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Romance कायाकल्प [Completed]

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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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मुझसे मेरे दोस्त अक्सर पूछते हैं की मैं और रूद्र कब मिले, कैसे मिले.. शादी के बाद का प्यार कैसा होता है, कैसे होता है... आदि आदि! उनको इसके बारे में बताते हुए मुझे अक्सर लगता की कभी मैं और रूद्र एक साथ बैठ कर इसके बारे में बात करेंगे और पुरानी यादें ताज़ा करेंगे! अभी दो दिन पहले मैं रेडियो (ऍफ़ एम) पर एक बहुत पुराना गीत सुन रही थी – हो सकता है की आप लोगों में भी कई लोगों ने सुना हो!

और आज घर वापस आकर मैंने जैसे ही रेडियो चलाया, फिर वही गाना आने लगा:

'चलो एक बार फिर से, अजनबी बन जाएँ हम दोनों!'

मेरे ख़याल से यह दुनिया के सबसे रोमांटिक दस बारह गानों में से एक होगा...!

मुझे पता है की अब आप मुझसे पूछेंगे की संध्या, आज क्या ख़ास है जो रोमांटिक गानों की चर्चा हो रही है? तो भई, आज ख़ास बात यह है की आज रूद्र और मेरी शादी की दूसरी सालगिरह है! जी हाँ – दो साल हो गए हैं! इस बीच में मैंने इंटरमीडिएट की परीक्षा अच्छे अंकों से पास की, और कुछ इस कारण से और कुछ रूद्र की जान-पहचान के कारण से मुझे बैंगलोर के काफी पुराने और जाने माने कॉलेज में दाखिला मिल गया। आज मैं बी. ए. द्वितीय वर्ष की छात्रा हूँ, और समाज विज्ञान की पढाई कर रही हूँ। शुरू शुरू में यह सब बहुत ही मुश्किल था – लगता था की कहाँ आ फंसी! इतने सारे बदलाव! अनवरत अंग्रेज़ी में ही बोल चाल, नहीं तो कन्नड़ में! मेरी ही हम उम्र लड़कियाँ मेरी सहपाठी थीं... लेकिन उनमे और मुझमे कितना सारा अंतर था! कॉलेज के गेट के अन्दर कदम रखते ही नर्वस हो जाती। दिल धाड़ धाड़ कर के धड़कने लगता। लेकिन रूद्र ने हर पल मुझे हौसला दिया – मानसिक, शारीरिक, मनोवैज्ञानिक! हर प्रकार का! वो अपने काम में अत्यधिक व्यस्त होने के बावजूद मुझसे मेरे विषयों के बारे में चर्चा करते, जब बन पड़ता तो पढ़ाते (वैसे हमारे पड़ोसियों ने मुझे पढ़ाने में बहुत सहयोग दिया है.. आज भी मैं श्रीमति देवरामनी की शरण में ही जाती हूँ, जब भी कहीं फंसती हूँ)। और तो और, सहेलियां भी बहुत उदार और दयालु किस्म की थीं – वो मेरी हर संभव मदद करतीं, मुझे अपने गुटों में शामिल करतीं, अपने घर बुलातीं और यथासंभव इन नई परिथितियों में मुझे ढलने के लिए प्रोत्साहन देतीं।

इसका यह लाभ हुआ की मेरी क्लास के लगभग सभी सहपाठी मेरे मित्र बन गए थे। शिक्षक और शिक्षिकाएँ भी मेरी प्रगति में विशेष रूचि लेते। वो सभी मुझे ‘स्पेशल स्टूडेंट’ कह कर बुलाते थे। मैंने भी अपनी तरफ से कोई कोर कसार नहीं छोड़ी हुई थी – मैं मन लगा कर पढ़ती थी, और मेरी मेहनत का नतीजा भी अच्छा आ रहा था। कहने की कोई ज़रुरत नहीं की मुझे अपना नया कॉलेज बहुत पसंद आया...। नीलम के लिए भी रूद्र और मैंने अपने प्रिंसिपल से बात करी थी। उन्होंने मुझे भरोसा दिलाया था की अगर नीलम में प्रतिभा है, तो वो उसे अवश्य दाखिला देंगे। नीलम इस बार इंटरमीडिएट का एक्साम् लिखेगी, और उसके बाद रूद्र उसको भी बैंगलोर ही लाना चाहते हैं, जिससे उसकी पढाई अच्छी जगह हो सके।

आप लोग अब इस बात की शिकायत न करिए की कहानी से दो साल यूँ ही निकाल दिए, बिना कुछ कहे सुने! इसका उत्तर यह है की अगर लोग खुश हों तो समय तो यूँ ही हरहराते हुए निकल जाता है। और रोज़मर्रा की बातें लिख के आपको क्या बोर करें? अब यह तो लिखना बेवकूफी होगा की ‘जानू, आज क्या खाना बना है?’ या फिर, ‘आओ सेक्स करें!’ ‘आओ कहीं घूम आते हैं.. शौपिंग करने!’ इत्यादि! यह सब जानने में आपको क्या रूचि हो सकती है भला?

इतना कहना क्या उचित नहीं की यह दो साल तो न जाने कैसे गुजर गए?

व्यस्तता इतनी है की अब उत्तराँचल जाना ही नहीं हो पाता! इंटरमीडिएट की परीक्षा देने के बाद सिर्फ दो बार ही जा पाई, और रूद्र तो बस एक बार ही जा पाए! उनको इस बीच में दोहरी पदोन्नति मिली है। जाहिर सी बात है, उनके पास समय की बहुत ही कमी हो गई है... लेकिन यह उन्ही का अनुशासन है, जिसके कारण न केवल मैं ढंग से पढाई कर पा रही हूँ, बल्कि सेहत का भी ढंग से ख़याल रख पा रही हूँ। सुबह पांच बजे उठकर, नित्यक्रिया निबटा कर, हम दोनों दौड़ने और व्यायाम करने जाते हैं। वहाँ से आने के बाद नहा धोकर, पौष्टिक भोजन कर के वो मुझे कॉलेज छोड़ कर अपने ऑफिस चले जाते हैं। मेरे वापस आते आते काम वाली बाई आ जाती है, जो घर का धोना पोंछना और खाना बनाने का काम कर के चली जाती है। मैं और कभी कभी रूद्र, सप्ताहांत में ही खाना बनाते हैं.. व्यस्त तो हैं, लेकिन एक दूसरे के लिए कभी नहीं!

उधर पापा ने बताया की खेती में इस बार काफी लाभ हुआ है – उन्होंने पिछली बार नगदी फसलें बोई थीं, और कुछ वर्ष पहले फलों की खेती भी शुरू करी थी। इसका सम्मिलित लाभ दिखने लग गया था। रूद्र ने अपने जान-पहचान से तैयार फसल को सीधा बेचने का इंतजाम किया था.. सिर्फ पापा के लिए नहीं, बल्कि पूरे कसबे में रहने वाले किसानो के लिए! बिचौलियों के कट जाने से किसानो को ज्यादा लाभ मिलना स्वाभाविक ही था। अगले साल के लिए भी पूर्वानुमान बढ़िया था।

खैर, तो मैं यह कह रही थी, की इस गाने में कुछ ख़ास बात है जो मुझे रूद्र से पहली बार मिलने, और हमारे मिलन की पहली रात की याद दिलाती है। सब खूबसूरत यादें! रूद्र ने वायदा किया था की वो आज जल्दी आ जायेंगे – अगले दो दिन तो शनिवार और रविवार हैं... इसलिए कहीं बाहर जाने का भी प्रोग्राम बन सकता है! उन्होंने मुझे इसके बारे में कुछ भी नहीं बताया। लेकिन उनका जल्दी भी तो कम से कम पांच साढ़े-पांच तो बजा ही देता है!

मैं कुर्सी पर आँखें बंद किए, सर को कुर्सी के सिरहाने पर टिकाये रेडियो पर बजने वाले गानों को सुनती रही। और साथ ही साथ रूद्र के बारे में भी सोचती रही। इन दो सालों में उनके कलम के कुछ बाल सफ़ेद हो (पक) गए हैं.. बाकी सब वैसे का वैसा ही! वैसा ही दृढ़ और हृष्ट-पुष्ट शरीर! जीवन जीने की वैसी ही चाहत! वैसी ही मृदुभाषिता! कायाकल्प की बात करते हैं.. इससे बड़ी क्या बात हो सकती है की उन्होंने अपने चाचा-चाची को माफ़ कर दिया। उनके अत्याचारों का दंड तो उनको तभी मिल गया जब उनके एकलौते पुत्र की एक सड़क हादसे में मृत्यु हो गई। जब रूद्र को यह मालूम पड़ा, तो वो मुझे लेकर अपने पैत्रिक स्थान गए और वहाँ उन दोनों से मुलाकात करी।

अभी कोई आठ महीने पहले की ही तो बात है, जब रूद्र को किसी से मालूम हुआ की उनके चचेरे भाई की एक सड़क हादसे में मृत्यु हो गई। रूद्र ने यह सुनते ही बिना एक मिनट देर किये भी उन्होंने मेरठ का रुख किया। हम दोनों ही लोग गए थे – उस दिन मैंने पहली बार इनके परिवार(?) के किसी अन्य सदस्य को देखा था। इनके चाचा की उम्र लगभग साठ वर्ष, औसत शरीर, सामान्य कद, गेहुंआ रंग... देखने में एक साधारण से वृद्ध पुरुष लग रहे थे। चाची की उम्र भी कमोवेश उतनी ही रही होगी.. दोनों की उम्र कोई ऐसी ख़ास ज्यादा नहीं थी.. लेकिन एकलौते पुत्र और एकलौती संतान की असामयिक मृत्यु ने मानो उनका जीवन रस निचोड़ लिया था। दुःख और अवसाद से घिरे वो दोनों अपनी उम्र से कम से कम दस साल और वृद्ध लग रहे थे।

