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Thriller Shivagami (bahubali arambh se poorv)

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अध्याय 4

पट्टराय

भूमिपति पट्टराय कुपित था। दरबार के लिए उसे विलंब हो रहा था। यदि राजगुरु रुद्र भट्ट का अत्यावश्यक संदेश न मिला होता तो वह मंदिर पर न रुकता। दंडकारों का मुखिया दंडनायक प्रताप, जिसके कंधों पर माहिष्मती नगर की सुरक्षा का भार था, वह उसके पहुंचने से पूर्व ही प्रधान पुरोहित के कक्ष के बाहर खडा़ प्रतीक्षा कर रहा था। पट्टराय ने कमरबंध से रुद्र भट्ट का संदेश निकाल तेज आवाज में पढा़ , 'कृपया जल्दी आइए। गुलाम को संभालना कठिन हो रहा है। वह दो बार भागने का प्रयास कर चुका है। मैं उसे अब और छिपाकर नहीं रख सकता। हर तरफ गुप्तचर फैले हैं,' ताड़पत्र पर लिखे संदेश को मेज पर पटकते हुए उसने रुद्र भट्ट की ओर तीक्ष्ण दृष्टि डाली। 'स्वामी, आप तो ज्ञानी पुरुष हैं। पुराणों को आत्मसात करने वाले और वेदों के प्रवीण विद्वान। फिर भी आपके भीतर सामान्य बोध का यह अभाव क्यों? आप इस तरह स्पष्ट पत्र कैसे लिख सकते हैं? 'मैं उसे अब और छिपाकर नहीं रख सकता, हर तरफ गुप्तचर फैले हैं, आदि, आदि।' क्या आप चाहते हैं कि हम सब मारे जाएं?' पट्टराय झल्लाते हुए बोला। 'पट्टराय, स्वामी भयभीत हैं,' दंडनायक प्रताप ने भूमिपति को शांत करते हुए कहा। 'गुलाम नागय्या बहुत परेशान कर रहा है। कहता है कि उसकी पत्नी और पुत्र को भी कदरिमंडल तक सुरक्षित पहुंचाया जाए। वह अकेला नहीं जाएगा।' 'क्या आप उसे समझा नहीं सकते कि जीमोता की नौकाएं बंदरगाह में प्रवेश नहीं पा रहीं?' 'क्या आप उस धूर्त को बता नहीं सकते कि कोई और नहीं बल्कि उपप्रधान स्कंददास स्वयं जलदस्युओं की नौकाओं के विरुद्ध अभियान का संचालन कर रहा है? उसे धैर्य रखना होगा। और उसके परिवार को ले जाना तो असंभव है। आखिर हम इसके बदले उसे अच्छी खासी मुद्राएं दे रहे हैं। इनसे वह कदरिमंडल में दूसरी पत्नी खरीद सकता है।' 'हमने उसे हर प्रकार से समझाने का प्रयत्न किया,' रुद्र भट्ट बोले। 'जब मैंने उससे यह बात कही तो उसने मेरे ऊपर थूंक दिया। गुलाम द्वारा चेहरे पर थूंकने के विचार से पुरोहित फिर क्रोध से तमतमा गये और अपने गाल से उस काल्पनिक थूंक को साफ करने लगे। पट्टराय मेज को धकेलते हुए कक्ष के दूसरे छोर पर गया, जहां वह गुलाम पालथी मारकर बैठा था। उसके पीछे लोहा पीटने वाले औजारों का एक पुलिंदा पड़ा था। 'पुत्र,' पट्टराय ने झुककर उसकी ठोड़ी को अंगुली से ऊपर उठाते हुए कहा। 'तुम क्यों परेशान हो, पुत्र? क्या हमने तुम्हें एक नए जीवन का वचन नहीं दिया? गुलामी से मुक्ति का वचन?' 'क्या हमने तुम जैसे एक अछूत गुलाम को मंदिर में प्रवेश करने से रोका?' रुद्र भट्ट बोले, परन्तु पट्टराय को दांत पीसता देख वह थम गये। पट्टराय नागय्या की ओर मुड़ा। उसने देखा कि गुलाम का बायां कान नहीं था। ऐसे व्यक्ति को राज्य से चोरी-छिपे बाहर निकालना भी कठिन होगा। लोग उसे आसानी से पहचान लेंगे। क्या उसके गुप्तचर इस दुष्ट के अलावा किसी और बेहतर आदमी को इस कार्य के लिए नहीं ढूंढ़ सकते थे? पट्टराय ने मन ही मन विचार किया और उसके पास से आती दुर्गंध से बचने के लिए अपनी नाक बंद कर ली। 'मैं चाहता हूं कि मेरी पत्नी और पुत्र भी मेरे साथ जाएं,' नागय्या ने बिना ऊपर देखे कहा। 'हमें विचार करने दो। यदि हम तुम्हारे कार्य से संतुष्ट हुए तो संभवतः तुम्हारी शर्त मान सकते हैं क्यों?' पट्टराय ने अपने सहयोगियों से पूछा। 'परन्तु हम कैसे-' रुद्र भट्ट अपनी बात पूरी न कर पाये थे कि प्रताप ने उन्हें रोक दिया। 'बिल्कुल, हम करेंगे,' प्रताप बोला। 'नागय्या, पुत्र,' पट्टराय ने गुलाम के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, 'तुम्हारे पास औजार हैं। तुम कार्य क्यों नहीं आरंभ करते?' गुलाम ने कोई उत्तर न दिया और सिर झुकाये बैठा रहा। 'जब तक मेरा परिवार यहां नहीं आता, मैं कार्य शुरू नहीं करूंगा,' अंततः उसने दृढ़ता से कहा। पट्टराय गहरी सांस भरते हुए उठा और प्रताप की ओर संकेत किया। सुरक्षा प्रमुख गुलाम की ओर तेजी से बढा़ और उसके चेहरे पर पूरी शक्ति से एक लात मारी। नागय्या पीछे जा गिरा और उसका सिर दीवार से टकरा गया। वह किसी पुतले की भांति भरभरा कर गिर पड़ा था। 'अइयो, तुमने उसकी जान ले ली,' रुद्र भट्ट तड़प उठे। 'शांत रहिये, ब्राह्मण,' पट्टराय बोला। 'जरा लालटेन दीजिए।' पट्टराय ने लालटेन के प्रकाश में नागय्या का चेहरा देखा। उसकी नाक टूट चुकी थी और बाईं ओर जहां कान होना चाहिए था, वहां से खून रिसने लगा था। गुलाम की नाक के आगे अंगुली ले जाते हुए वह झल्ला उठा था। 'मर गया क्या?' रुद्र भट्ट ने आषंकित स्वर में प्रश्न किया। 'पत्थर कहां हैं?' राजगुरु को अनसुना करते हुए पट्टराय ने पूछा। प्रताप गुलाम के औजारों का पुलिंदा टटोलने लगा। कुछ न मिलने पर उसने गठरी से सारा सामान धरती पर उड़ेल दिया। उसमें से हथौड़े, छेनी और रेती निकले लेकिन पत्थर का कुछ पता न था। 'हे भगवान! क्या यह मूर्ख बिना पत्थरों के आया है? अइयो, अइअइयो,' राजगुरु चिल्लाने लगे। 'श्श्श्...' पट्टराय ने संकेत किया। उसने नागय्या की धोती को टटोलते हुए झटके से खींचा। और वो मिल गये, जिसे वह ढूंढ़ रहा था। गुलाम ने धोती के नीचे अपनी कमर से इस पोटली को बांध रखा था। पट्टराय ने पोटली खोल पत्थर अपनी हथेली पर रखे। रोशनी में आते ही वे नीले रंग में दमक उठे और पूरा कक्ष अलौकिक प्रकाश से भर गया। अपने मित्रों के भूतिया नीले चेहरे देख वह मुस्कुराने लगा। 'हमारा भाग्य खुल गया,' प्रताप चहक उठा। 