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जोरू का गुलाम भाग २५० पृष्ठ 1556
एम् -२ --एक मेगा अपडेट पोस्टेड
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Awesome interesting & suspenseful update didiजोरू का गुलाम -भाग २५०
एम् -२
मिलिंद नवलकर, मुंतजिर खैराबादी, महेंद्र पांडेय
३८,१७,०७६
"माइसेल्फ मिलिंद नवलकर, फ्रॉम रत्नागिरी। "
मिले तो थे आप एम् या एम् के एक रूप से, पिछले भाग मे।
हल्की मुस्कान, बड़ा सा चश्मा, एक बैग और खिचड़ी बाल, दलाल स्ट्रीट के आसपास या कभी यॉट क्लब के नजदीक तो शाम को बॉम्बे जिमखाना में ढलते सूरज को देखते हुए मिल जाते हैं।
और उनके बाकी रूपों से,
मनोहर राव, थोड़ा दबा रंग , एकदम काले बाल, गंभीर लेकिन कारपोरेट क़ानून की बात हो या कर्नाटक संगीत वो अपनी खोल से बाहर आ जाते थे. दिन के समय बी के सी में लेकिन अक्सर माटुंगा के आस पास, टिफिन खाते वहीँ के किसी पुराने रेस्ट्रोरेंट में,...
मनोज जोशी, चाहे हिंदी बोले या अंग्रेजी,… गुजराती एक्सेंट साफ़ झलकता था। पढ़ाई से चार्टर्ड अकउंटेंट, पेशे से कॉटन ट्रेडिंग में कभी कालबा देवी एक्सचेंज में तो कभी कॉटन ग्रीन में, और अड्डों में कोलाबा कॉजवे, लियोपॉल्ड
महेंद्र पांडे धुर भोजपुरी बनारस के पास के, अभी गोरेगांव में लेकिन जोगेश्वरी, गोरेगांव, और कांदिवली से लेकर मीरा रोड और नाला सोपारा तक, दोस्त, धंधे सब
मुन्तज़िर खैराबादी, मोहमद अली रोड के पास एक गली में कई बार सुलेमान की दूकान पे दिख जाते थे, खाने के शौक़ीन, पतली फ्रेम का चश्मा और होंठों पर हमेशा उस्तादों के शेर, फिल्मो में गाने लिखने की कोशिश नाकामयाब रही थी तो अब सीरियल में कभी भोजपुरी म्यूजिकल के लिए और आक्रेस्ट्रा के लिए
लेकिन असली नाम, ... पता नहीं। सच में पता नहीं।
असल नक़ल में फरक मिटाने के चक्कर में खुद असल नकल भूल चूके थे। हाँ जहाँ जाना हो, जो रूप धरना हो, जो भाषा एक्सेंट, मैनरिज्म, ज्यादा समय नहीं लगता और कई बार तो लोकल में सामने बैठे आदमी को देखकर आधे घंटे में कम्प्लीट एक्सेंट और
मैनरिज्म, उन्हें लगता की शायद उनका असली पेशा ऐक्टिंग हो सकता था और राडा (रॉयल अकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स) में उन्होंने एक छोटा मोटा कोर्स भी किया था,
लेकिन ये रूप अलग लग धरने में मेहनत, भी टाइम भी लगता था और कोई जरूरी नहीं की हर बार आपरेशन में वो हर रूप इस्तेमाल करे लेकिन हर आपरेशन में एक नया रूप जरूर वो क्रिएट करते थे, जैसे इस बार मिलन्द नवलकर, और ये भी बात नहीं की ये रूप वो सिर्फआपरेशन के लिए धरते थे, या उसका इस्तेमाल सिर्फ आपरेशन में करते थे, जैसे दो बार वो हिन्दुस्तान सिर्फ चिल करने आये और एक बार बनारस में रहे, महीनों और महेंद्र पांडे के रूप में, दो साल पहले हिन्दुस्तान नेपाल के बार्डर पे, एक आपरेशन था, ईस्टर्न यूपी और वेस्टर्न बिहार और नेपाल के बार्डर का और उसी समय वो पहली बार महेंद्र पांडे बने, और फिर जब बनारस आये तो फिर महेंद्र पांडे, और बोली , स्वराघात सब कुछ और फिर दोस्त यार, और उनके बॉम्बे के कनेक्शन, और कभी कभी साल में एक बार कही और आते जाते, वो इन कनेक्शन को जिंदा भी रखते थे
