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Fantasy कटोरा भर खून (by hirak01)

# यह कहानी कैसा लगा आपको ?

  • बहुत अच्छा

  • अच्छा

  • अच्छा ही था

  • मैं कहानी को समझ ही कही पा रहा हु तो क्या ही कहूं।


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hirak01

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Index
खंड - 01अ (आरंभ)
खंड -01ब (प्रेम)
खंड - 02अ (हत्या - एक शाजिस......01)
खंड -02ब(हत्या - एक शाजिस.....02)
खंड - 03 (कैदी और डाकू नाहरशिंह और चिट्ठी)
खंड - 04 (बाबू साहब और नाहर सिंह)
खंड - 05 (चिट्ठी में छुपा एक राज)
खंड - 06 (करन सिंह की कहानी और बीरसिंह के भाई और बहन )
खंड - 07 (एक छल और बीरसिंह की जान खतरे में)
खंड - 08 (बीरसिंह बच गया, बाबू साहब मिले नाहर सिंह और खड़ग सिंह से)
खंड - 09 (तारा जिंदा है, कहानी कटोरा भर खून की)
खंड - 10(आताताई का अंत और एक खुशहाली भरा समाप्ति)


****THE END****
 
Last edited:

Ajju Landwalia

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खंड - 02ब

अपनी जान की फिक्र सभी को होती है, चाहे भाई- बंधु हो, रिश्तेदार हों या नौकर,जो समय पर काम आता है वही आदमी है, वही रिश्तेदार है, और वही भाई है। कुंअर साहब की लाश देख और बीरसिंह को आफत में फंसा जानकर धीरे-धीरे नौकरानियों ने खिसकना शुरू कर दिया, कई तो तारा को खोजने का बहाना करके चली गईं, कई तो यह कह कर चली गई की ‘देखें इधर कोई छिपा तो नहीं है”और यह बात कहकर इसी बात के आड़ में हो गई और मौका पा अपने घर में जा छिपी, और कोई बिना कुछ कहे बिना शोर किए सामने से हट गईं और पीछा होकर भाग गई।


अगर किसी दूसरे की लाश होती तो शायद किसी तरह बचने की उम्मीद भी होती मगर यहाँ तो महाराज के लड़के की लाश थी— पता नही इसके लिए कितने आदमी मारे जाएंगे, ऐसे मौके पर मालिक का साथ देना बड़े अपने जान को दांव पर लगाने वाला काम है। हाँ, अगर मर्दों की मण्डली होती तो शायद दो-एक आदमी रह भी जाते मगर औरतों का इतना बड़ा कलेजा कहाँ? अब उस लाश के पास केवल बेचारा बीरसिंह रह गया। वह आधे घण्टे तक उस जगह खड़ा कुछ सोचता रहा, आखिर उस लाश को उठा कर अपने बंगले के एक तरफ चल दिया , जिधर लोगों की आना जान भी बहुत कम होता था।


बीरसिंह ने वहां उस लाश को एक जगह रख दिया और वहाँ से लौट कर उस तरफ गया, जिधर मालियों के रहने के लिए एक कच्चा मकान जो की घास फूस का बना हुआ था। आसमान में बादल तो पहले से ही थे लेकिन अब बिजली चमकने के साथ साथ छोटी-छोटी बूंदें भी पड़ने लगीं थीं।


बीरसिंह एक माली की झोपड़ी में पहुँचा। माली को गहरी नींद में पाया। एक तरफ कोने में दो-तीन कुदाल और फावड़े पड़े हुए थे। बीरसिंह ने एक कुदाल और एक फावड़ा उठा लिया और फिर उस जगह पर गया जहाँ लाश छोड़ आया था। इस समय तक वर्षा अच्छी तरह होने लगी थी और चारों तरफ अन्धकारमय हो रहा था। कभी-कभी बिजली चमकती थी तो जमीन दिखाई दे जाती, नहीं तो एक पैर भी कीचड़ में आगे रखना मुश्किल था।


इस काली अंधेरी रात में बीरसिंह को उस लाश का पता लगाना कठिन हो गया,क्योंकि जिस जगह पर उसने लाश को रखा था वह लाश नही थी। वह चाहता था कि जल्द से जल्द उस लाश के पास वह पहुंच कर कुदाल से जमीन खोदे ओर जहाँ तक जल्द हो सके उसे जमीन में गाड़ दे, मगर यह न हो सका, क्योंकि इस अंधेरी रात में हजार ढूँढ़ने और सर पटकने पर भी वह लाश न मिली। जब-जब बिजली चमकती, वह उस निशान को अच्छी तरह पहिचानता, जिसके पास उस लाश को छोड़ गया था मगर ताज्जुब की बात थी कि लाश उसे दिखाई न पड़ी।


पानी ज्यादा बरसने के कारण बीरसिंह को कष्ट उठाना पड़ा, एक तो तारा की फिक्र ने उसे बेकाबू कर दिया था दूसरे कुंअर साहब की लाश न पाने से वह अपनी जिन्दगी से भी नाउम्मीद हो गया था और अब वह अपने को तारा का पता लगाने लायक भी नहीं समझता पा रहा था उसकी मानसिक स्थिति इस समय बहुत ज्यादा ही खराब हो गई थी। बेशक, उसे अपने मालिक महाराज और कुंअर साहब से बहुत मुहब्बत थी, मगर इस समय वह यही चाहता था कि कुंअर साहब की लाश छिपा दी जाये और असली खूनी का पता लगाने के बाद ही यह भेद सभी को बताया जाये। लेकिन यह न हो सका, क्योंकि कुंअर साहब की लाश जब तक वह कुदाल लेकर वहां पर आता की इसी बीच में लाश वह से आश्चर्य रूप से गायब हो गई थी।


बीरसिंह हैरान और परेशान सा होकर इधर उधर उस लाश को चारों तरफ खोज रहा था, पानी से उसकी पोशाक बिल्कुल भींग थी। यकायक बाग के फाटक की तरफ उसे कुछ रोशनी नजर आई और वह उसी तरफ देखने लगा। वह रोशनी भी उसी की तरफ आ रही थी। जब बाग के अन्दर पहुँची, तो मालूम हुआ कि दो मशालों(लालटेन) की रोशनी में कई आदमी मोमजामे का छाता लगाये और मशालों को भी छाते की आड़ में लिए बंगलो की तरफ जा रहे है।


यह सही समय नही था लाश को ढूंढने का तो बीरसिंह वहाँ से हटा और जल्दी से उन आदमियों को पहुंचने से पहले ही उन आदमियों के पहले ही अपने बंगले में जा पहुंचा। अपने बंगले में जल्दी से पहुंचकर अपने गीले कपड़े उतार दिये और सूखे कपड़े पहनने ही वाला था कि रोशनी लिये वे लोग बंगले के गेट से होते हुए वह अंदर प्रवेश कर गए ।


बीरसिंह केवल सूखी धोती पहन कर उन लोगों के सामने आया। सभी ने झुक कर सलाम किया । इन आदमियों में दो महाराज करनसिंह के खास लोग के साथ बाकी के आठ महाराज के खास गुलाम थे। महाराज करनसिंह के यहाँ बीरसिंह की अच्छी इज्जत थी। यही कारण था कि महाराज के खास लोग भी बीरसिंह का इज्जत करते थे। (बीरसिंह की इज्जत और मिलनसारी तथा नेकियों का हाल आगे चलकर मालूम होगा।।)


बीर० : [दोनों खास लोगो की तरफ देख कर) आप लोगों को इस समय ऐसे आंधी-तूफान में यहाँ आने की जरूरत क्यों पड़ी?


एक खास आदमी : महाराज ने आपको याद किया है।


बीर० : कुछ कारण भी मालूम है?


खास आदमी : जी हाँ, महाराज के दुश्मनों से संबंधित सरकार (दुश्मनों का दमन करने वाली संस्थान) ने कुछ बुरी खबर सुनाई है इससे वह बहुत ही बेचैन हो रहे हैं।


बीर० : ( चौंक कर ) बुरी खबर? और वह क्या है ?


खास आदमी : (एक गहरी सांस लेकर) यही कि कुंवर सूरज सिंह की जिन्दगी शायद नहीं रही।


बीर० : (कांप कर) क्या ऐसी बात है?


खास आदमी : जी हाँ।


बीर० : मैं अभी चलता हूँ।


कपड़े पहनने के लिए बीरसिंह अपने कमरे में गया । इस समय बंगले में कोई भी नौकरानी मौजूद नहीं थी जो कुछ काम करती। बीरसिंह की परेशानी का हाल लिखना इस किस्से को व्यर्थ बढ़ाना है। तो भी पाठक लोग ऊपर का हाल पढ़ कर जरूर समझ गये होंगे कि उसके लिए यह‌ समय कैसा कठिन और भयानक था। बेचारे को इतनी मोहलत भी न मिली कि अपनी पत्नी तारा का पता तो लगा लेता, जिसे वह अपनी जान से भी ज्यादे चाहता और मानता था।


बीरसिंह कपड़े पहन कर महाराज के खास आदमियों और बाकी के आठ आदमियों के साथ रवाना हुआ। इस समय पानी का बरसना बिल्कुल बन्द हो गया था और रात एक पहर से भी कम रह गई थी। बीरसिंह खास महल की तरफ जा रहा था मगर तरह-तरह के खयालों को अपने दिमाग में आने से उसने बाहर रक्खा अर्थात्‌ वह अपने विचारों में ऐसा लीन हो रहा था कि तन-बदन की सुध न थी, केवल मशाल की रोशनी में महाराज के आदमियों के पीछे चलता जा रहा था।


बीरसिंह कभी तो तारा के खयाल में डूब जाता और सोचने लगता कि वह अचानक तारा कहाँ गायब हो गई या मुसीबत में तो नही फंस गई? और कभी उसका ध्यान कुंअर साहब की लाश की तरफ जाता और यह जो ताज्जुब की बातें हो चुकी थीं, उन्हें याद कर और उनके नतीजे के साथ अपने और अपने रिश्तेदारों पर भी आफत आई हुई जान उसका मजबूत कलेजा कांप जाता, क्योंकि बदनामी के साथ अपनी जान देना वह बहुत ही बुरा समझता था और लड़ाई में वीरता दिखाने के समय वह अपनी जान की कुछ भी कदर नहीं करता था। इसी के साथ-साथ वह जमाने की चालबाजियों पर भी ध्यान देता था और अपनी नौकरानियों की नमक हलाली को याद कर क्रोध के मारे दांत पीसने लगता था। कभी-कभी वह इस बात को भी सोचता कि आज महाराज ने इतने आदमियों को भेजकर मुझे क्यों बुलवाया ?


इस काम के लिये तो एक अदना नौकर काफी था। खैर इस बात का तो ऐसे जवाब देकर अपने दिल को समझा देता कि इस समय महाराज पर आफत आई हुई है, बेटे के गम में उनका मिजाज बदल गया होगा, घबराहट के मारे बुलाने के लिए इतने आदमियों को उसके पास उसे बुलाने के लिए भेजा होगा।


इन्हीं सब बातों को सोचते हुए महाराज के आदमियों के पीछे-पीछे बीरसिंह जा रहा था। जब वह अंगूर की बाग के पास पहुंचा जिसका जिक्र कई दफे ऊपर आ चुका है या जिस जगह अपने निर्दयी बाप के हाथ में बेचारी तारा ने अपनी जान सौंप दी थी या जिस जगह कुंअर सूरज सिंह की लाश पाई गई थी तो यकायक दोनों मशालची रुके और चौंक कर बोले, “हैं! देखिए तो सही यह किसकी लाश है?”


इस आवाज ने सभी को चौंका दिया। दोनों खास आदमी के साथ बीरसिंह भी आगे बढ़ा और पटरी पर एक लाश पड़ी हुई देख ताज्जुब करने लगा ! चाहे यह लाश बिना सिर की थी, तो भी बीरसिंह के साथ-ही-साथ महाराज के आदमियों ने भी पहिचान लिया कि कुंअर साहब की लाश है। अब बीरसिंह के ताज्जुब का कोई ठिकाना न रहा, क्योंकि इसी लाश को उठा कर वह गाड़ने के लिए एकान्त में ले गया था और जब माली की झोंपड़ी में से कुदाल लेकर आया तो वहाँ से गायब पाया था। बहुत देर तक ढूँढने पर भी जो लाश उसे न मिली, अब यकायक उसी लाश को फिर उसी जगह पर देखता है, जहाँ पहिले देखा था या जहाँ से उठा कर गाड़ने के लिए एकान्त में ले गया था।


महाराज के आदमियों ने इस लाश को देख कर रोना और चिल्लाना शुरू किया। खूब ही गुल-शोर मचा। अपनी-अपनी झोंपड़ियों में बेखबर सोए हुए माली भी सब जाग पड़े और उसी जगह पहुंच कर रोने और चिल्लाने वाले में सामिल हो गए।


थोड़ी देर तक वहाँ हाहाकार मचा रहा, इसके बाद बीरसिंह ने अपने दोनों हाथों पर उस लाश को उठा लिया तथा रोता और आंसू गिराता महाराज की तरफ रवाना हुआ।


तो यहां पर खंड- 02 समाप्त होने के साथ साथ कई सवाल भी छोड़ जाता है की….


  1. आखिर तारा के साथ क्या हुआ क्या उसे उसके पिता ने मार दिया.
  2. कुंवर सूरज सिंह को किसने मारा.
  3. अचानक कुंवर की लाश वहां से कैसे गायब होकर फिर से वही आ गई थी जहां से बीरसिंह उठाकर ले गया था.
  4. क्या इतने आदमियों को एक आदमी को बुलाना कोई गहरी चाल का संकेत तो नही है…

इन सभी सवालों का जवाब जानने के लिए बने रहिए इस कहानी के साथ मिलते है इस कहानी के अगले खंड - 03 में तब तक आप अपनी राय और यह खंड कैसा लगा उसके बारे में बताना और इस खंड को लाइक करना ना भूले…..

