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Thriller Shivagami (bahubali arambh se poorv)

Raguhalkal

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Introduction:-

शिवगामी :-

एक तेजस्वी किशोरी, जो बुद्धिमान होने के साथ-साथ युद्ध कौशल में भी प्रवीण है। वह माहिष्मती साम्राज्य के सामंत देवराय की पुत्री है। सम्राट ने उसके पिता को राजद्रोही घोषित कर मृत्युदंड दे दिया था। वह अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिये वचनबद्ध है।

कटप्पा :-

अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित यह इक्कीस वर्षीय गुलाम, स्वयं को माहिष्मती राजवंश की सेवा में पाकर धन्य है। उस पर ज्येष्ठ राजकुमार बिज्जलदेव की रक्षा का भार है। उसके पिता मलयप्पा महाराज सोमदेव के निजी गुलाम हैं।:-

पट्टराय :-

धनी एवं महत्वाकांक्षी सामंत। भूमिपति जैसे प्रतिष्ठित पद पर आसीन यह मनुष्य अत्यधिक चालाक एवं क्रूर है। अपनी बुद्धिमत्ता एवं कठोर परिश्रम के बल पर उसने निर्धनता को त्यागते हुए अथाह धन अर्जित किया। वह परिवार के प्रति पूर्णतः समर्पित है और पुत्री मेखला को अपने प्राणों से भी बढ़कर चाहता है।

शिवप्पा:-

कटप्पा का छोटा भाई। अठारह वर्षीय यह नौजवान गुलामी की जंजीरें तोड़ मुक्ति के स्वप्न देखता है। उसे अपने भाई से प्रेम है किंतु दोनों में वैचारिक टकराव भी है। वह गुलामों से मुक्त एक नया संसार बनाना चाहता है और माहिष्मती साम्राज्य के विरुद्ध संघर्षरत वैतालिकों के गुट में शामिल होने का सपना देखता है। वह शिवगामी की सखी कामाक्षी से अथाह प्रेम करता है।

राजकुमार बिज्जलदेव :-

महाराज सोमदेव की यह प्रथम संतान उत्तराधिकारी घोषित होने के लिये बेचैन है। वह किसी भी कीमत पर अपना सम्मान चाहते हैं और तनिक से अनादर पर भड़क जाते हैं। चाटुकारों की मंडली ने उन्हें घेर रखा है, जो अपने स्वार्थ के लिए उनका उपयोग करते हैं। उन्हें अपने छोटे भाई से घृणा है और प्रजा में उसकी लोकप्रियता से ईर्ष्या।

राजकुमार महादेव :-

स्वप्नद्रष्टा तथा आदर्शवादी, जिनका प्रजा के प्रति व्यवहार करुणा एवं स्नेह से भरा है। उन्हें पता है कि वह महान योद्धा नहीं हैं। वह अपने पिता का आदर करते हैं और उनसे तो आंख मिला लेते हैं किन्तु माता के सामने भीगी बिल्ली बन जाते हैं। उन्हें अपने बड़े भाई से प्रेम है किंतु उससे डरते भी हैं। वह एक कवि के साथ-साथ प्रेमी भी हैं।

जीमोता :-

अपने आपको बड़ा व्यापारी बताता है किंतु है एक समुद्री लुटेरा। वह कुशल नाविक है और अक्सर गैरकानूनी यात्राओं पर निकलता है। कठिन परिस्थितियों से बचकर निकलने के लिये वह प्रायः अपने मसखरेपन का उपयोग करता है किंतु आवश्यकता पड़ने पर हिंसा से भी पीछे नहीं हटता।

केकी:-

तीस वर्षीय यह किन्नर देवदासी कलिका की सहायक है। वह उसके धंधे के लिए सुन्दर लड़कियां ढूंढ़कर लाती है। उसकी जबान बहुत तीक्ष्ण है और इसका इस्तेमाल वह चाबुक की तरह करती है।फिलहाल, वह भूमिपति पट्टराय के गुट में है।

स्कंददास :-

माहिष्मती का उपप्रधानमंत्री, या उपप्रधान, स्कंददास सिद्धांतों वाला व्यक्ति है। वह अत्यधिक ईमानदार है किंतु अपने निम्न मूल को लेकर भीतर ही भीतर असुरक्षा से घिरा रहता है। अछूत जाति से होने के कारण सभा के अन्य उच्चकुलीन सामंतों से वह भिन्न है। प्रजा उसकी प्रशंसा करती है किंतु भ्रष्ट अधिकारियों एवं सामंतों को उससे घृणा है।