'किंतु तभी जब हम इन पत्थरों को गौरिधूलि में बदलने वाले किसी व्यक्ति को ढूंढ़ं लें,' चेहरे पर कुटिल मुस्कान लाता पट्टराय बोला। तभी अचानक पैर पर हथौड़े के प्रहार से प्रताप चीख उठा। पट्टराय भय से चौका। उसके हाथ से लालटेन छूट गई और जमीन पर लुढ़कती बुझ गई। नागय्या ने एक झटके के साथ पट्टराय के हाथों से पत्थर छीन लिए। गुलाम के हथौडे़ के प्रहार से बचने के लिये पट्टराय और रुद्र भट्ट पीछे कूद गए। हथौडा़ रुद्र भट्ट के सिर के बहुत निकट से होते हुए दीवार में जा लगा। प्रताप अभी भी पीड़ा से कराह रहा था। नागय्या से बचने के लिए पट्टराय दीवार में घुसा जा रहा था। पुरोहित इतना भाग्यशाली न था। हथौड़ा उसके नगाड़े जैसे पटे पर पड़ा और वह पीडा़ से चिल्लाता जमीन पर धड़ाम से गिरा। पट्टराय कोई हरकत करता, उससे पहले ही नागय्या पुरोहित के ऊपर से छलांग लगाता भाग खडा़ हुआ। प्रताप उसे पकड़ने के लिए चिल्लाया लेकिन पट्टराय ने उसे रोक दिया। उसने चकमक पत्थर रगडक़र लालटेन जलायी। तभी उसकी नजर धरती पर पड़े एक जगमगाते पत्थर पर पड़ी । कोई देख पाता, उससे पहले ही उसने बडी़ चपलता से उसे उठाकर कमरबंध में कस लिया। उसके मित्र अभी भी पीड़ा से कराह रहे थे। पत्थर को अपने सुरक्षित हाथों में पाकर पट्टराय चिंतामुक्त हो गया था। उसने वैद्य को उन दोनों के घावों पर औषधि लगाने का आदेश दिया। 'मैं उस दुष्ट को मार डालूंगा। दंडकारों की पूरी सेना उसके पीछे लगा दूंगा। मैं जिंदा उसकी चमड़ी उधेड़ दूंगा,' प्रताप दांत पीसते हुए बोला। 'दंडकारों को इस कार्य में न लगाना। और वर्दी में तो बिल्कुल नहीं। अपने आदमियों से कहो कि वह देखते ही उसके टुकड़े कर दें। यदि वह हमारी गुप्त गतिविधि के बारे में कुछ भी कहे तो,' पट्टराय बोला। प्रताप ने ताली बजायी और दो सैनिक आगे आकर सम्मान में झुक गये। उसने उन्हें कुछ आदेश दिये और वह तेजी से बाहर दौड़ते चले गये। और थोड़ी देर बाद पगड़ी के खुले छोर से अपने चेहरे ढके ये छह लोग मंदिर परिसर से बाहर निकले। 'अब हम क्या करें?' रुद्र भट्ट ने पूछा। 'प्रार्थना कीजिए कि वह दुष्ट जल्द मारा जाये,' पट्टराय ने रथ पर सवार होते हुए कहा। 'और जब वैद्य आपके घावों पर औषधि लगा ले तथा आपका यह बालकों की भांति रुदन बंद हो जाए तो दरबार आ जाइएगा। मैं नहीं चाहता कि हमारी अनुपस्थिति से किसी का ध्यान आकर्षित हो।' पट्टराय ने घोड़ों पर चाबुक फेरा और रथ महल की ओर दौड़ पड़ा।
 

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Kya bhai log story pasand nahi araha hai kya agar nahi to band kar deta hu update diye 24 ghante ke uper hogaye kisi ek ne bi comment nahi ki kya baat hai bataye
 

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Teek hai bhai koi or naa sahi sirf apke liye update post karta hu ajj dopehar ke 2 baje ke kareeb
 

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अध्याय 5


शिवगामी



'पुत्री।' आगे की गद्दी पर बैठे थिम्मा ने शिवगामी को संबोधित किया। वे एक रथ पर सवार थे। वह हाथ मोड़कर बैठ गई और दूसरी ओर ताकने लगी। कुछ दिन पहले ही उसका एकमात्र सखा राघव उसे छोड़कर जा चुका था। उसकी अनुपस्थिति का अहसास उसे हो रहा था, परन्तु अब इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। उन सबकी कमी उसे खलेगी। वह सदैव के लिए थिम्मा का घर छोड़कर जा रही थी। जब थिम्मा उसे रथ से यहां लाया था, तब से यही उसका घर हो गया था। उसकी पत्नी भामा ने उसे मां से भी ज्यादा स्नेह दिया था। थिम्मा की सबसे छोटी पुत्री अखिला उसकी बहन थी। परन्तु अब नहीं। उन्हें उसकी आवश्यकता नहीं रह गई थी। उसके पास बैठी छोटी अखिला अब तक सिसक रही थी। अखिला ने कई बार उससे बात करने का प्रयास किया, परन्तु शिवगामी ने उसकी ओर एक बार मुड़कर देखा तक नहीं। आठ वर्ष की यह बच्ची उदास होकर कौड़ियों से मन बहला रही थी। अखिला ने हठ पकड़ ली थी कि वह भी शिवगामी को विदा करने पिता के साथ जाएगी। पथरीले मार्ग के गड्ढे में पड़ते ही रथ एक ओर झुक गया था। थिम्मा ने चाबुक घुमाया। 'पुत्री, तुम्हें हमसे घृणा करने का पूरा अधिकार है, लेकिन एक दिन तुम्हें समझ आ जाएगा कि हम यह सब तुम्हारी भलाई के लिए कर रहे हैं। देवराय मेरे लिए एक मित्र से कहीं बढ़कर भाई जैसा था। मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा, जो उसकी पुत्री के लिए हानिकारक हो। मैं तुम्हें राजकीय अनाथालय में इसलिए ले जा रहा हूं ताकि...।' 'इससे कोई अंतर नहीं पड़ता,' दूसरी ओर देखती हुई वह बोली। उसकी आंखों में आंसू की बूंद छलक आई, जिससे उसे स्वयं पर बहुत क्रोध आया। वह नहीं चाहती थी कि थिम्मा उसे रोता हुए देखें। 'वहां तुम्हें बहुत सारे साथी मिलेंगे,' थिम्मा बोला। 'ठीक है,' कहते हुए उसने आंसू नहीं पोंछे कि कहीं थिम्मा को पता न लग जाए कि वह रो रही थी। आखिर वह देवराय की पुत्री थी। 'पुत्री, मैंने तुम्हें वह सब सिखाया, जो मुझे आता था। अब तुम अस्त्र-शस्त्र चला सकती हो, अपनी रक्षा कर सकती हो, और तुम अच्छी तरह पढ़-लिख भी सकती हो। मैं कोई विद्वान नहीं, परन्तु मैंने पूरा प्रयास किया। मैं जो भी तुम्हारे लिए कर सकता था, वह सब किया। भरोसा रखो, तुम्हारे हितों का ख्याल मेरे हृदय में है। यह बूढ़ा आदमी आज जो करने जा रहा है, उसके लिए एक दिन तुम मुझे अवश्य धन्यवाद दोगी,' थिम्मा बोले जा रहा था। 