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यूनिवर्सिटी आए हुए मुझे कुछ तीन महीने हो चले थे। मैं यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में रहा करता था और उस रोज़ आप भी मिलने आए हुए थे। आपको याद होगा हम टैगोर साहब का एक प्ले, चित्रा, देखने नैशनल थिएटर गए थे।
अनामिका भी अपने परिवार के साथ वहां आई थी। तब तक मैं नहीं जानता था कि हम एक ही शहर में हैं। उनकी सीट हमसे कुछ आगे थी। शायद उसके कॉलेज के कुछ लड़के-लड़कियाँ साथ आए थे। इंटेरवल के दौरान मैंने उसे उनसे हंसते, बात करते देखा था। मगर कम से कम इस बार माधव वहाँ न था। नाटक में क्या हुआ मुझे कुछ याद नहीं, मेरी नज़र तो बस अनामिका पर टिकी थी। लेकिन उसका ध्यान मेरी तरफ़ न पड़ा था।
जब हम बाहर आए तो उसे अपने माता-पिता से विदा लेकर कॉलेज के दोस्तों के साथ जाते हुए देखा। आपके कहने पर हम राव साहब से दुआ-सलाम करने उनके पास गए थे। हालाँकि उनका बर्ताव सभ्य था मगर उनके स्वभाव से मैं जान गया था कि अपने कुलीन मित्रों के सामने हमसे मिलना उन्हें रास ना आया था। उस पल, पहली बार मुझे अपने गरीब होने पर शर्मिंदगी का एहसास हुआ था।
उस दिन के बाद अनामिका मेरे ख़यालों से कभी जुदा न हुई। सोते-जागते मैं सिर्फ़ उसी को सोचता था। जितना भी मैं उसके बारे में पता कर सकता था मैंने किया। वह शहर के ही एक बड़े कॉलेज में पढ़ रही थी, जहां सिर्फ़ रसूखदार लोगों के बच्चे ही पढ़ा करते थे। उसे सभी चाहते थे, ख़ासतौर पर हम लड़कों की बिरादरी में उसकी चर्चा जब-तब हुआ करती थी। जब भी उसकी बात होने लगती मैं कोई न कोई बहाना कर वहाँ से निकल जाता था।
कॉलेज में आने के बाद मैंने धावकी फिर से शुरू कर दी थी। क़िस्मत की ही बात रही होगी कि शहर के विभिन्न कॉलेजों की ट्रैक-मीट का आयोजन हमारे यूनिवर्सिटी ग्राउंड पर किया गया। उस से भी बढ़कर यह कि फ़र्स्ट-ईयर का छात्र होने के बावजूद मैंने टीम में स्थान पाया था। प्रतियोगिता शुरू होने से पहले हम सभी धावक मैदान में वर्जिश कर रहे थे जब मैंने उसे शामियाने में आते हुए देखा। उसके साथ एक लड़का था और वे दोनों हाथ थामे थे। मेरा दिल बैठ गया, एकबारगी सोचा कि दौड़ से अपना नाम कटवा लूँ, मगर जब तक मैं सोच-विचार करता दौड़ शुरू हो गई।
पिस्टल की कड़कदार आवाज़ के साथ दौड़ का आग़ाज़ हुआ, मैं सबसे आख़िर में भागा। मेरा दिल ज़ोरों से धड़क रहा था, जेटोपेक आज मेरे विचारों से कोसों दूर था। आज तक मैं इतनी बड़ी दर्शक दीर्घा के सामने नहीं दौड़ा था। मगर मुझे डर था स्टैंड के उस हिस्से के सामने से गुजरने का जहां अनामिका और उसका वह पुरुष मित्र खड़े थे।
जब मैं पहली दफ़ा उनके सामने से गुजरा तो मेरा मन "फटेला, फटेला, फटेला!" की वो आवाज़ सुनने के लिए पक्का हो चुका था। मगर कुछ ना हुआ, शायद उसने मुझे पहचाना भी नहीं था। मेरा दिल और बैठ गया, उसका कुछ ना कहना, मेरे लिए उसकी नफ़रत भरी आवाज़ से भी ज़्यादा निराशाजनक था।
लेकिन मैं ग़लत था, उसने मुझे पहचान लिया था। अगली बार जब मैं दौड़ता हुआ उनके सामने से गुजरा तो उसे स्टैंड की रेलिंग के क़रीब खड़ा पाया, वो मुझे ही देख रही थी। मैं बता नहीं सकता बाबा उस पल मेरे दिल की हालत क्या हुई होगी। उस वक्त मैं चौथे स्थान पर था। उसकी एक नज़र ने मानो मुझे नई ऊर्जा से भर दिया, मेरे पंख लग गए। देखते ही देखते मैं तीसरे और फिर दूसरे स्थान पर आ गया। पहला धावक भी मेरी पहुँच से कुछ ही कदम आगे था जब मैं आख़िरी पड़ाव पार करने के लिए उसके सामने से गुजरा।
वो मेरे जीवन की तीसरी दफ़ा थी जब मैंने उसकी आवाज़ सुनी।
"अमन तुम जीतोगे, तुम जीतोगे।"
मैं ऐसा कभी ना दौड़ा था जैसा उस रोज़ दौड़ा। आगे और आगे, बाक़ी सभी पीछे छूट गए। अंतिम रेखा से कुछ ही कदम पहले मैं अपने आप को रोक ना सका और एक क्षण मुड़ कर उसकी ओर देखा। उसका चेहरा दमक रहा था, मानो सूर्य उसके माथे पर उतर आया हो। पीछे आ रहे धावकों को देख मैंने सोचा था कि ट्रेनिंग के दौरान हमें यह भी बताया जाना चाहिए कि प्यार आपको जेटोपेक सा तेज बनाने की शक्ति रखता है।