Bahut hi badhiya update he hirak01 Bhai,

Abhi to sawalo ka ambar khada he.............shayad agli update ke koi raaj khule

Keep posting Bhai
 

hirak01

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Next update morning karib 9 baje milega....
 

hirak01

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खंड - 03

रात की बात ही निराली होती है लेकिन यही रात कभी कभी बहुत हो मन को लुभावनी होती है तो यही रात इतना भयंकर होती है की बड़े बड़े सुरमाओ की जान हलक में रहती , इस भयानक रात को इस शहर की सबसे बड़ी किला/हवेली (राजमहल कह सकते है ) जो इस राज्य के राजा की हवेली है इसी हवेली के एक मील दूर एक कैदखाना है जिस कैदखाने में दिन को भी अंधेरा ही रहता है;यह कैदखाना एक तहखाने के तौर पर बना हुआ है,जिसके चारों तरफ की दीवारें पक्की और मजबूत हैं। किले/हवेली से एक मील की दूरी पर बने इस कैदखाना में गंभीर अपराधियों को रखा जाता है। लोगों में यह कैदखाना ‘आफत का घर’ के नाम से मशहूर था। जो अपराधी फाँसी देने के योग्य समझे जाते या बहुत ही कष्ट देकर मारने योग्य ठहराये जाते थे इसमें वे ही कैदी कैद किए जाते थे। इस कैदखाने के हर दरवाजे पर पचास सिपाहियों का पहरा पड़ा करता था, क्योकी इस कैदखाने पर लगभग इस राज्य के के ३% सैनिको का पहरा रहता है जो इस कैदखाने को सबसे शुदृढ और अभेदय बनता है, नीचे उतरकर तहखाने में जाने के लिए पाँच मजबूत दरवाजे थे और हर एक दरवाजे में मजबूत ताला लगा रहता था। इस तहखाने में न-मालूम कितने कैदी सिसक-सिसक कर मर चुके थे। इसी कैदखाने में एक व्यक्ति (इसे हम कैदी कहकर पुकारेंगे )अपने दोनों घुटनों को मोड हुए था और घुटनों में अपने सर को छुपाया हुआ इस समय इस कैदी की अवस्था बहुत ही नाजुक थी । कैदी अपनी बेकसूरी को न साबित करने करने का मलाल अपने दिल में लिए हुए था। इसके अतिरिक्त न-मालूम और कैसे-कैसे खयालात इसके दिल में काँटे की तरह खटक रहे हैं। तहखाना बिलकुल अन्धकारमय है,हाथ को हाथ नहीं सूझता और यह भी नहीं मालूम होता कि दरवाजा किस तरफ है और दीवार कहाँ है?

इस जगह कैद हुए कैदी का आज चौथा दिन है। इस बीच में केवल थोड़ा-सा सूखा चना खाने के लिए और गरम जल पीने के लिए इन्हें मिला था,मगर कैदी ने उसे छुआ तक नहीं और एक लम्बी साँस लेकर लौटा दिया था। इस समय गर्मी के मारे दुखित हो तरह-तरह की बातों को सोचते हुए बेचारा कैदी,जमीन पर बैठा हुआ ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था । इसे यह भी नहीं मालूम कि इस समय दिन है या रात।

यकायक जिस दीवार से लगकर यह कैदी बैठा था उस दीवार की तरफ से कुछ खटके की आवाज हुई,जिससे कैदी चौकन्ना होकर उठ बैठा और सोचने लगा कि शायद कोई सिपाही हमारे लिए अन्न या जल लेकर आ रहा होगा पर इस तरफ तो कोई दरवाजा है नहीं यही बात कैदी के दिमाग में विचार आया पर उसने सोचा की मुझे उससे क्या – मगर नहीं,थोड़ी ही देर में कई दफे आवाज आने से कैदी को लगाने लगा की शायद कोई इस तहखाने की दीवार को तोड़ रहा है या सेंध लगा रहा है।
आखिर उनका सोचना सही निकला और थोड़ी देर बाद दीवार के दूसरी तरफ रोशनी नजर आई। साफ मालूम हुआ कि बगल वाली दीवार तोड़ कर किसी ने दो हाथ के चौडाई (दो हाथ यानि लगभग ३ फिट होता है) का रास्ता बना लिया है। अभी तक उस कैदी का इस बात का अंदाजा भी नहीं था कि उनसे उससे मिलने के लिए कोई आदमी इस तरह दीवार तोड़ कर आवेगा (क्योंकि कैदखाने में उस कैदी के आलावा कोई दूसरा कैदी नहीं था)। उस सेंध के रास्ते हाथ में रोशनी लिए एक लम्बे कद का आदमी गहरे काले रंग का पोशाक पहिरे मुँह पर नकाब डाले कैदी के सामने आ खड़ा हुआ और बोला :

आदमी : मैं तुम्हें छुड़ाने के लिए यहाँ आया हूँ,उठो और मेरे साथ यहाँ से निकल चलो।

कैदी : इसके पहिले कि तुम मुझे यहाँ से छुड़ाओ,मैं जानना चाहता हूँ कि तुम्हारा नाम क्या है और मुझ पर मेहरबानी करने का क्या सबब(कारण) है?

आदमी : इस समय यहाँ पर इसके पूछने की कोई जरूरत नहीं,क्योंकि समय बहुत कम है। यहाँ से निकल चलने पर मैं अपना पता तुम्हें दूँगा, इस समय इतना ही कहे देता हूँ कि तुम्हें बेकसूर समझ कर छुड़ाने के लिए आया हूँ।

कैदी : सब आदमी जानते हैं कि मुझ पर ******* का खून साबित हो चुका है,तुम मुझे बेकसूर क्यों समझते हो?

आदमी : मैं खूब जानता हूँ कि तुम बेकसूर हो।

कैदी : खैर,अगर ऐसा भी हो तो यहाँ से छूट कर भी मैं महाराज के हाथ से अपने को क्या बचा सकता हूँ?

आदमी : मैं इसके लिए भी बन्दोबस्त कर चुका हूँ।

कैदी : अगर तुमने मेरे लिए इतनी तकलीफ उठाई है तो क्या मेहरबानी करके इसका बन्दोबस्त भी कर सकोगे कि निर्दोषी बन कर लोगों को अपना मुँह दिखाऊँ और ******* का खूनी गिरफ्तार हो जाये? क्योंकि यहाँ से निकल भागने पर लोगों को मुझ पर और भी सन्देह होगा,बल्कि विश्वास हो जाएगा कि जरूर मैंने ही ***** को मारा है।

आदमी : तुम हर तरह से निश्चित रहो,इन सब बातों को मैं अच्छी तरह सोच चुका हूँ,बल्कि मैं कह सकता हूँ कि तुम अपनी पत्नी के लिए भी किसी तरह की चिन्ता मत करो।

कैदी : (चौंककर) क्या तुम मेरे लिए ईश्वर होकर आए हो! इस समय तुम्हारी बातें मुझे हद से ज्यादा खुश कर रही हैं!

आदमी : बस इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कहा चाहता ओर हुक्म देता हूँ कि तुम उठो और मेरे पीछे-पीछे आओ।

कैदी उठा और उस आदमी के साथ-साथ सुरंग(सेंध) की रास्ते तहखाने के बाहर हो गया। अब मालूम हुआ कि कैदखाने की दीवारों के नीचे-नीचे से यह सुरंग खोदी गई थी वह कुछ और सोच रहा था क्योंकि वह व्यक्ति दीवाल तोड़कर आया था पर नहीं उस व्यक्ति ने सेंध मारा था लेकिन वह उसके पिछले वाले कैदखाने में निकला था और उसके बाद वह उस कैदी के कैदखाने वाले दीवाल को तोडा है क्योंकि वह पहले ही आश्वश्त हो जाना चाहता था की कैदी के पास कोई है तो नहीं।
बाहर आने के बाद कैदी ने सुरंग के मुहाने पर चार आदमी और मुस्तैद(पह्र्दारी करते) पाये जो उस लम्बे आदमी के साथी थे। ये छः आदमी वहाँ से रवाना हुए और ठीक घण्टे-भर चलने के बाद एक छोटी नदी के किनारे पहुँचे। वहाँ एक छोटी सी डोंगी मौजूद थी, जिस पर आठ आदमी हल्की-हल्की डांड लिए मुस्तैद थे।

अपने साथी के कहे मुताबिक कैदी उस किश्ती पर सवार हो गया और किश्ती बहाव की तरफ छोड़ दी गई। अब कैदी को मौका मिला कि अपने साथियों की ओर ध्यान दे और उनकी आकृति को देखे। लंबे कद के आदमी ने अपने चेहरे से नकाब हटाई और कैदी के नाम लेते हुए कहा, “**** ! देखो और मेरी सूरत हमेशा के लिए पहिचान लो!”

कैदी ने उसकी सूरत पर ध्यान दिया। रात बहुत थोड़ी बाकी थी तथा चन्द्रमा भी निकल आया था, इसलिए कैदी को उसको पहिचानने ओर उसके अंगों पर ध्यान देने का पूरा-पूरा मौका मिला।

उस आदमी की उम्र लगभग पैंतीस वर्ष की होगी। उसका रंग गोरा,बदन साफ सुडौल और गठीला था,चेहरा कुछ लंबा,सिर के बाल बहुत छोटे और घुंघराले थे। ललाट चौड़ा,भौंहें काली और बारीक थीं,आँखें बड़ी-बड़ी और नाक लंबी,मूँछ के बाल नर्म मगर ऊपर की तरफ चढ़े हुए थे। उसके दाँतों की पंक्ति भी दुरुस्त थी। उसके दोनों होंठ नर्म मगर नीचे का कुछ मोटा था। उसकी गरदन सुराहीदार और छाती चौड़ी थी। बाँह लम्बी और कलाई मजबूत थी तथा बाजू और पिण्डलियों की तरफ ध्यान देने से बदन कसरती मालूम होता था। हर बातों पर गौर करके हम कह सकते हैं कि वह एक खूबसूरत और बहादुर आदमी था। कैदी को उसकी सूरत दिल से भाई,शायद इस सबब(कारण) से कि वह बहुत ही खूबसूरत और बहादुर था,बल्कि अवस्था के अनुसार कह सकते हैं कि कैदी की बनिस्बत उसकी खूबसूरती बढ़ी-चढ़ी थी,मगर देखा जाये की नाम सुनने पर भी कैदी की मुहब्बत उस पर उतनी ही रहती है या कुछ कम हो जाती है।

कैदी : आपकी नेकी और अहसान की तारीफ मैं कहाँ तक करूँ! आपने मेरे साथ वह बर्ताव किया है जो प्रेमी भाई भाई के साथ करता है,आशा है कि अब आप अपना नाम भी मुझे बताकर कृतार्थ करेंगे।

आदमी : (चेहरे पर नकाब डालकर) मेरा नाम नाहरसिंह है।

कैदी : (चौंक कर) नाहरसिंह! जो डाकू के नाम से मशहूर है!

नाहर० : हाँ।

कैदी : (उसके साथियों की तरफ देख कर और उन्हें मजबूत और ताकतवर समझ कर) मगर आपके चेहरे पर कोई भी निशानी ऐसी नहीं पाई जाती,जो आपका डाकू या जालिम होना साबित करे। मैं समझता हूँ कि शायद नाहरसिंह डाकू कोई दूसरा ही आदमी होगा।

नाहर० : नहीं नहीं,वह मैं ही हूँ,मगर सिवाय महाराज के और किसी के लिए मैं बुरा नहीं। महाराज ने तो मेरी गिरफ्तारी का हुक्म दिया था न?

वीर० : ठीक है,मगर इस समय तो मैं ही आपके अधीन हूँ।

नाहर० : ऐसा न समझो;अगर तुम मुझे गिरफ्तार करने के लिए कहीं जाते और मेरा सामना हो जाता,तो भी मैं तुम से आज ही की तरह मिल बैठता। कैदी,तुम यह नहीं जानते कि यह राजा कितना बड़ा शैतान और बदमाश है! बेशक,तुम कहोगे कि उसने तुम्हारी परवरिश की और तुम्हें बेटे की तरह मान कर एक ऊंचा मर्तबा (स्थान) दे रक्खा है,मगर नहीं,उसने अपनी खुशी से तुम्हारे साथ ऐसा बर्ताव नहीं किया,बल्कि मजबूर होकर किया। मैं सच कहता हूँ कि वह तुम्हारा जानी दुश्मन है। इस समय शायद तुम मेरी बात न मानोगे,मगर मैं विश्वास करता हूँ कि थोड़ी ही देर में तुम खुद कहोगे कि जो मैं कहता था,सब ठीक है।

कैदी : (कुछ सोच कर) इसमें तो कोई शक नहीं कि राजाओं में जो-जो बातें होनी चाहिये, वे उसमें नहीं हैं मगर इस बात का कोई सबूत अभी तक नहीं मिला कि उसने मेरे साथ जो कुछ नेकी की, लाचार होकर की।

नाहर० : अफसोस कि तुम उसकी चालाकी को अभी तक नहीं समझे,यद्यपि **** साहब की लाश की बात अभी बिल्कुल ही नई है!

कैदी : **** साहब की लाश से क्या तात्पर्य? मैं नहीं समझा।

नाहर० : खैर,यह भी मालूम हो जाएगा,पर अब मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ कि तुम मुझ पर सच्चे दिल से विश्वास कर सकते हो या नहीं?देखो,झूठ मत बोलना,जो कुछ कहना हो साफ-साफ कह दो।

कैदी : बेशक,आज की कार्रवाई ने मुझे आपका गुलाम बना दिया है,मगर में आपको अपना सच्चा दोस्त या भाई उसी समय समझूँगा,जब कोई ऐसी बात दिखला देंगे,जिससे साबित हो जाये कि महाराज मुझसे खटास (दुश्मनी) रखते हैं।

नाहर० : बेशक,तुम्हारा यह कहना बहुत ठीक है और जहाँ तक हो सकेगा मैं आज ही साबित कर दूँगा कि महाराज तुम्हारे दुश्मन हैं और स्वयं तुम्हारे ससुर सुजनसिंह के हाथ से तुम्हें तबाह किया चाहते हैं।

कैदी: यह बात आपने और भी ताज्जुब की कही!

नाहर० : इसका सबूत तो तुमको तुम्हारी पत्नी ही से मिल जाएगा। ईश्वर करे,वह अपने बाप के हाथ से जीती बच गई हो!

कैदी : [चौंक कर) अपने बाप के हाथ से?

नाहर०: हाँ,सिवाय सुजनसिह के ऐसा कोई नहीं है,जो तुम्हारी पत्नी की जान ले। तुम नहीं जानते कि तीन आदमियों की जान का भूखा राजा करनसिंह कैसी चालबाजियों से काम निकाला चाहता है।

कैदी : (कुछ सोच कर) आपको इन बातों की खबर कैसे लगी? मैंने तो सुना था कि आपका डेरा नेपाल की तराई में है और इसी से आपकी गिरफ्तारी के लिए मुझे वहीं जाने का हुक्म हुआ था!

नाहर० : हाँ,खबर तो ऐसी ही है कि नेपाल की तराई में रहता हूँ मगर नहीं,मेरा ठिकाना कहीं नहीं है और न कोई मुझे गिरफ्तार नहीं कर सकता है। खैर,यह बताओ,तुम कुछ अपना हाल भी जानते हो कि तुम कौन हो?

