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Thriller Shivagami (bahubali arambh se poorv)

Ben Tennyson

Its Hero Time !!
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अद्भुत अपडेट कहानी के प्रथम अध्याय का आरम्भ ही धमाकेदार कर दिया है !!
 
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अध्याय 2



कटप्पा


शिकार पर निकला दल जंगल को पार करता आगे बढ़ रहा था। माहिष्मती के महाराज जिस हाथी पर सवार थे, उसके संग सांवले वर्ण का एक दुबला-पतला नौजवान भी चल रहा था। आगे उसके पिता श्वेत अश्व पर सवार थे। उनके पीछे, सैनिकों के मध्य माहिष्मती के राजकुमार शाही घोड़ों पर सवारी कर रहे थे। उनके पीछे सैनिकों का काफिला शिकार किए गए हिरणों और जंगली सुअरों को कंधे पर लादे चल रहा था। पेड़ों की छांव धीरे-धीरे सिमट रही थी और धुंध झाड़ियों से निकलकर वातावरण को अपने आगोश में लेने लगी थी। दल सुबह से शिकार के लिए निकला था, परन्तु साठ जनों के इस समूह के लिए अब तक किया गया शिकार नाकाफी था। बीती रात हुई बूंदाबांदी ने वातावरण में नमी पैदा कर दी थी और जमीन गीली हो गई थी।


'कटप्पा, आगे जाकर शिविर का बंदोबस्त करो।' श्वेत अश्व पर सवार उसके पिता ने कहा। कटप्पा ने अपनी सहायता के लिए कुछ गुलामों को चुना और काफिले के आगे बढ़ गया। कटप्पा के वहां पहुंचने से पहले ही भाटों का दल पेड़ों के नीचे तानपुरा और मृदंग लिए उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। कटप्पा को देख वे सब सम्मान में उठ खड़े हुए। यद्यपि गले में पड़ा लोहे का काला गोल छल्ला उसके गुलाम होने का संकेत कर रहा था, परन्तु कटप्पा का आभामंडल देख वे सब उसके सम्मुख सिर झुकाकर खड़े हो गये।


कटप्पा ने उन्हें वह स्थान खाली करने का आदेश दिया। बुदबुदाते हुए वे सब वहां से हटे। कटप्पा ने अपने साथ आए गुलामों को तम्बू लगाने और गलीचा बिछाने को कहा। तभी उसका ध्यानछोटे भाई शिवप्पा की ओर गया। सत्रह वर्ष की आयु में वह अब भी राजभवन में गुलाम था, और शासकों के तुच्छ कार्य किया करता था। उसने अभी राजमहल से बाहर का संसार नहीं देखा था। अभी उसकी आयु महाराज के शिकारी दल में शामिल होने की नहीं थी, लेकिन आज सुबह से ही वह शिकार पर साथ जाने के लिए अड़ा हुआ था। पिता की डांट के बाद ही शांत हुआ था। परन्तु वह आसानी से हार मानने वालों में न था। बाद में कटप्पा को उसे चोरी-छिपे शिकारी दल में शामिल करना पड़ा था। समूह में सबसे पीछे वह सैनिकों का सामान और पानी के घडे़ लादे चल रहा था। अगर उसके पिता को पता चल जाता, तो उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती थी।


राजन के दल को शिविर की ओर आता देख कटप्पा ने गुलामों को तेजी से काम निपटाने का आदेश दिया। सेवादार घोड़ों के लिए चारे और हाथियों के लिए विशाल पात्रों में पानी का बंदोबस्त कर रहे थे। शीघ्र ही वातावरण घोड़ों की हिनहिनाहट और सैनिकों की पदचाप से गूंज उठा। राजन का दल शिविर में पहुंच चुका था। कटप्पा ने एक नजर शिविर पर दौड़ाई और देखा कि सभी कार्य आदेशानुसार हुए थे अथवा नहीं। शिकार पर पहली बार उसे इतनी बडी़ जिम्मेदारी सौंपी गई थी और वह इसमें कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता था। उसने पीछे मुड़कर देखा तो घुटनों के बल बैठे हाथी से राजन नीचे उतर रहे थे। कटप्पा के पिता घोड़े से उतरे और तेजी से राजन की ओर भागे। इससे पहले कि महाराज सोमदेव के पांव जमीन पर पड़ते, वह उनके आगे जाकर घुटनों के बल बैठ गए। महाराज मलयप्पा के कंधों पर पैर रखते हुए हाथी से नीचे उतरे।


'ओये, गुलाम बालक।'कटप्पा के चेहरे पर तनाव की रेखाएं खिंच आयीं। वह जानता था कि गुलाम कहलाने में कुछ भी गलत नहीं। आखिर वह गुलाम ही तो था, किंतु यह शब्द सुनते ही वह उत्तेजित हो जाता। गुलाम शब्द से अधिक वह राजकुमार बिज्जल द्वारा बालक कहे जाने पर क्रोधित हुआ था। वह बाईस वर्ष का नौजवान था और बिज्जल उससे आयु में कुछ माह छोटे थे।


अपने मनोभाव को छिपा चेहरे पर दासता का भाव लाते हुए वह राजकुमार बिज्जल की ओर मुड़ा। राजकुमार ने उसे अपने अश्व की ओर आने का संकेत किया। कटप्पा सम्मान में सिर झुकाये आगे आया। राजकुमार ने उसे घुटनों के बल बैठने का आदेश दिया। सभी लोग यह दृश्य देख रहे थे।


'भ्राता, रुक जाओ। वह आयु में आपसे बड़ा है,' राजकुमार महादेव तेज स्वर में बोले। बिज्जल ने कुटिल मुस्कान के साथ कहा, 'गुलामों की कोई आयु नहीं होती और न ही कोई नाम। उन्हें केवल हमारे आदेशों का अनुपालन करना होता है।'


'परन्तु...'


