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Fantasy कटोरा भर खून (by hirak01)

# यह कहानी कैसा लगा आपको ?

  • बहुत अच्छा

  • अच्छा

  • अच्छा ही था

  • मैं कहानी को समझ ही कही पा रहा हु तो क्या ही कहूं।


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hirak01

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Index
खंड - 01अ (आरंभ)
खंड -01ब (प्रेम)
खंड - 02अ (हत्या - एक शाजिस......01)
खंड -02ब(हत्या - एक शाजिस.....02)
खंड - 03 (कैदी और डाकू नाहरशिंह और चिट्ठी)
खंड - 04 (बाबू साहब और नाहर सिंह)
खंड - 05 (चिट्ठी में छुपा एक राज)
खंड - 06 (करन सिंह की कहानी और बीरसिंह के भाई और बहन )
खंड - 07 (एक छल और बीरसिंह की जान खतरे में)
खंड - 08 (बीरसिंह बच गया, बाबू साहब मिले नाहर सिंह और खड़ग सिंह से)
खंड - 09 (तारा जिंदा है, कहानी कटोरा भर खून की)
खंड - 10(आताताई का अंत और एक खुशहाली भरा समाप्ति)


****THE END****
 
Last edited:

hirak01

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खंड - 08

हम पिछले खंड में लिख आये हैं कि जमींदारों और सरदारों को कमेटी में से अपने तीनों साथियों और नाहरसिंह को साथ ले बीरसिंह की खोज में खड़गसिंह बाहर निकले और थोड़ी दूर जाकर उन्होंने जमीन पर पड़ी हुई एक लाश देखी। लालटेन की रोशनी में चेहरा देख कर उन लोगों ने पहिचाना कि यह राजा का आदमी है।
नाहरसिंह : मालूम होता है, इस जगह राजा के आदमियों और बीरसिंह से लड़ाई हुई है।
खड़गसिंह : जरूर ऐसा हुआ है, ताज्जुब नहीं कि बीरसिंह को गिरफ्तार करके राजा के आदमी ले गए हों।
नाहरसिंह : अगर इस समय हम लोग महाराज के पास पहुँचें तो बीरसिंह को जरूर पावेंगे।
खड़गसिंह : मैं इस समय जरूर महाराज के पास जाऊँगा, क्या आप भी मेरे साथ वहाँ चल सकते हैं?
नाहरसिंह : चलने में हर्ज ही क्या है? मैं ऐसा डरपोक नहीं हूँ, और जब आप ऐसा मददगार मेरे साथ है तो मैं किसी को कुछ नहीं समझता! फिर मुझे वहाँ पहिचानता ही कौन है?
खड़गसिंह : शाबाश! आपकी बहादुरी में कोई शक नहीं, मगर मैं इस समय वहाँ जाने की राय आपको नहीं दे सकता, क्या जाने कैसा मामला हो। आप इसी जगह कहीं ठहरें, मैं जाता हूँ, अगर बीरसिंह वहाँ होंगे तो जरूर अपने साथ ले आऊँगा, (कुछ सोच कर) मगर आपका यहाँ अकेले रहना भी मुनासिब नहीं।
नाहरसिंह : इसकी चिन्ता आप न करें। मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे साथी लोग इधर-उधर छिपे-लुके जरूर होंगे।
खड़गसिंह : अच्छा तो मैं अपने इन तीनों आदमियों को साथ लिए जाता हूँ।
अपने तीनों आदमियों को साथ ले खड़गसिंह राजमहल की तरफ रवाना हुए। वहाँ ड्योढ़ी पर के सिपाहियों ने राजा के हुक्म मुताबिक इन्हें रोका मगर खड़गसिंह ने किसी की कुछ न सुनी। ज्यादा हुज्जत करने का हौसला भी सिपाहियों को न हुआ, क्योंकि वे लोग जानते थे कि खड़गसिंह नेपाल के सेनापति हैं।
खड़गसिंह धड़धड़ाते हुए दीवानखाने में चले गए और ठीक उस समय वहाँ पहुँचे, जब राजा करनसिंह अपने दोनों मुसाहबों शम्भूदत्त और सरूपसिंह के साथ बातें कर रहा था और चार आदमी एक लाश उठाये हुए वहाँ पहुँचे थे। वह लाश बीरसिंह की ही थी और इस समय राजा के सामने रक्खी हुई थी। बीरसिंह मरा नहीं था, मगर बहुत ज्यादे जख्मी हो जाने के कारण बेहोश था।
यकायक खड़गसिंह को वहाँ पहुँचते देख राजा को ताज्जुब हुआ और वह कुछ हिचका, चेहरे पर खौफ की निशानी फैल गई। उसने बहुत जल्द अपने को सम्हाल लिया, उठ कर बड़ी खातिरदारी के साथ खड़गसिंह का इस्तकबाल किया और अपने पास बैठा कर बोला, “देखिए, बड़ी मेहनत और परेशानी से अपने प्यारे लड़के के खूनी बीरसिंह को, जिसे शैतान नाहरसिंह छुड़ा ले गया था, मैंने फिर पाया है।”
खड़गसिंह : खूनी के गिरफ्तार होने की मैं आपको बधाई देता हूँ। मैंने अच्छी तरह तहकीकात किया और निश्चय कर लिया कि बीरसिंह बड़ा ही शैतान और नमकहराम है। मैं अपने हाथ से इसका सिर काटूँगा। हाँ, मैं एक बात की और मुबारकबाद देता हूँ।
राजा : वह क्या?
खड़गसिंह : आपके भारी दुश्मन नाहरसिंह को भी इस समय मैंने गिरफ्तार कर लिया!
राजा : (खुश होकर) वाह-वाह, यह बड़ा काम हुआ! इसके लिए मैं जन्म-भर आपका अहसान मानूँगा, वह कहाँ है?
खड़गसिंह : सिपाहियों के पहरे में अपने लश्कर भेज दिया है। मैं मुनासिब समझता हूँ कि बीरसिंह को भी आप मेरे हवाले कीजिए और अपने आदमियों को हुक्म दीजिए कि इसे उठा कर मेरे डेरे में पहुँचा आवें। कल मैं एक दरबार करूँगा, जिसमें यहाँ की कुल रिआया को हाजिर होने का हुक्म होगा। उसी में महाराज नेपाल की तरफ से आपको एक पदवी दीं जाएगी और बिना कुछ ज्यादे पूछताछ किए इन दोनों को मैं अपने हाथ से मारूँगा। इसके सिवाय आपके दो-चार दुश्मन और भी हैं, उन्हें भी मैं उसी समय फाँसी का हुक्म दूँगा।
राजा: यह आपको कैसे मालूम हुआ कि मेरे और भी दुश्मन हैं?
खड़ग ० : महाराज नेपाल ने जब मुझको इधर रवाना किया तो ताकीद कर दी थी कि करनसिंह की मदद करना और खोज-खोज कर उनके दुश्मनों को मारना। हरिपुर की रिआया बड़ी बेईमान और चालबाज है, उन लोगों को चिढ़ाने के लिए मेरी तरफ से करनसिंह को यह पत्र और अधिराज की पदवी देना। उसी हुक्म के मुताबिक मैंने यहाँ पहुँच कर यहाँ के जमींदारों और सरदारों से मेल पैदा किया और उनकी गुप्त कमेटी में पहुँचा, जो आपके विपक्ष में हुआ करती है, बस फिर आपके दुश्मनों का पता लगाना क्या कठिन रह गया!
राजा : (हँस कर) आपने मेरे ऊपर बड़ी मेहरबानी की, मैं किसी तरह आपके हुक्म के खिलाफ नहीं कर सकता। आप मुझे अपना ताबेदार ही समझिए। क्या आप बता सकते हैं कि मेरे वे दुश्मन कौन हैं?
खड़गसिंह : इस समय मैं नाम न बताऊँगा, कल दरबार में आपके सामने ही सभों को कायल करके फाँसी का हुक्म दूँगा, वे लोग भी ताज्जुब करेंगे कि किस तरह उनके दिल का भेद ले लिया गया।
खड़गसिंह जब यकायक दीवानखाने में राजा के सामने जा पहुँचे, तो राजा बहुत ही घबड़ाया और डरा, मगर उसने तुरत अपने को सँभाला और जी में सोचा कि खड़गसिंह के साथ जाहिरदारी करनी चाहिए, अगर मौका देखूँगा तो इसी समय इन्हें भी खपा कर बखेड़ा तै करूँगा, किसी को कानोंकान खबर भी न होगी।
उधर खड़गसिंह के दिल में भी यकायक यही बात पैदा हुई। उसने सोचा कि मैं केवल तीन आदमी साथ लेकर यहाँ आ पहुँचा सो ठीक न हुआ। कहीं ऐसा न हो कि राजा मेरे साथ दगा करे, क्योंकि अभी थोड़ी ही देर हुई है, इस बात का पता लग चुका है कि कमेटी में एक आदमी राजा का पक्षपाती भी धोखा देकर घुसा हुआ है, उसकी जुबानी मेरी कुल कार्रवाई राजा को मालूम हो गई होगी। ताज्जुब नहीं कि वह इस समय दंगा करे। इन बातों को सोचकर बुद्धिमान खड़गसिंह ने फौरन अपना ढंग बदल दिया और मतलब-भरी बातों के फेर में राजा को ऐसा फँसा लिया कि वह चूँ तक न कर सका। उसे विश्वास हो गया कि खड़गसिंह मेरा मददगार है, इससे किसी तरह का उज्र करना मुनासिब नहीं।
उसने तुरन्त अपने आदमियों को हुक्म दिया कि बीरसिंह को उठाकर सेनापति खड़गसिंह के डेरे पर पहुँचा आओ। खड़गसिंह भी दीवानखाने के नीचे उतरे और सड़क पर पहुँच कर उन्होंने अपने साथी तीन बहादुरों में से दो को मरहम-पट्टी की ताकीद करके बीरसिंह के साथ जाने का हुक्म दिया तथा एक को अपने साथ लेकर उस तरफ बढ़े, जहाँ नाहरसिंह को छोड़ आए थे।
उस मकान से, जिसमें कमेटी हुई थी, थोड़ी दूर इधर ही खड़गसिंह ने नाहरसिंह को पाया। इस समय नाहरसिंह अकेला न था, बल्कि पांच आदमी और भी उसके साथ थे, जिन्हें देख खड़गसिंह ने पूछा, “कौन है, नाहरसिंह?”
इसके जवाब में नाहरसिंह ने कहा, “जी हाँ।”
खड़गसिंह : ये सब कौन हैं?
नाहरसिंह : मेरे साथियों में से जो इधर-उधर घूम रहे थे और इस इन्तजार में थे कि समय पड़ने पर मदद दें।
खड़गसिंह : इतने ही हैं या और भी?
नाहरसिंह : और भी हैं, यदि चाहूँ तो आधी घड़ी के अन्दर सौ बहादुर इकट्ठे हो सकते हैं।
खड़गसिंह : बहुत अच्छी बात है, क्योंकि आज यकायक लड़ाई हो जाना कोई ताज्जुब नहीं।
नाहरसिंह : बीरसिंह का पता लगा?
खड़गसिंह : हाँ, उन्हें जख्मी करके करनसिंह के आदमी ले गए थे, उसी समय मैं भी जा पहुँचा, फिर वह मुझसे क्योंकर छिपा सकता था? आखिर उन्हें अपने कब्जे में किया और अपने आदमियों के साथ अपने डेरे पर भिजवा दिया।
नाहरसिंह : बीरसिंह की कैसी हालत है?
खड़गसिंह : अच्छी हालत है, कोई हर्ज नहीं, जख्म लगे हैं, मालूम होता है, बहादुर ने लड़ने में कसर नहीं की। मेरे आदमियों ने पट्टी बाँध दी होगी। अब देर न करो चलो, सरदार लोग अभी तक बैठे मेरा इन्तजार कर रहे होंगे।
नाहरसिंह : जी हाँ, जब तक हम लोग न जायेंगे, वे लोग बेचैन रहेंगे। खड़ग सिंह के पीछे-पीछे अपने साथियों के साथ नाहरसिंह फिर उसी मकान में गया, जिसमें कमेटी बैठी थी। कुल सरदार और जमींदार अभी तक वहाँ मौजूद थे। खड़गसिंह को देख सब उठ खड़े हुए। खड़गसिंह ने बैठने के बाद अपनी बगल में नाहरसिंह को बैठाया और सब को बैठने का हुक्म दिया। नाहरसिंह ने अपने साथियों में से एक आदमी को अपने पास बैठाया, जो अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए था।
अनिरुद्धसिंह : बीरसिंह का पता लगा ?
खड़गसिंह : हाँ, वह राजा के दगाबाज नौकरों के हाथ में फँस गया था, मैं वहाँ जाकर उसे छुड़ा लाया और अपने डेरे पर भेजवा दिया, अब बच्चनसिंह और हरिहरसिंह को भी पहरे के साथ हमारे लश्कर में भिजवा देना चाहिए।
तुरत हुक्म की तामील हुई, कई सिपाहियों को पहरे पर से बुलवा कर दोनों बेईमान उनके सुपुर्द किए गए और एक बहादुर सरदार उनके साथ पहुँचाने के लिए गया।
खड़गसिंह : (नाहरसिंह की तरफ देखकर) हाँ तो करनसिंह का लड़का जीता है? उसे तुम दिखा सकते हो?
नाहरसिंह : जी हाँ, उसके जीते रहने का एक सबूत तो मेरे पास इसी समय मौजूद है।
खड़गसिंह : वह क्या?
नाहरसिंह ने एक पत्र कमर से निकाल कर खड़गसिंह के हाथ में दिया और पढ़ने के लिए कहा। यह वही चिट्ठी थी जो नदी में तैरते हुए रामदास को गिरफ्तार करने बाद उसकी कमर से नाहरसिंह ने पाई थी। इसे पढ़ते ही गुस्से से खड़गसिंह की आंखें लाल हो गयीं।
खड़गसिंह : बेशक, यह कागज राजा के हाथ का लिखा हुआ है, फिर उसकी मोहर भी मौजूद है। इससे बढ़कर और किसी सबूत की हमें जरूरत नहीं। अब सूरजसिंह का पता न भी लगे तो कोई हर्ज नहीं। (अनिरुद्ध सिंह के हाथ में चीठी देकर) लो पढ़ो और बाकी सभी को भी पढ़ने को दो। एकाएकी वह चीठी सभों के हाथ में गई और सभी ने पढ़ कर इस बात पर अपनी प्रसन्नता प्रकट की कि बीरसिंह निर्दोष निकला।
अनिरुद्ध : (खड़गसिंह से) अब आपको मालूम हो गया कि हम लोगों की जो दरखास्त नेपाल गई थी, वह व्यर्थ न थी।