हमसे पहले ही कहा गया था कि यूनिवर्सिटी की विजय पट्टी का रिबन थोड़ा कस कर बांधा जाता है सो पार करते समय इसका ध्यान रखें। अनामिका को देखते हुए जीत हासिल करने की चाह में मैं यह बात भूल चुका था। एक झटके के साथ मैं अपने स्वप्न से बाहर आया, गिरा तो नहीं, मगर लड़खड़ा ज़रूर गया था। लेकिन मैं रुका नहीं, ऐसा लग रहा था कि अगर मैं वहाँ रुक गया तो यह सुनहरा सपना टूट जाएगा। मैं भागता हुआ खिलाड़ियों के लिए बने शामियाने तक आ गया।
कुछ देर बाद जब मेरे साथी वहाँ आए तो किसी ने बताया कि मैंने कॉलेज का पिछला रिकार्ड छह सेकंड से तोड़ दिया है। मगर मेरे मन में तो सिर्फ़ वही थी, ऐसा क्या हुआ होगा जिसने उसका स्वभाव इतना बदल दिया था, यह सवाल मुझे खाए जा रहा था।
उस शाम यूनिवर्सिटी के एथलेटिक्स क्लब में एक पार्टी का आयोजन हुआ। मगर मैं नहीं गया, मैं बस एकांत चाहता था। सो मैंने लाइब्रेरी जा कर एक पुराना लेख, जिसे मैं काफ़ी समय से टालता आ रहा था, उसे पूरा करने का मन बनाया। शाम ढले लाइब्रेरी लगभग ख़ाली थी, कोई इक्का-दुक्का छात्र-छात्राएँ ही रहे होंगे। जहां मैं बैठा था वहां तो कोई भी नहीं था। मैं अपने लेख का दूसरा पन्ना पूरा कर रहा था जब मुझे पीछे से किसी के आने का आभास हुआ।
मैं मुड़ पाता उस से पहले ही वो मेरी मेज़ के क़रीब आ खड़ी हुई। मैंने नज़र उठा कर उसकी ओर देखा।
"सॉरी, शायद मैं तुम्हें डिस्टर्ब कर रही हूँ, लेकिन तुम पार्टी में नहीं आए..." उसने कहा और चुप हो गई।
मैं कुछ भी न बोल सका। बस एकटक उस खूबसूरत सी मूरत को निहारता रहा। उसने एक आसमानी स्कर्ट पहना था और एक तंग सा लाल स्वेटर जो उसके ऐफ़्रडाइटी से सीने को प्रदर्शित कर रहा था। वो सपाट सीने वाली दुबली सी लड़की कहीं पीछे छूट गई थी।
"वो मैं ही थी जिसने स्कूल की दौड़ में तुम्हें फटेला कह कर चिढ़ाया था।" मुझे चुप पाकर वो बोली, "मैं अपनी उस हरकत के लिए हरगिज़ शर्मिंदा हूँ। उस रात फ़ेयरवेल के समय भी मैं तुमसे माफ़ी माँगना चाहती थी, मगर माधव के सामने कुछ कहने की हिम्मत न कर सकी।"
किसी तरह मैंने हामी में सिर हिला कर जताया कि मैं उसकी बात सुन रहा था। मेरा दिल कुछ कह रहा था और दिमाग़ कुछ और, मगर ज़ुबान चुप रही।
"मैंने फिर कभी उससे बात नहीं की," उसने आगे कहा, "लेकिन शायद तुम वह सब भूल गए होगे..."
मुझे चुप देख शायद उसे लगने लगा था कि उसने वहाँ आकर गलती कर दी है। वह जाने के लिए मुड़ने लगी थी जब मैंने किसी तरह दिल थाम कर पूछा, "क्या तुम एक कॉफ़ी पीना चाहोगी?"
मैंने ऐसे जताया था कि मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता अगर वो कहे कि उसे अपने मित्र के पास लौटना है। हालाँकि मुझे फ़र्क़ पड़ता, इतना पड़ता कि शायद मैं उसकी ना सुन रो पड़ता। लेकिन उसने रुकते हुए "हाँ" में सिर हिलाया और खड़ी रही। मैं आश्चर्यचकित सा उसकी सुरमई आँखों में देखता रह गया।
हम लोग लाइब्रेरी में ही बनी कॉफ़ी शॉप में गए, उस वक्त उतना खर्च भी मेरे लिए पंद्रह दिन के जेब खर्च से ज़्यादा ही रहा होगा।
मेरे ख़यालों के इतर, वो मेरे बारे में बहुत कुछ जानती थी। उसने फिर एक बार उस पुरानी बात के लिए मुझसे माफ़ी मांगी। उसने कोई बहाना नहीं बनाया, किसी और पर दोष नहीं मढ़ा, सिर्फ़ अपने आचरण के लिए शर्मिंदगी ज़ाहिर की। उस दिन के बाद हमने पूरा सेमेस्टर साथ बिताया। हम साथ में पढ़ाई करते, साथ में खेलते और साथ ही घूमने फिरने जाते, मगर सोते अलग। उस दूसरे लड़के का क्या हुआ मुझे नहीं पता, न उसने कभी कुछ कहा और ना ही मैंने कभी पूछा।
उस साल छुट्टियों में घर आने पर मैंने विरले ही कभी आपके सामने उसकी बात की होगी। मगर आप शायद जान गए होंगे कि मैं उसे कितना चाहता था। आख़िर आपसे मैं कभी कुछ छिपा ना सका हूँ। लेकिन आप हमारे रिश्ते से सहमत थे या असहमत यह मैं न जान सका।
हरनाम सिंह पढ़ते-पढ़ते रुक गए। जब शमा, जो उनके यहाँ घरेलू काम काज करने आया करती थी, ने उन्हें अमन और अनामिका के बारे में बताया था तो वे अपनी नाराज़गी छिपा न सके थे। वे भी ग़लत न थे, आख़िर उन्होंने दुनिया देखी थी और अपनी हैसियत से बाहर जाने वालों को गिरते भी देखा था। फिर उन्होंने अपने दिल को दिलासा दिया था कि कच्ची उम्र का प्रेम है, समय के साथ बच्चों को दुनियादारी की समझ हो जाएगी और राहें जुदा हो जाएंगी। शायद वे इस से ज़्यादा ग़लत कभी न हुए थे।