और फिर बिज्जल ने एक जोरदार थप्पड़ कटप्पा को जड़ दिया। अचानक पड़े इस थप्पड़ से कटप्पा लगभग अपना संतुलन खो बैठा था। उसने इसकी उम्मीद नहीं की थी।


'मैं बैठने को कहूं तो तुम्हें बैठ जाना है,' बिज्जल ने आदेश देते हुए एक और थप्पड़ कटप्पा के गाल पर जड़ दिया। कटप्पा तुरन्त घुटनों के बल बैठ गया। बिज्जल उसके झुके हुए कंधों पर पैर रख घोड़े से नीचे उतरने लगे। बिज्जल के भार से कटप्पा का संतुलन बिगड़ गया और वह राजकुमार के साथ जमीन पर गिर पडा़ । यह देख सभी सन्न रह गए। सबकी नजर उस ओर ही थी। राजकुमारमहादेव भी हंस पडे़। बिज्जल खड़े हुये। उनकी रेशम की सुंदर धोती कीचड़ से लथपथ हो गई थी। कटप्पा भय से कांप उठा। उससे बहुत बड़ी चूक हो गई थी। बिज्जल के चेहरे पर क्रोध उसे स्पष्ट नजर आ रहा था। बिज्जल को चाबुक निकालता देख वह एक कदम पीछे हट गया। कटप्पा का गला सूख चुका था। बिज्जल ने एक कदम आगे बढ़ चाबुक चला दिया। यद्यपि वह कटप्पा को लगा नहीं। कटप्पा आंखें बंद किए अगले चाबुक का इंतजार करने लगा।


'नहीं, अन्ना...,' कटप्पा ने महादेव को चिल्लाते हुए सुना। अरे नहीं, इससे वह और क्रोधित हो जाएंगे, कटप्पा ने मन ही मन सोचा। बिज्जल ने चाबुक कलाई में लपेटा और चला दिया। कटप्पा डर के मारे एक कदम पीछे हटा और लड़खडा़कर पीठ के बल गिर पडा़ । बिज्जल उसके ऊपर आ गये। कटप्पा को जमीन की नुकीली गीली घास का अहसास हो रहा था। कटप्पा ने हाथ और पैर से जोर लगाते हुए पीठ के बल सरकना चाहा ताकि वह जितना संभव हो बिज्जल से दूर जा सके।


'क्षमा कर दीजिये, युवराज,' कटप्पा गिड़गिडा़या। तभी एक और चाबुक उसके सिर पर आकर पड़ा। इस बार वह अपने आंसू रोक न सका। चाबुक का निशान उसके गाल पर उभर आया था। और फिर कंधे, नाक, पेट, जांघ लगभग हर जगह चाबुक पड़ते रहे और निशान उभरते रहे। कटप्पा होंठ भींचे चुपचाप अपने आंसुओं को थामने का प्रयास कर रहा था।


यही उसकी नियति थी, उसके पूर्वजों की नियति। वह एक गुलाम से बढ़कर कुछ नहीं था। गुलाम जो माहिष्मती साम्राज्य की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्योछावर कर देता था। इसके बावजूद कहीं हृदय में उसे पीडा़ हो रही थी। उसका जीवन एक घोड़े से भीबदतर था। घोड़ों को कम से कम अच्छा भोजन और बारिश के दिनों में न टपकने वाली छत तो नसीब होती थी।


'अन्ना...' दूर खड़े शिवप्पा की आवाज उसके कानों में गूंजी। कटप्पा ने देखा कि शिवप्पा उसकी ओर दौडा़ चला आ रहा था। नहीं, हे मां गौरी, नहीं, नहीं। वह चिल्लाना चाहता था।


उसने शिवप्पा का क्रोधित चेहरा देखा और अपनी आंखें बंद कर लीं। अगले ही क्षण राजकुमार बिज्जल के कष्टदायी क्रंदन से उसकी आंखें खुलीं। राजकुमार की नाक से खून बह रहा था और वह हथेली से इसे रोकने का प्रयास कर रहे थे। कटप्पा ने खून से सना एक पत्थर अपने पैरों के पास लुढ़कता देखा। शिवप्पा दूसरा पत्थर लेकर निशाना लगाने ही वाला था कि कटप्पा चीखते हुए उसकी ओर दौड़ा। सब कुछ बहुत जल्दी घटित हो रहा था। कटप्पा ने देखा कि उसके पिता भी चाबुक लिए हुए उनकी ओर दौड़े चले आ रहे थे। शिवप्पा द्वारा फेंका गया दूसरा पत्थर बिना किसी को चोट पहुंचाए कीचड़युक्त जमीन में जा गिरा। जब तक वह तीसरा पत्थर उठाता, मलयप्पा का चाबुक उसके चेहरे पर पडा़ । वह चीखते हुए गिर गया। उसके पिता चाबुक पर चाबुक बरसा रहे थे और वह दर्द से कराहता जमीन पर लोट रहा था।


'जिन राजकुमार की रक्षा करनी चाहिए, उन्हें चोट पहुंचाने की तेरी हिम्मत कैसे हुई, निर्लज्ज!' चाबुक चलाते हुए मलयप्पा कहता जा रहा था। कटप्पा ने बचाव करना चाहा लेकिन उसे भी पिता के कोप का भाजन बनना पड़ा।


'दूर खड़ा रह! यह तेरी गलती के कारण ही हुआ है। मेरी अवज्ञा करने की तेरी हिम्मत कैसे हुई?'


'रुक जाओ। इसमें कटप्पा का कोई दोष नहीं,' राजकुमारमहादेव चिल्लाये। राजकुमार की आवाज सुनकर मलयप्पा ने सम्मान में सिर नीचे झुका दिया।


'मैं उसे मृत देखना चाहता हूं। उसने मेरी नाक तोड़ी है। मार डालो उसे,' राजकुमार बिज्जल गरजे। राजवैद्य उनकी खून से लथपथ नाक पर औषधि लगा रहे थे। मलयप्पा ने फिर से अपने पुत्र पर चाबुक चलाने शुरू कर दिये।


राजकुमार महादेव महाराज सोमदेव की ओर दौडे़। 'पिता जी, कुछ करिये। कृपा कर उन्हें रुक जाने को कहिये।'


कटप्पा ने देखा कि उसके पिता राजन का आदेश सुनने के लिए एक क्षण के लिए रुक गए। महाराज सोमदेव का चेहरा पत्थर के समान कठोर हो गया और उन पर महादेव के अनुनय विनय का कोई असर न हुआ।


मलयप्पा ने चाबुक कटप्पा को पकड़ाते हुए कहा, 'अब तुम इसे दंडित करो।'


'पिता जी?'


'तुम इसे वहां लेकर आये जहां के योग्य यह नहीं था और इसने वही किया जो नहीं करना चाहिए था। तुम्हारा दंड भी यही है। इस पर चाबुक चलाओ।'


