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Fantasy दलक्ष

ashish_1982_in

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खंड ५

चोमोलुंगमा


कृतिका आज पहाड़ी की दुर्गम चोटी की ओर टहल रही थी,

उत्सव से दूर,

बहुत दूर थी वह |

आजकल उसको एकांत में रहना अच्छा लगता था,

या यु कहो की उसने एकांत को चुन लिया था,

शायद इसीलिए की वह नहीं चाहती थी की वापस उससे कोई दूर हो जाये,

जिसे वो अपना कह सके |

शायद इसीलिए, वो किसी से ज्यादा बोलती नहीं थी, किसी से लगाव नहीं रखती थी, भविष्य से डर लगने लगा था उसको अब | इसी कारण सब छोड़ दिया था उसने, अपने मन को मार लिया था, वापस किसी के दूर होने के भय से, अपने भाई से दूर होने के भय से |

बहुत प्रेम करती थी वो अपने भाई से,

अपने पिता का आयना दिखता था उसके भाई में उसे,

उसके पिता की तरह वह भी उससे दूर ना हो जाये,

इसीलिए,

शायद,

इसीलिए,

वो समय आने से पहले ही अलग होना चाहती थी,

ताकि पीड़ा ना हो,

कुछ कम हो |

अपने ही खयालो में खोई हुई कृतिका आज कुछ ज्यादा ही दूर चली गई थी,

उसे भी भान नहीं था की कितनी देर से चल रही है वो |

थोड़ी दूर आगे एक छोटा सा तालाब दिखा उसको,

गर्म पानी का तालाब,

बैठ गई वो वही पर एक पेड़ से पीठ टिका कर |

बहुत ही शांत था वातावरण वहा का,

बस एक ही ध्वनि गूंज रही थी,

और वो थी,

कंकड़ के एक एक करके पानी में गिरने की,

कृतिका,

जो बैठी थी पेड़ के नीचे,

एक-एक करके कंकड़ फेक रही थी उस तालाब में,

मन बहलाने के लिए |

उस शांत वातावरण में,

कंकड़ के पानी में गिरने की ध्वनि बहुत ही मधुर लग रही थी,

जैसे की गर्भ में किसी नव जीवन का स्फुरण हो रहा हो |

लेकिन,

कोई था,

कोई था वहा,

जिसको ये मधुर ध्वनि दखल दे रही थी,

उस तालाब से,

कुछ ही पाँव की दूरी पर,

कोई बैठा था वहा,

ध्यान लगाये,

आखे खोली उसने,

लाल आखे,

गुस्सा हो लिया वो,

उठा,

वो उठा वहा से,

और चल दिया उस आवाज की तरफ |

लेकिन ये क्या ?,

जैसे ही वो पंहुचा तालाब के निकट,

पैर जम गए उसके,

एक ही पल में पसीना-पसीना हो लिया वो,

भय ने उसकी आत्मा को जकड लिया हो वही पर,

उसके मुह से बस एक ही शब्द निकला उसके,

या यु कहो की,

उस ठन्डे वातावरण में बस हवा ही निकली मुह से - “चोमोलुंगमा”

अचानक,

छुप लिया वो,

छुप लिया,

वही एक झाड़ी में पीछे,

विश्वास नहीं हो रहा था उसको अपनी आखो पर,

कई जन्मो की तपस्या के बाद भी,

यह देखना संभव नहीं था उसके लिए,

कही ये कोई भ्रम तो नहीं उसका,

शंका जन्मी उसके मन में,

मंत्र से पोषित की अपनी आखो को,

और वापस देखा सामने,

नहीं,

कोई भ्रम नहीं,

कोई भ्रम नहीं था ये,

अब सयंत किया उसने अपने आप को,

लेकिन मन में एक प्रश्न अभी थी उस समय उसको,

चोमोलुंगमा यहाँ पर,

और वो भी मनुष्य देह में,

अब चौकन्ना हुआ वो,

आसपास नजर दौड़ाई उसने,

कोई नहीं,

कोई नहीं था उसके आसपास,

कोई रक्षक नहीं था उसके साथ,

लेकिन पूरी तरह से पुष्टि करना चाहता था वो,

इस क्षण,

एक भाग के हजारवे हिस्सा का भी खतरा मोल नहीं लेना चाहता था वो,

अब उसने दशांश मंत्र को जाग्रत किया,

पोषित किया उसको अपनी आखो पर,

अब देख घुमाई उसने सभी दिशाओ में,

नहीं,

कोई रक्षक नहीं था,

और ना कोई अन्य शक्ति थी वहा पर,

उसकी रक्षा के लिए,

अब वो जिज्ञासु हो उठा,

आखिर ये कैसे संभव है ?

कैसे ?