खड़गसिंह : बेशक, (नाहरसिंह की तरफ देख कर) हाँ, आपने कहा था कि बीरसिंह का असल हाल आप लोग नहीं जानते। वह कौन-सा हाल है, क्या आप कह सकते हैं?
नाहरसिंह : हाँ मैं कह सकता हूँ यदि आप लोग दिल लगा कर सुनें।
खड़गसिंह : जरूर सुनेंगे।
नाहरसिंह ने करनसिंह और करनसिंह राठू का हाल और अपने बचने का सबब जो बीरसिंह से कहा था, इस जगह खड़गसिंह और सब सरदारों के सामने कह सुनाया और इसके बाद बीरसिंह को कैद से छुड़ाने का हाल और अपनी बहिन सुन्दरी का भी वह पूरा हाल कहा जो तारा ने बाबाजी से बयान किया था। सुन्दरी का हाल बहुत-कुछ नाहरसिंह को पहिले से ही मालूम था, बाकी हाल जो तारा ने बीरसिंह से कहा था, वह बीरसिंह ने अपने बड़े भाई नाहरसिंह को सुनाया था। बीरसिंह यह नहीं जानता था कि उसकी स्त्री तारा ने जिस अहिल्या का हाल उससे कहा था, वह उसकी बहिन सुन्दरी ही थी। जब बीरसिंह और नाहरसिंह में मुलाकात हुई और अपनी बहिन सुन्दरी का नाम नाहरसिंह से सुना तब मालूम हुआ कि अहिल्या या सुन्दरी ही वह बहिन है।
नाहरसिंह की जुबानी करनसिंह का किस्सा सुनकर सभी का जी बेचैन हो गया। आँखों में आँसू भर कर सभों ने लम्बी सांसें लीं और बेईमान करनसिंह राठू को गालियाँ देने लगे। थोड़ी देर तक सभों के चेहरे पर उदासी छाई रही, मगर फिर क्रोध ने सभों का चेहरा लाल कर दिया और सभों ने दांत पीस कर कहा कि हम लोग ऐसे नालायक राजा की ताबेदारी नहीं कर सकते, हम लोग अपने हाथों से राजा को सजा देंगे और असली राजा करनसिंह के लड़के विजयसिंह (नाहरसिंह) को यहाँ की गद्दी पर बैठावेंगे, हम लोग चन्दा करके रुपये बटोरेंगे और फौज तैयार करके विजयसिंह और बीरसिंह को सरदार बनावेंगे इत्यादि-इत्यादि।
जोश में आकर बहुत-सी बातें सरदारों ने कही और इसी समय खड़गसिंह ने भी, अपनी फौज के सहित, जो नेपाल से साथ लाए थे, बीरसिंह और नाहरसिंह की मदद करना कबूल किया।
नाहरसिंह : मेरी बहिन सुन्दरी का हाल थोड़ा-सा और बाकी है, जिसे आप चाहें तो सुन सकते हैं, यह हाल मुझे इनकी (अपने बगल में बैठे हुए साथी की तरफ इशारा करके) जुबानी मालूम हुआ है।
सरदार: हाँ हाँ, जरूर सुनेंगे, ये कौन हैं?
नाहरसिंह : यह अपना हाल खुद आप-लोगों से बयान करेंगे।
खड़गसिंह : मगर इनको चाहिए कि अपने चेहरे से नकाब हटा दें।
नाहरसिंह के ये साथी महाशय जो उनके- बगल में बैठे हुए थे वे ही बाबू साहब थे जो गोद में एक लड़के-को लेकर, सुन्दरी से मिलने के लिए. किले के अन्दर तहखाने में गए थे। इन्हें पाठक अभी भूले न होंगे। खड़गसिंह के कहते ही बाबू साहब ने “कोई हर्ज नहीं” कहकर अपने चेहरे से. नकाब हटा दी और बेचारी सुन्दरी का बाकी-किस्सा कहने लगे. इन्हें इस शहर में कोई भी पहिचानता नहीं था।
बाबू साहब: सुन्दरी अहिल्या के नाम से बहुत दिनों तक इस नालायक राजा के यहाँ रही। राजा की पाप-भरी आँखों का अन्दाज रानी को मालूम हो गया और उसने चुपके-से सुन्दरी को अपने नैहर भेज कर बाप को कहला भेजा कि उसकी शादी करा दी जाये। सुन्दरी की शादी मेरे साथ को गई और वह बहुत दिनों तक मेरे घर में रही, एक लड़की और उसके बाद एक लड़का भी पैदा हुआ। तब तक राजा को सुन्दरी का पता न लगा मगर वह खोज लगाता ही रहा, आखिर मालूम होने पर उसने सुन्दरी को चुरा मंगाया और उसके साथ जिस तरह का बर्ताव किया आप बहादुर विजयसिंह की जुबानी सुन ही चुके हैं। बेचारी लड़की जिस तरह से मारी गई उसे याद करने से कलेजा फटता है। सुन्दरी को राजी करने के लिए राजा ने बहुत-कुछ उद्योग किया मगर उस बेचारी ने अपना धर्म न छोड़ा। आखिर राजा ने उसे गुप्त रीति से किले के अन्दर के एक तहखाने में बन्द किया और उसकी लड़की का खून एक कटोरे में भरकर और मसाले से जमा कर एक चौकी पर उसके सामने रख दिया जिसमें वह दिन-रात उसे देखा करे और कुढ़ा करे। आप लोग खूब समझ सकते हैं कि उस बेचारी की क्या हालत होगी और उस कटोरे-भर खून की तरफ देख-देख कर उसके दिल पर क्या गुजरती होगी, मगर वाह रे सुन्दरी! फिर भी उसने अपना धर्म न छोड़ा!!
बाबू साहब ने इतना ही कहा था कि सभों के मुँह से “वाह रे सुन्दरी, शाबाश, शाबाश! धर्म पर दृढ़ रहने वाली औरत तेरे ऐसी कोई काहे को होगी!” की आवाज आने लगी। बाबू साहब ने फिर कहना शुरू किया–
बाबू साहब० : जब सुन्दरी कैदखाने में बेबस की गई तो कई लौंडियाँ उसकी हिफाजत के लिए छोड़ी गयीं। उनमें से एक लौंडी सुन्दरी पर दया करके और अपनी जान पर खेल के वहाँ से निकल भागी। उसने मेरे पास पहुँच कर सब हाल कहा और अन्त में उसने सुन्दरी का यह संदेशा मुझे दिया कि लड़के को लेकर तुम्हें एक नजर देखने के लिए बुलाया है, जिस तरह बने आकर मिलो! सुन्दरी का हाल सुन मेरा कलेजा फट गया। मैं इस शहर में आया और उससे मिलने का उद्योग करने लगा इस फेर में बरस-भर से ज्यादा बीत गया, बहुत-सा रुपया खर्च किया और कई आदमियों को अपना पक्षपाती बनाया, आखिर दो ही चार दिन हुए हैं कि किसी तरह छोटे बच्चे को, जो नालायक राजा के हाथ से बच गया और मेरे पास था, लेकर किले के अन्दर तहखाने में गया और उससे मिला। कैदखाने में उसकी जैसी अवस्था मैंने देखी, कह नहीं सकता। इत्तिफाक से उसी दिन नाहरसिंह ने बीरसिंह को कैदखाने से छुड़ाया था और यह हाल मुझे मालूम था, बल्कि बीरसिंह के छुड़ाने की खबर कई पहरे वालों को भी लग गई थी, मगर वे लोग राजा के दुश्मन और बीरसिंह के पक्षपाती हो रहे थे, इसलिए नाहरसिंह के काम में विघ्न न पड़ा।
सुन्दरी जानती थी कि बीरसिंह उसका भाई है मगर राजा के जुल्म ने उसे हर तरह से मजबूर कर रखा था। बीरसिंह के कैद होने का हाल सुन कर सुन्दरी और भी बेचैन हुई, मगर जब मैंने उसके छूटने का हाल कहा तो कुछ खुश हुई। मैं तहखाने में सुन्दरी से बातचीत कर ही रहा था कि राजा का मुसाहब बेईमान हरीसिंह वहाँ जा पहुँचा। उस समय सुन्दरी मेरी और अपनी जिन्दगी से नाउम्मीद हो गई। आखिर हरीसिंह उसी समय मुझसे लड़ कर मारा गया और मैं उसकी लाश एक कम्बल में बाँध और लड़के को एक लौंडी की गोद में दे और उसे साथ ले तहखाने के बाहर निकला और मैदान में पहुँचा। वहाँ नाहरसिंह के दो आदमियों से मुलाकात हुई। मुझे नाहरसिंह तथा बीरसिंह से मिलने का बहुत शौक था और उन लोगों ने भी मुझे अपने साथ ले चलना मंजूर किया। आखिर हरीसिंह की लाश गाड़ दी गई, लौंडी वापस कर दी गई, और मैं लड़के को लेकर उन दो आदमियों के साथ नाहरसिंह की तरफ रवाना हुआ। उसी समय राजा के कई सवार भी वहाँ आ पहुँचे जो नाहरसिंह की खोज में घोड़ा फेंकते उसी तरफ जा रहे थे। हम लोगों को तो डर हुआ कि अब गिरफ्तार हो जायेंगे, मगर ईश्वर ने बचाया। एक पुल के नीचे छिप कर हम लोग बच गए और नाहरसिंह और बीरसिंह से मिलने की नौबत आई।
खड़गसिंह : लड़का अब कहाँ है?
बाबू साहब: (नाहरसिंह की तरफ इशारा कर के) इनके आदमियों के सुपुर्द है।
खड़गसिंह : तुम लोगों का हाल बड़ा ही दर्दनाक है, सुनने से कलेजा काँपता है। लेकिन अभी तक यह नहीं मालूम हुआ कि बेचारी तारा कहाँ है और उस पर क्या बीती?
नाहरसिंह: तारा का हाल मुझे मालूम है मगर मैंने अभी तक बीरसिंह से नहीं कहा।
एक सरदार : तो इस समय भी उसका कहना शायद आप मुनासिब न समझते हों।
नाहरसिंह : कहने में कोई हर्ज भी नहीं।
खड़गसिंह : तो कहिये।
नाहरसिंह : ऊपर के हाल से आपको इतना तो जरूर मालूम हो ही गया होगा कि बेईमान राजा ने तारा के बाप सुजनसिंह को इस बात पर मजबूर किया था कि वह तारा का सिर काट लावे।
खड़गसिंह : हाँ, इसलिए कि सुजनसिंह ने दीवानखाने की छत पर से लौंडियों को तो गिरफ्तार किया मगर तारा को छोड़ दिया था।
नाहरसिंह : ठीक है,राजा यह भी चाहता था कि तारा यदि राजा के साथ रहना स्वीकार करे तो उसकी जान छोड़ दी जाये। इस काम के लिए: समझाने-बुझाने पर हरीसिंह मुकर्रर किया गया था, मगर तारा ने कबूल न किया। जिस समय बीरसिंह के बाग में सुजनसिंह अपनी लड़की तारा की छाती पर सवार हो उसे मारा चाहता था, मैं भी वहाँ मौजूद था, उसी समय एक साधु महाशय भी वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने मेरी मदद से तारा को छुड़ाया। इस समय तारा उन्हीं के यहाँ है।
खड़गसिंह : आपने एक साधु फकीर की हिफाजत में तारा को क्यों छोड़ दिया? उस साधु का क्या भरोसा?
नाहरसिंह : उस साधु का मुझे बहुत भरोसा है। वे बड़े ही महात्मा हैं। यह तो मैं नहीं जानता कि वे कहाँ के रहने वाले हैं. मगर वे किसी से बहुत मिलते-जुलते नहीं, निराले जंगल में रहा करते हैं, मुझ पर बड़ा ही प्रेम रखते हैं, मैंने सब हाल उनसे कह दिया है और अक्सर उन्हीं की राय से सब काम किया करता हूँ, उनके खाने-पीने का इन्तजाम भी मैं ही करता हूँ।
खड़गसिंह : क्या मैं उनसे मुलाकात कर सकता हूँ?
नाहरसिंह : इस बात को तो शायद वह नामंजूर करें। (आसमान की तरफ देख कर) अब तो सवेरा हुआ ही चाहता है, मेरा शहर में रहना मुनासिब नहीं।
खड़गसिंह : अगर आप मेरे यहाँ रहें तो कोई हर्ज भी नहीं है।
नाहरसिंह : ठीक है, मगर ऐसा करने से कुछ विशेष लाभ भी नहीं है, बीरसिंह को मैं आपके सुपुर्द करता हूँ और बाबू साहब को अपने साथ लेकर जाता हूँ फिर जब और जहाँ कहिये हाजिर होऊँ?
खड़गसिंह : खैर, ऐसा ही सही मगर एक बात और सुन लो।
नाहरसिंह : वह क्या?
खड़गसिंह : उस समय जब मैं बीरसिंह को छुड़ाने के लिए राजा के पास गया था तो समयानुसार मुनासिब समझ कर उसी के मतलब की बातें की थीं। मैं कह आया था कि कल एक आम दरबार करूँगा और तुम्हारे दुश्मनों तथा बीरसिंह को फाँसी का हुक्म दूँगा, उसी दरबार में महाराज नेपाल की तरफ से तुमको “अधिराज” की पदवी भी दी जायेगी। यह बात मैंने कई मतलबों से कही थी। इस बारे में तुम्हारी क्या राय है ?
नाहरसिंह : बात तो बहुत अच्छी है। इस दरबार में बड़ा मजा रहेगा, कई तरह के गुल खिलेंगे मगर साथ ही इसके फसाद भी खूब मचेगा, ताज्जुब नहीं कि राजा बिगड़ जाये और लड़ाई हो पड़े, इससे मेरी राय है कि कल का दिन आप टाल दें और लड़ाई का पूरा बन्दोबस्त कर लें, इस बीच मैं भी अपने को हर तरह से दुरुस्त कर लूँगा।
खड़गसिंह : (और सरदारों की तरफ देख कर) आप लोगों की क्या राय है?
सरदार : नाहरसिंह का कहना बहुत ठीक है, हम लोगों को लड़ाई के लिये तैयार हो कर ही दरबार में जाना चाहिए। हम लोग भी अपने सिपाहियों की दुरुस्ती करना चाहते हैं, कल का दिन टल जाये तभी अच्छा है।
खड़गसिंह : खैर, ऐसा ही सही।
गुप्त रीति से राय के तौर परे दो-चार बातें और करने के बाद दरबार बर्खास्त किया गया। बाबू साहब को साथ लेकर नाहरसिंह चला गया। सरदार लोग भी अपने-अपने घर की तरफ रवाने हुए, खड़गसिंह अपने डेरे पर आये और बीरसिंह को होश में पाया, उनसे सब हाल कहा-सुना और उनका इलाज कराने लगे

तो यह खंड यही पर समाप्त होता है और हम फिर मिलते है अब अगले खंड में..............
 