जब भी मैं अनामिका के घर गया, उसके परिवार ने उसी सभ्यता का आवरण लिए मेरा सत्कार किया जो उस रोज़ थिएटर के बाहर मैंने महसूस की थी। तमाम सदाचार के बाद भी वे कभी-कभी मेरी पहचान के प्रति अपने ख़यालात छिपा ना पाते थे। मैंने जब भी अनामिका से हमारे बीच की इस सामाजिक दूरी का ज़िक्र किया था, उसने उसे मेरा वहम बता टाल दिया था। मगर हम दोनों जानते थे कि यह सच नहीं था। मेरी हर क़ाबिलियत के बावजूद उसके परिवार को लगता था कि मैं उनकी बेटी का हाथ थामने लायक़ नहीं हूँ, और ना कभी हो सकूँगा।
मैं वह दिन कभी नहीं भूल सकूँगा जब पहली बार मैंने उसे प्यार किया। अनामिका ने अपने फ़ाइनल ईयर में अकादमिक गोल्ड मेडल जीता था। हम दोस्तों के साथ शहर के पास ही एक पिकनिक पर जाने वाले थे। उसे शायद अपने कमरे से कुछ सामान लेना था, सो हम उसके पी.जी. गए। सोचा था दो मिनट का काम है फिर वहाँ से चल चलेंगे। मगर एकांत के कुछ क्षण हमें मुश्किल ही मिला करते थे। उस पल जो मैंने उसे अपनी बाहों में लिया तो फिर भोर हुए ही हम जुदा हुए। कुछ भी सोचा-समझा नहीं था, हम दोनों के लिए वो पहली बार था।
मैंने उस से कहा था कि मैं उस से शादी करूँगा, पहली बार शायद सभी लड़के यही वादा करते हैं, फ़र्क़ यह कि मेरा वादा सच्चा था।
फिर कुछ हफ़्ते बाद अनामिका का मासिक नहीं हुआ। हम दोनों घबरा गए थे लेकिन फिर भी मन को ढाँढस बँधाए एक और महीना इंतज़ार किया। बात फैल न जाए इस डर से शहर के किसी भी डॉक्टर के पास वह नहीं जाना चाहती थी। अगर उस वक्त मैंने आपसे सब सच-सच कह दिया होता तो शायद मेरी ज़िंदगी कुछ और ही होती। मगर मैं न कह सका, और उसका पूरा दोष मेरा ही रहेगा।
जब उसका अगला मासिक भी न हुआ तो हम समझ गए कि हमारे पास ज़्यादा समय नहीं बचा था। शायद चंद महीने। हमने तय किया कि पहले अनामिका की माता श्री को यह बात बताई जाए। आख़िर माँ में एक सहिष्णुता होती है जो अपने बच्चों की तमाम ग़लतियों के बाद भी उनके लिए ढाल बन उन्हें बचाती है। मैंने अनामिका से शादी करने की ठान ली थी। मैं उसके साथ जाना चाहता था लेकिन तमाम दुहाई देकर उसने मुझे रोक दिया। उसने कहा कि वह अपनी माँ से खुद बात करना चाहती है, और जल्द ही वापस लौट आएगी।
मैंने उसे कहा कि अगर दो दिन में मुझे कोई ख़बर नहीं मिली तो मैं उसके घर आ धमकूँगा। जिसपर उसने भीनी सी मुस्कान के साथ मुझे एक मज़ाक़िया घूँसा जड़ दिया था।
मेरे दो दिन ऐसे बीते जैसे दो साल। एक-एक पल काटना मुश्किल हो गया था। पूरा समय मैं ना बैठ सका न लेट सका, बस कमरे में चहलक़दमी करता और खिड़की से उसकी राह तकता। जब दूसरे दिन की शाम ढलते-ढलते भी अनामिका नहीं लौटी तो मैं रह ना सका। मैं शाम की बस से हमारे शहर लौटा और अंधेरी गलियों से होता हुआ उसके घर जा पहुँचा। उसके कमरे की बत्ती जल रही थी। मैंने जा कर दरवाज़ा खटखटाया, उसके पिता ने दरवाज़ा खोला।
"अब क्यों आए हो यहाँ?" उन्होंने पूछा था, उनकी आँखें मेरे चेहरे पर जमीं थी।
"मैं आपकी बेटी से प्यार करता हूँ, मैं उस से शादी करना चाहता हूँ।" मैंने बेझिझक कहा था।
"वो तुम जैसे से कभी शादी नहीं करेगी।" उन्होंने कहा और दरवाज़ा बंद कर दिया।
उसके पिता चिल्लाए ना थे, ना ही उन्होंने दरवाज़े को ज़ोर से बंद किया था। बस बंद कर दिया। मेरे लिए यह उनके ग़ुस्से और चिल्लाने से भी बुरा था। मैं बहुत देर तक उसके घर के बाहर खड़ा रहा, हल्की बारिश भी होने लगी थी। आगे क्या करूँ, कैसे करूँ यह सोचते-सोचते रात गहरा गई, उसके कमरे की बत्ती भी अब बुझ चुकी थी।
मैं घर नहीं आ सकता था, सो एक सराय में जा ठहरा। रात बीतते समय ना लगा। अगली सुबह मैंने एक टेलीफोन बूथ से उसके घर फ़ोन किया। उसकी माँ ने फ़ोन उठाया था। मैंने अपना परिचय दिया मगर वे चुप रहीं। जब मैंने अनामिका के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि वो वहाँ नहीं है और उसके लौट आने का पता करने पर एक सधे स्वर में बताया गया कि उसे वापस आने में कुछ समय लगेगा।