उसने निर्णय लिया ये जानने का,

अब झाँका उसने कृतिका के “भुत” में,

देख लिया उसने,

सब-कुछ,

जिससे अब-तक,

स्वयं कृतिका भी अनजान थी अपने भुत से,

लेकिन उस झाड़ी के पीछे छिपे अमान ने,

देख लिया सब कुछ,

सब कुछ जान लिया था उस “वचन” के बारे में,

अब जो थोड़ी देर पहले अमान के मन में जिज्ञासा जन्मी थी, लालसा का रूप ले लिया उसने,

लालसा,

सब कुछ पाने की लालसा,

समय से पहले ही सब कुछ पाने की लालसा,

मनुष्य बहुत ही अजीब है, हर क्षण उसके मन में अनेको तृषणाये उपन्न होती रहती है और हर पल बदलती रहती है, और इन्ही बेलगाम तृषणाओ के कारण वह निरंतर गर्त में जाता रहता है, काल्पनिक लक्ष्यों की ओर भटकता रहता है, इसी वजह से तृष्णा पर विवेक की लगाम बहुत ही आवश्यक है, वर्ना भटकाव निश्चित है

लेकिन उस समय,

अमान के विवेक रूपी लगाम को लालसा ने अपने पैरो तले कुचल दिया था,

लालसा ने उसके सामने काल्पनिक सपने रख दिए थे,

पथ-भ्रष्ट हुआ अब वो,

चल पड़ा वो उस “वचन” की बाधा बनने में,

भाग चला वो अब वापस पीछे की ओर,

और ढूंढने लगा कुछ,

बहुत जल्दी थी उसको अब,

समय नहीं गवाना चाहता था वो,

मिल गया उसको,

एक काष्ठ दंड,

तोड़ लिया उसने एक पेड़ से,

और अभिमंत्रित किया,

प्रवंग मंत्र से पोषित कर,

कर दिया पाश को तैयार,

अब बस जाल के फैकने की ही देर थी,

हो लिया वापस,

उस तालाब की ओर,

सभी बात से अनजान,

कृतिका अभी-भी वही बैठी थी,

उसको कुछ सुनाई दिया,

तालाब के उस ओर,

देखा उसने उस तरफ,

दुबला-पतला,

सूखे हाड-मॉस सा व्यक्ति निकला झाड़ियो के पीछे से,

अब थोड़ी डरी वो,

स्वाभाविक भी था उसका डरना उस समय,

खडी हुई वो,

जैसे ही वो कुछ सोंच पाती,

फेक दिया अमान ने काष्ठ दंड उसके तरफ,

एक चीख पुरे उस सुनसान वातावरण में फ़ैल गयी,

जैसे उस काष्ठ-दंड ने पूरी प्राण-उर्जा सोख ली हो उसकी,

कुछ क्षण बाद,

सब शांत,

अब शांत हुआ सब-कुछ,

बस अब निर्जीव काया पड़ी थी उस तालाब के किनारे,

अब सुनसान हुआ वापस |


Nice update bhai
 

ashish_1982_in

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धुरिक्ष

संध्या का समय था, पूरी पहाड़ी पर उत्सव का माहौल हो रखा था, सभी लोग मंदिर के बाहर उस छोटे से मैदान में इक्कट्ठा हो रहे थे, मंदिर को बहुत ही अच्छी तरह से सजाया गया था, मैदान में रात्रि के भोग की तैयारी चल रही रही थी, कई लोग रोशनी कर रहे थे, तो कई अलाव जलाने की तैयारी कर रहे थे, तो कई लोग अभी-अभी आ ही रहे थे, बड़े-बुजुर्ग अपने भावी पीढ़ी को दिशा-निर्देश दे रहे थे, चारो तरफ वाद्ययंत्रो की हल्की-हल्की ध्वनि गूंज रही थी, और बच्चे की मस्ती और खेल-कूद की भरी आवाजो से मानो जैसे की पुरा जश्न जीवंत हो रहा हो

उत्सव की तैयारी लगभग-लगभग पूरी हो ही चुकी थी, अब बस मुखिया के आने की ही देर थी, जो की उस मंदिर के देवता को प्रथम भोग चढाते और उत्सव की शुरुआत करते ! लेकिन ऐसा लग रहा था की इस बार मुखिया को आने में कुछ ज्यादा ही देर हो रही थी

कुछ समय बाद इवान आ गया,

मुखिया आ गया !

हा,

इवान ही गाव का मुखिया था !

इवान के आते ही नगाड़ो की आवाजो ने पूरी पहाड़ी को गूंजा दिया,

अलाव जला दिए गए,

पूरा माहौल ख़ुशी से झूम गया,

बस एक को छोड़ कर,

इवान को छोड़ कर !

सुबह से उसे अपनी बहन की फिक्र हो रही थी,

हर रोज तो संध्या होते ही आ जाती थी,

लेकिन,

आज नहीं लौटी वो !

उसी की चिंता हो रही थी इवान को !

