से रंग लिए। तत्पश्चात वार्डरोब के लॉकर से उसने अपने उन गहनों का बॉक्स बाहर निकाला जिन्हें उसने अपनी बेटी अनुभा की शादी मे स्वयं के लिए बनवाया था, खैर ज्यादा कुछ उस बॉक्स मे नही था, मणिक की आर्थिक हालत को देख एक जिम्मेदार पत्नी होने का फर्ज निभाते हुए उसने स्त्री मोह की मुख्य वस्तु का सिरे से त्याग कर दिया था। पूर्व से अपनी दायीं नाक के नथुए मे जड़ी लौंग की जगह उसने उसमे सोने का छल्ला पहन लिया, अपने कानों के टॉप्स बदलकर सोने की लटकनदार बालियां भी धारण कर लीं, शायद इसलिए क्योंकि यह छल्ला और बालियां अभिमन्यु के विशेष आग्रह पर उसने बनवाए थे। पूरी तरह से तैयार होकर एक नजर कांच मे खुद को निहारने के उपरान्त उसने अपनी मैक्सी व अन्य कपड़ो को यथोचित स्थान पर रख दिया और बेडरूम से बाहर निकल जाती है।
वैशाली को हॉल के सोफे पर बेठे-बैठे तयशुदा समय से पैंतालीस मिनट ज्यादा बीत चुके थे मगर अभिमन्यु अबतक नही लौटा था ना ही देरी होने के संबंध मे उसका कोई फोन आया था और वह खुद अपने बेटे को कॉल करना नही चाहती थी। वह नही चाहती थी कि अभिमन्यु अपनी माँ की बेसब्री का ज्ञाता हो जाए, वह जान ना ले कि उसकी माँ उसके साथ ट्रीट पर जाने के लिए मरी जा रही थी।
पैंतालीस मिनट से एक घंटा और होते-होते ढ़ाई घंटे बीत गए पर अभिमन्यु की वापसी के विषय मे उसे कुछ भी पता नही चल पाया था। पल-पल दीवार घड़ी को ताकती वैशाली की नम आँखें ना जाने कितनी बार बह जाने की कगार पर पहुँच चुकी थीं मगर एक आस कि उसका बेटा उसे ट्रीट पर जरूर ले जाएगा और कहीं आँसू बहकर उसकी आँख के काजल को धो ना दें, वह जरा भी नही रोई थी मगर उसका धैर्य अब जवाब देने लगा था। अपने बेटे की रश ड्राइविंग की जानकर वह माँ अकस्मात घड़ी से अपनी नजर हटाकर सामने की टेबल पर रखे अपने मोबाइल को घूरने लगी।
"तू तो ऐसे कर रही है जैसे यह कोई आम--सी ट्रीट नही बल्कि तेरी पहली डेट हो" अपनी सोच के समर्थन मे फीकी हँसी हँसते हुए वैशाली ने तत्काल कपड़े बदल लेने का निश्चय किया, चूंकि उसका दिल भी खट्टा हो चुका था और आगामी इंतजार उसकी सहनशक्ति से बाहर था मगर अपने बेडरूम मे जाने से पहले वह एकबार अभिमन्यु से बात अवश्य करना चाहती थी ताकि जान सके कि ऐसा कौन--सा जरूरी काम आन पड़ा था जो वह अपनी माँ से झूठ बोलकर घर से बाहर गया था। उसे यह चिंता भी थी कि कहीं वह किसी मुसीबत मे ना पड़ गया हो, उसने टेबल से अपना मोबाइल उठाया और बेटे का नम्बर डायल कर देती है।
सॉरी! सॉरी! सॉरी! सॉरी! बस दो मिनट, बस दो मिनट" पहली ही घंटी मे कॉल पिक कर अभिमन्यु ने बिना हैलो बोले सीधे माफी मांगनी शुरू कर दी और फिर फौरन कॉल कट भी कर देता है। लगभग दस मिनट बाद घर की बैल बजी तो वैशाली झूठे क्रोध के साथ दरवाजे की ओर बढ़ गई, जबकि सत्य तो यह था की एकाएक उसका रोम-रोम खिल उठा था।