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hirak01

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खंड - 09

खड़गसिंह जब राजा करनसिंह के दीवानखाने में गये और राजा से बातचीत करके बीरसिंह को छोड़ा लाये तो उसी समय अर्थात जब खड़गसिंह दीवानखाने से रवाने हुए, तभी राजा के मुसाहबों में सरूपसिंह चुपचाप खड़गसिंह के पीछे-पीछे रवाना हुआ वहाँ तक आया, जहाँ सड़क पर खड़गसिंह और नाहरसिंह में मुलाकात हुई थी और खड़गसिंह ने पुकार कर पूछा था, “कौन है, नाहरसिंह?”

सरूपसिंह उसी समय चौंका और जी में सोचने लगा कि खड़गसिंह दिल में राजा का दुश्मन है, क्योंकि राजा के सामने उसने कहा था कि नाहरसिंह को हमने गिरफ्तार कर लिया और कैद करके अपने लश्कर में भेज दिया है, मगर यहाँ मामला दूसरा ही नजर आता है, नाहरसिंह तो खुले मैदान घूम रहा है! मालूम होता है, खड़गसिंह ने उससे दोस्ती कर ली। लेकिन नाहरसिंह का नाम सुनते ही सरूपसिंह इतना डरा कि वहाँ एक पल भी खड़ा न रह सका, भागता और हाँफता हुआ राजा के पास पहुँचा।

राजा : क्यों क्या खबर है? तुम इस तरह बदहवास क्यों चले आ रहे हो? कहाँ गये थे?

सरूप० : खड़गसिंह के पीछे-पीछे गया था।

राजा : किसलिये ?

सरूप० : जिसमें मालूम करूँ कि वह कहाँ जाता है और सच्चा है या झूठा।

राजा: तो फिर क्या देखा ?

सरूप० : वह बड़ा ही भारी बेईमान और झूठा है, उसने आपको पूरा धोखा दिया और नाहरसिंह के गिरफ्तार करने की बात भी बिल्कुल झूठ कही। नाहरसिंह खुले मैदान घूम रहा है बल्कि खड़गसिंह और उसमें दोस्ती मालूम पड़ती है। जिस मकान में दुश्मनों की कमेटी होती है, उसके पास ही खड़गसिंह नाहरसिंह से मिला जो कई आदमियों को साथ लिए वहाँ खड़ा था और बातचीत करता हुआ उसके साथ ही कमेटी वाले मकान में चला गया।

राजा : तुमने कैसे जाना कि यह नाहरसिंह है?

सरूप० : खड़गसिंह ने नाम लेकर पुकारा और दोनों में बातचीत हुई।

राजा : क्या बीरसिंह को लिये हुए खड़गसिंह वहाँ गया था?

सरूप० : नहीं, उसने बीरसिंह को तो अपने आदमियों के साथ करके अपने डेरे पर भेज दिया और आप उस तरफ चला गया था।

राजा : तो बेईमान ने मुझे पूरा धोखा दिया!!

सरूप० : बेशक।

राजा : अफसोस! यहाँ अच्छे मौके पर आया था, अगर मैं चाहता तो उसी वक्त काम तमाम कर देता और किसी को खबर भी न होती।

सरूप० : इस समय खड़गसिंह नाहरसिंह को साथ लेकर उस मकान में गया है, जिसमें कमेटी हो रही है, अगर आप सौ आदमी मेरे साथ दें तो मैं अभी वहाँ जाकर दुश्मनों को गिरफ्तार कर लूँ।

राजा : पागल भया है! रिआया के दिल में जो कुछ थोड़ा-बहुत खौफ बना है, वह भी जाता रहेगा। इसी समय शहर में बलवा हो जायेगा और फिर कुछ करते-धरते न बन पड़ेगा। पहिले अपना पैर मजबूत कर लेना चाहिए। तुम तो चुपचाप बिना मुझसे कुछ कहे खड़गसिंह के पीछे-पीछे चले गए थे मगर मैंने खुद शम्भूदत्त को उसके पीछे भेजा है, देखें वह क्या खबर लाता है। वह आ ले तो कोई बात पक्की की जाये। अफसोस! मैं धोखे में आ गया!!

थोड़ी देर तक इन दोनों में बातचीत होती रही, सरूपसिंह के आधे घण्टे बाद शम्भूदत्त भी आ पहुँचा, वह भी बदहवास और परेशान था।

राजा : क्या खबर है?

शम्भू० : खबर क्या पूरी चालबाजी खेली गई, खड़गसिंह ने धोखा दिया। बीरसिंह को तो अपने आदमियों के साथ अपने डेरे पर भेज दिया और आप सीधे उस मकान में पहुँचा, जिसमें दुश्मनों की कमेटी हुई थी, नाहरसिंह रास्ते में मिला उसे अपने साथ लेता गया।

राजा : खैर, इतना हाल तो हमें सरूपसिंह की जुबानी मालूम हो गया, इससे ज्यादे तुम क्या खबर लाए?

शम्भू० : यह सरूपसिंह को कैसे मालूम हुआ?

राजा : सरूपसिंह खुद खड़गसिंह के पीछे गया था, जिसकी मुझे खबर न थी।

शम्भू० : अच्छा तो मैं एक खबर और भी लाया हूँ।

राजा : वह क्या?

शम्भू० : बच्चनसिंह गिरफ्तार हो गया और हरिहरसिंह के हाथ में भी हथकड़ी पड़ गई।

राजा : (चौंक कर) क्या ऐसी बात है?

झम्भू० : जी हाँ।

राजा : इतनी बड़ी ढिठाई किसने की?

झम्भू० : सिवाय खड़गसिंह के इतनी बड़ी मजाल किस की थी?

राजा : अब वे दोनों कहाँ हैं?

शम्भू० : खड़गसिंह के लश्कर में गए, उनके आदमी भी साथ थे, लश्कर के पास तक मैं पीछे-पीछे गया, फिर लौट आया।

राजा : अब तो बात हद से ज्यादा हो गई! (जोश में आकर) खैर, क्या हर्ज है, समझ लूँगा। उन कमबख़्तों को मैं कब छोड़ने वाला हूँ, अब तो खड़गसिंह पर भी खुल्लमखुल्ला इल्जाम लगाने का मौका मिला। अच्छा, सेनापति को बुलाओ, बहुत जल्द हाजिर करो।

शम्भू० : बहुत खूब।

राजा : नहीं नहीं, ठहरो, आने-जाने में देर होगी, मैं खुद चलता हूँ, तुम दोनों भी मेरे साथ चलो।

शम्भू० : जो हुक्म।

राजा ने अपने कपड़े दुरुस्त किए, हर्बे लगाए, और चल खड़ा हुआ। दोनों मुसाहब उसके साथ हुए।

वह सदर ड्योढ़ी पर पहुँचा, तीन सवारों के घोड़े ले लिये और उन्हीं पर सवार होकर तीनों आदमी उस तरफ रवाना हुए जिधर राजा की फौज रहती थी। घोड़े फेंकते हुए ये तीनों आदमी बहुत जल्द वहाँ पहुँचे और सेनापति के बँगले के पास आकर खड़े हो गए।

सेनापति को राजा के आने की खबर की गई, वह बेमौके रोजा के आने पर जो एक नई बात थी, ताज्जुब करके घबड़ाया हुआ बाहर निकल आया और हाथ जोड़ कर राजा के पास खड़ा हो गया। राजा और उसके मुसाहब घोड़े से नीचे उतरे और सेनापति के साथ बंगले के अन्दर चले गये; वहाँ के पहरे वालों ने घोड़ा थाम लिया।

घण्टे-भर तक ये लोग बंगले के अन्दर रहे, न-मालूम क्या-क्या बातें होती रहीं और किस-किस तरह का बन्दोबस्त इन लोगों ने विचारा। खैर, जो कुछ होगा मौके पर ही देखा जाएगा। घण्टे-भर बाद राजा बंगले के बाहर निकला और मुसाहबों के साथ अपने घर पहुँचा। सुबह की सुफेदी आसमान पर फैल चुकी थी। वह रात-भर का जागा हुआ था, आँखें भारी हो रही थीं, पलंग पर जाते ही नींद जा गई और पहर दिन चढ़े तक सोया रहा।

जब करनसिंह राठू की आँख खुली तो वह बहुत उदास था। उसके जी की बेचैनी बढ़ती ही जाती थी, रात की बातें एक पल के लिए उसके दिल से दूर न होती थीं! थोड़ी देर तक वह किसी सोच-विचार में बैठा रहा, आखिर उठा और जरूरी कामों से छुट्टी पा, स्नान-भोजन कर, दीवानखाने में जा बैठा। अपने मुसाहबों को, जो पूरे बेईमान और हरामजादे थे, तलब किया और जब वे लोग आ गये तो खड़गसिंह के नाम की एक चिट्ठी लिखी, जिसमें यह पूछा कि “आपने आज दरबार करने के लिए कहा था, सो किस समय होगा?”

इस चिट्ठी का जवाब लाने के लिए सरूपसिंह को कहा और वह राजा से विदा हो खड़गसिंह की तरफ रवाना हुआ!

इस समय खड़गसिंह अपने डेरे में बैठे यहाँ के बड़े-बड़े रईसों और सरदारों से बातचीत कर रहे थे, जब दरबान ने हाजिर होकर अर्ज किया कि राजा का एक मुसाहब सरूपसिंह मिलने के लिए आया है। खड़गसिंह ने उसके हाजिर होने का हुक्म दिया। सरूपसिंह हाजिर हुआ तो रईसों और सरदारों को बैठे हुए देख कर कुढ़ गया। मगर लाचार था, क्योंकि कुछ कर नहीं सकता था। राजा की चिट्ठी खड़गसिंह के हाथ में दी और उन्होंने पढ़ कर यह जवाब लिखा :

“जहाँ तक मैं समझता हूँ, आज दरबार करना मुनासिब न होगा क्योंकि अभी तक इस बात की खबर शहर में नहीं की गई, इससे मैं चाहता हूँ कि दरबार का दिन कल मुकर्रर किया जाये और आज इस बात की पूरी मुनादी करा दी जाये। दरबार का समय रात को और स्थान आपका बड़ा बाग उचित होगा, दरबार में केवल यहाँ के रईस और सरदार लोग ही बुलाए जाएँ। खड़गसिंह चिट्ठी का जवाब लेकर सरूपसिंह राजा के पास हाजिर हुआ और जो कुछ वहाँ देखा था अर्ज करने के बाद खड़गसिंह की चिट्ठी राजा के हाथ में दी। चिट्ठी पढ़ने के बाद थोड़ी देर तक राजा चुपचाप रहा और फिर बोला :

राजा : अब तो खड़गसिंह के हर एक काम में भेद मालूम होता है, दरबार का दिन कल मुकर्रर किया गया, यह तो मेरे लिए भी अच्छा है, मगर समय रात का और स्थान बाग, इसका क्या सबब?

सरूप० : किसी के दिल का हाल क्योंकर मालूम हो? मगर यह तो साफ जानता हूँ कि उसकी नीयत खराब है, जरूर वह भी अपने लिए कोई बंदोबस्त करना चाहता है।

राजा : खैर, जो कुछ होगा, देखा जायेगा, मुनादी के लिए हुक्म दे दो, हम भी अपने को बहादुर लगाते हैं। यकायकी डरने वाले नहीं, हाँ, इतना होगा कि बाग में हमारी फौज न जा सकेगी—खैर, बाहर ही रहेगी।

सरूप० : उसने वहाँ एक सिंहासन भेजने के वास्ते भी कहा है। शायद पदवी देने के बाद आप उस पर बैठाये जायेंगे।

राजा : हाँ, उन सब चीजों का जाना तो बहुत ही जरूरी है, क्योंकि इस बात का निश्चय कोई भी नहीं कर सकता कि कल क्या होगा और उसकी तरफ से क्या-क्या रंग रचे जायेंगे, मगर इतना खूब समझे रखना कि करनसिंह उन शैतानों से नावाकिफ नहीं है और ऐसा कमजोर भोला या बुजदिल भी नहीं है कि जिसका जी चाहे यकायकी धोखा दे जाये या खम ठोक कर मुकाबला करके अपना काम निकाल ले!!

अब हम थोड़ा-सा हाल तारा का लिखते हैं, जिसे इस उपन्यास के पहले ही बयान में छोड़ आये हैं। तारा बिल्कुल ही बेबस हो चुकी थी, उसे अपनी जिन्दगी की कुछ भी उम्मीद न रही थी। उसका बाप सुजनसिंह उसकी छाती पर बैठा जान लेने को तैयार था और तारा भी यह सुनकर कि उसका पति बीरसिंह अब जीता न बचेगा, मरने के लिए तैयार थी, मगर उसकी मौत अभी दूर थी। यकायक दो आदमी वहाँ जा पहुँचे, जिन्होंने पीछे से जाकर सुजनसिंह को तारा की छाती पर से खेंच लिया। सुजनसिंह लड़ने के लिए मुस्तैद हो गया और उसने वह हर्बा, जो तारा की जान लेने के लिए हाथ में लिए हुए था, एक आदमी पर चलाया।

उस आदमी ने भी हर्बे का जवाब खंजर से दिया और दोनों में लड़ाई होने लगी। इतने ही में दूसरे आदमी ने तारा को गोद में उठा लिया और लड़ते हुए अपने साथी से विचित्र भाषा में कुछ कह कर बाग के बाहर का रास्ता लिया। इस कशमकश में बेचारी तारा डर के मारे एक दफे चिल्ला कर बेहोश हो गई और उसे तनबदन की सुध न रही। जब उसकी आँख खुली, उसने अपने को एक साधारण कुटी में पाया, सामने मन्द-मन्द धूनी जल रही थी और उसके आगे सिर से पैर तक भस्म लगाये बड़ी-बड़ी जटा और लंबी दाढ़ी में गिरह लगाये एक साधु बैठा था, जो एकटक तारा की तरफ देख रहा था। उस साधु की पहली आवाज जो तारा के कान में पहुँची, यह थी, “बेटी तारा, तू डर मत, अपने को संभाल और होशहवास दुरुस्त कर।”

यह आवाज ऐसी नम और ढाढ़स देने वाली थी कि तारा का अभी तक धड़कने वाला कलेजा ठहर गया और वह अपने को संभाल कर उठ बैठी।

साधु : तारा, क्या सचमुच तेरा नाम तारा ही है या मुझे धोखा हुआ?