आज उसका मन,

कुछ ज्यादा ही बैचैन हो रहा था,

लेकिन,

मुखिया होने की जिम्मेदारी ने बांध दिया था आज उसको !

नगाड़ो की आवाज कुछ ज्यादा ही तेज हो चुकी थी,

भोग लगाने का समय हो चूका था,

सभी बढ़ चले मंदिर की तरफ,

और सबसे आगे था इवान !

आ गए सभी मंदिर के सम्मुख,

लेकिन,

जैसे ही मंदिर के अन्दर कदम रखने ही वाला था इवान,

तभी,

एक आवाज गूंजी,

बहुत थी भयानक,

पूरा पहाड़ हिल पड़ा,

जैसे भूकंप आ पड़ा हो,

दियो को रोशनी और अलाव,

सभी बुझ गए एक ही पल में,

अँधेरा हो गया पूरी पहाड़ी पर,

अब,

आशंका उठी इवान के मन में,

घोर आशंका,

किसी अनिष्ट की,

अब,

मन नहीं रहा उसका,

भाग चला वो,

उस मंदिर से दूर,

उस उत्सव से दूर,

उन घने जंगलो की तरफ,

जिस तरफ से कृतिका आया करती थी,

हलचल हुई गाव के लोगो में,

अँधेरे की वजह से कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था,

कुछ समय बाद लोग शांत हुए,

वापस रोशनी की गयी,

लेकिन अब गाव वालो को चिंता हुई,

मुखिया वहा से गायब था,

और उस से भी बड़ी चिंता का विषय था उनके लिया वो मंदिर,

उस मंदिर के देवता के आभूषण,

सब गायब थे वहा से,

सब कुछ,

मंदिर सुना हो चूका था

सब कुछ

मै....

इतना कहते ही वो बुड्ढा यात्री छुप गया, जैसे कही शुन्य में खो सा गया वो ! थोड़ी देर बाद कुछ ना बोलने पर जग्गा ने आवाज दी उनको “बाबा ओ बाबा” लेकिन जैसे की बाबा ने कुछ सुना ही ना हो, थोडा समय बीता, लेकिन बाबा तो जैसे बोलने का नाम भी नहीं ले रहे थे जैसे किसी समयपाश में बंध गए हो !

अब कामरू अधीर हो उठा,

बैचेन हो उठा,

आगे क्या हुआ,

कुछ प्रश्न उठे उसके मन में,

क्या बाबा इसी गाव की बात कर रहे है,

क्या बाबा मेरे ही बचपन की बात कर रहे है,

क्या मेरे पिता की,

की क्या हुआ था उस दिन,

क्या हुआ था उन आभूषणों के साथ,

जिनकी चौरी का आरोप लगा था उन पर,

ये सारे प्रश्न अब उसके चित में घुमने लगे,

अब भारी हुआ उसका सीना,

उठा वो अपनी जगह से,

हिलाया उसने उन बुड्ढे बाबा को

“बाबा, क्या हुआ था उस दिन ?, क्या हुआ था मेने पिता के साथ, उन आभूषणों के साथ ?”

उस बुड्ढे यात्री ने देखा उसकी तरफ अब,

देखा उसकी अधीरता को,

और वापस एक लम्बा सा कश लेकर बोल पड़ता है

.

.

