द्वितीय अध्याय : घर वापसी
मैं तीन साल का था तब एक दिन गाँव से पिताजी को तार आया| दिल्ली में जहाँ पिताजी शादी से पहले रहा करते थे, वहीं से बड़के दादा ने पिताजी का नया पता ढूँढ निकाला था और आज तीन साल बाद उन्होंने तार दे कर उन्हें मिलने बुलाया था| तार पढ़ते ही पिताजी फूले नहीं समाये और तुरंत मुझे और माँ को ले कर गाँव पहुँच गए| मैं तब माँ की गोद में था, बड़की अम्मा (बड़के दादा की पत्नी) ने मुझे देखते ही अपनी गोद में ले लिया था और मेरे चेहरे को चूमना शुरू कर दिया था| बड़के दादा ने माँ-पिताजी को माफ़ कर दिया था और ख़ुशी-ख़ुशी अपना लिया था| पिताजी को जब माझिले दादा की करनी का पता लगा तो उन्हें बहुत बड़ा झटका लगा और उन्होंने सोच लिया की कभी न कभी वो उन्हें ढूँढ कर उनसे बात अवश्य करेंगे|
बड़के दादा के पाँचों बच्चे बड़े हो गए थे और एक-एक कर सब ने माँ-पिताजी के पाँव छुए और आशीर्वाद लिया| मैं चूँकि घर में सबसे छोटा था तो मुझे सब का लाड-प्यार मिलने लगा था| बड़के दादा के साथ मेरा उतना लगाव नहीं था जितना होना चाहिए था, पर देखा जाए तो उनका लगाव बच्चों से अधिक था भी नहीं! बहरहाल बड़के दादा का मेरे पिताजी को घर बुलाने का कारन कुछ और था| दरअसल उन्हें एक बड़ा घर बनाना था और सिवाए मेरे पिताजी के और कोई नहीं था जो उनकी मदद करता| मेर पिताजी तो थे ही अपने भाई के प्यार में अंधे तो जैसे-जैसा बड़के दादा कहते गए वैसे-वैसे पिताजी करते गए और इस तरह 5 कमरों का एक बड़ा घर तैयार हुआ जिसे बनाने में पिताजी की पाई-पाई लगी| एक कमरा हमारा था, एक बड़के दादा और बड़की अम्मा का, एक कमरा चारों भतीजों का क्योंकि अभी उनकी शादी नहीं हुई थी, और बाकी में अनाज भर दिया गया था|
खेर मैं बड़ा होने लगा था और अब स्कूल जाने लगा था| धीरे-धीरे मैं बड़ी क्लास में आगया और पिताजी का बर्ताव मेरे प्रति कठोर होता गया| पिताजी मुझे हिंदी और गणित पढ़ाया करते और ऐसा पढ़ाते की मेरे आँसू निकाल दिया करते! जब भी मैं गलती करता तो पिताजी बहुत झाड़ते, इतना झाड़ते के पड़ोसियों तक को पता चल जाता की पिताजी मेरी क्लास ले रहे हैं! माँ चुप-चाप देखती रहती, कहती भी क्या क्योंकि पिताजी के आगे तो उनकी चलती नहीं थी! पढ़ाई के साथ-साथ पिताजी ने मेरे अंदर शिष्टाचार कूट-कूट कर भरने शरू कर दिए थे, कूट-कूट के भरने से मेरा मतलब है पीट-पीट कर! अपने से बड़ों से कैसे बात करते हैं, कोई पैसे दे तो नहीं लेना, अपने से बड़ों के पाँव छूना और हाथ जोड़ कर उन्हें नमस्ते कहना, तू-तड़ाक से बात न करना, गालियाँ या अपशब्द इस्तेमाल न करना, सबसे 'जी' लगा कर बात करना, खाना बर्बाद न करना, मन लगा कर पढ़ना, आवारागर्दी नहीं करना, बिना बताये कोई काम नहीं करना आदि! पिताजी की सख्ती के कारन ही मैं खेल में कम और पढ़ाई में ज्यादा मन लगाया करता, पर इस सब के बावजूद कभी-कभी गलती कर दिया करता और पिताजी बहुत भड़क जाते| पर एक गुण अवश्य था मुझमें, जो गलती एक