उसी तरह गरबा के सीजन में कुछ दिन वो बड़ौदा और सूरत में थे, पहले भी आ चुके थे कुछ डायमंड का मामला था और उन्होंने मनोज जोशी का वो गुजराती संस्करण, और वही उनको अंदाज लगा की भावनगर के आस पास जो गुजराती बोली जाती है वो बड़ौदा से एकदम अलग है
जब महीने भर बनारस में थे तभी लखनऊ जाना हुआ और असली मुन्तज़िर खैराबादी, से मुलाक़ात हुयी, बस उन्ही का मैनरिज्म, दाढ़ी, उर्दू,… और कोई कह नहीं सकता था की उनकी जड़ें लखनऊ में नहीं है, और उसका अड्डा बनाया उन्होंने मुंबई में मोहम्मद अली रोड को
इन अलग अलग रूपों के साथ लोकल खानो और लोकल लड़कियों ख़ास तौर से रेड लाइट, (सड़क छाप से लेकर कालगर्ल और एस्कॉट तक) के भी वो पक्के शौक़ीन भी थे और एक्सपर्ट भी,
और इन सबका फायदा उन्हें मिलता था, एक सूत्र को ट्रेस करने के लिए वो एक रूप धरते थे तो उसी आपरेशन से जुड़े दूसरे हिस्से को दूसरे रूप से, और अगर कोई उनके पीछे पड़ा भी रहता था तो वो दोनों को लिंक नहीं कर पाता था,
ये उनका अड़तीसवाँ ऑपरेशन था, और हिन्दुस्तान में छठा, लेकिन अब तक का सबसे मुश्किल,
एक तो कोई और छोर नहीं पता चल रहा था, अमेरिका में बेस्ड एक बड़ी मल्टी नेशनल कम्पनी की शक था की उसको एक्वायर करने के लिए या उसके इंट्रेस्ट को हिट करने के लिए कोई बड़ी कम्पनी आपरेशन चला रही है, और बस इतना पता था की हिन्दुस्तान में जो इनकी सब्सिडियरी है, उसपर कुछ दिन पहले हमला हुआ था, और वो कम्पनी बस हाथ से जाते जाते बची।
और उस को बचाने में जिस का हाथ था उसके बारे में मुश्किल से पांच छह लोगो को मालूम था, लेकिन राइवल कंपनी को कुछ शक था और एक इंडिपेंडेंट कंपनी से उस आदमी के बारे में जिसे रिपोर्ट में उन्होंने सब्जेक्ट कहा था, वो एक बिंदु हो सकता था जिसे पकड़ के आगे बढ़ा जा सकता था
पर परेशानी ये थी की एम् या मिलिंद नवलकर सीधे उस 'सब्जेट; से कांटेक्ट नहीं कर सकते थे, एक तो उन्हें ये पता था की जिस एजेंसी ने रिपोर्ट उस के बारे में बनायी है तो A १ लेवल के फिजिकल और कैमरे के सर्वेलेंस से घिरा होगा, और एक एमरजेंसी कांटेक्ट दिया था लेकिन बहुत दिमाग लगा के ही मेसेज आ सकता है और कई और लोगों के जरिए वो कोडेड मेसेज जब मिला तो काम उनका कुछ आसान हुआ
और मान गए वो वो सब्जेक्ट को, सिर्फ फोटो के जरिये, और किसी और के फोन से,
फ़ूड ट्रक, सर्वेलेंस, डाटा और वो लड़की और उस के जरिये काफी कुछ बाते आगे बढ़ गयी थी और अब उसी को बढ़ाना था