कैदी : महाराज की जुबानी मैंने सुना था कि मेरा बाप महाराज का दोस्त था और वह जंगल में डाकुओं के हाथ से मारा गया,महाराज ने दया करके मेरी परवरिश की और मुझे अपने लड़के के समान रक्खा।

नाहर० : झूठ। बिल्कुल झूठ माधरचोद को कही से यह सुनाई दे गया की अगर कोई व्यति अपनी माँ के पेट से पैदा नहीं हुआ है तो उसे शक्ति शाली बना दिया जायेगा तो वह यह कहने में तनिक भी नहीं हिचकिचाएगा की वह अपने मां के भोसड़े से नहीं पैदा हुआ है बल्कि अपने बाप के गांड से पैदा हुआ है ! (किनारे की तरफ देख कर) अब वह जगह बहुत ही पास है, जहाँ हम लोग उतरेंगे।

नाहरसिंह और कैदी में बातचीत होती जाती थी और नाव तीर की तरह बहाव की तरफ जा रही थी,क्योंकि खेने वाले बहुत मजबूत और मुस्तैद आदमी थे। यकायक नाहरसिंह ने नाव रोक कर किनारे की तरफ ले चलने का हुक्म दिया। माँझियों ने वैसा ही किया। किश्ती किनारे लगी और दोनों आदमी जमीन पर उतरे। नाहरसिंह ने एक माँझी की कमर से तलवार लेकर कैदी के हाथ में दी और कहा कि इसे तुम अपने पास रक्खो,शायद जरूरत पड़े। उसी समय नाहरसिंह की निगाह एक बहते हुए घड़े पर पड़ी जो बहाव की तरफ जा रहा था। वह एकटक उसी तरफ देखने लगा। घड़ा बहते-बहते रुका और किनारे की तरफ आता हुआ मालूम पड़ा। नाहरसिंह ने कैदी की तरफ देखकर कहा–“इस घड़े के नीचे कोई बला नजर आती है!

कैदी : बेशक,मेरा ध्यान भी उसी तरफ है,क्या आप उसे गिरफ्तार करेंगे?

नाहर० : अवश्य!

कैदी : कहिये तो मैं किश्ती पर सवार होकर जाऊँ और उसे गिरफ्तार करूँ?

नाहर०: नहीं नहीं,वह किश्ती को अपनी तरफ आते देख निकल भागेगा,देखो,मैं जाता हूँ।

इतना कह कर नाहरसिंह ने कपड़े उतार दिए,केवल उस लंगोट को पहरे रहा जो पहिले से उसकी कमर में था! एक छुरा कमर में लगाया और माँझियों को इशारा कर जल में कूद पड़ा। दूसरे गोते में उस घड़े के पास जा पहुँचा,साथ ही मालूम हुआ कि जल में दो आदमी हाथाबांहीं कर रहे हैं। माँझियों ने तेजी के साथ किश्ती उस जगह पहुँचाई और बात-की-बात में उस आदमी को गिरफ्तार कर लिया जो सर पर घड़ा औंधे अपने को छिपाये हुए जल में बहा जा रहा था।

सब लोग आदमी को किनारे लाये,जहाँ नाहरसिंह ने अच्छी तरह पहिचान कर कहा, “अख्आह, कौन! रामदास! अच्छा तो तू है रे माधरचोद आखिर पकड़ा ही गया खूब छिपा-छिपा फिरता था! अब समझ ले कि तेरी मैया चोदने का समय आ गया है और तू नाहरसिंह डाकू के हाथ से किसी तरह नहीं बच सकता!”

नाहरसिंह का नाम सुनते ही रामदास के तो होश उड़ गए,मगर नाहरसिंह ने उसे बात करने की भी फुरसत न दी और तुरन्त तलाशी लेना शुरू किया। मोमजामे (एक प्रकार का कपड़ा है जो पानी से बचाता है )में लपेटी हुई एक चीठी और खंजर उसकी कमर से निकला,जिसे ले लेने के बाद हाथ-पैर बाँध नाव पर माँझियों को हुक्म दिया,“इसे नाहरगढ़ में ले जाकर कैद करो, हम परसों आवेंगे,तब जो कुछ मुनासिब होगा,किया जायेगा।”

माँझियों ने वैसा ही किया और अब किनारे पर सिर्फ ये ही दोनों आदमी रह गए।

तो यह खंड यही समाप्त होता है और आप सभी पिछले खंड पढ़ा होगा तो पता चल ही गया होगा की कैदी आखिर है कौन तो फिर मिलते है अगले खंड में........
 

