हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा।
" शायद, नारी जीवन के सारे सुःख, दर्द की पोटली में बंधे आते हैं. यौवन का प्रथम कदम , जब वह कन्या से नारी बनने की दिशा में पहला कदम उठाती है , चमेली से जवाकुसुम, पहला रक्तस्त्राव, घबड़ाहट भी पीड़ा भी,... लेकिन उसके यौवन की सीढ़ी का वह प्रथम सोपान भी तो होता है, ...
और पिया से मिलन, प्रथम समागम, मधुर चुम्बन, मिलन की अकुलाहट और फिर वो तीव्र पीड़ा, और फिर रक्तस्त्राव,... लेकिन तब तक वह सीख चुंकी होती है , दर्द के कपाट के पीछे ही सुख का आगार छिपा है,...
और चेहरे की सारी पीड़ा, दुखते बदन का दर्द मीठी मुस्कान में घोल के पिया से बिन बोले बोलती है, ' कुछ भी तो नहीं'. आंसू तिरती दिए सी बड़ी बड़ी आँखों में ख़ुशी की बाती जलाती है,... और शायद जीवन का सबसे बड़ा सुख,नारी जीवन की परणिति, सृष्टि के क्रम को आगे चलाने में उसका योगदान, ...
कितनी पीड़ा,... प्रसव पीड़ा से शायद बड़ी कोई पीड़ा नहीं और नए जन्में बच्चे का मुंह देखने से बड़ा कोई सुख नहीं स्त्री के लिए,
और उसके बदलाव के हर क्रम का साक्ष्य रहती हैं रक्त की बूंदे , यौवन के कपाट खुलने की पहली आहट, प्रथम मिलन,... और स्त्री से माँ बनना,... "
आपने मुझे निःशब्द कर दिया। जब मैंने उपरोक्त पंक्तियाँ लिखी थीं, मन के अंदर किसी भी लालची लिखने वाले की तरह ये ये आशा और लालसा दोनों थीं की कोई कम से कम इन पंक्तियों को कम से कम पढ़े, और हो सके तो सराहे भी. लेकिन उम्मीद बिलकुल नहीं थी. पर आप ने, जब पहली बार आप के दोनों कमेंट्स पढ़े तो मैं सोच नहीं पा रही थी कैसे धन्यवाद ज्ञापन करूँ, उसे जो खुद शब्दों की जादूगर है, और जिसकी कवितायें जो इस बार मेरी प्रेरणादायी लेखिका, इस समय फोरम पर सबसे पॉपुलर, उनकी रचना में श्रीवृद्धि करती हैं , तो उनकी तो उपस्थित मात्र ही मुझ जैसी कलम घसीट लेखिका की रचना पर (जिसके पाठक भी विरले हैं और सराहने वाले, मात्र मेरे मित्र, जो मित्रता का मन रखते कुछ अच्छा अच्छा बोलते हैं) आभार का कारण बनती। लेकिन इन पंक्तियों को उद्धृत कर आपने मुझे अपनी पंखी बना लिया।
और मुझे दुस्साहस भी दिया दो बातें शेयर करने की मेरे लिखने के बारे में।
पहली बात मैं मानती हूँ की हम जो यहाँ अवैतनिक, निज सुख के लिए लिखते हैं, कलम के सिपाही या मजदूर भले न हो लेकिन कलम के सौदागर भी नहीं है। इसलिए मेरी पहली प्रतिबध्दिता मेरी कलम के साथ है. मैं उसी तरह से लिखना चाहती हूँ जिसे अगर मैं फिर से पढूं ( तो सौ डेढ़ सौ वर्तनी की गलतियों के अलावा ) मुझे खुद अच्छा लगे.
और एक और मेरी कमजोरी है,महिला पात्र में जिसकी दृष्टि से कहानी को देखना चाहती हूँ और साथ में उसके अंतर्जगत की उथल पुथल, हलचल को भी इंगित करना, अपनी सीमाभर चाहती हूँ. में मानती हूँ की अक्सर न सिर्फ इस फोरम में बल्कि अन्य फोरमों में भी फीमेल सेंसुअसनेस, के पहलू बिन उजागर हुए रह जाते हैं. वह रमण करने योग्य है इसलिए रमणी है , उसकी कामना करते हैं , इसलिए काम्या है, पर देह की जरूरत या स्मर का असर, उसपर भी कम नहीं होता। उसी के साथ मुझे एक और चीज नहीं अच्छी लगाती है, नारी का, लड़की हो, महिला हो , उस का आब्जेक्टिफिकेशन या कामोडिफिकेशन। मेरे लेखे सबसे सुन्दर ' इरोटिक ' या श्रृंगार साहित्य है तो वो संस्कृत में, और महिलाओं की सेंसुअसनेस, जब देह सुख को हम पाप से जोड़ के नहीं देखते थे और इसके बाद रीति काल में ( इसलिए मैंने बिहारी के दोहे लाउंज में शुरू किया था पर किसी रससिद्ध मॉडरेटर की उसपर 'कृपा' हो गयी। )
मैं मानती हूँ की सेक्स, पुरुष के लिए शायद पांच सात मिनट का मामला रहे, पर महिला के लिए तो वो जीवन में मील का पत्थर होता है , जिससे वो अपनी जिंदगी के सोपान नापती है।
काफी कुछ अनर्गल शायद मैंने कह सुन दिया, ...
पर, एक बार पुन: कोटिश आभार, वंदन, नमन आपकी पंक्तियों के लिए , बस हो सके तो कभी कभार आती रहिये,