'आपने जो कुछ भी किया, उस सबके लिए धन्यवाद,' शिवगामी बोली। वह कुछ नहीं बोला परन्तु शिवमागी को अहसास हो गया कि उसके शब्दों ने उसे दुख पहुंचाया था। उसे खुद भी बुरा लगा लेकिन उसने अपना हृदय कठोर कर लिया। वह इसी के योग्य था। यदि साथ रखना ही नहीं था, तो फिर वह उसे घर क्यों लेकर आया था? आखिर यह नाटक क्यों किया--हां, 'नाटक' सही शब्द था -- जैसे कि वह उसका पिता हो? वह भूमिपति देवराय की पुत्री थी। अपने पिता व उनके शब्दों को भूलने के लिए ईश्वर का दंड था यह। उसके और थिम्मा के बीच एक अशांत चुप्पी छायी थी। घोड़े की टापों का स्वर ही इस शांति को भंग कर रहा था। अपनी पोटली को वह कसकर पकडे़ थी। इसमें उसकी सारी संपत्ति बंद थी। उसने कपड़े की पोटली पर हाथ फिराया और प्राचीन पांडुलिपि पर उसकी अंगुलियां थम गईं। उसके पिता की यादें ताजा हो आयीं और उस रात राघव के उस घृणित व्यवहार की भी। उसने बहुत सोच-विचार किया कि पुस्तक के बारे में वह थिम्मा को बताये अथवा नहीं। यह मेरे पिता की संपत्ति है और इस पर मेरा अधिकार है, उसके भीतर से जैसे कोई यह लगातार कहे जा रहा था। किसी को इसके बारे में बताने के लिए वह बाध्य नहीं थी। वह इसी उधेड़बुन में थी कि रथ राहगीरों के विश्राम भवन को पार करता हुआ आगे बढ़ गया। 'अक्का, क्या मैं भी आपके साथ वहां रह सकती हूं?' अखिला ने पूछा। शिवगामी ने कोई उत्तर न दिया। 'ढेर सारे सखा होंगे, अच्छा लगेगा। राघव अन्ना भी अध्ययन के लिए सुदूर देश चले गये हैं। कृपया, बोलिये न, क्या मैं आपके साथ रह सकती हूं? अखिला ने शिवगामी के कंधे को झकझोरते हुए पूछा। बच्ची को दूर धकेलती हुई वह गुजरते दृश्यों को देखने लगी। नगर की गलियां धुंधली नजर आ रही थीं। उसे अनुभव हुआ कि पूरे प्रयत्न के बावजूद उसकी आंखें सूज आयी थीं। 'मैं नन्ना से घृणा करती हूं। वह आपको बाहर क्यों भेज रहे हैं?' अखिला मुंह फुलाती हुई बोली। शिवगामी ने सोचा, काश इसका उत्तर उसके पास होता। उसने मन ही मन अखिला के चुप रहने की कामना की। 'अक्का, अक्का, हरे रंग के ये तीन पत्थर देखो। ये मुझे कल मिले थे। अब मेरे पास कुल एक हजार तीन सौ चौरासी पत्थर और चार सौ कौड़ियां हो गई हैं। देखो, देखो, अक्का,' अखिला ने कपड़े की छोटी थैली को हिलाते हुए कहा, जिसमें उसने इंद्रधनुषी पत्थर संजो रखे थे। उसे रंग-बिरंगे पत्थर, कौड़ियां व मनके एकत्र करना पसंद था। वह अपने साथ हमेशा कपड़े की एक थैली रखती, और आकर्षित करने वाली नयी वस्तुओं को इसमें रखती जाती थी। जब थैली भर जाती, तो वह उन्हें अपने बिस्तर के नीचे रखे लकड़ी के बक्से में उडेल़ देती। 'कृपा कर चुप रहोगी?' शिवगामी झुंझला उठी। बच्ची से बात करने का उसका जरा भी मन न था। अखिला खिसकती हुई मुंह फुलाकर गद्दी के दूसरे छोर पर बैठ गई। उसने पत्थर गिनने शुरू कर दिये और उन्हें रंगों के हिसाब से कतारबद्ध करने लगी। माहिष्मती की गलियों में चहल-पहल थी। विश्व के कोने-कोने से आए व्यापारी रंग-बिरंगे परिधानों में दिख रहे थे। ग्रामीण क्षेत्रों से आए दस्तकार अपनी वस्तुओं को चिल्ला-चिल्ला कर बेच रहे थे। कपड़ा व्यापारी कपड़ों के ढेर के आगे अपने ग्राहकों से मोल-तोल में व्यस्त थे। कुरवा जाति की कुछ महिलाएं व पुरुष अपने बच्चों के साथ नाचते भालुओं और बंदरों को लेकर उनके रथ के आगे से निकले। भीड़भाड़ वाले इस मार्ग पर घुड़सवार बहुत कठिनाई से रास्ता बनाते चल रहे थे। हाथी, जिन पर भद्रजन सवार थे, भीडभाड़ वाले किसी बंदरगाह में हिलते-डुलते जहाज से प्रतीत हो रहे थे। आम, कद्दू, कटहल और तरबूजों से लदी ठेला गाड़ियों के कारण जहां-तहां यातायात ठप हो रहा था और थोड़ी-बहुत नोकझोंक के बाद फिर से चलने लगता था। परन्तु ये सब शिवगामी का ध्यान भंग नहीं कर पा रहे थे, वह खुद में खोयी हुई थी। राघव, तुम मुझे याद आओगे, मुझे माफ कर देना, उसने स्वयं से कहा। उसे राघव को थप्पड़ नहीं मारना चाहिए था, पर उसे भी तो वह नहीं करना चाहिए था, जो उस रात उसने किया। जीवन भर उसे वह अपना भाई मानती रही। उसे अब भी क्रोध आ रहा था कि राघव ने अपने भीतर ऐसे मनोभाव पाल रखे थे। रथ एक संकरे मार्ग की ओर मुड़ा। यह मार्ग अधिकतम रथ की चौड़ाई के बराबर संकरा था और नीचे नाले का काला बदबूदार पानी जमा था। मार्ग के दूसरे छोर पर एक मंदिर था, जहां निर्धनों को भोजन बांटा जा रहा था। महिला पुरुष लंबी कतार में शांति से खडे़ होकर भोजन मिलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। उबले चावल और ताजा पकी रसम की महक नालों की दुर्गंध के साथ मिलकर हवा में फैली हुई थी। रथ भीड़ को पार करते हुए निकल गया। 'अम्मा खा लो।' भामा काकी की आवाज थी यह। शिवगामी आसपास देखने लगी। स्मृतियां मिटाने के लिए उसने अपने सिर को झटका। भावावेग में आयी सिसकी को रोकने के लिए उसने अपने होंठ भींच लिये। संभवतः भामा काकी के हाथों से पकाया आज यह उसका अंतिम भोजन था। धीरे-धीरे उसे वास्तविकता का अहसास हो रहा था, किंतु यह पीडा़ को कम नहीं कर पा रही थी। अब उन्हें उसकी आवश्यकता नहीं थी। वह एक बाहरी थी और उनके परिवार से संबंध नहीं रखती थी। उसका कोई अपना न था। 'परन्तु... क्यों?' शब्द उसके गले में अटक गए। आखिर वे उससे छुटकारा क्यों चाह रहे थे? रथ तेज गति से चल पडा़, जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते जाते, गलियां और संकरी होती जातीं। शिवगामी चकित थी कि उसके चाचा उसे कहां ले जा रहे थे? गलियां और बदतर नहीं हो सकतीं, उसके ऐसा सोचते ही रथ तेजी से बाईं ओर मुड़ा और मैली-कुचैली गली के ऊबड़-खाबड़ रास्ते में हिलते-डुलते चलने लगा। अपनी झोपड़ियों के आगे खडे़ कुछ नंग-धड़ंग बच्चे रथ को निकलता देख रहे थे। मुर्गियां कुड़-कुड़ करती मार्ग छोड़कर भाग रही थीं। उफनते नालों की दुर्गंध के साथ ही मछलियों के तले जाने की महक उनकी नाक को भेद रही थी। 