वो 'कुछ समय' एक बरस में बदल गया, मैंने दोस्तों से पूछा, उसके कॉलेज में पता किया, जितना हो सकता था उसे ढूँढा मगर न जान सका कि उसे कहाँ भेज दिया गया था।
फिर एक दिन वो हमारे शहर लौट आई, मेरे बच्चे और एक पति के साथ। कॉलेज की एक लड़की, जिसके पास आम तौर पर सभी मसालेदार क़िस्से हुआ करते थे, उस से मुझे वह ख़बर मिली थी। एक हफ़्ते बाद मुझे एक काग़ज़ मिला, दो पंक्तियाँ थी सिर्फ़, उसे भूल जाने का आग्रह और कभी ना मिलने की विनती।
मैंने सुना कि वह अपनी पढ़ाई पूरी कर रही है, उसने वापस कॉलेज आना शुरू कर दिया था। मगर मैंने उसके लिखे को आत्मसात् कर उस से कभी मिलने की कोशिश न की। अपने डॉक्टरेट की पढ़ाई ख़त्म कर मैंने उस साल वो शहर हमेशा के लिए छोड़ दिया। मेरा घर लौट कर ना आना शायद आपको खला होगा। छोटे शहरों में बातें कहाँ छिपी रहती हैं, मेरे और अनामिका के बारे में सभी लोग जानते थे। मैं नहीं चाहता था कि मेरी वजह से आपको और तकलीफ़ सहनी पड़े। तब तक मैं हमारे रिश्ते को लेकर आपकी नाराज़गी के बारे में भी जान चुका था।
हरनाम सिंह एक बार फिर पढ़ते-पढ़ते रुक गए थे। एक दिन राव साहब ने उन्हें बुला कर अगली रोज़ अपना बकाया मुनीम से ले जाने को कहा था। शायद उस समय उन्हें अमन के पास जाना चाहिए था उसे यह बताने कि उसके प्रति उनका प्यार बदला नहीं था। मगर जगहँसाई का घाव हरा था और वे न जा सके थे। कुछ पल बीते दिनों की याद कर वे आगे पढ़ने लगे।
Bahot behtareenनया शहर मेरे लिए एक नई ज़िंदगी लेकर आया। यहाँ मेरी क़ाबिलियत ही मेरी पहचान थी, नए दोस्त भी बने, जिनमें लड़के भी थे और लड़कियाँ भी। मगर अनामिका की याद मेरे दिल से न मिट सकी, एक पल भी अगर मैं ख़ाली होता था तो उसी को सोचता, उसी को चाहता। अपने दिल की व्यथा सुनाने के लिए मैंने कितने ही पत्र उसे लिखे होंगे, मगर पोस्ट एक भी नहीं किया। दर्द हद से गुज़र जाने पर एक-दो बार मैंने उसके घर फ़ोन ज़रूर किया मगर फिर चुपचाप काट भी दिया। लेकिन अगर वो कभी फ़ोन उठा भी लेती तो शायद मैं कुछ कह ना सका होता, मैं सिर्फ़ उसकी आवाज़ सुनना चाहता था।
मैं अब बैरिस्टर हो गया था, मेरे पास वो सब था जो कभी मैं माधव और उसके दोस्तों के पास देख कर पाने की चाह रखता था, और मेरे पास कुछ भी नहीं था। एक-दो बार मैं लड़कियों से भी घुला-मिला मगर कुछ हफ़्ते से ज़्यादा वो रिश्ते चल ना सके। मैं जैसे एक दिशा में यंत्रमान सा चलता जा रहा था, काम, काम और काम, और बाक़ी समय में उसकी याद। मैंने दौड़ना छोड़ दिया था, बस सुबह एक घंटा पार्क में जॉगिंग किया करता था।
आपको भी मैंने अपने पास बुला लिया था, लेकिन हरदम आपकी सवालिया निगाहों से बचता रहा। मैं हमेशा आभारी रहूँगा कि आपने कभी मुझ पर शादी को लेकर दबाव नहीं बनाया। आपकी इतनी अपेक्षा करने के बाद शायद आपको खुश करने के लिए मैं शादी कर लेता, मगर खुश न रह पाता और किसी अभागी लड़की का जीवन भी ख़राब कर बैठता।
फिर एक रोज़ मुझे देश की एक नामी वकालती फ़र्म से सम्पर्क किया गया। वे मुझे पार्ट्नर बनाना चाहते थे। उनका प्रस्ताव सुनते वक्त भी मैं यही सोच रहा था कि अनामिका के पिता अगर यह जानते तो शायद... मैं आगे न सोच सका। नए काम के लिए मुझे फिर से शहर बदलना पड़ा लेकिन इस बार आप मेरे साथ नहीं आए। आपने वहीं कुछ साथी बना लिए थे और मकान भी हमारा अपना था। सो मैं अकेला ही एक नए परिवेश में ख़ुद को ढालने निकल पड़ा था।
कमाई और बढ़ गई, रहन-सहन भी पहले सा न रहा, मगर दिल न बदल सका। अब जब मैं एक नहीं दस कारें ख़रीद सकता था तो मुझे एक भी ज़्यादा मालूम पड़ने लगी। पैदल ही पार्क के सामने बने अपने बंगले से दफ़्तर तक ज़ाया करता था। मेरा काम ही मेरा सुकून बन गया था।
गुरुवार का दिन था, उस रोज़ मैं किसी काम के सिलसिले में शहर से बाहर गया था। वापस आते-आते शाम के पाँच बज गए होंगे। एक लाल बत्ती पर ड्राइवर ने गाड़ी रोकी, मैं दफ़्तर की सोच में डूबा हुआ खिड़की से बाहर देख रहा था जब मुझे एक जाने-पहचाने साये का आभास हुआ। सड़क पर दौड़ती गाड़ियों के उस पार फ़ुटपाथ पर वह खड़ी थी, एक छोटे बच्चे का हाथ थामे, मेरा बेटा