Smith_15

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खंड - 04

चारो तरफ घनघोर अँधेरा छाई हुई है, रात आधी से ज्यादा जा चुकी है, बादल गरज रहे हैं, बिजली चमक रही है, मूसलाधार पानी बरस रहा है, सड़क पर बित्ता-बित्ता-भर पानी चढ़ गया है, राह में कोई मुसाफिर चलता हुआ नहीं दिखाई देता। ऐसे समय में एक आदमी अपनी गोद में तीन वर्ष का लड़का लिए और उसे कपड़े से छिपाए, छाती से लगाए, मोमजामे के छाते से आड़ किये किले की तरफ लपका चला जा रहा हैं। जब कहीं रास्ते में आड़ की जगह मिल जाती है, अपने को उसके नीचे ले जाकर सुस्ता लेता है और तब न बन्द होने वाली बदली की तरफ कोई ध्यान न देकर पुन: चल पड़ता है।
यह आदमी जब किले के मैदान में पहुँचा, तो बाएँ तरफ मुड़ा जिधर एक ऊँचा शिवालय था। यह बेखौफ उस शिवालय में घुस गया और कुछ देर सभा-मण्डप में सुस्ताने का इरादा किया, मगर उसी समय वह लड़का रोने और चिल्लाने लगा, जिसकी आवाज सुनकर वहाँ का पुजारी उठा और बाहर निकल कर उस आदमी के सामने खड़ा होकर बोला, “कौन है, बाबू साहब?”
बाबू साहब : हाँ।
पुजारी : बहुत अच्छा किया जो आप आ गए। चाहे यह समय कैसा ही टेढ़ा क्यों न हो, मगर आपके लिए बहुत अच्छा मौका है।
बाबू साहब : (लड़के को चुप करा के) केवल इस लड़के की तकलीफ का ख्याल है।
पुजारी : कोई हर्ज नहीं, अब आप ठिकाने पहुँच गए। आइये, हमारे साथ चलिये।
उस शिवालय की दीवार किले की दीवार से मिली हुई थी और यह किला भी नाम ही को किला था, असल में तो इसे एक भारी इमारत कहना चाहिये, मगर दीवारें इसकी बहुत मजबूत और चौड़ी थीं। इसमें छोटे-छोटे कई तहखाने थे। यहाँ का राजा करनसिंह राठू बड़ा ही सूम और जालिम आदमी था, खजाना जमा करने और इमारत बनाने का इसे हद से ज्यादा शौक था। खर्च के डर से वह थोड़ी ही फौज से अपना काम चलाता और महाराज नेपाल के भरोसे किसी को कुछ नहीं समझता था, हाँ, नाहरसिंह ने इसे तंग कर रक्खा था, जिसके सबब से इसके खजाने में बहुत-कुछ कमी हो जाया करती थी।
वह पुजारी पानी बरसते हो में कम्बल ओढ़ कर बाबू साहब को साथ लिए किले के पिछवाड़े वाले चोर दरवाजे पर पहुँचा और दो-तीन दफे कुंडी खटखटाई। एक आदमी ने भीतर से किवाड़ खोल दिया और ये दोनों अन्दर घुसे। भीतर से दरवाजा खोलने वाला एक बुड्ढा चौकीदार था, जिसने इन दोनों को भीतर लेकर फिर दरवाजा बन्द कर दिया। पुजारी ने बाबू साहब से कहा, “अब आप आगे जाइये और जल्द लौट कर आइये, मैं जाता हूँ।”
बाबू साहब ने छाता उसी जगह रख दिया, क्योंकि उसकी अब यहाँ कुछ जरूरत न थी और लड़के को छाती से लगाये बाईं तरफ के एक दालान में पहुँचे जहाँ से होते हुए एक सहन में जाकर पास की बारहदरी में होकर छत पर चढ़ गए। ऊपर इन्हें दो नौकरानिया मिली जो शायद पहिले ही से इनकी राह देख रही थीं। दोनों नौकरानियो ने इन्हें अपने साथ लिया और दूसरी सीढ़ी की राह से एक कोठरी में उतर गईं, जहाँ एक ने बाबू साहब से कहा, “अब बिना रामदीन खवास की मदद के हम लोग तहखाने में नहीं जा सकते। आज उसको राजी करने के लिए बड़ी कोशिश करनी पड़ी। वह बेचारा नेक और रहमदिल है इसलिए काबू में आ गया, अगर कोई दूसरा होता तो हमारा काम कभी न चलता। अच्छा, अब आप यहीं ठहरिये मैं जाकर उसे बुला लाती हूँ।” इतना कह वह नौकरानी वहाँ से चली गई और थोड़ी ही देर में उस बुड्ढे खवास को साथ लेकर लौट आई।
इस बुड्ढे खवास की उम्र सत्तर वर्ष से कम न होगी। हाथ में पीतल की एक जालीदार लालटेन लिए वहाँ आया और बाबू साहब के सामने खड़ा होकर बोला, “देखिए बाबू साहब, मैं तो आपके हुक्म की तामील करता ही हूँ मगर अब मेरी इज्जत आपके हाथ में हैं। मुझे मोतबर समझ कर इस चोर दरवाजे की ताली सुपुर्द की गई है। एक हिसाब से आज मैं मालिक की नमकहरामी करता हूँ कि इस राह से आपको जाने देता हूँ। मगर नहीं, सुन्दरी दया के योग्य है। उसकी अवस्था पर ध्यान देने से मुझे रुलाई आती है, और इस बच्चे की हालत सोच कर कलेजा फटा जाता है जो आपकी गोद में है। बेशक, मैं एक अन्यायी राजा का अन्न खा रहा हूँ। लाचार हूँ, गरीबी जान मारती है, नहीं तो आज ही नौकरी छोड़ने के लिए तैयार हूँ।”
बाबू साहब : रामदीन, बेशक तुम बड़े ही नेक और रहमदिल आदमी हो। ईश्वर तुम्हें इस नेकी का बदला देवे। अभी तुम नौकरी मत छोड़ो, नहीं तो हम लोगों का काम मिट्टी हो जाएगा। वह दिन बहुत करीब है कि इस राज्य का सच्चा राजा गद्दी पर बैठे और रिआया को जुल्म के पंजे से छुड़ावे।
रामदीन : ईश्वर करे ऐसा ही हो। अच्छा आप जरा-सा और ठहरें और इसी जगह बेखौफ बैठे रहें, मैं घण्टे-भर में लौट कर आऊँगा, तब ताला खोल कर तहखाने में जाने के लिए कहूँगा, क्योंकि महाराज अभी तहखाने में गये हुए हैं। वे निकल कर जा लें तब मैं निश्चिंत होऊँ। इस तहखाने में जाने के लिए तीन दरवाजे हैं, जिनमें एक तो सदर दरवाजा है, यद्यपि अब वह ईंटों से चुन दिया गया है, मगर फिर भी वहाँ हमेशा पहरा पड़ा करता है। दूसरे दरवाजे की ताली महाराज के पास रहती है, और एक तीसरी छोटी-सी खिड़की है, जिसकी ताली मेरे पास रहती है, और इसी राह से नौकरानियो को आने-जाने देना मेरा काम है।
बाबू साहब : हाँ, यह हाल मैं जानता हूँ मगर यह‌ तो कहो तुम तो जाकर घण्टे-भर बाद लौटोगे, तब तक यहाँ आकर मुझे कोई देख न लेगा?
रामदीन : जी नहीं, आप बेखौफ रहें, अब यहाँ आने वाला कोई नहीं है, बल्कि इस बच्चे के रोने से भी किसी तरह का हर्ज नहीं है, क्योंकि किले का यह हिस्सा बिल्कुल ही सन्नाटा रहता है।
इतना कह रामदीन वहाँ से चला गया और घण्टे-भर तक बाबू साहब को उन दोनों नौकरानियो से बातचीत करने का मौका मिला। यों तो घण्टे-भर तक कई तरह की बातचीत होती रही, मगर उनमें से थोड़ी बातें ऐसी थीं जो हमारे किस्से से सम्बन्ध रखती हैं, इसलिए उन्हें यहाँ पर लिख देता मुनासिब मालूम होता है।
बाबू साहब : क्या महाराज कल भी आये थे?
एक नौकरानी : जी हाँ, मगर वह किसी तरह नहीं मानती, अगर पाँच-सात दिन यही हालत रही तो जान जाने में कोई शक नहीं। ऊपर से बीरसिंह की गिरफ्तारी का हाल सुनकर वह और भी बदहवास हो रही है।
बाबू साहब : मगर बीरसिंह तो कैदखाने से भाग गए।
एक नौकरानी : कब?
बाबू साहब : अभी घण्टा-भर भी नहीं हुआ।
एक नौकरानी : आपको कैसे मालूम हुआ ?
बाबू साहब : इसके पूछने की कोई जरूरत नहीं!
एक नौकरानी : तब तो आप एक अच्छी खुशखबरी लेकर आये हैं। आपसे कभी बीरसिंह से मुलाकात हुई है कि नहीं?
बाबू साहब : हाँ मुलाकात तो कई मर्तबे हुई है मगर बीरसिंह मुझे पहचानते नहीं। मैं बहुत चाहता हूँ कि उनसे दोस्ती पैदा करूँ, मगर कोई सबब(कारण) ऐसा नहीं मिलता जिससे वह मेरे साथ मुहब्बत करें, हाँ मुझे उम्मीद है कि तारा की बदौलत बेशक उनसे मुहब्बत हो जाएगी।
एक नौकरानी : कल पंचायत होने वाली थी, सो क्या हुआ?
बाबू साहब : हाँ, कल पंचायत हुई थी, जिसमें यहाँ के बड़े-बड़े पन्द्रह जमींदार शरीक थे। सभी को निश्चय हो गया कि असल में यह गद्दी (राजसिंहासन) बीरसिंह की है। बीरसिंह यदि लड़ने के लिए मुस्तैद(तैयार) हों तो वे लोग उनकी मदद करने को तैयार हैं।
एक नौकरानी : आपने भी कोई बन्दोबस्त किया है या नहीं?
बाबू साहब : हाँ, मैं भी इसी फिक्र में पड़ा हुआ हूँ। मगर लो देखो, रामदीन आ पहुँचा।
रामदीन ने पहुँच कर खबर दी कि महाराज चले गए अब आप जायें। रामदीन ने उस कोठरी में एक छोटी-सी खिड़की खोली, जिसका ताला उसकी कमर में थी और तीनों को उसके भीतर करके ताला बन्द कर दिया और खुद बाहर बैठा रहा । बाबू साहब ने दोनों नौकरानियों के साथ खिड़की के अन्दर जाकर देखा कि हाथ में चिराग लिए एक नौकरानी इनके आने की राह देख रही है। यहाँ से नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। नौकरानियों के साथ बाबू साहब नीचे उत्तर गए और एक कोठरी में पहुँचे, जिसमें से होकर थोड़ी दूर तक एक सुरंग में जाने के बाद एक गोल गुमटी में पहुँचे। वहाँ से भी और नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। बाबू साहब फिर से नीचे उतरे, यहाँ की जमीन सर्द और कुछ तर थी। पुनः एक कोठरी में पहुँच कर नौकरानी ने दरवाजा खोला और बाबू साहब को साथ लिए एक बारहदरी में पहुँची। इस बारहदरी में एक दीवारगीर और एक हाँडी के अतिरिक्त एक मोमी शमादान भी जल रहा था। जमीन पर फर्श बिछा हुआ था, बीच में एक मसहरी पर बारीक चादर ओढ़े एक औरत सोई हुई थी। पायताना की तरफ दो नौकरानिया पंखा झल रही थीं, पलंग के सामने एक पीतल की चौकी पर चाँदी की तीन सुराही, एक गिलास और एक कटोरा रक्खा हुआ था। उसके बगल में चाँदी की एक दूसरी चौकी थी, जिस पर खून से भरा हुआ चाँदी का एक छोटा-सा कटोरा, एक नश्तर और दो सलाइयाँ पड़ी हुई थीं।
वह औरत जो मसहरी पर लेटी हुई थी, बहुत ही कमजोर और दुबली मालूम होती थी। उसके बदन में सिवाय हड्डी के माँस या लहू का नाम ही नाम था, मगर चेहरा उसका अभी तक इस बात की गवाही देता था कि किसी वक्त में यह निहायत खूबसूरत रही होगी। गोद में लड़का लिए हुए बाबू साहब उसके पास जा खड़े हुए और डबडबाई हुई आँखों से उसकी सूरत देखने लगे। उस औरत ने बाबू साहब की ओर देखा ही था कि उसकी आँखों से आँसू की बूँदें गिरने लगीं। हाथ बढ़ाकर उठाने का इशारा किया, मगर बाबू साहब ने तुरन्त उसके पास जा और बैठ कर कहा, “नहीं नहीं, उठने की कोई जरूरत नहीं, तुम आप कमजोर हो रही हो। हाय! दुष्ट के अन्याय का कुछ ठिकाना है ! ! लो यह तुम्हारा बच्चा तुम्हारे सामने है, इस देखो और प्यार करो। घबड़ाओ मत, दो-ही-चार दिन में यहाँ की काया पलटा हुआ देखोगी !
बाबू साहब ने उस लड़के को पलंग पर बैठा दिया। उस औरत ने बड़ी मुहब्बत से उस लड़के का मुँह चूमा। ताज्जुब की बात थी कि वह लड़का जरा भी न तो रोया और न हिचका, बल्कि उस औरत के गले से लिपट गया, जिसे देख बाबू साहब, नौकरानिया और उस औरत का भी कलेजा फटने लगा और उन लोगों ने बड़ी मुश्किल से अपने को सँभाला। उस औरत ने बाबू साहब की तरफ देखकर कहा, “प्यारे, क्या मैं अपनी जिंदगी का कुछ भी भरोसा कर सकती हूँ? क्या मैं तुम्हारे घर में बसने का खयाल ला सकती हूँ? क्या मैं उम्मीद कर सकती हूँ कि दस आदमी के बीच में इस लड़के को लेकर खिलाऊंगी? हाय ! एक बीरसिंह की उम्मीद थी सो दुष्ट राजा उसे भी फांसी देना चाहता है!
बाबू साहब : प्यारी, तुम चिंता न करो। मैं सच कहता हूँ कि सवेरा होते-होते इस दुष्ट राजा की तमाम खुशी खाक में मिल जायेगी और वह अपने को मौत के पंजे में फँसा हुआ पावेगा। क्या उस आदमी का कोई कुछ बिगाड़ सकता है, जिसका तरफदार नाहरसिंह डाकू हो? देखो अभी दो घण्टे हुए हैं कि वह कैदखाने से बीरसिंह को छुड़ाकर ले गया।
औरत : (चौंककर) नाहरसिंह डाकू बीरसिंह को छुड़ाकर ले गया! मगर वह तो बड़ा भारी बदमाश और डाकू है! बीरसिंह के साथ नेकी क्यों करने लगा? कहीं कुछ दुःख न दे ! !
बाबू साहब : तुम्हें ऐसा न सोचना चाहिये । शहर-भर में जिससे पूछोगी कोई भी न कहेगा कि नाहरसिंह ने सिवाय राजा के किसी दूसरे को कभी कोई दुःख दिया, हाँ, वह राजा को बेशक दुःख देता है और उसकी दौलत लूटता है। मगर इसका कोई खास सबब जरूर होगा। मैंने कई दफा सुना है कि नाहरसिंह छिपकर इस शहर में आया, कई दुखियों और कंगालों को रुपये की मदद की और कई ब्राह्मणों के घर में, जो कन्यादान के लिए दुःखी हो रहे थे, रुपये की थैली फेंक गया। मुख्तसर यह है कि यहाँ की कुल रिआया नाहरसिंह के नाम से मुहब्बत करती है और जानती है कि वह सिवाय राजा के और किसी को दुःख देने वाला नहीं।
औरत : सुना तो मैंने भी ऐसा ही है। अब देखें वह बीरसिंह के साथ क्या नेकी करता है और राजा का भण्डा किस तरह फूटता है। मुझे वर्ष-भर इस तहखाने में पड़े हो गये मगर मैंने बीरसिंह और तारा का मुँह नहीं देखा, यों तो राजा के डर से लड़कपन ही से आज तक मैं अपने को छिपाती चली आई और बीरसिंह के सामने क्या किसी और के सामने भी न कहा कि मैं फलानी हूँ या मेरा नाम सुंदरी है, मगर साल-भर की तकलीफ ने.. (रो कर) हाय! न-मालूम मेरी मौत कहाँ छिपी हुई है ! !
बाबू साहब : (उस खून से भरे हुए कटोरे की तरफ देखकर) हाँ, यह खून-भरा कटोरा कहता है कि मैं किसी के खून से भरा हुआ कटोरा पीऊँगा!
सुन्दरी (उस औरत का नाम है) : (लड़के को गले लगाकर) हाय, हम लोगों की खराबी के साथ इस बच्चे की भी खराबी हो रही है ! !
बाबू साहब : ईश्वर चाहता है तो इसी सप्ताह में लोगों को मालूम हो जावेगा कि तुम कुंआरी नहीं हो और यह बच्चा भी तुम्हारा ही है।
सुन्दरी : परमेश्वर करे, ऐसा ही हो! हाँ उन पंचों का क्या हाल है?
बाबू साहब : पंचों में जोश बढ़ता ही जाता है, अब वे लोग बीरसिंह की तरफदारी पर पूरी मुस्तैदी दिखा रहे हैं।
सुन्दरी : नाहरसिंह का कुछ और भी हाल मालूम हुआ है?
बाबू साहब : और तो कुछ मालूम नहीं हुआ, मगर एक बात नई जरूर सुनने में आई है।
सुन्दरी : वह क्या ?।
बाबू साहब : तारा के मारने के लिए उसका बाप सुजनसिंह मजबूर किया गया था।
सुन्दरी : (लम्बी साँस लेकर) हाय, इसी कमबख़्त ने तो मेरे बड़े भाई बिजयसिंह को मारा है!
बाबू साहब : मैं एक बात तुम्हारे कान में कहा चाहता हूँ।
सुन्दरी : कहो।
बाबू साहब ने झुककर उसके कान में कोई बात कही, जिसके सुनते ही सुंदरी का चेहरा बदल गया और खुशी की निशानी उसके गालों पर दौड़ आई।
उसने चौंककर पूछा, “क्या तुम सच कह रहे हो?”
बाबू साहब : (सुन्दरी के सिर पर हाथ रख के) तुम्हारी कसम सच कहता हूँ।
एक नौकरानी : मालूम होता है कि कोई आ रहा है।
सुन्दरी : (लड़के को नौकरानी के हवाले करके) हाय, यह क्या गजब हुआ! क्या किस्मत अब भी आराम न लेने देगी?
इतने ही में सामने का दरवाजा खुला और हाथ में नंगी तलवार लिये हरीसिंह आता हुआ दिखाई दिया, जिसे देखते ही बेचारी सुन्दरी और कुल नौकरानिया काँपने लगीं। बाबू साहब के चेहरे पर भी एक दफे तो उदासी आई, मगर साथ ही वह निशानी पलट गई और होंठों पर मुस्कुराहट मालूम होने लगी। हरीसिंह मसहरी के पास आया और बाबू साहब को देखकर ताज्जुब से बोला, तू कौन है?
बाबू साहब : तैं मेरा नाम पूछ कर क्या करेगा?
हरीसिंह : तू यहाँ क्यों आया है? (नौकरानियो की तरफ देख कर) आज तुम सभी की मक्कारी खुल गई!!
बाबू साहब : अबे तू मेरे सामने हो और मुझसे बोल! औरतों को क्या धमकाता है?
हरीसिंह : तुझसे मैं बातें नहीं किया चाहता, तुझे तो गिरफ्तार कर के सीधे महाराज के पास ले जाऊँगा, वहीं जो कुछ होगा देखा जाएगा।
बाबू साहब : मैं तुझे और तेरे महाराज को तिनके के बराबर भी नहीं समझता, तेरी क्या मजाल कि मुझे गिरफ्तार करे!!
इतना सुनना था कि हरीसिंह गुस्से से काँप उठा। बाबू साहब के पास आकर उसने तलवार का एक वार किया। बाबू साहब ने फुर्ती से उठकर उसका हाथ खाली दिया और घूम कर उसकी कलाई पकड़ ली तथा इस जोर से झटका दिया कि तलवार उसके हाथ से दूर जा गिरी। अब दोनों में कुश्ती होने लगी। थोड़ी ही देर में बाबू साहब ने उसे उठा कर दे मारा। इत्तिफाक से हरीसिंह का सिर पत्थर की चौखट पर इस ज़ोर से जाकर लगा कि फटकर खून का तरारा बहने लगा। साथ ही इसके एक नौकरानी ने लपक कर हरीसिंह के हाथ की गिरी हुई तलवार उठा ली और एक ही वार में हरीसिंह का सिर काट कलेजा ठंढा किया।
बाबू साहब : हाय, तुमने यह क्या किया?
नौकरानी : इस हरामजादे का मारा ही जाना बेहतर था, नहीं तो यह बड़ा फसाद मचाता!
बाबू साहब : खैर, जो हुआ, अब मुनासिब है कि हम इसे उठा कर बाहर ले जावें और किसी जगह गाड़ दें कि किसी को पता न लगे।
बाबू साहब पलट कर सुन्दरी के पास आए और उसे समझा-बुझा कर बाहर जाने की इजाजत ली! एक नौकरानी ने लड़के को गोद में लिया, बाबू साहब ने उसी जगह से एक कम्बल लेकर हरीसिंह की लाश बाँध पीठ पर लादी और जिस तरह से इस तहखाने में आये थे, उसी तरह बाहर की तरफ रवाना हुए। जब उस खिड़की तक पहुँचे, जिसे रामदीन ने खोला था, तो भीतर से कुंडा खटखटाया।
रामदीन बाहर मौजूद था, उसने झट दरवाजा खोल दिया और ये दोनों बाहर निकल गये।
रामदीन बाबू साहब की पीठ पर गट्ठर देख चौंका और बोला, “आप यह क्या गजब करते हैं। मालूम होता है, आप सुन्दरी को लिये जाते हैं! नहीं, ऐसा न होगा, हम लोग मुफ्त में फाँसी पावेंगे! इतना ही बहुत है कि मैं आपको सुन्दरी के पास जाने देता हूँ।
बाबू साहब ने गठरी खोलकर हरीसिंह की लाश दिखा दी और कहा रामदीन, तुम ऐसा न समझो कि हम तुम्हारे ऊपर किसी तरह की आफत लावेंगे। यह कोई दूसरा ही आदमी है, जो उस समय सुन्दरी के पास आ पहुँचा जिस समय मैं वहाँ पर मौजूद था, लाचार यह समझ कर इसे मारता ही पड़ा कि मेरा आना-जाना किसी को मालूम न हो और तुम लोगों पर आफत न आवे।
नौकरानी : अजी, यह वही हरामजादा हरीसिंह हैं, जिसने मुद्दत से हम लोगों को तंग कर रक्खा था।
रामदीन : हाँ, अगर यह ऐसे समय में सुन्दरी के पास पहुँच गया तो इसका मारा जाना ही बेहतर था, मगर इसे किसी ऐसी जगह गाड़ना चाहिये कि पता न लगे।
बाबू साहब : इससे तुम बेफिक्र रहो, मैं सब बन्दोबस्त कर लूँगा।
बाबू साहब जिस तरह इस किले के अन्दर आए थे, वह हम ऊपर लिख जाये हैं, उसे दोहराने की कोई जरूरत नहीं है। सिर्फ इतना लिख देना बहुत है कि पीठ पर गट्ठर लादे वे उसी तरह किले के बाहर हो गये और मैदान में जाते हुए दिखाई देने लगे। सिर्फ अब की दफा इनके साथ गोद में लड़के को उठाए एक नौकरानी मौजूद थी। पानी का बरसना बिल्कुल बन्द था और आसमान पर तारे छिटके हुए दिखाई देने लगे थे।
बाबू साहब ने शिवालय की तरफ न जाकर दूसरी ही तरफ का रास्ता लिया। मगर जब वह सन्नाटे खेत में निकल गये तो हाथ में गंडासा लिए दो आदमियों ने इन्हें घेर लिया और डाँट कर कहा, “खबरदार, आगे कदम न बढ़ाइयो! गट्ठर मेरे सामने रख और बता तू कौन है! बेशक किसी की लाश लिए जाता है।”
बाबू साहब : हाँ हाँ, बेशक, इस गट्ठर में लाश है और उस आदमी की लाश है, जिसने यहाँ की कुल- रिआया (मंत्रिमंडल) को तंग कर रक्खा था! जहाँ तक मैं ख्याल करता हूँ, इस राज्य में कोई आदमी ऐसा न होगा जो इस कमबख़्त का मरना सुन खुश न होगा।
प० आ० : मगर तुम कैसे समझते हो कि हम भी खुश होंगे?
बाबू साहब : इसलिए कि तुम राजा के तरफदार नहीं मालूम पड़ते।
दू० आ० : खैर जो हो, हम यह जानना चाहते हैं कि यह लाश किसकी है और तुम्हारा क्या नाम है?
बाबू सा० : (गट्ठर जमीन पर रख कर) यह लाश हरीसिंह की है, मगर मैं अपना नाम तब तक नहीं बताने का, जब तक तुम्हारा नाम न सुन लूँ।
प० आ० : बेशक, यह सुन कर कि यह लाश हरीसिंह की है, मुझे भी खुशी हुई और मैं अब यह कह देना उचित समझता हूँ कि मेरा नाम नाहरसिंह है। मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम हमारे पक्षपाती हो, लेकिन अगर न भी हो तो मैं किसी तरह तुमसे डर नहीं सकता!
बाबू सा० : मुझे यह सुनकर बड़ी खुशी हुई कि आप नाहरसिंह हैं। बहुत दिनों से मैं आपसे मिला चाहता था, मगर पता न जानने से लाचार था। अहा, क्या ही अच्छा होता, अगर इस समय बीरसिंह से भी मुलाकात हो जाती!
दू० आ० : बीरसिंह से मिलकर तुम क्या करते?
बाबू सा०: उसे होशियार कर देता कि राजा तुम्हारा दुश्मन है और कुछ हाल उसकी बहिन सुन्दरी का भी बताता जिसका उसे ख्याल भी नहीं है और यह भी कह देता कि तुम्हारी स्त्री तारा बच गई, मगर अभी तक मौत उसके सामने नाच रही है। (नाहरसिंह की तरफ देख कर) आपकी कृपा होगी तो मैं बीरसिंह से मिल सकूँगा क्योंकि आज ही आपने उन्हें कैद से छुड़ाया है।
नाहर० : अहा, अब मैं समझ गया कि आपका नाम बाबू साहब है, नाम तो कुछ दूसरा ही है, मगर दो-चार आदमी आपको बाबू साहब के नाम से ही पुकारते हैं, क्यों है न ठीक?
बाबू साहब : हाँ है तो ऐसा ही।
नाहर० : मैं आपका पूरा-पूरा हाल नहीं जानता, हाँ जानने का उद्योग कर रहा हूँ, अच्छा अब हमको भी साफ-साफ कह देना मुनासिब है कि मेरा नाम नाहरसिंह नहीं है, हम दोनों उनके नौकर हैं, हाँ यह सही है कि वे आज बीरसिंह को छुड़ा के अपने घर ले गए हैं, जहाँ आप चाहें तो नाहरसिंह और बीरसिंह से मिल सकते हैं।।
बाबू साहब : मैं जरूर उनसे मिलूँगा।
प० आ० : और यह आपके साथ लड़का लिए कौन है?
बाबू साहब : इसका हाल तुम्हें नाहरसिंह के सामने ही मालूम हो जायेगा।
प० आ० : तो क्या आप अभी वहाँ चलने के लिए तैयार हैं?
बाबू साहब : बेशक!
प० आ० : अच्छा तो आप इस गट्ठर को मेरे हवाले कीजिए, मैं इसे इसी जगह खपा डालता हूँ। केवल इसका सिर मालिक के पास ले चलूँगा, इस लड़के को गोद में लीजिए और इस नौकरानी को बिदा कीजिए। चलिए सवारी भी तैयार है।
बाबू साहब ने उस नौकरानी को बिदा कर दिया। एक आदमी ने उस गट्ठर को पीठ पर लादा, बाबू साहब ने लड़के को गोद में लिया और उन दोनों के पीछे रवाने हुए, मगर थोड़ी ही दूर गए थे कि पीछे से तेजी के साथ दौड़ते हुए आने वाले घोड़े के ठापों की आवाज इन तीनों के कानों में पड़ी । बा
बू साहब ने चौंक कर कहा, “ताज्जुब नहीं कि हम लोगों को गिरफ्तार करने के लिए सवार आते हों!”