'यह गंतव्य तक जल्दी पहुंचाने वाला मार्ग है,' थिम्मा ने कहा और रथ पटरी पर झुके हुए एक मशाल स्तंभ से टकराता हुआ आगे बढ़ गया। कुछ देर बाद जब आसमान थोड़ा दिखने लगा, तो दूर उसे अखाड़े का ऊपरी भाग नजर आया। उसे भय होने लगा कि रथ अब उस अभिशप्त जगह से गुजरेगा। हर रात की तरह एक बार फिर उसे पिंजरे में कैद अपने पिता का दृश्य स्मरण हो गया कि किस प्रकार चील-कौओं ने उनके शरीर को नोंच-नोंच कर खाया था। उसने गद्दी को कसकर पकड़ लिया और आंखें बंद कर लीं। रथ एक बार फिर दायीं ओर मुड़ा और संकरी गली में प्रवेश कर गया। जीर्ण-शीर्ण भवन राह पर झुकते नजर आ रहे थे। उसे समझ आ गया कि थिम्मा ने यह रास्ता क्यों चुना था। वह अखाड़े वाले मार्ग से उसे ले जाने से बच रहा था, जहां उसके पिता को लटकाया गया था। इसके बावजूद वह उन पीड़ादायक स्मृतियों से बच न पायी थी। रथ झटके के साथ रुक गया और उसने अपनी आंखें खोलीं। दो गायें रास्ता रोक कर मार्ग के बीचोंबीच बैठी थीं। थिम्मा कोसते हुए उन्हें उठाने के लिए रथ से नीचे उतरा। आगे घुमावदार मार्ग था, जो आपस में लगभग जुड़कर बने भवनों के बीच से होते हुए पहाड़ी की ओर जाता था। उसके पास यही अवसर था। शिवगामी रथ से कूदी और बिजली की गति से भागी। थिम्मा को समझने में थोड़ी देर लगी कि वह भाग चुकी थी। अपने गठिया पीड़ित पैरों को कोसते और शिवगामी को पुकारते हुए वह रथ छोड़कर लड़खड़ाते हुए उसके पीछे भागा। शिवगामी को अपने पीछे भागती अखिला का स्वर सुनाई पड़ रहा था। गाय का गोबर बिखरे होने से गली में फिसलन हो गई थी। उसे अखिला के फिसलकर गिरने की आवाज आयी। एक क्षण के लिए वह पीछे मुड़कर बच्ची को उठाना चाहती थी लेकिन उसने देखा कि अखिला उठ खड़ी हुई थी और उसके पीछे भागी आ रही थी। शिवगामी ने दौड़ना जारी रखा। गली के अंतिम छोर पर शिवगामी के अंधेरे संकरे रास्ते में प्रवेश करने के बाद भी अखिला उसका पीछा करती रही। उफनते नाले के कारण जमीन कीचड़युक्त हो गई थी, दीवारों पर मूत्र के धब्बे थे और दुर्गंध असहनीय हो रही थी। एकाएक बगल की गली से कोई निकला और अखिला से टकरा गया। बच्ची गिर पड़ी थी और दूसरा व्यक्ति भी फिसलकर उसके ऊपर गिर गया था। टकराने की आवाज सुन शिवगामी रुक गई और पीछे मुडी़ । वह चीखती हुई अखिला की ओर दौड़ी। निकट पहुंचकर उसने देखा, अखिला की थैली खुल गई थी और सारे पत्थर मार्ग पर बिखरे पड़े थे। वह व्यक्ति बच्ची से पत्थरों के लिए झगड़ रहा था। शिवगामी ने उसे उससे दूर धकेला। वह एक दुबला-पतला आदमी था, गंदे दांत व आंखें धंसी हुई थीं। तन पर उसने केवल एक झीना सा वस्त्र पहन रखा था। कोसते हुए उसने उठने का प्रयास किया और फिसलकर गिर पड़ा। जानवर सा चीखता वह आदमी बच्ची की ओर झपटा पर अखिला पत्थरों को अपने पीछे छिपाती हुई बोली, 'नहीं, मेरे, ये मेरे हैं। मैं इन्हें नहीं दूंगी।' क्या वह पागल था, जो आठ साल की बच्ची के साथ पत्थरों के लिए झगड़ रहा था? शिवगामी उसके बारे में कोई विचार करती कि तभी उसने देखा कि उस आदमी की आंखें भय से फटी जा रही थीं। वह शिवगामी के पीछे किसी को देख रहा था। जैसे ही शिवगामी ने पीछे मुड़कर देखा, वह भाग निकला। क्षण भर बाद ही वह मशाल स्तंभ से टकराकर धड़ाम से गिरा। शिवगामी उसकी ओर दौड़ी लेकिन उसे पकड़ पाती कि गली घोड़े की टापों से गूंज उठी। वह डर से चिल्लाया और सिर पकड़कर खड़े होते हुए भागा। शिवगामी ने देखा कि काली पगडी़ बांधे घोड़े पर सवार एक व्यक्ति उनकी ओर भाला ताने चला आ रहा था। उसने छलांग लगाते हुए अखिला को कलाई से पकड़ा और उसे लेकर लुढ़कती हुई घोड़े की राह से हट गई। जब घोड़ा तीव्र गति से वहां से गुजर गया तो वह उठी। अखिला भय से कांप रही थी, लेकिन वह अपनी फटी थैली को कसकर पकड़े थी जैसे इसमें उसकी जान बसी हो। पीछे मुड़ने पर शिवगामी ने देखा कि भाला भाग रहे आदमी के सीने के आर-पार हो गया था, और वह मुंह के बल गिर पड़ा। पीछा कर रहा व्यक्ति घोड़े से उतरा और मृत पड़े आदमी की ओर गया। उसके शरीर से भाला निकाल उसने रक्त को अपने अंगूठे से साफ किया। उसने उसे पीठ के बल लिटाया और उसकी तलाशी लेने लगा। शिवगामी को लगा कि भाग निकलने का यह सही समय था, और उसने अखिला को झटके से खींच लिया। उसके हाथों से पत्थर छिटककर गिर गए और वह रोती हुई शिवगामी से झगडऩे लगी। उसे अपने पत्थर वापस चाहिए थे। शिवगामी ने उसे चुप कराने का प्रयास किया लेकिन वह उसकी पकड़ से छूटते हुए नीचे झुकी और पत्थर बीनने शुरू कर दिये। वह अजनबी कार्य छोड़कर खड़ा हुआ और दांत भींचते हुए उनकी ओर बढ़ने लगा। वह भाले की नोंक को जमीन पर ठोंकता हुआ चला आ रहा था। शिवगामी के हृदय की धड़कनें तेज हो गयीं। उसने अखिला को उठाना चाहा, लेकिन सारे पत्थर बीन लेने तक वह उठने को राजी नहीं थी। जब तक वह अजनबी उनके पास पहुंचता, अखिला ने सब पत्थर बीनकर अपनी फटी थैली में डाल लिए थे। उसने चुटकी बजायी और हथेली आगे बढ़ा दी। उसने बच्ची को संकेत किया कि थैली उसे दे दे। अखिला ने न कहते हुए सिर हिलाया और शिवगामी के पीछे छिपने को भागी। वह व्यक्ति उसे पकड़ने के लिए दौड़ा लेकिन शिवगामी ने उसे रोकने के लिए टांग अड़ा दी। वह मुंह के बल गिरा। शिवगामी ने अखिला का हाथ पकड़ा और दौड़ पड़ी। उसने उस व्यक्त को उठते हुए सुना। वह जानती थी कि वह उन दोनों को जल्द ही पकड़ लेगा। 'पुत्री, तुम कहां हो? शिवगामी, पुत्री!' गली के दूसरी ओर से थिम्मा की आवाज आयी। 