"मैं खाना बनाने जा रही हूँ" बेटे के हॉल मे प्रवेश करते ही वैशाली गुस्से से बोली और मुड़कर किचन की दिशा मे चलने लगी।
"मॉम मैं इस गिफ्ट की तलाश मे लेट हो गया। आई एम सॉरी, माफ कर दो प्लीज" अपनी माँ के क्रोध को समझ अभिमन्यु उसे रोकते हुए बोला।
"कैसा गिफ्ट? और किसके लिए?" क्षणिक समय भी नही बीता कि वैशाली ने झटके से पलटते हुए पूछा, अभिमन्यु भी तबतक उसके करीब आ चुका था।
"अ रोज फॉर द मोस्ट ब्यूटिफुल एण्ड केयरिंग मदर अॉफ दिस वर्ल्ड" वह तुरंत अपने घुटनों पर बैठते हुए बोला, अपने दोनो हाथों मे पकड़ा लाल गुलाब उसने अपनी माँ की ओर बढ़ा दिया था।
"इसकी ... तलाश मे तुम्हें पूरे साढ़े तीन घंटे लग गए?" वैशाली का नकली क्रोध जारी था, गुलाब को अपने हाथ मे लेने की बजाय वह अपने दोनो हाथ कैंची के आकार मे ढ़ालकर उन्हें अपनी अपनी छाती के ऊपर रखते हुए पूछती है।
"ऐसा है और नही भी मम्मी, गुलाब तुम्हारी टक्कर का मिल सके इसी कारण मुझे देरी हो गई। वैसे एक और गिफ्ट भी लिया है मैंने" अभिमन्यु बेहद शरारती अंदाज मे बोला, अपनी माँ के भीतर आए बदलाव को समझने मे अब वह काफी तेजी से परिपक्व होता जा रहा था।
अपनी माँ की टक्कर का, हुंह! शर्म करो शर्म पाखंडी कहीं के" वैशाली तुनकते हुए बोली तभी सहसा उसकी नजर उसके बेटे के बगल से नीचे फर्श पर रखे पॉलीबैग पर पड़ी, जिसपर भूल से पहले उसने गौर नही कर पाया था।
"उसमें क्या है मन्यु?" उसने फौरन उत्सुकता से पूछा।
"लड़कियों की यही गंदी आदत मुझे बिलकुल अच्छी नही लगती मॉम, गिफ्ट मे भी हमेशा साइज को ही प्रिफ्रेंस देती है" अभिमन्यु मायूसी से भरते हुए बोला, वह जानबूझकर अपनी माँ को एक लड़की की संज्ञा देता है और जिसका प्रभाव भी उसने तुरंत देखा, उसकी माँ सचमुच किसी नवयुवती की भांति चहक उठी थी।
"तुम जैसे लफंगों को मैं अच्छी तरह से जानती हूँ जिन्हें बात-बात पर बात निकालना आता है। लाओ इसे मुझे दो और अगर तुम्हारी नौटंकी खत्म हो गई हो तो मैं अब जाऊँ किचन मे" वैशाली गुलाब को छीनते हुए बोली, खैर था तो यह उसका नाटक मात्र। जीवन मे पहली बार किसी मर्द ने उसे अपने घुटनो पर बैठते हुए गुलाब भेंट किया था और जिसके नतीजन भीतर ही भीतर उसकी प्रसन्नता का कोई पारावार शेष ना था। एकाएक वह गुलाब की सुगंध सूंघने के लिए उसे अपनी नाक के करीब ले जाने लगी मगर ज्यों ही अभिमन्यु से उसकी नजरें टकराईं, वह अपने हाथ को तीव्रता से वापस नीचे ले आती है।
"इतना इंतजार तो कभी मुझे तुम्हारे पापा ने भी नही करवाया और तुम्हारी चिंता से घिरी रही सो अलग" वह पिछले कथन मे जोड़ती है। अभिमन्यु को अपनी माँ के मुंह से जो विशेष बात सुनने की चाह थी, वह चाह अपने-आप वैशाली ने पूरी कर दी थी।
"चलो ठीक है, गुलाब के लिए शुक्रिया नही कहा तो कोई बात नही मगर यह दूसरा गिफ्ट मेरे दिल के बेहद करीब है मम्मी" पॉलीबैग को पकड़कर अभिमन्यु फर्श से खड़ा हो जाता है, उसने अपने प्यार भरे शब्दों से वैशाली की उत्सुकता को काफी अधिक बढ़ा दिया था।
