ashish_1982_in
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Nice update bhaiखंड ५
चोमोलुंगमा
कृतिका आज पहाड़ी की दुर्गम चोटी की ओर टहल रही थी,
उत्सव से दूर,
बहुत दूर थी वह |
आजकल उसको एकांत में रहना अच्छा लगता था,
या यु कहो की उसने एकांत को चुन लिया था,
शायद इसीलिए की वह नहीं चाहती थी की वापस उससे कोई दूर हो जाये,
जिसे वो अपना कह सके |
शायद इसीलिए, वो किसी से ज्यादा बोलती नहीं थी, किसी से लगाव नहीं रखती थी, भविष्य से डर लगने लगा था उसको अब | इसी कारण सब छोड़ दिया था उसने, अपने मन को मार लिया था, वापस किसी के दूर होने के भय से, अपने भाई से दूर होने के भय से |
बहुत प्रेम करती थी वो अपने भाई से,
अपने पिता का आयना दिखता था उसके भाई में उसे,
उसके पिता की तरह वह भी उससे दूर ना हो जाये,
इसीलिए,
शायद,
इसीलिए,
वो समय आने से पहले ही अलग होना चाहती थी,
ताकि पीड़ा ना हो,
कुछ कम हो |
अपने ही खयालो में खोई हुई कृतिका आज कुछ ज्यादा ही दूर चली गई थी,
उसे भी भान नहीं था की कितनी देर से चल रही है वो |
थोड़ी दूर आगे एक छोटा सा तालाब दिखा उसको,
गर्म पानी का तालाब,
बैठ गई वो वही पर एक पेड़ से पीठ टिका कर |
बहुत ही शांत था वातावरण वहा का,
बस एक ही ध्वनि गूंज रही थी,
और वो थी,
कंकड़ के एक एक करके पानी में गिरने की,
कृतिका,
जो बैठी थी पेड़ के नीचे,
एक-एक करके कंकड़ फेक रही थी उस तालाब में,
मन बहलाने के लिए |
उस शांत वातावरण में,
कंकड़ के पानी में गिरने की ध्वनि बहुत ही मधुर लग रही थी,
जैसे की गर्भ में किसी नव जीवन का स्फुरण हो रहा हो |
लेकिन,
कोई था,
कोई था वहा,
जिसको ये मधुर ध्वनि दखल दे रही थी,
उस तालाब से,
कुछ ही पाँव की दूरी पर,
कोई बैठा था वहा,
ध्यान लगाये,
आखे खोली उसने,
लाल आखे,
गुस्सा हो लिया वो,
उठा,
वो उठा वहा से,
और चल दिया उस आवाज की तरफ |
लेकिन ये क्या ?,
जैसे ही वो पंहुचा तालाब के निकट,
पैर जम गए उसके,
एक ही पल में पसीना-पसीना हो लिया वो,
भय ने उसकी आत्मा को जकड लिया हो वही पर,
उसके मुह से बस एक ही शब्द निकला उसके,
या यु कहो की,
उस ठन्डे वातावरण में बस हवा ही निकली मुह से - “चोमोलुंगमा”
अचानक,
छुप लिया वो,
छुप लिया,
वही एक झाड़ी में पीछे,
विश्वास नहीं हो रहा था उसको अपनी आखो पर,
कई जन्मो की तपस्या के बाद भी,
यह देखना संभव नहीं था उसके लिए,
कही ये कोई भ्रम तो नहीं उसका,
शंका जन्मी उसके मन में,
मंत्र से पोषित की अपनी आखो को,
और वापस देखा सामने,
नहीं,
कोई भ्रम नहीं,
कोई भ्रम नहीं था ये,
अब सयंत किया उसने अपने आप को,
लेकिन मन में एक प्रश्न अभी थी उस समय उसको,
चोमोलुंगमा यहाँ पर,
और वो भी मनुष्य देह में,
अब चौकन्ना हुआ वो,
आसपास नजर दौड़ाई उसने,
कोई नहीं,
कोई नहीं था उसके आसपास,
कोई रक्षक नहीं था उसके साथ,
लेकिन पूरी तरह से पुष्टि करना चाहता था वो,
इस क्षण,
एक भाग के हजारवे हिस्सा का भी खतरा मोल नहीं लेना चाहता था वो,
अब उसने दशांश मंत्र को जाग्रत किया,
पोषित किया उसको अपनी आखो पर,
अब देख घुमाई उसने सभी दिशाओ में,
नहीं,
कोई रक्षक नहीं था,
और ना कोई अन्य शक्ति थी वहा पर,
उसकी रक्षा के लिए,
अब वो जिज्ञासु हो उठा,
आखिर ये कैसे संभव है ?
कैसे ?
उसने निर्णय लिया ये जानने का,
अब झाँका उसने कृतिका के “भुत” में,
देख लिया उसने,
सब-कुछ,
जिससे अब-तक,
स्वयं कृतिका भी अनजान थी अपने भुत से,
लेकिन उस झाड़ी के पीछे छिपे अमान ने,
देख लिया सब कुछ,
सब कुछ जान लिया था उस “वचन” के बारे में,
अब जो थोड़ी देर पहले अमान के मन में जिज्ञासा जन्मी थी, लालसा का रूप ले लिया उसने,
लालसा,
सब कुछ पाने की लालसा,
समय से पहले ही सब कुछ पाने की लालसा,
मनुष्य बहुत ही अजीब है, हर क्षण उसके मन में अनेको तृषणाये उपन्न होती रहती है और हर पल बदलती रहती है, और इन्ही बेलगाम तृषणाओ के कारण वह निरंतर गर्त में जाता रहता है, काल्पनिक लक्ष्यों की ओर भटकता रहता है, इसी वजह से तृष्णा पर विवेक की लगाम बहुत ही आवश्यक है, वर्ना भटकाव निश्चित है
लेकिन उस समय,
अमान के विवेक रूपी लगाम को लालसा ने अपने पैरो तले कुचल दिया था,
लालसा ने उसके सामने काल्पनिक सपने रख दिए थे,
पथ-भ्रष्ट हुआ अब वो,
चल पड़ा वो उस “वचन” की बाधा बनने में,
भाग चला वो अब वापस पीछे की ओर,
और ढूंढने लगा कुछ,
बहुत जल्दी थी उसको अब,
समय नहीं गवाना चाहता था वो,
मिल गया उसको,
एक काष्ठ दंड,
तोड़ लिया उसने एक पेड़ से,
और अभिमंत्रित किया,
प्रवंग मंत्र से पोषित कर,
कर दिया पाश को तैयार,
अब बस जाल के फैकने की ही देर थी,
हो लिया वापस,
उस तालाब की ओर,
सभी बात से अनजान,
कृतिका अभी-भी वही बैठी थी,
उसको कुछ सुनाई दिया,
तालाब के उस ओर,
देखा उसने उस तरफ,
दुबला-पतला,
सूखे हाड-मॉस सा व्यक्ति निकला झाड़ियो के पीछे से,
अब थोड़ी डरी वो,
स्वाभाविक भी था उसका डरना उस समय,
खडी हुई वो,
जैसे ही वो कुछ सोंच पाती,
फेक दिया अमान ने काष्ठ दंड उसके तरफ,
एक चीख पुरे उस सुनसान वातावरण में फ़ैल गयी,
जैसे उस काष्ठ-दंड ने पूरी प्राण-उर्जा सोख ली हो उसकी,
कुछ क्षण बाद,
सब शांत,
अब शांत हुआ सब-कुछ,
बस अब निर्जीव काया पड़ी थी उस तालाब के किनारे,
अब सुनसान हुआ वापस |