#64
मैंने मोना से फिर एक शब्द नहीं कहा . ऐसे उलझे थे हम उनसे की अब करे तो क्या करे. बचपन से मैं जिस अकलेपन से जूझ रहा था शायद वही मेरी नियति था. दिल में मेरे बहुत कुछ था जो मैं इस दुनिया से कह देना चाहता था पर अफ़सोस की ये दुनिया बड़ी घटिया थी .
“एक बार बस तुझे गले लगाने की हसरत है .बस एक बार मेरे सीने से उसी तरह लग जा जैसे तू पहली बार लगी थी ” मैंने कहा
मोंना- तेरी ये बाते भी न
मैं- तेरी मर्जी जाना. मुसाफिर जान गया है की उसके नसीब में मंजिले नहीं बस सफ़र है . तो ठीक है , तेरी चोखट से जा रहे है . तमन्ना थी के आँखे बस तुझे देखे , देख लिया अब मालूम है तू ठीक है , तू आबाद रहे ये दुआ है .सोचा था की कुछ देर और करेंगे दीदार तेरा पर ये कमबख्त रात भी न कुछ ज्यादा ही लम्बी हो गयी है . पर उम्मीद है जब उजाला आएगा तो कुछ अच्छा साथ लायेगा. कहा सुना माफ़ करना .
इसके आगे मैं कुछ नहीं कह पाया क्योंकि कदम हवेली से बाहर चल पड़े थे. धड़कने मंदी थी , कुछ कह रही थी पर सुना नहीं फिर मैंने . उनको . एक बार भी मुड कर उस चोखट को नहीं देखा जहाँ पर दिल का एक टुकड़ा रख आया था . जिंदगी ने आज एक चीज़ और सिखाई थी मुझे की कभी दिल न लगाना. दिल्लगी के इम्तिहान नहीं दिए जा सकते. और सबसे बड़ा मजाक तो तक़दीर ने किया था .
“मेरे ही हाथो में तक़दीर मेरी और , मेरी तक़दीर पर मेरा बस नहीं चलता ” हाथो की लकीरों को देखते हुए मैंने खुद से कहा .
एक ऐसे मोड़ पर आकर खड़ा हुआ था मैं जहा मेरा कोई नहीं था, मैंने सब कुछ खो दिया था .मोना, रूपा, करतार . सब का साथ छुट गया था था. मुसाफिर फिर अकेला था . अगले कुछ रोज बस मैं ये सोचता रहा की कैसे मैं खुद को मिटा दू. करतार की मौत की खबर आग की तरह फ़ैल गयी थी . मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पाया. कुछ नहीं कर पाया.
पर कहते है न जैसा भी हो वक्त बीत ही जाता है , ये वक्त भी बीत गया था . पुरे चार महीने गुजर गए थे गर्मियों की शुरआत हो गयी थी . इन चार महीनो में मैंने एक बार भी सुलतान बाबा, मोना या रूपा से मुलाकात नहीं की थी और न ही उनमे से कोई मेरे पास आया. बस ख़ुशी की बात ये थी की मेरा घर बन गया था . घर क्या था पहले छोटा कैदखाना था अब मैं बड़े कैदखाने में रहता था .
ज्यादातर समय इसी चारदीवारी में बीत जाता था , कहने को करने को कुछ नहीं था मेरे पास. खेती में भी दिल नहीं लगता था . खेत खाली पड़े थे . अक्सर रात रात भर नींद नहीं आती थी , आँख लगा भी तो इस आस में जाग जाता था की कभी तो वो आएगी. पर मेरी वीरान चोखट के नसीब में ज़माने भर का इंतज़ार लिखा था .
ऐसा लगता था की वक़्त ने सब भुला दिया था पर वो दोपहर शायद अपने साथ ताजी हवा का झोंका लायी थी .उस दोपहर मैं नहा कर बस आया ही था की घर की ख़ामोशी को उस जानी पहचानी पायल के शोर ने तोड़ दिया. एक बार तो मुझे यकीन नहीं हुआ पर अगले ही पल मैं जान गया की ये वही थी .सामने दरवाजे के बीचो बीच वो खड़ी थी . दिल थोडा खुश हुआ पर अगले ही पल फिर से मायूसी ने घेर लिया उसे.