उस दिन मै वही था,

सब कुछ मेरे आखो में सामने ही हुआ था,

गवाह था मै उस निर्मम कृत्य का,

उस दुराचारी के पाप का,

लेकिन,

कर भी क्या सकता था मै,

बंधा था मै,

उस वचन से बंधा था मै,

जिसको चोलोमूंगमा ने दिया था सबको,

उसके वचन के पूर्ण होने में अब कुछ ही समय बचा था,

लेकिन जैसे की होनी को कुछ और ही मंजूर था,

लगता है उसके प्रेमी को विधाता की परीक्षा में पास होना अभी शेष था,

जैसे विधाता भी उसके सब्र के साथ खेल रहा हो,

आ गया उसका प्रेमी वहा पर,

एक भी पल की देरी किये बिना,

जैसे की शुन्य से प्रकट हुआ वो,

गान्धर्व कुमार,

“धुरिक्ष”,

सुनहरा वर्ण,

अलौकिक देहधारी,

बलशाली,

लेकिन,

बहुत देर हो चुकी थी अब,

देखा उसने अपने प्रेमीका को,

निष्प्राण,

देह पड़ी थी उस तालाब के किनारे,

यह देख धुरिक्ष का सीना जैसे फट पड़ा,

दहाडा वो,

हुंकार भरी उसने,

जैसे पूरा पर्वत कांप गया उस हुंकार से,

वहा का ठंडा वातावरण उसके क्रोध से गर्म होने लगा,

अब उसका क्रोध उसके सीमा से बाहर हो गया,

जैसे की अब पुरे पर्वत को ही भस्म कर देगा वो,

पहली बार,

जीवन में पहली बार भय लगा मुझे,

कितनो ही यक्षो और ब्रह्मराक्षसो को धुल चटाई थी मेने,

कितने ही गन्धर्वो को नचाया था मेने,

लेकिन,

उस दिन,

उस गान्धर्वकुमार का विशुद्ध प्रेम देख डर गया में भी,

उस दिन लगा मुझको,

अनुभव किया मैंने,

प्रेम की अथाह शक्ति को,

प्रेम के स्वरुप को स्वीकारा मेने,

अब,

चिंता हुई मुझको,

उस पहाड़ी पर बसे लोगो की,

पहाड़ी के नष्ट होते ही,

वे भी,

बिना किसी अपराध के,

इस पहाड़ी के साथ,

काल का ग्रास बनते,

अब उतरा में उस प्रेमी के क्रोध के बीच,

याद दिलाया मेने उस वचन को उसको,

ललकारा उसके प्रेमिका की आन को,

उसके प्रेम की आन की खातिर,

शांत होना पड़ा,

उसके प्रेम की पूर्णता की प्राप्ति के खातिर,

शांत होना पड़ा उसको,

धन्यवाद दिया उसके इस बलिदान को,

क्योकि वो सक्षम था सब कुछ भस्म करने में,

सब कुछ तबाह करने में,

अब कुछ करना था मुझे,

उस वचन की काट करनी जरुरी थी,

क्योकि शक्ति अब गलत हाथो में लग चुकी थी,

किसी नश्वर के हाथो में अनश्वर शक्ति थी,

उस अमान के हाथो में,

मै निकाल पड़ा वहा से,

उस वचन का हल खोजने में,

.

.

अब शांत हुआ वो बुड्ढा यात्री,

कह दिया उसने सब कुछ, जो कहना था

“क्या रास्ता निकाल लिया आपने ?” पूछा जग्गा ने

“हा, मिल गया, जो खोजने निकला था मै” कामरू की तरफ देखते हुए “पूछ कामरू, अब पूछ, क्या प्रश्न है तुम्हारे मन में ?”

“क्या हुआ मेरे पिता का ?, कहा गए वो ?” आखो में आसू लिए वो वृद्ध कामरू बोलता है

“उस दिन इवान आखिर आ पंहुचा, कृतिका को खोजते खोजते उस तालाब के किनारे, वह सब देख बहुत रोया वो, आखिर कर भी क्या सकता था वो, जो होनी थी वो हो चुकी थी, लेकिन उस दिन एक काम सौपा उस गान्धर्व कुमार ने उसे, कृतिका की काया को सुरक्षित रखने का, उस पार्थिव काया को सबसे दूर रखने का, वचन के पूर्ण होने में आवश्यकता थी उसकी, कुछ भेद बताये उस गन्धर्व ने उसको, समय की सीमा को रोकने के और चल पड़े वो दोनों, सब कुछ मेरे भरोसे छोड़ कर”

“और उन मंदिर के आभुषणों का ?”

“वो तो उस गान्धर्व कुमार की अमानत थी, जिसके फलस्वरूप ही इस पहाड़ी पर केसर हुआ करती थी, बहुत ही प्रिय थी केसर चोलोमूंगमा को, उसके जाते ही सब कुछ चला गया यहाँ से, सब कुछ”

अब मन हल्का हुआ वृद्ध कामरू का, जीवन भर के प्रश्नों का उत्तर अब मिला उसको, लेकिन इस प्रश्नों के उत्तर के साथ अब कुछ जिज्ञासा हुई उसको, की कौन थी चोलोमूंगमा, और क्या है वो वचन, जिसकी खातिर वो गन्धर्व कुमार भी कुछ ना कर सका, और सबसे अहम् बात की अब ये बाबा वापस क्यों आये है यहाँ पर ?

“सुन कामरू” वो बुड्ढा यात्री बोल पड़ता है

“हा बाबा” अपने मन के खयालो से बाहर आते ही अचानक से बोलता है

“अब वो उत्तर जिसकी तलाश में मै यहाँ पर आया हु” वो बुड्ढा यात्री अपनी जगह से उठते हुए बोलता है

“वो क्या है बाबा ?”

