इस फोरम की मेरी सर्वप्रिय लिखनेवालियों में से एक आरुषि दयाल जी ने मेरी दूसरी कहानी जोरू का गुलाम थ्रेड में अपनी कुछ पंक्तियाँ पोस्ट की हैं
उन्हें गागर में सागर भरने में महारत हासिल है, थोड़े में बहुत वाली,... लेकिन उनकी यह पंक्तियाँ एकदम अरविन्द और गीता के किस्से पे , इस इन्सेस्ट कथा पर भी भी फिर बैठती हैं
उनका आभार और उनकी पंक्तियाँ मैं जस की तस प्रस्तुत कर रही हूँ, इस इन्सेस्ट कथा पर
देख भैया का मोटा लौड़ा
डर लगता था थोड़ा थोड़ा
चुत भी गिल्ली हो जाती थी
रोज़ रात को तड़पाती थी
दिल करता था मुह में लू
जी भर के मैं इस से खेलू
चूस चूस के गिला कर दूं
नसों में उसकी लहू मैं भर दूं
फुलो की जो सेज सजाई
उस पर लिटा के मुझको भाई
चुची मेरी खूब दबाओ
अपना लौड़ा भी चुसवायो
अब करो ना जरा सी देरी
चुत चूस ले झट से मेरी
चुत मेरी को कर दो ठंडा
घुसा के अपना मोटा डंडा
मेरे नाज़ुक बदन से खेलो
जड़ तक अपना लौड़ा पेलो
मिट्टा दो मेरी चूत की खारीश
कर दो इसमें प्यार की बारिश
आरुषि दयाल