थिम्मा :-

शिवगामी का पालक पिता। वह देवराय का घनिष्ठ मित्र हुआ करता था। शक्तिशाली भूमिपति थिम्मा उदार हृदय वाला एवं मृदुभाषी है। वह अपने बच्चों को अत्यधिक स्नेह करने वाला पिता है।

अल्ली:-

विद्रोहियों की रानी अच्चि नागम्मा ने उसकी परवरिश की। महिलाओं की विद्रोही सेना में वह एक कुशल लड़ाका के साथ-साथ गुप्तचर भी है। ध्येय की पूर्ति के लिए वह अपनी कामुकता एवं संभोग की शक्ति का इस्तेमाल करने से नहीं हिचकिचाती।


कामाक्षी :-

सत्रह साल की एक सुन्दर और भोली-भाली लड़की। अनाथालय में वह शिवगामी की सबसे अच्छी सखी है। जीवन में उसका एकमात्र उद्देश्य, अपने प्रेमी शिवप्पा के साथ निर्दयी माहिष्मती नगर से कहीं दूर एक शांति भरा जीवन व्यतीत करना है।

गुंडु रामू:-

अनाथालय में शिवगामी का नन्हा साथी। यह गोलमटोल लड़का शिवगामी का बहुत सम्मान करता है और उसे अक्का कहकर पुकारता है। वह विनोदपूर्ण है और थोड़ा पेटू भी।

हिडुम्बा

माहिष्मती का यह बौना बहुत खतरनाक है। वह खनिपति है, भूमिपति से एक पद नीचे। उसका मानना है कि अदने आकार के कारण ही उसे पदोन्नति नहीं दी गई। फिलहाल वह पट्टराय के गुट में है, लेकिन पट्टराय भी इस बौने से सावधान रहता है।

देवदासी कलिका

पुष्यचक्र सराय की प्रमुख। किंतु उसकी सराय को कलिका के अड्डे के रूप में अधिक जाना जाता था। वह कामुकता की देवी है और माहिष्मती के आधे सामंतों को अपने पैरों तले रखती है। काम कला में पारंगत कलिका, राज अतिथियों के मनोरंजन के लिये महाराज के हरम में भी सुन्दर कमसिन लड़कियां पहुंचाती है।

महाराज सोमदेव

माहिष्मती के सम्राट। आम घटनाक्रम से दूर रहने वाले राजा को उनकी प्रजा बहुत आदर व सम्मान देती है किंतु उनसे भयभीत भी रहती है।

मलयप्पा

महाराज सोमदेव का निजी गुलाम। कटप्पा और शिवप्पा का पिता। वह अपने कर्तव्य के प्रति पूर्णतः समर्पित एक स्वाभिमानी पुरुष है।

महाप्रधान परमेश्वर

माहिष्मती के वयोवृद्ध प्रधानमंत्री। पचहत्तर वर्ष की अवस्था वाले परमेश्वर सम्राट के विश्वासपात्र हैं, जो उन्हें अपना गुरु भी मानते हैं। वह उदार हृदय वाले किंतु कुशल राजनीतिज्ञ हैं। वह स्कंददास के मार्गदर्शक भी हैं।

रूपक

महाप्रधान परमेश्वर का विश्वसनीय सहायक।

महारानी हेमवती

माहिष्मती की अभिमानी एवं गौरवान्वित महारानी। राजगुरु रुद्र भट्ट माहिष्मती के राजपुरोहित। वह भूमिपति पट्टराय के करीबी मित्र हैं।

दंडकार प्रताप

माहिष्मती का नगर-रक्षक प्रमुख, जिससे प्रजा भयभीत रहती है। वह पट्टराय का मित्र है।

वैतालिक

विद्रोही कबीला, जो अपने पूजनीय गौरीपर्वत को माहिष्मती के कब्जे से छीनना चाहता है।

भूतराय

वैतालिकों का रहस्यपूर्ण एवं शक्तिशाली सरदार।

गुहा

नदी तट के घास के मैदानों पर रहने वाले लोगों का भूमिपति। क्रूर एवं चालाक इस वृद्ध को उसके लोग पूज्य मानते हैं। वह केवल महाराज सोमदेव के आगे झुकता है।

अक्कुंडा

एक प्रभावशाली भूमिपति। अच्चि नागम्मा महिलाओं की सेना की सरदार। सत्तर वर्ष की यह वृद्धा माहिष्मती के भ्रष्ट एवं दुष्ट लोगों के विरुद्ध लड़ रही है। अल्ली उसकी सेना की एक सदस्य है।