उन्होंने रूद्र को देखा तो वो दोनों ही उनसे लिपट कर बहुत देर तक रोते रहे... मुझे यह नहीं समझ आया की वो अपने दुःख के कारण रो रहे थे, या अपने अत्याचारों के प्रायश्चित में या फिर इस बात के संतोष में की कम से कम एक तो है, जिसको अपनी संतान कहा जा सकता है। कई बार मन में आता है की लोग अपनी उम्र भर न जाने कितने दंद फंद करते हैं, लेकिन असल में सब कुछ छोड़ कर ही जाना है। यह सच्चाई हम सभी को मालूम है, लेकिन फिर भी यूँ ही भागते रहते हैं, और दूसरों को तकलीफ़ देने में ज़रा भी हिचकिचाते नहीं।

रूद्र को इतना शांत मैंने इन दो सालों में कभी नहीं देखा था! उनके मन में अपने चाचा चाची के लिए किसी भी प्रकार का द्वेष नहीं था, और न ही इस बात की ख़ुशी की उनको सही दंड मिला (एकलौते जवान पुत्र की असमय मृत्यु किसी भी अपराध का दंड नहीं हो सकती)! बस एक सच्चा दुःख और सच्ची चिंता! रूद्र ने एक बार मुझे बताया था की उनका चचेरा भाई अपने माता पिता जैसा नहीं है... उसका व्यवहार हमेशा से ही इनके लिए अच्छा रहा। रूद्र इन लोगो की सारी खोज खबर रखते रहे हैं (भले ही वो इस बात को स्वीकार न करें! उनको शुरू शुरू में शायद इस बात पर मज़ा और संतोष होता था की रूद्र ने उनके मुकाबले कहीं ऊंचाई और सफलता प्राप्त करी थी। लेकिन आज इन बातो के कोई मायने नहीं थे)। रूद्र ने उनकी आर्थिक सहायता करने की भी पेशकश करी (जीवन जैसे एक वृत्त में चलता है.. अत्याचार की कमाई और धन कभी नहीं रुकते.. इनके चाचा चाची की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी), लेकिन उन्होंने यह कह कर मना कर दिया की जब ईश्वर उन दोनों को उनके अत्याचारों और गलतियों का दंड दे रहे हैं, तो वो उसमे किसी भी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न नहीं करेंगे। उनके लिए बस इतना ही उचित है की रूद्र ने उनको माफ़ कर दिया। मुझसे वो दोनों बहुत सौहार्द से मिले... बल्कि यह कहिये की बहुत लाड़ से मिले। जैसे की मैं उनकी ही पुत्र-वधू हूँ... फिर उन्होंने मुझे सोने के कंगन और एक मंगलसूत्र भेंट में दिया। बाद में मुझे मालूम हुआ की वो माँ जी (मेरी स्वर्गवासी सास) के आखिरी गहने थे। उस दिन यह जान कर कुछ सुकून हुआ की हमारे परिवार में कुछ और लोग भी हैं।
 
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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
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रूद्र में बदलाव तो थे ही, मुझमें खुद भी बहुत से बदलाव हो रहे थे। मैं तो बढ़ती युवती तो हूँ ही – खान पान की गुणवत्ता, दैनिक व्यायाम और पुरुष हार्मोन की नियमित खुराक से (रूद्र कभी कभी कंडोम का प्रयोग करना ‘भूल?’ जाते हैं...) मेरी देह अभी भी भर रही है। मेरे स्तन अब 34C के माप के हैं, कमर में कटाव, और नितम्बों में उभार साफ़ दिखता है। जब कभी नहाने के बाद मुझे फुर्सत होती है, तो मैं स्वयं का अनावृत्त शरीर देख कर प्रसन्न हो जाती हूँ! कभी कभी लगता है की किसी और को देख रही हूँ - कसे-भरे स्तन, छोटे कंधे, उन्नत नितंब, सपाट पेट, और करीने से कटे केशों से टपकती पानी की बूंदें! मैं कभी कभी खुद के शरीर पर मुग्ध हो जाती हूँ! किसकी कामना नहीं हो सकती ऐसी देह! मुझे गर्व है, की रूद्र मेरा भोग पाते हैं!

स्त्रियों को अक्सर ही छुईमुई जैसा शरमाया, सकुचाया सा दर्शाया जाता है, और उनसे इसी प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा भी करी जाती है। इतने बदलावों के बाद भी मैं अभी तक वैसी ही हूँ.. लेकिन अचरज तब होता है जब मैं रूद्र के साथ प्रणय करते समय बिल्कुल भी नहीं सकुचाती हूँ, बल्कि मैं तो उनकी सहयोगिनी ही बन जाती हूँ! कैसे होता है यह सब? कभी कभी सोचती हूँ तो लगता है की एक स्त्री किसी पुरुष के साथ ऐसा व्यवहार तभी कर सकती है जब वो पुरुष उस स्त्री का प्रिय हो। जिसकी वो हमेशा कामना करे! जो न केवल उसके सपनों का अधिष्ठाता हो, बल्कि उसका सच्चा साथी बन कर स्त्री के जीवन के हर सुख दुःख को बाँट कर सही अर्थों में सहचर बने!

रूद्र ने एक दिन मुझे कहा था, “तुमने कभी खजुराहो की मूर्तियां देखी है? यू हैव अ बॉडी लाइक खजुराहो आइडोल्स!”

खजुराहो आइडोल्स? मैंने पहले कभी खजुराहो के चित्र नहीं देखे थे.. हम लोग कभी वहाँ नहीं गए... लेकिन रूद्र ने जब ऐसा कहा तो मेरा मन नहीं माना! इन्टरनेट पर खजुराहो के बारे में ढूँढा और वहाँ के मंदिरों और उन पर उकेरी गई मूर्तियों की तस्वीरों को देखा! स्त्री जीवन के न जाने कितने रूप, न जाने कितने रंग उन शिल्पियों ने पत्थरों में गढ़ डाले थे! और तो और, सभी एकदम जीवंत से लगते! स्त्रियां ही स्त्रियां! उनके हर प्रकार के हाव-भाव, उनके शरीर की हर बनावट, अंगों के लोच, भाव-भंगिमाओं का प्रदर्शन – यह सब कुछ हैं वहाँ! स्त्री चित्त के हर रंग को साकार कर दिया था शिल्पियों ने इस प्राचीन स्वप्नलोक में! इन चित्रों को देखा, तो रूद्र की बात और समझ में आई! मैं पुलक उठी! यह उपमा तो उन्होंने निश्चित रूप से अपनी चाहत दर्शाने के लिए मुझे दी थी।

मैं आँखें बंद किए पुराने गीतों का आनंद ले रही थी, और उस दिन की याद कर रही थी जब रूद्र पहली बार मेरे घर आये थे। एक मजेदार बात है (आप लोगो ने भी कभी न कभी नोटिस किया ही होगा), किसी घटना के हो जाने के बाद (ख़ास तौर पर जब वो महत्वपूर्ण घटना हो) जैसे जैसे समय बीतता जाता है, उस घटना के कई सारे पहलू, या यह कह लीजिये की हमारे देखने का दृष्टिकोण बदल जाता है। मधुर संगीत के प्रभाव में अभी मुझे ऐसे जान पड़ रहा था की उस दिन रेडियो पर कोई रोमांटिक गाना बज रहा था। संभव है की ऐसा न हो! लेकिन इससे क्या ही बदल जाएगा? बस, वो यादें और मधुर बन जाएँगी।

ऐसा नहीं है की हम दोनों सिर्फ एक दूसरे को हमेशा इलू इलू (ILU) ही बोलते रहते हैं.. अन्य विवाहित जोड़ों के समान ही हम में भी झगड़े होते हैं। लेकिन ऐसे झगड़े नहीं जिनमें मन मुटाव होता हो.. ज्यादातर बनावटी झगड़े! अरे भई, कहते हैं न.. इस तरह के झगड़े विवाहित जीवन में स्वाद भरते हैं! या फिर कभी कभी ‘आज फिर से टिंडे बने हैं?’ वाले। मारा-पीटी भी होती है (अक्सर रूद्र ही मारते हैं मुझे...) – ओह लगता है आप गलत समझ गए। ये वो वाली बनावटी मार है, जिसमे मुक्का मेरे शरीर के पास आता तो तेज़ से है, लेकिन मुझको छूता ऐसे है जैसे मेरी मालिश की जा रही हो... मारने से पहले रूद्र मुझे अपने आलिंगन में कस कर बाँध लेते हैं और ऐसे मारते हुए वो अपने मुंह से वो ‘ए भिश्श.. ए भिश्श..' जैसी बनावटी आवाजें भी निकालते हैं। मतलब ऐसी मार जो, चोट तो बिलकुल नहीं देती, उल्टा गुदगुदी लगाती है। मैं हँसते हँसते लोट पोट हो जाती हूँ! कोई वयस्क हमको यह सब करते देखे तो अपना सर पीट ले! इतना प्यार! इतना दुलार! यह सब सोच सोच कर मेरी आँखें भर गईं!

