Riky007
उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
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इंटरफेथ को अलग करके अगर जो इसको आप नॉर्मल ऊंची नीची जाति वाला भी बनाते तो स्टोरी में कोई फर्क नहीं आना था।मैं कुछ देर वह बैठी रही फिर तेरी नानी को बता कर सरिता को अपने साथ अपने घर ले आयी। सरिता ने रास्ते में बात करने की कोशिह की तो मैंने मन कर दिया, मैं नहीं चाहती थी की कोई हमारी बात सुने।
घर पहुंच कर सरिता को मैंने घर में बिठाया और थोड़ी देर बाद मैंने बोलना शुरू किया
काकी : हाँ तो तुझे पता है की तू कर क्या रही है "
सरिता : क्या हुआ काकी मैंने कौन सा पाप किया है जो आप ऐसे बोल रही हो "
काकी : काकी भोली मत बन मुझे सब पता है जो उस दिन तीज के पर्व पर जो तू खेल खेल रही थी।
सरिता : मुझे पता है काकी, मैं उसी बात पर कह रही हूँ की मैंने कोई पाप नहीं किया।
काकी : क्या मतलब, तेरा दीनू के साथ कोई चक्कर नहीं है
सरिता : वो मैंने कब मना किया काकी, मैं बस इतना बता रही हूँ की ऐसा कुछ नहीं है
काकी : चल फिर तू ही बता की क्या है फिर ?
सरिता : देखो काकी मुझे पता है की आपने मुझे उस दिन मंदिर से आते देख लिया था दीनू के साथ, ये भी सच है की उस दिन दीनू ने ही मेरी जान बचायी, लेकिन ये भी उतना ही सच है की मैं दीनू से प्रेम करती हूँ, लेकिन ये बिलकुल गलत है की मैं कोई पाप कर रही हूँ, काकी प्रेम करना पाप तो नहीं है ना।
मैं हैरत में पड़ गयी थी उसी बात सुनकर, उसने ये बात जितने आराम से आत्मविश्वास भरे शब्दों में कही थी मैंने उसकी कल्पना भी नहीं की थी, मुझे लगा था की सरिता झेंपेगी या झूट बोलेगी, लेकिन ये तो आंख से आँख मिलकर बात कर रही थी। मुझे भी थोड़ा गुस्सा आगया, मैंने थोड़ा चीखते हुए बोली
काकी : कब से चल रहा है ये सब, अगर तेरे बाप को पता चला ना तो दीनू क्या दीनू के पुरे कुनबे को गाओं छोड़ के जाना पड़ेगा, तुझे कुछ अंदाजा नहीं है अपने बाप की ताक़त का।
सरिता : ( उसी संयम के साथ ) तो क्या हुआ काकी अगर हुआ तो मैं भी दीनू के पीछे पीछे चली जाउंगी गांव से, जहा दीनू वह मैं ?
काकी : तेरा दिमाग ख़राब हो गया है क्या छौरी, तुझे पता पता भी क्या बक रही है ?
सरिता : सच तो बोल रही हूँ , जब भगवन राम को अयोध्या से से निकला गया था तब भी तो सीता माँ उनके पीछे पीछे वनवास के लिए गयी थी, मैं भी वैसे ही दीनू के साथ साथ चली जाउंगी काकी, सब छोड़ दूंगी मैं दीनू के लिए।
काकी : अरे पागला गयी है क्या बिलकुल ही, तुझे पता भी है दीनू का असली नाम " दीन मुहम्मद " है। मुसलंमान है वो, और ऊपर से धोबी, तेरा बाप तेरे साथ साथ सबको मार देगा लेकिन तेरी बयाह कही दीनू से नहीं होने देगा।
सरिता : मैं जानती हूँ काकी की दीनू मुसलमान है, जिस दिन मैंने पहली बार उसका हाथ पकड़ा था उसी दिन उसने बता दिया था की वो मुसलमान है और मैं किसी धोके में ना रहू। उसने बताय था की गांव में कोई मज्जित नहीं है इसलिए वो अपना नमाज़ नहीं करते लेकिन साल में ईद के दिन दूसरे गांव जाता है वो अपने बाप और रिश्तेदार के साथ, काकी उसने सब सच सच बता दिया मुझे, और मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता काकी की किस जात धर्म का है, पता है क्यों काकी ? क्यंकि उस दिन जब मैं डूब रही थी तब मैंने भगवन को सच्चे मन से आवाज़ दी थी की भगवन मुझे बचा लो, मैं मरना नहीं चाहती, और जब मैं बस मरने ही वाली थी तब दीनू आया मुझे बचने के लिए काकी, दीनू को किसने भेजा ? उसी भगवन ने भेजा ना जिसको मैंने पुकारा था, काकी अब देनु ही मेरा देवता है, वही मेरा पति है फिर धर्म चाहे जो भी हो।