देवराय

शिवगामी के पिता, जिन्हें राजद्रोही घोषित कर मृत्युदंड दे दिया गया।

राघव

थिम्मा का पुत्र, जिसकी परवरिश शिवगामी के साथ हुयी। वह उसके प्रेम में पागल है।

अखिला

थिम्मा की पांच वर्षीय पुत्री। शिवगामी उससे बहुत स्नेह करती है।

मेखला

भूमिपति पट्टराय की पुत्री, जो अक्सर अपने पिता के तर्कों और तरीकों से सहमत नहीं रहती।

बृहन्नला

राजकीय हरम की प्रमुख किन्नर। उसका अपना एक अलग रहस्य है। नला एक व्यापारी और बृहन्नला का दत्तक भाई। वह अक्सर बृहन्नला के संदेशवाहक का कार्य करता है।

ननजुंडा

भविष्यद्वक्ता है। एक धूर्त और पियक्कड़, जो एक बोतल ताड़ी के लिए जादू-टोना करने को तैयार रहता है। यह ज्योतिषी जीमोता का सहायक है।

भैरव

नदी किनारे भटकने वाला एक पागल। कभी वह महाराज सोमदेव का गुलाम हुआ करता था।

रेवम्मा

राजकीय अनाथालय की संचालक।

नागय्या

गुलाम जो राज्य का एक अति संवेदनशील रहस्य चुराकर भाग जाता है।

तोंडका

राजकीय अनाथालय में लड़कों का वरिष्ठ। वह शिवगामी से घृणा करता है।

उथंगा

अनाथालय का एक लड़का।
Dosto maine pehle bi ek story ko copy karne ki sochi jo adhwika naam jana jata hai usse pehle maine pada nahi tha jab maine pada tho usko age leke jana mere bas ki baat nahi lagi isliye iss story ko start kiya hai so pls co-oprate me iss story ko jarur poori karunga ye mera wada hai or haan daily tho nai ek do din ke gap me update doonga so pls comment karke bataye kaise hai abhi story start nahi kiya hai sirf kirdaar hi prastut kiya hai tho kya kehte ho age badu yaa.......


Or haan sabse important baat iss ko bi maine copy hi kiya hai khud nahi likha hai

Or iska writer hai

ANAND NILA KANTAN
 

Ben Tennyson

Its Hero Time !!
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वाह भाई .....पात्र परिचय से ही पता चल रहा है कि कहानी एक अलग ही आयाम पर जाने बाली है !! भाषा शैली और कहानी का सार अभी से दमदार दिख रहा है !! इंतजार पहले अपडेट का
 

Raguhalkal

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अध्याय 1


शिवगामी

काली अंधेरी रात थी। चारों ओर मृत्यु सा सन्नाटा पसरा था। सब कुछ उसके अनुकूल था। वह नहीं चाहती थी कि कोई उन्हें देखे। रथ पर एक छोटी लालटेन टंगी थी, जो हर झटके के साथ झूम रही थी। वह इसे भी बुझा देती किंतु रास्ता ऊबड़-खाबड़ था। दोनों ओर से जंगल उन पर ऐसे टूट पड़ रहा था, मानो कह रहा हो कि यह सब उसका है और यहां आने की अनुमति किसी को नहीं। घुमावदार पहाड़ी मार्ग पर रथ सरपट दौड़े जा रहा था। तभी उसके मन में भावनाओं का आवेग उमड़ आया। कहीं मस्तिष्क के कोने में दबी हजारों स्मृतियां यकायक एक-एक कर बाहर आने लगीं। ठीक बारह वर्ष पूर्व उसने इन स्मृतियों को सदैव के लिए भुला दिया था। लेकिन आज न जाने क्यों वे सब एक साथ उसके कानों में तेजी से गूंजने लगी थीं। वह कभी भी उस स्थान पर वापस लौटना नहीं चाहती थी, जहां आज वह जा रही थी। उसके कुटुम्ब के साथ जो बीता था, उसके बाद तो बिल्कुल नहीं। उनके रथ से टकराने वाला मार्ग का हर पेड़ उस भयावह दृश्य की स्मृति ताजा करा रहा था, जो उसे पांच वर्ष की अल्पायु में देखने को विवश होना पड़ा था। तभी अचानक एक झटके के साथ रथ रुक गया। स्मृति में खोने के कारण उसे संभलने का समय न मिला और उसका माथा रथ के किनारे से जा टकराया। 'खरगोश है,' सारथी की गद्दी पर बैठे राघव ने कहा। उसने देखा तो सड़क पर दो टिमटिमाती आंखें और खरगोश सी कोई धुंधली आकृति दिखायी दी। तभी खरगोश उछला और पलक झपकते ही पास की झाडिय़ों में गायब हो गया। राघव ऐसा ही था, एक नन्हे से जानवर का जीवन भी उसके लिए बहुमूल्य था।