तो यह खंड यही समाप्त होता है तो फिर मिलते है अगले खंड में........
 

hirak01

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खंड - 05

अब चलते है उस समय पर जब नाहरसिंह और वह कैदी जिसको नाहर सिंग ने कैदखाने से छुड़ाया था.. लेकिन यहाँ बता दू की वह कैदी और कोई नहीं बल्कि बीरसिंह है और यह खंड वाही से शुरू होता है जहा पर नाहर सिंह ने रामदास को पकड़ लिया था और अपने आदमियों द्वारा नाहरगढ़ भिजवा दिया जो की नाहर सिंह का धिकाना था तो कहानी अब आगे...........
किनारे पर जब केवल नाहरसिंह और बीरसिंह रह गए तब नाहरसिंह ने वह चीठी पढ़ी, जो रामदास की कमर से निकली थी। उसमें यह लिखा हुआ था:
मेरे प्यारे दोस्त,
अपने लड़के के मारने का इल्जाम लगा कर मैंने बीरसिंह को कैदखाने में भेज दिया। अब एक-ही-दो दिन में उसे फांसी देकर आराम की नींद सोऊँगा। ऐसी अवस्था में मुझे रिआया (मंत्रिमंडल) भी बदनाम न करेगी। बहुत दिनों के बाद यह मौका मेरे हाथ लगा है। अभी तक मुझे मालूम नहीं हुआ कि रिआया बीरसिंह की तरफदारी क्यों करती है और मुझसे राज्य छीन कर बीरसिंह को क्यों दिया चाहती है? जो हो, अब रिआया को भी कुछ कहने का मौका न मिलेगा। हाँ, एक नाहरसिंह डाकू का खटका मुझे बना रह गया, उसके सबब से मैं बहुत ही तंग हूँ। जिस तरह तुमने कृपा करके बीरसिंह से मेरी जान छुड़ाई, आशा है कि उसी तरह से नाहरसिंह की गिरफ्तारी की भी तरकीब बताओगे।
तुम्हारा सच्चा दोस्त,
करनसिंह।
इस चीठी के पढ़ने से बीरसिंह को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और उसने नाहरसिंह की तरफ देख कर कहा :
बीर० : अब मुझे निश्चय हो गया कि करनसिंह बड़ा ही बेईमान और हरामजादा आदमी है। अभी तक मैं उसे अपने पिता की जगह समझता था और उसकी मुहब्बत को दिल में जगह दिए रहा। आज तक मैंने उसकी कभी कोई बुराई नहीं की, फिर भी न-मालूम क्यों वह मुझसे दुश्मनी करता है। आज तक मैं उसे अपना हितैसी समझे हुए था मगर..
नाहर० : तुम्हारा कोई कसूर नहीं, तुम नहीं जानते कि तुम कौन हो, करनसिंह कौन है! जिस समय तुम यह सुनोगे कि तुम्हारे पिता को करनसिंह ने मरवा डाला तो और भी ताज्जुब करोगे और कहोगे कि वह हरामजादा तो कुत्तों से नुचवाने लायक है।
वीर० : मेरे बाप को करनसिंह ने मरवा डाला!
नाहर० : हाँ।
बीर० : वह ऐसा क्यों और किस लिये?
नाहर० : यह किस्सा बहुत बड़ा है, इस समय मैं कह नहीं सकता, देखो, सवेरा हो गया और पूरब तरफ सूर्य की लालिमा निकली आती है। इस समय हम लोगों का यहाँ ठहरना मुनासिब नहीं है। मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम मुझे अपना सच्चा दोस्त या भाई समझोगे और मेरे घर चल कर दो-तीन दिन आराम करोगे। इस बीच में जितने छिपे हुए भेद हैं, सब तुम्हें मालूम हो जाएँगे।
बीर० : बेशक, अब मैं आपका भरोसा रखता हूँ, क्योंकि आपने मेरी जान बचाई और बेईमान राजा की बदमाशी से मुझे सचेत किया। अफसोस इतना ही है कि तारा का हाल मुझे कुछ भी मालूम न हुआ।
नाहर० : मैं वादा करता हूँ कि तुम्हें बहुत जल्द तारा से मिलाऊँगा और तुम्हारी उस बहिन से भी तुम्हें मिलाऊँगा, जिसके बदन में सिवाय हड्डी के और कुछ नहीं बच गया है।
बीर० : (ताज्जुब से) क्या मेरी कोई बहिन भी है?
नाहर० : हाँ हैं, मगर अब ज्यादा बातचीत करने का मौका नहीं है। उठो और मेरे साथ चलो, देखो ईश्वर क्या करता है।
बीर० : करनसिंह ने वह चिट्ठी जिसके पास भेजी थी, उसे क्या आप जानते हैं?
नाहर० : हाँ, मैं जानता हूँ, वह भी बड़ा ही हरामजादा और पाजी आदमी है, पर जो भी हो, मेरे हाथ से वह भी नहीं बच सकता।
दोनों आदमी वहाँ से रवाने हुए और लगभग आध कोस जाने के बाद एक पीपल के पेड़ के नीचे पहुँचे, जहाँ दो साईस दो कसे-कसाये घोड़े लिए मौजूद थे। नाहरसिंह ने बीरसिंह से कहा, “अपने साथ तुम्हारी सवारी का भी बन्दोबस्त करके मैं तुम्हें छुड़ाने के लिए गया था, लो इस घोड़े पर सवार हो जाओ और मेरे साथ चलो।”
दोनों आदमी घोड़ों पर सवार हुए और तेजी के साथ नेपाल की तराई की तरफ चल निकले। ये लोग भूखे-प्यासे पहर-भर दिन बाकी रहे तक बराबर घोड़ा फेंके चले गए। इसके बाद एक घने जंगल में पहुँचे और थोड़ी हर तक उससें जाकर एक पुराने खण्डहर के पास पहुँचे। नाहरसिंह ने घोड़े से उतर कर बीरसिंह को भी उतरने के लिए कहा और बताया कि यही हमारा घर है।
यह मकान जो इस समय खण्डहर मालूम होता है, पाँच-छः बिगहे के घेरे में होगा। खराब और बर्बाद हो जाने पर भी अभी तक इसमें सौ-सवा सौ आदमियों के रहने की जगह थी। इसकी मजबूत, चौड़ी और संगीन दीवारों से मालूम होता था कि इसे किसी राजा ने बनवाया होगा और बेशक यह किसी समय में दुलहिन को तरह सजा कर काम में लाया जाता होगा। इसके चारों तरफ की मजबूत दीवारें अभी तक मजबूती के साथ खड़ी थीं, हाँ भीतर की इमारत खराब हो गई थी, तो भी कई कोठरियाँ और दालान दुरुस्त थे, जिनमें इस समय नाहरसिंह और उसके साथी लोग रहा करते थे। बीरसिंह ने यहाँ लगभग पचास बहादुरों को देखा, जो हर तरह से मजबूत और लड़ाके मालूम होते थे।
बीरसिंह को साथ लिए हुए नाहरसिंह उस खण्डहर में घुस गया और अपने खास कमरे में जाकर उन्हें पहर-भर तक आराम करके सफर की हरारत मिटाने के लिए कहा।
बीरसिंह आराम करने के लिए चला जाता है और बिस्तर पर लेते हुए अपने साथ पीछे हुए घटनाओ के बारे में सोचने लगा .............
(तो अब उस समय पर चलते है जब बीरसिंह ने कुंवर सूरज सिंह की लाश लेकर राजा के पास चल दिया था )
आसमान पर सुबह की सुफेदी छा चुकी थी जब लाश लिए हुए बीरसिंह किले में पहुंचा । वह अपने हाथों पर कुंअर साहब की लाश उठाये हुए था। किले के अन्दर की रिआया तो आराम में थी, केवल थोड़े-से बुड्ढे, जिन्हें खांसी ने तंग कर रक्खा था, जाग रहे थे और इस उद्योग में थे कि किसी तरह बलगम निकल जाए और उनकी जान को चैन मिले। हाँ, सरकारी आदमियों में कुछ घबराहट-सी फैली हुई थी और वे लोग राह में जैसे-जैसे बीरसिंह मिलते जाते उसके साथ होते जाते थे, यहाँ तक कि दीवानखाने की ड्योढ़ी पर पहुँचते-पहुँचते पचास आदमियों की भीड़ बीरसिंह के साथ हो गई, मगर जिस समय उसने दीवानखाने के अन्दर पैर रक्खा, आठ-दस आदमियों से ज्यादा न रहे। कुंअर साहब की मौत की खबर यकायक चारों तरफ फल गई और इसलिए बात-की-बात में वह किला मातम का रूप हो गया और चारों तरफ हाहाकार मच गया।
दीवानखाने में अभी तक महाराज करनसिंह गद्दी पर बैठे हुए थे । दो-तीन दीवारगीरों में रोशनी हो रही थी, सामने दो मोमी शमादान जल रहे थे। बीरसिंह तेजी के साथ कदम बढ़ाते हुए महाराज के सामने जा पहुंचा और कुंअर साहब की लाश आगे रख अपने सर पर दुहत्थड़ मार रोने लगा।
जैसे ही महाराज की निगाह उस लाश पर पड़ी उनकी तो अजब हालत हो गई। नजर पड़ते ही पहिचान गए कि यह लाश उनके छोटे लड़के सूरजसिह की है। महाराज के रंज और गम का कोई ठिकाना न रहा। वे फूट-फूट कर रोने लगे और उनके साथ-साथ और लोग भी हाय-हाय करके रोने और सर पीटने लगे।
हम उस समय के गम की हालत और महल में रानियों की दशा को अच्छी तरह लिख कर लेख को व्यर्थ बढ़ाना नहीं चाहते, केवल इतना लिख देना बहुत होगा कि घण्टे-भर दिन चढ़ने तक सिवाय रोने-धोने के महाराज का ध्यान इस तरफ नहीं गया कि कुंअर साहब की मौत का सबब पूछें या यह मालूम करें कि उनकी लाश कहाँ पाई गई। आखिर महाराज ने अपने दिल को मजबूत किया और कुंअर साहब की मौत के बारे में बीरसिंह से बातचीत करने लगे।
महा० : हाय, मेरे प्यारे लड़के को किसने मारा?
बीर० : महाराज, अभी तक यह नहीं मालूम हुआ कि यह अनर्थ किसने किया।
महाराज ने उन दोनों मुसाहबों में से एक की तरफ देखा जो बीरसिंह को लेने के लिए खिदमतगारों के साथ बाग में गए थे।
महा० : क्यों हरीसिंह, तुम्हें कुछ मालूम है?
हरी० : जी कुछ भी नहीं, हाँ इतना जानता हूँ कि जब हुक्म के मुताबिक हम लोग बीरसिंह को बुलाने गये तो इन्हें घर न पाया, लाचार पानी बरसते ही में इनके बाग में पहुँचे और इन्हें वहाँ पाया। उस समय ये नंगे बदन हम लोगों के सामने आये। इनका बदन गीला था, इससे मुझे मालूम हो गया कि ये कहीं पानी में भीग रहे थे और कपड़े बदलने को ही थे कि हम लोग जा पहुँचे। खैर, हम लोगों ने सरकारी हुक्म सुनाया और ये भी जल्द कपड़े पहिन हम लोगों के साथ हुए। उस समय पानी का बरसना बिल्कुल बन्द था। जब हम लोग बाग के बीचोबीच अंगूर की टट्टियों के पास पहुँचे तो यकायक इस लाश पर नजर पड़ी।
महा० : (कुछ सोच कर) हम कह तो नहीं सकते, क्योंकि चारों तरफ लोगों में बीरसिंह नेक, ईमानदार और रहमदिल मशहूर हैं, मगर जैसाकि तुम बयान करते हो अगर ठीक है तो हमें बीरसिंह के ऊपर शक होता है !
हरी० : ताबेदार की क्या मजाल कि महाराज के सामने झूठ बोले! बीरसिंह मौजूद हैं, पूछ लिया जाये कि मैं कहाँ तक सच्चा हूँ।
बीर० : (हाथ जोड़कर) हरीसिंह ने जो कुछ कहा, वह बिल्कुल सच है—मगर महाराज, यह कब हो सकता है कि मैं अपने अन्नदाता और ईश्वर-तुल्य मालिक पर इतना बड़ा जुल्म करूँ!
महा० : शायद ऐसा ही हो, मगर यह तो कहो कि मैंने तुमको एक मुहिम पर जाने के लिए हुक्म दिया था और ताकीद कर दी थी कि आधी रात बीतने के पहिले ही यहाँ से रवाना हो जाना, फिर क्या सबब है कि तीन पहर बीत जाने पर भी तुम अपने बाग ही में मौजूद रहे और तिस पर भी वैसी हालत में जैसा कि हरीसिंह ने बयान किया? इसमें कोई भेद जरूर है!
बीर० : इसका सबब केवल इतना ही है कि बेचारी तारा के ऊपर एक आफत आ गई और वह किसी दुश्मन के हाथ में पड़ गई, मैं उसी को चारों तरफ ढूंढ़ रहा था, इसी में देर हो गई। जब तक मैं ढूँढ़ता रहा, पानी बरसता रहा, इसी से मेरे कपड़े भी गीले हो गए और मैं उस हालत में पाया गया जैसाकि हरीसिंह ने बयान किया है।
महा० : ये सब बातें बिल्कुल फजूल हैं। अगर तारा का गायब हो जाना ठीक है तो यह कोई ताज्जुब की बात नहीं, क्योंकि वह बदकार औरत है, बेशक, किसी के साथ कहीं चली गई होगी और उसका ऐसा करना तुम्हारे लिए एक बहाना हाथ लगा।
‘तारा बदकार औरत है’ यह बात बीरसिंह को गोली के समान लगी क्योंकि वे खूब जानते थे कि तारा पतिव्रता है और उन पर उसका प्रेम सच्चा है। मारे क्रोध के बीरसिंह की आँखें लाल हो गईं और बदन काँपने लगा, मगर इस समय क्रोध करना सभ्यता के बाहर जान चुप हो रहें और अपने को सँभाल कर बोले :
बीर० : महाराज, तारा के विषय में ऐसा कहना अनर्थ करना है!
हरी० : महाराज ने जो कुछ कहा, ठीक है ! (महाराज की तरफ देखकर ) बीरसिंह पर शक करने का ताबेदार को और भी मौका मिला है।
महा० : वह क्या?
हरी० : कुंवर साहब जिन तीन आदमियों के साथ यहाँ से गये थे उनमें से दो आदमियों को बीरसिंह ने जान से मार डाला और सिर्फ एक भाग कर बच गया। जब हम लोग बीरसिंह को बुलाने के लिये उनके बाग की तरफ जा रहे ये उस समय यह हाल उसी की जुबानी मालूम हुआ था। इस समय वह आदमी भी जिसका नाम रामदास है, ड्यौढ़ी पर मौजूद है।
महा० : हा ! क्या ऐसी बात है?
हरी० : मैं महाराज के कदमों की कसम खाकर कहता हूँ कि यह हाल खुद रामदास ने मुझसे कहा है।
जिस समय हरीसिंह ये बातें कह रहा था, महाराज की निगाह कुंअर साहब की लाश पर थी। यकायक कलेजे में कोई चीज नजर आई, महाराज ने हाथ बढ़ा- कर देखा तो मालूम हुआ, छुरी का मुट्ठा है, जिसका फल बिलकुल कलेजे के अन्दर घुसा हुआ था। महाराज ने छुरी को निकाल लिया और पोंछ कर देखा। कब्जे पर ‘राजकुमार बीरसिंह’ खुदा हुआ था।
अब महाराज की हालत बिलकुल बदल गई, शोक के बदले क्रोध की निशानी उनके चेहरे पर दिखाई देने लगी और होंठ काँपने लगे। बीरसिंह ने चौंक कर कहा, “बेशक, यह मेरी छुरी है, आज कई दिन हो गये, चोरी गई थी। मैं इसकी खोज में था मगर पता नहीं लगता था।“
महा० : बस, चुप रह नालायक! अब तू किसी तरह अपनी बेकसूरी साबित नहीं कर सकता! हाय, क्या इसी दिन के लिए मैंने तुझे पाला था? अब मैं इस समय तेरी बातें नहीं सुनना चाहता! (दरवाजे की तरफ देख कर) कोई है? इस हरामजादे को अभी ले जाकर कैदखाने में बन्द करो, हम अपने हाथ से इसका और इसके रिश्तेदारों का सिर काट कर कलेजा ठंडा करेंगे! (हरीसिंह की तरफ देख कर) तुम सौ सिपाहियों को लेकर जाओ, इस कम्बखत का घर घेर लो और सब औरत-मर्दों को गिरफ्तार करके कैदखाने में डाल दो।
फौरन महाराज के हुक्म की तामील की गई और महाराज उठकर महल में चले गये।
और अपने साथ हुए इस घटना को याद करते हुए बीरसिंह ने थोड़ी देर और सोच उसके बाद अपनी आँखे बंद करने सपनों की दुनिया में खो गया.......