“कहा पर है इवान, तुम्हारे पिता”

इतना सुनते ही जग्गा चौक जाता हैं और कामरू की तरफ देखने लगता है



क्रमशः
 

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धुरिक्ष

संध्या का समय था, पूरी पहाड़ी पर उत्सव का माहौल हो रखा था, सभी लोग मंदिर के बाहर उस छोटे से मैदान में इक्कट्ठा हो रहे थे, मंदिर को बहुत ही अच्छी तरह से सजाया गया था, मैदान में रात्रि के भोग की तैयारी चल रही रही थी, कई लोग रोशनी कर रहे थे, तो कई अलाव जलाने की तैयारी कर रहे थे, तो कई लोग अभी-अभी आ ही रहे थे, बड़े-बुजुर्ग अपने भावी पीढ़ी को दिशा-निर्देश दे रहे थे, चारो तरफ वाद्ययंत्रो की हल्की-हल्की ध्वनि गूंज रही थी, और बच्चे की मस्ती और खेल-कूद की भरी आवाजो से मानो जैसे की पुरा जश्न जीवंत हो रहा हो

उत्सव की तैयारी लगभग-लगभग पूरी हो ही चुकी थी, अब बस मुखिया के आने की ही देर थी, जो की उस मंदिर के देवता को प्रथम भोग चढाते और उत्सव की शुरुआत करते ! लेकिन ऐसा लग रहा था की इस बार मुखिया को आने में कुछ ज्यादा ही देर हो रही थी

कुछ समय बाद इवान आ गया,

मुखिया आ गया !

हा,

इवान ही गाव का मुखिया था !

इवान के आते ही नगाड़ो की आवाजो ने पूरी पहाड़ी को गूंजा दिया,

अलाव जला दिए गए,

पूरा माहौल ख़ुशी से झूम गया,

बस एक को छोड़ कर,

इवान को छोड़ कर !

सुबह से उसे अपनी बहन की फिक्र हो रही थी,

हर रोज तो संध्या होते ही आ जाती थी,

लेकिन,

आज नहीं लौटी वो !

उसी की चिंता हो रही थी इवान को !

आज उसका मन,

कुछ ज्यादा ही बैचैन हो रहा था,

लेकिन,

मुखिया होने की जिम्मेदारी ने बांध दिया था आज उसको !

नगाड़ो की आवाज कुछ ज्यादा ही तेज हो चुकी थी,

भोग लगाने का समय हो चूका था,

सभी बढ़ चले मंदिर की तरफ,

और सबसे आगे था इवान !

आ गए सभी मंदिर के सम्मुख,

लेकिन,

जैसे ही मंदिर के अन्दर कदम रखने ही वाला था इवान,

तभी,

एक आवाज गूंजी,

बहुत थी भयानक,

पूरा पहाड़ हिल पड़ा,

जैसे भूकंप आ पड़ा हो,

दियो को रोशनी और अलाव,

सभी बुझ गए एक ही पल में,

अँधेरा हो गया पूरी पहाड़ी पर,

अब,

आशंका उठी इवान के मन में,

घोर आशंका,

किसी अनिष्ट की,

अब,

मन नहीं रहा उसका,

भाग चला वो,

उस मंदिर से दूर,

उस उत्सव से दूर,

उन घने जंगलो की तरफ,

जिस तरफ से कृतिका आया करती थी,

हलचल हुई गाव के लोगो में,

अँधेरे की वजह से कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था,

कुछ समय बाद लोग शांत हुए,

वापस रोशनी की गयी,

लेकिन अब गाव वालो को चिंता हुई,

मुखिया वहा से गायब था,

और उस से भी बड़ी चिंता का विषय था उनके लिया वो मंदिर,

उस मंदिर के देवता के आभूषण,

सब गायब थे वहा से,

सब कुछ,

मंदिर सुना हो चूका था

सब कुछ

मै....

इतना कहते ही वो बुड्ढा यात्री छुप गया, जैसे कही शुन्य में खो सा गया वो ! थोड़ी देर बाद कुछ ना बोलने पर जग्गा ने आवाज दी उनको “बाबा ओ बाबा” लेकिन जैसे की बाबा ने कुछ सुना ही ना हो, थोडा समय बीता, लेकिन बाबा तो जैसे बोलने का नाम भी नहीं ले रहे थे जैसे किसी समयपाश में बंध गए हो !

अब कामरू अधीर हो उठा,

बैचेन हो उठा,

आगे क्या हुआ,

कुछ प्रश्न उठे उसके मन में,

क्या बाबा इसी गाव की बात कर रहे है,

क्या बाबा मेरे ही बचपन की बात कर रहे है,

क्या मेरे पिता की,

की क्या हुआ था उस दिन,

क्या हुआ था उन आभूषणों के साथ,

जिनकी चौरी का आरोप लगा था उन पर,

ये सारे प्रश्न अब उसके चित में घुमने लगे,

अब भारी हुआ उसका सीना,

उठा वो अपनी जगह से,

हिलाया उसने उन बुड्ढे बाबा को

“बाबा, क्या हुआ था उस दिन ?, क्या हुआ था मेने पिता के साथ, उन आभूषणों के साथ ?”

उस बुड्ढे यात्री ने देखा उसकी तरफ अब,

देखा उसकी अधीरता को,

और वापस एक लम्बा सा कश लेकर बोल पड़ता है

.

.