'क्या तुम सचमुच रात के इस पहर वहां जाना चाहती हो,' उसने पूछा। आज कोई पहली बार उसने यह प्रश्न नहीं किया था। और एक बार फिर उसे कोई उत्तर न मिला। हारकर उसने चाबुक घुमाया और रथ फिर से चल पड़ा। शीघ्र ही घना जंगल पार कर वे कंटीली झाड़ियों वाले मार्ग पर आ गए। वह कंकरीला मार्ग था। कहीं-कहीं विशाल पत्थर भी पड़े थे, मानो वे उनका रास्ता रोक रहे हों। सीधी चढा़ई वाले उस टेढ़े-मेढ़े मार्ग के अंतिम छोर पर दूर एक दुर्ग था। उन्हें वहीं जाना था। राघव जानता था कि यह कार्य आसान न होगा इसीलिए उसने पूछा, 'क्या हम वापस लौट सकते हैं?' यह सुनते ही उसका चेहरा क्रोध से लाल हो गया। राघव को उत्तर मिल गया, उसने सिर हिलाया और रथ एक बार फिर आगे बढ़ चला। पहाड़ी से नीचे उतरते हुए वह सोच रही थी कि यहां कभी बाग हुआ करता था। घनी झाड़ियों वाला बाग। यहां से आगे का मार्ग दुष्कर था। सीधी चढ़ाई वाला यह पथ खतरनाक ढंग से चट्टान के किनारे से होकर गुजरता था। रथ के पहियों से टकराकर पत्थर चट्टान से नीचे गिर रहे थे, जिसकी प्रतिध्वनि वहां रुक-रुककर गूंज जाती थी। जैसे-जैसे वे आगे बढ़ रहे थे, बहते पानी का स्वर और स्पष्ट होता जा रहा था। अचानक ही वह मार्ग एक खड़ी चट्टान के छोर पर जाकर समाप्त हो गया। राघव ने घोड़े की लगाम खींची और रथ से नीचे उतरा। पीछे आकर लालटेन उतारी और मदद के लिए हाथ आगे बढा़ या लेकिन वह इसे अनदेखा कर नीचे कूद आयी। वह चट्टान के किनारे तक गयी और नीचे गहराई को देखने लगी। सैकड़ों फुट नीचे बहती नदी का स्वर उसे साफ सुनाई पड़ा। उसे याद आया कि यहां आस-पास हवा में झूलने वाला पुल होता था। उसने अंधेरे में ढूढ़ने का प्रयास किया और जल्द ही पाया कि उसके बाईं ओर कुछ फुट की दूरी पर यह अभी भी मौजूद था। 'पुल टूटा है और खतरनाक जान पड़ता है,' राघव बोला, लेकिन वह उसे अनसुना करती हुयी सधे कदमों से आगे बढ़ी और पुल की रस्सियों को दोनों हाथों से कसकर पकड़ लिया। उसने अपने पैर के अंगूठे से लकडी़ का तला टटोला। 'क्या तुम यह पुल पार करोगी?' राघव ने घबराते हुए पूछा। उसके पैर आगे बढ़ाते ही पुल की रस्सियां अंधेरे में गायब हो गईं। उसने राघव के हाथ से लालटेन ली और पुल पार करने के लिए आगे बढ़ी। तभी उसके पैरों तले से लकड़ी की तख्ती खिसककर नीचे जा गिरी। राघव भय से कांप उठा। ठंड के बावजूद उसके हाथ पसीने से भीगे थे। यदि वह वयोवृद्ध लक्ष्मी से न मिली होती तो आज बारह वर्ष बाद यहां न लौटती। वह अपनी इस वफादार सेविका से अंतिम बार उसकी मृत्युशैय्या पर मिली थी। लक्ष्मी ने अन्य चीजों के साथ उसके पिता की उस किताब का भी उल्लेख किया था, जिसे उन्होंने अपनी संतान को देने को कहा था। किसी अनोखी भाषा में लिखी यह पाडुंलिपि संभवतः उसके पिता की हत्या के रहस्य से पर्दा उठा सकती थी। उसके पिता देवराय माहिष्मती साम्राज्य के एक भूमिपति थे। चित्रवध से पूर्व संपूर्ण साम्राज्य में उन्हें प्रेम एवं सम्मान प्राप्त था -- परन्तु वह अभी यह सब स्मरण नहीं करना चाहती। ऐसे समय तो बिल्कुल भी नहीं जब वह एक ऐसा पुल पार कर रही थी, जो हर कदम पर टूटने को आतुर था। 'संभालकर,' राघव पीछे से चिल्लाया। पुल करीब सात फुट तक टूटा था। यह दूरी उसे लांघकर पार करनी पड़ेगी। उसने राघव को लालटेन थमायी और कुछ कदम पीछे हट गयी। 