तो यह खंड यही पर समाप्त होता है और अगर कुछ सवाल है तो वह आप हमसे पूछ सकते है तो मिलते है अब अगले खंड में और हाँ अब इस कहानी के सारे राज खुलने सुरु हो जायें

गे ..............................................
 

hirak01

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Bahut hi badhiya update he hirak01 Bhai,

Abhi to sawalo ka ambar khada he.............shayad agli update ke koi raaj khule

Keep posting Bhai
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hirak01

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खंड - 06

दूसरे दिन शाम को खण्डहर के सामने घास पर बैठे हुए बीरसिंह और नाहरसिंह आपस में बातें कर रहे हैं! सूर्य अस्त हो चुका है, सिर्फ उसकी लालिमा आसमान पर फैली हुई है। हवा के झोंके बादल के छोटे-छोटे टुकड़ों को आसमान पर उड़ाये लिए जा रहे हैं। ठंडी-ठंडी हवा जंगली पत्तों को खड़खड़ाती हुई इन दोनों तक आती और हर खण्ड की दीवार से टक्कर खाकर लौट जाती है। ऊँचे-ऊँचे सलई के पेड़ों पर बैठे हुए मोर आवाज लड़ा रहे हैं और कभी-कभी पपीहे की आवाज भी इन दोनों के कानों तक पहुँच कर समय की खूबी और मौसिम के बहार का सन्‍देशा दे रही है। मगर ये चीजें बीरसिंह और नाहरसिंह को खुश नहीं कर सकतीं। वे दोनों अपनी धुन में न-मालूम कहाँ पहुँचे हुए और क्या सोच रहे हैं।

यकायक बीरसिंह ने चौंक कर नाहरसिंह से पूछा–

बीर० : खैर, जो भी हो, आप उस करनसिंह का किस्सा तो अब अवश्य कहें, जिसके लिए रात वादा किया था।

नाहर० : हाँ, सुनो, मैं कहता हूँ, क्योंकि सबके पहले उस किस्से का कहना ही मुनासिब समझता हूँ।

करनसिंह का किस्सा

पटने का रहने वाला एक छोटा-सा जमींदार, जिसका नाम करनसिंह था, थोड़ी-सी जमींदारी में खुशी के साथ अपनी जिंदगी बिताता और बाल-बच्चों में रह कर सुख भोगता था। उसके दो लड़के और एक लड़की थी। हम उस समय का हाल कहते हैं, जब उसके बड़े लड़के की उम्र बारह वर्ष की थी। इत्तिफाक से दो साल की बरसात बहुत खराब बीती और करनसिंह के जमींदारी की पैदावार बिल्कुल ही मारी गई। राजा की मालगुजारी सिर पर चढ़ गई, जिसके अदा होने की सूरत न बन पड़ी। वहाँ का राजा बहुत ही संगदिल और जालिम था। उसने मालगुजारी में से एक कौड़ी भी माफ न की और न अदा करने के लिए कुछ समय ही दिया। करनसिंह की बिल्कुल जायदाद जब्त कर ली, जिससे वह बेचारा हर तरह से तबाह और बर्बाद हो गया।

करनसिंह का एक गुमाश्ता था, जिसको लोग करनसिंह राठू या कभी-कभी सिर्फ राठू कह कर पुकारते थे। लाचार होकर करनसिंह ने स्त्री का जेवर बेच पाँच सौ रुपये का सामान किया। उसमें से तीन सौ अपनी स्त्री को देकर उसे करनसिंह राठू की हिफाजत में छोड़ा और दो सौ आप लेकर रोजगार की तलाश में पटने से बाहर निकला। उस समय नेपाल की गद्दी पर महाराज नारायणसिंह बिराज रहे थे, जिनकी नेकनामी और रिआयापरवरी की धूम देशान्तर में फैली हुई थी। करनसिंह ने भी नेपाल ही का रास्ता लिया। थोड़े ही दिन में वहाँ पहुँच कर वह दरबार में हाजिर हुआ और पूछने पर उसने अपना सच्चा-सच्चा हाल राजा से कह सुनाया। राजा को उसके हाल पर तरस आया और उसने करनसिंह को मजबूत, ताकतवर और बहादुर समझ कर फौज में भरती कर लिया।

उन दिनों नेपाल की तराई में दो-तीन डाकुओं ने बहुत ही जोर पकड़ रखा था, करनसिंह ने स्वयं उनकी गिरफ्तारी के लिए आज्ञा मांगी, जिससे राजा बहुत ही प्रसन्न हुआ और दो सौ आदमियों को साथ देकर करनसिंह को डाकुओं की गिरफ्तारी के लिए रवाने किया। छ: महीने के अरसे में एकाएकी करके करनसिंह ने तीनों डाकुओं को गिरफ्तार किया, जिससे राजा के यहाँ उसकी इज्जत बहुत बड़ गई और उन्होंने प्रसन्न होकर हरिपुर का इलाका उसे दे दिया, जिसकी आमदनी मालगुजारी देकर चालीस हजार से कम न थी, साथ ही उन्होंने एक आदमी को इस काम के लिए तहसीलदार मुकर्रर करके हरिपुर भेज दिया कि वह वहाँ की आमदनी वसूल करे और मालगुजारी देकर जो कुछ बचे, करनसिंह को दे दिया करे।

अब करनसिंह की इज्जत बहुत बढ़ गई और वह नेपाल की फौज का सेनापति मुकर्रर किया गया। अपने को ऐसे दर्जे पर पहुँचा देख करनसिंह ने पटने से अपनी जोरू और लड़के-लड़कियों को करनसिंह राठू के सहित बुलवा लिया और खुशी से दिन बिताने लगा।

दो वर्ष का जमाना गुजर जाने के बाद तिरहुत के राजा ने बड़ी धूमधाम से नेपाल पर चढ़ाई की जिसका नतीजा यह निकला कि करनसिंह ने बड़ी बहादुरी से लड़कर तिरहुत के राजा को अपनी सरहद के बाहर भगा दिया और उसको ऐसी शिकस्त दी कि उसने नेपाल को कुछ कौड़ी देना मंजूर कर लिया। नेपाल के राजा नारायणसिंह ने प्रसन्न होकर करनसिंह की नौकरी माफ कर दी और पुश्तहापुश्त के लिए हरिपुर का भारी परगना लाखिराज करनसिंह के नाम लिख दिया और एक परवाना तहसीलदार के नाम इस मजमून का लिख दिया कि वह परगने हरिपुर पर करनसिंह को दखल दे दे और खुद नेपाल लौट आवे।

नेपाल से रवाने होने के पहले ही करनसिंह की स्त्री ने बुखार की बीमारी से देह-त्याग कर दिया, लाचार करनसिंह ने अपने दोनों लड़कों और लड़की तथा करनसिंह राठू को साथ ले हरिपुर का रास्ता लिया।

करनसिंह राठू की नीयत बिगड़ गई। उसने चाहा कि अपने मालिक करनसिंह को मार कर राजा नेपाल के दिए परवाने से अपना काम निकाले और खुद हरिपुर का मालिक बन बैठे। उसको इस बात पर भरोसा था कि उसका नाम भी करनसिंह है मगर उम्र में वह करनसिंह से सात वर्ष छोटा था।

करनसिंह राठू को अपनी नीयत पूरी करने में तीन मुश्किलें दिखाई पड़ीं। एक तो यह कि हरिपुर का तहसीलदार अवश्य पहिचान लेगा कि यह करनसिंह सेनापति नहीं है। दूसरे यह करनसिंह सेनापति का लड़का जिसकी उम्र पन्द्रह वर्ष की हो चुकी थी, इस काम में बाधक होगा और नेपाल में खबर कर देगा, जिससे जान बचनी मुश्किल हो जाएगी। तीसरे, खुद करनसिंह की मुस्तैदी से वह और भी काँपता था।

जब करनसिंह रास्ते ही में थे तब ही खबर पहुँची कि हरिपुर का तहसीलदार आ गया । एक दूत यह खबर लेकर नेपाल जा रहा था जो रास्ते में करनसिंह सेनापति से मिला। करनसिंह ने राठू के बहकाने से उसे वहीं रोक लिया और कहा कि अब नेपाल जाने की जरूरत नहीं है।

अब करनसिंह राठू की बदनीयती ने और भी जोर मारा और उसने खुद हरिपुर का मालिक बनने के लिए यह तरकीब सोची कि करनसिंह सेनापति के साथियों को बड़े-बड़े ओहदे और रुपये के लालच से मिला ले और करनसिंह को मय उसके लड़कों और लड़की के किसी जंगल में मारकर अपने ही को करनसिंह सेनापति मशहूर करे और उसी परवाने के जरिये से हरिपुर का मालिक बन बैठे, मगर साथ ही इसके यह भी खयाल हुआ कि करनसिंह के दोनों लड़कों और लड़की के एक साथ मरने की खबर जब नेपाल पहुँचेगी तो शायद वहाँ के राजा को कुछ शक हो जाये। इससे बेहतर यही है कि करनसिंह सेनापति और उसके बड़े लड़के को मार कर अपना काम चलावे और छोटे लड़के और लड़की को अपना लड़का और लड़की बनावे, क्योंकि ये दोनों नादान हैं, इस पेचीले मामले को किसी तरह समझ नहीं सकेंगे और हरिपुर की रिआया भी इनको नहीं पहिचानती, उन्हें तो केवल परवाने और करनसिंह नाम से मतलब है।

आखिर उसने ऐसा ही किया और करनसिंह सेनापति के साथी सहज ही में राठू के साथ मिल गए। करनसिंह राठू ने करनसिंह सेनापति को तो जहर देकर मार डाला और उसके बड़े लड़के को एक भयानक जंगल में पहुँचकर जख्मी करके एक कुएँ में डाल देने के बाद खुद हरिपुर की तरफ रवाना हुआ। रास्ते में उसने बहुत दिन लगाए, जिसमें करनसिंह सेनापति का छोटा लड़का उससे हिल-मिल जाए।

हरिपुर में पहुँच कर उसने सहज ही में वहाँ अपना दखल जमा लिया। करनसिंह सेनापति के लड़के और लड़की को थोड़े दिन तक अपना लड़का और लड़की मशहूर करने के बाद फिर उसने एक दोस्त का लड़का और लड़की मशहूर किया । उसके ऐसा करने से रिआया के दिल में कुछ शक पैदा हुआ मगर वह कुछ कर न सकी क्योंकि करनसिंह साल में पाँच-छ: मर्तबे अच्छे-अच्छे तोहफे नेपाल भेजकर वहाँ के राजा को अपना मेहरबान बनाये रहा। यहाँ तक कि कुछ दिन बाद नेपाल का राजा, जिसने करनसिंह को हरिपुर की सनद दी थी, परलोक सिधारा और उसका भतीजा गद्दी पर बैठा। तब से करनसिंह राठू और भी निश्चिंत हो गया और रिआया पर भी जुल्म करने लगा। वही करनसिंह राठू आज हरिपुर का राजा है, जिसके पंजे में तुम फँसे हुए थे। कहो, ऐसे नालायक राजा के साथ अगर मैं दुश्मनी करता हूँ तो क्या बुरा करता हूँ?