मैंने ध्यान दिया तो पाया कि वे दोनों बस स्टॉप पर खड़े थे। अनामिका के चेहरे पर एक सौम्य सा भाव था, जैसे आस-पास की दुनिया से वह बेख़बर हो। बच्चे का हाथ, हमारे बच्चे का हाथ उसने कस कर थामा हुआ था जो उसे इधर-उधर जाने से रोके हुए था। मैं एकटक साँस थामे उन्हें देखता रहा जब तक एक झटके से गाड़ी चल ना पड़ी।
मैंने ड्राइवर से दफ़्तर न जाकर सीधा घर चलने को कहा। वो अगला हफ़्ता मैं दफ़्तर से छुट्टी लेकर उस बस स्टॉप के सामने गाड़ी लिए खड़ा रहा। लेकिन वे दोनों मुझे फिर ना दिखे। शायद वो किसी रिश्तेदार के यहाँ या कुछ दिन इस शहर में कुछ काम से आई होगी और अब वापस जा चुकी है, यह सोचकर मैंने अपने दिल को दिलासा देना चाहा था। मुझे यहाँ तक लगने लगा था कि उसे देखना मेरा भ्रम था शायद। मगर दो रोज़ बाद मैं फिर उसी बस स्टॉप के सामने खड़ा था।
कुछ देर बाद मुझे वे दोनों सड़क की दूसरी तरफ़ से आते दिखे। मैं किसी अपराधी सा छुप कर उन्हें देखता रहा। उस रोज़ मैंने उस बस का पीछा किया, वे दो या तीन स्टॉप बाद बस से उतर गए, और एक कपड़ों की दुकान में गए। यह सोचकर कि शायद वो कुछ ख़रीद रही होगी, मैं बाहर रुका रहा। लेकिन जब काफ़ी समय बीता मगर वे बाहर ना आए तो मेरा धैर्य जवाब दे गया। मैं चुपके से उस दुकान के सामने से गुजरा और अंदर झांका। मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब मैंने अनामिका को काउंटर के पीछे खड़े पाया, वो वहाँ काम करती थी।
उस रोज़ दफ़्तर में मैंने अपनी सेक्रेटरी से उस दुकान के बारे में पूछा था। उसने हंस कर कहा था कि अगर मेरी शादी हुई होती तो शायद मुझे यह बात पूछनी ना पड़ती। वह शहर की सबसे महंगी और फ़ैशनेबल कपड़ों की दुकान थी। आगे क्या हुआ उसका अंदाज़ा आप लगा सकते हैं। मैंने जितना हो सकता था अनामिका के बारे में पता लगाया। उसके पति एक बड़ी कार कम्पनी के डाइरेक्टर थे और अक्सर विलायत आते-जाते रहते थे।
अंत में मैंने तय किया कि सिर्फ़ एक बार मैं अनामिका से बात करने की कोशिश करूँगा। लेकिन उस से किस तरह सम्पर्क करूँ, यह तय करने में मुझे दो दिन और लग गए। मैं फ़ोन कर उसे परेशान नहीं करना चाहता था, सो मैंने तय किया कि उसी की तरह एक छोटा सा नोट उसे भेजूँगा। मैंने लिखा,
अनामिका,
तुम शायद नहीं जानती लेकिन मैं तुम्हारे ही शहर में रहता हूँ। मुझे भी यह बात कुछ दिन पहले ही मालूम हुई। क्या हम मिल सकते हैं? मैं रॉयल ओक होटल के लाउंज में शाम को 6 से 7 बजे के बीच इस हफ़्ते तुम्हारा इंतज़ार करूँगा। अगर तुम नहीं आई तो वादा करता हूँ कि यह मेरा तुमसे आख़िरी सम्पर्क होगा।
अमन
मैं होटल में उस शाम 6 बजे से आधा घंटा पहले ही पहुँच गया था। बैठने के लिए मैंने लाउंज के गेट के सामने वाली एक सीट को चुना और एक कॉफ़ी ऑर्डर कर दी। बैरे ने मुझसे पूछा था कि क्या मैं किसी का इंतज़ार कर रहा हूँ और मैंने उस से कहा था कि मुझे मालूम न था।
वो नहीं आई, लेकिन फिर भी मैं लगभग 8 बजे तक वहाँ बैठा रहा। एक दिन बीता, फिर दूसरा, फिर तीसरा, शुक्रवार आते-आते बैरे ने भी मुझे सवाल पूछना बंद कर दिया था। मैं बैठा हुआ एक और कॉफ़ी को ठंडा होते देख रहा था जब लाउंज का दरवाज़ा खुला और वह अंदर आई। उस से पहले जितनी भी बार कोई महिला अंदर आई थी, वह कहीं अनामिका तो नहीं यह सोच मेरा दिल ज़ोरों से धड़क उठा था। मगर अब वास्तव में उसे अपने सामने देख मानो थम सा गया।
उसने नए-फ़ैशन वाला हरा सूट पहना था और एक कड़पदार रेशमी चुन्नी लिए थी। उसके बाल एक जुड़े में बंधे थे। मैं खड़ा हुआ, उसने मुझे देखा और मेरी ओर बढ़ी। हमारे बीच ना कोई स्पर्श हुआ ना कोई अभिवादन। हम बस बैठ गए, कुछ देर तक कोई बात भी न हुई। बीते सालों में उसके चेहरे पर एक कठोरता आ गई थी जो मैंने पहले कभी न देखी थी।
आख़िर मैंने कहा, "मुझे लगा था तुम नहीं आओगी।"
"मुझे नहीं आना चाहिए था..." वो बोली।
कुछ पल और बीत गए।
"क्या मैं तुम्हारे लिए एक कॉफ़ी मँगवा दूँ?" जब चुप्पी असहजता में बदलने लगी तो मैंने पूछा।
"हाँ, ठीक है।"
"बिना चीनी के?"
