Chapter 1
23 जुन ! वह मंगलवार की रात थी- जिस रात इस बेहद सनसनीखेज और दिलचस्प कहानी की शुरुआत हुई ।
वह एक मामूली ऑटो रिक्शा ड्राइवर था ।
नाम- दिलीप !
दिलीप पुरानी दिल्ली के सोनपुर में रहता था । सोनपुर- जहाँ ज्यादातर अपराधी किस्म के लोग ही रहा करते हैं । जेब तराशी, बूट लैगरस और चैन स्नेचिंग से लेकर किसी का कत्ल तक कर देना भी उनके लिये यूं मजाक का काम है, जैसे किसी ने कान पर बैठी मक्खी उड़ा दी हो ।
दिलीप इस दुनिया में अकेला था- बिल्कुल तन्हा ।फिर वह थोड़ा डरपोक भी था ।
खासतौर पर सोनपुर के उन गुण्डे-मवालियों को देखकर तो दिलीप की बड़ी ही हवा खुश्क होती थी, जो जरा-जरा सी बात पर ही चाकू निकालकर इंसान की अंतड़ियां बिखेर देते हैं ।
सारी बुराइयों से दिलीप बचा हुआ था, सिवाय एक बुराई के । शराब पीने की लत थी उसे ।
उस वक्त भी रात के कोई सवा नौ बज रहे थे और दिलीप सोनपुर के ही एक दारू के ठेके में विराजमान था ।
उसने मेज से उठकर दारू की बोतल मुँह से लगायी, चेहरा छत की तरफ उठाया, फिर पेशाब जैसी हल्के पीले रंग वाली दारू को गटागट हलक से नीचे उतार गया । उसने जब फट् की जोरदार आवाज के साथ बोतल वापस मेज पर पटकी, तो वह पूरी तरह खाली हो चुकी थी ।
ठेके में चारों तरफ गुण्डे-मवालियों का साम्राज्य कायम था, वह हंसी-मजाक में ही भद्दी-भद्दी गालियाँ देते हुए दारू पी रहे थे और मसाले के भुने चने खा रहे थे ।
कुछ वेटर इधर-उधर घूम रहे थे ।
“ओये- इधर आ ।”
दिलीप ने नशे की तरंग में ही एक वेटर को आवाज लगायी ।
“क्या है ?” “मेरे वास्ते एक दारू की बोतल लेकर आ । जल्दी ! फौरन !!” आदेश दनदनाने के बाद दिलीप ने अपना मुँह मेज की तरफ झुका लिया और फिर आंखें बंद करके धीरे-धीरे मेज ठकठकाने लगा, तभी उसे महसूस हुआ, जैसे कोई उसके नजदीक आकर खड़ा हो गया है ।
“बोतल यहीं रख दे ।” दिलीप ने समझा वेटर है- “और फूट यहाँ से ।”
लेकिन उसके पास खड़ा व्यक्ति एक इंच भी न हिला।
“अबे सुना नहीं क्या ?” झल्लाकर कहते हुए दिलीप ने जैसे ही गर्दन ऊपर उठाई, उसके छक्के छूट गए ।
मेज पर ताल लगाती उसकी उंगलियां इतनी बुरी तरह कांपी कि वह लरजकर अपने ही स्थान पर ढेर हो गयीं ।
सामने धरम सेठखड़ा था, दारू के उस ठेके का मालिक !
लगभग पचास-पचपन वर्ष का व्यक्ति ! लाल-सुर्ख आंखें ! लम्बा-चौड़ा डील-डौल और शक्ल-सूरत से ही बदमाश नजर आने वाला ।
“र.. धरम सेठअ...आप !” दिलीप की आवाज थरथरा उठी- “अ...आप !”
दिलीप कुर्सी छोड़कर उठा ।
“बैठा रह ।”
धरम सेठने उसके कंधे पर इतनी जोर से हाथ मारा कि वह पिचके गुब्बारे की तरह वापस धड़ाम से कुर्सी पर जा गिरा ।
“म...मैंने आपको थोड़े ही बुलाया था सेठ ?”
“मुझे मालूम है, तूने मुझे नहीं बुलाया ।” धरम सेठगुर्राकर बोला ।
“फ...फिर आपने क्यों कष्ट किया सेठ ?”
“ले...पढ़ इसे ।”
धरम सेठने कागज का एक पर्चा उसकी हथेली पर रखा ।
“य...यह क्या है ?”
