कुछ देर ख़ामोशी रही फिर सरिता अचानक पूछ बैठी, "काकी पिताजी को पता चल गया है क्या ? वो तो मुझे मार ही डालेंगे।"
मैंने दिलासा दिलाया की चिंता की कोई बात नहीं है ज़ायदा लोगो ने नहीं देखा और बाकि मैंने सबको मना कर दिया तेरे पिताजी को बताने के लिए, वैसे भी आधा गांव तो तेरे पिताजी से घबराता है , किसकी हिम्मत होगी उनको बताने की । ये सुनकर सरिता को थोड़ी तसल्ली हुई, सरिता कुछ पल चुपचाप सोंचती रही फिर पूछा " काकी वो कौन था जिसने मुझे डूबने से बचाया "
अब ये बात सुन मैं भी सोंच में पड़ गयी, सरिता को घर लाने और इसकी देखभाल के चक्कर में मैं पूछना ही भूल गयी थी,
" पता नहीं बिटिया, मैं दूर थी देख नहीं पायी, आने दे तेरी सहेली को फिर उस से पूछ लेना उसी ने देखा था और कुछ बात भी की थी उस लड़के से।
सरिता : हाँ काकी, मैंने आँख खोलके देखने की कोशिश करि थी लेकिन बस धुंधला दिखा नहीं तो पहचान लेती, काकी अगर वो मुझे नदी से नहीं निकलता तो मैं मर जाती ना,
काकी : शुभ शुभ बोल बिटिया, भगवान ने बड़ी कृपा की तुझपर, अब जब ठीक हो जाएगी तब नदी पार मंदिर में प्रसाद चढ़ा आना, देवी माँ सब ठीक कर देगी।
सरिता : हाँ काकी ज़रूर जाउंगी, मुझे तो रात में सपने में भी देवी माँ दिखाई दे रही थी, जैसे बुला रही हो, तुम ठीक कहती हो काकी मैं ज़रूर जाउंगी चढ़ावा चढाने !
बाहर अब उजाला फ़ैल गया था, मैंने सरिता के चेहरे की ओर देखा वो किसी सोच में थी फिर पता नहीं क्या सोंच कर खुद ही मुस्कुराने लगी।
मैं उठ कर बहार आयी, आसमान थोड़ा खुल गया था, मैंने सरिता के कपडे बाहर सूखने के लिए डाल दिए और चाय बना कर सरिता को दी , घर में रखे बिस्कुट के साथ हमने चाय पि। हम दोनों चाय पि ही रहे थे की राधा की माँ आगयी, वो भी सरिता ठीक देख के खुश हो गयी, मैं घर के बाकी काम में व्यस्त हो गयी तब तक दोनों सहेलिया आपस में बाते करने लगी, कुछ देर में सरिता के कपडे कुछ सुख गए तो उसने गुसलखाने में जाकर नहाया और आपके कपडे पहन कर तैयार हो गयी, हम तीनो ने रात का बचा बसी खाना खाया, खाना खाते खाते मैंने राधा की मा से पूछा " अरे वो छौरा कौन था जो राधा को नदी में से निकला ?" राधा की माँ झट से बोली जैसे वो मेरे पूछने का ही इन्तिज़ार कर रही हो " पता नहीं काकी, किसी और गांव का था शायद "
काकी : अच्छा फिर वो तुझे क्या बात कर रहा था इसको निकलने के बाद ?"
" वो काकी बस ये बोल रहा था की पेट से पानी निकल गया है 1-२ घंटा में ठीक हो जाएगी ये, फिर मैं कुछ पूछती इससे पहले चला गया "
मुझे उसकी बात में पता नहीं क्यों झूट लगा, लेकिन मैंने जायदा बहस नहीं की उस से, थोड़ी देर में दोनों सहेलिया तेरे नाना के घर के लिए निकल गयी, मैंने भी राहत की सांस ली की सरिता ठीक ठाक अपने घर चली गयी।
सब ठीक चल रहा था एक दिन मैं यही इस पेड़ के नीचे बैठी, तब उस टाइम इधर की दिवार नहीं थी तो यहाँ से सारे खेत और धोबियों का घर साफ़ दिखाई देता था , मैंने देखा की सरिता हाथ में एक गठरी लिए सुम्मु धोबी के घर जा रही थी, मुझे पता था की सुम्मु धोबी तेरे नाना के कपडे धोता है, लेकिन कपडे लेने वो या उसका बेटा जाता था, कभी तेरे घर से कोई सुम्मु के घर कपडा देने नहीं आया, और अगर देना ही था तो राधा की माँ भी पंहुचा सकती थी उसका तो रोज़ दिन का जाना आना होता था, मैं चपचाप यही बैठी सरिता के आने का इन्तिज़ार करती रही, लगभग एक घंटे के बाद मुझे सरिता सुम्मु के घर से आती दिखी, मुझे शक हुआ, आखिर इतनी देर सुम्मु के घर ? सरिता ने शाद मुझे इतनी दूर से देखा नहीं था जैसे ही वो थोड़ा पास आयी तो मुझे देख के ठिठक गयी , मैंने उसको आवाज़ देकर बुलाया तो मरे मरे कदमो से मेरे पास आयी।
" अरे बिटिया क्या करने आयी थी सुम्मु के घर "
" वो काकी माँ ने सुम्मु काकी के लिए कुछ घर का सामान भेजा था तो वही देने आयी थी"
" अच्छा क्या सामान दे दिया पण्डितायीं ने ?"