"हाँ"
"तुम ज़रा नहीं बदली।"
अगर कोई हमारी बातें सुन रहा होता तो उसे वे निश्चय ही बचकाना लगतीं। बैरा कॉफ़ी लाकर रख गया। कुछ मिनट हम एक दूसरे से नज़र चुराते इधर-उधर की बातें करते रहे जब अचानक मैं बोल उठा,
"मैं अब भी सिर्फ़ तुम्हें ही चाहता हूँ।"
उसकी आँखों में आंसू भर आए, "और तुम्हें क्या लगता है, क्या मैं तुमसे प्यार नहीं करती? मैं तो अपने आदिव में हर रोज़ हर पल तुम्हें देखती हूँ।"
चुप्पी की दीवार जो हमारे बीच कब से खड़ी थी, ढह गई। उसने मुझे बताया कि पाँच साल पहले उसकी बात सुन उसके पिता ने उसे कुछ नहीं कहा था। लेकिन अगले दिन वे पूरे परिवार को लेकर पास ही के एक शहर, जहाँ उनके पुराने मित्र रहते थे, चले गए थे। उनके मित्र का बेटा हमेशा से ही अनामिका को चाहता था। उसके गर्भवती होने के बावजूद वह उस से शादी करने के लिए तैयार था। सबने सोचा कि कुछ समय बाद सब ठीक हो जाएगा, लेकिन उनके बीच कभी कुछ ठीक न हुआ। पति की लाख कोशिशों के बाद भी अनामिका उन्हें उस तरह से चाह ना सकी जैसा वो चाहते थे। एक-दूसरे के परिवार का ख़याल कर तलाक़ लेना उन्होंने उचित न समझा था। आख़िर वे परिवार की नज़रों से बचने के लिए इस शहर चले आए थे ताकि कम से कम अपनी अलग जिंदगियाँ जी सकें। अब अनामिका का अधिकतर वक्त अपने स्टोर और हमारे बेटे की देखभाल में ही गुजरता था।
जैसे ही उसने अपनी बात ख़त्म की, मैंने अपने हाथ से उसके गाल को छुआ था। उसने मेरा हाथ थाम उसे चूम लिया।
एक बार फिर हम मिलने लगे। दिन, हफ़्ते, और कुछ महीने बीते, हम दोनों ने मुस्कुराना सीखा ही था, जब शहर में बातें बनने लगी। यह दुनियाँ ऐसे लोगों से भरी पड़ी है जिन्हें बातें बनाने में मज़ा आता है, और जितने मुँह उतनी बातें। आख़िर अनामिका के पति तक बात पहुँची।
इस बार मैं उसके साथ गया। उसके पति तलाक़ के लिए राज़ी हो गए। उनकी बस एक शर्त थी कि छोटे आदिव को उनके पास रहने दिया जाए और उसके बीसवें जन्मदिन से पहले उसके पिता के बारे में ना बताया जाए। वरना उनकी और उनके परिवार की जगहँसाई होती। हमारी ख़ुशी की यह एक बहुत बड़ी क़ीमत थी, लेकिन हमारे पास और कोई रास्ता भी न था।
उनका तलाक़ हो गया। मेरी और अनामिका की शादी तय हो गई। हमने एक छोटा सा समारोह रखा था जिसमें सिर्फ़ कुछ घनिष्ठ मित्र और जानकर ही शामिल हुए थे। मैं जानता था कि उसके माता-पिता नहीं आएँगे, न आए। मगर मैं कभी नहीं समझ सका कि आप क्यों नहीं आए बाबा?
उन शब्दों को पढ़ते-पढ़ते हरनाम सिंह एक गहरे दुःख से भर उठे। उस दिन के बाद न जाने कितनी ही बार उन्होंने अपनी सोच, अपनी हठधर्मिता पर अफ़सोस किया था। जिसके चलते उन्होंने अपने प्यारे बेटे की इकलौती ख़ुशी को नज़रंदाज़ कर दिया था।
Thanks bhai, I hope aako kahani pasand aayi. Ek chhota sa poll dala hai, apni raay jarur dein.Bahot behtareen
Khoobsurat shaandaar update bhai
Bahot dukhad ant huwa kahani kaक्या कभी ऐसा हो सकता है कि हमारी ज़िंदगी का हर एक दिन पिछली रोज़ से और हसीन और खूबसूरत होता ही जाए?
