मैं बहुत गहराई से समझता हूं बात को. अपनों के छल से बड़ा कोई गुनाह नहीं. परिवार को साथ लेकर चलने की लालसा क्या ही कहे. मैंने हमेशा से माना है कि कहानिया हमारे आसपास ही बनतीं है. किरदारों का छल मैं इसके बारे मे सोचता हूं कि परिवार कितना गिर सकता है. मैं ऐसा क्यों सोचता हूं ये आगामी कहानी के लिए एक प्रयोग है.
कबीर के किरदार को आम रखने की मेरे पास वज़ह है. आम आदमी पर सिनेमा का इतना प्रभाव है उसे एक्शन हीरो पसंद है मैं ये धारणा बदलना चाहता हूं. इस कहानी मे दो सच अभी बाकी है
मैंने कब कहा की वो एक्शन हीरो बने........ बचपन में जब मैं सिनेमा को जानता भी नहीं था........ तब भी मुझे पता था कि हर परिस्थिति में आपके पास 2 विकल्प होते हैं...... या तो उस डोर को छोड़ दो ..............या उसको तब तक पूरी दम के के साथ खींचो जब तक वो या तो आपके पास खिंचकर ना आ जाए, या टूट ना जाए
मैं सिनेमा में जीने वाली जेनेरेशन से नहीं............ नशा, हवस और हथियार के बीच पला बढ़ा हूँ.......... जैसा कि माहौल आपने कुन्दन और कबीर के घर-गाँव का दिखाया है...........
................ वहाँ ज़िंदगी की कीमत, जज़्बात से ज्यादा नहीं........ जज़्बात की कीमत, जुबान से ज्यादा नहीं........... और जुबान की कीमत, सम्मान से ज्यादा नहीं...................
और सम्मान! सम्मान लोगों का झुक जाना नहीं, आपकी दौलत, रुतबा या नाम नहीं............. सम्मान आपका आत्मसम्मान है, वो बात जो आपका जमीर गवारा करे....
आप या दुनिया अच्छा कहे या बुरा.......... आपका मन उसे सही-गलत जानता भी है और मानता भी है, आप मानो या मत मानो, अपने मन/जमीर/अंतरात्मा की
आपकी कहानियाँ अभी तक ज़िंदगी, जज़्बात और जुबान के फेर में ही ............. भावनाओं की डोर थामे लटकी हुयी है ...........................
क्या कबीर का जमीर परिवार को जोड़े रखने के मोह के नीचे दबा इन झूठे, धोखेबाज, मक्कार और अय्याश लोगों को अपनी और दूसरों की जिंदगियाँ बर्बाद करते हुये ऐसे ही मूरखों की तरह देखता रहेगा..... ये किस कोण से आपको आम आदमी के लक्षण लग रहे हैं.........