यों तो बाबू उदयभानुलाल के परिवार में बीसों ही प्राणी थे, कोई ममेरा भाई था, कोई फुफेरा, कोई भांजा था, कोई भतीजी, लेकिन यहाँ हमें उनसे कोई प्रयोजन नहीं। वह अच्छे वकील थे, लक्ष्मी प्रसन्न थीं और कुटुम्ब के दरिद्र प्राणियों को आश्रय देना उनका कर्तव्य ही था। हमारा सम्बन्ध तो केवल उनकी दो कन्याओं से है, जिनमें से बड़ी का नाम निर्मला और छोटी का नाम कृष्णा था। अभी कल दोनों साथ-साथ गुड़िया खेलती थीं। दोनों चंचल, खिलाड़िन और सैर-तमाशे पर जान देती थीं। दोनों गुड़िया का धूमधाम से ब्याह करती थी, सदा काम से जी चुराती थीं। माँ पुकारती रहती थी पर दोनों कोठे पर छिपी बैठी रहती थीं कि न जाने किस काम के लिये बुलाती हैं। दोनों अपने भाइयों से लड़ती थीं, नौकरों को डाँटती थीं और बाजे की आवाज सुनते ही द्वार पर आकर खड़ी हो जाती थी। पर आज एकाएक एक ऐसी बात हो गई है, जिसने बड़ी को बड़ी और छोटी को छोटी बना दिया है। कृष्णा वही है, पर निर्मला बड़ी गंभीर, एकान्त- प्रिय और लज्जाशील हो गई है।
इधर महीनों से बाबू उदयभानुलाल निर्मला के विवाह की बातचीत कर रहे थे। आज उनकी मेहनत ठिकाने लगी है। बाबू भालचन्द्र सिनहा के ज्येष्ठ पुत्र भुवन मोहन सिनहा से बात पक्की हो गई है। वर के पिता ने कह दिया है कि आपकी खुशी हो दहेज दें या न दें मुझे इसकी परवाह नहीं है; हाँ बारात में जो लोग जायँ उनका आदर सत्कार अच्छी तरह होना चाहिए, जिसमें मेरी और आपकी जगहँसाई न हो। बाबू उदयभानुलाल थे तो वकील पर संचय करना न जानते थे। दहेज उनके सामने कठिन समस्या थी। इसलिए जब वर के पिता ने स्वयं कह दिया कि मुझे दहेज की परवाह नहीं तो मानो उन्हें आँखें मिल गईं। डरते थे, न जाने किस- किस के सामने हाथ फैलाना पड़े, दो-तीन महाजनों को ठीक कर रखा था।
उसका अनुमान था कि हाथ रोकने पर भी बीस हजार से कम खर्च न होंगे। यह आश्वसन पाकर वे खुशी के मारे फूले न समाये।
इसकी सूचना ने अज्ञान बालिका को मुँह ढाँप कर एक कोने में बिठा रखा है। उसके ह्रदय में एक विचित्र शंका समा गई है, रोम-रोम में एक अज्ञात भय का संचार हो गया है -न जाने क्या होगा ? उसके मन मे उमंगें नहीं है, जो युवतियों की आँखों में तिरछी चितवन बन कर, ओठों पर मधुर हास्य बन कर और अंगों में आलस्य बनकर प्रकट होती है। नहीं, वहाँ अभिलाषाएँ नहीं है; वहां केवल शंकाएँ, चिंताएँ और भीरु कल्पनाएँ हैं। यौवन का अभी तक पूर्ण प्रकाश नहीं हुआ है।
कृष्णा कुछ-कुछ जानती है, कुछ-कुछ नहीं जानती। जानती है, बहिन को अच्छे-अच्छे गहने मिलेंगे, द्वार पर बाजे बजेंगे, मेहमान आयेंगे, नाच होगा-यह जानकर प्रसन्न है; और यह भी जानती है कि बहिन सब के गले मिलकर रोयेगी, यहाँ से रो धोकर विदा हो जायगी; मैं अकेली रह जाऊँगी-यह जानकर दुःखी है। पर यह नहीं जानती कि यह सब किस लिए हो रहा है। माताजी और पिता जी क्यों बहिन को घर से निकालने को इतने उत्सुक हो रहे हैं। बहिन ने तो किसी को कुछ नहीं कहा, किसी से लड़ाई नहीं की क्या इसी तरह एक दिन मुझे भी ये लोग निकाल देंगे ? मैं भी इसी तरह कोने में बैठकर रोऊँगी और किसी को मुझ पर दया न आयेगी ? इसलिए वह भयभीत भी है।
सन्ध्या का समय था, निर्मला छत पर जाकर अकेली बैठी आकाश की ओर तृषित नेत्रों से ताक रही थी। ऐसा मन होता है कि पंख होते तो वह उड़ जाती और इन सारे झंझटों से छूट जाती। इस समय बहुधा दोनों बहिनें कहीं सैर करने जाया करती थीं। बग्घी खाली न होती, तो बगीचे ही में टहला करती। इसलिए कृष्णा उसे खोजती फिरती थी। जब कहीं न पाया, तो छत पर आई और उसे देखते ही हँसकर बोली-तुम यहाँ आकर छिपी बैठी हो और मैं तुम्हें ढूँढती फिरती हूँ। चलो बग्घी तैयार कर आयी हूँ।
निर्मला ने उदासीन भाव से कहा, तू जा, मैं न जाऊंगी।
कृष्णा- नहीं मेरी अच्छी दीदी, आज जरूर चलो। देखो, कैसी ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही है।
निर्मला-मेरा मन नहीं चाहता, तू चली जा।
कृष्णा की आँखें डबडबा आईं। काँपती हुई आवाज से बोली-आज तुम क्यों नहीं चलतीं ? मुझसे क्यों नहीं बोलतीं ? क्यों इधर-उधर छिपी-छिपी फिरती हो ? मेरा जी अकेले बैठे-बैठे घबड़ाता है। तुम न चलोगी, तो मैं भी न जाऊंगी। यहीं तुम्हारे साथ बैठी रहूँगी।