तारा : (हाथ जोड़कर) जी हाँ, मेरा नाम तारा ही है।

साधु ने अपनी झोंपडी के कोने में से बड़े-बड़े दो आम निकाले और तारा के हाथ में देकर कहा, “पहिले तू इन्हें खा, फिर बात-चीत होगी।”

तारा का जी बहुत ही बेचैन था, तरह-तरह के खयालों ने उसे अपने आपे से बाहर कर दिया था, और इस विचार ने कि उसके पति बीरसिंह पर जरूर कोई आफत आई होगी, उसे अधमूआ कर दिया था। वह सोच रही थी कि अगर मैं अपने बाप के हाथ से सार डाली गई होती तो अच्छा था, क्योंकि इन सब बखेड़ों से और अपने पति के बारे में बुरी खबरों के सुनने से तो बचती। तारा ने आम खाने से इन्कार किया, मगर साधु महाशय के बहुत जिद करने और समझाने से लाचार हुई और आम खाना ही पड़ा। हाथ धोने के लिए जब वह कुटी के बाहर निकली, तब उसे मालूम हुआ कि यह कुटी एक नदी के किनारे पर बनी हुई है और चारों तरफ जहाँ तक निगाह काम करती है, मैदान और सन्नाटा ही दिखाई पड़ता है। समय दोपहर का था, बल्कि धूप कुछ ढल चुकी थी जब तारा हाथ-मुँह धोकर बैठी और यों बात-चीत होने लगी :

साधु : हाँ तारा, अब मैं उम्मीद करता हूँ कि तू अपना सच्चा-सच्चा हाल मुझसे कहेगी।

तारा : बेशक, मैं आपसे जो कुछ कहूँगी, सच कहूँगी, क्योंकि मुझे आपसे अपनी भलाई की बहुत-कुछ उम्मीद होती है।

साधु : मेरे सामने अग्नि जल रही है, मैं इसे साक्षी देकर कहता हूँ कि तू मुझसे सिवाय भलाई के बुराई की उम्मीद जरा भी मत रख। हाँ, अब कह, तू कौन है और तुझ पर क्या आफत आई है?

तारा : मैं राजा करनसिंह के खजांची सुजनसिंह की लड़की हूँ।

साधु : वही लड़की जिसकी शादी बीरसिंह के साथ हुई है?

तारा : जी हाँ।

साधु : तेरा बाप है तो क्या हुआ मगर मैं यह कहने से बाज न आऊँगा कि सुजनसिंह बड़ा ही बेईमान नमकहराम और खुदगर्ज आदमी है। साथ ही इससे बीरसिंह की वीरता, लायकी और रिआया-पर्वरी मुझसे अपनी तारीफ कराये बिना नहीं रहती। बीरसिंह बड़ा ही धर्मात्मा और साहसी है। हाँ तारा, जब तू सुजनसिंह की लड़की है, तो जरूर राजा के यहाँ भी आती-जाती होगी?

तारा : जी हाँ, पहिले तो मैं महीनों राजा ही के यहाँ रहा करती थी, मगर अब नहीं। अब तो राजा और पिता दोनों ही के यहाँ का आना-जाना बन्द हो गया।

साधु : सो क्यों?

तारा : क्योंकि दोनों मेरी जान के ग्राहक हो गए!

साधु : खैर, दोनों जगह का आना-जाता बन्द होने का सबब पीछे सुनूँगा, पहिले बता कि तेरा पिता सुजनसिंह ‘कटोरा भर खून’ के नाम से क्यों डरता और काँपता है ? इसमें क्या भेद है?

तारा : (काँप कर) ओफ्! याद करके कलेजा काँपता है, वह बड़ा ही भयानक दृश्य था ! खैर, मैं कहूँगी, मगर यह बड़ी ही नाजुक बात है।

साधु : मैं कसम खाकर कह चुका कि तू मुझसे सिवाय भलाई के बुराई की उम्मीद कभी मत रख, फिर क्या डरती है?

तारा : मैं कहूँगी ओर जरूर कहूँगी, मेरा दिल गवाही देता है कि आप मेरे खैरख्वाह हैं, न-मालूम क्यों मुझे आपके चरणों में मुहब्बत होती है।

तारा के ऐसा कहने से साधु की आँखें डबडबा आईं, उसने धूनी में से थोड़ी-सी राख उठा कर अपनी आँखों पर मली और इस तरकीब से आँसू सुखा कर बोला :

साधु : खैर, तारा, यह तो ईश्वर की कृपा है। हाँ, तू वह भेद कह, मेरा जी उसे सुनने के लिए बेचैन है।

तारा : मगर इसके साथ मुझे अपना भी बहुत-सा किस्सा कहना पड़ेगा!

साधु : कोई हर्ज नहीं, मैं सब-कुछ सुनने के लिए तैयार हूँ।

तारा : अच्छा तो मैं कहती हूँ, सुनिए। मैं लड़कपन से राजा के यहाँ आती-जाती थी और कई-कई दिनों तक वहाँ रहा करती थी। महल में एक और लड़की भी रहा करती, जिसका नाम अहिल्या था। उसकी उम्र मुझसे बहुत ज्यादा थी, मगर तो भी मैं उससे मुहब्बत करती थी और वह भी मुझे दिल से चाहती और प्यार करती थीं। मुझे यह न मालूम हुआ कि अहिल्या के माता-पिता कौन और कहाँ हैं और उसका कोई रिश्तेदार है या नहीं। मैंने कई दफे अहिल्या से पूछा कि तेरे माता-पिता कौन और कहाँ हैं, मगर इसके जवाब में उसने केवल आँसू गिरा दिया और मुँह से कुछ न कहा। मेरी और बीरसिंह की जान-पहचान लड़कपन ही से थी। वह महल में बराबर राजा के साथ आया करते थे, अक्सर अहिल्या के पास भी जाकर कुछ देर बैठा करते थे और वह उन्हें भाई के समान मानती थी। मैं अहिल्या को बीबी कह कर पुकारती थी। अहिल्या और बीरसिंह दोनों ही को राजा माना करते थे, बल्कि अहिल्या ही के कहने से मेरी शादी बीरसिंह के साथ हुई।

साधु : अहिल्या का नाम अहिल्या ही था या कोई और नाम भी उसका था?

तारा : उसका कोई दूसरा नाम कभी सुनने में नहीं आया, मगर एक दिन एक भयानक घटता के समय मुझे मालूम हो गया कि उसका एक दूसरा नाम भी है।

साधु : वह क्या नाम है?

तारा : सो मैं आगे चल कर कहूँगी, अभी आप सुनते जाइये।

साधु : अच्छा, कहो।

तारा : महारानी ने राजा से कई दफे कहा कि अहिल्या बहुत बड़ी हो गई है, इसकी शादी कहीं कर देनी चाहिए, मगर राजा ने यह बात मंजूर न की। थोड़े दिन बाद राजा के बर्ताव से महारानी तथा और कई औरतों को मालूम हो गया कि अहिल्या के ऊपर राजा की बुरी निगाह पड़ती है और इसी सबब से वे उसकी शादी नहीं करते।

साधु : हरामजादा, पाजी, बेईमान कहीं का! हाँ तब क्या हुआ?

तारा : यह बात रानी को बहुत बुरी लगी और इसके सबब कई दफे राजा से झगड़ा भी हुआ, आखिर एक दिन राजा ने खुल्लमखुल्ला कह दिया कि अहिल्या की शादी कभी न की जायेगी।

साधु : अच्छा, तब क्या हुआ?

तारा : यह बात रानी को तीर के समान लगी और अहिल्या का चेहरा भी सूख गया और उसने डर के मारे राजा के सामने जाना बन्द कर दिया। तीन-चार दिन के बाद अहिल्या यकायक महल से गायब हो गई। राजा ने बहुत उधम मचाया, कई लौंडियों को मारा-पीटा, कितनों ही को महल से निकाल दिया, रानी से भी बोलना छोड़ दिया, मगर अहिल्या का पता न लगा।

साधु : क्या अभी तक अहिल्या का पता नहीं है?

तारा : आप सुने चलिये, मैं सब कुछ कहती हूँ। कई वर्ष के बाद एक दिन किसी लौंडी से चुपके-चुपके रानी को यह कहते मैंने सुन लिया कि ‘अब तो अहिल्या को दूसरा लड़का भी हुआ, पहिली लड़की तीन वर्ष की हो चुकी, ईश्वर करे उसका पति जीता रहे। सुनते हैं, बड़ा ही लायक है और अहिल्या को बहुत चाहता है।’

अहिल्या के सामने ही मेरी शादी बीरसिंह से हो चुकी थी और मैं अपने ससुराल में रहने लग गई थी। अहिल्या के गायब होने का रंज मुझे और बीरसिंह को भी हुआ था और इसी से मैंने महल में आना-जाना बहुत कम कर दिया था, मगर जिस दिन रानी की जुबानी ऊपर वाली बात सुनी, मुझे एक तरह की खुशी हुई। मैंने यह हाल बीरसिंह से कहा, वह भी सुनकर बहुत खुश हुए और समझ गये कि रानी ने उसे कहीं भेजवा कर उसकी शादी करा दी थी। उसके बाद यह भेद भी खुल गया कि रानी ने उसे अपने नैहर भेज दिया था।

साधु : तुम्हारे ससुराल में कौन-कौन है?

तारा : नाम ही को ससुराल है, असल में मेरा सच्चा रिश्तेदार वहाँ कोई भी नहीं, हाँ, पाँच-सात मर्द और औरतें हैं, हमारे पति उनमें से किसी को चाचा, किसी को मौसा, किसी को चाची इत्यादि कह के पुकारा करते हैं। असल में उनका कोई भी नहीं है। उनके माँ-बाप उनके लड़कपन ही में मर गए थे और राजा ने उन्हें पाला था। राजा उन्हें बहुत मानते थे, मगर फिर भी वे कहा करते थे कि राजा बड़ा ही बेईमान है, एक-न-एक दिन हमसे और उससे बेतरह बिगड़ेगी।

साधु : खैर, तब क्या हुआ?

तारा: बहुत दिन बीत जाने पर एक दिन रानी ने मिलने के लिए मुझे महल में बुलाया। मैं गई और तीन-चार दिन तक वहाँ रही। इसी बीच में एक दिन रात को मैं महल में लेटी हुई थी, मेरा पलंग रानी की मसहरी के पास ही बिछा हुआ था, इधर-उधर कई लौंडियाँ भी सोई हुई थीं, रानी भी नींद में थीं, मगर मुझे नींद नहीं आ रही थी। यकायक यह आवाज मेरे कान में पड़ी–“हाय, आखिर बेचारी अहिल्या फँस ही गई। चलो दीवानखाने के ऊपर वाले छेद से झाँक कर देखें कि किस तरह बेचारी की जान ली जाती है, फिर आकर रानी को उठावें?

इस आवाज को सुनते ही मैं चौंक पड़ी, कलेजा धकधक करने लगा। बेताबी ने मुझे किसी तरह दम न लेने दिया। मैं चारपाई पर से उठ बैठी और कुछ सोच-विचार कर ऊपर की छत पर चली गई और धीरे-धीरे उस पाटन की तरफ चली जो दीवानखाने की छत से मिली हुई थी। कमर-भर ऊँची दीवार फाँद कर वहाँ पहुँची। वहाँ छोटे-छोटे कई सूराख ऐसे थे, जिनमें से झाँक कर देखने से दीवानखाने की कुल कैफियत मालूम हो सकती थी। मेरे जाने के पहिले ही दो औरतें वहाँ पहुँची हुई थीं।

साधु: वे दोनों कौन थीं?

तारा: दोनों रानी साहिबा की लौंडियाँ थीं, मुझे देखते ही मेरे पास पहुँचीं और हाथ जोड़ कर बोलीं—“ईश्वर के वास्ते आप कोई ऐसा काम न करें, जिसमें हम लोगों की और आपकी भी जान जाये। अगर राजा जान जायेगा या किसी ने देख लिया तो बिना जान से मारे न छोड़ेगा!” इसके जवाब में मैंने कहा—“तुम खातिर जमा रक्खो, किसी को कुछ भी खबर न होगी।”

यह दीवानखाना पुराना था, जब से राजा ने अपने लिए दूसरा दीवानखाना बनवाया, तब से वर्षों हुए यह खाली ही पड़ा रहता था, इसमें कभी चिराग भी नहीं जलता था। लोगों का खयाल था कि इसमें भूत-प्रेत रहते हैं, इसलिए कोई उस तरफ जाता भी न था। मैंने सूराख में से झाँक कर देखा, सामने ही बेचारी अहिल्या सिर झुकाए बैठी आँसू गिरा रही थी, एक तरफ कोने में पाँच-चार कुदाल जमीन खोदने वाले पड़े थे। दूसरी तरफ मिट्टी के बीस-पच्चीस घड़े जल से भरे पड़े हुए थे। अहिल्या के सामने राजा खड़ा उसी की तरफ देख रहा था, राजा के पीछे मेरा बाप सुजनसिंह, रामदास और हरीसिंह राजा के मुसाहब खड़े थे। मेरे बाप की गोद में एक लड़की थी, जिसकी उम्र लगभग तीन वर्ष की होगी। हाय, उसकी सूरत याद पड़ने से रोंगटे खड़े हो जाते हैं! उसकी सूरत किसी तरह भुलाये नहीं भूलती। राजा ने अहिल्या से कहा–“सुन्दरी, तू मेरी बात न मानेगी? तू मेरी होकर न रहेगी?”

साधु : क्या नाम लिया, सुन्दरी!

तारा : जी हाँ, सुन्दरी। उसी समय मुझे मालूम हुआ कि उसका नाम सुन्दरी भी है।

साधु : हाय, अच्छा तब क्या हुआ?

तारा : सुन्दरी ने सिर हिला कर इनकार किया।

साधु : तब?