'पागल हो क्या?' उसने राघव को कहते सुना और लंबी छलांग लगा दी। एक झटके के साथ अब वह पुल के उस पार थी। पुल खतरनाक ढंग से झूल रहा था। वह पीछे मुड़ी और बोली, 'लालटेन फेंको और छलांग लगाओ।' राघव नीचे धरातल में देखने लगा। यह देखकर वह क्रोध से तमतमा उठी। राघव ने मां गौरी का स्मरण किया और लालटेन उसकी ओर फेंक दी। हवा में कोण बनाती लालटेन जमीन को छू लेती कि उससे पहले ही उसने इसे लपक लिया। इस झटके से लालटेन बुझ गयी। 'हे, भगवान,' उसने राघव को कहते सुना। आकाश में टिमटिमाते तारों के अलावा वहां घोर अंधेरा पसरा था। 'मुझे अपनी अंगुलियां ही नहीं दिख रहीं, कूदूंगा कैसे?' 'अगर कुछ नहीं दिख रहा तो भय भी कम लगेगा। चिन्ता मत करो, केवल सात फुट की दूरी है।' 'किंतु नीचे तो सात सौ फुट की जानलेवा गहरायी है, और फिर वहां तो पत्थर ही पत्थर पडे़ हैं।' 'छलांग लगाओ, मूर्ख,' वह जोर से चिल्लायी। अगले ही पल राघव उसके पास आ गिरा। इस झटके से पुल थरथरा उठा। उसने राघव को चकमक पत्थर रगड़ते सुना। लालटेन जलने में देरी के कारण वह अधीर हो रही थी। तभी पत्थर से लौ भड़की और लालटेन फिर से जल उठी। दोनों ने बाकी का रास्ता बहुत सावधानी से पार किया। ईश्वर की कृपा थी कि पुल के सभी तख्ते जस के तस रहे। पुल से उतरकर वे सामने एक विशाल ऊचीं दीवार की ओर बढे़। कुछ ही देर बाद वे एक कीलजड़ित लकड़ी के दरवाजे के पास खड़े थे, जिस पर एक भारी ताला लटका था। उस पर मोहर की छाप जड़ी थी। 'यह तो राजा की मोहर है, हमें इसे नहीं खोलना चाहिए,' राघव ने ताले को स्पर्श करते हुए कहा। वह पत्थर उठा ताले पर जोरदार प्रहार करने लगी। 'तुम क्या कर रही हो? इसके लिए पिताजी को दोषी ठहराया जाएगा। यह किला उन्हीं की सुरक्षा में है।' राघव चिल्लाया। उसने राघव को अनसुना कर ताले पर प्रहार जारी रखे। उसका हठ देख राघव भी आ गया और कुछ देर प्रयास के बाद ताला टूट गया। उन्होंने कंधे के सहारे दरवाजे को भीतर की ओर धकेला। आखिरकार तेज आवाज के साथ विशालकाय दरवाजा खुला। उसने जमीन से लालटेन उठायी और दोनों ने किले में प्रवेश किया। उसके भीतर भावनाओं का ज्वार उमड़ आया। सब कुछ अजीब था, लेकिन जाना पहचाना। दोनों ओर के सेवादारों के झोपड़े टूटकर गिर चुके थे। उस मंदिर की छत भी धराशायी हो गयी थी, जिसमें कभी उसके पिता पूजा किया करते थे। प्रांगण को घेरती दीवार भी अब जर्जर होकर बिखर रही थी। वह आम का वृक्ष, जिस पर उसका झूला हुआ करता था, वह अब विशाल वृक्ष बन चुका था और उसकी टहनियां महल की छत को छूने लगी थीं। भवन के प्रवेश मार्ग की सीढ़ियों के दोनों तरफ चमकीले पत्थर के दो सिंह अब भी मौजूद थे। प्रांगण में वह काठ का घोड़ा भी मिट्टी में आधा धंसा था, जिसे उसके पिता ने पांचवें जन्मदिन पर उसे उपहार में दिया था। उसी दिन वे उन्हें जंजीरों में बांधकर ले गये थे।