'नन्ना' अखिला चीख पड़ी । थिम्मा गली के अंतिम छोर पर खड़ा सन्न रह गया। अखिला दौड़ती हुयी गयी और उसके पैरों से चिपट गई। थिम्मा को आड़ में लेते हुए शिवगामी पीछे मुड़ी और दुश्मन से भिड़ने को तैयार हो गयी। पगडी़ वाला व्यक्ति उनकी ओर बढा़ चला आ रहा था। यद्यपि उसका चेहरा ढका था, पर शिवगामी को लगा जैसे वह वृद्ध थिम्मा व बच्ची की रक्षा करने के उसके प्रयास पर हंस रहा था। शिवगामी को भरोसा नहीं था कि वह अकेले इस हट्टे-कट्टे आदमी से लोहा ले पाएगी अथवा नहीं। उसने सोचा, काश उसकी तलवार पास होती। परन्तु अब सोचने का समय नहीं था। पगड़ी वाले अजनबी ने भाला एक हाथ से दूसरे हाथ में लिया, अपने सूखे होंठों पर जीभ फिरायी और कुछ फुट की दूरी पर खड़ा हो गया। शिवगामी ने सोचा कि उसके कोई हरकत करने से पहले ही वह उस पर हमला बोल दे, परन्तु थिम्मा ने कंधे पर हाथ रखते हुए उसे रोक दिया। वह आगे आया और शिवगामी को पीछे हटने का संकेत किया। अनिच्छापूर्वक वह दायीं ओर जाकर अखिला के पास खड़ी हो गई। पैर फैलाये खड़ा वह आदमी हमला करने के लिए तैयार था। उसने अखिला की थैली की तरफ देखा, लेकिन थिम्मा ने सिर हिलाकर अपनी छड़ी को जमीन पर पटकते हुए कहा, 'आत्मसमर्पण कर दो। तुमने कानून तोडा़ है। और तुम भूमिपति थिम्मा के सामने खड़े हो।' इसके उत्तर में उस आदमी ने थिम्मा की ओर भाला फेंका। यह तेजी से उसकी ओर आया लेकिन थिम्मा ने पलक तक न झपकी। भाला उसके बिल्कुल नजदीक से गुजरते हुए पीछे दीवार में जा घुसा। सब कुछ इतना तीव्र घटित हुआ कि शिवगामी निश्चित तौर पर नहीं कह सकती थी कि हमलावर निशाना चूका अथवा थिम्मा अपना बचाव करने में सफल रहा। अपशब्द कहते हुए उस आदमी ने म्यान से अपनी तलवार निकाली और थिम्मा की ओर दौड़ा। दोनों लड़कियां भय से चीख उठीं। शिवगामी ने देखा कि थिम्मा अपने शरीर को मोड़ता हुआ दीवार में घुसे भाले तक पहुंचने का प्रयास कर रहा था। वह जानती थी कि यह व्यर्थ है। वृद्ध थिम्मा उस दैत्याकार लडा़के से लोहा नहीं ले सकता। अगला दृश्य देख शिवगामी की आंखें फटी की फटी रह गयीं। हमलावर हवा में उड़ता हुआ दीवार से जा टकराया। वह दीवार से उल्टा टंगा था कि भाला उसके पेट के आर-पार था। उसके शरीर से खून धार बह निकली थी। उसे भाले में खोंसकर किसी सुअर की भांति लटका दिया गया था। उसकी तलवार जमीन पर ठन्न से गिरी, सभी अंग शिथिल पड़ चुके थे और रक्त रिसता जा रहा था। वह मर चुका था। शिवगामी हक्की-बक्की हो यह सब देख रही थी। उसने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि उसके वृद्ध चाचा थिम्मा के भीतर इतनी ताकत व स्फूर्ति है। अखिला खुशी से फुदकती हुई अपने पिता के पास गयी। थिम्मा उसे गले लगाते हुए शिवगामी के पास आया। उसका लंगड़ाकर चलने का ढंग लौट आया था। शिवगामी अचंभित हो उसके पास खडी़ थी। उसके मस्तिष्क में हजारों प्रश्न थे, परन्तु वह इस कदर अभिभूत थी कि पूछ नहीं पा रही थी। 'पुत्री, यदि अपने बच्चों की जीवन रक्षा का प्रश्न हो तो मुझ जैसे वृद्ध पिता के भीतर भी अद्भुत शक्ति आ जाती है,' मुस्कुराकर थिम्मा ने कहा। शिवगामी की आंखों में आंसू आ गये। वह उनकी और दौड़ी और गले लगते हुए अपना सिर उनके सीने में छिपा लिया। थिम्मा ने उसके बालों पर अंगुली फेरते हुए कहा, 'ये असुरक्षित गलियां हैं, पुत्री। और यह समय भी बुरा है। यहां तुमने जो कुछ देखा, उसे स्वयं तक ही सीमित रखना।' वे एक साथ रथ की ओर बढे़। रथ पर सवार होते हुए वृद्ध थिम्मा ने शिवगामी के कंधे पर हाथ रखकर कहा, 'तुम मेरी भी उतनी ही पुत्री हो जितनी देवराय की। शिवगामी, तुम्हें जिसका सामना करना है, उससे दूर कभी मत भागना। सदैव याद रखो कि मैं जो कुछ करता हूं, तुम्हारा भला सोचकर करता हूं।' शिवगामी ने हां कहते हुए सिर हिलाया और थिम्मा ने उसका माथा चूम लिया। रथ एक बार फिर आगे बढ़ चला। अखिला उससे सटकर बैठी हुई चहकते हुए अपने पत्थरों से खेल रही थी। शिवगामी को नन्ही बच्ची की बातें सुनाई नहीं पड़ रही थीं। थिम्मा रथ चला रहा था। अब तक थिम्मा ने ही उसके जीवन की बागडोर संभाल रखी थी। अब वह बड़ी हो चुकी थी। वह अखिला सरीखी छोटी बच्ची बनी रहना चाहती है। जो कुछ भी वह छोड़कर जा रही थी, उसके लिए अत्यधिक दुख और थिम्मा के अपार स्नेह के प्रति उसकी आंखें छलछला आयीं। स्मृतियों के भंवर में फंसी शिवगामी ने आंसुओं को नीचे गिरने से रोकने के लिए अखिला को गले लगाया और कसकर नेत्र बंद कर लिये। शिवगामी का नया जीवन प्रारंभ होने वाला था।
 

Raguhalkal

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अध्याय 6

कटप्पा

'अगली बार ऐसा धूर्त कार्य करने से पहले इसे याद रखना,' कहते हुए मलयप्पा ने शिवप्पा के गाल पर थप्पड़ जड़ दिया। कटप्पा पास ही सिर झुकाये परछाईं को देखता शांत खड़ा था। उनके सिर के ऊपर सूर्य गर्म गोला बनकर तप रहा था। 'परन्तु उसने मुझे ललकारा था।' भाई का तीक्ष्ण स्वर सुन कटप्पा चौक उठा। शिवप्पा सही कह रहा था, परन्तु उसकी भी तो गलती थी। सही से कहीं अधिक वह गलत था। पिता बेहतर जानते थे। 'तुम अपनी औकात भूल गये थे,' मलयप्पा ने कहा। 'उसे भी तो राजकुमार से भिड़ने के लिए एक गुलाम बालक को नहीं ललकारना चाहिए था,' शिवप्पा गुस्से में रोता हुआ बोला। 'तुम्हें हार जाना चाहिए था, मूर्ख।' उसके पिता ने एक तमाचा और जड़ दिया। एक और जोरदार तमाचा। 'जीतने के लिए आप मुझे नहीं पीट सकते,' शिवप्पा क्रोध में चिल्लाया। एक क्षण के लिए वहां शांति फैल गयी। जब कटप्पा ने सिर ऊपर उठाया, तो देखकर कांप उठा। उसके छोटे भाई ने पिता का हाथ पकड़ रखा था, और दोनों एक-दूसरे को देखते हुए मूर्ति बनकर खड़े थे। कटप्पा को घूरता देख शिवप्पा ने पकड़ ढीली कर दी। पिता भारी कदमों से वहां से चले गये। कटप्पा ने देखा कि उनकी आंखें क्रोध से लाल थीं। 'नन्ना,' कटप्पा ने पुकारा, परन्तु पिता बगैर उसकी ओर देखे कदम आगे बढा़ते गये।