तारा : राजा ने कहा, “सुन्दरी, अगर तू मेरी बात न मानेगी तो पछताएगी। मैं जबरदस्ती तुझे अपने कब्जे में करके अपनी ख्वाहिश पूरी कर सकता हूँ, मगर मैं चाहता हूँ कि एक दिन के लिए क्या हमेशा के लिए तू मेरी हो जा। अगर तेरी इच्छा है तो तेरे लिए रानी को भी मार डालने को मैं तैयार हूँ और तुझे अपनी रानी बना सकता हूँ!” इसके जवाब में सुन्दरी ने कहा, “अरे दुष्ट, तू बेहूदी बातें क्यों बकता है, अगर तू साक्षात् इन्द्र भी बन के आवे तो मेरे दिल को नहीं फेर सकता!”

साधु : शाबाश, अच्छा तब क्या हुआ?

तारा : राजा ने मेरे पिता की तरफ कुछ इशारा किया, उसने लड़की को जिसे वह गोद में लिए हुए था, चादर से बाँध खूँटों के साथ उलटा लटका दिया और खंजर निकाल सामने जा खड़ा हुआ। लड़की बेचारी चिल्लाने लगी और सुन्दरी की आँखों से भी आँसू की धारा बह चली। राजा ने फिर पुकार कर कहा, सुन्दरी, अब भी मान जा! नहीं तो तेरी इसी लड़की के खून से तुझे नहलाऊँगा।

“हाय, क्या मैं अपने पति के साथ दगा करूँ और उसकी होकर दूसरे की बनूँ? यह कभी नहीं हो सकता!!”

राजा ने हरीसिंह और मेरे पिता की तरफ कुछ इशारा किया। हरी सिंह ने एक कटोरा लड़की के नीचे रख दिया, मेरे पिता ने खंजर से लड़की का काम तमाम करना चाहा मगर न-मालूम कहाँ से उसके दिल में दया का संचार हुआ कि खंजर उसके हाथ से गिर पड़ा। राजा को उसकी यह अवस्था देख क्रोध चढ़ आया, तलवार खेंच कर मेरे पिता के पास जा पहुँचा और बोला, “हरामजादे! क्या मेरी बात तू नहीं सुनता! खबरदार, होशियार हो जा, इस लड़की का खून इस कटोरे में भर कर मुझे दे, मैं जबरदस्ती हरामजादी को पिलाऊँगा!!”

लाचार मेरे बाप ने फिर खंजर उठा लिया और उसका दस्ता (कब्जा) इस जोर से बेचारी चिल्लाती हुई लड़की के सर में मारा कि सर फूट की तरह फट गया और खून का तरारा बहने लगा। यह हाल देख बेचारी सुन्दरी चिल्लाई और “हाय” करके बेहोश हो गई। मेरे भी हवास जाते रहे और मैं भी बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ी। घण्टे-भर के बाद जब मुझे होश आया, मैं उठी और उसी सूराख की राह झाँक कर देखने लगी, मगर इस वक्त दूसरा ही समाँ नजर पड़ा। उस दीवानखाने में न तो सुन्दरी थी और न वह लटकती हुई लड़की ही। उसके बदले दूसरे दो आदमियों की लाश पड़ी हुई थी। राजा और उसके साथी जो-जो बातें करते थे साफ सुनाई देती थीं। राजा ने मेरे बाप की तरफ देख कर कहा, “ये दोनों हरामजादी लौंडियाँ छत पर चढ़ कर मेरी कारवाई देख रही थीं! इन्हें अपनी जान का कुछ भी खौफ न था! (हरीसिंह की तरफ देख कर) हरी, इन दोनों की लाश ऐसी जगह पहुँचाओ कि हजारों वर्ष बीत जाने पर भी किसी को इनके हाल की खबर न हो। (मेरे बाप की तरफ देख कर) तेंने बहुत बुरा किया जो तारा को छोड़ दिया, बेशक, अब वह भाग गई होगी, लेकिन तेरी जान तभी बचेगी जब तारा का सर मेरे सामने लाकर हाजिर करेगा, वह भी ऐसे ढब से कि किसी को कानोंकान खबर न हो कि तारा कहाँ गई और क्या हुई। बेशक, तारा यह हाल बीरसिंह से भी कहेगी, मुझे लाजिम है कि जहाँ तक जल्द हो सके बीरसिंह को भी इस दुनिया से उठा दूँ!”

यह सुनते ही मेरा कलेजा काँप उठा और यह सोचती हुई कि मैं अभी जाकर अपने पति को इस हाल की खबर करूँगी, जिससे वे अपनी जान बचा सकें, वहाँ से भागी और महल से एक लौंडी को साथ ले तुरन्त अपने घर चली आई।

साधु महाशय तारा के मुँह से इस किस्से को सुन कर काँप गए और देर तक गौर में पड़े रहने के बाद बोले, “यह राजा बड़ा ही दुष्ट और दगाबाज है, लेकिन ईश्वर चाहेगा तो बहुत जल्द अपने कर्मों का फल भोगेगा!!”

तो यह खंड यही पर समाप्त होता है और हम फिर मिलते है अब अगले खंड में..............
 
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hirak01

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खंड - 10

रात पहर-भर जा चुकी है। खड़गसिंह अपने मकान में बैठे इस बात पर विचार कर रहे हैं कि कल दरबार में क्या-क्या किया जाएगा। यहाँ के दस-बीस सरदारों के अतिरिक्त खड़गसिंह के पास ही नाहरसिंह, बीरसिंह और बाबू साहब भी बैठे हैं।

खड़गसिंह : बस यही राय ठीक है। दरबार में अगर राजा के आदमियों से हमारे खैरख्वाह सरदार लोग गिनती में कम भी रहेंगे तो कोई हर्ज नहीं।

नाहरसिंह : जिस समय गरज कर मैं अपना नाम कहूँगा, राजा की आधी जान तो उसी समय निकल जायेगी, फिर कसूरवार आदमी का हौसला ही कितना बड़ा? उसकी आधी हिम्मत तो उसी समय जाती रहती है, जब उसके दोष उसे याद दिलाये जाते हैं।

एक सरदार : हम लोगों ने भी यही सोच रक्खा है कि या तो अपने को हमेशा के लिए उस दुष्ट राजा की ताबेदारी से छुड़ायेंगे या फिर लड़कर जान ही दे देंगे।

नाहरसिंह : ईश्वर चाहे तो ऐसी नौबत नहीं आवेगी और सहज ही में सब काम हो जाएगा। राजा की जान लेना, यह तो कोई बड़ी बात नहीं, अगर मैं चाहता तो आज तक कभी का उसे यमलोक पहुँचा दिया होता, मगर मैं आज का-सा समय ढूँढ रहा था और चाहता था कि वह तभी मारा जाये जब उसकी हरमजदगी लोगों पर साबित हो जाये और लोग भी समझ जाएँ कि बुरे कामों का फल ऐसा ही होता है।

खड़गसिंह : (नाहरसिंह से) हाँ, आपने कहा था कि बाबाजी ने तुमसे मिलना मंजूर कर लिया, घण्टे-दो घण्टे में यहाँ जरूर आवेंगे, मगर अभी तक आए नहीं!

नाहरसिंह : वे जरूर आवेंगे॥

इतने ही में दरबान ने आकर अर्ज किया कि एक साधु बाहर खड़े हैं जो हाजिर हुआ चाहते हैं। इतना सुनते ही खड़गसिंह उठ खड़े हुए और सभों की तरफ देख कर बोले, “ऐसे परोपकारी महात्मा की इज्जत सभों को करनी चाहिए।”

सब-के-सब उठ खड़े हुए और आगे बढ़कर बड़ी इज्जत से बाबा जी को ले आये और सबसे ऊँचे दर्जे पर बिठाया।

बाबा : आप लोग व्यर्थ इतना कष्ट कर रहे हैं! मैं एक अदना फकीर, इतनी प्रतिष्ठा के योग्य नहीं हूँ।

खड़गसिंह : यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं, आपकी तारीफ नाहरसिंह की जुबानी जो कुछ सुनी है मेरे दिल में है।”

बाबा : अच्छा, इन बातों को जाने दीजिए और यह कहिए कि दरबार के लिए जो कुछ बन्दोबस्त आप लोग किया चाहते थे वह हो गया या नहीं?

खड़गसिंह : सब दुरुस्त हो गया, कल रात को राजा के बड़े बाग में दरबार होगा।

बाबा: मेरी भी इच्छा होती है कि दरबार में चलूँ।

खड़गसिंह : आप खुशी से चल सकते हैं, रोकने वाला कौन है?

बाबा : मगर इस जटा, दाढ़ी-मूंछ और मिट्टी लगाए हुए बदन से वहाँ जाना बेमौके होगा।

खड़गसिंह : कोई बेमौके न होगा ।

बाबा : क्या हर्ज होगा अगर एक दिन के लिए मैं साधु का भेष छोड़ दूँ ओर सरदारी ठाठ बना लूँ।

खड़गसिंह : (हँस कर) इसमें भी कोई हर्ज नहीं! साधु और राजा समान ही समझे जाते हैं!!

बाबा : और तो कोई कुछ न कहेगा मगर नाहरसिंह से चुप न रहा जायेगा।

नाहरसिंह : (हाथ जोड़ कर) मुझे इसमें क्यों उज्र होगा?

बाबा : क्यों का सबब तुम नहीं जानते और न मैं कह सकता हूँ, मगर इसमें कोई शक नहीं कि जब मैं अपना सरदारी ठाठ बनाऊंगा तो तुमसे चुप न रहा जायेगा।

नाहरसिंह : न-मालूम आप क्यों ऐसा कह रहे हैं!

बाबा : (खड़गसिंह से) आप गवाह रहिये, नाहर कहता है कि मैं कुछ न बोलूँगा।

खड़गसिंह : मैं खुद हैरान हूँ कि नाहर क्यों बोलेगा!!

बाबा : अच्छा, फिर हजाम को बुलवाइये, अभी मालूम हो जाता है। लेकिन आप और नाहर थोड़ी देर के लिए मेरे साथ एकान्त में चलिए और हजाम को भी उसी जगह आने का हुक्म दीजिये।

आखिर ऐसा ही किया गया। बाबाजी, खड़गसिंह और नाहरसिंह एकान्त में गए, हजाम भी उसी जगह हाजिर हुआ। बाबाजी ने जटा कटवा डाली, दाढ़ी मुंड़वा डाली और मूंछों के बाल छोटे-छोटे कटवा डाले। नाहरसिंह और खड़गसिंह सामने बैठे तमाशा देख रहे थे।

बाबाजी के चेहरे की सफाई होते ही नाहरसिंह की सूरत बदल गई, चुप रहना उसके लिए मुश्किल हो गया, वह घबड़ाकर बाबाजी की तरफ झुका।

बाबा : हाँ हाँ, देखो ! मैंने पहिले ही कहा था कि तुमसे चुप न रहा जाएगा!!

नाहरसिंह : बेशक, मुझसे चुप न रहा जाएगा! चाहे जो हो मैं बिना बोले कभी न रह सकता!

खड़गसिंह : नाहरसिंह! यह क्या मामला है?

नाहरसिंह : नहीं नहीं, मैं बिना बोले-नहीं रह सकता!!

बाबा : यह तो मैं पहिले ही से समझे हुए था। खैर, हजाम को विदा हो लेने दो, केवल हम तीन आदमी रह जायें तो जो चाहे बोलना।

हजाम बिदा हुआ, दो खिदमतगार बुलाये गए, बाबाजी ने उसी समय सिर मल के स्नान किया और उनके लिए जो कपड़े खड़गसिंह ने मँगवाए थे, उन्हें पहन कर निश्चिन्त हुए, मगर इस बीच में नाहरसिंह के दिल की क्या हालत थी, सो वही जानता होगा। मुश्किल से उसने अपने को रोका और मौके का इन्तजार करता रहा। जब इन कामों से बाबाजी ने छुट्टी पाई, तीनों आदमी एकान्त में बैठे और बातें करने लगे।

न मालूम घण्टे-भर तक कोठरी के अन्दर बैठे उन तीनों में क्या-क्या बातें हुईं, हाँ बाबाजी, नाहरसिंह और खड़गसिंह तीनों के सिसक-सिसक कर रोने की आवाज कोठरी के बाहर कई दफे आई, जिसे हमने भी सुना और स्वप्न की तरह आज तक याद है।

कोठरी से बाहर निकल कर साधु महाशय मुँह पर नकाब डाल बिदा हुए और नाहरसिंह तथा खड़गसिंह उस अदालत में आ बैठे, जिसमें बाकी के सरदार लोग बैठे हुए थे। सरदारों ने पूछा कि बाबाजी कहाँ गए और उनकी ताज्जुब- भरी बातों का क्या नतीजा निकला? इसके जवाब में खड़गसिंह ने कहा कि बाबाजी इस समय तो चले गए, मगर कह गए हैं कि “मेरे पेट में जो-जो बातें भेद के तौर पर जमा हैं, वे कल दरबार में जाहिर हो जायेंगी, इसलिए मेरे साथ आप लोगों को भी उनका हाल कल ही मालूम होगा।

आधी रात तक ये लोग बैठे बातचीत करते रहे, इसके बाद अपने-अपने घर की तरफ रवाना हुए।

******************************************************************

हरिपुर के राजा करनसिंह राठू का बाग बड़ी तैयारी से सजाया गया, रोशनी के सबब दिन की तरह उजाला हो रहा था, बाग की हर एक रविश पर रोशनी की गई थी, बाहर की रोशनी का इन्तजाम भी बहुत अच्छा था। बाग के फाटक से लेकर किले तक जो एक कोस के लगभग होगा, सड़क के दोनों तरफ गञ्ज की रोशनी थी, हजारों आदमी आ-जा रहे थे। शहर में हर तरफ इस दरबार की धूम थी। कोई कहता था कि आज महाराज नेपाल की तरफ से राजा को पदवी दी जाएगी, कोई कहता था कि नहीं नहीं, महाराज को यहाँ की रिआया चाहती है या नहीं, इस बात का फैसला किया जाएगा और इस राजा को गद्दी से उतार कर दूसरे को राजतिलक दिया जाएगा। अच्छा तो यही होगा कि बीरसिंह को राजा बनाया जाये। हम लोग- इसके लिए लड़ेंगे, धूम मचावेंगे और जान तक देने को तैयार रहेंगे।

इसी प्रकार तरह-तरह के चर्चे शहर में हो रहे थे, शहर-भर बीरसिंह का पक्षपाती मालूम होता था, मगर जो लोग बुद्धिमान थे, उनके मुँह से एक बात भी नहीं निकलती थी और वे लोग मन-ही-मन में न-मालूम क्या सोच रहे थे। आज के दरबार में जो कुछ होना है, इसकी खबर शहर के बड़े-बड़े रईसों ओर सरदारों को भी जरूर थी, मगर वे लोग जबान से इस बारे में एक शब्द भी नहीं निकालते थे।

बाग में एक आलीशान बारहदरी थी, उसी में दरबार का इन्तजाम किया गया। उसकी सजावट हद से ज्यादे बड़ी हुई थी। खड़गसिंह ने राजा को कहला भेजा था कि दरबार में एक सिंहासन भी रहना चाहिए, जिस पर पदवी देने के बाद आप बैठाए जायेंगे, इसीलिए बारहदरी के बीचोबीच में सोने का सिंहासन बिछा हुआ था, उसके दाहिनी तरफ राजा के लिए और बायीं तरफ नेपाल के सेनापति खड़गसिंह के लिए चांदी की कुर्सी रक्खी गई थी, और सामने की तरफ शहर के रईसों और सरदारों के लिए दुपट्टी मखमली गद्दी की कुर्सियां लगाई गयी थीं। सजावट का सामान जो राज दरबार के लिए मुनासिब था, सब दुरुस्त किया गया था।

चिराग जलते ही दरबार में लोगों की अवाई शुरू हो गई और पहर रात जाते-जाते दरबार अच्छी तरह भर गया। राजा करनसिंह और खड़गसिंह भी अपनी- अपनी जगह बैठ गए। नाहरसिंह, बीरसिंह और बाबू साहब भी दरबार में बैठे हुए थे, मगर बाबाजी अपने मुँह पर नकाब डाले एक कुर्सी पर बिराज रहे थे, जिनको देख लोग ताज्जुब कर रहे थे और राजा इस विचार में पड़ा हुआ था कि ये कौन हैं?