कटप्पा ने कांपते हाथों से चाबुक उठाया। शिवप्पा के शरीर पर जहां-जहां चाबुक पड़ा था, वहां से खून रिस रहा था। कटप्पा ने भाई के चेहरे की ओर देखा कि शायद वह क्षमा के लिए गिड़गिडा़ए, किंतु शिवप्पा पूर्णतः शांत था। वह चाहता था कि उसका भाई कम से कम रो दे। उसने एक के बाद एक इक्कीस चाबुक उस पर बरसाये लेकिन शिवप्पा के मुख से एक आह तक न निकली। वहीं, हर चाबुक के साथ कटप्पा का हृदय बैठा जा रहा था। चाबुक उसकी चमड़ी उधेड़ रहा था। तभी शिवप्पा भाई की आंखों में आंखे डालकर देखने लगा। उस क्षण कटप्पा को अपने जीवन से घृणा हो गई। ---- आधी रात बीतने के बाद कटप्पा अपने छोटे भाई के पास गया। उस समय तक, माहिष्मती के शूरवीर वंशजों का गुणगान कर भाट मदिरा पीकर लुढ़क चुके थे। नृत्यांगनायें भी अपने उन्मत्त प्रेमियों संग जा चुकी थीं और कटप्पा को आसपास की झाड़ियों से चुपके से उनके हंसने की आवाज आ रही थी। राजन भी अन्य सम्मानित जनों के साथ शाही छावनी के भीतर विश्राम कर रहे थे। उसके पिता संभवतः सम्राट की सुरक्षा में तैनात थे। कटप्पा अपराध बोध से ग्रस्त था कि उसे भाई के प्रति किस प्रकार के आचरण के लिए मजबूर किया गया। शिवप्पा टेढी़ -मेढ़ी जड़ों और जमीन तक झुकी टहनियों वाले पेड़ के नीचे पड़ा था। कटप्पा संभलकर कदम आगे बढ़ा रहा था कि कहीं उसकी आहट से कोई जाग न जाये। पेड़ के निकट पहुंचते ही वैद्य द्वारा शिवप्पा के शरीर पर लेपी गई औषधि कि गंध तेज हो गयी। शिवप्पा दर्द से कराह रहा था। आसमान में चमकते चंद्रमा का प्रकाश भी धुंधला हो चला था। जैसे ही कटप्पा भाई के निकट पहुंचा, उसे झाड़ियों से सरसराहट सुनायी दी। 'मुझे क्षमा कर दो,' कहते हुए कटप्पा का गला भर आया। 'पीड़ा हो रही है?' शिवप्पा ने कोई उत्तर न दिया। उसकी आंखें बंद थीं। चाबुक की मार से बने घावों को छूते हुए कटप्पा के हाथ थरथरा रहे थे। उसकी आंखें नम हो गई थीं।
'कामाक्षी,' शिवप्पा कराहते हुए बस यही नाम दोहरा रहा था, 'तुम सही कहते थे, मैं एक गुलाम भर हूं।' कटप्पा ने खुद को संभाला। पिता की चेतावनी और उसके समझाने के बावजूद शिवप्पा अब भी उस लड़की को याद कर रहा था। इस मूर्ख को यह बात न जाने कब समझ आयेगी? 'शिवप्पा,' कटप्पा उसे झकझोरते हुए बोला। आखिर उसने आंखें खोलीं। 'तुम्हें उसे दोबारा देखने का कोई अधिकार नहीं। क्या तुम उसे मृत देखना चाहते हो?' 'हम गुलाम क्यों हैं?' शिवप्पा ने पूछा। अचानक यह प्रश्न सुन कटप्पा अवाक रह गया। कटप्पा के पास इसका कोई उत्तर न था। यह वह प्रश्न था, जो कई बार वह खुद से पूछा करता। उसे थोडा़ -थोड़ा याद था कि कई पीढ़ियों पहले उनके किसी पूर्वज ने कोई सौगंध ली थी। जब मां जीवित थी, तो वह उसके इस प्रश्न के जवाब में मुस्कुराकर उसके घुंघराले बालों पर हाथ फेरते हुए कहती कि यह उनकी नियति थी। यह लिखित था। परलोक में बैठे ईश्वर की इच्छा थी कि धरती पर कुछ लोग शासक हों और कुछ उनके गुलाम। कटप्पा को राजन की छावनी के निकट जलते अंगारे नजर आ रहे थे। पास ही में उसके पिता दुबककर बैठे हुए थे और उनके चेहरे का एक भाग इससे प्रकाशित हो रहा था। हालांकि उसके पिता माहिष्मती के महाराज के नजदीकी सहायक थे परन्तु यह सोचकर ही उसका मन खराब हो जाता कि वह एक गुलाम था। कटप्पा जानता था कि उसका जीवन भी गुलाम रहते ही बीतेगा और मृत्यु भी अन्य गुलामों की तरह ही तुच्छ और शोकरहित होगी। अच्छा था कि उसके भाई ने आंखें फिर से बंद कर लीं और यह प्रश्न कुछ क्षण के लिए ओझल हो गया। वह दर्द से तड़प रहा था। 'तुम्हारी देह तप रही है। कहीं तुम्हें ज्वर तो नहीं?' कटप्पा ने उसका माथा छूकर पूछा। शिवप्पा सिकुड़ते हुए अपनी प्रेमिका का नाम दोहराए जा रहा था। कटप्पा असहाय खड़ा देखता रहा। पेड़ों की टहनियों के बीच से कुहासा निकलकर सामने आ रहा था। झींगुरों के भिनभिनाने और उसके भाई की कराह के अलावा पूरा वातावरण शांत था। तभी अचानक सूखी पत्तियों में खड़खड़ाहट सुन कटप्पा उस ओर मुड़ा। 'अच्छा, तो जब स्वामी नहीं देख रहे होते तो गुलाम छिपकर ये सब करते हैं।' कटप्पा को बिल्कुल उम्मीद न थी कि राजकुमार बिज्जल गुलामों के शयन स्थान तक पहुंच जाएंगे। उसने कुछ और परवाह किए बगैर तुरंत अपना सिर नीचे झुका लिया। तिरछी नजर से उसने देखा कि राजकुमार महादेव अपने भाई को पुकारते हुए छावनी से दौड़े चले आ रहे थे। 