यह दो साल कितनी जल्दी बीत गये! कुछ पता ही नहीं चला!! हम दोनों ने अपने दाम्पत्य जीवन के हर पहलू का आनंद उठाया था! आज भी, अगर रूद्र अपनी पर आ जाए (जो की अक्सर सप्ताहांत में होता ही है), तो मुझे पूरी रात सोने ही नहीं देते – मानो पूरे हफ्ते की कसर निकालते हैं। उनकी प्रयोगात्मक सोच के कारण, घर का कोई ऐसा कोना नहीं बचा जहाँ पर हमने सेक्स नहीं किया हो! बिस्तर पर तो होता ही है, इसके अलावा बाथरूम में, दीवारों पर, बालकनी में, फर्श पर, और रसोईघर में भी हमने सम्भोग किया था। कभी कभी लगता की अति हो रही है.. इस वर्ष मैंने यूँ ही मज़ाक मज़ाक में यह गिनना शुरू किया की हम कितनी बार सेक्स करते हैं... तीन सौ का आंकड़ा पार करते करते मैंने गिनती करनी बंद कर दी। ठीक है.. समझ आ गया की मेरे पति मेरे यौवन को दोनों हाथों से लूट रहे हैं! हा हा!

लेकिन ऐसा हो भी क्यों न? उनके छूने से मुझे सुख मिलता है। मन की व्यग्रता, शंकाएँ और कष्ट – सब तुरंत दूर हो जाते हैं। जिस तरह से वो मुझे देखते हैं... एक मादा के जैसे नहीं, बल्कि एक प्रेमिका के जैसे... जैसे मैं किसी स्पर्धा में प्राप्त पुरस्कार हूँ! बेहद इच्छित! उनकी छुवन में एक सकारात्मक ऊर्जा होती है – ऐसा नहीं है की उनकी छुवन लोलुपता विहीन होती है (ऐसा कभी नहीं महसूस हुआ), लेकिन वो लोलुपता निष्छल और ताज़ी होती है। सड़क चलते पुरुषों वाली नहीं... उनमे मैंने वो ज़हरीली लोलुपता देखी है.. कैसे वो अपनी आँखों से ही सामने दिखती महिलाओं और लड़कियों को निर्वस्त्र करते रहते हैं। उनको मेरे शरीर में लिप्सा है, लेकिन ऐसा नहीं है की वो मेरी इज्ज़त नहीं करते!

रूद्र के लिए मेरे दोनों स्तन दिलचस्प रचना के सामान हैं.. जैसे एक जोड़ी खिलौने! जब कभी भी हम दोनों अगल बगल बैठते हैं (कहने का मतलब हर रोज़, कम से कम पांच से दस बार), वे उनको उँगलियों की सहायता से छेड़ते हैं और सहलाते हैं। और मेरे शरीर की प्रतिक्रिया भी देखिए – उनके छूते ही मेरे दोनों निप्पल सूजने लगते हैं। सेक्स हो या न हो, सप्ताह के हर दिन (मेरा मतलब रात), रूद्र मेरे स्तनों को चूसते हुए ही सो जाते है – कहते हैं की बिना स्तनपान किये उनको नींद ही नहीं आती। हो सकता हो की उनके यह कहने में अतिशयोक्ति हो, लेकिन मेरा भी हाल कुछ कुछ ऐसा ही है – उनके लिंग को पकडे हुए ही मैं सोती हूँ.. रात में जब भी कभी किसी भी कारणवश उनका लिंग जब मेरे हाथ से छूट जाता है, तो मेरी नींद खुल जाती है। इसलिए मैं बिना हील हुज्जत के उनको अपनी मनमानी करने देती हूँ।

उनका लिंग! बाप रे! शायद ही कभी शांत रहता हो! मैंने पढ़ा है की रक्त प्रवाह बढ़ने से लिंग में स्तम्भन होता है.. अरे भई, कितना रक्त प्रवाह होता है? इनका तो लगभग सदा ही स्तंभित रहता है। मैं सोचते हुए मुस्कुरा दी। इससे मेरा एक अजीब सा नाता है – उसको इस प्रकार अपने भीमकाय रूप में देख कर भय भी लगता है, और प्रसन्नता भी होती है। जी हाँ – शादी के दो साल बाद भी। लगभग रोज़ ही इसको ग्रहण करने के बावजूद जिस प्रकार से उनका लिंग मेरी योनि का मर्दन करता है, वो अनुभव अनोखा ही है! मेरे लिए उनका लिंग ठीक वैसा ही खिलौना है, जैसे की मेरे स्तन उनके लिए। उनके गठे हुए शरीर से निकलती यह मोटी नलिका... जोशपूर्ण और वीर्यवान! वो खुलेआम निर्वस्त्र होकर घर में घूमते हैं... और उनके हर कदम पर उनका स्तंभित लिंग हलके हलके हिचकोले खाता है। हम्म्म्म...!
 
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avsji

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अचानक ही मेरे फ़ोन की घंटी बजी – रूद्र!

“हाउ आर यू, डार्लिंग?” और मेरा उत्तर सुने बिना ही, “जानू, जल्दी से तैयार हो जाओ – सरप्राइज है! मैं तुमको घंटे भर में पिकअप कर लूँगा.. ओके.. बाय!” कह कर उन्होंने फ़ोन काट दिया!

सरप्राइज! हा हा! रूद्र के साथ तो हर पल ही सरप्राइज है! एक घंटा? हम्म.. बस इतना समय है की नहा कर, कपड़े बदले जा सकें। नहा कर मैं अपने कमरे में आई, और सोचने लगी की क्या पहना जाय! मेरे जन्मदिन पर रूद्र ने एक लाल रंग की ड्रेस मुझे गिफ्ट करी थी, वो घुटने से बस ठीक नीचे तक जाती थी.. अभी तक पहनने का मौका नहीं मिला था, तो सोचा की आज तो एकदम सही समय है। मैं ड्रेस पहनी, अपने बालों को एक पोनीटेल में बाँधा, गले में एक छोटे छोटे मोतियों की माला पहनी और तैयार हो गई।

मैं कभी यह नहीं सोचती की मैं कैसी दिखती हूँ – मेरे पति मुझे आकर्षक पाते हैं, मेरे लिए इतना ही काफी है। लेकिन ख़ास मौकों पर सजने सँवरने में क्या बुराई है.. ख़ास तौर पर उसके लिए जिसको मैं बेहद प्यार करती हूँ? हम लोग अक्सर बाहर का खाना नहीं खाते (स्वास्थय के लिए ठीक नहीं होता न!), कभी कभी ही खाते हैं (या फिर तब जब हम यात्रा कर रहे होते हैं).. बाहर जाने से याद आया, की मुझे आज उनके प्लान के बारे में कुछ भी नहीं मालूम था। सरप्राइज का तो मज़ा ही इसी में है! मैं लिफ्ट से नीचे की तरफ उतर कर भवन के प्रांगन में अभी आई ही थी, की गेट से मुझे रूद्र कार में आते हुए दिखे।

ऐसा नहीं है की हम लोग घूमने फिरने कहीं जाते नहीं – रूद्र और मैं कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के जंगल गए। कान्हा शब्द कनहार से बना है जिसका स्थानीय भाषा में अर्थ चिकनी मिट्टी है। यहां पाई जाने वाली मिट्टी के नाम से ही इस स्थान का नाम कान्हा पड़ा। रूडयार्ड किपलिंग की प्रसिद्ध पुस्तक “जंगल बुक” की प्रेरणा इसी स्थान से ली गई थी। यहाँ हमने भारत का राष्ट्रीय पशु बाघ, बारहसिंघा, हिरण, मोर, भेड़िये इत्यादि जीव देखे। इसके अलावा हमने राजस्थान राज्य की भी यात्रा करी, जहाँ हमने जयपुर, जोधपुर (दोनों जगहें अपनी स्थापत्य और शिल्पकला के लिए और साथ ही साथ हत्कला के लिए प्रसिद्द हैं), जैसलमेर (थार रेगिस्तान) और रणथम्भोर राष्ट्रीय उद्यान (फिर से, बाघ, हिरण, सांभर हिरण!) की सैर करी। मेरे लिए यह दोनों जगहें बुल्कुल अद्भुत थीं! एक तरफ तो अंत्यंत घना जंगल, तो दूसरी तरफ कठिन रेगिस्तान! लेकिन अपने देश के इन अद्भुत स्थानों को देख कर न केवल मेरा दृष्टिकोण ही विकसित हुआ, बल्कि भारतवासी होने पर गौरव भी महसूस हुआ। बंगलोर के आस पास भी हम लोग यूँ ही लम्बी ड्राइव पर जाते हैं... मुझे यहाँ का खाना बहुत पसंद है (कभी सोचा नहीं था की दक्षिण भारतीय खाना मुझे इतना पसंद आएगा!)।

रूद्र ने मुस्कुराते हुए मेरे पास गाडी रोकी; मैंने उनके बगल वाली सीट वाला दरवाज़ा खोला और कार में बैठ गई। उनको मुस्कुराता देख कर मैं भी मुस्कुराने लगी (कुछ तो चल रहा है इनके दिमाग में)! उन्होंने मुस्कुराते हुए मेरे होंठों पर एक चुम्बन जड़ा और फिर कार वापस सड़क पर घुमा दी। ह्म्म्म.. अभी तक तो सभी कुछ पूर्वानुमेय है – हम एक रेस्त्राँ जा कर रुके, जहाँ हमने मुगलई भोजन किया। आज रूद्र ने कॉकटेल नहीं ली (वो अक्सर लेते हैं, लेकिन आज कह रहे थे की ड्राइव करना है, इसलिए नहीं लेंगे..), लेकिन उन्होंने मुझे दो गिलास पिला ही दी। बाहर आते आते मुझ पर नशा छाने लगा। लेकिन इतना तो होश था ही की समझ आ सके की हम लोग वापस घर की तरफ नहीं जा रहे थे। मैंने जब पूछा की कहाँ जा रहे हैं, तो उन्होंने कहा की यही तो सरप्राइज है..! हम्म्म्म... लॉन्ग ड्राइव! रात के अंधियारे में, जगमगाती सड़कों और उन पर सरपट दौड़ती गाड़ियों को देखते देखते कब मेरी आँख लग गई, कुछ याद नहीं।