'अन्ना, मैं...' शिवप्पा की आवाज आयी। कटप्पा ने हाथ ऊपर उठाते हुए भाई को रोक दिया। वह अपनी आंखें बंद किये खड़ा था। भाई और पिता के बीच तनाव हर रोज बढ़ता जा रहा था और वह प्रायः बीच में फंस जाता। कटप्पा चिंतित था कि किस प्रकार उस दिन राजकुमारों के ऊपर जान-बूझकर हाथी खोलने की बात को वह अस्वीकार कर रहा था। भाई के बढ़ते इस अजीब व्यवहार से वह परेशान हो गया था। 'अन्ना, महामंत्री हिरण्य ने ही मुझे राजकुमार महादेव से द्वंद्व के लिए चुनौती दी थी। मैं जीत गया तो क्या इसमें मेरी गलती है?' कटप्पा भाई की ओर मुड़ा और गहरी सांस भरते हुए बोला, 'इसका यह अर्थ नहीं था कि तुम्हें पूरा बल लगाकर खले ना था। राजकुमार महादेव के बारे में तुम जानते हो कि वह-' 'कायर हैं,' कहते हुए शिवप्पा हंसने लगा। 'वे सब हैं। वे कायर हैं और बहादुरों सा आचरण करते हैं क्योंकि हम उन्हें ऐसा करने की अनुमति देते हैं। वे महत्वपूर्ण बन जाते हैं क्योंकि हम, अपने मस्तिष्क में, सोचते हैं कि हम उनसे कमतर हैं। सिर्फ इसलिए कि हमारी चमड़ी का रंग काला है और उनका गोरा।' 'चुप,' कटप्पा ने उसे रोक दिया। वह जानता था कि शिवप्पा आगे और क्या बोलने वाला था। उसे भय हो रहा था कि अगर अधिक देर तक उसने छोटे भाई को सुना तो वह भी उसकी तरह सोचना शुरू कर देगा। संभवतः उसके पिता भी इसी बात से भयभीत थे। उसने छोटी कटारों व चाबुक वाली तलवारों का पुलिंदा उठाकर कंधे पर रखा और ढलान से नीचे उतरने लगा। शिवप्पा भी उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए दौड़ पड़ा। 'हम कब तक गुलाम बने रहेंगे? अन्य देशों में स्वतंत्र लोग हैं।
अपनी फसल का एक हिस्सा दो और राजा आपको अपना जीवन जीने की मुक्ति दे देता है। अथवा वनों में उन महिलाओं-पुरुषों को स्वतंत्रता प्राप्त है, जो किसी राजा के आगे सिर नहीं झुकाते।' 'परन्तु अल्पायु में ही फांसी चढा़ दिये जाते हैं या राजा के हाथी के पैरों तले कुचल दिये जाते हैं,' कटप्पा ने तेज सांसें भरते हुए कहा। 'जैसे महाराज के आदेश पर यहां कोई मारा ही न गया हो। प्रत्येक भूमिपति स्वयं में एक कानून है। शासन करने वाले वर्षा के बाद कुकुरमुत्तों की भांति गांव-गांव पैदा होते जा रहे हैं। एक गोड़ा और सब्जी काटने का चाकू रखने वाला भी खुद को 'महावीर' कहने लगा है। राजा कुछ धन और प्रशंसा के बदले पदों को बेच रहा है। और हम तुच्छ आम जनों में स्त्री-पुरुष कोई भी मुक्त नहीं है। कुत्तों का भी जीवन इससे उन्नत है।' 'इसी प्रकार की बातें करते रहे तो एक दिन अपना सिर धड़ से अलग पाओगे । कोई आश्चर्य नहीं कि नन्ना तुम्हारे बारे में चिंतित रहते हैं।' 'उन्हें अपने सिर की चिन्ता करनी चाहिए। हमारे कितने पूर्वजों की मृत्यु सामान्य तरीके से हुई है?' शिवप्पा ने थप्पड़ सा मारा। कटप्पा के पास कोई उत्तर न था। अपने पूर्वजों द्वारा माहिष्मती साम्राज्य के लिए सर्वस्व न्योछावर करने का यशगान सुनते वह बड़ा हुआ था। ये गाथाएं तीन सौ वर्ष पूर्व प्रथम राजा के सिंहासन पर विराजमान होने जिनती प्राचीन थीं। कहानियों में ही उसने सुना था कि अपनी अठारह पीढ़ी पूर्व उसके अपने लोग भी मुक्त हुआ करते थे और खुद को गौरीपर्वत का पुत्र कहते थे। 'तुम यह गट्ठर उठाने में मेरी सहायता क्यों नहीं करते?'
कटप्पा ने पूछा। 'अन्ना, तुम्हारे लिए, मैं यह करूंगा। दूसरे जनों का भार उठाना मुझे पसन्द नहीं,' एक गट्ठर अपने सिर पर रखता हुआ शिवप्पा बोला। आगे बढ़ने पर शिवप्पा ने फिर पूछा, 'अन्ना, हम गुलाम क्यों हैं?' 'यही हमारी नियति है,' कटप्पा धीरे से बोला। 'हम अपनी नियति क्यों नहीं बदल सकते?' 'शिवप्पा, मुझे तुम्हारे इन विचारों से भय होने लगा है। तुम नन्ना का हृदय तोड़ दोगे। उन्हें लगता है कि तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है।' कटप्पा ने भाई पर आंखें तरेरते हुए कहा। उसे छोटे भाई की व्यंग्यपूर्ण मुस्कान अच्छी नहीं लगी थी। 'भविष्य? क्या गुलामों का भी कोई भविष्य होता है, अन्ना?' किसी राजकुमार के मूत्र के पात्र को उठाना क्या भविष्य कहलाता है? जब वह किसी किसान की पुत्री से बलात्कार करे तो मूक बनकर खड़े रहना और फिर तौलिया देना ताकि वह अपना यौन अंग साफ कर सके, क्या इसे भविष्य कहते हैं? उनके पापों को छिपाना क्या भविष्य कहलाता है? एक जानवर की भांति मर जाने को क्या भविष्य कहते हैं? नहीं, धन्यवाद। मैं अपना भविष्य स्वयं बना लूंगा।' कटप्पा भयभीत था। कुछ गुलाम दबे मुंह कहते थे कि उसके भाई की मित्र मंडली कुछ अजीब है। इस प्रकार की बातें करने के लिए वह अभी बहुत छोटा था। जब कटप्पा उसकी आयु का था, तब उसने पिता की कही बातों के अलावा कुछ और सोचने की हिम्मत तक न की थी। उसके पिता कहा करते थे कि एक गुलाम के पास सोचने का अधिकार नहीं होता। गुलाम से केवल सेवा की अपेक्षा होती है और यदि आवश्यकता पड़े तो मालिक के लिए जान तक न्योछावर करने की। वे शस्त्रागार के पिछले द्वार पर पहुंच चुके थे। गुप्त शस्त्रों को जमा कराने के बाद कटप्पा को शीघ्रता से बिज्जल के कक्ष जाना था। 'अन्ना, इसे पकड़िये,' कहते हुए शिवप्पा ने कटप्पा का इंतजार किये बगैर गठरी नीचे छोड़ दी। तलवारों के जमीन पर गिरने से उत्पन्न हुई खनखनाहट से शस्त्रागार के मुंशी की नींद टूट गई। जम्हाई लेते हुए उसने गुलाम बालक की ओर अनमने ढंग से देखा। 'मैं अब आपकी आज्ञा चाहूंगा,' शिवप्पा बोला। कटप्पा कोई प्रतिक्रिया दे पाता, उससे पहले ही वह गायब हो गया। कटप्पा पागलों की भांति इधर-उधर उसे देखने लगा। कुछ दूरी पर एक लड़की जमीन पर झाड़ू लगाती दिखी। वह क्रोध से लाल हो गया। पिता ने शिवप्पा को कई बार मना किया कि उस लड़की से बात न करे। कटप्पा ने प्रण किया कि जब अगली बार पिता उसके भाई पर चाबुक चलाएंगे तो वह चुपचाप खड़ा रहेगा। उसका दुष्ट भाई चाबुक खाने योग्य ही है। 'सुना है, तुम्हारे भाई ने छोटे राजकुमार की नाक तोड़ दी?' मुंशी ने तलवारों की गणना कर ताड़पत्र पर कुल संख्या अंकित करते हुए कहा। 