'तूने राजकुमार पर पत्थर फेंकने का दुस्साहस किया और सोचता है कि बड़े भाई से कुछ चाबुक खाकर बच निकलेगा?' हाथ में चाबुक लिए राजकुमार बिज्जल सामने खडे़ थे। उन्होंने हवा में चाबुक फटकारा और फिर इसे कलाई पर लपेट लिया। 'तेरा पिता तो बहुत चालाक निकला! उसने गुलाम बताकर पूरी बात ही पलट दी और मेरे भोले-भाले पिता उसकी बातों में आ गए।' कटप्पा राजकुमार बिज्जल के पैरों में गिरकर गिड़गिड़ाया, 'क्षमा कर दीजिए, स्वामी।' राजकुमार महादेव वहां पहुंचकर अपने भाई को खींचकर ले जाने लगे कि बिज्जल ने उन्हें जारे से एक ओर धकेला। क्रोध में छोटे भाई की ओर अंगुली उठाते हुए बोले, 'दूर रहो, कायर। आज मैं तुम्हें सिखाता हूं कि गुलाम के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। यह दुष्ट सोचता है कि माहिष्मती के राजकुमार को घायल कर यह इतनी आसानी से बच निकलेगा।' महादेव चिल्लाये, 'शिवप्पा, भागो और महाराज की शरण में जाओ। नहीं तो मेरा भाई तुम्हारी जान ले लेगा।' शिवप्पा एक क्षण के लिए हिचकिचाया। राजकुमार बिज्जल चाबुक फटकारते हुए उसकी ओर दौड़े। अपना बचाव करते हुए शिवप्पा दूसरी ओर हट गया और फिर महाराज की छावनी की ओर दौड़ लगा दी। बिज्जल ने कटप्पा को लात मारी और अपशब्द कहते हुए शिवप्पा के पीछे भागे। कटप्पा दया की भीख मांगते हुए बिज्जल के पीछे-पीछे दौड़ रहा था। उसने देखा कि शिवप्पा लड़खड़ाकर गिर गया और बिज्जल उसके निकट थे। बिज्जल ने उस पर चाबुक चला दिया। किसी तरह खुद को संभालते हुए वह उठा और फिर से छावनी की ओर दौड़ने लगा। अचानक ही वह बाईं तरफ मुड़ गया, जिधर राजा का हाथी खड़ा था। कटप्पा के शरीर में बिजली सी कौंधी। वह तुरंत जान गया कि उसका भाई क्या करने वाला था। पूरी धरा पर गिरीशा से अधिक श्रेष्ठ कोई अन्य जानवर नहीं हो सकता था, और यही कारण था कि माहिष्मती के महाराज ने सवारी के लिए इस विशालकाय जीव को चुना था। लेकिन कटप्पा जानता था कि यह हाथी उसके भाई के इशारे पर चलता था और शिवप्पा राजकुमार बिज्जल को उसी की ओर ले जा रहा था। 'नहीं, शिवप्पा, नहीं,' कटप्पा चिल्लाया लेकिन उसकी आवाज बिज्जल की चीख के आगे दब गई। यह सब देख दल के अन्य लोग भी जाग गए थे और सन्न खड़े हो उस ओर देख रहे थे। शिवप्पा हाथी के नजदीक पहुंचा और हांफते हुये उसके पैरों के पास खड़ा हो गया। पत्तियां चबाता हाथी शांत खड़ा था। पास ही महावत नशे में धुत होकर सो रहा था। बिज्जल ने चाबुक चलाया। ऐसा लगा मानो शिवप्पा को इसी की प्रतीक्षा थी। इस वार से खुद को बचाते हुए वह दूसरी ओर खड़ा हो गया और चाबुक हाथी की आंख के नीचे जा लगा। दर्द से वह चिंघाडा़ । महावत फुर्ती से उठा, परन्तु राजकुमार का क्रोध देख वह पीछे हट गया। बिज्जल इतने आवेश में थे कि इस ओर उनका ध्यान न गया। उन्होंने शिवप्पा पर वार के लिए फिर चाबुक चलाया। इस बार चाबुक शिवप्पा के चेहरे की चमड़ी उधेड़ता चला गया। वह चीखते हुए नीचे गिरा और दया की भीख मांगने लगा। कटप्पा जानता था कि यह उसकी चालथी। उसने अपने भाई को तेजी से हाथी के पैरों की जंजीर खोलते देखा। चाबुक का अगला वार हाथी के पैरों पर पड़ा। शिवप्पा लुढ़कता हुआ हाथी के दूसरी ओर चला गया और क्षमा याचना करने लगा। बिज्जल अपशब्द कहते हुए उस पर चाबुक चलाने के लिए हाथी के दूसरी ओर गए। कटप्पा भागकर पहुंचने ही वाला था कि उसका पैर पत्थर से टकराया और वह मुंह के बल गिर पड़ा। जब तक वह उठता, सामने का दृश्य देख उसकी सांस गले में अटक गयी। वह चिल्लाया, 'दूर हट जाइए, युवराज-' जब तक वह कुछ और कह पाता, हाथी ने बिज्जल को अपनी सूंड में जकड़कर ऊपर उठा लिया। बिज्जल के हाथों से चाबुक गिर गया और वह भयभीत होकर चिल्लाने लगे। एक क्षण बाद हाथी ने उन्हें जमीन पर लाकर पटक दिया। राजकुमार का शरीर थोड़ी हरकत के बाद शिथिल पड़ गया। बिज्जल का सिर कुचलने के लिए हाथी ने अपना पैर हवा में उठाया। समय थम सा गया था। कटप्पा चिल्लाया, 'गिरीशा, नहीं!' हाथी सकुचाया और एक क्षण के लिए उसका पांव हवा में रुक गया। कटप्पा ने छलांग लगाकर जैसे ही बिज्जल को झटके से खींचा, हाथी का भारी पांव जमीन पर आकर गिरा। बिज्जल का सिर कुचलने से मात्र इंच भर बचा था। बिज्जल को कंधे पर लाद कटप्पा ने दौड़ लगा दी। हाथी भी उनके पीछे चिंघाड़ता दौड़ने लगा। कटप्पा पूरी ताकत से भाग रहा था, वह जानता था कि हाथी जल्द ही उसके पास आ पहुंचेगा। बिज्जल को कंधे पर लादकर भागना उसके लिए और कठिन हो रहा था। तभी उसने राजकुमार महादेव को अपनी ओर दौड़ते देखा, परन्तु यकायक वह रुक गये और सन्न खड़े उन्हें देखने लगे। 