जब आँख खुली तो मैंने देखा की गाडी रुकी हुई है (शायद इसी कारण से आँख खुली), सुबह का मद्धिम, लालिमामय उजाला फैला हुआ है, हवा में ताज़ी ताज़ी सुगंध और मेरे चहुँओर छोटी छोटी हरी भरी पहाड़ियाँ थीं। मुझे रूद्र की आवाज़ सुनाई दे रही थी – वो आस पास ही कहीं थे, और किसी से बातें कर रहे थे। मैंने चार पांच गहरी गहरी सांसें लीं – मन और शरीर दोनों में ताजगी आ गई। नशा काफूर हो गया। मैंने सीट पर बैठे बैठे अंगड़ाई ली और फिर से गहरी सांसें लीं, और फिर कार से बाहर निकल आई और आवाज़ की दिशा में बढ़ दी।

“जानू.. जाग गई?” रूद्र ने मुझे देखा, और मेरे पास आते आते मुझे आंशिक आलिंगन में भरा। उन्होंने फिर हमारे मेज़बान से मुझे मिलवाया।

“हम लोग कहाँ हैं?” मैंने पूछा।

“डार्लिंग, हम लोग कूर्ग में हैं..”

‘कूर्ग?’

उनसे मिलते मिलते सूर्योदय हो गया – सूर्य की किरणें पहाडियों के असंख्य श्रृंखलाओं पर लगे वृक्षों से छन छन कर आती हुई दिखाई पड़ रही थी। जादुई समां!

ओह! आपको कूर्ग के बारे में बताना ही भूल गई... कूर्ग कर्णाटक राज्य के पश्चिमी घाट पर है। सब्ज़ घाटियों, भव्य पहाड़ों और सागौन की लकड़ी जंगलों के बीच स्थित देश के सबसे खूबसूरत हिल स्टेशनों में से एक है। इन पहाड़ियों से होती हुई कावेरी नदी बहती है। यह जगह पर्यटकों को बहुत आकर्षित करती है – शहरों में रहने वाले, खास तौर पर बैंगलोर और मैसूर से अनेक पर्यटक यहाँ आते हैं। शुद्ध ताज़ा हवा और चहुँओर बिखरी हरियाली लोगों के चित्त को प्रसन्न कर देती है। इसके अतिरिक्त, यह स्थान कॉफी, चाय, और इलायची के बागानों के लिए भी जाना जाता है। यह भारत का ‘स्कॉटलैंड’ भी कहा जाता है... अपनी प्राकृतिक सुंदरता के कारण! लगभग 100 साल पहले ब्रिटिश लोगों ने इस स्थान पर भी रिहाइशी बंदोबस्त किए थे।

जिस जगह पर हम रुके थे, वह एक होम-स्टे था। रूद्र का प्लान था की किसी होटल में नहीं, बल्कि प्रकृति के बीच एक शांत जगह पर रहेंगे। यह एक अच्छी बात थी – पहला इसलिए क्योंकि यहाँ कोई भीड़ भड़क्का नहीं था। हमारे मेजबान का घर और होम-स्टे उनके कॉफ़ी और केले के बगान में ही थे। यह एक बहुत ही वृहद् (करीब सौ एकड़) बगान था – इसमें इनके अलावा इलाइची भी पैदा की जाती है। और तो और, हमारे खाने पीने का इंतजाम भी हमारे मेजबानो ने कर दिया था – सवेरे का नाश्ता तैयार था, तो हमने फ्रेश होकर उनके साथ ही बैठ कर स्थानीय नाश्ता किया और कॉफ़ी की चुस्कियों के साथ देर तक बात चीत करी।

मैंने रूद्र से शिकायत करी की अगर वो पहले बताते तो कम से कम कुछ पहनने को पैक कर लेती। कितनी देर तक इसी कपड़े में रहूंगी? इसके उत्तर में उन्होंने गाड़ी की पिछली सीट पर बहुत ही तरीके से छुपाया हुआ एक पैक निकाला – उसमे मेरे पहनने के लिए जीन्स और टी-शर्ट था। रूद्र के लिए शॉर्ट्स और टी-शर्ट था। क्या बात है!

इस जगह की सैर पर जब हम निकले, तब समझ आया की यह वाकई एक अलग ही प्रकार का हिल स्टेशन है। उतना व्यवसायीकरण नहीं हुआ है अभी तक! साथ ही साथ इस जगह पर अपनी एक मज़बूत संस्कृति, और इतिहास है। सबसे अच्छी बात यहाँ की साफ-सुथरी हवा, लगातार आती पंछियों की चहचहाहट और गुनगुनी धूप! एकदम ताजगी का एहसास! दिन भर में हमने वहाँ के खास खास पर्यटन स्थल (ओमकारेश्वर मंदिर, राजा की सीट, एब्बे झरना) देख डाले। झरने के बगल वाले एस्टेट में कॉफी के साथ साथ काली-मिर्च, और इलायची और अन्य पेड़-पौधे देखने को मिले।

एक बात मैंने वहाँ घूमते फिरते और देखी – यहाँ के लोग बहुत ही ख़ुशमिजाज़ किस्म के हैं। देखने भालने में आकर्षक और बढ़िया क़द-काठी के हैं। ख़ासतौर पर कूर्ग की महिलाएं बहुत सुन्दर हैं। हमने अपने लिए कॉफी, और शुद्ध शहद ख़रीदा (याद है?)। एक और ख़ास बात है यहाँ की, और वह यह की भारतीय सेनाओं में बहुत से जवान और अधिकारी कूर्ग से हैं। यहाँ के लोगो की वीरता के कारण इनको आग्नेयास्त्र (रूद्र वाला नहीं, बंदूक वाला) रखने के लिए लाइसेंस की आवश्यकता नहीं है।

शाम होते होते हम दोनों घूम फिर कर वापस होमस्टे आ गए, और अपने मेजबानो के साथ देर तक गप्पें लड़ाई, खाना खाया और बॉन-फायर का मज़ा लिया। आज रात यही रुक कर कल सवेरे वापस निकलने का प्रोग्राम था। लेकिन मन हो रहा था की यही पर रुक जाया जाय! घर की याद हो आई – वहाँ भी सब कुछ ऐसा ही था। मिलनसार लोग, शुद्ध वातावरण, पहाड़ी और शांत इलाका! मैं बालकनी में आकर बैठ गई – एकांत था, दूर दूर तक शांति, न कोई लोग और न कोई आवाज़! रात में पहनने को कुछ नहीं था, इसलिए कमरे की बत्ती बुझा कर, बिना कपड़ों के ही कुर्सी पर बैठी कहे आकाश को देर तक देख रही थी। कम प्रदूषण वातावरण में होने के नाते, रात्रि आकाश असंख्य सितारों जगमगाते हुए दिख रहे थे! शानदार था!

यहाँ प्राकृतिक दृश्यों की भरमार थी... मिटटी से मानो एक जादुई खुशबू निकल रही थी। पेड़ पौधों का अपना निराला अंदाज़, चारों ओर जैसे बस सुगंध ही सुगंध! ऐसे मनभावन वातावरण में किसी भी प्रकार का क्लेश कैसे हो सकता है? लेकिन फिर भी मन आशान्त था! घर की याद हो आई.. एक एक बात! माँ बाप का साथ कितना सुकून देता है! उनकी याद आते ही मन हुआ की जैसे पंख लगाकर पल भर में ही उनके पास पहुँच जाऊँ। पापा तो कितना दुलारते हैं! घर जाने पर मैं आराम से उनके ऊपर पैर पसारकर देर तक बैठी रहती हूँ। माँ कभी एक कप चाय का पकड़ा देती हैं, तो कभी रक प्लेट गरम पकोड़े!

“क्या सोच रही हो?” रूद्र ने मेरे कंधे पर मालिश करते हुए पूछा। न जाने कैसे, अगर मेरे मन में कुछ भी उल्टा पुल्टा होता है तो उनको ज़रूर मालूम पड़ जाता है। एक बार उन्होंने मुझे कहा था की मैं बिलकुल पारदर्शी हूँ...

“कुछ भी नहीं, बस यूं ही मन उदास है।” मैंने सहज होते हुए कहा।

“अरे! ऐसा क्यों? मेरा सरप्राइज पसंद नहीं आया क्या, जो ऐसे जाने कहां खोई हो?”

मैंने संभलते हुए कहा, “कुछ भी तो नहीं हुआ?”

“नहीं... कुछ तो गड़बड़ है... वरना तुम इस तरह उदास और बुझी हुई कभी नहीं रहती।” इनकी पारखी आंखों ने ताड़ ही लिया... और ताड़े भी क्यों न? हम अब तक एक-दूसरे की रग-रग से वाकिफ हो गए थे, और एक-दूसरे की परेशानी की चिंता-रेखाओं को पकड़ लेते हैं। दो साल का अन्तरंग साथ है। चेहरा देख कर तो क्या, अब तो बिना देखे हुए ही मन के भाव समझ जाते हैं। उन्होंने मुझे पीछे से आलिंगन में भरते हुए पूछा, “ए जानू! बोलो न क्या हुआ? कुछ तो बताओ!”