पहले तुम बेशर्म थे, फिर पाखंडी, लफंगे और अब आशिकाना अंदाज मे बात करने लगे हो, जरूर इस पॉलीबैग मे कुछ तो अजीब है" कहकर वैशाली पॉलढीबैग को घूरकर देखने लगी मगर उसका रंग गहरा नीला था तो वह कोई खास अनुमान नही लगा पाती है।
"खुद ही देख लो इसमे ऐसा क्या है मम्मी जो तुम्हारे बेटे के दिल के इतना करीब है" लगभग अपने पिछले कथन को ही पुनः दोहराते हुए अभिमन्यु पॉलीबैग अपनी माँ के सुपुर्द कर देता है और उसके हाथ से गुलाब खुद ने ले लिया। वैशाली पहले पॉलबैग को ऊपर से टटोलने लगी, उसके हल्के वजन से उसे अहसास हुआ जैसे उसके भीतर कोई वस्त्र था। साड़ी का विचार मन मे आते ही वह तत्काल उसे नकार देती है क्योंकि साडी़ पहनने वाली हर स्त्री को उसके विषय मे बारीक से बारीक जानकारी रहती है। फिर इसमे क्या हो सकता है? वह अपने ही सवाल पर थोड़ा झल्ला सी गई और अंततः पॉलीबैग का मुंह खोलकर उसके भीतर झांकने लगती है।
"हम्म! यह मस्त रहेगा, बिलकुल ठीक। हाँ यही मस्त रहेगा" वह अचानक से बड़बडा़या और सहसा उसके मायूस चेहरे पर पुनः मुस्कान लौट आती है। तत्पश्चात उसने बाइक दौड़ा दी, यकीनन उसकी सोच पूरी हो चुकी थी।
--------------------------------------
अपने बेडरूम के बिस्तर पर बैठी वैशाली काफी देर तक अपने आँसुऔं मे ड़ूबी रही, उसे इस बात पर रोना नही आ रहा था कि उसने अभिमन्यु की चाह को अपना समर्थन नही दिया था बल्कि वह इसलिए दुखी थी कि पलभर मे कैसे एक बेटा अपनी सगी माँ की ओर इतनी गम्भीरता से आकर्षित हो गया था? स्त्रियां तो ऐसे लघु आकर्षणों पर फूली नही समातीं, काश! कि वह सिर्फ एक स्त्री ही होती तो कितना अच्छा होता मगर स्त्री होने के साथ-साथ एक विवाहित माँ होने का भी गौरव उसे प्राप्त था और ऐसे मे उसका बेटा चाहे कितना भी अधिक उसकी ओर आकर्षित हो जाता, रहता तो वह एक पराया मर्द ही।
"माँ भी तुम्हारी है अभिमन्यु क्योंकि वह भी इस घर की जायजाद मे शामिल है और जिसके इकलौते वारिस तुम ही हो बेटा, सिर्फ तुम ही हो" खुद से ऐसा बारम्बार कहते हुए वैशाली तत्काल अपने आँसुओं के पोंछ लेती है, निश्चित उसके शब्दों से उसके ममतामयी दिल का वह बोझ कम होने लगा था कि जाने-अंजाने जीवन मे पहली बार उसने स्वयं अपने बेटे का दिल तोड़ा था।
चेहरे पर टूटी-फूटी मुस्कान लिए वैशाली फौरन बिस्तर से नीचे उतरी और सर्वप्रथम उसने घर के मुख्य द्वार को लॉक किया, फिर वापस अपने बेडरूम मे लौटकर सीधे अटैच बाथरूम के भीतर घुस जाती है। अभिमन्यु ने उसे तैयार रहने को कहा था और पिछला आधा घंटा वह अपनी सोच मे ही बिता चुकी थी। अच्छे से मुंह हाथ धोकर वह अपने
वार्डरोब मे भरी पड़ी साड़ियों मे से अपनी सबसे पसंदीदा साड़ी का चुनाव करने लगती है और जल्द ही उसने उस मेहरुन रंगत की साड़ी को चुन लिया जिसे बीते मदर्स डे पर उसे उसकी बेटी अनुभा ने तोहफे मे दिया था।