मेरे साथ ऐसा ही हो रहा था। अनामिका से कुछ घंटों से ज़्यादा अलग रहने पर मैं वापस उसके पास आने की कोशिश करता। अगर एक दिन के लिए मुझे काम से किसी दूसरे शहर जाना होता तो मैं दो, तीन, चार बार उसे फ़ोन करता। अगर जाने का अरसा एक दिन से ज़्यादा होता तो वो हमेशा मेरे साथ आती। मुझे याद है, पहले बहुत पहले, आपने एक बार मुझे आपके और माँ के प्रगाढ़ प्रेम के बारे बताया था। मैं बहुत छोटा रहा हूँगा कि आप अपने दिल की बात मुझसे कर सके थे। लेकिन अब मुझे लगने लगा था कि मैंने भी वैसा ही प्रेम पा लिया था।
एक और बरस कैसे बीत गया पता ही न चला। हमने अपने दूसरे बच्चे के बारे में सोचना शुरू कर दिया था। तय हुआ कि अगर लड़का होगा तो अनामिका की पसंद का नाम आकाश रखेंगे और अगर लड़की हुई तो मेरी पसंद का नाम, ख़ुशी। मैं जानता था कि लड़की ही होगी। मुझे रोकने की अनामिका की तमाम कोशिशें नाकाम रहीं, लेकिन मैं न माना और हमारे कमरे को गुलाबी रंग से पुतवा लिया। जब भी बाज़ार से लौट कर आता तो मेरे हाथ में मेरी होने वाली छोटी सी बिटिया के लिए कोई खिलौना या कोई पोशाक होती थी। अनामिका ने भी आख़िर मुझे टोकना छोड़ दिया था।
मैंने दफ़्तर से एक लम्बा अवकाश ले लिया, हर वक्त उसके खान-पान का ख़याल रखता, उसे समय पर कसरत करवाता और ज़रा-ज़रा सी बात पर अस्पताल लेकर दौड़ा करता। उस अस्पताल के सभी डॉक्टर और नर्सें मुझे पहचानने लगे थे और मेरी बेवक़ूफ़ियों की वजह से शायद मुझसे थोड़ा कतराने भी लगे थे। नौ महीने बीत गए, मैं अस्पताल में ही जा जमा। जिस तरह से मैं तैयारियाँ कर रहा था ऐसा लगता था कि किसी शहज़ादे या शहज़ादी का जन्म होने वाला है।
आख़िर वह दिन भी आ गया, जब मेरी ख़ुशी का जन्म होने वाला था, मुझे उस बात पर इतना यक़ीन था कि भगवान भी मुझे डिगा ना सकते थे। मैं पूरे दिन अनामिका के पैरों के पास बैठा उन्हें दबाता रहा था। दिन ढलने लगा था जब उसे डिलिवरी के लिए ले ज़ाया गया। मैं कमरे के बाहर गलियारे में बदहवास सा घूम रहा था। नर्सें और कम्पाउंडर कमरे से अंदर-बाहर आ जा रहे थे। कुछ देर बाद डॉक्टर साहब भी आ गए, जो रोज़ मुझसे बच कर निकलने की कोशिश करते थे। लेकिन आज उन्होंने एक बड़ी सी मुस्कान के साथ मेरा कंधा दबाया और अंदर चले गए।
थोड़ी देर बाद एक नर्स बाहर आई, "बच्चा होने ही वाला है।" उसने सिर्फ़ इतना कहा और गलियारे से होकर एक दूसरे कमरे में चली गई।
कुछ पल और बीते। डॉक्टर साहब बाहर आए, "लड़की हुई है।" उन्होंने कहा, मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा, पहला विचार जो मेरे मन में आया था वह यह कि "चलो कमरे को दोबारा नहीं रंगना पड़ेगा।"
"क्या मैं मिल सकता हूँ?"
"माफ़ कीजिएगा मगर एक बुरी खबर है, हम आपकी वाइफ़ को नहीं बचा सके।" उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा। मुझे उनकी बात पर विश्वास न हुआ, मैं चीखना चाहता था कि यह सच नहीं है, मगर अपने शब्द खो बैठा था।
"हमने उनसे पहले ही कहा था, पहले बच्चे के दौरान हुई दिक़्क़त के बाद शायद दूसरा बच्चा करना ठीक ना होगा।" डॉक्टर ने मुझे कंधे से पकड़ पास रखे एक स्टूल पर बिठाते हुए कहा था।
"पहले कहा था? कब कहा था?" मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था।
"जब वे पहली बार यहाँ दिखाने आईं थी।" डॉक्टर ने कहा।
उस रोज़ मैं उसके साथ नहीं था दफ़्तर के काम से बाहर गया था, मेरा दिल दहल उठा, आख़िर क्यूँ मैं अनामिका के साथ ना आया था।
"लेकिन अनामिका ने मुझे यह बात क्यों नहीं बताई?" मैंने पूछा। डॉक्टर इस बात का क्या जवाब दे सकता था, लेकिन मैं समझ गया। मेरी ख़ातिर, मेरी चाहत के ख़ातिर, मुझे वो बच्चा देने के लिए जो एक बार पहले खो चुका था। मैंने ही उसे मार दिया था।
ख़ुशी का जन्म ऑपरेशन से हुआ था और उसे अस्पताल में ही इनक्यूबेटर पर रखा गया। अपने विषाद से थोड़ा उबर कर जब मैं उसे देखने गया तो मानो मुझे फिर से जीने की वजह मिल गई। अनामिका के लिए मेरे अंदर जितना प्यार था सब उसका हो गया था।
मैं बता नहीं सकता बाबा उस रोज़ आपका वहाँ आना मेरे लिए कितना बड़ा सहारा था। आप जैसे पलक झपकते ही आ गए थे। अनामिका के अभिभावक भी कुछ देर बाद आए। उस दिन राव साहब को पहली बार मैंने एक पिता के रूप में देखा। उन्होंने रो-रो कर मुझसे माफ़ी मांगी अपनी सोच पर अवसाद किया। लेकिन अब मैं पिता बन चुका था, उनका दर्द समझता था, मैंने बिना किसी शिकवे के दिल से उन्हें माफ़ कर दिया। अनामिका की माँ ने मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर पूछा कि क्या वे समय-समय पर ख़ुशी से मिलने आ सकते हैं। वे ज़रूर आ सकते हैं मैंने कहा।
उस डॉक्टर में शायद एक अदभुत ही शक्ति रही होगी, कि वो मुझे बताने आ सका कि मेरी ख़ुशी भी इस दुनियाँ में नहीं रही थी। कुछ देर पहले ही उसके नन्हे से दिल ने धड़कना बंद कर दिया था। पूरा अस्पताल गमगीन था, वे सभी रो रहे थे जिन्होंने पिछले चंद महीनों में मेरा उल्लास देखा था।
