मैं रतिक्रीड़ा की प्रतिक्षा में
अपने कुंडल व श्यामवर्ण केशों
को खोलकर
उर्वशी की भांति अपने शयनकक्ष की
शैय्या पर अधलेटी हूँ।
मेरे उभरे हुए उन्मुक्त नितंब
तेरे सुमधुर स्पर्श की प्रतिक्षा में
साड़ी की चिलमन से बाहर आने को
लालायित है।
मेरी देह की मांशलता तेरे रस
से सरोबार हो जाना चाहती है
और बस उस स्निग्ध रस की
वैतरणी में मैं डूब जाना ।
यू लग रहा कि तुम अभी आओगे
और मेरी नाभि पर अपने स्वच्छंद
चुम्बनों की वर्षा कर दोगेऔर
तेरा मुख रस और मेरा भगरस अद्वैत होकर रतिक्रीड़ा
के एक प्रेमल युग की सृष्टि करेंगे
हे प्रिय!अब तुम आ जाओ और
उत्तानपाद सम्भोगासन्न जमाकर
मुझे स्पर्श के चर्मोउत्कर्ष की अनन्त
आनन्दमयी यात्रा पर ले जाओ।
मैं इस कामदेव रूपी तकिये पर
गर्दन टिकाकर कामरस की
कल्पना में आकंठ डूबकर
तुम्हारी प्रतिक्षा में हूँ।