"ओह हो! इस साड़ी का पेटीकोट तो मैच ही नही हो रहा और फिर पहनने को साफ-सुथरी कच्छी भी तो नही बची" वैशाली पेटीकोट का रंग साड़ी के रंग से हल्का पाकर मायूसी से बुदबुदाई, उसने सहसा गौर किया कि कैसे अब वह 'कच्छी' जैसे देशी शब्द का स्वतः ही उच्चारण करने लगी थी। शर्माते हुए पेटीकोट को बिस्तर पर फेंक उसने मैक्सी अपने गदराए बदन से अलग कर दी और ड्रेसिंग टेबल के सामने जाकर खडी़ हो जाती है।
जीवन मे दूसरी बार उसे अपने बदन मे एक अजीब-सा बदलाव नजर आ रहा था, ठीक वैसा बदलाव जैसा उसने अपनी बीती जवानी मे महसूस किया था जब वह अपने कुंवारेपन से मुक्त होने को पल-पल तड़पा करती थी। आज पुनः उसी तड़प से उसका सम्पूर्ण बदन टूट रहा है, उस तड़प के टूटने की प्रतीक्षा मे आज फिर उसका अंग-अंग बिन छुए ही फड़कने लगा है मानो किसी जवान, बलिष्ठ मर्द के नीचे दब जाने की उसकी इच्छा दोबारा जीवंत हो गई हो जिस इच्छा के तहत उसने कभी अपने भावी पति की कल्पना की थी।
कांच मे अपने अक्स को देख वह अपने बाएं हाथ की उंगलियां ब्रा के भीतर कैद अपने गोल-मटोल मम्मों के ऊपरी फुलाव पर घुमाने लगती है, उसे तत्काल वह क्षण याद आ गया जब डाइनिंग टेबल पर बैठा अभिमन्यु कितनी बेशर्मी के साथ उसके मम्मों के इसी फुलाव को खा जाने वाली नजरे घूरे जा रहा था।
"माँ के मम्मों पर बेटे का हक नही होगा तो क्या किसी माणिकचंद का होगा?" खुद के ही सवाल पर वैशाली हँसने लगी, अपने दोनो हाथ पीठ पर ले जाकर उसने अपनी ब्रा का हुक खोल दिखा और उसे हाथों से बाहर निकाल बिस्तर पर उछाल देती है।
ऐसे मत घूर बिच, अब तेरी ही बारी है" कांच मे देखते हुए वह अपने बदन पर बचे आखिरी वस्त्र, अपनी कच्छी से बोली और बड़ी अदा के साथ फौरन उसे सकराकर नीचे फर्श पर गिरने के लिए छोड़ दिया।
"बेशर्म निगोड़ी तू है मेरा मन्यु नही, मरोड़ना तुझे चाहिए उस बेचारे का कान नही। पूरे दिन से बह रही है, मेरी तीनो कच्छियों को गंदा कर डाला। अब क्या पहनूं पेटीकोट के नीचे? तेरे कारण आज पहली बार मुझे बिना कच्छी पहने घर की चौखट के बाहर कदम रखना पड़ेगा" अपने अश्लील कथन अनुसार ही वैशाली ने अपने दाएं हाथ के अंगूठे और प्रथम उंगली के बीच दिनभर से निरंतर रिस रही अपनी चिपचिपी चूत के दोनो स्पंदनशील होंठ एकसाथ भींच लिए और सिसियाते हुए बलपूर्वक उन्हें मरोड़ने लगती है, मानो सत्यता मे ही उन्हें सजा दे रही हो। उसकी कामुक हँसी का तो कोई पारावार शेष ना था, किसी भयानक मनोविकार से ग्रस्त पागल की भांति लगातार खिखियाते हुए पूरे जोशो-खरोश से वह अपनी चूत के अत्यंत सुंदर मुख को तीव्रता से उमेठे जा रही थी।