मैं उसकी इतनी परिपक्क बात सुन कर दांग रह गयी , मुझे दूर दूर तक ऐसा गुमान भी नहीं था की इतनी काम उम्र की लड़की ऐसी बात करेगी , मैं गुस्से से पागल हो रही थी, लेकिन अब सरिता का समझाना बेकार था, ये कच्ची उम्र का प्यार था, बहुत उतरा जा सकता है लेकिन कच्ची उम्र का प्यार नहीं। मैंने अपने गुस्से पर काबू किया और अपनी हार मानते हुए कहा,
काकी : तो फिर ठीक है है जो मन आये कर, लेकिन बस इतना बता रही हूँ की इस कहानी का अंजाम अच्छा नहीं होगा।
सरिता : ठीक है काकी, बस आपसे एक ही निवेदन है की थोड़े दिन और शांत रहना किसी को बताना मत, दीनू की शहर में एक जगह कच्ची नौकरी लग गयी गई वहा कोई सरकारी होटल बन रहा है, अगले साल तक होटल में सब रेडी हो जायेगा तब दीनू की नौकरी पक्की हो जाएगी तन्खा भी दुगनी मिलेगी और साथ में दीनू ने बात किया है साहब लोग से उनका कपड़ा यही आता है धूँलने, जब होटल बन जायेगा तब सारा चादर तौलिया सब यही धुलेगा तब सुम्मु काका का भी काम अच्छा हो जायेगा, फिर मैं दीनू के साथ शहर चली जाउंगी फिर पिताजी को भी आपत्ति नहीं रहेगी।
मैं मुँह खोले हैरत से देख रही थी, अभी महीना दो महीना पहले तक मुझसे कहानी सुंनने की ज़िद करती थी लेकिन आज मुझे आने वाले दिन की प्लानिंग ऐसे बता रही थी जैसे कोई कहानी सुना रही हो।
काकी : तुझे ये सब किसने समझाया ? दीनू ने ?
सरिता : (हलकी मुस्कान के साथ) काकी आपने तो बचपन से देखा है दीनू को, आपको लगता है की वो इतना सोंच सकता है, उसने तो बस नौकरी का बताया था फिर मैंने उसको समझा की अपने बाबू से बात करे कपड़ा धोने के लिए, जब बाबू लोग उसके कपड़ा धुलाई से खुश रहेंगे तब उसको होटल का कपड़ा धोने का काम दे देंगे, सब बाबू लोग खुश है उसके काम से, मेहनत तो खूब करता ही और बाबू लोग की सेवा भी करता है इसलिए हमको पूरा विश्वास है सब अच्छा हो काकी, तुम चिंता न करो काकी मैं दीनू के साथ बहुत खुश रहूंगी।
कहा तो मैं सोच के लायी थी की इसको डरा धमका कर समझूंगी की वो दीनू से दूर रहे लेकिन उल्टा सरिता ने ही मुझे समझा दिया था, एक बार तो मुझे भी बात जांच गयी की बात तो सही है, दीनू गांव का सब से सीधा और शरीफ लड़का था, अपने काम से काम, दीनू या तो नदी पर अपने बापू के साथ कपडे धोता दीखता था या घर में अपनी माँ का हाथ बटाते हुए। दीनू का और कोई भाई बहन नहीं था तो उसी को अपनी माँ की मदद करनी पड़ती थी , हर माँ का अपना बेटा प्यारा होता है लेकिन मैं खुद अपने बेटे बाद किसी को सबसे ज़ायदा स्नेह से देखती थी तो दीनू ही था, उसकी कुछ महीने पहले शहर में नौकरी लगी थी उस से पहले वही अक्सर बाजार से मेरा सौदा सर्फ़ लाता था।
काकी : क्या तेरा और दीनू का चक्कर दीनू के माँ बाप को भी पता है ?