बाबा, मैं आपसे बहुत प्रेम करता हूँ। जब अनामिका मेरे पास नहीं थी, मैं दर्द में रहा मगर कभी रोया नहीं, मुझे लगता था कि अगर उसकी याद में एक सफल इंसान भी बन सका था बहुत कुछ पा लूँगा। लेकिन आज अनामिका और ख़ुशी दोनों को खोने के बाद मेरा साहस टूट चुका है। मैं सिर्फ़ इतना ही चाहता हूँ कि जब भी आप मुझे याद करें मुझे एक पति और एक पिता की तरह याद करना। इस उम्र में आपको बेटे का सहारा ना दे सका इसका खेद है।
आपका पुत्र,
अमन
बाहर के दरवाज़े पर दस्तक हुई। कोई उन्हें बुलाने आ गया था।
हरनाम सिंह ने धीरे-धीरे उस ख़त के पन्ने समेटे और उसे दराज में रख दिया।
पिछले 20 वर्षों से वे रोज़ उसे पढ़ा करते थे।
Xforum par apki pehli kahani ke liye badhai
Mai aesa nahi keh sakti ke is kahani ki theme bilkul unique hai, maine is theme par aj tak kayi kahani padhi aur movies dekhi hai, par un sab se is kahani ko jo baat alag banati hai wo hai is kahani ke kirdar.
Aman ka kirdar mujhe shurwat se hi bohot pasand aya, Aman ki maturity, uski sahanshilta, aur sabse badh kar Anamika ke prati uski respect jo shuru se lekar akhir tak bani rahi. Chahe use Anamika ki wajah se kitni hi taqleed kyun na jhelni padi ho par na to usne kabhi Anamika ke liye kisi galat shabd ka issemal kiya aur na hi koi galat bhav man me ane diya. I just loved him
Anamika ke liye kayi Readers ke man me galat bhavna aa sakti hai ke usne apne premi ke liye apne pati ko chhod diya. Ya fir apni shaadi nahi rok payi. Par hum sabhi ko thodi khushiyon ki chahat aur kuch na kar pane ki bebasi kabhi na kabhi mehsoos to hoti hi hai. Aur jab koi kisi ke sath reh kar khush na ho to us rishte ko tod kar khud ko aur us insan ko bhi khush rehne ka ek mauka dena chahiye. Mujhe khushi hai Writer ne wo mauka Anamika ko diya.
Us Gumnaam character ko bhi meri taraf se shabashi jisne haqiqat janne ke baad bhi Anamika ke bete se nafrat nahi ki
Par akhir tak ate ate rula diya tumne, shayad kabhi kabhi zindegi me itni khushiyan aa jaye to hume humari hi nazar lag jati haiek mauka zindegi ne dekar bhi chheen liya Aman se.
Writing style ke baare me kya kahun, wo to Writer ko bhi pata hai ke unhone bohot khub likha hai, Epistolary jyada padhne ko nahi milti khas kar virtual world me, aur koi likhta bhi hai to justice nahi kar pata, par ye kahani is mamle me bilkul flawless hai
Mujhe lagta hai Lews Therin Telamon ke rup me Xforum ko ek behtareen Writer naseeb hua hai, apka swagat hai, asha hai age bhi apse aesi hi behtareen kahaniya padhne ko milengi![]()
Bas ek sawal hai, kya kahani ka dukhad aant sirf isliye kiya gaya hai taki kahani Readers ko jyada influence kar sake?![]()
Hum-umra kirdaro ke ghum me itna kho gayi ke kya bataunAapke shabdon ne itna gad gad kar diya hai ki kya kahun. Jaisa maine iss thread par pehle bhi mention kiya ki main peshe se ek copywriter hu, to jaahir hai ek reader bhi hu. Lekin kahaniyon ki duniya me yeh mera pehla kadam hai. Aapne sabhi kirdaaron ka vivechan bahut sateek tareeke se kiya hai.
Magar ek kirdaar, Harnaam Singh ki or jyadatar readers ka dhyan nahin gaya, shayad isliye ki kahani ka naam Anamika hai aur ise maine ek love story kaha hai. Lekin yeh Harnam Singh ki bhi love story hai, apne bete ke prati, jise ve uss gandi basti ke ek kone me chhippaye baithe hain.
Raha kahani ke ant ka vishay, Aman ka khat hamesha se hi ek suicide note tha, isliye iss kahani ka sukhad ant hona namumkin tha. Aakhiri post karne se pehle ek baar maine socha tha ki ant ko badal du, lekin fir mujhe laga ki justice nahi ho paayegi. Lekin readers ke comments padhne ke baad maine ek poll add kiya hai taaki unki bhi raay jaan sakun.
Hum-umra kirdaro ke ghum me itna kho gayi ke kya bataunaur jahan koi apna baccha kho deta hai, meri sochne samjhne ki khsamta wahi khatam ho jati hai
Mai apki baat samajh gayi, It's been a pleasure reading your story Lews
It's Miss, and looking forward to read your stories in near future and USCSure. I can understand the kid part. I had tears when I was writing it. Anyways cannot promise that the pain will be any less in the next one, but hoping that by then there will be some good readers joining my threads. Thanks for your time and review as well Miss (or Mrs., I won't know).