बार कर देता था उसे दुबारा कभी नहीं करता था| मेरे जैसा आज्ञाकारी बच्चा पूरे मोहल्ले में नहीं था, जब कभी पिताजी मुझे मेरी की गलती पर सब के सामने डाँटते तो मेरी गर्दन शर्म से झुक जाती जो ये दर्शाता था की मैं अपने पिताजी का कितना मान करता हूँ| यही कारन था की मोहल्ले वाले पिताजी की बड़ाई करते नहीं थकते थे की उन्होंने कैसे आज्ञाकारी पुत्र की परवरिश की है और पिताजी को ये सुन कर खुद पर बहुत गर्व होता|
स्कूल में जब गर्मियों की छुटियाँ होती तो पिताजी मुझे और माँ को गाँव ले जाय करते और वहाँ के लोग जब मेरा आचरण देखते तो पिताजी की छाती गर्व से चौड़ी हो जाती| वहाँ के बच्चों के उलट मैं सबसे बड़े प्यार और आदर से बात करता था| जिद्दी नहीं था, शर्मीला था, धुल-मिटटी में नहीं खेलता था, माँ-पिताजी की सारी बातें सुना और माना करता था|
मैं 4 साल का था की बड़के दादा ने चन्दर भैया की शादी के लिए पिताजी को घर बुलाया| शादी का सारा इंतजाम उन्होंने मेरे पिताजी के सर डाल दिया जिसे मेरे पिताजी ने अच्छी तरह से निभाया| गाँव में शादी-ब्याह के अवसर पर घर में रिश्तेदारों का ताँता लग जाता है| फिर मेरे पिताजी जो की दिल्ली में रहते थे, जिनका अपना घर था दिल्ली में और जिनका ठेकेदारी का काम अब काफी बढ़ और फ़ैल चूका था| उनकी बराबरी करने वाला पूरे खानदान में कोई नहीं था, जब शादी का सारा इंतजाम उनके सर पड़ा तो परिवार में उनकी इज्जत कई गुना बढ़ गई, घर का हर काम उनसे पूछ कर किया जाने लगा| इतनी इज्जत और शोहरत के बाद भी पिताजी का अपने बड़े भाई और भाभी के प्रति आदर भाव बना रहा| इधर बड़की अम्मा ने मुझे एक दिन अपने पास बिठाया और बोलीं; "मुन्ना बहुत जल्द तोहार खतिर एक ठो नीक-नीक भौजी आई!" (बहुत जल्दी तेरे लिए एक सुन्दर-सुन्दर भाभी आएगी|)
मुझे तब गाँव की भाषा समझ नहीं आती थी और अगर मुझे से कोई देहाती में बात करता तो मैं अपने माँ-पिताजी की तरफ देखने लगता था ताकि वो मुझे अनुवाद कर के बतायें| आज जब बड़की अम्मा ने मुझसे ये बात कही तो मेरे पल्ले नहीं पड़ी और मैं अपनी माँ की तरफ देखने लगा; "बड़की अम्मा कह रही हैं की अब बहुत जल्दी तेरी सुन्दर-सुन्दर भौजी आएँगी!" माँ ने बड़की अम्मा की बात का अनुवाद किया| बाकी सब तो मैं समझ गया पर ये 'भौजी' शब्द सुन मैं उलझ गया और सवालिया आँखों से माँ से पुछा; "भौजी मतलब?" ये सुन कर माँ और बड़की अम्मा हँस पड़े| "बेटाभौजी का मतलब होता है भाभी|" माँ ने हँसते हुए कहा| अब ये ऐसा शब्द था जो मैंने पहले सुन रखा था और मेरे छोटे से दिमाग के अनुसार इसका मतलब होता था अपने से किसी बड़े भैया की पत्नी पर पत्नी क्या होती ये मुझे नहीं पता था! ये कौन से वाला भैया की पत्नी होंगी इससे मुझे कोई मतलब नहीं था, मैं तो यही सोच कर खुश था की कोई नई-नई चीज घर में आने वाली है| खेर धीरे-धीरे मुझे पता चल ही गया की चन्दर भैया की शादी होने वाली है|