उसे आज सब स्मरण हो रहा था। उसके पीछे भागती और दूध पीने की विनती करती लक्ष्मी भी। अपने घर के सामने पहुंचते ही उसके कदम ठिठक गए। नहीं, यह घर अब उसका अपना नहीं था। सच तो यह था कि उसका अपना घर था ही नहीं। वह अनाथ थी। इसकी पीड़ा उसके मुख पर उभर आयी। परन्तु इस बार राघव ने उसकी प्रतीक्षा नहीं की। उसने आगे बढ़कर महल का ताला तोड़ा और दोनों ने भीतर प्रवेश किया। लालटेन के प्रकाश से थोड़ा उजाला हुआ। भीतर धूल ही धूल फैली थी। उसने जोर से सांस अंदर खींची। एक क्षण के लिए विचार आया कि वह फिर से पांच साल की बच्ची हो जाए, उसके पिता आएं और हंसते हुए उसे गोद में उठाकर झूम जाएं। हंसते हुए उनका चेहरा और भी दीप्तिमय हो जाता था। वह उस सुगंध, उस स्पर्श और उनके लाड़ को एक बार फिर अनुभव करना चाहती थी। बीते बारह वर्षों के जीवन में उसने हर क्षण उनकी कमी को महसूस किया था। राघव के पिता तथा उसके काका थिम्मा ने उसे गोद लिया था। वह भी उसे स्नेह करते थे परन्तु उसके पिता का स्थान कोई और नहीं ले सकता था। सामने दीवार पर टंगे चित्र की ओर संकेत करते हुए राघव ने पूछा, 'क्या यह तुम हो?' भावनाओं के ज्वार को समेटते हुए उसने धीमे स्वर में कहा,'नहीं, मेरी मां हैं।' गोद में वीणा लिए वह देवी सरस्वती की भांति बैठी थीं और अत्यंत आकर्षक एवं दिव्य जान पड़ती थीं। उसने उन्हें कभी नहीं देखा था। यह चित्र और इसे देर तक निहारते उसके पिता की छवि ही वह स्मृतियां थीं, जो अपनी मां के बारे में उसे स्मरण थे।'वह तुम्हारी तरह ही सुंदर दिखती थीं,' राघव ने कहा। मकड़ी के जालों को साफ करती वह दाईं तरफ अपने पिता के कक्ष की ओर बढ़ी। इस कक्ष के झरोखे से घाटी का सुंदर दृश्य स्पष्ट दिखाई देता था। दूर अनंत तक फैली माहिषी नदी भी दिखाई पड़ रही थी। वह घंटों तक यहां बैठकर घाटी के ऊपर मंडराते बादलों को देखा करती थी जबकि उसके पिता अपने कार्य में व्यस्त रहते थे। मन में उमड़ती भावनाओं को वश में करती हुई वह अपने पिता के कक्ष की ओर बढ़ी। मकडी़ के जालों और धूल के अलावा वहां सब कुछ पहले जैसा ही था। उस दिन, जब वे उसके पिता को बंदी बनाने आए थे, तब वह प्रांगण में सेवादारों के बच्चों के साथ खेल रही थी। कक्ष में केवल लक्ष्मी ही थी, जो उन्हें भोजन देने गई थी। उसे अभी भी याद था कि कैसे उसके पिता को बेड़ियों में जकड़कर घसीटते हुए ले जाया गया था। तेज गति से दौड़ते रथ के पीछे वह रोती-चिल्लाती भागी थी। लक्ष्मी जबरन उसे गोद में उठाकर कक्ष की ओर दौड़ी थी। परन्तु राजा के सैनिकों ने उन्हें भीतर जाने से रोक दिया था। उसकी आंखों के सामने ही उसके घर को कब्जे में लेकर ताला जड़ दिया गया था। सेवादारों को उनके झोपड़ों से निकाल किले का द्वार बंद कर दिया गया था। काका थिम्मा के आने तक वे वहीं बैठे रहे थे। फिर काका थिम्मा उन्हें अपने घर लेकर गए थे। सेविका लक्ष्मी ने बताया था कि उसके पिता वह अजीब पुस्तक पढ़ रहे थे कि सैनिक उन्हें ढूंढ़ते हुए अचानक वहां आ पहुंचे । उन्होंने तुरन्त पुस्तक उसे पकड़ाते हुए जमीन में बनी गुप्त तिजोरी में छिपाने का संकेत किया था। वह चाहते थे कि उनकी पुत्री के बड़े होने पर यह पुस्तक उसे सौंप दी जाए। इसके क्षण भर बाद ही सैनिक कक्ष के भीतर आ धमके और उन्हें खींचते हुए बाहर ले गये थे। लक्ष्मी पीछे-पीछे दौड़ती गई थी और जब तक वह लौटकर आती, सैनिकों ने भवन को कब्जे में लेकर ताला जड़ दिया था और इसी के साथ वह पुस्तक भी भीतर ही कैद हो गई थी। आज अगर लक्ष्मी जीवित होती तो वह उसे उस गुप्त तिजोरी तक ले जाती, जहां उसने पुस्तक छिपाई थी। हालांकि कुछ क्षण बाद ही उसे जमीन में जड़ी वह गुप्त तिजोरी मिल गई। दोनों ने ताला तोड़कर उस हस्तलिखित पुस्तक को बाहर निकाला। 