'वह... वह एक दुर्घटना थी,' कटप्पा हकलाते हुए बोला। उसका ध्यान प्रांगण में लड़की से बतियाते उसके भाई की ओर था। मुंशी की नजर भी कटप्पा की आंखों का पीछा करते हुए उन दोनों पर पड़ी और वह मुंह बंद कर हंसने लगा। 'तुम्हारा वह भाई बहुत सयाना है। सच तो यह है कि वह कुछ ज्यादा ही सयाना है!' मुंशी कनिष्ठ अंगुली कान में डालता बोला। 'क्या वह यहां अक्सर आता है, स्वामी?' कटप्पा ने मुट्ठी बांधते हुए पूछा। वह भाई को पकड़कर घसीटते हुए घर ले जाना चाहता था। 'वे प्रायः साथ देखे जाते हैं। हर कोई चर्चा करता है—एक गुलाम लड़का और कुलीन घराने की एक लड़की।' गठरी से तलवारें निकालकर दीवार पर टांगते हुए मुंशी बोला। 'वह किसी हरामजादे की पुत्री है, स्वामी,' इससे पहले कि उसकी सांसों की दुर्गंध से मुंशी अपवित्र हो, कटप्पा ने अपने मुख को हथेली से ढंकते हुए कहा। 'ओहो, परन्तु किस हरामजादे की? भूमिपति पट्टराय के हरामजादे भाई की। कृष्णा, कृष्णा, मुझे नहीं पता कि भूमिपति पट्टराय की क्या प्रतिक्रिया होगी, जब वह इस बारे में सुनेंगे,' अंतिम कटार दीवार पर टांग कर हाथ घोते हुए मुंशी ने कहा। विधिपूर्वक उसे ऐसा करना पड़ता था क्योंकि उसने गुलाम कटप्पा की तलवारों को हाथ लगाया था। इस पाप के लिए वह घर जाकर अपनी पत्नी को पीटने से पूर्व स्नान भी करेगा। कटप्पा ने मन ही मन विचार किया। हे ईश्वर! शिवप्पा के शब्द उसके विचारों को अब तक संक्रमित कर चुके थे। 'स्वामी, यदि भूमिपति को चिन्ता होती तो वह अब तक अनाथालय में रहकर झाडू न दे रही होती,' कटप्पा ने कहा। उसका भाई लड़की का हाथ पकडे़ हुए था और इतनी दूर से भी उसे लड़की शर्म से झेंपती नजर आ रही थी।
'बालक, खून खून ही होता है। धन का इससे कोई लेना-देना नहीं। लड़की के पिता की मृत्यु के बाद, संभव है भूमिपति पट्टराय ने सोचा हो कि उसके पालन-पोषण के लिए राजकीय अनाथालय ही उचित स्थान होगा। परन्तु बात जब खून पर आती है तो... परन्तु... इसमें तुम्हारे भाई का भी क्या दोष? क्या तुमने लड़की के वक्षों का उभार देखा है? बड़े आमों जैसे!' अपनी पौत्री की आयु वाली बालिका पर बुरी नजर डालते हुए बूढ़े मुंशी ने कहा। 'गुलाम बालक, क्या तुम उसका नाम जानते हो?' आह, कामाक्षी, कामुक नयनों वाली! सत्रह वर्ष की अवस्था में ही उसके शरीर के अंग-अंग से रस टपकता है... राम, राम, मैं यह सब इस वृद्ध अवस्था में क्यों कह रहा हूं? अभी, तुम्हारा भाई एक गुलाम बालक से अधिक बांका छैला है, परन्तु ईश्वर ने उसे कितनी कम आयु प्रदान की है।' कटप्पा ने क्रोध में मुट्ठी भींच ली। अपने भाई के बारे में ऊलजलूल बाले ने पर वह मुंशी का सिर दीवार पर पटक देना चाहता था। लेकिन पिता का चेहरा उसकी आंखों के सामने आ गया। वह शिवप्पा जितना बुद्धिमान तो नहीं था, परन्तु उसे अपने आज्ञाकारी और अनुशासनबद्ध होने पर गर्व था। उसने स्वयं पर काबू रखा, मुंशी के आगे सम्मान में झुका और शस्त्रागार परिसर से बाहर आ गया। उसका भाई अभी भी अपनी प्रेमिका के साथ खड़ा था, और बड़े आराम से उससे विदा ले रहा था। कटप्पा को देर हो रही थी और इसीलिए वह परेशान था। परन्तु जाने से पहले वह भाई से कुछ बात कहना चाहता था। हाथों को पीछे बांधता-खोलता, संकरी गली का चक्कर काटता वह द्वार के निकट खड़ा हो उसकी प्रतीक्षा करने लगा।
गली के दूसरी ओर पाठशाला में ब्राह्मण बालक उच्च स्वरों में वेदों का मंत्रोच्चार कर रहे थे, और वह उनके शब्द पढ़ने में प्रयासरत था। क्रोध को शांत करने के लिए कुछ भी सही। अंततः, जिस समय तक शिवप्पा आया, परछाइयां बड़ी हो चली थीं और पश्चिम से हवा तेज बहने लगी थी। शिवप्पा आत्मसंतुष्ट व प्रसन्न नजर आ रहा था कि कटप्पा को प्रतीक्षा करता देख उसका मुख खुला का खुला रह गया। 'अन्ना, क्या आपके पास कोई कार्य नहीं है? उस पियक्कड़ राजकुमार के पैरों की मालिश करने जैसा?' शिवप्पा ने तंज कसते हुए कहा। कटप्पा ने इस अपमान को अनदेखा कर दिया। शिवप्पा ने यह जानने के लिए पीछे मुड़कर देखा कि कामाक्षी जा चुकी है अथवा नहीं। 'नन्ना तुम्हें पहले ही चेतावनी दे चुके हैं,' कटप्पा बोला। शिवप्पा नीचे देखते हुए फुसफुसाया, 'मैं उससे प्रेम करता हूं।' कटप्पा यह कई बार सुन चुका था। 'और इससे निष्कर्ष क्या निकलेगा?' 'मैं जल्द ही उससे ब्याह रचाऊंगा,' शिवप्पा बोला। विरोध के इस स्वर से कटप्पा भीतर तक कांप उठा। 'जाग जाओ, शिवप्पा! तुम ऐसा नहीं कर सकते,' भाई का कंधा झकझोरते हुए कटप्पा ने कहा। 'क्यों नहीं?' शिवप्पा उसका हाथ झटकते हुए बोला और कुछ कदम पीछे हट गया। 'क्योंकि... राजा तय करते हैं कि हम किससे और कब ब्याह करेंगे और यदि...' 'कोई राजा मेरे जीवन का निर्णय नहीं करेगा। मैं उससे ब्याह रचाऊंगा।' 'ब्याह के लिए अभी तुम बहुत छोटे हो।' 'मैं उसे एक बच्चा देने लायक बड़ा हो गया हूं। बस इतना पर्याप्त है।' कटप्पा ने उसके चेहरे पर एक थप्पड़ जड़ दिया। शिवप्पा को पीड़ा से अधिक आश्चर्य हुआ। उसने अपने भाई को कभी क्रोधित होते नहीं देखा था। 'अगली बार तुमने यदि किसी महिला के बारे में अनुचित शब्द कहे तो मैं तुम्हारी जीभ बाहर खींचने में संकोच नहीं करूंगा।' क्रोध से कटप्पा चिल्लाया। उसके भाई ने मुख दूसरी ओर मोड़ लिया और कहा, 'मेरा... ऐसा कोई मतलब नहीं था। यह सिर्फ...।' एक क्षण के लिए कटप्पा को अपने भाई के चेहरे पर अपराध बोध नजर आया परन्तु शीघ्र ही वह पुनः अपनी आक्रामक मुद्रा में लौट आया। 