उस दिन मै वही था,

सब कुछ मेरे आखो में सामने ही हुआ था,

गवाह था मै उस निर्मम कृत्य का,

उस दुराचारी के पाप का,

लेकिन,

कर भी क्या सकता था मै,

बंधा था मै,

उस वचन से बंधा था मै,

जिसको चोलोमूंगमा ने दिया था सबको,

उसके वचन के पूर्ण होने में अब कुछ ही समय बचा था,

लेकिन जैसे की होनी को कुछ और ही मंजूर था,

लगता है उसके प्रेमी को विधाता की परीक्षा में पास होना अभी शेष था,

जैसे विधाता भी उसके सब्र के साथ खेल रहा हो,

आ गया उसका प्रेमी वहा पर,

एक भी पल की देरी किये बिना,

जैसे की शुन्य से प्रकट हुआ वो,

गान्धर्व कुमार,

“धुरिक्ष”,

सुनहरा वर्ण,

अलौकिक देहधारी,

बलशाली,

लेकिन,

बहुत देर हो चुकी थी अब,

देखा उसने अपने प्रेमीका को,

निष्प्राण,

देह पड़ी थी उस तालाब के किनारे,

यह देख धुरिक्ष का सीना जैसे फट पड़ा,

दहाडा वो,

हुंकार भरी उसने,

जैसे पूरा पर्वत कांप गया उस हुंकार से,

वहा का ठंडा वातावरण उसके क्रोध से गर्म होने लगा,

अब उसका क्रोध उसके सीमा से बाहर हो गया,

जैसे की अब पुरे पर्वत को ही भस्म कर देगा वो,

पहली बार,

जीवन में पहली बार भय लगा मुझे,

कितनो ही यक्षो और ब्रह्मराक्षसो को धुल चटाई थी मेने,

कितने ही गन्धर्वो को नचाया था मेने,

लेकिन,

उस दिन,

उस गान्धर्वकुमार का विशुद्ध प्रेम देख डर गया में भी,

उस दिन लगा मुझको,

अनुभव किया मैंने,

प्रेम की अथाह शक्ति को,

प्रेम के स्वरुप को स्वीकारा मेने,

अब,

चिंता हुई मुझको,

उस पहाड़ी पर बसे लोगो की,

पहाड़ी के नष्ट होते ही,

वे भी,

बिना किसी अपराध के,

इस पहाड़ी के साथ,

काल का ग्रास बनते,

अब उतरा में उस प्रेमी के क्रोध के बीच,

याद दिलाया मेने उस वचन को उसको,

ललकारा उसके प्रेमिका की आन को,

उसके प्रेम की आन की खातिर,

शांत होना पड़ा,

उसके प्रेम की पूर्णता की प्राप्ति के खातिर,

शांत होना पड़ा उसको,

धन्यवाद दिया उसके इस बलिदान को,

क्योकि वो सक्षम था सब कुछ भस्म करने में,

सब कुछ तबाह करने में,

अब कुछ करना था मुझे,

उस वचन की काट करनी जरुरी थी,

क्योकि शक्ति अब गलत हाथो में लग चुकी थी,

किसी नश्वर के हाथो में अनश्वर शक्ति थी,

उस अमान के हाथो में,

मै निकाल पड़ा वहा से,

उस वचन का हल खोजने में,

.

.

अब शांत हुआ वो बुड्ढा यात्री,

कह दिया उसने सब कुछ, जो कहना था

“क्या रास्ता निकाल लिया आपने ?” पूछा जग्गा ने

“हा, मिल गया, जो खोजने निकला था मै” कामरू की तरफ देखते हुए “पूछ कामरू, अब पूछ, क्या प्रश्न है तुम्हारे मन में ?”

“क्या हुआ मेरे पिता का ?, कहा गए वो ?” आखो में आसू लिए वो वृद्ध कामरू बोलता है

“उस दिन इवान आखिर आ पंहुचा, कृतिका को खोजते खोजते उस तालाब के किनारे, वह सब देख बहुत रोया वो, आखिर कर भी क्या सकता था वो, जो होनी थी वो हो चुकी थी, लेकिन उस दिन एक काम सौपा उस गान्धर्व कुमार ने उसे, कृतिका की काया को सुरक्षित रखने का, उस पार्थिव काया को सबसे दूर रखने का, वचन के पूर्ण होने में आवश्यकता थी उसकी, कुछ भेद बताये उस गन्धर्व ने उसको, समय की सीमा को रोकने के और चल पड़े वो दोनों, सब कुछ मेरे भरोसे छोड़ कर”

“और उन मंदिर के आभुषणों का ?”

“वो तो उस गान्धर्व कुमार की अमानत थी, जिसके फलस्वरूप ही इस पहाड़ी पर केसर हुआ करती थी, बहुत ही प्रिय थी केसर चोलोमूंगमा को, उसके जाते ही सब कुछ चला गया यहाँ से, सब कुछ”

अब मन हल्का हुआ वृद्ध कामरू का, जीवन भर के प्रश्नों का उत्तर अब मिला उसको, लेकिन इस प्रश्नों के उत्तर के साथ अब कुछ जिज्ञासा हुई उसको, की कौन थी चोलोमूंगमा, और क्या है वो वचन, जिसकी खातिर वो गन्धर्व कुमार भी कुछ ना कर सका, और सबसे अहम् बात की अब ये बाबा वापस क्यों आये है यहाँ पर ?