'भागिये, राजकुमार, मार्ग से हट जाइये, ' कटप्पा चिल्लाया परन्तु महादेव भय से मूर्ति बन चुके थे। कटप्पा को सब कुछ खत्म होता जान पडा़ । आज एक अथवा दोनों राजकुमारों की मृत्यु तय थी। उनके साथ वह भी मारा जाएगा परन्तु उसकी मौत व्यर्थ जाएगी। उसने मूर्च्छित बिज्जल को जमीन पर लिटाया और अपनी तरफ आते हाथी की ओर मुड़ा। राजकुमार महादेव भय से उसके पीछे दुबक गये। हाथी बिजली की गति से उन पर झपटा। कटप्पा याद करने लगा कि उसके पिता ने एक बार मर्म विद्या के बारे में उसे क्या बताया था। यह वह प्राचीन रण विद्या थी, जिसमें विपक्षी के मस्तिष्क के शिरा केंद्र पर आघात कर अचंभित किया जाता था। परन्तु वह नहीं जानता था कि यह विद्या हाथियों पर भी लागू होती थी अथवा नहीं। हाथी उसके निकट आया और सूंड में लपेट उसे ऊपर उठा लिया। वह उसे नीचे पटकने ही वाला था कि कटप्पा ने दोनों हाथों से मुक्का बनाकर पूरी शक्ति से उसके सिर पर प्रहार किया। परन्तु इसका कोई असर होता न दिखा और वह झटके से जमीन पर आ गिरा। उसने बंद होती आंखों से देखा कि हाथी का विकराल पांव उसके ऊपर गिरने ही वाला था। क्षण भर बाद ही उसे धरती हिलती हुई प्रतीत हुई, हाथी पीड़ा से चिंघाड़ता घुटनों के बल गिर पड़ा। कटप्पा की आंखों के आगे अंधेरा छा गया। ठंडे पानी की छींटों से उसकी मूर्च्छा टूटी। उसका सिर कांप रहा था और आंखों के आगे अभी भी धुंध सी छायी थी। जलती मशालों के तेल की गंध और बीती रात वर्षा के कारण वातावरण में घुली ठंड के अलावा उसे और कुछ भी अनुभव नहीं हो रहा था। उसने आंखें मीचीं तो सामने पिता का चेहरा नजर आया। पास ही महाराज सोमदेव खड़े थे। कटप्पा ने उठने का प्रयास किया लेकिन राजा ने धीरे से उसे पीछे धकेला। जंगल से उठने वाला झींगुरों का कोलाहल थम गया था, लेकिन कटप्पा का हृदय अभी भी भय से बैठा जा रहा था। उसके मस्तिष्क में कई प्रश्न उठ रहे थे। क्या बिज्जल मारे गये? क्या वह उनकी रक्षा करने में असमर्थ रहा? तभी उसने सैनिकों को लंगड़ाकर चलते बिज्जल को ले जाते देखा। राजकुमार महादेव जमीन पर गिरे हाथी के पास खड़े थे। उसे प्रसन्नता हुई कि हाथी मरा नहीं था। सिर पर उसके प्रहार का असर कुछ देर बाद समाप्त हो जाएगा। 'तुम्हारा पुत्र बड़ा हो गया है, मलयप्पा,' महाराज सोमदेव बोले। 'उसने मेरे दोनों पुत्रों की रक्षा की। इसका पुरस्कार सर्वोच्च सम्मान के अतिरिक्त कुछ और नहीं हो सकता। मैं जानता हूं कि वह अभी नौजवान है, परन्तु उसके कारनामे अन्य गुलामों अथवा सैनिकों की तुलना में उसे कहीं अधिक बहादुर सिद्ध करते हैं। मैं उसे राजकुमार बिज्जल का अंगरक्षक घोषित करता हूं। ' आसपास खड़े सैनिक तालियां बजा जय-जयकार करने लगे और मलयप्पा की आंखों से अश्रुधारा फूट पड़ी । वह राजन के चरणों में गिर गया। 'धन्य हैं प्रभु, एक गुलाम के प्रति यह आपकी महान कृपा है। मैं नहीं जानता कि इसका धन्यवाद किस प्रकार करूं।' उसने कटप्पा को संकेत किया, और वह उठ खड़ा हुआ। उसके पांव अभी भी जड़ थे और रीढ़ में पीड़ा हो रही थी परन्तु वह अपने पिता के साथ राजन के चरणों में गिर पड़ा। 'उठो,' महाराज सोमदेव ने आदेश दिया। पिता-पुत्र उठ खड़े हुए और जल्दी से हाथ जोड़कर घुटनों तक नीचे झुक गये। 'कई पीढ़ियों तक, कटप्पा, तुम्हारे वंशज माहिष्मती के लिए जिये हैं और प्राण त्यागे हैं, और मुझे आशा है कि तुम्हारा पुत्र भी पूर्वजों की इस महान परंपरा को जारी रखेगा,' राजन ने कहा। जमीन पर पडे़ हाथी के निकट राजवैद्य के साथ खड़े महादेव उनकी ओर बढ़े और पास आकर कटप्पा के हाथ अपने हाथों में लेते हुए मुस्कुरा कर बोले, 'तुम्हारा धन्यवाद करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं, कटप्पा। जब तक मैं जीवित रहूंगा, तब तक भाई और मेरा जीवन बचाने के लिए मैं तुम्हारा ऋणी रहूंगा।' कटप्पा सकुचाते हुए नीचे झुका और महादेव के पैर छुए। हर्ष और भावावेष में आकर वह विलाप करने लगा। महादेव ने उसे उठाया और धीरे से गले लगा लिया। और फिर राजकुमार राजन के साथ शाही छावनी की ओर बढ़ गए।