'आप क्यों नहीं समझते कि मैं उससे प्रेम करता हूं? आप इस प्रकार क्यों अभिजात और महान होने का अभिनय कर रहे हैं? मैंने पहली बार प्रेम को जाना है। इससे पूर्व मैं केवल अनुशासन, कर्तव्य, नियमों को सुनता आया हूं... मैं ऊब चुका हूं। आप मुझे अब और नहीं बांध सकते। आप यह निर्णय नहीं करेंगे कि मैं क्या करूं और क्या न करूं। मैं सदैव एक गुलाम बनकर क्यों रहूं?' कटप्पा ने उत्तर देना आवश्यक न समझते हुए कदम आगे बढ़ा दिये लेकिन शिवप्पा ने उसकी कलाई पकड़ ली। 'मेरे प्रश्नों का उत्तर दिये बिना आप नहीं जा सकते।' 'मेरे पास कोई उत्तर नहीं है। और न ही मैं इन हानिकारक प्रश्नों से अपने दिमाग को मुसीबत में डालता हूं। भाड़ में जाओ! तुम क्या करते हो, मुझे इसकी कोई परवाह नहीं, ' स्वर ऊंचा करते हुए कटप्पा बोला। दोनों भाई एक-दूसरे को घूर रहे थे। शाम की पवन ने दिशा बदल ली थी और सूखी पत्तियां उन पर उड़-उड़कर गिर रही थीं। कटप्पा ने शस्त्रागार द्वार बंद करने की आवाज सुनी और शीघ्र ही मुंशी अपने घर जाता दिखा। बूढ़े मुंशी ने जैसे ही शिवप्पा को देखा, मुंह बिगाड़ते हुए भद्दी टिप्पणी की। शिवप्पा की आंखों में क्रोध उतर आया। कटप्पा ने भाई की ओर घूरकर देखा तो वह शांत हुआ। वे बूढ़े मुंशी के रास्ता पार करने तक प्रतीक्षा करने लगे। वह उस वेश्या का गीत गुनगुनाता जा रहा था, जो एक बार में एक हाथी, एक घोडा़ , एक बैल और इक्कीस पुरुषों के साथ सोयी थी। कटप्पा वहां से चल पड़ा। उसकी हथेली अभी भी झनझना रही थी और उसे दुख हो रहा था कि छोटे भाई को उसने इतनी जोर से थप्पड़ मारा। 'मुझे क्षमा कर दो, अन्ना,' पीछे से आती शिवप्पा की आवाज ने उसके कदम थाम दिये। छोटा भाई आकर उसके गले से लग गया। कटप्पा को अपने कंधे पर भाई के आंसू गिरते जान पड़ रहे थे। 'हमारी हर वस्तु, हमारी तलवार, हमारे वस्त्र और यहां तक कि हमारा जीवन भी हमारे मालिकों का है। सम्मान को छोड़ हमारे पास अपना कुछ भी नहीं है, शिवा। क्या तुम ऐसे आचरण से यह सब व्यर्थ कर दोगे, भाई?' कहते हुए कटप्पा की आवाज भारी हो गयी थी। 'परन्तु कुलीन वर्ग के लोग भी महिलाओं के बारे में इसी प्रकार से बात करते हैं,' शिवप्पा ने सिसकियों के बीच कहा। कटप्पा मुस्कुरा दिया। उसका भाई यह बात कहते हुए किसी नन्हे बच्चे जैसा लग रहा था। क्या यह वही लड़का था जो अभी कुछ देर पूर्व उस अभिजात लड़की के साथ ब्याह रचाने की बातें कर रहा था?' 'इस तरह बात नहीं करने का एक और बड़ा कारण है, शिवा। तुम्हें कैसा प्रतीत होगा यदि तुम्हारी मां के बारे में कोई ऐसा बोले?' कटप्पा ने धीरे से कहा। 'हमारी मां मर चुकी है,' भाई ने कहा और कटप्पा सन्न रह गया। उसकी आंखें नम हो गईं और उसने होंठ भींच लिये। उसे अपनी मां को बीच में नहीं लाना चाहिए था। कटप्पा की भांति उसका भाई भी इस झटके से उबर नहीं पाया था। एक बैलगाडी़ हिलती-डुलती उनके पास से गुजरी। बैल ठीकठाक गति से आगे बढ़ रहे थे, फिर भी गाड़ी हांकने वाला उनकी पीठ पर चाबुक चलाए जा रहा था। 'उन बैलों को देख रहे हो, भाई। हम भी उनके जैसे हैं। हम भी अपने मालिकों की गाड़ियां तब तक खींचेंगे जब तक कि हमारे पांव जवाब नहीं दे जाते,' कटप्पा बोला। बैलगाड़ी की आवाज धीरे-धीरे लुप्त हो गई। 'और जब हमारे पांव जवाब दे जाएंगे, तो वे हमारा कीमा बना देंगे।' शिवप्पा के स्वर में गुस्सा लौट आया था। 'हां, मृत्यु के बाद भी हमारी उपयोगिता बनी रहनी चाहिए। भोजन के रूप में, मालिक के जूतों के चमड़े के रूप में, मालिक की तलवार की म्यान के रूप में। सूखे में जीने वाले बैल का जीवन कितना अर्थहीन है,' कटप्पा ने कहा। उसका भाई उससे दूर हट गया। 'मैं किसी का पशु बनकर नहीं रहूंगा,' शिवप्पा बोला। कटप्पा प्रतिक्रिया देता कि उसके भाई ने पास के खेत में छलांग लगा दी।
धान के पौधों में लगभग गायब वह घुटने तक मिट्टी में घुस गया था। कटप्पा ने उसे बाहर निकालने के लिए हाथ आगे बढ़ाया। 'शिवप्पा, भाई...' 'नहीं, अब बस। तुम मुझे भी बर्बाद कर दोगे। मैं जा रहा हूं,' शिवप्पा बोला और पलक झपकते ही धान के पौधों के बीच गायब हो गया। 'तुम कहां जा रहे हो? तुम इस तरह नहीं भाग सकते, शिवा। मैं पिता को क्या उत्तर दूंगा?' चिल्लाते हुए कटप्पा भी खेत में कूद पडा़ । उसके भाई का कुछ पता न था। शिवप्पा को अपना रास्ता पता था। उसने अवश्य ही इसकी योजना बना रखी होगी। कटप्पा को अपना क्रोध फिर जागता प्रतीत हुआ। उसके भाई ने उसे मूर्ख बना दिया था। 'शिवा, रुक जाओ। खेत में काले सर्प हैं,' कटप्पा पुकार रहा था। 'कुछ मनुष्यों से अधिक विषैला और कोई नहीं होता,' उसके भाई का उत्तर आया। 'तुम कहां जा रहे हो?' पौधों की हलचल से भाई तक पहुंचने के रास्ते का अनुमान लगाता कटप्पा चिल्लाया। 'मुक्ति की ओर।' उसके भाई की आवाज किसी हथौड़े सी उसके सिर पर पड़ी थी। कटप्पा ने कोसा। सूर्य डूब रहा था और खेत सुनहरी फसल की लहरों वाले समुद्र सरीखे दिख रहे थे। उसके भाई का कुछ अता-पता न था। कटप्पा नहीं जानता था कि वह पिता को क्या जवाब देगा। वह कैसे बताएगा कि शिवप्पा भाग गया था? वह जानता था कि भागने वाले गुलाम के साथ वे क्या करते थे? जल्द ही महामंत्री हिरण्य के खूंखार कुत्ते उसे ढूंढ़ रहे होंगे। राजा के आदेश पर दंडकार उसकी तलाश में निकल चुके होंगे ताकि भगोड़े को पकड़कर नजदीक के पेड़ पर टांगा जा सके। जल्द ही उसके सिर पर पुरस्कार घोषित हो जाएगा और फिर पूरे के पूरे गांव उसके भाई को खोजने में जुट जाएंगे। कटप्पा के पैर कमजोर पड़ने लगे थे। मार्ग पर चढ़ते हुए वह लड़खड़ा गया था। उसने महल की ओर दौड़ना शुरू कर दिया। सूर्य पश्चिम के आकाश में जलते गोले सा दिख रहा था और रात्रि पूरब की ओर से बढ़ती चली आ रही थी। उसे पिता से मिलना था और उन्हें किसी भी प्रकार से शिवप्पा को वापस लाना था। इससे पहले कि काफी देर हो जाए।
 
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