मैंने सहज होने की कोशिश करते हुए कहा, “यूं ही आज रह-रहकर घर की याद आ रही हैं।“

“अरे! बस इतनी सी बात.. अरे भई, कॉल कर लो!”

“ह्म्म्म.. देखा.. लेकिन सिग्नल नहीं हैं..”

“कोई बात नहीं, कल सवेरे कर लेना, जैसे ही नेटवर्क आता है.. ओके?”

मैंने कुछ नहीं कहा... बस डबडबाई हुई आंखों को चुपके से पोंछ लिया। चाहे मैंने कितनी ही चोरी छुपे यह किया हो, वो देख ही लेते हैं।
 
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कुछ लिख लेता हूँ
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“ओये, तुम चॉकलेट खाओगी?”

मुझे चॉकलेट बहुत पसंद हैं... इसीलिए वो अक्सर अपने साथ दो तीन पैक ज़रूर रखते हैं। मैं मुस्कुराई! मेरी हर परेशानी का इलाज रहता है इनके पास।

“हाँ! बिलकुल! चॉकलेट के लिए मैंने कब मना किया?”

“हा हा! चलो यार! कम से कम तुम कुछ मुस्कुराई तो!” उन्होंने मुझे चॉकलेट पकड़ाते हुए कहा, “... यू नो! तुम्हारे चेहरे के लिए मुस्कुराहट ही ठीक है.. उदास होना, या गुस्सा होना... तुम्हारे लिए नहीं डिज़ाइन किया गया है..।“

“अच्छा जी, तो फिर किसके लिए?”

“मेरे लिए! मुझे देखो न... अगर इस चेहरे पर एक बार गुस्सा आ जाय, तो सामने वाले की...”

मैंने बीच में ही काटते हुए कहा, “जी हाँ.. समझ आ गया!” फिर कुछ देर रुक कर, “जानू, आप भी कभी गुस्सा या उदास मत होइएगा। आप पर भी सूट नहीं करता!”

“मैं भला क्यों होऊंगा? मेरे साथ तो तुम हो! मेरे पास गुस्सा या उदास होने का कोई रीज़न ही नहीं है!” इन्होने मुझे दुलारते हुए कहा। मैं मुस्करा उठी। इनके स्नेह भरे साथ ने मुझे कितना बदल दिया है!

“यू किस मी...”, मैंने एक बिंदास लड़की के जैसे वर्तमान अन्तरंग क्षणों का भरपूर लुत्फ़ उठाने के लिए रूद्र का चेहरा अपने चेहरे पर खींच लिया। पिछले एक हफ्ते से हम लोग बहुत ही व्यस्त हो गए थे, और जाहिर सी बात है की इस कारण से सबसे पहले हमारे यौन समागम की बलि चढ़ी। मुझे तो लगता है की जब किसी को सेक्स की नियमित खुराक की आदत पड़ जाती है तो किसी भी प्रकार का व्यवधान शरीर और मन पर असर करने लगता है। ठीक वैसे ही जैसे किसी की नींद गड़बड़ होने से पूरे मानसिक और शारीरिक व्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है। मेरा शरीर किसी कसे हुये वीणा की तरह हुआ जा रहा था। मन बेचैन होने लगा था।

हमारे आलिंगन बद्ध शरीरों में जैव रसायनों और संवेदनाओं के समरस प्रभाव से अब तीव्र उत्तेजना प्रवाहित होने लगी थी। ऐसे खुले प्राकृतिक वातावरण में यह यौनजन्य प्रक्रिया अब अपना असर दिखाने लगी थी – मेरी योनि से वही जाना पहचाना स्राव होने लगा था, और रूद्र का लिंगोत्थान होने लगा। कुछ देर ढंग से चूमने के बाद, रूद्र मुझे अपनी गोद में उठाकर हमारे सुसज्जित शयनकक्ष में आए। मैं बिस्तर पर बैठ कर चादर की सिलवटें ठीक करने लगी, लेकिन अब तक रूद्र कामासक्त होकर शरारत के मूड में आ गए थे। हमने इन दो सालों में कितनी ही बार अनवरत सेक्स किया था, लेकिन आज भी जब भी वो मुझे अपनी बाहों में लेटे हैं तो उनके मनोभाव समझते ही शर्म की लाली मेरे गालों और आँखों में उभर जाती है। मुझे बिस्तर पर लिटा कर जब रूद्र मुझमे प्रविष्ट हुए तब तक मेरा सारा तनाव और उदासी समाप्त हो गई थी। ताज़ी हवा, चहुँओर फैली शांति और प्रबल साहचर्य की ऊर्जा ने हमारे शरीरों में हार्मोंस की गति इतनी बढ़ा दी कि उत्तेजना की कांति त्वचा से रिसने लगी। यौन संसर्ग सचमुच मानसिक चेतना को सुकून और शरीर को पौष्टिकता देती है। देखो न, कैसे उनके पौरुष रसायनों की आपूर्ति से मेरी देह गदरा गई है! साहचर्य में मैं मदमस्त होकर रूद्र को अपनी छातियों में समेटे ले रही थी – और देर तक हमारी कामजनित इच्छाओं को मूर्त रूप देते रहे।

सवेरे हम लोग देर से उठे, और जब तक तैयार होकर बाहर आये, तब तक हमारे मेजबानों ने एक बेहतरीन ब्रेकफास्ट बना दिया था। हमने खाना खाया, कॉफ़ी पी, और फिर भुगतान वगैरह करके वापस की यात्रा आरम्भ करी। रास्ते में रूद्र ने कहा की चलो, तुम्हे तिब्बत की सैर कराता हूँ!

तिब्बत! यहाँ कहाँ तिब्बत! फिर कोई एक घंटे में उनका मतलब समझ आया। हम लोग ब्यलाकुप्पे तिब्बती मठ पहुंचे। यह एक बेहद सुन्दर जगह है... अचानक ही इतने सारे तिब्बती चेहरों को देख कर लगता है की भारत में नहीं, बल्कि वाकई तिब्बत पहुँच गए हैं! प्राचीन परम्पराओं को लिए, और आधुनिक सुविधाओं के साथ यह जगह एक बहुत सुन्दर गाँव जैसे है। वैसे भी यह जगह देखने के लिए आज एकदम सही दिन था – गुनगुनी धुप बिखरी हुई थी। परिसर के अन्दर बगीचों का रख रखाव अच्छे से किया गया था। हर भवन के ऊपर रंग-बिरंगी झंडे फहरते दिख रहे थे। आते जाते भगवा वस्त्रों में बौद्ध भिक्षु दिख रहे थे। एक तरफ तिब्बती बच्चे आइसक्रीम का आनंद ले रहे थे। हम लोग वाकई यह भूल गए की हम लोग कर्नाटक में हैं। मठ इतनी अच्छी तरह से सुव्यवस्थित और शांतिपूर्ण ढंग से सजाया गया था की यहाँ आ कर मेरे मन में अनंत शांति और ऊर्जा का संचार होने लगा।

मठ के अन्दर एक मंदिर है, जिसको स्वर्ण मंदिर कहते हैं। उसमें बहुत सुन्दर तीन मूर्तियाँ हैं - भगवान बुद्ध (केंद्र पर), गुरु पद्मसंभव, और बुद्ध अमितायुस। ये मूर्तियाँ तांबे की बनी हैं, और उन पर सोना चढ़ा हुआ है। मंदिर के अंदरूनी और वाह्य दीवारों पर बारीक डिजाइन और भित्ति-चित्र बनाए गए थे। दीवारों पर बने रंगीन भित्ति चित्र अनेक प्रकार की कहानियां सुना रहे थे। एक तरफ भिक्षु लोग प्रार्थना कर रहे थे और उनकी प्रार्थना से उत्पादित गहरी गुंजार... मानो हम खो गए थे। यहाँ पर बहुत देर रहा जा सकता है, लेकिन काम को कैसे दरकिनार किया जा सकता है? शाम से पहले बैंगलोर पहुंचने के लिए हमको अभी ही शुरू करना चाहिए था, तो इसलिए हमने भगवान बुद्ध को विदाई दी और बाहर आ गए। दोपहर का भोजन हमने वहीँ किया – तिब्बती भोजन! वहाँ ज्यादातर घरों को कैफे और रेस्तरां भोजनालय में बदल दिया गया है। खाने के बाद हमने कुछ हस्तशिल्प सामान खरीदा और वापसी का रुख किया।


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कुछ लिख लेता हूँ
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रूद्र की खजुराहो वाली उपमा मेरे दिमाग में हमेशा बनी रही। इन्टरनेट और अन्य जगहों से उसके बारे में मैंने बहुत सी जानकारी इकट्ठी कर ली थी.. इसिये जैसे ही रूद्र ने दिसम्बर की छुट्टियाँ मनाने के लिए जगह चुनने की पेशकश करी, मैंने तुरंत ही खजुराहो का नाम ले लिया। रूद्र ने आँख मारते हुए पूछा भी था की

‘जानेमन, क्या चाहती हो? अब क्या सीखना बाकी है?’