“सुन कामरू” वो बुड्ढा यात्री बोल पड़ता है

“हा बाबा” अपने मन के खयालो से बाहर आते ही अचानक से बोलता है

“अब वो उत्तर जिसकी तलाश में मै यहाँ पर आया हु” वो बुड्ढा यात्री अपनी जगह से उठते हुए बोलता है

“वो क्या है बाबा ?”

“कहा पर है इवान, तुम्हारे पिता”

इतना सुनते ही जग्गा चौक जाता हैं और कामरू की तरफ देखने लगता है




क्रमशः
super fantastic update bhai maza aa gya ab dekhte hai ki aage kya hota hai
 
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Nevil singh

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हेल्लो दोस्तों
कैसे हो ?
बहुत दिनों के बाद वापस आया हु,
बहुत से लोग नाराज भी होंगे, की कहानी को अधूरी छोड़ गए, लेकिन क्या करू समय ही ऐसा आ गया था,

हो सके तो माफ़ कर देना दोस्तों



ये मेरी कहानी का दूसरा भाग है "दलक्ष"
इस कहानी का पहला भाग है "वो कौन था" इसको पहले पढ़ लेना नहीं तो ये कहानी "दलक्ष" शुरू शुरू में तो सही लगेगी लेकिन जब आगे बढ़ेगी और character आयेंगे तब कुछ पता नहीं चलेगा
इसी के साथ अगले अपडेट में कहानी को शुरू करता हु
Ok bhai
 
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कहानी वाले बाबा



जलते हुए अंगारों को बुझा ही रहा था की एक परछाई दूर से आती हुयी दिखी, केशव ने हाथ से इशारा करते हुए जग्गा को कहा जो अपने चाय की दुकान का सामान समेट ही रहा था “रुक जाते है थोड़ी देर और, लगता है कोई आ रहा है”

ये सुनते ही जग्गा के हाथ जैसे वही जम गए हो, उसकी भी नजर सामने के रास्ते की ओर जा पड़ी ‘हा, कोई तो आ रहा है’ अचानक जग्गा की उन उदासीन आखो में हल्की सी चमक आ गयी ‘लगता है आज थोडा-बहुत पेट भर जायेगा’ ये सोचते हुए जग्गा चाय का सामान वापस सामने रखे तख्ते पर जमाने लगा

यह एक छोटी सी झोपड़ीनुमा चाय की दुकान थी, जो की गाव के एकदम किनारे पर थी ! वैसे तो इस गाव में ३-४ चाय की दुकाने और भी थी लेकिन जग्गा की दुकान गाव के किनारे होने की वजह से बहुत ही कम चलती थी ! यह गाव एक पहाड़ी की चोटी पर आया हुआ था, ऊचाई और ठंडी जगह होने के कारण यहाँ पर बहुत कम ही लोग आ-जा पाते थे, ये भी एक बड़ा कारण था जग्गा की दुकान के ना चलने का !

रात हो चुकी थी, आज भी जग्गा को यही लग रहा था की ये रात भी जैसे-तैसे गुजारनी पड़ेगी, लेकिन आज उसकी नियति को कुछ और ही मंजूर था ! सामने से आ रही परछाई अब धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी, अँधेरे में अभी भी स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था फिर भी जग्गा को एक बात का तो पूर्णतया यकीन था की आने वाला यात्री उसके यहाँ चाय जरुर पियेगा, क्योकि वातावरण बहुत ही ठंडा था और इस पहाड़ी ठण्ड में चाय का आनंद......आहा

केशव, जो अभी उन अंगारों को वापस सही कर अलाव जलाने की कोशिश कर ही रहा था, तभी उस ठण्ड को चीरती हुयी उसके कानो में एक ध्वनि गूंजी –“दलक्ष”

उच्चारण एकदम साफ़ था, आवाज तीखी तो थी लेकिन कठोर नहीं थी, मृदु थी जैसे कि किसी ने शहद को अपनी अंगुली से चीर दिया हो !

“क्या ?” – दोनों एक साथ बोल पड़ते है

“दलक्ष, यही नाम है न इस गाव का ?”