“तुझे यहाँ नहीं आना चाहिए था ” मैंने कहा
“मुझे लगा था की तू ये पूछेगा की इतनी देर क्यों लगाई आने में , खैर, ये मेरा भी घर है और तू रोक नहीं सकता मुझे ” रूपा ने थोड़ी शिकायत से कहा
मैं- तू जाने तेरे ये फ़साने ,
रूपा-जानती हूँ तेरी शिकायते है , बेरुखी है पर एक बार बात तो की होती, भरी महफ़िल में रुसवा करके छोड़ आया.
मैं- और तूने जो किया, तू ये सब पहले भी बता सकती थी न मुझे.
रूपा- एक होता है सच जिसकी कोई अहमियत नहीं होती एक होता है भ्रम बस तू सच और भ्रम के बीच फर्क नहीं कर पाया.
मैं- तो तोड़ क्यों नहीं देती इस भ्रम को दिखा मुझे सच का आइना . मोहब्बतों में कुछ सच नहीं होता , कुछ झूठ नहीं होता. कुछ होता है तो बस समर्पण एक दुसरे के प्रति ,एक विश्वास
रूपा- तेरे मुह से ये बाते अच्छी नहीं लगती.
मैं- बेशक
रूपा- सोचा था इतने दिन बाद मुझे देखेगा तो दौड़ कर बाँहों में भर लेगा अपनी रूपा को . पर तेरी शिकायते ही खत्म नहीं होती. तुझे तेरा दुःख तो दीखता है पर कभी मेरे बारे में सोचा तूने , पलट कर मैं भी सवाल करू तो क्या जवाब देगा तू
मैं- किस बारे में सवाल है तेरा. मैंने क्या छुपाया तुझसे
“मेरा ही अक्स मुझसे खुदगर्जी कर रहा है , आइना देखो चेहरे से झूठ बोल रहा है , मैं उस रिश्ते की बात कर रही हूँ जो मुझसे छुपाया, तेरा और मोना का रिश्ता, मैं ये तो जानती थी की वो संरक्षक है तेरी पर मुसाफिर मुझे ये बता की ये कैसी मोहब्बत है जो तूने बाँट दी है , आग और पानी के बीच तूने क्यों खुद को खड़ा कर लिया. माना की मैं गलत हूँ पर तू कौन सा ठीक है , बता मेरा इंसाफ कैसे करेगा तू. सब मेरी मोहब्बत किसी और के आंचल में बाँध दी है तूने. ” रूपा जैसे चीख पड़ी.
हम दोनों के बीच कहने को कुछ नहीं था फिर भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं था मेरे पास.
“बोलता क्यों नहीं मुसाफिर, बड़ी बड़ी बातो से जिन्दगी नहीं चलती, जिन्दगी का बोझ धोना कहाँ आसान है , तुझे बस तेरे दर्द दीखते है ,किसी और के जलते कलेजे को महूसस करके देख. ये दुनिया उतनी भी बुरी नहीं जितना तूने समझा है . प्यार वफ़ा ये सब किताबी बाते है जब जिन्दगी की सच्चाई का सामना होता है तो हर ख्वाहिसों का कत्ल खुद करना पड़ता है , खैर चलती हूँ ” उसने कहा
मैं- रुक जरा, बैठ पास मेरे
रूपा- नहीं रे, मन खट्टा कर दिया तूने. आई तो ये सोच कर थी की चल मैं ही मना लेती हूँ , पर कोई बात नहीं . ये भी एक दौर है बीत जायेगा.
रूपा ने अपना झोला मेरी चारपाई पर रखा और दरवाजे से बाहर चली गयी. मैं चाह कर भी उसे रोक न पाया. मैंने झोला खोला उसमे एक जोड़ा था और एक पायल. एक टूटा आइना .