युद्ध अथवा कर्तव्य पालन के अतिरिक्त किसी गुलाम को राजवंश के श्रेष्ठ जन द्वारा स्पर्श का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता था। जीवन रक्षा का प्रश्न न हो तो गुलाम को अपने स्वामी के केवल चरण छूने की अनुमति थी। राजकुमार द्वारा मात्र कर्तव्य पालन के लिए स्पर्श किया जाना--अनसुनी बातें थीं। उसे तो राजा ने भी स्पर्श किया था। कटप्पा के शब्द गले में अटक गये और वह अपना सौभाग्य देख चकित था। भाटों ने गायन शुरू कर दिया कि किस प्रकार शूरवीर राजकुमार बिज्जल और महादेव ने एक गुलाम के साथ मिलकर मतवाले हाथी को पछाड़ा। कटप्पा गौरवान्वित हुआ। पीढिय़ों तक वे माहिष्मती के राजकुमार की वीरता का गुणगान करेंगे, और इसका तनिक सा गौरव उसका भी होगा। भले ही उसका नाम न लिया जाए परन्तु इससे कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसने अपने पिता का सीना गर्व से चौड़ा किया था। सम्राट एवं राजकुमारों के प्रति वह कृतज्ञ अनुभव कर रहा था। माहिष्मती में जन्म लेकर उसका जीवन धन्य हो गया था। किसी गुलाम के लिए ज्येष्ठ राजकुमार का अंगरक्षक बनना महान गौरव था। उसके पिता को यह सम्मान पच्चीस वर्ष की आयु में प्राप्त हुआ था, जब उन्हें महाराज सोमदेव के एक निजी अंगरक्षक के रूप में चुना गया था। और कटप्पा तो अभी केवल बाईस वर्ष का ही था। सम्राट निस्संदेह एक महान व्यक्ति थे, परन्तु एक विचार कटप्पा को परेशान कर रहा था। राजकुमार के आदेश पर जब वह अपने भाई पर चाबुक बरसा रहा था, तब उनके मुख से एक शब्द तक क्यों नहीं फूटा था? शायद राजन की बुद्धिमत्ता को समझ पाने के लिए वह अभी बहुत छोटा था।
वैसे भी उसका कार्य सोचना नहीं बल्कि सेवा करना था। और यह काम उसने बड़ी कुशलता से किया था। पिता की आवाज कानों में पड़ने से वह अपने विचार संसार से बाहर आया। वह उसे भाई को लेकर आने को कह रहे थे। शिवप्पा हाथी को बांधे जाने वाले स्थान पर एक वृक्ष के नीचे बैठा था। स्वयं उठ सकने में वह अक्षम नजर आ रहा था। जैसे ही उसने शिवप्पा को देखा, एक क्षण के लिए क्रोध की लहर उसके शरीर में पैदा हो गई। भले ही किसी ने न देखा हो, परन्तु उसे स्पष्ट नजर आया था कि उसके भाई ने क्या किया था। यह अक्षम्य अपराध था। कटप्पा झुककर शिवप्पा को उठाने को हुआ तो देखा कि उसकी स्याह आंखें अंगारों की भांति लाल थीं। बूंदाबांदी फिर शुरू हो गई और मेढ़कों ने राग अलापना आरंभ कर दिया। घने बादलों ने आसमान पर चंद्रमा को ढंक लिया था। वे शिविर पर पहुंचने वाले थे। वहां बीचोबीच आग जल रही थी और सैनिक सोने की तैयारी में जुटे थे। कुछ लोग ताड़ से बनी मदिरा के घड़ों के पास से गुजर रहे थे। गवैये गीत गुनगुना रहे थे। निकट ही किसी वेश्या के तम्बू से फूहड़ हंसी रात के सन्नाटे को चीरती उसके कानों में पहुंची। नृत्यांगनाएं अभ्यास में जुटी थीं। तभी किसी के तेल उड़ेलते ही आग भभक उठी और राख हवा में फैल गई। पास ही कोई सैनिक सुअर को आग में भून रहा था और भुने मांस एवं ताड़ी की गंध हवा में फैली थी। एक अश्लील चुटकुले के बाद जोर का ठहाका वहां गूंजा। 'तुमने निकृष्टतम कार्य किया। उन्हीं हाथों को काटने का प्रयास किया जो हमें भोजन देते हैं,' भाई को नीचे उतारते कटप्पा ने कहा। 'तुम क्या चाहते थे कि मैं उनके हाथों मारा जाता?' शिवप्पा क्रोधित होकर बोला। अभी उससे बात करने से कुछ हल नहीं निकलेगा। उसका भाई गुस्सैल और ढीठ था। वह उसे बाद में समझाएगा। बताएगा कि कर्तव्य और धर्म पालन का अर्थ क्या होता है। परन्तु यह समय इस कार्य के लिए ठीक न था। 'ठीक से सोना,' कटप्पा ने धीरे से कहा। आसमान साफ हो चुका था और घास के नुकीले सिरे चांदनी में सुनहरे दिख रहे थे। 'तुम कहां जा रहे हो, अन्ना?' एक क्षण की चुप्पी के बाद कटप्पा बोला, 'आज रात से मुझे राजकुमार बिज्जल के शयनकक्ष के बाहर सोना है।' शिवप्पा ने कोई उत्तर न दिया। उसकी स्मृति में ऐसा पहली बार होगा कि दोनों भाई अलग सोएंगे। तभी एक चमगादड़ उड़ते हुए उनके ऊपर से गुजरा और जाकर पेड़ की डाल से उलटा लटक गया। 'अन्ना,' शिवप्पा ने मंद आवाज में पूछा। 'तुम खुश हो न?' कटप्पा चाहता था कि काश इसका उत्तर उसके पास होता। भाई को गले लगाते हुए वह बोला, 'राजकुमार के पास रहना और उनकी रक्षा करना मेरा कर्तव्य है।' शिवप्पा की बेचैनी को कटप्पा समझ रहा था। तभी उसका भाई मुस्कुराया। कटप्पा ने उसकी आंखों में देखा। अलाव के प्रकाश में उसकी आंखें जगमगा रही थीं। 