अब तक वो यात्री अलाव की रोशनी में आ चूका था, केशव और जग्गा दोनों उसकी तरफ देखते है, ये एक बुढा व्यक्ति था जिसने एक काला कम्बल ओढ रखा था और चेहरा उसका दाढ़ी-मुछो से ढका रखा था, सर पर बड़ी-बड़ी जटाये सलीके से बांध रखी थी, ललाट पर एक सफ़ेद तिलक लगा रखा था

“हा, हा यही गाव है” कहते हुए जग्गा जल्दी से एक पुरानी चारपाई को उस अलाव के किनारे बिछा देता है और अपने गमछे से साफ़ कहते हए कहता है “आइये, बैठिये थोडा ताप लीजिये”

आम बोलचाल में सभी इस गाव को ‘दलख’ ही बोलते है, इसी कारण दोनों को थोडा अचुम्भा हुआ लेकिन इस गाव का असल नाम ‘दलक्ष’ ही था – पहाड़ी की चोटी पर बसा हुआ एक छोटा-सा सुन्दर गाव !

वो बुड्ढा यात्री उस चारपाई पर बैठ जाता है, और अपने कम्बल में हाथ डालकर एक मिट्टी की छोटी सी चिलम निकालकर उसे सही करने लगता है

उस ठंडी शांति को तोड़ते हुए जग्गा बोल पड़ता है “थोड़ी चाय बना दू बाबूजी आपके लिए ?”

बिना उसकी ओर देखते हुए अपनी चिलम को ठीक करते हुए वो बुड्ढा यात्री ‘हां’ में सिर हिला देता है, इशारा पाकर जग्गा जल्दी से वापस चाय के लिए चूल्हा तैयार करने लगता है

थोड़ी देर तक चिलम को सही करने के बाद वो उसके सामने जल रहे अलाव से चिलम को जलाने लगता है, अभी तक किसी के कुछ ना बोलते हुए केशव चुप्पी तोड़ते हुए कहता है “इतनी रात किसके घर आये हो बाबूजी ?”

“किसी के भी घर नहीं जाना” चिलम का एक कश खीचते हुए आराम से वो बोलता है !

“तो फिर बाबूजी” केशव पूछ पड़ता है “आप यहाँ के तो नहीं लगते”

“यहाँ पर कोई रहता है जिससे मिलना था” गाव की तरफ़ देखते हुए वो बुड्ढा यात्री बोलता है !

“किस-से मिलना था बाबूजी ?” इस बार जग्गा पूछ पड़ता है

वो बुड्ढा यात्री अभी भी गाव की तरफ़ ही देख रहा था, जैसे उसने जग्गा की बात सुनी ही ना हो !

इस बार सामने बैठे केशव ने थोड़ी ऊची आवाज में पूछा “बाबूजी, ओ बाबूजी किस से मिलना था ?”

ध्यान भंग हुआ उस बुड्ढे यात्री का, चिलम से एक और कश खीचा और बोला “कामरू अभी भी यही रहता है क्या ?”

“कौन कामरू ?”

“अरे वही, जिसका बाप गायब हो गया था” वो बुड्ढा यात्री बिना किसी हिचक के बोल पड़ता है !

केशव को अभी-भी समझ नहीं आ रहा था की वो बुड्ढा किसके बारे में बात है, तभी वो जग्गा को इशारे से उसके बारे में पूछता है

“क्या आप मुखियाजी के पिता के बारे में बात कर रहे है” जग्गा बोलता है

इस बार वो बुड्ढा यात्री जग्गा की तरफ मुह करके पूछता है “क्या उसी का नाम कामरू है ?”

“हा, जब में छोटा था तब मेरे पिता उन्ही को कामरू चाचा कहकर पुकारते थे” जग्गा फिर से बोलता है

“क्या तुम उसे यहाँ बुला सकते हो” बुड्ढा यात्री पूछता है

“माफ़ करना बाबूजी, अब वो बहुत बीमार रहते है मुझे नहीं लगता की वो चलकर यहाँ तक आ सकते है” जग्गा बोलता है

“आप उन्ही के घर क्यों नहीं चले जाते है” बीच में ही केशव उन दोनों की बात को बीच में ही काटते हुए बोलता है !

अचानक वो बुड्ढा यात्री जैसे क्रोधित हो गया हो, उसकी आखे मानो बड़ी हो गयी और एक आदेशपूर्ण, प्रबल आवाज के साथ बोल पड़ता है

“तुम जाओ अभी, इसी वक्त और कहना की ‘कहानी वाले बाबा’ बुला रहे है”

ये आवाज इतनी प्रबल थी की जग्गा और केशव की आत्मा तक काप गयी, सामने जल रहे अलाव का ताप मानो एक क्षण के लिए ठंडा हो गया था, इस बुड्ढे यात्री के अचानक इस प्रकार के व्यव्हार को देख कर केशव मना नहीं कर सका और गाव की और मुड पड़ा !

उस बुड्ढे यात्री ने वापस अपनी चिलम सही की और वापस कश लेने लगा, इस तरह के बर्ताव के कारण जग्गा और उससे कुछ पूछने की हिम्मत भी नहीं कर सका और जल्दी से अपने कांपते हाथो से एक छोटी गिलास में चाय भरकर उसको दे दी !
Nice update bhai
 
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