"उन्ह! उन्ह! तेरी गलती भी नही मुनिया। उफ्फ! रो-रोकर तू ...तू तो बस अपनी स्वभाविक चाह जता रही है, गूंगी जो है ठहरी। उन्ह! बोल नही सकती ना कि तेरी एक मोटे और लंबे--से लंड से चुदने की इच्छा है मगर किसके लंड से? तेरा मालिक माणिचंद तो यहाँ है नही, फिर किसके? बोल! बोल! किसके?" जो विध्वंशक, पापी शब्द उस मर्यादित माँ ने अपने सम्पूर्ण बीते जीवन मे कभी अपने होंठों पर नही आने दिए थे, सहसा उनके एकाएक मुंह से बाहर आते ही वैशाली अपने बाएं हाथ के अंगूठे और प्रथम उंगली के बीच अपने वास्तविक होंठों भी कसकर जकड़ लेती है। यह सोचकर कि अब उसके स्त्री शरीर के वह दोनो मुख्य अंग उसने हर संभव तरह से दबा दिए हैं हमेशा जिनके ही कारण यह धरती अनगिनत बार लहुलुहान हुई थी, मगर मन का क्या? वह तो पूर्व स्वतंत्र है।
आहऽऽ! अभिऽऽमन्युऽऽऽऽ" अपने चंचल मन के हाथों विवश सचमुच पापी बनने को उत्सुक, चुदाई की प्यासी वह अत्यंत कामलुलोप माँ दिन मे तीसरी बार अपने सगे बेटे के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष स्मरण मात्र से ही स्खलित होने लगती है।
कहते हैं कि पहली बार कोई पापी कृत्य करने के उपरान्त मनुष्य ग्लानी भाव से तड़प उठता है, दूसरी बार मे उसकी ग्लानी कुछ कम हो जाती है और जब वह बारम्बार पाप करने का आदि हो जाए तब उसके भीतर किसी भी प्रकार की कोई ग्लानी शेष नही रहती। अपनी कच्छी से अपनी स्खलित चूत का गाढ़ा रस पोंछते हुए वैशाली का मन-मस्तिष्क बेहद शांत था बजाए इसके कि वह रोए, दुखी हो; वह पूर्णरूप से संतुष्ट, निश्चिंत बिलकुल मस्त मलंग थी।
धुली ब्रा, ब्लाउज और बिना कच्छी के पेटीकोट पहनकर वैशाली अपनी नई महरुन साड़ी भी पहन चुकी थी, पेटीकोट का हल्का रंग साड़ी को एक नया व काफी शानदार फेन्सी लुक दे रहा था। अपने प्राकृतिक सुंदर चेहरे के श्रृंगार के नाम पर अधिकतर वह काजल और मैचिंग लिपस्टिक का ही प्रयोग करती थी, अपनी अत्याकर्शक बड़ी-बड़ी आँखों मे काजल लगाकर उसने मूंगिया रंगत के अपने भरे हुए होंठ गहरे महरुन रंग की लिपस्टिक से रंग लिए। तत्पश्चात वार्डरोब के लॉकर से उसने अपने उन गहनों का बॉक्स बाहर निकाला जिन्हें उसने अपनी बेटी अनुभा की शादी मे स्वयं के लिए बनवाया था, खैर ज्यादा कुछ उस बॉक्स मे नही था, मणिक की आर्थिक हालत को देख एक जिम्मेदार पत्नी होने का फर्ज निभाते हुए उसने स्त्री मोह की मुख्य वस्तु का सिरे से त्याग कर दिया था। पूर्व से अपनी दायीं नाक के नथुए मे जड़ी लौंग की जगह उसने उसमे सोने का छल्ला पहन लिया, अपने कानों के टॉप्स बदलकर सोने की लटकनदार बालियां भी धारण कर लीं, शायद इसलिए क्योंकि यह छल्ला और बालियां अभिमन्यु के विशेष आग्रह पर उसने बनवाए थे। पूरी तरह से तैयार होकर एक नजर कांच मे खुद को निहारने के उपरान्त उसने अपनी मैक्सी व अन्य कपड़ो को यथोचित स्थान पर रख दिया और बेडरूम से बाहर निकल जाती है।