सरिता : नहीं काकी, अभी नहीं, जब तक नौकरी पक्की नहीं होगी तब तक नहीं, आप भी मत बताना उनको
काकी : फिर तो क्या करने जाती है उसके घर चोरी चोरी
सरिता : वो हम सुम्मु काकी से झूट बोली की माँ कपड़ा सिलाई सीखने भेजी है, दीनू की मा को सिलाई आता है।
काकी : तो अब तू सिलाई भी सीख रही है
सरिता : हाँ और खाना पकना भी, अपने घर में नौकरानी सब है तो काकी से सीख रही हूँ , और सुम्मु काकी से सीखने का फ़ायदा भी है, इसी बहाने दीनू मेरे हाथ का बना हुआ खाना खा लेता है और अब उसको काकी की मदद भी नहीं करनी पड़ती।
मैं हैरत से मुँह खोले देख रही थी मेरी समझ नहींआ रहा था की क्या बोलू , इस लड़की ने मुझे लाजवाब कर दिया था, मैं जो पुरे गांव की खबर रखती, सब ऊंच नीच पर लोगो को टोकती आज एक जवानी की ओर बढ़ती लड़की से हार गयी थी, मेरे पास उसकी किसी बात की काट नहीं थी, या शायद मेरा प्रेम था सरिता और दीनू के प्रति जो मैं शायद अंदर से उनके प्रेम को परवान चढ़ते देखना चाहती थी।
मैंने सरिता को वचन दे दिया था की मैं किसी को कुछ नहीं बताउंगी, दोनों का प्यार धीरे धीरे परवान चढ़ता गया, मुझे कभी कभार सरिता सुम्मु के घर जाती या आती नज़र आती लेकिन अब मैंने टोकना छोड़ दिया, इसी बीच में तेरा काका गांव आगया था बुरी खबर लेकर की मेरा बेटा विष्णु विदेश चला गया बिना बताये और वह से चिट्ठी भेजी तब पता चला, तेरे काका को सदमा सा लग गे इस घटना से और वो बिस्तर लग गए, दुःख मुझे भी बहुत था आखिर इकलौता बेटा था सारा जीवन हॉस्टल में रहा फिर भी लगता था की अपने देश में है जब चाहे आना जाना हो सकता है, लेकिन अब इतनी दूर विदेश गया तो ऐसा लगा मनो प्राण निकल के ले आगया, तेरे काका को इस लिए भी दुःख गया था क्यूंकि उन्होंने हाथ करके विष्णु को घर से दूर रखा ये सोच कर की गांव के रह कर गवार ना रह जाये, अब ऐसा शहरी बना की अब शहर क्या देश से ही दूर चला गया। तेरे काका इस सदमे से उबार नहीं पाए और चल बसें
उनकी अन्तेष्ठी में सब आये, पंडित जी भी, सुम्मु की पत्नी तेरे काका के श्राद्ध तक मेरे साथ रही लेकिन वो समय ऐसा नहीं था जो मैं उस से सरिता या दीनू के बारे में बात करती।
तेरे काका की मिर्तु ने मुझे अंदर तक तोड़ दिया था, गांव में जब कभी किसी के घर में गमी होती मैं मैं सब को संभालती थी लेकिन खुद को संभालना मुश्किल था, एक दिन भरी दोपहरी में मुझे घबराहट होने लगी तो खेत से सटे बाग़ में चली गयी और वही घंटो अकेले में रोती रही और खुद से बातें करती रही, जब बहुत देर मुझे बैठे बैठे हो गयी तो मैं उठ कर घर की ओर चल दी, मन दुखी था तो मैं बहुत धीरे धीरे चल रही थी की तभी मुझे पुआल की कोठी की पीछे से अजीब सी आवाज़ आयी, मैं दुनिया देखि थी मुझे समझते देर नहीं लगी ये तो रति में डूबी हुई आवाज़ है,
मैं चुपके से पीछे से घूम कर आयी और एक छोटी ढेरी की ओट से देखा की नीचे पुआल के बिस्तर पर एक मरदाना शरीर लेता है और ऊपर एक जवान लड़की का शरीर उछल उछल के कूद रहा, लड़की के शरीर में मनो एक बिजली सी कौंध रही थी और वो किसी रेलगाड़ी की जैसी रफ़्तार से उछल रही थी, नीचे लेटा लड़का भी कभी कभी पूरी शक्ति लगा कर धक्का लगता तो लड़की के मुँह से एक सीत्कार सी निकल जाती, हर धक्को के साथ दोनों के शरीर में एक अजीब सी ऐठन हो रही थी, लड़की तो मनो किसी और ही लोक में थी एक बार जो उसने अपनी भारी कमर ऊपर तक उठा कर जो धाड़ से जो पटका तो लड़का बिलबिला गया और चिल्ला पड़ा, बस कर सविता, सांस तो लेने दे, लेकिन उसपर चढ़ी सरिता जैसे गुर्राई, अभी नहीं दीनू आज मत रोक, आज कोई बहाना नहीं, तुझे पता है की मैं तुझे मन से पति मान चुकी हूँ आज मुझे तन की प्यास भुझा लेने दे, मज़ा आरहा है ना ?, ऐसे ही रोज़ मज़ा दूंगी बस तू मुझसे दूर मत भागा कर,
इतना कह कर सरिता ने वापिस से अपनी कमर उठा उठा कर दीनू के शरीर पर कूदने लगी और अब शायद दीनू को भी समझ आगया था की जो सरिता को चाहिए वो बिना लिए मानेगी नहीं इसलिए उसने भी अब नीचे से रफ़्तार तेज़ कर दी और तेज़ी से अपनी कमर चला चला कर पेलने लगा, दोनों मेरे बच्चे जैसे थे मुझसे आगे देखा ना गया और मैं चुपचाप घर आगयी, तेरी माँ सरिता ने ना केवल अपना मन दीनू को दिया था बल्कि अब तो वो अपना तन भी दीनू के हवाले कर चुकी थी।
बाकी लाजवाब अपडेट, औरत जब पूरे मन से प्रेम करती है तो सब दीवारें गिरा देती है।