राजा या राजा के आदमी नाहरसिंह को नहीं पहिचानते थे पर बीरसिंह को बिना हथकड़ी-बेड़ी के स्वतन्त्र देखकर राजा की आँख क्रोध से कुछ लाल हो रही थीं, मगर यह मौका बोलने का न था, इसलिए चुप रहा। हाँ, राजा की दो हजार फौज चारों तरफ से बाग को घेरे हुए थी और राजा के मुसाहब लोग इस दरबार में कुर्सियों पर न बैठ के न-मालूम किस धुन में चारों तरफ घूम रहे थे।

सेनापति खड़गसिंह के भी चार सौ बहादुर लड़ाके जो नेपाल से साथ आए थे, बाग के बाहर चारों तरफ बँट कर फैले हुए थे और नाहरसिंह के सौ आदमी भी भीड़ में मिले-जुले चारों तरफ घूम रहे थे। बाग के अन्दर दो हजार से ज्यादा आदमी मौजूद थे, जिनमें पांच सौ राजा की फौज थी और बाकी रिआया।

जब दरबार अच्छी तरह भर गया, खड़गसिंह ने अपनी कुर्सी से उठ कर ऊँची आवाज में कहा : “मैं महाराज नेपाल का सेनापति जिस काम के लिए यहाँ भेजा गया हूँ, उसे पूरा करता हूँ। आज का दरबार केवल दो कामों के लिए किया गया है, एक तो इस राज्य के दीवान बीरसिंह का, जिसके ऊपर राजकुमार का खून साबित हो चुका है, फैसला किया जाये, दूसरे राजा करनसिंह को अधिराज की पदवी दी जाये। इस समय लोग इस विचार में पड़े होंगे कि बीरसिंह जिस पर राजकुमार के मारने का इल्जाम लग चुका है, बिना हथकड़ी-बेड़ी के यहाँ क्यों दिखाई देता है। इसका जवाब मैं यह देता हूँ कि एक तो बीरसिंह यहाँ के राजा का दीवान है, दूसरे इस भरे हुए दरबार में से वह किसी तरह भाग नहीं सकता, तीसरे, परसों राजा के आदमियों ने उसे बहुत जख्मी किया है, जिससे वह खुद कमजोर हो रहा है, चौथे बीरसिंह को इस बात का दावा है कि वह अपनी बेकसूरी साबित करेगा। अस्तु, बीरसिंह को हुक्म दिया जाता है कि उसे जो कुछ कहना हो कहे।”

इतना कह कर खड़गसिंह बैठ गए और बीरसिंह ने अपनी कुर्सी से उठ कर कहना शुरू किया :

“आप लोग जानते हैं और कहावत मशहूर है कि जिस समय आदमी अपनी जान से नाउम्मीद होता है, तो जो कुछ उसके जी में आता है कहता है और किसी से नहीं डरता। आज मेरी भी वही हालत है। यहाँ के राजा करनसिंह ने राजकुमार के मारने का बिल्कुल झूठा इल्जाम मुझ पर लगाया है। उसने अपने लड़के को तो कहीं छिपा दिया है और गरीब रिआया का खून करके मुझे फँसाना चाहता है। आप लोग जरूर कहेंगे कि राजा ने ऐसा क्यों किया? उसके जवाब में मैं कहता हूँ कि राजा करनसिंह असल में मेरे बाप का खूनी है। पहिले यह मेरे बाप का गुलाम था, मौका मिलने पर इसने अपने मालिक को मार डाला और अब उसके बदले में राज्य कर रहा है। पहिले तो राजा को मेरा डर न था, मगर जब से नाहरसिंह ने राजा को सताना शुरू किया है और यहाँ की रिआया मुझे मानने लगी है तभी से राजा को मेरे मारने की धुन सवार हो गई है। नाहरसिंह भी बेफायदा राजा को नहीं सताता, वह मेरा बड़ा भाई है और राजा से अपने बाप का बदला लिया चाहता है। (करनसिंह, करनसिंह राठू, नाहरसिंह, सुन्दरी, तारा और अपना कुल किस्सा जो हम ऊपर लिख आये हैं, खुलासा कहने के बाद) अब आप लोग उन दोनों बातों का अर्थात एक तो मुझ पर झूठा इल्जाम लगाने का और दूसरे मेरे पिता के मारने का सबूत चाहेंगे। इनमें से एक बात का सबूत तो मेरा बड़ा भाई नाहरसिंह देगा, जिसका असल नाम विजयसिंह है और जो इसी दरबार में मौजूद है तथा सिवाय राजा के और किसी का दुश्मन नहीं है, और दूसरी बात का सबूत कोई और आदमी देगा जो शायद यहीं कहीं मौजूद है।”

इन बातों को सुनते ही चारों तरफ से ‘त्राहि-त्राहि’ की आवाज आने लगी। राजा के तो होश उड़ गए। अब राजा को विश्वास हो गया कि यह दरबार केवल इसलिए लगाया गया है कि यहाँ की कुल रिआया के सामने मेरा कसूर साबित कर दिया जाये और मैं नालायक और बेईमान ठहराया जाऊँ। यह सिंहासन भी शायद इसलिए रखवाया गया है कि इस पर रिआया की तरफ से नाहरसिंह या बीरसिंह को बिठाया जाये। ओफ्, अब किसी तरह जान बचती नजर नहीं आती! मेरे कर्मों का फल आज पूरा हुआ चाहता है! अगर मैं अपनी फौज का इन्तजाम न करता तो मुश्किल ही हो चुकी थी, लेकिन अब तो एक दफे दिल खोल के लड़ूंगा। लेकिन जरा और ठहरना चाहिए, देखें वह अपनी दोनों बातों का सबूत क्या पेश करता है। नाहरसिंह कौन है? सबूत लेकर आगे बढ़े तो देखें उसकी सूरत कैसी है?

राजा इन सब बातों को सोचता ही रहा, उधर बीरसिंह की बात समाप्त होते ही नाहरसिंह जिसका नाम अब हम बिजयसिंह लिखेंगे, अपनी कुर्सी से उठा और वही चीठी जो उसने रामदास की कमर से पाई थी, खड़गसिंह के हाथ में यह कह कर दे दी कि ‘एक सबूत तो यह है’।

खड़गसिंह ने उस चिट्ठी को खड़े होकर जोर से सभों को सुना कर पढ़ा और चिट्ठी वाला हाथ ऊँचा करके कहा, “एक बात का सबूत तो बहुत पक्का मिल गया, इस चिट्ठी पर राजा के दस्तखत के सिवाय उसकी मुहर भी है, जिससे वह किसी तरह इन्कार नहीं कर सकता है।” चीठी को सुनते ही चारों तरफ से आवाज आने लगी, “लानत है ऐसे राजा पर। लानत है ऐसे राजा पर!!

खड़गसिंह अपनी कुर्सी पर बैठे ही थे कि बाबाजी उठ खड़े हुए। मुँह से नकाब हटा कर सिंहासन के पास चले गए, और जोर से बोले -“दूसरी बात का सबूत मैं हूँ! (सभा की तरफ देख कर) राजा तो मुझे देखते ही पहचान गया होगा कि मैं फलाना हूँ, मगर आप लोग यह सुन कर घबड़ा जायेंगे कि बीरसिंह का बाप करनसिंह जिसे राजा ने जहर दिया था और जिसका किस्सा अभी बीरसिंह आप लोगों को सुना चुका है मैं ही हूँ। मेरी जान बचाने वाले का भाई भी इस शहर में मौजूद है, हाँ यदि राजा का जोश कोई रोक सके तो मैं आप लोगों को अपना विचित्र हाल सुनाऊँ, मगर ऐसी आशा नहीं है। बेईमान राजा की जल्दबाजी आप लोगों को मेरा किस्सा सुनने न देगी। देखिए, देखिए, वह बेईमान कुर्सी से उठ कर मुझ पर वार किया चाहता है! नमकहराम और विश्वासघाती को अब भी शर्म नहीं मालूम होती और वह….!!”

बाबाजी की बातें क्योंकर पूरी हो सकती थीं! बेईमान राजा का दिल उसके काबू में न था और न वह यही चाहता था कि बाबाजी (करनसिंह) यहाँ रहें और उनकी बातें कोई सुने! वह बहुत कम देर तक बेखुद रहने बाद एकदम चीख उठा और नयाम (म्यान) से तलवार खींच कर अपने आदमियों को यह कहता हुआ कि “मारो इन लोगों को, एक भी बच के न जाने पावे” उठा और बाबाजी पर तलवार का वार किया। बाबाजी ने घूम कर अपने को बचा लिया मगर राजा के सिपाही और सरदार लोग बीरसिंह और उसके पक्षपातियों पर टूट पड़े। लड़ाई शुरू हो गई और फर्श पर खून-ही-खून दिखाई देने लगा पर बीरसिंह के पक्षपाती बहादुरों के सामने कोई ठहरता दिखाई न दिया।

राजा करनसिंह के बहुत-से आदमी वहाँ मौजूद थे और दो हजार फौज भी बाहर खड़ी थी, जिसका अफसर इसी दरबार में था, मगर बिल्कुल बेकाम। किसी ने दिल खोल कर लड़ाई न की, एक तो वे लोग राजा के जुल्मों की बात सुन पहिले ही बेदिल हो रहे थे, दूसरे, आज की वारदात, बीरसिंह और सुन्दरी का किस्सा, और राजा के हाथ की लिखी चिट्ठी का मजमून सुन कर और राजा को लाजवाब पाकर सभी का दिल फिर गया। सभी राजा के ऊपर दाँत पीसने लगे।

केवल थोड़े-से आदमी जो राजा के साथ-ही-साथ खुद भी अपनी जिन्दगी से नाउम्मीद हो चुके थे, जान पर खेल गए ओर रिआया के हाथों मारे गए। इस लड़ाई में बाबू साहब का और राजा करनसिंह राठू का सामना हो गया। बाबू साहब ने करनसिंह को उठा कर जमीन पर दे मारा और उंगली डाल कर उसकी दोनों आँखें निकाल लीं।

इस लड़ाई में सुजनसिंह, शम्भूदत्त और सरूपसिंह वगैरह भी मारे गये। यह लड़ाई बहुत देर तक न रही और फौज को हिलने की भी नौबत न आई। खड़गसिंह ने उसी समय बीरसिंह को जो जख्मी होने पर भी कई आदमियों को इस समय मार चुका था और खून से तर-ब-तर हो रहा था, उसी सोने के सिंहासन पर बैठा दिया और पुकार कर कहा:

“इस समय बीरसिंह, जिनको यहाँ की रिआया चाहती है, राज-सिंहासन पर बैठा दिए गए। राजा बीरसिंह का हुक्म है कि बस अब लड़ाई न हो और सभों की तलवारें म्यान में चली जायें।”

लड़ाई शान्त हो गई, बीरसिंह को रिआया ने राजा मंजूर किया, और अंधे करनसिंह को देख-देख कर लोग हंसने लगे।

******************************************************************

दूसरे दिन यह बात अच्छी तरह से मशहूर हो गई कि वह बाबाजी जिन्हें देख करनसिंह राठू डर गया था, बीरसिंह के बाप करनसिंह थे। उन्हीं की जुबानी मालूम हुआ कि जिस समय राठू ने सुजनसिंह की मार्फत करनसिंह को जहर दिलवाया उस समय करनसिंह के साथियों को राठू ने मिला लिया था। मगर- चार-पाँच आदमी ऐसे भी थे, जो जाहिर में तो मौका देख कर मिल गए थे, पर दिल से उसकी तरफ न थे। जिस समय जहर के असर से करनसिंह बेहोश हो गए, उस समय जान निकलने के पहिले ही उनके मरने का गुल मचा कर राठू ने उन्हें जमीन में गड़वा दिया और तुरत वहाँ से कूच कर गया था। राठू के कूच करते ही धनीसिंह नामी एक राजपूत अपने नौकरों को साथ लेकर जान-बूझ के पीछे रह गया। उसने जमीन खोद कर करनसिंह को निकाला और उनकी जान बचाई।

जहर के असर ने पाँच बरस तक करनसिंह को चारपाई पर डाल रक्खा। वे पाँच बरस तक दूसरे शहर में रहे और फिर फकीर हो गये मगर राठू की फिक्र में लगे रहे। जब नाहरसिंह का नाम मशहूर हुआ तब हरिपुर के पास ही जंगल में आ बसे और नाहरसिंह से मुलाकात पैदा की मगर अपना नाम न बताया।

करनसिंह को बचाने वाला धनीसिंह तो मर गया था मगर उसका छोटा भाई अनिरुद्ध सिंह (रईसों और सरदारों की कमेटी में इसका नाम आ चुका है) इसी शहर में रहता है, जिसकी गिनती रईसों में है। उसको भी इनमें की बहुत-सी बातें मालूम हैं, और वह हमेशा बीरसिंह का पक्षपाती रहा, मगर समय पर ध्यान देकर करनसिंह का हाल उसने किसी से न कहा।