उनका इशारा सेक्स की तरफ था, यह मुझे मालूम है.. लेकिन मैंने उनकी सारे तर्क वितर्क को क्षीण कर के अंततः खजुराहो जाने के लिए मना ही लिया। लेकिन रूद्र भी कम चालाक नहीं हैं, उन्होंने चुपके से पन्ना राष्ट्रीय उद्यान को भी हमारी यात्रा में शामिल कर लिया।

खजुराहो के मंदिर भारतीय स्थापत्य कला का सुन्दर और उत्कृष्ट मिसाल हैं! मंदिरों की दीवारों पर उकेरी विभिन्न मुद्राओं को दिखाती मनोहारी प्रतिमाएँ दुलर्भ शिल्पकारी का उदाहरण हैं। खजुराहो मध्यप्रदेश राज्य में स्थित एक छोटा सा गाँव है। मध्यकाल में उत्तरी भारत के सीमांत प्रदेश पर मुसलमानी आक्रांताओं के अनवरत आक्रमण के कारण बड़गुज्जर राजपूतों ने पूर्व दिशा का रुख किया, और मध्यभारत अपना राज्य स्थापित किया। ये राजपूत महादेव शिव के उपासक थे। उन्हीं शासकों द्वारा नवीं से ग्यारहवीं शताब्दी के बीच खजुराहो के मंदिरों का निर्माण कराया गया। कहते हैं इन मंदिरों की कुल संख्या पच्चासी थी, जिन्हें आठ द्वारों का एक विशाल परकोटा घेरता था और हर द्वार खजूर के विशाल वृक्ष लगे हुए थे। इसी कारण इस जगह को खजुराहो कहते थे। आज उतनी संख्या में मंदिर नहीं बचे हैं। मुस्लिम आक्रमणकारियों की धर्मान्धता और समय का शिकार हो कर अधिकांश मंदिर नष्ट हो गए हैं। आज केवल बीस-पच्चीस मंदिर ही बचे हैं। हर साल लाखों की संख्या में देशी व विदेशी पर्यटक खजुराहों आते हैं व यहाँ की खूबसूरती को अपनी स्मृति में कैद कर ले जाते हैं।

खजुराहो के मंदिरों को ‘प्रेम के मंदिर’ भी कहते हैं। कहिये तो इन मंदिरों का इतना प्रचार यहाँ की काम-मुद्रा में मग्न देवी-देवताओं प्रतिमाओं के कारण हुआ है। ध्यान से देखें तो इन मूर्तियों में अश्लीलता नहीं, बल्कि प्रेम, सौंदर्य और सामंजस्य का प्रदर्शन है। खजुराहो के मंदिरों को आम तौर पर कामसूत्र मंदिरों की संज्ञा दी जाती है, लेकिन केवल दस प्रतिशत शिल्पाकृतियाँ ही रतिक्रीड़ा से संबंधित हैं। प्रतिवर्ष कई नव विवाहित जोड़े परिणय सूत्र में बँधकर अपने दांपत्य जीवन की शुरुआत यही से करते हैं। लेकिन सच तो यह है की न ही कामसूत्र में वर्णित आसनों अथवा वात्स्यायन की काम-संबंधी मान्यताओं और उनके कामदर्शन से इनका कोई संबंध है।

खजुराहो मंदिर तीन दिशाओं में बने हुए हैं - पश्चिम, पूर्व और दक्षिण दिशा में। ज्यादातर मंदिर बलुहा पत्थर के बने हैं। इन पर आकृतियाँ उकेरना कठिन कार्य है, क्योंकि अगर सावधानी से छेनी हथोडी न चलाई जाय, तो यह पत्थर टूट जाते हैं। खजुराहो का प्रमुख एवं सबसे आकर्षक मंदिर है कंदारिया महादेव मंदिर। आकार में तो यह सबसे विशाल है ही, स्थापत्य एवं शिल्प की दृष्टि से भी सबसे भव्य है। समृद्ध हिन्दू निर्माण-कला एवं बारीक शिल्पकारी का अद्भुत नमूना प्रस्तुत करता है यह भव्य मंदिर। बाहरी दीवारों की सतह का एक-एक इंच हिस्सा शिल्पाकृतियों से ढंका पड़ा है। कंदरिया’ - कंदर्प का अपभ्रंश! कंदर्प यानी कामदेव! सचमुच इन मूर्तियों में काम और ईश्वर दोनों की तन्मयता की चरम सीमा देखी जा सकती है... भावाभिभूत करने वाली कलात्मकता! सुचित्रित तोरण-द्वार पर नाना प्रकार के देवी-देवताओं, संगीत-वादकों, आलिंगन-बद्ध युग्म आकृतियों, युद्ध एवं नृत्य, राग-विराग की विविध मुद्राओं का अंकन हुआ है। अन्दर की तरफ मंडपों की सुंदरता मन मोह लेती है। बालाओं की कमनीय देह की हर भंगिमा, और हर भाव का मनोरम अंकन हुआ है। उनके शरीर पर सजे एक-एक आभूषण की स्पष्ट आकृति शिल्पकला के कौशल को दर्शाती है। स्पंदन, गति, स्फूर्ति सब जैसे गतिमान और जीवंत से लगते हैं! मैं एकटक उन मूर्तियों को देखती रही!

मंदिर के गर्भगृह में संगमरमर का शिवलिंग स्थापित है, और उसकी दीवारों पर परिक्रमा करने वाले पथ पर मनोरम शिल्पाकृतियाँ बनी हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों पर चारों दिशाओं में देवी-देवताओं, देवदूतों, यक्ष-गंधर्वों, अप्सराओं, किन्नरों आदि का चित्रण किया गया है। सीढ़ी सादी भाषा में कहें तो खजुराहो मंदिर, ख़ास तौर पर कंदरिया महादेव मंदिर हिन्दू शिल्प और स्थापत्य कला का संग्रहालय है। शिल्प की दृष्टि से देश के अन्य सारे निर्माण बौने हैं! मैं इन मंदिर को देखते हुए मैं बार-बार अभिभूत हो रही थी। मंत्रमुग्ध सी निहार रही थी!

विशालता और शिल्प-वैभव में कंदरिया महादेव का मुकाबला करते लक्ष्मण मंदिर है। इसके प्रांगन में चारों कोनों पर बने उपमंदिर आज भी हैं। इस मंदिर के प्रवेश-द्वार के शीर्ष पर भगवती महालक्ष्मी की प्रतिमा है। उसके बाएँ स्तम्भ पर ब्रह्मा एवं दाहिने पर शिव की मूर्तियाँ हैं। गर्भगृह में भगवान विष्णु की लगभग चार फुट ऊँची प्रतिमा स्थापित है। इस प्रतिमा में आप नरसिंह और वाराह अवतारों का रूप देख सकते हैं। मंदिर की दीवारों पर विष्णु के दशावतारों, अप्सराओं, आदि की आकृतियों के साथ-साथ प्रेमालाप, आखेट, नृत्य, मल्लयुद्ध एवं अन्य क्रीड़ाओं का अंकन किया गया है।

दिन भर इन मंदिरों का भ्रमण करने, थोड़ी बहुत खरीददारी करने और रात का साउंड एंड लाइट शो देखने के बाद जब हम वापस आये तो बहुत थक गए थे! सच कहूं, तो यहाँ आने को लेकर रूद्र मेरी अपेक्षा कम उत्साहित थे। हमने कमरे में ही माँगा लिया और खाना खा पीकर जब हम बिस्तर पर लेटे तो दिमाग में इस जगह के शासकों – चंदेल राजपूतों की उत्पत्ति की कहानी याद आने लगी। चंदेल राजा स्वयं को चन्द्रमा की संतान कहते थे। कहानी कुछ ऐसी है - बनारस के राजपुरोहित की विधवा बेटी हेमवती बहुत सुंदर थी.... अनुपम रूपवती! एक रात जब वह एक झील में नहा रही थी तो उसकी सुंदरता से मुग्ध होकर चन्द्रमा धरती पर उतर आया और हेमवती के साथ संसर्ग किया। हेमवती और चंद्रमा के इस अद्भुत मिलन से जो संतान उत्पन्न हुई उसका नाम चन्द्रवर्मन रखा गया, जो चंदेलों के प्रथम राजा थे।

कहानी अच्छी है, और प्रेरणादायी भी! प्रेरणा किस बात की? अरे, क्या अब यह भी बताना पड़ेगा?

“जानू?”

“ह्म्म्म?”

“हेमवती और चन्द्रमा वाला खेल खेलें?”

“नेकी और पूछ पूछ! लेकिन सेटअप सही होना चाहिए!”

“अच्छा जी! मैंने तो मजाक किया था, लेकिन आप तो सीरियस हो गए!” मैंने ठिठोली करी।

रूद्र ने खिड़की खोल दी। चांदनी रात तो खैर नहीं थी, लेकिन चांदनी की कमी भी नहीं थी। उसके साथ साथ ठंडी हवा भी अन्दर आ रही थी। लेकिन, अगर शरीर में गर्मी हो, तो इससे क्या फर्क पड़ता है? सोते समय मैंने शिफॉन की नाइटी पहनी हुई थी – इसका सामने (मेरे स्तनों पर) वाला हिस्सा जालीदार था। उसकी छुवन और ठंडी हवा से मेरे निप्पल लगभग तुरंत ही तीखे नोकों में परिवर्तित हो गए। रूद्र के कहने पर मैं खिड़की के पास जा कर खड़ी हो गई - क्षण भर को मुझे जाने क्यों लगा की मैं वाकई हेमवती हूँ, वाराणसी के उसी ब्राह्मण पंडित की पुत्री! खुली खिड़कियों से आती हुई चांदनी हमारे कमरे को मानो सरोवर में तब्दील किये जा रही थी और मैं चंद्रमा की किरणों में नहा रही थी, अंग-अंग डूबी हुई। मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं!

‘न जाने कितनी स्त्रियों को यह अनुभव हुआ हो!’

मैंने मुड़ कर रूद्र को देखा – वो भी तल्लीन होकर चांदनी में नहाए मेरे रूप का अनवरत अवलोकन कर रहे थे।

‘बॉडी लाइक खजुराहो इडोल्स!’