बीर० : (कुछ देर चुप रहने के बाद) बेशक, वह बड़ा मक्कार और हरामजादा है। ऐसों के साथ नेकी करना तो मानो नेकों के साथ बदी करना है ! !

नाहर० : बेशक, ऐसा ही है।

बीर० : मगर आपने यह नहीं कहा कि अब करनसिंह सेनापति के लड़के कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं?

नाहर० : क्या इस भेद को भी मैं अभी खोल दूं?

बीर०: हाँ, सुनने को जी चाहता है।

नाहर० : करनसिंह सेनापति के छोटे लड़के तो तुम ही हो मगर तुम्हारी बहिन का हाल नहीं मालूम। पारसाल तक तो उसकी खबर मालूम थी, मगर इधर साल-भर से न-मालूम वह मार डाली गई या कहीं छिपा दी गई।

इतना हाल सुनकर बीरसिंह रोने लगा, यहाँ तक कि उसकी हिचकी बँध गई। नाहरसिंह ने बहुत-कुछ समझाया और दिलासा दिया। थोड़ी देर बाद बीरसिंह ने अपने को संभाला और फिर बातचीत करने लगा।

बीर० : मगर कल आपने कहा था कि तुम्हारी उस बहिन से मिला देंगे, जिसके बदन में सिवाय हड्डी के और कुछ नहीं रह गया है। क्या वह मेरी वही बहिन है, जिसका हाल आप ऊपर के हिस्से में कह गए हैं?

नाहर० : बेशक वही है।

बीर० : फिर आप कैसे कहते हैं कि साल-भर से उसका पता नहीं है?

नाहर० : यह इस सबब से कहता हूँ कि उसका ठीक पता मुझे मालूम नहीं है, उड़ती-सी खबर मिली थी कि वह किले ही के किसी तहखाने में छिपाई गई है और सख्त तकलीफ में पड़ी है। मैं कल किले में जाकर उसी भेद का पता लगाने वाला था, मगर तुम्हारे ऊपर जुल्म होने की खबर पाकर वह काम न कर सका और तुम्हारे छुड़ाने के बन्दोबस्त में लग गया।

बीर० : उसका नाम क्या है?

नाहर० : सुंदरी।

तीर०: तो आपको उम्मीद है कि उसका पत्ता जल्द लग जाएगा?

नाहर० : अवश्य।

बीर० : अच्छा, अब मुझे एक बात और पूछना है।

नाहर० : वह क्या?

बीर० : आप हम लोगों पर इतनी मेहरबानी क्यों कर रहे हैं और हम लोगों के सबब राजा के दुश्मन क्यों बन बैठे हैं?

नाहर० : (कुछ सोचकर ) खैर, इस भेद को भी छिपाए रहना अब मुनासिब नहीं है। उठो, मैं तुम्हें अपने गले लगाऊँगा तो कहूँ।(बीरसिंह को गले गला कर) तुम्हारा बड़ा भाई मैं ही हूँ, जिसे राठू ने जख्मी करके कुएं में डाल दिया था! ईश्वर ने मेरी जान बचाई और एक सौदागर के काफिले को वहाँ पहुँचाया, जिसने मुझे कुएँ से निकाला। असल में मेरा नाम विजयसिंह है। राजा से बदला लेने के लिए इस ढंग से रहता हूँ। मैं डाकू नहीं हूँ और सिवाय राजा के किसी को दुःख भी नहीं देता, केवल उसी की दौलत लूट कर अपना गुजारा करना हूँ।

बीरसिंह को भाई के मिलने की खुशी हद से ज्यादा हुई और घड़ी-घड़ी उठ कर कई दफे उन्हें गले लगाया। थोड़ी देर और बातचीत करने के बाद वे दोनों उठ कर खंडहर में चले गए और अब क्या करना चाहिए यह सोचने लगे

आगे की कहानी अगले खंड में......
 

hirak01

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खंड - 07

हरिपुर गढ़ी के अन्दर राजा करनसिंह अपने दीवानखाने में दो मुसाहबों के साथ बैठा कुछ बातें कर रहा है। सामने हाथ जोड़े हुए दो जासूस भी खड़े महाराज के चेहरे की तरफ देख रहे हैं। उन दोनों मुसाहबों में से एक का नाम शंभूदत और दूसरे का नाम सरूपसिंह है।
राजा : रामदास के गायब होने का तरद्दुद तो था ही मगर हरीसिंह का पता लगने से और भी जी बेचैन हो रहा है।।
शंभू० : रामदास तो भला एक काम के लिए भेजे गए थे, शायद वह काम अभी तक नहीं हुआ, इसलिए अटक गए होंगे। मगर हरीसिंह तो कहीं भेजे भी नहीं गए।
सरूप० : जितना बखेड़ा है, सब नाहरसिंह का किया हुआ है।
राजा : बेशक, ऐसा ही है, न-मालूम हमने उस कमबख़्त का क्या बिगाड़ा है, जो हमारे पीछे पड़ा है। वह ऐसा शैतान है कि हरदम उसका डर बना रहता है और वह हर जगह मौजूद मालूम होता है। बीरसिंह को कैदखाने से छुड़ा ले जाकर उसने हमारी महीनों की मेहनत पर मिट्टी डाल दी, और बच्चन के हाथ से मोहर छीन कर बनी-बनाई बात बिगाड़ दी, नहीं तो रिआया के सामने बीरसिंह को दोषी ठहराने का पूरा बन्दोबस्त हो चुका था, उस मुहर के जरिए बड़ा काम निकलता और बहुत सच्चा जाल तैयार होता।
सरूप० : सो सब तो ठीक है मगर कुंअर साहब को आप कब तक छिपाए रहेंगे, आखिर एक-न-एक दिन भेद खुल ही जायेगा।
राजा : तुम बेवकूफ हो, जिस दिन सूरजसिंह को जाहिर करेंगे, उस दिन अफसोस के साथ कह देंगे कि भूल हो गई और बीरसिंह को कत्ल करने का महीनों अफसोस कर देंगे, मगर वह किसी तरह हाथ लगे भी तो! अभी तो नाहरसिंह उसे छुड़ा ले गया।
सरूप० : यहाँ की रिआया बीरसिंह से बहुत ही मुहब्बत रखती है, उसे इस बात का विश्वास होना मुश्किल है कि बीरसिंह ने कुमार सूरजसिंह को मार डाला!
राजा : इसी विश्वास को दृढ़ करने के लिए तो मोहर चुराने का बन्दोबस्त किया गया था, मगर वह काम ही नहीं हुआ।
शंभू० : यहाँ की रिआया ने बड़ी धूम मचा रखी है, एक बेचारा हरिहरसिंह आपका पक्षपाती है, जो रिआया की कमेटी का हाल कहा करता है, अगर आप बड़े-बड़े सरदारों और जमींदारों का जो आपके खिलाफ कमेटी कर रहे हैं, बन्दोबस्त न करेंगे, तो जरूर एक दिन वे लोग बलवा मचा देंगे।
राजा : उनका क्या बन्दोबस्त हो सकता है? अगर उन लोगों पर बिना कुछ दोष लगाये जोर दिया जाए, तो भी तो गदर होने का डर है! हाय, यह सब खराबी नाहरसिंह की बदौलत है! अफसोस, अगर लड़कपन ही में हम बीरसिंह को खतम करा दिये होते तो काहे को यह नौबत आती! क्या जानते थे कि वह लोगों का इतना प्रेमपात्र बनेगा? उसने तो हमारी कुल रिआया को मुट्ठी में कर लिया है। अब नेपाल से खड़गसिंह तहकीकात करने आये हैं, देखें वे क्या करते हैं। हरिहर की जुबानी तो यही मालूम हुआ कि यहाँ के रईसों ने उन्हें अपनी तरफ मिला लिया।
सरूप० : आज की कमेटी से पूरा-पूरा हाल मालूम हो जायेगा।
राजा : बच्चनसिंह बीस-पचीस आदमियों को साथ लेकर उसी तरफ गया हुआ है, देखें वह क्या करता है।
सरूप० : खड़गसिंह तीन-चार सौ आदमियों के साथ हैं, अगर अकेले-दुकेले होते तो खपा दिये जाते।
राजा : (हँस कर) तो क्या अब हम उन्हें छोड़ देंगे? अजी महाराज नेपाल तो दूर हैं, खड़गसिंह के साथियों तक को तो पता लगेगा ही नहीं कि वह कहाँ गया या क्या हुआ। महाराज नेपाल को लिख देंगे कि हमारी रिआया को भड़का कर भाग गया। हाँ, सुजनसिंह के बारे में भी अब हमको पूरी तरह सोच-विचार कर लेना चाहिए।
सलाह-विचार करते-करते रात का ज्यादा हिस्सा बीत गया और केवल घण्टे-भर रात बाकी रह गई। महाराज की बातें खतम भी न हुई थीं कि सामने का दरवाजा खुला और एक लाश उठाए हुए चार आदमी कमरे के अन्दर आते हुए दिखाई पड़े।