'मुझे तुम पर गर्व है, अन्ना,' शिवप्पा ने कहा। यह प्रशंसा थी अथवा कटाक्ष, कटप्पा को संशय हुआ। परन्तु कटप्पा ने यह विचार मन से निकाल दिया। कटप्पा ने राजकुमार बिज्जल की छावनी से किसी दैत्य की जीभ की भांति बाहर निकलते रेशमी कालीन की ओर संकेत करते हुए कहा, 'मैं वहां सोऊंगा लेकिन मेरी नजर तुम पर रहेगी।' 'उस कालीन पर?' शिवप्पा ने प्रश्न किया। कटप्पा ने कोई उत्तर न दिया। उनके पीछे, गवैयों का देहाती राग तजे हो गया और प्रशंसा में तालियां बज उठीं। घुंघरू की छमछम के बीच दो नाचने वाली सुंदरियां दौड़ी आयीं और आग के आसपास चक्कर लगाने लगीं। सीटियों और अश्लील टिप्पणियों से वातावरण गूंज उठा। हजारों वर्ष पूर्व रही काम्पिल्य की राजकुमारी का गीत आरंभ हो गया कि कैसे वह सौ दिनों में सौ राजाओं के साथ सोना चाहती थी। ढोल की थाप तजे हुई और गवैयों ने एक सुर में राग प्रारंभ कर दिया। 'अच्छी जगह है यह,' संगीत और सीटियों के कोलाहल के बीच शिवप्पा बोला। कटप्पा को अपराध बोध हुआ कि वह गलीचे पर सोयेगा और उसका भाई जमीन पर। ओस पड़नी शुरू हो गई थी, कटप्पा घास पर अपनी अंगुलियों से इसका अनुभव कर रहा था। अपने जीवन में पहली बार वह नग्न जमीन पर नहीं बल्कि गलीचे पर सोएगा। उसने इसे प्राप्त किया था। उसके जीवन की पहली उपलब्धि थी यह। कटप्पा का ध्यान गलीचे की ओर गया। वह इसकी कोमलता का अहसास करने को उत्सुक था। सुंदर सजावट वाला गलीचा, जिसे भेड़ के गर्भ में मौजूद शिशु की कोमल ऊन से बुना गया होगा । वह बहुत मुलायम होगा। अपने पिता से वह इसके बारे में सैकड़ों बार सुन चुका था। यद्यपि उसने कभी अनुभव नहीं किया था लेकिन जानता था कि कैसे इस गुदगुदे गलीचे पर पैर रखते ही वह उसमें समा जाते थे। प्रतिदिन राजपरिवार के सदस्यों के चरण पड़ने से वह सुगंधित हो गया होगा। ठीक वैसी सुगंध जो उसने पास आने पर राजकुमारों के रेशमी वस्त्रों से महसूस की थी। उसने लुंगी को कमर से कसकर बांधा। संभवतः उसे एक दिन राजकुमारों के रेशमी वस्त्र छूने का अवसर भी प्राप्त हो जाए। शायद वह अति महत्वाकांक्षी हो रहा था। अंततः वह एक अछूत था। उन वस्त्रों को छूने की अनुमति उसे कोई नहीं देगा। लेकिन सपने देखने में क्या हर्ज? संगीत रुक गया था और गवैये अगले गीत के लिए तैयार हो रहे थे। 'एक कुत्ते के लिए अच्छी जगह,' शिवप्पा बोला। कटप्पा को इसका अभिप्राय समझने में कुछ क्षण लगे। वह गुस्से से लाल हो गया। तब तक शिवप्पा दूसरी तरफ मुड़ चुका था। कटप्पा ने उत्तर देना आवश्यक न समझा। वह तेजी से सैनिकों के अलाव को पार करता बिज्जल की छावनी पहुंच गया। दो संतरी तिरछे भालों के साथ खड़े थे। उसके निकट पहुंचने पर उन्होंने कोई प्रश्न किए बगैर भाले हटा दिये। उसे अच्छा महसूस हुआ। कटप्पा ने भीतर झांककर देखा तो राजकुमार बिज्जल खर्राटे ले रहे थे। गलीचे पर थोड़ी जगह थी। उसने कई बार इस पर हाथ फिराया और फिर करवट लेकर सो गया। वह एक सौभाग्यशाली गुलाम था और उसने सोने से पहले उस सर्वशक्तिमान का आभार प्रकट करने के लिए आंखें बंद कीं, ठीक वैसे ही जैसे उसकी मां ने सिखाया था। एक कुत्ते के लिए अच्छी जगह । शिवप्पा का यह कटाक्ष रुक-रुक कर उसके मस्तिष्क में कौंध जाता। उसने इसे निकालने का प्रयत्न किया और अपनी मां के उन शब्दों को याद करने लगा कि परमात्मा जो भी दे, हमें उसमें खुश रहना चाहिए। इस संसार में ऐसे बहुत से लोग थे, जिनके पास इतना भी नहीं था--न तो खाने के लिए भोजन और न ही सोने के लिए बिस्तर। वह भाग्यशाली था।
इसके काफी देर बाद तक उसे नींद नहीं आयी। वह बस वहां पडा़ आकाश में टिमटिमाते तारों को देखता रहा। कुछ सप्ताह पूर्व शिवप्पा के कहे शब्द उसे याद आने लगे। कुछ समय पहले, ठीक ऐसी ही काली अंधेरी रात में दोनों भाई अगल-बगल सो रहे थे। उनके सिर के ऊपर आकाश हीरों जड़ित चादर की भांति दिख रहा था। कटप्पा के मनभावन स्वप्न को तोड़ते हुए शिवप्पा ने पूछा था, 'अन्ना, मुझे लगता है कि निष्ठुर परमात्मा अपने आनन्द के लिए इन करोड़ों तारों को एक काली कढा़ई में उबाल रहा है, ठीक वैसे ही जैसे वह हम सबके जीवन के साथ करता है।' कटप्पा ने दूसरी ओर करवट ली। घास और जूतों की धीमी गंध के अलावा गलीचा ठीक वैसा ही था जैसा उसने सोचा था। उसने गहरी सांस भरी और भाई के शब्द एक बार फिर उसके कानों में गूंज गए: एक कुत्ते के लिए अच्छी जगह।
Aaj ke liye bas itna hi
 