आज बड़ी खुशी का दिन है कि करनसिंह ने अपने दोनों लड़के, लड़की और दामाद को नाती सहित पाया और छोटे लड़के को राजसिंहासन पर देखा। इस जगह लोग पूछ सकते हैं कि करनसिंह सिंहासन पर क्यों नहीं बैठे या बड़े भाई के रहते छोटे भाई को गद्दी क्यों दी गई? इसके लिए थोड़ा-सा यह लिख देना जरूरी है कि जब करनसिंह, खड़गसिंह और बिजयसिंह एकान्त में मिले थे तो इस विषय की बातचीत हो, चुकी थी। करनसिंह ने राज्य करने से इन्कार किया था, बिजयसिंह ने भी कबूल नहीं किया और कहा कि अभी तक मेरी शादी नहीं हुई और न शादी करूँगा ही अस्तु यह बात पहिले ही से पक्की हो चुकी थी कि बीरसिंह को गद्दी दी जाये।

राजमहल से राठू के वे रिश्तेदार जिन्होंने बीरसिंह की शरण चाही, निकाल कर दूसरे मकान में रख दिए गए और उनके खाने-पीने का बन्दोबस्त कर दिया गया। अब राजमहल में वही सुन्दरी जो तहखाने के अन्दर कैद रह कर मुसीबत के दिन काटती थी और तारा जो असली करनसिंह (बाबाजी) के कब्जे में थी रहने लगीं, मगर राठू के लड़के सूरजसिंह का कहीं पता न लगा, न-मालूम वह किसके यहाँ भेज दिया गया था या किस जगह छिपा कर रक्खा गया था। रामदास ने आत्महत्या की। आँखों की तकलीफ से पांच ही सात दिन में राठू यमलोक की तरफ चल बसा और बीरसिंह ने बड़ी नेकनामी से राज्य चलाया।

******************* तो यह कहानी यही पर समाप्त होती है ***********************
 
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hirak01

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खंड - 10

रात पहर-भर जा चुकी है। खड़गसिंह अपने मकान में बैठे इस बात पर विचार कर रहे हैं कि कल दरबार में क्या-क्या किया जाएगा। यहाँ के दस-बीस सरदारों के अतिरिक्त खड़गसिंह के पास ही नाहरसिंह, बीरसिंह और बाबू साहब भी बैठे हैं।

खड़गसिंह : बस यही राय ठीक है। दरबार में अगर राजा के आदमियों से हमारे खैरख्वाह सरदार लोग गिनती में कम भी रहेंगे तो कोई हर्ज नहीं।

नाहरसिंह : जिस समय गरज कर मैं अपना नाम कहूँगा, राजा की आधी जान तो उसी समय निकल जायेगी, फिर कसूरवार आदमी का हौसला ही कितना बड़ा? उसकी आधी हिम्मत तो उसी समय जाती रहती है, जब उसके दोष उसे याद दिलाये जाते हैं।

एक सरदार : हम लोगों ने भी यही सोच रक्खा है कि या तो अपने को हमेशा के लिए उस दुष्ट राजा की ताबेदारी से छुड़ायेंगे या फिर लड़कर जान ही दे देंगे।

नाहरसिंह : ईश्वर चाहे तो ऐसी नौबत नहीं आवेगी और सहज ही में सब काम हो जाएगा। राजा की जान लेना, यह तो कोई बड़ी बात नहीं, अगर मैं चाहता तो आज तक कभी का उसे यमलोक पहुँचा दिया होता, मगर मैं आज का-सा समय ढूँढ रहा था और चाहता था कि वह तभी मारा जाये जब उसकी हरमजदगी लोगों पर साबित हो जाये और लोग भी समझ जाएँ कि बुरे कामों का फल ऐसा ही होता है।

खड़गसिंह : (नाहरसिंह से) हाँ, आपने कहा था कि बाबाजी ने तुमसे मिलना मंजूर कर लिया, घण्टे-दो घण्टे में यहाँ जरूर आवेंगे, मगर अभी तक आए नहीं!

नाहरसिंह : वे जरूर आवेंगे॥

इतने ही में दरबान ने आकर अर्ज किया कि एक साधु बाहर खड़े हैं जो हाजिर हुआ चाहते हैं। इतना सुनते ही खड़गसिंह उठ खड़े हुए और सभों की तरफ देख कर बोले, “ऐसे परोपकारी महात्मा की इज्जत सभों को करनी चाहिए।”

सब-के-सब उठ खड़े हुए और आगे बढ़कर बड़ी इज्जत से बाबा जी को ले आये और सबसे ऊँचे दर्जे पर बिठाया।

बाबा : आप लोग व्यर्थ इतना कष्ट कर रहे हैं! मैं एक अदना फकीर, इतनी प्रतिष्ठा के योग्य नहीं हूँ।

खड़गसिंह : यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं, आपकी तारीफ नाहरसिंह की जुबानी जो कुछ सुनी है मेरे दिल में है।”

बाबा : अच्छा, इन बातों को जाने दीजिए और यह कहिए कि दरबार के लिए जो कुछ बन्दोबस्त आप लोग किया चाहते थे वह हो गया या नहीं?

खड़गसिंह : सब दुरुस्त हो गया, कल रात को राजा के बड़े बाग में दरबार होगा।

बाबा: मेरी भी इच्छा होती है कि दरबार में चलूँ।

खड़गसिंह : आप खुशी से चल सकते हैं, रोकने वाला कौन है?

बाबा : मगर इस जटा, दाढ़ी-मूंछ और मिट्टी लगाए हुए बदन से वहाँ जाना बेमौके होगा।

खड़गसिंह : कोई बेमौके न होगा ।

बाबा : क्या हर्ज होगा अगर एक दिन के लिए मैं साधु का भेष छोड़ दूँ ओर सरदारी ठाठ बना लूँ।

खड़गसिंह : (हँस कर) इसमें भी कोई हर्ज नहीं! साधु और राजा समान ही समझे जाते हैं!!

बाबा : और तो कोई कुछ न कहेगा मगर नाहरसिंह से चुप न रहा जायेगा।

नाहरसिंह : (हाथ जोड़ कर) मुझे इसमें क्यों उज्र होगा?

बाबा : क्यों का सबब तुम नहीं जानते और न मैं कह सकता हूँ, मगर इसमें कोई शक नहीं कि जब मैं अपना सरदारी ठाठ बनाऊंगा तो तुमसे चुप न रहा जायेगा।

नाहरसिंह : न-मालूम आप क्यों ऐसा कह रहे हैं!

बाबा : (खड़गसिंह से) आप गवाह रहिये, नाहर कहता है कि मैं कुछ न बोलूँगा।

खड़गसिंह : मैं खुद हैरान हूँ कि नाहर क्यों बोलेगा!!

बाबा : अच्छा, फिर हजाम को बुलवाइये, अभी मालूम हो जाता है। लेकिन आप और नाहर थोड़ी देर के लिए मेरे साथ एकान्त में चलिए और हजाम को भी उसी जगह आने का हुक्म दीजिये।

आखिर ऐसा ही किया गया। बाबाजी, खड़गसिंह और नाहरसिंह एकान्त में गए, हजाम भी उसी जगह हाजिर हुआ। बाबाजी ने जटा कटवा डाली, दाढ़ी मुंड़वा डाली और मूंछों के बाल छोटे-छोटे कटवा डाले। नाहरसिंह और खड़गसिंह सामने बैठे तमाशा देख रहे थे।

बाबाजी के चेहरे की सफाई होते ही नाहरसिंह की सूरत बदल गई, चुप रहना उसके लिए मुश्किल हो गया, वह घबड़ाकर बाबाजी की तरफ झुका।

बाबा : हाँ हाँ, देखो ! मैंने पहिले ही कहा था कि तुमसे चुप न रहा जाएगा!!

नाहरसिंह : बेशक, मुझसे चुप न रहा जाएगा! चाहे जो हो मैं बिना बोले कभी न रह सकता!

खड़गसिंह : नाहरसिंह! यह क्या मामला है?

नाहरसिंह : नहीं नहीं, मैं बिना बोले-नहीं रह सकता!!

बाबा : यह तो मैं पहिले ही से समझे हुए था। खैर, हजाम को विदा हो लेने दो, केवल हम तीन आदमी रह जायें तो जो चाहे बोलना।

हजाम बिदा हुआ, दो खिदमतगार बुलाये गए, बाबाजी ने उसी समय सिर मल के स्नान किया और उनके लिए जो कपड़े खड़गसिंह ने मँगवाए थे, उन्हें पहन कर निश्चिन्त हुए, मगर इस बीच में नाहरसिंह के दिल की क्या हालत थी, सो वही जानता होगा। मुश्किल से उसने अपने को रोका और मौके का इन्तजार करता रहा। जब इन कामों से बाबाजी ने छुट्टी पाई, तीनों आदमी एकान्त में बैठे और बातें करने लगे।

न मालूम घण्टे-भर तक कोठरी के अन्दर बैठे उन तीनों में क्या-क्या बातें हुईं, हाँ बाबाजी, नाहरसिंह और खड़गसिंह तीनों के सिसक-सिसक कर रोने की आवाज कोठरी के बाहर कई दफे आई, जिसे हमने भी सुना और स्वप्न की तरह आज तक याद है।

कोठरी से बाहर निकल कर साधु महाशय मुँह पर नकाब डाल बिदा हुए और नाहरसिंह तथा खड़गसिंह उस अदालत में आ बैठे, जिसमें बाकी के सरदार लोग बैठे हुए थे। सरदारों ने पूछा कि बाबाजी कहाँ गए और उनकी ताज्जुब- भरी बातों का क्या नतीजा निकला? इसके जवाब में खड़गसिंह ने कहा कि बाबाजी इस समय तो चले गए, मगर कह गए हैं कि “मेरे पेट में जो-जो बातें भेद के तौर पर जमा हैं, वे कल दरबार में जाहिर हो जायेंगी, इसलिए मेरे साथ आप लोगों को भी उनका हाल कल ही मालूम होगा।

आधी रात तक ये लोग बैठे बातचीत करते रहे, इसके बाद अपने-अपने घर की तरफ रवाना हुए।

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हरिपुर के राजा करनसिंह राठू का बाग बड़ी तैयारी से सजाया गया, रोशनी के सबब दिन की तरह उजाला हो रहा था, बाग की हर एक रविश पर रोशनी की गई थी, बाहर की रोशनी का इन्तजाम भी बहुत अच्छा था। बाग के फाटक से लेकर किले तक जो एक कोस के लगभग होगा, सड़क के दोनों तरफ गञ्ज की रोशनी थी, हजारों आदमी आ-जा रहे थे। शहर में हर तरफ इस दरबार की धूम थी। कोई कहता था कि आज महाराज नेपाल की तरफ से राजा को पदवी दी जाएगी, कोई कहता था कि नहीं नहीं, महाराज को यहाँ की रिआया चाहती है या नहीं, इस बात का फैसला किया जाएगा और इस राजा को गद्दी से उतार कर दूसरे को राजतिलक दिया जाएगा। अच्छा तो यही होगा कि बीरसिंह को राजा बनाया जाये। हम लोग- इसके लिए लड़ेंगे, धूम मचावेंगे और जान तक देने को तैयार रहेंगे।

इसी प्रकार तरह-तरह के चर्चे शहर में हो रहे थे, शहर-भर बीरसिंह का पक्षपाती मालूम होता था, मगर जो लोग बुद्धिमान थे, उनके मुँह से एक बात भी नहीं निकलती थी और वे लोग मन-ही-मन में न-मालूम क्या सोच रहे थे। आज के दरबार में जो कुछ होना है, इसकी खबर शहर के बड़े-बड़े रईसों ओर सरदारों को भी जरूर थी, मगर वे लोग जबान से इस बारे में एक शब्द भी नहीं निकालते थे।

बाग में एक आलीशान बारहदरी थी, उसी में दरबार का इन्तजाम किया गया। उसकी सजावट हद से ज्यादे बड़ी हुई थी। खड़गसिंह ने राजा को कहला भेजा था कि दरबार में एक सिंहासन भी रहना चाहिए, जिस पर पदवी देने के बाद आप बैठाए जायेंगे, इसीलिए बारहदरी के बीचोबीच में सोने का सिंहासन बिछा हुआ था, उसके दाहिनी तरफ राजा के लिए और बायीं तरफ नेपाल के सेनापति खड़गसिंह के लिए चांदी की कुर्सी रक्खी गई थी, और सामने की तरफ शहर के रईसों और सरदारों के लिए दुपट्टी मखमली गद्दी की कुर्सियां लगाई गयी थीं। सजावट का सामान जो राज दरबार के लिए मुनासिब था, सब दुरुस्त किया गया था।

चिराग जलते ही दरबार में लोगों की अवाई शुरू हो गई और पहर रात जाते-जाते दरबार अच्छी तरह भर गया। राजा करनसिंह और खड़गसिंह भी अपनी- अपनी जगह बैठ गए। नाहरसिंह, बीरसिंह और बाबू साहब भी दरबार में बैठे हुए थे, मगर बाबाजी अपने मुँह पर नकाब डाले एक कुर्सी पर बिराज रहे थे, जिनको देख लोग ताज्जुब कर रहे थे और राजा इस विचार में पड़ा हुआ था कि ये कौन हैं?

