आपके कमेंट्स के लिए कितना भी आभार व्यक्त करूँ कम ही होगा।
लेकिन यह कुछ बातें मेरी दो पोस्टों बम्बई सहर और उसके बाद की पोस्ट जेठ जेठानी के बारें और उस पर आपके कमेंट के बारे में
आपने एक बात एकदम सही कही, वेदना के बारे में। और जो बात आप ने कही, " उस वेदना को समझना मुश्किल है और सहना और मुश्किल है "
लेकिन उसे कहे बिना रहा भी जाता। पूर्वांचल की माटी की महक मेरी कहानियों में अक्सर आती रहती है इसलिए कभी कभार दुःख, छुप हुए आंसू जो आँखों से ढलकने के पहले ही नैन पी जाते हैं, वो दुःख भी छलक जाता है।
मैं मानती हूँ कहानी तब ही कहना चाहिए जब पास में कुछ कहने को हो। और कहानी एक माध्यम भी हो मन का दुःख बांटने का। फंतासी, वो सुख जो हम चाहते हैं, वो अतीत जो कभी रहा नहीं पर कल्पना की दुनिया में हम उसे कहानी में रचते हैं या और भी फंतासियां, लेकिन मैं मानती हूँ कहानी को हमें कॉमोडिटी नहीं बनने देना चाहिए, वयस्क कहानियों की दुनिया में भी नहीं। यह बात सही है किसी लिखने वाले को कुछ नहीं मिलता, लेकिन अगर हम कहानी को सिर्फ इस तरह से पेश करें की देखने वाले ज्यादा हों, व्यूज और लाइक्स ज्यादा हो तो शायद ये काम आर्टिफिशल इंटेलीजेन्स भी कर सकता है।
इस मामले में आप सब से अलग हैं, हॉरर ऐसी विधा आपने चुनी जिसमे व्यूज और लाइक शायद काफी कम हैं आपने तब भी उसमे एक मुकाम हासिल किया, इसलिए आप इस को समझती हैं
और यह प्रंसग भी माइग्रेशन के दर्द को कहने की कोशिश करता है और इसे एक नारी अपने जीवन के हर पड़ाव पे झेलती है, जब पति कमाने जाता है, पूर्वी उत्तरप्रदेश के कई जिलों में, जौनपुर, आजमगढ़, देवरिया ऐसे जिलों में महिलायें पुरुषों से ज्यादा हैं और कारण यही है खेती किसानी से अब काम नहीं चलता तो माइग्रेशन, यु पी के अंदर ही, नोयडा गाजियाबाद ऐसे इलाकों में पुरुषों की संख्या महिलाओं की तुलना में बहुत ज्यादा है। और बाहर देश के अंदर, मुंबई, सूरत और पंजाब से लेकर बाहर भी।
लेकिन यह दर्द सिर्फ गाँवों का नहीं हैं नगरों और महानगरों में भी पैरेंट्स का दर्द, जब बच्चे अमेरिका, कनाडा और दूर दूर, बढ़ते वृद्धाश्रम, ताला लटके घर, जीवन की साँझ में जब अँधेरा होने का इन्तजार कर रहे, बुढ़ाते पैरेंट बच्चों के पॅकेज का बात कर मन बहलाते हैं लेकिन मन के पीछे यह डर रहता है की कहीं अचानक किसी दिन
इस भाग की पोस्टो में वह डर है सास के मन में की कही अगर बड़ी बहु की तरह छोटी बहु भी तो बस वो उम्र के आखिरी पल सूने आंगन को तकते गुजारेंगी
और यह कई संवादों में आया है और बात में इस कहानी में
" और अब आ ही गयी हूँ तो खूंटा गाड़ के बैठ जाउंगी, लाख ताकत लगा लीजिये अब मेरा खूंटा उखड़ने वाला नहीं है। बस यही आपके साथ रहूंगी और जिस दरवाजे से सुहागिन आयी थी, उसी दरवाजे से,... जो गाँठ जोड़ कर लाया था, वही कंधे पे, ....सुहागिन आयी थी इस घर में, सुहागिन,... "
मेरी आँखे भर आयी थी और मेरी सास ने मुंह बंद करा दिया,
" चुप, चुप अब एक अक्षर आगे मत बोलना, " अपना हाथ मेरे मुंह पर रख दिया उन्होंने और फिर हड़काया,
" सुबह सुबह अच्छी अच्छी बात बोलो,"
एक बार वो फिर उदास हो गयीं,
जीवन के उस पक्ष की ओर इशारा करता है जिसके बारे में कोई बोलना नहीं चाहता
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मैं उन का दुःख अब समझ सकती थी।
बात इस जेठ की नहीं थी।
अब हरदम के लिए थी, उन्हें लग रहा था इतना बड़ा घर अब सूना लगेगा।