वैशाली को हॉल के सोफे पर बेठे-बैठे तयशुदा समय से पैंतालीस मिनट ज्यादा बीत चुके थे मगर अभिमन्यु अबतक नही लौटा था ना ही देरी होने के संबंध मे उसका कोई फोन आया था और वह खुद अपने बेटे को कॉल करना नही चाहती थी। वह नही चाहती थी कि अभिमन्यु अपनी माँ की बेसब्री का ज्ञाता हो जाए, वह जान ना ले कि उसकी माँ उसके साथ ट्रीट पर जाने के लिए मरी जा रही थी।
पैंतालीस मिनट से एक घंटा और होते-होते ढ़ाई घंटे बीत गए पर अभिमन्यु की वापसी के विषय मे उसे कुछ भी पता नही चल पाया था। पल-पल दीवार घड़ी को ताकती वैशाली की नम आँखें ना जाने कितनी बार बह जाने की कगार पर पहुँच चुकी थीं मगर एक आस कि उसका बेटा उसे ट्रीट पर जरूर ले जाएगा और कहीं आँसू बहकर उसकी आँख के काजल को धो ना दें, वह जरा भी नही रोई थी मगर उसका धैर्य अब जवाब देने लगा था। अपने बेटे की रश ड्राइविंग की जानकर वह माँ अकस्मात घड़ी से अपनी नजर हटाकर सामने की टेबल पर रखे अपने मोबाइल को घूरने लगी।
"तू तो ऐसे कर रही है जैसे यह कोई आम--सी ट्रीट नही बल्कि तेरी पहली डेट हो" अपनी सोच के समर्थन मे फीकी हँसी हँसते हुए वैशाली ने तत्काल कपड़े बदल लेने का निश्चय किया, चूंकि उसका दिल भी खट्टा हो चुका था और आगामी इंतजार उसकी सहनशक्ति से बाहर था मगर अपने बेडरूम मे जाने से पहले वह एकबार अभिमन्यु से बात अवश्य करना चाहती थी ताकि जान सके कि ऐसा कौन--सा जरूरी काम आन पड़ा था जो वह अपनी माँ से झूठ बोलकर घर से बाहर गया था। उसे यह चिंता भी थी कि कहीं वह किसी मुसीबत मे ना पड़ गया हो, उसने टेबल से अपना मोबाइल उठाया और बेटे का नम्बर डायल कर देती है।
सॉरी! सॉरी! सॉरी! सॉरी! बस दो मिनट, बस दो मिनट" पहली ही घंटी मे कॉल पिक कर अभिमन्यु ने बिना हैलो बोले सीधे माफी मांगनी शुरू कर दी और फिर फौरन कॉल कट भी कर देता है। लगभग दस मिनट बाद घर की बैल बजी तो वैशाली झूठे क्रोध के साथ दरवाजे की ओर बढ़ गई, जबकि सत्य तो यह था की एकाएक उसका रोम-रोम खिल उठा था।
"मैं खाना बनाने जा रही हूँ" बेटे के हॉल मे प्रवेश करते ही वैशाली गुस्से से बोली और मुड़कर किचन की दिशा मे चलने लगी।
"मॉम मैं इस गिफ्ट की तलाश मे लेट हो गया। आई एम सॉरी, माफ कर दो प्लीज" अपनी माँ के क्रोध को समझ अभिमन्यु उसे रोकते हुए बोला।
"कैसा गिफ्ट? और किसके लिए?" क्षणिक समय भी नही बीता कि वैशाली ने झटके से पलटते हुए पूछा, अभिमन्यु भी तबतक उसके करीब आ चुका था।
"अ रोज फॉर द मोस्ट ब्यूटिफुल एण्ड केयरिंग मदर अॉफ दिस वर्ल्ड" वह तुरंत अपने घुटनों पर बैठते हुए बोला, अपने दोनो हाथों मे पकड़ा लाल गुलाब उसने अपनी माँ की ओर बढ़ा दिया था।
"इसकी ... तलाश मे तुम्हें पूरे साढ़े तीन घंटे लग गए?" वैशाली का नकली क्रोध जारी था, गुलाब को अपने हाथ मे लेने की बजाय वह अपने दोनो हाथ कैंची के आकार मे ढ़ालकर उन्हें अपनी अपनी छाती के ऊपर रखते हुए पूछती है।
"ऐसा है और नही भी मम्मी, गुलाब तुम्हारी टक्कर का मिल सके इसी कारण मुझे देरी हो गई। वैसे एक और गिफ्ट भी लिया है मैंने" अभिमन्यु बेहद शरारती अंदाज मे बोला, अपनी माँ के भीतर आए बदलाव को समझने मे अब वह काफी तेजी से परिपक्व होता जा रहा था।