'पैशाची,' राघव अचंभित होते हुए बोला। 'यह इस राज्य की पुरातन भाषा है।' 'क्या तुम इसे पढ़ना जानते हो?' उसने पूछा । राघव विद्वान था और उसका अधिकतर समय पढ़ते-लिखते व्यतीत हुआ था। उसने हां की मुद्रा में सिर हिलाते हुए कहा, 'आज इस मृतप्राय भाषा को पढ़ सकने वाले बहुत कम लोग बचे हैं।' मुझे अचरज हो रहा है कि तुम्हारे पिता ने पुस्तक लिखने के लिए इस भाषा को चुना। 'उन्होंने यह पुस्तक स्वयं नहीं लिखी थी। किसी अन्य व्यक्ति ने उन्हें यह दी थी।' लक्ष्मी की बातों को याद करती वह बोली। पुस्तक पर अंगुलियां फेरते हुए एक सिहरन सी उसके शरीर में दौड़ गई। इस पुस्तक को कभी उसके पिता ने अपने हाथों से पकड़ा था। 'हमें यहां से जल्दी चलना होगा,' राघव बोला। उसे भय सता रहा था कि उसके पिता थिम्मा घर वापस लौट आए होंगे और उन्हें ढूंढ़ रहे होंगे ।
पुस्तक को हृदय से लगाये वह उठी। पूरे कक्ष पर एक बार फिर नजर दौड़ाई। किताबों में सिर झुकाये उसके पिता की छवि पुनः उसके मस्तिष्क में उभर आयी। अपने आंसुओं को थामते हुए उसने सिर हिलाया और निकास द्वार की ओर बढ़ चली। राघव भी पीछे-पीछे चल दिया। लगभग खंडहर हो चुके मंदिर के सामने वह रुक गई। ईश्वर को नमन करने के लिए ज्यों ही उसने आंखें बंद कीं, क्रोध से उसका शरीर कांप उठा। उन्होंने उसके परिवार को बर्बाद किया। उसके पिता को मार डाला। उसने स्वयं उन्हें तड़प-तड़प कर मरते देखा था। वे इसे चित्रवध कहते थे। यह नाम भी दंड की उस क्रूरता को नहीं छिपा सकता था। उसे याद था कि कैसे उसके पिता को एक लोहे के पिंजरे में कैद कर खुले मैदान में बरगद के पेड़ से लटका दिया गया था। पिंजरे पर एक तख्ती भी लगाई थी, जिस पर राजद्रोही लिखा था। कभी शक्तिशाली भूमिपति रहे देवराय को राजद्रोही घोषित कर सबसे बर्बर मृत्यु दी गई थी। उसने सुना था कि चील, कौओं ने नोंच -नोंच कर उनका मांस खाया था और प्राण त्यागने में उन्हें तीन सप्ताह का समय लगा था। उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर मरता देखने के लिए पेड़ के नीचे प्रतिदिन माहिष्मती वासियों की भीड़ जुटती थी और आनन्द मनाया जाता था। उसका मन माहिष्मती साम्राज्य और उसके शासक के प्रति घृणा से भरा हुआ था। पुस्तक को हृदय से लगाये उसने सौगंध ली, 'हे मां गौरी, मैं इस माहिष्मती साम्राज्य का विनाश कर दूंगी।' जैसे ही वह पीछे मुड़ी, राघव ने उसे आलिंगन में ले लिया। उसके हाथ से लालटेन नीचे गिरकर बुझ गई। राघव का यह रूप देख वह सन्न थी और कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पायी। राघव उसे निरंतर चूम रहा था। 'शिवगामी, शिवगामी, हम मिलकर उनका सर्वनाश करेंगे। तुम मुझसे अलग न होना। मेरे साथ रहना...।' शिवगामी ने उसे जोर से धक्का देते हुए थप्पड़ जड़ा। 'तुमने ये दुस्साहस कैसे किया... राघव।' क्रोध एवं विषाद से वह कांप रही थी। अपने बचपन के मित्र से उसे इस तरह के आचरण की आशा नहीं थी। राघव ने जिस प्रकार उसे आलिंगनबद्ध किया था, उससे उसे तनिक भी संशय नहीं रह गया कि उसके मन में क्या था। 'मुझे क्षमा कर दो शिवगामी,' राघव ने विलाप करते कहा। 