शादी का दिन आया और बरात ले कर हम नई भाभी के घर पहुँचे, भाभी का घर यानी चन्दर भैया का ससुराल बहुत दूर नहीं था| यही कोई २-३ किलोमीटर होगा, पर पिताजी ने शादी का इंतजाम बिलकुल शहरी तरीके से किया था| हमारे यहाँ बरात में औरतें नहीं जाती, केवल मर्द जाते हैं| इसलिए घर पर सभी औरतें रुकी हुई थीं और पिताजी मुझे अपनी गोद में लेकर बड़के दादा के साथ चल रहे थे| गाजे-बाजे के साथ हम पहुँचे और वहाँ हमारा बहुत स्वागत हुआ| भाभी के परिवार में मेरा परिचय 'दिल्ली वाले काका' के लड़के के रूप में हुआ| सभी रस्में निभाई गईं और इस पूरे दौरान मैं पिताजी के साथ रहा| नई जगह थी और मैं किसी को जानता भी नहीं था, जिसे जानता भी था मतलब की मेरे बुआ के बच्चे या मौसा के बच्चे उनके साथ खो जाने के डर से नहीं गया| विवाह की रस्में खत्म होने के बाद भोजन हुआ जिसमें सारे भाई साथ बैठे थे| मैं चूँकि सबसे छोटा था और पिताजी से चिपका हुआ था इसलिए मैं वहाँ नहीं बैठा| मैंने पिताजी के साथ बैठ कर ही भोजन किया और उन्हीं के साथ सो गया| अगली सुबह सब उठे, मुँह-हाथ धो के सब तैयार हुए और सब ने चाय-नाश्ता किया| अब बारी थी विदा लेने की पर भाभी की विदाई नहीं हुई थी| सारे बाराती ख़ुशी-ख़ुशी वापस आ गए थे और मैं सोच-सोच कर हैरान था की आखिर नई वाली भाभी को क्यों नहीं लाये? घर आ कर कुछ रस्में निभाई गईं और मैं अपने दोस्तों के साथ खेलने लगा| शाम को जब माँ मुझे दूध पिला रही थीं तो बुआ बुआ बोली; "छोटी! मुन्ना इतना बड़ा हो गया है और तू इसे अब भी दूध पिला रही है?" तभी पिताजी वहाँ आ गए और बोले; "दीदी मानु को अब भी माँ के दूध की आदत है, ना दो तो रोने लगता है!" ये सुन बुआ और कुछ नहीं बोलीं पर मेरा दूध पीना हो गया था तो मैं उठ के बैठ गया और बोला; "पिताजी....नई भाभी कहाँ है?" मेरी बात सुन कर सारे लोग हँस पड़े और तब मुझे मेरे पिताजी ने गौने के बारे में समझाया| "बेटा शादी के बाद शहर की तरह बहु को घर नहीं लाया जाता| यहाँ के रिवाज के अनुसार ३ साल या ५ साल के बाद ही बहु को घर लाया जाता है|" पिताजी की ये बात मेरे सर के ऊपर से गई पर उन्हें दिखाने के लिए मैंने हाँ में सर हिलाया जैसे मैं सब समझ गया हूँ जबकि ये बात मुझे बड़ा होने के बाद समझ आई| गाँव में कम उम्र में ही शादी कर दिया करते थे, जिस वक़्त चन्दर भैया की शादी हुई वो मात्र १६ साल के थे और भाभी की उम्र १४ साल थी| इस उम्र में लड़के और लड़की का जिस्म पूरी तरह परिपक्व नहीं होता और इसी कारन से गौना किया जाता था, ताकि गौना होने तक दोनों ही व्यक्ति पूरी तरह परिपक्व हो जाएँ और अपने जीवन की गाडी चला सकें|
है तो ये अन्याय ही पर गाँव-देहात में इन कानूनों को कोई नहीं मानता! उनके लिए तो लड़की का जन्म एक बोझ माना जाता है और लड़के का जन्म वंश बेल को आगे बढ़ाने वाला समझा जाता है| इसी कारन से लड़कियों की शादी जल्दी कर दी जाती है ताकि शादी के कर्ज से पिता निजात पा सके, वरना बढ़ती महँगाई में एक गरीब बाप कैसे अपनी बेटी की शादी करेगा?