" वो घर में ठेकुआ, पूरी बना था घर में तो माँ ने बोला दे आ , इनके घर में ऐसा नहीं बनता इसलिए।
" वो सब ठीक है लेकिन तूने फिर इतना टाइम क्यों लगाया वहा " मैंने देखा तू एक डेढ़ घंटे से वही थी ?
"अरे काकी कहा टाइम लगा, बस उनको सामान देने लगी तो सुम्मु काकी ने रोक लिया की आज घर में खीर बानी है खा के जाना, तो बस वही खाने में थोड़ा टाइम लग गया"
मैं इस से ज़ायदा क्या पूछती, फिर घर का हाल चाल लेकर सरिता चली गयी, लेकिन मेरे मन में एक गाँठ से बैठ गयी, पंडित रामशरण की बेटी धोबी के घर पकवान लेके जाये और फिर उसके घर की बानी खीर खाये, ये मुझ बुढ़िया से हज़म नहीं हो रहा था। उस दिन से मैं सुम्मु के घर आते जाते नज़र रखने लगी, एक सप्ताह भी नहीं गुज़रा होगा की मैंने सरिता को फिर चुपके चुपके सुम्मु के घर जाते देखा, उस दिन मैं दरवाजे में खड़ी थी तो सरिता मुझे देख नहीं पायी, आज उसके हाथ में कुछ नहीं था, लेकिन फिर वही एक दो घंटा बिता कर छुपते हुए बहार निकली, इस बार मैंने नहीं टोका, फिर तो ये सीलसिला बन गया, सरिता सप्ताह में 2-३ बार सुम्मु के घर जाती और कुछ देर बिता कर वापिस अपने घर निकल जाती, श्रावण बीत रहा था और तीज का त्यौहार आगया, तीज के पर्व पर गांव की औरतों व्रत रखती और और नदी पार (दूसरे गांव ) बने मदिर में माता के दर्शन करने जाती, पंडित रामशरण का परिवार नहीं जाता था, लेकिन मैं चली जाती थी, मेरा इसी बहाने घूमना फिरना हो जाता था।
माता के मंदिर केवल हमारे गांव ही नहीं आसपास के गांव के लोग भी आते थे, खूब भीड़ भाड़ होती थी मेला लगता था और बच्चो को मस्ती करने का मौका मिल जाता था, मैं दर्शन करके वही 2-३ औरतों के साथ बैठ कर बातें करने लगी की तभी मैंने सरिता को देखा, उसने हरे रंग का नया सूट पहना हुआ था, हरे रंग की चुडिया और हाथ में पूजा की थाली लिए चली आरही थी, आज उसके साथ में राधा की माँ नहीं थी,
लेकिन मैंने जो उसके पीछे चलते हुए सुम्मु धोबी के बेटे दीनू को देखा तो जैसे मेरे प्राण ही निकल गए, सरिता आगे आगे चल रही थी और दीनू उसके पीछे पीछे, सरिता के चेहरे पर दुनिया भर की ख़ुशी थी मानो उसकी हर मुराद पूरी हो गयी हो, दीनू भी ऐसे चल रहा था मानो अगर सरिता की तरफ अगर किसी ने टेढ़ी नज़र से भी देखा था वो साडी दुनिया से लड़ जायेगा। मैं हक्का बक्का देखती रही, वो दोनों अपनी दूनिया में इतने खोये हुए थे की उन्होंने मेरी ओर आँख उठा कर भी नहीं देखा, वो दोनों ऐसे ही चलते हुए मेरे सामने से गुज़रे, थोड़ा आगे बढे ही थे की तभी सरिता के बालों में अटका एक फूल निचे गिर पड़ा, इससे पहले की किसी का पैर उस फूल पर पड़ता की दीनू झट से झुका जमीन से फूल उठाने के लिए की तभी बिजली से कौंधी मेरे दिमाग में, हे भगवान ये तो वही है जिसने उस दिन सरिता का नदी से निकला था, मैंने दूर से देखा तो नहीं पहचान पायी, आज जो दीनू को जमीन से फूल उठाते देखा तो एक पल में पहचान गयी।