'मैंने तुम पर विश्वास किया, राघव। हमेशा तुम्हें अपना बड़ा भाई माना,' शिवगामी दुःख के साथ बोली। अपना चेहरा हथेली से छिपाये वह घुटनों के बल बैठ गया। 'तुम मुझ पर अब भी विश्वास कर सकती हो, शिवगामी। कोई और तुम्हें मुझसे ज्यादा नहीं चाहेगा। परन्तु मुझे अपना भाई न कहो। मैंने तुम्हें ऐसे प्रेम किया है को कोई भी पुरुष किसी स्त्री को नहीं कर सकता। तुम मेरी बहन नहीं हो।' नहीं, राघव, नहीं, तुम भाई से अधिक मेरे लिए कुछ भी नहीं। मैंने थिम्मा काका को अपना पिता माना है और उनका पुत्र मेरे लिए लिए भाई के अलावा कुछ और नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त, जीवन में मेरा एक ही लक्ष्य है,' अपने बचपन के मित्र के प्रति दया भाव दर्शाते हुए वह बोली। 'नहीं, ऐसे कटु वचन न बोलो। कुछ मत कहो। मैं यह नहीं सुन सकूंगा। मैं तुम्हारी सहायता करूंगा, शिवगामी। तुम्हारे प्रतिशोध में मैं भी सहायक बनूंगा। नहीं--कुछ मत बोलो... कृपा कर मुझे अपनी बात कह लेने दो... महाराज सोमदेव अत्यंत शक्तिशाली हैं, परन्तु विश्व में उससे भी शूरवीर राजा हैं। मैं उन्हें ढूंढूंगा और यहां लेकर आऊंगा। मैं यह सब तुम्हारे लिए करूंगा, शिवगामी। तुम्हारे लिए मैं पृथ्वी के छोर तक जाऊंगा और यदि आवश्यकता हुई तो उससे भी आगे। तुम हमारे घर से विदा हो, इससे पहले ही मैं निकल जाऊंगा। मैं नहीं जानता कि पिताजी क्यों तुम्हें बाहर भेज रहे हैं परन्तु कल का सूरज निकलने से पूर्व ही मैं माहिष्मती छोड़ दूंगा।' 'चुप हो जाओ, राघव...।' 'नहीं, शिवगामी, कृपा कर कुछ न बोलो। बस वचन दो कि जिस दिन तुम माहिष्मती का विनाश करोगी, उस दिन मेरी हो जाओगी। वचन दो कि तुम ऐसा ही करोगी।' 'मुझे तुम्हारी सहायता की आवश्यकता नहीं, राघव। मुझे किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं। मैं नहीं जानती कि कैसे और कब, परन्तु मैं इस माहिष्मती साम्राज्य और इसके शासकों का सर्वनाश कर दूंगी। मैं कोई वचन नहीं दूंगी।' राघव ने अपनी हथेली से उसका मूंह बंद कर दिया, 'शिवगामी, अब मैं इस बारे में और कुछ नहीं बोलूंगा। परन्तु कुछ समय तक दया बनाए रखो। मैं कल जा रहा हूं। कृपा कर... अगर तुम वचन नहीं देना चाहती, तो भी मैं इस आशा के साथ जाऊंगा कि मेरी सहायता के बाद एक दिन तुम्हारा हृदय अवश्य पिघलेगा।' शिवगामी ने उत्तर देना आवश्यक न समझा। अब राघव से बात करने का कोई अर्थ न था। उसे आशा थी कि भावावेग में बहते उसके सहचर का विवेक जल्द ही वापस लौट आएगा। घर लौटते समय पूरे रास्ते दोनों चुपचाप थे।शिवगामी पूर्व की उन स्मृतियों और अपने पिता के प्रति हुए अन्याय से उपजी प्रतिशोध की भावना से इस कदर ओतप्रोत थी कि उसे राघव अथवा थिम्मा द्वारा बाहर भेजने का विचार ही नहीं आया।
 
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Raguhalkal

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Ye story jyada bada tho nahi sirf 51 update me sub khatam hojayega fir bi update bada hai tho de diya dekhlo acha nahi laga tho bata do vahi band kardoonga story update karna or waise bi maine bi nahi pada iss story ko so muje nahi pata ki kaisi hai tho aap logonki raay jankar hi padna start kardoonga thank you
 
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