मैं धीरे धीरे खजुराहो की सपनीली दुनिया की नायिका बनती जा रही थी। राग-रंग से भरी हुई... आत्मलीन नायिका! मुझे लगा जैसे की मेरा शरीर किसी कसे हुये वीणा की तरह हो गया हो – उंगली से छेड़ते ही न जाने कितने राग निकल पड़ेंगे! मन अनुरागी होने लगा। क्या यह बेचैनी खजुराहो की थी? लगता तो नहीं! रूद्र तो हमेशा साथ ही रहते हैं, लेकिन आज वाली प्यास तो बहुत भिन्न है! न जाने कैसे, रूद्र के लिये मानो मेरी आत्मा तड़पती है, शरीर कम्पन करता है... अब यह सब सिवाय प्यार के और क्या है?

“कब तक यूँ ही देखेंगे?”

“पता नहीं कब तक! तुम वाकई खजुराहो की देवी लग रही हो! ये गोल, कसे और उभरे हुए स्तन, पतली कमर, उन्नत नितंब! ...बिलकुल सपने में आने वाली एक परी जैसी!”

“अच्छा... आपके सपने में परियां आती हैं?” तब तक रूद्र ने मुझे अपनी बाहों में भर लिया।

वो मुझे बहुत प्यार से देख रहे थे – आँखों में वासना तो थी, लेकिन प्यार से कम! उनकी आँखों में मेरा अक्स! उनकी आँखों के प्रेम में नहाया हुआ मेरा शरीर! सचमुच, मैं हेमवती ही तो थी!

रूद्र ने क्या कहा मुझे सुनाई नहीं दिया – बस उनके होंठ जब मेरे होंठों से मिले, तो जैसे शरीर में बिजली सी दौड़ गई! मैं चुपचाप देखती हूँ की वो कैसे मेरे हर अंग को अनावृत करते जाते हैं, और चूमते जाते हैं। बस कुछ ही पलों में मैं अपने सपनों के अधिष्ठाता के साथ एक होने वाली थी।

‘बस कुछ ही पलों में....’

रूद्र मेरे निप्पलों को बारी बारी मुंह में भर कर चूस, चबा, मसल और काट रहे थे। मेरी साँसे तेजी से चलने लगीं। मेरा पूरा शरीर कसमसाने लगा। आज रूद्र कुछ अधिक ही बल से मेरे स्तन दबा रहे थे – ऐसा कोई असह्य नहीं, लेकिन हल्का हल्का दर्द होने लगा।

“अआह्ह्ह! आराम से...”

"हँ?" रूद्र जैसे किसी तन्द्रा से जागे!

“आराम से जानू... आह!”

“आराम से? तू इतनी सेक्सी लग रही है... आज तो इनमें से दूध निचोड़ लूँगा!” कह कर उन्होंने बेरहमी से एक बार फिर मसला।

"आऊ! अगर... इनमें... दूध होता... तो आपको... मज़ा... आआह्ह्ह्ह! आता?" मैंने जैसे तैसे कराहते हुए अपनी बात पूरी करी। मैं अन्यमनस्क हो कर उनके बालों में अपनी उँगलियाँ फिरा रही थी।

उन्होंने एक निप्पल को मुंह में भर कर चूसते हुए हामी में सर हिलाया। कुछ देर और स्तन मर्दन के बाद मेरी दर्द और कामुकता भरी सिसकियाँ निकलने लगी। लोहा गरम हो चला था... लेकिन रूद्र फोरप्ले में बिजी हैं!

“अब... बस...! आह! अब अपना ... ओह! लंड.. डाल दो! प्लीज़! आऊ! अब न... अआह्ह्ह! सताओ...!”

रूद्र जैसे बहरे हो गए थे। अब वो धीरे-धीरे चूमता हुए मेरे पेट की तरफ आ कर मेरी नाभि को चूमने, चूसने और जीभ की नोक से छेड़ने लगे, दूसरे हाथ से वो मेरी योनि का जायजा लेने लगे। और फिर अचानक ही, उन्होंने मुझे अपनी गोद में उठाया और लाकर बिस्तर पर पटक दिया। कपड़े मेरे तो न जाने कब उतर चुके थे... रूद्र के कहने पर मैंने अपनी योनि पर से बाल हटवा लिए थे – स्थाई रूप से! रूद्र अभी पूरी तन्मयता के साथ बेतहाशा मेरी योनि को पागलों की तरह चूस रहे थे। अपनी जीभ यथासंभव अन्दर घुसा घुसा कर मेरा रस पी रहे थे। मैं बेचारी क्या करती? मैं आनन्द के मारे आँखें बंद करके मजा ले रही थी, और इस बात पर कुढ़ भी रही थी की अभी तक उन्होंने लिंग क्यों नहीं घुसाया। अब मुझसे सहन नहीं हो पा रहा था।

जैसे रूद्र ने मेरे मन की बात सुन ली हो – उन्होंने योनि चूसना छोड़ कर एक बार मेरे होंठों पर एक चुम्बन लिया और फिर खुद भी निर्वस्त्र हो कर मुख्य कार्य के लिए तैयार हो गए। रूद्र ने एक झटके के साथ ही पूरा का पूरा मूसल मेरे अन्दर ठेल दिया – मेरी उत्तेजना चरम पर थी, इसलिए आसानी से सरकते हुए अन्दर चला गया। उत्तेजना जैसे मेरे वश में ही नहीं थी - मैंने नीचे देखा – मेरी योनि की मांसपेशियों ने लिंग-स्तम्भ को बहुत जोर से जकड़ रखा था। रूद्र ने हल्के-हल्के धक्के लगाने शुरू कर दिए थे। और मैं मुँह भींचे, उनके लिंग की चोटों को झेल रही थी।

मैंने कहा, “आप तेज-तेज करो... जितनी तेज कर पाओ.. आह!”

रूद्र ने अपनी गति बढ़ा दी और तेज़-तेज़ झटके मारने लगे। जाहिर सी बात है, इतनी तेज गति से सेक्स करने पर हमेशा जैसा मैराथन संभव नहीं था। उनकी गति और भी तेज हो गई थी, क्योंकि मैं भी अपनी कमर हिला-हिला कर उनका साथ दे रही थी। आख़िरकार एक झटके के साथ रूद्र का ढेर सारा वीर्य मेरे अन्दर भर गया। जब वो पूरी तरह से निवृत्त हो गए तो हम दोनों लिपट गए।

मैंने उनको चूमते हुए कहा, “बाहर मत निकलना!”

रूद्र उसी तरह मुझे अपने से लपेटे लेटे रहे और बातें करते रहे। अंततः, उनका लिंग पूरी तरह से सिकुड़ कर बाहर निकल गया। मैं उठा कर बाथरूम गई, और साफ़ सफाई कर के रूद्र के साथ रजाई के अन्दर घुस गई।

“मैं आपसे एक बात कहूं? ... उम्म्म एक नहीं, दो बातें?”

“अरे, अब आपको अपनी बात कहने से पहले पूछना पड़ेगा?”

“नहीं.. वो बात नहीं है.. लेकिन बात ही कुछ ऐसी है!”

“ऐसा क्या? बताओ!”

“आपने एक बार मुझे कहा था न.. की अगर मेरे पास कोई बिज़नस आईडिया होगा, तो आप मेरी हेल्प करेंगे?”

“हाँ.. और यह भी कहा था की आईडिया दमदार होना चाहिए... कुछ है क्या दिमाग में?”

“है तो... आप सुन कर बताइए की बढ़िया है या नहीं?”

“मैं सुन रहा हूँ...”

“एक फैशन हाउस, जिसमे ट्रेडिशनल से इंस्पायर हो कर कंटेम्पररी जेवेलरी मिलें? खजुराहो ओर्नामेंट्स! कैसा लगा नाम? पुरानी मूर्तियों, और चित्रों से प्रेरणा लेकर नए प्रकार के गहने? मेटल, वुड, स्टोन, और बोंस – इन सबसे बना हुआ? क्या कहते हैं? कॉम्प्लिमेंटरी एक्सेसोरीस, जैसे स्टोल, बेल्ट्स, और बैग्स भी रख सकते हैं!”

“ह्म्म्म... इंटरेस्टिंग!” रूद्र ने रूचि लेटे हुए कहा... “अच्छा आईडिया तो लग रहा है.. इस पर कुछ रिसर्च करते हैं। एक स्टोर के साथ साथ इन्टरनेट पर भी बेच सकते हैं... ठीक है... मुझे और पता करने दो, और इस बीच में अपने इस आईडिया को और आगे बढाओ... ओके? हाँ, अब दूसरी बात?”

“दूसरी बात... उम्म्म.. कैसे कहूं आपसे..!”

“अरे! मुझसे नहीं, तो फिर किससे कहोगी?” रूद्र ने प्यार से चूमते हुए कहा।

मैं मुस्कुराई, “मुझे इनमें,” कहते हुए मैंने रूद्र का हाथ अपने एक स्तन पर रखा, “दूध चाहिए...”

“हैं? वो कैसे होगा?”

“अरे बुद्धू... मैं माँ बनना चाहती हूँ...”
 
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कुछ लिख लेता हूँ
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“माँ बनना चाहती हो? वाकई? ...आई मीन, इस इट फॉर रियल?”

मुझे उसकी बात पर यकीन ही नहीं हो रहा था। संध्या अभी तक अपनी पढाई लिखाई में इतनी मशगूल थी, की इस बात को पचाना ही मुश्किल हो रहा था।

“हाँ! क्यों? आप ऐसे क्यों कह रहे हैं?” संध्या का स्वर अभी भी उतना ही संयत और शांत था, जितना की यह बात करने से पहले... सम्भोग की संतृप्ति की उत्तरदीप्ति का असर होगा? ... नहीं.. ये तो सीरियस लग रही है!