राजा या राजा के आदमी नाहरसिंह को नहीं पहिचानते थे पर बीरसिंह को बिना हथकड़ी-बेड़ी के स्वतन्त्र देखकर राजा की आँख क्रोध से कुछ लाल हो रही थीं, मगर यह मौका बोलने का न था, इसलिए चुप रहा। हाँ, राजा की दो हजार फौज चारों तरफ से बाग को घेरे हुए थी और राजा के मुसाहब लोग इस दरबार में कुर्सियों पर न बैठ के न-मालूम किस धुन में चारों तरफ घूम रहे थे।

सेनापति खड़गसिंह के भी चार सौ बहादुर लड़ाके जो नेपाल से साथ आए थे, बाग के बाहर चारों तरफ बँट कर फैले हुए थे और नाहरसिंह के सौ आदमी भी भीड़ में मिले-जुले चारों तरफ घूम रहे थे। बाग के अन्दर दो हजार से ज्यादा आदमी मौजूद थे, जिनमें पांच सौ राजा की फौज थी और बाकी रिआया।

जब दरबार अच्छी तरह भर गया, खड़गसिंह ने अपनी कुर्सी से उठ कर ऊँची आवाज में कहा : “मैं महाराज नेपाल का सेनापति जिस काम के लिए यहाँ भेजा गया हूँ, उसे पूरा करता हूँ। आज का दरबार केवल दो कामों के लिए किया गया है, एक तो इस राज्य के दीवान बीरसिंह का, जिसके ऊपर राजकुमार का खून साबित हो चुका है, फैसला किया जाये, दूसरे राजा करनसिंह को अधिराज की पदवी दी जाये। इस समय लोग इस विचार में पड़े होंगे कि बीरसिंह जिस पर राजकुमार के मारने का इल्जाम लग चुका है, बिना हथकड़ी-बेड़ी के यहाँ क्यों दिखाई देता है। इसका जवाब मैं यह देता हूँ कि एक तो बीरसिंह यहाँ के राजा का दीवान है, दूसरे इस भरे हुए दरबार में से वह किसी तरह भाग नहीं सकता, तीसरे, परसों राजा के आदमियों ने उसे बहुत जख्मी किया है, जिससे वह खुद कमजोर हो रहा है, चौथे बीरसिंह को इस बात का दावा है कि वह अपनी बेकसूरी साबित करेगा। अस्तु, बीरसिंह को हुक्म दिया जाता है कि उसे जो कुछ कहना हो कहे।”

इतना कह कर खड़गसिंह बैठ गए और बीरसिंह ने अपनी कुर्सी से उठ कर कहना शुरू किया :

“आप लोग जानते हैं और कहावत मशहूर है कि जिस समय आदमी अपनी जान से नाउम्मीद होता है, तो जो कुछ उसके जी में आता है कहता है और किसी से नहीं डरता। आज मेरी भी वही हालत है। यहाँ के राजा करनसिंह ने राजकुमार के मारने का बिल्कुल झूठा इल्जाम मुझ पर लगाया है। उसने अपने लड़के को तो कहीं छिपा दिया है और गरीब रिआया का खून करके मुझे फँसाना चाहता है। आप लोग जरूर कहेंगे कि राजा ने ऐसा क्यों किया? उसके जवाब में मैं कहता हूँ कि राजा करनसिंह असल में मेरे बाप का खूनी है। पहिले यह मेरे बाप का गुलाम था, मौका मिलने पर इसने अपने मालिक को मार डाला और अब उसके बदले में राज्य कर रहा है। पहिले तो राजा को मेरा डर न था, मगर जब से नाहरसिंह ने राजा को सताना शुरू किया है और यहाँ की रिआया मुझे मानने लगी है तभी से राजा को मेरे मारने की धुन सवार हो गई है। नाहरसिंह भी बेफायदा राजा को नहीं सताता, वह मेरा बड़ा भाई है और राजा से अपने बाप का बदला लिया चाहता है। (करनसिंह, करनसिंह राठू, नाहरसिंह, सुन्दरी, तारा और अपना कुल किस्सा जो हम ऊपर लिख आये हैं, खुलासा कहने के बाद) अब आप लोग उन दोनों बातों का अर्थात एक तो मुझ पर झूठा इल्जाम लगाने का और दूसरे मेरे पिता के मारने का सबूत चाहेंगे। इनमें से एक बात का सबूत तो मेरा बड़ा भाई नाहरसिंह देगा, जिसका असल नाम विजयसिंह है और जो इसी दरबार में मौजूद है तथा सिवाय राजा के और किसी का दुश्मन नहीं है, और दूसरी बात का सबूत कोई और आदमी देगा जो शायद यहीं कहीं मौजूद है।”

इन बातों को सुनते ही चारों तरफ से ‘त्राहि-त्राहि’ की आवाज आने लगी। राजा के तो होश उड़ गए। अब राजा को विश्वास हो गया कि यह दरबार केवल इसलिए लगाया गया है कि यहाँ की कुल रिआया के सामने मेरा कसूर साबित कर दिया जाये और मैं नालायक और बेईमान ठहराया जाऊँ। यह सिंहासन भी शायद इसलिए रखवाया गया है कि इस पर रिआया की तरफ से नाहरसिंह या बीरसिंह को बिठाया जाये। ओफ्, अब किसी तरह जान बचती नजर नहीं आती! मेरे कर्मों का फल आज पूरा हुआ चाहता है! अगर मैं अपनी फौज का इन्तजाम न करता तो मुश्किल ही हो चुकी थी, लेकिन अब तो एक दफे दिल खोल के लड़ूंगा। लेकिन जरा और ठहरना चाहिए, देखें वह अपनी दोनों बातों का सबूत क्या पेश करता है। नाहरसिंह कौन है? सबूत लेकर आगे बढ़े तो देखें उसकी सूरत कैसी है?

राजा इन सब बातों को सोचता ही रहा, उधर बीरसिंह की बात समाप्त होते ही नाहरसिंह जिसका नाम अब हम बिजयसिंह लिखेंगे, अपनी कुर्सी से उठा और वही चीठी जो उसने रामदास की कमर से पाई थी, खड़गसिंह के हाथ में यह कह कर दे दी कि ‘एक सबूत तो यह है’।

खड़गसिंह ने उस चिट्ठी को खड़े होकर जोर से सभों को सुना कर पढ़ा और चिट्ठी वाला हाथ ऊँचा करके कहा, “एक बात का सबूत तो बहुत पक्का मिल गया, इस चिट्ठी पर राजा के दस्तखत के सिवाय उसकी मुहर भी है, जिससे वह किसी तरह इन्कार नहीं कर सकता है।” चीठी को सुनते ही चारों तरफ से आवाज आने लगी, “लानत है ऐसे राजा पर। लानत है ऐसे राजा पर!!

खड़गसिंह अपनी कुर्सी पर बैठे ही थे कि बाबाजी उठ खड़े हुए। मुँह से नकाब हटा कर सिंहासन के पास चले गए, और जोर से बोले -“दूसरी बात का सबूत मैं हूँ! (सभा की तरफ देख कर) राजा तो मुझे देखते ही पहचान गया होगा कि मैं फलाना हूँ, मगर आप लोग यह सुन कर घबड़ा जायेंगे कि बीरसिंह का बाप करनसिंह जिसे राजा ने जहर दिया था और जिसका किस्सा अभी बीरसिंह आप लोगों को सुना चुका है मैं ही हूँ। मेरी जान बचाने वाले का भाई भी इस शहर में मौजूद है, हाँ यदि राजा का जोश कोई रोक सके तो मैं आप लोगों को अपना विचित्र हाल सुनाऊँ, मगर ऐसी आशा नहीं है। बेईमान राजा की जल्दबाजी आप लोगों को मेरा किस्सा सुनने न देगी। देखिए, देखिए, वह बेईमान कुर्सी से उठ कर मुझ पर वार किया चाहता है! नमकहराम और विश्वासघाती को अब भी शर्म नहीं मालूम होती और वह….!!”

बाबाजी की बातें क्योंकर पूरी हो सकती थीं! बेईमान राजा का दिल उसके काबू में न था और न वह यही चाहता था कि बाबाजी (करनसिंह) यहाँ रहें और उनकी बातें कोई सुने! वह बहुत कम देर तक बेखुद रहने बाद एकदम चीख उठा और नयाम (म्यान) से तलवार खींच कर अपने आदमियों को यह कहता हुआ कि “मारो इन लोगों को, एक भी बच के न जाने पावे” उठा और बाबाजी पर तलवार का वार किया। बाबाजी ने घूम कर अपने को बचा लिया मगर राजा के सिपाही और सरदार लोग बीरसिंह और उसके पक्षपातियों पर टूट पड़े। लड़ाई शुरू हो गई और फर्श पर खून-ही-खून दिखाई देने लगा पर बीरसिंह के पक्षपाती बहादुरों के सामने कोई ठहरता दिखाई न दिया।

राजा करनसिंह के बहुत-से आदमी वहाँ मौजूद थे और दो हजार फौज भी बाहर खड़ी थी, जिसका अफसर इसी दरबार में था, मगर बिल्कुल बेकाम। किसी ने दिल खोल कर लड़ाई न की, एक तो वे लोग राजा के जुल्मों की बात सुन पहिले ही बेदिल हो रहे थे, दूसरे, आज की वारदात, बीरसिंह और सुन्दरी का किस्सा, और राजा के हाथ की लिखी चिट्ठी का मजमून सुन कर और राजा को लाजवाब पाकर सभी का दिल फिर गया। सभी राजा के ऊपर दाँत पीसने लगे।

केवल थोड़े-से आदमी जो राजा के साथ-ही-साथ खुद भी अपनी जिन्दगी से नाउम्मीद हो चुके थे, जान पर खेल गए ओर रिआया के हाथों मारे गए। इस लड़ाई में बाबू साहब का और राजा करनसिंह राठू का सामना हो गया। बाबू साहब ने करनसिंह को उठा कर जमीन पर दे मारा और उंगली डाल कर उसकी दोनों आँखें निकाल लीं।

इस लड़ाई में सुजनसिंह, शम्भूदत्त और सरूपसिंह वगैरह भी मारे गये। यह लड़ाई बहुत देर तक न रही और फौज को हिलने की भी नौबत न आई। खड़गसिंह ने उसी समय बीरसिंह को जो जख्मी होने पर भी कई आदमियों को इस समय मार चुका था और खून से तर-ब-तर हो रहा था, उसी सोने के सिंहासन पर बैठा दिया और पुकार कर कहा:

“इस समय बीरसिंह, जिनको यहाँ की रिआया चाहती है, राज-सिंहासन पर बैठा दिए गए। राजा बीरसिंह का हुक्म है कि बस अब लड़ाई न हो और सभों की तलवारें म्यान में चली जायें।”

लड़ाई शान्त हो गई, बीरसिंह को रिआया ने राजा मंजूर किया, और अंधे करनसिंह को देख-देख कर लोग हंसने लगे।

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दूसरे दिन यह बात अच्छी तरह से मशहूर हो गई कि वह बाबाजी जिन्हें देख करनसिंह राठू डर गया था, बीरसिंह के बाप करनसिंह थे। उन्हीं की जुबानी मालूम हुआ कि जिस समय राठू ने सुजनसिंह की मार्फत करनसिंह को जहर दिलवाया उस समय करनसिंह के साथियों को राठू ने मिला लिया था। मगर- चार-पाँच आदमी ऐसे भी थे, जो जाहिर में तो मौका देख कर मिल गए थे, पर दिल से उसकी तरफ न थे। जिस समय जहर के असर से करनसिंह बेहोश हो गए, उस समय जान निकलने के पहिले ही उनके मरने का गुल मचा कर राठू ने उन्हें जमीन में गड़वा दिया और तुरत वहाँ से कूच कर गया था। राठू के कूच करते ही धनीसिंह नामी एक राजपूत अपने नौकरों को साथ लेकर जान-बूझ के पीछे रह गया। उसने जमीन खोद कर करनसिंह को निकाला और उनकी जान बचाई।

जहर के असर ने पाँच बरस तक करनसिंह को चारपाई पर डाल रक्खा। वे पाँच बरस तक दूसरे शहर में रहे और फिर फकीर हो गये मगर राठू की फिक्र में लगे रहे। जब नाहरसिंह का नाम मशहूर हुआ तब हरिपुर के पास ही जंगल में आ बसे और नाहरसिंह से मुलाकात पैदा की मगर अपना नाम न बताया।

करनसिंह को बचाने वाला धनीसिंह तो मर गया था मगर उसका छोटा भाई अनिरुद्ध सिंह (रईसों और सरदारों की कमेटी में इसका नाम आ चुका है) इसी शहर में रहता है, जिसकी गिनती रईसों में है। उसको भी इनमें की बहुत-सी बातें मालूम हैं, और वह हमेशा बीरसिंह का पक्षपाती रहा, मगर समय पर ध्यान देकर करनसिंह का हाल उसने किसी से न कहा।

आज बड़ी खुशी का दिन है कि करनसिंह ने अपने दोनों लड़के, लड़की और दामाद को नाती सहित पाया और छोटे लड़के को राजसिंहासन पर देखा। इस जगह लोग पूछ सकते हैं कि करनसिंह सिंहासन पर क्यों नहीं बैठे या बड़े भाई के रहते छोटे भाई को गद्दी क्यों दी गई? इसके लिए थोड़ा-सा यह लिख देना जरूरी है कि जब करनसिंह, खड़गसिंह और बिजयसिंह एकान्त में मिले थे तो इस विषय की बातचीत हो, चुकी थी। करनसिंह ने राज्य करने से इन्कार किया था, बिजयसिंह ने भी कबूल नहीं किया और कहा कि अभी तक मेरी शादी नहीं हुई और न शादी करूँगा ही अस्तु यह बात पहिले ही से पक्की हो चुकी थी कि बीरसिंह को गद्दी दी जाये।

राजमहल से राठू के वे रिश्तेदार जिन्होंने बीरसिंह की शरण चाही, निकाल कर दूसरे मकान में रख दिए गए और उनके खाने-पीने का बन्दोबस्त कर दिया गया। अब राजमहल में वही सुन्दरी जो तहखाने के अन्दर कैद रह कर मुसीबत के दिन काटती थी और तारा जो असली करनसिंह (बाबाजी) के कब्जे में थी रहने लगीं, मगर राठू के लड़के सूरजसिंह का कहीं पता न लगा, न-मालूम वह किसके यहाँ भेज दिया गया था या किस जगह छिपा कर रक्खा गया था। रामदास ने आत्महत्या की। आँखों की तकलीफ से पांच ही सात दिन में राठू यमलोक की तरफ चल बसा और बीरसिंह ने बड़ी नेकनामी से राज्य चलाया।

******************* तो यह कहानी यही पर समाप्त होती है ***********************
धन्यवाद
****THE END****
 
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hirak01

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मैंने पोल लगा दिया तो कृपया अपना रिएक्शन दे की कहानी कैसी लगी आप सभी को।
 
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kamdev99008

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बहुत प्रसिद्ध कहानी थी ये उस समय की.....
वो समय तिलस्मी और चमत्कारी कहानियों का था......
लेकिन ऐसी थ्रिल-सस्पेन्स वाली कहानियाँ कुछ ही होती थीं जो वास्तविक दुनिया से जोड़ती

स्वयं इसके लेखक देवकीनंदन जी भी अब तक की सबसे प्रसिद्ध तिलस्मी कहानियों "चंद्रकांता" "चंद्रकांता संतति" और "भूतनाथ" के भी रचियाता थे



शानदार प्रस्तुति :applause:
 
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