अपनी माँ की टक्कर का, हुंह! शर्म करो शर्म पाखंडी कहीं के" वैशाली तुनकते हुए बोली तभी सहसा उसकी नजर उसके बेटे के बगल से नीचे फर्श पर रखे पॉलीबैग पर पड़ी, जिसपर भूल से पहले उसने गौर नही कर पाया था।
"उसमें क्या है मन्यु?" उसने फौरन उत्सुकता से पूछा।
"लड़कियों की यही गंदी आदत मुझे बिलकुल अच्छी नही लगती मॉम, गिफ्ट मे भी हमेशा साइज को ही प्रिफ्रेंस देती है" अभिमन्यु मायूसी से भरते हुए बोला, वह जानबूझकर अपनी माँ को एक लड़की की संज्ञा देता है और जिसका प्रभाव भी उसने तुरंत देखा, उसकी माँ सचमुच किसी नवयुवती की भांति चहक उठी थी।
"तुम जैसे लफंगों को मैं अच्छी तरह से जानती हूँ जिन्हें बात-बात पर बात निकालना आता है। लाओ इसे मुझे दो और अगर तुम्हारी नौटंकी खत्म हो गई हो तो मैं अब जाऊँ किचन मे" वैशाली गुलाब को छीनते हुए बोली, खैर था तो यह उसका नाटक मात्र। जीवन मे पहली बार किसी मर्द ने उसे अपने घुटनो पर बैठते हुए गुलाब भेंट किया था और जिसके नतीजन भीतर ही भीतर उसकी प्रसन्नता का कोई पारावार शेष ना था। एकाएक वह गुलाब की सुगंध सूंघने के लिए उसे अपनी नाक के करीब ले जाने लगी मगर ज्यों ही अभिमन्यु से उसकी नजरें टकराईं, वह अपने हाथ को तीव्रता से वापस नीचे ले आती है।
"इतना इंतजार तो कभी मुझे तुम्हारे पापा ने भी नही करवाया और तुम्हारी चिंता से घिरी रही सो अलग" वह पिछले कथन मे जोड़ती है। अभिमन्यु को अपनी माँ के मुंह से जो विशेष बात सुनने की चाह थी, वह चाह अपने-आप वैशाली ने पूरी कर दी थी।
"चलो ठीक है, गुलाब के लिए शुक्रिया नही कहा तो कोई बात नही मगर यह दूसरा गिफ्ट मेरे दिल के बेहद करीब है मम्मी" पॉलीबैग को पकड़कर अभिमन्यु फर्श से खड़ा हो जाता है, उसने अपने प्यार भरे शब्दों से वैशाली की उत्सुकता को काफी अधिक बढ़ा दिया था।
पहले तुम बेशर्म थे, फिर पाखंडी, लफंगे और अब आशिकाना अंदाज मे बात करने लगे हो, जरूर इस पॉलीबैग मे कुछ तो अजीब है" कहकर वैशाली पॉलढीबैग को घूरकर देखने लगी मगर उसका रंग गहरा नीला था तो वह कोई खास अनुमान नही लगा पाती है।
"खुद ही देख लो इसमे ऐसा क्या है मम्मी जो तुम्हारे बेटे के दिल के इतना करीब है" लगभग अपने पिछले कथन को ही पुनः दोहराते हुए अभिमन्यु पॉलीबैग अपनी माँ के सुपुर्द कर देता है और उसके हाथ से गुलाब खुद ने ले लिया। वैशाली पहले पॉलबैग को ऊपर से टटोलने लगी, उसके हल्के वजन से उसे अहसास हुआ जैसे उसके भीतर कोई वस्त्र था। साड़ी का विचार मन मे आते ही वह तत्काल उसे नकार देती है क्योंकि साडी़ पहनने वाली हर स्त्री को उसके विषय मे बारीक से बारीक जानकारी रहती है। फिर इसमे क्या हो सकता है? वह अपने ही सवाल पर थोड़ा झल्ला सी गई और अंततः पॉलीबैग का मुंह खोलकर उसके भीतर झांकने लगती है।