“नहीं.. मेरा मतलब.. तुम अभी कितनी छोटी हो!”

“आपका मतलब, आपसे शादी करने के टाइम से भी छोटी?”

“नहीं... ओह गॉड! एक मिनट... जरा ठन्डे दिमाग से सोचते हैं.. माँ बनना एक बात है, लेकिन बच्चे की परवरिश, उसकी देखभाल करना एक बिलकुल अलग बात है। मैं यह नहीं कह रहा हूँ की तुम हमारे बच्चे का ख्याल नहीं रख पाओगी.. लेकिन उसकी फुल टाइम ज़िम्मेदारी? मुझे नहीं लगता की तुम.. और मैं भी अभी तैयार हैं। अभी तुम्हारी उम्र इन चक्करों में पड़ने की नहीं है... हम ज़रूर बच्चे करेंगे! लेकिन, अभी नहीं। यह समझदारी नहीं है... अभी अपने करियर के बारे में सोचो – बच्चे तो कभी भी कर सकते हैं!”

“जानू.. माना की मैं अभी पढ़ रही हूँ... लेकिन, वो मेरे लिए बहुत आवश्यक नहीं है! पढाई मैं जारी भी रख सकती हूँ.. है की नहीं? वैसे भी मैंने अभी आपको अपना करियर प्लान बताया न? हम लोग एक अच्छी गवर्नेस रख सकते हैं.. मेरी हेल्प के लिए!”

उसने रुक कर मुझे कुछ देर देखा... मैंने कुछ नहीं कहा। तो उसी ने आगे कहना जारी रखा,

“जानू.. पिछले कई दिनों से मुझे माँ बनने की बहुत तीव्र इच्छा हो रही है। और इसमें परेशानी ही क्या है?

यहाँ, हमारी कॉलोनी में ही देख लीजिये.. कितनी सारी महिलाएं माँ बनी, और फिर उसके बाद अपने करियर पर भी काम कर रही हैं.. मेरा सेकंड इयर ख़तम होने ही वाला है.. अगर हेल्थ ठीक रहे और कोई कॉम्प्लिकेशन न हो, तो थर्ड इयर की क्लासेज तो आराम से की जा सकती हैं! ...वैसे... अगर आप पापा बनने को अभी रेडी नहीं है, तो कोई बात नहीं! हम वेट कर लेंगे!”

पापा! और मैं? ऐसे तो मैंने कभी सोचा ही नहीं!

“वेट कर लेंगे? अरे यार! अभी तुम्हारी उम्र ही कितनी है?”

“आपको नहीं मालूम?”

“मालूम है.. बस बीस की हुई हो पिछले महीने! एकदम कच्ची कली हो तुम! अभी ही बच्चा जनना ज़रूरी है?”

“कच्ची कली.. ही ही ही...! इस कली को आपने महकता हुआ फूल बना दिया है, मेरे जानू!” हँसते हुए संध्या ने मेरे गले में गलबहियाँ डाल दीं और मेरे चेहरे को अपने स्तनों की तरफ झुकाते हुए बिस्तर पर लेट गई।

इशारा साफ़ था – सच में, मेरा भी कितना मन होता था की अगर इसके स्तनों में दूध उतर आये तो कितना मज़ा आये! लेकिन इतनी सी बात के लिए उसको माँ बनाना! ये तो वही बात हुई, खाया पिया कुछ नहीं और गिलास तोड़े बारह आने!

मुझे नहीं मालूम था की संध्या इस बात का ठीकरा मेरे सर पर, और वो भी इस तरह फोड़ेगी। रात में नींद नहीं आई, और पूरी रात सोचता रहा – क्या बच्चा लाने की बात से मैं डर गया हूँ? संध्या तो तैयार लग रही है, लेकिन क्या मैं तैयार हूँ? आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक दृष्टि से तो अभी तो उत्तम स्थिति है.. लेकिन भावनात्मक रूप से? क्या मैं एक नन्ही सी जान इस संसार में लाने और उसको लाड़-प्यार देने और पाल-पोस कर बड़ा करने के लिए तैयार हूँ? अभी तक तो जब जो जी में आया वो किया वाली हालत है.. लेकिन बच्चा आने पर वो सब कुछ बदल जाएगा! अपनी स्वतंत्रता छोड़ सकता हूँ क्या? उम्र का बहाना तो बना ही नहीं सकता.. मेरी उम्र के कई सहकर्मी बाप बन चुके हैं.. एक नहीं बल्कि दो दो बच्चों के! क्या यह डर मेरा संध्या पर अपने एकाधिकार के कारण है? बच्चा आने पर वो तो उसी में लगी रहेगी.. फिर... मेरा क्या होगा? अब यह चाहे मेरा डर हो, या फिर संध्या पर मेरा एकाधिकार, और या फिर उसके लिए मेरी चिंता... मैं उसको सीधे-सीधे मना नहीं करना चाह रहा था, पर इशारों में समझाया कि अभी बच्चे के चक्कर में मत पड़ो! पहले पढ़ाई ख़तम करो, और फिर बच्चे।

माँ बाप बनना कोई मुश्किल काम तो है नहीं... बस निर्बाध रूप से सम्भोग करते रहें, और क्या? मैं और संध्या कभी भी इस मामले में पीछे नहीं रहते हैं, और जल्दी ही संध्या के आग्रह पर क्रिया के दौरान हमने किसी भी प्रकार की सुरक्षा रखना बंद कर दिया। बच्चे के विषय में और ज्यादा बात करने से मैं भी कुछ दिनों में मन ही मन पिता बनने को तैयार हो गया। मार्च का महीना था, और आख़िरी हफ्ता चल रहा था। संध्या उस रात अपने एक्साम की तैयारी कर रही थी, और हमेशा की तरह मैं उसके साथ उसके विषय पर चर्चा कर रहा था। मैंने एक बात ज़रूर देखी – संध्या आज रोज़ से ज्यादा मुस्कुरा रही थी... रह रह कर वो हंस भी रही थी! ये सब मेरा भ्रम था क्या? उसके गाल थोड़ा और गुलाबी लग रहे थे! ये लड़की तो परी है परी! हर रोज़ और ज्यादा सुन्दर होती जा रही है!! दस बजते बजते उसने कहा की तैयारी हो गई है। साल भर पढ़ने का लाभ यही है की आखिरी रात ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती। किताबों को बगल की टेबल पर रख कर संध्या मेरा हाथ पकड़ कर मुझे मुस्कुराते हुए देखने लगी।

“क्या बात है जानू? बहुत खुश लग रही हो आज!”

“हाँ.. आज खुश तो बहुत हूँ मैं!”

“अरे वाह! भई, हमें भी तो मालूम पड़े आपकी ख़ुशी का राज़!”

उत्तर में संध्या ने मेरे हाथ को अपने एक स्तन पर रख कर कहा, “इनमें... दूध... आने वाला है!”

मेरा मुंह खुला का खुला रह गया।

संध्या ने मुझे समझाते हुए कहा, “जानू.. आप पापा बनने वाले हैं!”

“व्हाट! क्या ये सच है जानू?”

संध्या खिलखिला कर हंस पड़ी, और देर तक हंसने के बाद उसने सर हिला कर हामी भरी।

“ओओ माय गॉड! वाव! आर यू श्योर?”

“मुझे आज सवेरे मालूम पड़ा.. मिस्ड माय पीरियड्स फॉर सेकंड मंथ.. इसलिए आज होम प्रेगनेंसी किट ला कर टेस्ट किया। रिजल्ट पॉजिटिव है!”

मुझे अभी भी यकीन नहीं हो रहा था, “वाव!” मैंने धीरे से कहा.. और फिर तेज़ से, “वाव्व्व! ओह गॉड! हनी, आई ऍम सो हैप्पी! अमेजिंग!!” कहते हुए मैंने संध्या के होंठों पर अपने होंठ रख दिए और अपने दोनों हाथों से उसके गालों को पकड़ कर देर तक चूमता रहा। मेरी बीवी गर्भवती है! अद्भुत! मुझे उसका शरीर देखने की तीव्र इच्छा होने लगी (मेरी मूर्खता देखिए, अभी दो दिनों पहले ही तो हमने सेक्स किया था), और मैंने उसकी टी-शर्ट उठा दी... और उसके पेट पर प्यार से हाथ फिराया।

‘इसमें मेरा बच्चा है!’ मैं इस ख़याल से हैरान था। मेरा मन उत्साह से भर गया। मैंने बिना कोई देर किए उसके पेट पर एक चुम्बन दिया – संध्या मेरी इस हरकत से सिहर उठी और हलके से हंसने लगी।

“आई लव यू सो मच हनी! आज तुमने मुझे कितनी सारी ख़ुशी दी है, तुमको मालूम नहीं!”

“आई लव यू टू.. सबसे ज्यादा! आप मेरे हीरो हैं.. हमारा बच्चा बहुत लकी है की उसको आपके जैसा पापा मिलेगा!”

“नहीं जानू.. मैं लकी हूँ.. की मुझे तुम मिली.. पहले तुमने मुझे पूरा किया, और अब मेरे पूरे जीवन को! थैंक यू!”
 

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
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बहुत ही बढ़िया अपडेट है । कहानी बड़ी शानदार चल रही हैं
 
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बहुत ही बढ़िया अपडेट है । कहानी बड़ी शानदार चल रही हैं
धन्यवाद मित्र! :)
 
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