Mahiirathore

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Ek Question h kya story m magic hoga

Isliye puch rha hu kyoki Dono movie sabne dekhi h to bahut kuch alag ki Aasha h
Story ko apne vha se suru kiya h jha se sach m suruwat honi chahiye or ye dekhkar bahut Aacha lga

:10::10::10:
 

Ben Tennyson

Its Hero Time !!
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एक अद्भुत दृश्य का सुंदर चित्रण कर दिया है आपने उस कालजयी कहानी को एक अलग ही स्तर पर पहुँचा दिया है ।। यह एक परम सत्य है कि गुलामों कि मनोदशा उस जमाने में एक कटु सत्य के समान हो जाती है
 
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एक अद्भुत दृश्य का सुंदर चित्रण कर दिया है आपने उस कालजयी कहानी को एक अलग ही स्तर पर पहुँचा दिया है ।। यह एक परम सत्य है कि गुलामों कि मनोदशा उस जमाने में एक कटु सत्य के समान हो जाती है
Thank you bhai sath bane rahe
 

Raguhalkal

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अध्याय 3


परमेश्वर

शस्त्रागार के नीचे बनी कार्यशाला की घुमावदार सीढ़ियां उतरते हुए महाप्रधान परमेश्वर की सांस फूल आयी। वह अपने सहायक रूपक के कंधों पर टके लगाकर खड़े हो गए और गहरी सांसें भरने लगे। धातुओं के जलने की गंध हवा में फैली थी। यद्यपि यह भोर का समय था और बाहर पत्तियों के ऊपर से ओस की बूंदें अभी वाष्पित नहीं हुई थीं लेकिन तहखाने का वातावरण गर्म और शुष्क था। भट्ठियों में धधकती ज्वाला और हथौड़ों की कर्णभेदी टनकार के कारण यह स्थान नर्क सा प्रतीत होता था। 'मैं इसे संभाल लेता, स्वामी,' रूपक बोला। वृद्ध परमेश्वर पगड़ी के खुले सिरे से माथे का पसीना पोंछते हुए मुस्कुरा दिये । मैं जानता हूं पुत्र, तुम यह भली-भांति कर लेते, परन्तु कुछ कर्तव्य होते हैं जिन्हें अपने सहायकों पर नहीं छोड़ा जा सकता, भले ही वह कितने कुशल क्यों न हों ।' दोनों के कक्ष में प्रवेश करते ही हथौड़े थम गए, कारीगर शीघ्रता से खड़े हुए और माहिष्मती के प्रधानमंत्री के सम्मान में सिर झुका लिया। उनमें सबसे अनुभवी और वृद्ध व्यक्ति ने आगे आकर घुटनों तक झुककर महाप्रधान को प्रणाम किया। 'कार्य कैसा चल रहा है, धामक?' परमेश्वर ने प्रधान कारीगर से पूछा और झुककर जमीन पर रखे बक्से से मुट्ठी भर पत्थर उठा लिए। हथेली पर पलटते ही ये आग की रोशनी में चटकदार नीले रंग में चमकने लगे। 'गौरिकांत कम पड़ गए हैं। यदि गौरिधूलि का प्रयोग न किया गया तो तलवारें कमजोर हो जाएंगी और इसे बनाने वाले पत्थर खत्म हो चुके हैं,' धामक ने चिंतित मुद्रा में कहा। परमेश्वर ने पत्थर वापस बक्से में छोड़ दिए। 'सेनापति हिरण्य का क्या कहना है?' अपने स्वामी के मन को पढ़ते हुए रूपक ने पूछा। 'वह...वह संतुष्ट नहीं थे। वह हमें तेजी से कार्य निपटाने को कह रहे थे, परन्तु हमारे पास नहीं हैं...' प्रधान कारीगर ने सकुचाते हुए कहा। 'गौरिकांत पत्थर। हां, मैं जानता हूं। महामाघम तक इंतजार करो,' महाप्रधान ने चमकीला बारूद हथेली पर रख अंगुलियों से रगड़ते हुए कहा। 'नहीं, केवल पत्थर ही नहीं कम पड़ रहे...' धामक अपनी बात पूरी नहीं कर पाया था। 'तुम सब इक्कीस लोग आराम से हो न?' महाप्रधान ने प्रधान कारीगर की आंखों में आंखें डाल पूछा। उनके पीछे भट्ठी में आग धधक रही थी। ताप असहनीय था और लोहा पीटने वाले का नग्न शरीर पसीने से लथपथ हो चमक रहा था। उसने महाप्रधान एवं उनके सहायक की ओर देखा और अनिच्छा से सहमति प्रकट कर दी। 'जी...जी हां, स्वामी।' 'महोदय, यहां एक दरार है और इससे अक्सर पानी रिसता रहता है। किसी दिन हम सब इस नरक में डूबकर मारे जाएंगे, परन्तु इसकी परवाह किसी को नहीं,' पीछे से एक नौजवान तेज आवाज में बोला। धामक चिल्लाया, 'चुप हो जा दुष्ट। तू जानता भी है किससे बात कर रहा है?'
धामक की ओर तीक्ष्ण दृष्टि दौडा़ते हुए नौजवान छत की ओर देखने लगा। पानी की एक बूंद उसके माथे पर आ गिरी। टपकते पानी को एकत्र करने के लिए लोहे की एक बाल्टी नीचे रखी गई थी। महाप्रधान बड़ी मशक्कत से छत पर एक विशाल गोलाकार लोहे के दरवाजे की ओर मुडे़। दरार को देखते ही उनकी त्योरियां चढ़ गईं। 'हमारे पास पर्याप्त मजदूर नहीं हैं और...' महाप्रधान ने हथेली ऊपर उठाते हुए धामक की बात काट दी। 'ध्यान रखिये कि सेनापति की आवश्यकताएं पूरी होती रहें। यह राज्य की सुरक्षा का प्रश्न है,' महाप्रधान ने कहा और रूपक की ओर निरीक्षण कार्य समाप्त होने का संकेत किया। वह सीढ़ियों से ऊपर चढ़ने लगे। 'महोदय, दरार का क्या होगा?' नौजवान कारीगर ने चिल्लाते हुए पूछा। परमेश्वर ने कोई उत्तर न दिया। ऊपर चढ़ते हुए उन्हें कई बार हथौड़े की जोरदार टनकार सुनाई दी। नौजवान हताश होकर अपना गुस्सा लोहे पर निकाल रहा था। जल्द ही वहां लोहे को पीटते चालीस हथौड़ों की टनकार गुंजने लगी। सीढ़ियों पर ऊपर से आते प्रकाश की ओर बढ़ते हुए उन्होंने रूपक से बुदबुदाकर कहा, 'कार्य आरंभ करने से पहले उन्हें यह दरार भरने को कहो। तीन वर्षों का परिश्रम हम व्यर्थ नदी में नहीं बहने देना चाहते।' रूपक ने सिर हिलाकर हामी भर दी। 'महोदय, क्या मैं आपसे कुछ पूछ सकता हूं?' इससे पहले कि प्रधानमंत्री उसे रोकते, उसने प्रश्न किया। 'धामक से बात करते हुए
आपने इक्कीस लोगों का जिक्र किया था परन्तु मैंने गिना तो वहां केवल बीस लोग ही थे।' महाप्रधान ने बगीचे की शुद्ध हवा लेते हुए गहरी सांस भरी। वह एक सुन्दर दिन था। 'महोदय?' 'रूपक, यही तो मेरी भी चिन्ता का कारण है। एक आदमी कम है। इतने महत्वपूर्ण कार्य में जुटा कोई जन भला ऐसे कैसे गायब हो सकता है?' 'स्वामी, यह तो विनाशकारी है। मैं कामना करता हूं कि कोई पत्थर न गायब हुआ हो,' रूपक ने भयभीत स्वर में कहा। 'छह गायब हैं। और वह भी सर्वश्रेष्ठ गुणवत्ता वाले...,' परमेश्वर ने धीरे से कहा। 'परन्तु कैसे? यह तो उच्चतम सुरक्षा वाला स्थान है,' रूपक ने पूछा। 'उसने छत पर निकास द्वार का उपयोग किया।' 'परन्तु वह तो नदी के तल पर खुलता है, महोदय। और उसे केवल अंदर व बाहर की ओर से एक साथ चाबियों का प्रयोग करते हुए ही खोला जा सकता है। आखिरकार शत्रु सेना द्वारा कब्जा करने की दशा में इसे खोलकर कार्यशाला को जलमग्न कर तबाह करने के लिए बनाया गया था।' 'तीन सौ वर्ष पूर्व अपने निर्माण के समय यह नदी के तल पर खुलता था, रूपक। अब नदी अपना रास्ता बदल चुकी है। यह स्थान अब भीषण ज्वार के समय ही जलमग्न होता है। स्पष्ट है कि किसी ने उसके लिए बाहर से दरवाजा खोला और भीतर से खोलने के लिए उसने चाबी बनाई हुई थी।'
'सुरक्षा में इतनी बड़ी सेंध, स्वामी। मुझे इस प्रलय को रोकने के लिए पर्याप्त कदम उठाने चाहिए थे,' रूपक ने सिर झुकाए हुए कहा। 'हम उस प्रजाति के हैं जिसका विवेक प्रलय आने पर ही कार्य करना शुरू करता है। हमारे लिए सुरक्षा असुविधाजनक होती है। मैं भी तुम्हारे बराबर ही दोषी हूं। सोचो, यह मेरे कार्यकाल के अंतिम पडा़व पर हो रहा है। महाराज की बात न मानी होती, तो मैं आज सेवानिवृत्त होकर अपने पौत्रों के साथ खेल रहा होता,' कहते हुए महाप्रधान परमेश्वर ने गहरी सांस भीतर खींची। 'क्या महाराज को यह पता है?' रूपक ने पूछा। 'अभी तक तो नहीं। अगर हमने लापता कारीगर और पत्थरों को ढूंढ़ लिया तो उन्हें सूचित कर सकते हैं। मैं उन्हें चिन्ता में नहीं डालना चाहता,' परमेश्वर ने कहा। 'आधा दर्जन गौरिकांत पत्थर और उनका उपयोग जानने वाला इक्कीस में से एक कारीगर गायब है। महोदय, मुझे तो भय हो रहा है।' 'मुझे भी पुत्र। परन्तु मेरे आदमी उन्हें ढूंढ़ रहे हैं,' महाप्रधान ने कहा, परन्तु उनके स्वर में आत्मविश्वास की कमी स्पष्ट थी। वह गौरीपर्वत की ओर मुडे़ और हाथ जोड़कर प्रार्थना की, 'हे मां गौरी, माहिष्मती की रक्षा करना।'



Ajj ke liye bus itna hi

Saath bane rahiyega
 

Raguhalkal

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Ye update chota tha muje pata per kya karu me chahta hu ek adhyay ke roop me du or ye adhyay itna hi tha
 
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