तो अब यहाँ से चलते है दूसरी जगह.........
आधी रात का समय है। चारों तरफ अंधेरी छाई हुई है। आसमान पर काली घटा रहने के कारण तारों की रोशनी भी जमीन तक नहीं पहुँचती। जरा-जरा बूंदा-बूंदी हो रही है, मगर वह हवा के झपेटों के कारण मालूम नहीं होती। हरिपुर में चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। ऐसे समय में दो आदमी स्याह पोशाक पहिरे, नकाब डाले (जो इस समय पीछे की तरफ उल्टी हुई है) तेजी से कदम बढ़ाये एक तरफ जा रहे हैं। ये दोनों सदर सड़क को छोड़ गली-गली जा रहे हैं और तेजी से चल कर ठिकाने पहुँचने-की कोशिश कर रहे हैं, मगर गजब की फैली हुई अंधेरी इन लोगों को एक रंग पर चलने नहीं देती, लाचार जगह-जगह रुकना पड़ता है, जब बिजली चमक कर दूर तक का रास्ता दिखा देती है तो फिर ये कदम चलते हैं।
ये दोनों गली-गली चल कर एक आलीशान मकान के पास पहुँचे जिसके फाटक पर दस-बारह आदमी नंगी तलवारें लिए पहरा दे रहे थे। दोनों ने नकाब ठीक कर ली और एक ने आगे बढ़ कर कहा, “महादेव!” इसके जवाब में उन सभों ने भी “महादेव!” कहा। इसके बाद एक सिपाही ने जो शायद सभी का सरदार था, आगे बढ़ कर उस आदमी से, जिसने ‘महादेव’ कहा था, पूछा, “आज आप अपने साथ और भी किसी को लेते आए हैं? क्या ये भी अन्दर जायेंगे?”
आगन्तुक : नहीं, अभी तो मैं अकेला ही अन्दर जाऊँगा और ये बाहर रहेंगे, लेकिन अगर सरदार साहब इनको बुलायेंगे तो ये भी चले जायेंगे।
सिपाही : बेशक, ऐसा ही होना चाहिए। अच्छा, आप जाइए।
इन दोनों में से एक तो बाहर रह गया और इधर-उधर टहलने लगा और एक आदमी ने फाटक के अन्दर पैर रक्खा। इस फाटक के बाद नक़ाबपोश को और तीन दरवाजे लाँघने पड़े, तब वह एक लम्बे-चौड़े सहन में पहुँचा, जहाँ एक फर्श पर लगभग बीस के आदमी बैठे आपुस में कुछ बातें कर रहे थे। बीच में दो मोमी शमादान जल रहे थे और उसी के चारों तरफ वे लोग बैठे हुए थे। ये सब रोआबदार, गठीले और जवान आदमी थे तथा सभों ही के सामने एक-एक तलवार रक्खी हुई थी। उन लोगों की चढ़ी हुई मूंछों और तनी हुई छाती, बड़ी-बड़ी सुर्ख आँखें कहे देती थीं कि ये सब तलवार के जौहर के साथ अपना नाम रोशन करने वाले बहादुर हैं। ये लोग रेशमी चुस्त मिरजई पहिरे, सर पर लाल पगड़ी बाँधे, रक्‍त-चन्दन का त्रिपुण्ड लगाए, दोपट्टी आमने-सामने वीरासन पर बैठे बातें कर रहे थे। ऊपर की तरफ बीच में एक कम-उम्र बहादुर नौजवान बड़े ठाठ के साथ जड़ाऊ कब्जे की तलवार सामने रक्खे बैठा हुआ था। उसकी बेशकीमती- मछली टकी हुई सुर्ख मखमल की चुस्त पोशाक साफ-साफ कह रही थी कि वह किसी ऊँचे दर्जे का आदमी, बल्कि किसी फौज का अफसर है, मगर साथ ही इसके उसकी चिपटी नाक रहे-सहे भ्रम को दूर करके निश्चय करा देती थी कि वह नेपाल का रहने वाला है बल्कि यों कहना चाहिए कि वह नेपाल का सेनापति या किसी छोटी फौज का अफसर है। चार आदमी बड़े-बड़े पंखे लिए इन सभों को हवा कर रहे हैं।
यह नकाबपोश उस फर्श के पास जाकर खड़ा हो गया और तब वीरों को एक दफे झुक कर सलाम करने के बाद बोला, “आज मैं सच्चे दिल से महाराजा नेपाल को धन्यवाद देता हूँ, जिन्होंने हम लोगों का अर्थात्‌ हरिपुर की रिआया का दुःख दूर करने के लिए अपने एक सरदार को यहाँ भेजा है। मैं उस सरदार को भी इस कमेटी में मौजूद देखता हूँ, जिसमें यहाँ के बड़े क्षत्री जमींदार, वीर और धर्मात्मा लोग बैठे हैं। अस्तु, प्रणाम करने बाद (सर झुका कर) निवेदन करता हूँ कि वे उन जुल्मों की अच्छी तरह जाँच करें जो राजा करनसिंह की तरफ से हम लोगों पर हो रहे हैं। हम लोग इसका सबूत देने के लिए तैयार हैं कि यहाँ का राजा करनसिंह बड़ा ही जालिम, संगदिल और बेईमान है!
उस नकाबपोश की बात सुन कर नेपाल के सरदार ने, जिसका नाम खड़गसिंह था, एक क्षत्री वीर की तरफ देख कर पूछा—-
खड़ग० : अनिरुद्ध सिंह, यह कौन है?
अनिरुद्ध० : (हाथ जोड़ कर) यह उस नाहरसिंह का कोई साथी है जिसे यहाँ के राजा ने डाकू के नाम से मशहूर कर रक्खा है। अकसर हम लोगों की पंचायत में यह शरीक हुआ करता है। इसका नाम सोमनाथ है।
खड़ग० : मगर क्या तुम उस नाहरसिंह डाकू के साथी को अपना शरीक बनाते हो, जिसने हरिपुर की रिआया को तंग कर रक्खा है और जिसकी दबंगता और जुल्म की कहानी नेपाल तक मशहूर हो रही है?
सोम० : नाहरसिंह को केवल यहाँ के बेईमान राजा ने बदनाम कर रक्खा है, क्योंकि वह उन्हीं के साथ बुरी तरह पेश आता है, उन्हीं का खजाना लूटता हैं, और उन्हीं की कैद से बेचारे बेकसूरों को छुड़ाता है। सिवाय राजकर्मचारियों के हरिपुर का एक अदना आदमी भी नहीं कह सकता कि नाहरसिंह जालिम है या किसी को सताता है।
खड़ग० : (अनिरुद्ध की तरफ देख कर) क्या यह सच है?
अनिरुद्ध : बेशक, सच है। नाहरसिंह बड़ा ही नेकमर्द, रहमदिल, धर्मात्मा और वीर पुरुष है। वह किसी को तंग नहीं करता, बल्कि वह महीने में हजारों रुपये यहाँ की गरीब प्रजा में गुप्त रीति से बाँटता, दरिद्रों का दुख दूर करता, और ब्राह्मणों की सहायता करता है। हाँ राजा करनसिंह को अवश्य सताता है, उनकी दौलत लूटता है, और उनके सहायकों की जानें लेता है।
खड़ग० : अगर ऐसा है तो हम बेशक नाहरसिंह को बहादुर और धर्मात्मा कह सकते हैं (सोमनाथ की तरफ देख कर) मगर राजा करनसिंह नाहरसिंह की बहुत बुराई करता है और उसे जालिम कहता है, सबूत में हाल ही की यह नई बात दिखलाता है कि नाहरसिंह नमकहराम बीरसिंह को कैद से छुड़ा ले गया, जिस पर राजकुमार का खून हर तरह से साबित हो चुका था और तोप के सामने रख कर उड़ा देने के योग्य था। नाहरसिंह इसका क्या जवाब रखता है?
अनिरुद्ध : सोमनाथ बराबर हम लोगों की पंचायत में मुँह पर नकाब डाल कर आया करते हैं। हम लोग इस बात की जिद नहीं करते कि वे अपनी सूरत दिखाएँ बल्कि कसम खा चुके हैं कि इनके साथ कभी दगा न करेंगे। जिस दिन से नाहरसिंह ने बीरसिंह को छुड़ाया है, उस दिन से आज ही मुलाकात हुई है। हम लोग खुद इस बात का जवाब इनसे लिया चाहते थे कि उस आदमी की मदद नाहरसिंह ने क्यों की, जिसने राजा के लड़के को मार डाला? नाहरसिंह से ऐसी उम्मीद हम लोगों को न थीं। हम लोग बेशक राजा के दुश्मन हैं, मगर इतने बड़े नहीं कि उसके लड़के के खूनी को भगा दें। मगर हम लोगों को सब से ज्यादा ताज्जुब इस बात का है कि बीरसिंह के हाथ से ऐसा काम क्योंकर हुआ! वह बड़ा ही नेक, धर्मात्मा और सच्चा आदमी है। राजा से भी ज्यादा हम लोग उसे मानते हैं और उससे मुहब्बत रखते हैं, क्योंकि इस राज्य में या कर्मचारियों में एक बीरसिंह ही ऐसा था, जिसकी बदौलत रिआया आराम पाती थी या जो रिआया को अपने लड़के के समान मानता था, मगर ताज्जुब है कि……
सोम० : इस बाते का जवाब मैं दे सकता हूँ और निश्चय करा सकता हूँ कि नाहरसिंह ने कोई बुरा काम नहीं किया और बीरसिंह बिल्कुल बेकसूर है।
खड़ग० : अगर नाहरसिंह और बीरसिंह की बेकसूरी साबित होगी तो हम बेशक उनके साथ कोई भारी सलूक करेंगे। सुनो सोमनाथ, राजा के खिलाफ यहाँ की रिआया तथा नाहरसिंह की अर्जियाँ पाकर महाराजा नेपाल ने खास इस बात की तहकीकात करने के लिए मुझे यहाँ भेजा है और मैं अपने मालिक का काम सच्चे दिल से धर्म के साथ किया चाहता हूँ। (बहादुरों की तरफ इशारा करके) ये लोग मुझे भली प्रकार जानते हैं और मुझ पर प्रेम रखते हैं, तभी मैं इन लोगों की गुप्त पंचायत में आ सका हूँ और ये लोग भी अपने दिल का हाल साफ-साफ मुझसे कहते हैं। हाँ, बीरसिंह की बेकसूरी के बारे में तुम क्या कहना चाहते हो कहो?
सोम० : बीरसिंह कौन है और आप लोगों को कहाँ तक उसकी इज्जत करनी चाहिए, यह फिर कभी कहूँगा, इस समय केवल उसकी बेकसूरी साबित करता हूँ।
बीरसिंह ने महाराज के लड़के को नहीं मारा। यह महाराज ने जाल किया है। महाराज का लड़का अभी तक जीता-जागता मौजूद है, और महाराज ने उसे छिपा रक्खा है, मैं आपको अपने साथ ले जाकर राजकुमार को दिखा सकता हूँ।
खड़ग० : हैं ! राजा का लड़का सूरजसिंह जीता-जागता मौजूद है!
सोम० : जी हाँ।
खड़ग० : ज्यादा नहीं, केवल एक इसी बात का विश्वास हो जाने से हम यहाँ के रिआया की दरखास्त सच्ची समझेंगे और राजा करनसिंह को गिरफ्तार करके नेपाल ले जायेंगे।
सोम० : केवल यही नहीं, राजा ने बीरसिंह के कई रिश्तेदारों को मार डाला है, जिसका खुलासा हाल सुन कर आप लोगों के रोंगटे खड़े होंगे। बेचारा बीरसिंह अभी तक चुपचाप बैठा है।
खड़ग० : (तलवार के कब्जे पर हाथ रख के) अगर यह बात सही है तो हम लोग बीरसिंह का साथ देने के लिए इसी वक्त से तैयार हैं, मगर नाहरसिंह को खुद हमारे सामने आना चाहिए।
इतना सुनते ही खड़गसिंह के साथ अन्य सरदारों और बहादुरों ने भी तलवारें स्थान से निकाली और धर्म की साक्षी देकर कसम खाई कि हम लोग नाहरसिंह के साथ दगा न करेंगे, बल्कि उनके साथ दोस्ताना बर्ताव करेंगे। उन सभों को कसम खाते देख सोमनाथ ने अपने चेहरे से नकाब उलट दी और तलवार म्यान से निकाल, सर के साथ लगा, गरज कर बोला, “आप लोगों के सामने खड़ा हुआ नाहरसिंह भी कसम खाता है कि अगर वह झूठा निकला तो दुर्गा की शरण में अपने हाथ से अपना सिर अर्पण करेगा। मेरा ही नाम नाहरसिंह है। आज तक मैं अपने को छिपाये हुए था और अपना नाम सोमनाथ जाहिर किए था।
शमादान की रोशनी एकदम नाहरसिंह के खूबसूरत चेहरे पर दौड़ गई। उसकी सूरत, आवाज और उसके हियाब ने सभों को मोहित कर लिया, यहाँ तक कि खड़गसिंह ने उठ कर नाहरसिंह को गले लगा लिया और कहा, “बेशक, तुम बहादुर हो! ऐसे मौके पर इस तरह अपने को जाहिर करना तुम्हारा ही काम है! भगवती चाहे तो अवश्य तुम सच्चे निकलोगे, इसमें कोई शक नहीं। (सरदारों और जमींदारों की तरफ देख कर) उठो और ऐसे बहादुर को गले लगाओ, इन्हीं के हाथ से तुम लोगों का कष्ट दूर होगा! ”
सभों ने उठ कर नाहरसिंह को गले लगाया और खड़गसिंह ने बड़ी इज्जत के साथ उसे अपने बगल में बिठाया।
नाहर० : बीरसिंह को मैं बाहर दरवाजे पर छोड़ आया हूँ।
खड़ग० : क्या आप उन्हें अपने साथ लाए थे?
नाहर० : जी हाँ।
खड़ग० : शाबाश ! तो अब उनको यहाँ बुला लेना चाहिए! (एक सरदार की तरफ देख कर) आप ही जाइए।
सरदार: बहुत अच्छा।
सरदार उठा और बीरसिंह को लिवा लाने ड्योढ़ी पर गया, मगर उनके लौटने में देरी अन्दाज से ज्यादे हुई, इसलिए जब वह बीरसिंह को साथ लिए लौट आया तो खड़गसिंह ने पूछा, “इतनी देर क्यों लगी?
सरदार : (बीरसिंह की तरफ इशारा कर के) ये टहलते हुए कुछ दूर निकल गए थे।
नाहर० : बीरसिंह, तुम इधर आओ और अपने चेहरे से नकाब हटा दो, क्योंकि आज हमने अपना पर्दा खोल दिया।
यह सुन कर बीरसिंह ने सिर हिलाया, मानो उसे ऐसा करना मंजूर नहीं है।
नाहर०: ताज्जुब है कि तुम नकाब हटाने से इन्कार करते हो? जरा सोचो तो कि मेरी जुबानी तुम्हारा नाम इन लोगों ने सुन लिया तो पर्दा खुलने में फिर क्या कसर रह गई? क्या तुम्हारी सूरत इन लोगों से छिपी है? बीरसिंह, हम तुम्हें बहादुर और शेरदिल समझते थे। यह क्या बात है?
बीरसिंह ने फिर सर हिला कर नकाब हटाने से इन्कार किया, बल्कि दो-तीन कदम पीछे की तरफ हट गया। यह बात नाहरसिंह को बहुत बुरी मालूम हुई। वह उछल कर बीरसिंह के पास पहुँचा तथा उसकी कलाई पकड़ क्रोध से भर उसकी तरफ देखने लगा। कलाई पकड़ते ही नाहरसिंह चौंका और एक निगाह सिर से पैर तक बीरसिंह पर डाल, खड़गसिंह की तरफ देख कर बोला, “मुमकिन नहीं कि बीरसिंह इतना बुजदिल और कमहिम्मत हो! यह हो ही नहीं सकता कि बीरसिंह मेरा हुक्म न माने! देखिए कितनी बड़ी चालाकी खेली गई! बेईमान राजा ने हम लोगों को कैसा धोखा दिया! हाय अफसोस, बेचारा बीरसिंह किसी आफत में फँसा मालूम होता है!!”
इतना कह नाहरसिंह ने बीरसिंह के चेहरे से नकाब खेंच कर फेंक दी। अब सभों ने उसे पहिचाना कि यह राजा का प्यारा नौकर बच्चनसिंह है।
खड़ग० : नाहरसिंह, यह क्या मामला है?
नाहर० : भारी चालबाजी की गई, यह इस उम्मीद में यहाँ बेखौफ चला आया कि चेहरे से नकाब न हटानी पड़ेगी, शायद इसे यह मालूम हो गया था कि मैं यहाँ आकर चेहरे से नकाब नहीं हटाता। मैं नहीं कह सकता कि इसके साथ हमारे दुश्मनों को और कौन-कौन-सा भेद हम लोगों का मालूम हो गया। यही पाजी बीरसिंह के कैद होने के बाद उसके बाग में बीरसिंह की मोहर चुराने गया था जो वहाँ मेरे मौजूद रहने के सबब इसके हाथ न लगी, न-मालूम मोहर लेकर राजा नया-क्या जाल बनाता!
इतना सुनते ही खड़गसिंह उठ खड़े हुए और नाहरसिंह के पास पहुँच कर बोले :
खड़ग० : बेशक, हम लोग धोखे में डाले गए। इसमें कोई शक नहीं कि इस कमेटी का बहुत-कुछ हाल करनसिंह को मालूम हो गया, इन सब सरदारों में से जो यहाँ बैठे हैं, जरूर कोई राजा का पक्षपाती है और जाल करके इस कमेटी में मिला है।
नाहर० : खैर, क्या हर्ज है, बूझा जायेगा, इस समय बाहर चल कर देखना चाहिए कि बीरसिंह कहाँ है और पता लगाना चाहिए कि उस बेचारे पर क्या गुजरी। मगर इस दुष्ट को किसी हिफाजत में छोड़ना मुनासिब है।
इस मामले के साथ ही कमेटी में खलबली पड़ गई, सब उठ खड़े हुए, क्रोध के मारे सभों की हालत बदल गई। एक सरदार ने बच्चनसिंह के पास पहुँच कर उसे एक लात मारी और पूछा, “सच बोल, बीरसिंह कहाँ है और उसे क्या धोखा दिया गया, नहीं तो अभी तेरा सिर काट डालता हूँ!!”
इसका जवाब बच्चनसिंह ने कुछ न दिया, तब वह सरदार खड़गसिंह की तरफ देख कर बोला, “आप इसे मेरी हिफाजत में छोड़िए और बाहर जाकर बीरसिंह का पता लगायें, मैं इस हरामजादे से समझ लूँगा!!
खड़गसिंह ने इशारे से नाहरसिंह से पूछा कि “तुम्हारी क्या राय है?”
नाहरसिंह ने झुककर खड़गसिंह के कान में कहा, “मुझे इस सरदार पर भी शक है, जो इन सब सरदारों से बढ़ कर हमदर्दी दिखा रहा है।”
खड़ग० : (जोर से) बेशक, ऐसा ही है!
खड़गसिंह ने उस सरदार को, जिसका नाम हरिहरसिंह था और बच्चनसिंह को, दूसरे सरदारों के हवाले किया और कहा, “राजा की बेईमानी अब हम पर अच्छी तरह जाहिर हो गई, इस समय ज्यादे बातचीत का मौका नहीं है। तुम इन दोनों को कैद करो, हम किसी और काम के लिए बाहर जाते हैं।“
खड़गसिंह ने अपने साथी तीन बहादुरों को अपने साथ आने का हुक्म दिया और नाहरसिंह से कहा, “अब देर मत करो, चलो!” ये पाँचों आदमी उस मकान के बाहर हुए और फाटक पर पहुँचकर रुके। नाहरसिंह ने पहरे वालों से पूछा कि जिस आदमी को हम यहाँ छोड़ गए थे, वह हमारे जाने के बाद इसी जगह रहा या कहीं गया था?
पहरे० : वह इधर-उधर टहल रहे थे, एक आदमी आया और उन्हें दूर बुला ले गया, हम लोग नहीं जानते कि वे कहाँ तक गए थे, मगर बहुत देर के बाद लौटे, इसके बाद हुक्म के मुताबिक एक सरदार आकर उन्हें भीतर ले गया।
नाहर० : (खड़गसिंह से) देखिये, मामला खुला न!
खड़ग० : खैर, आगे चलो।
नाहर० : अफसोस! बेचारा बीरसिंह!!
खड़ग० : तुम चिन्ता मत करो, देखो, अब हम क्या करते हैं।
पाँचों आदमी वहाँ से आगे बढ़े, आगे-आगे हाथ में लालटेन लिए एक पहरे वाले को चलने का हुक्म हुआ। नाहरसिंह ने अपने चेहरे पर नकाब डाल ली। थोड़ी दूर जाने के बाद सड़क पर एक लाश दिखाई दी, जिसके इधर-उधर की जमीन खूनाखून हो रही थी।
तो यह

खंड यही पर समाप्त होता है और हम फिर मिलते है अब अगले खंड में..............
 
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