“उधारी का बिल है ।” धरम सेठने पुनः गुर्राकर कहा- “पिछले दस दिन से तू दारू फ्री का माल समझकर चढ़ाये जा रहा है, अब तक कुल मिलाकर एक हज़ार अस्सी रुपये हो गये हैं ।”
“बस !” दिलीप ने दांत चमकाये- “इत्ती-सी बात ।”
“चुप रह ! यह इत्ती-सी बात नहीं है, मुझे अपनी उधारी अभी चाहिए, फौरन ।”
“ल...लेकिन मेरे पास तो आज एक पैसा भी नहीं है सेठ ।” दिलीप थोड़ा परेशान होकर बोला- “चाहे जेबें देख लो ।”
उसने खाली जेबें बाहर को पलट दीं ।
“जेबें दिखाता है साले- जेबें दिखाता है ।” धरम सेठने गुस्से में उसका गिरहबान पकड़ लिया- “मुझे अभी रोकड़ा चाहिये । अभी इसी वक्त ।”
“ल...लेकिन मेरी मजबूरी समझो सेठ ।”
“क्या समझूं तेरी मजबूरी ।” धरम सेठचिल्लाया-
“तू लंगड़ा हो गया है...अपाहिज हो गया है ?”
“य...यह बात नहीं...आपको तो मालूम है ।” दिलीप सहमी-सहमी आवाज में बोला- “कि मैं ऑटो रिक्शा ड्राइवर हूँ और पिछले पंद्रह दिन से दिल्ली शहर में ऑटो रिक्शा ड्राइवरों की हड़ताल चल रही है । इसलिए काम-धंधा बिल्कुल चौपट पड़ा है और बिल्कुल भी कमाई नहीं हो रही ।”
“यह बात तुझे दारू पीने से पहले नहीं सूझी थी ।” धरम सेठडकराया- “कि जब तेरा काम-धंधा चौपट पड़ा है, तो तू उधारी कहाँ से चुकायेगा ? लेकिन नहीं, तब तो तुझे फ्री की दारू नजर आ रही होगी । सोचता होगा- बाप का माल है, जितना मर्जी पियो । लेकिन अगर तूने आज उधारी नहीं चुकाई, तो तेरी ऐसी जमकर धुनाई होगी, जो तू तमाम उम्र याद रखेगा ।”
धरम सेठको चीखते देख फौरन तीन मवाली उसके इर्द-गिर्द आकर खड़े हो गये ।
दिलीप भय से पीला पड़ गया ।
“स...सेठ ।” उसने विनती की- “म...मुझे एक मौका दो । हड़ताल खुलते ही मैं तुम्हारी पाई-पाई चुका दूंगा ।”
“यानि आज तू रुपये नहीं देगा ।”
“न...नहीं ।”
“बुन्दे, शेरा ।” धरम सेठचिल्लाया- “पीटो साले को ! कर दो इसकी हड्डी-पसली बराबर ।” “नहीं !”
दिलीप दहशत से चिल्लाता हुआ दरवाजे की तरफ भागा ।
तीनों मवाली चीते की तरह उसके पीछे झपटे ।
दो ने लपककर हॉकियां उठा लीं ।
एक ने झपटकर दिलीप को जा दबोचा ।
“नहीं !” दिलीप ने आर्तनाद किया- “मुझे मत मारो, मुझे मत मारो ।”
मगर उसकी फरियाद वहाँ किसने सुननी थी ।
दो हॉकियां एक साथ उस पर पड़ने के लिये हवा में उठीं ।
दिलीप ने खौफ से आंखें बंद कर ली ।
“रुको ।”
उसी क्षण एक तीखा नारी स्वर ठेके में गूंजा ।
हॉकिया हवा में ही रुक गयीं ।
वहा एकाएक करिश्मा-सा हुआ था ।
दिलीप ने झटके से आंखें खोलीं, सामने नैना खड़ी थी ।
नैना लगभग पच्चीस-छब्बीस साल की एक बेहद सुंदर लड़की थी ।
वह सोनपुर में ही रहती थी ।
सात साल पहले उसके मां-बाप एक एक्सीडेंट में मारे गये थे ।
तबसे नैना बिलकुल अकेली हो गयी थी । परन्तु उसने हिम्मत नहीं हारी । वह बी.ए. पास थी, उसने एक ऑफिस में टाइपिस्ट की नौकरी कर ली और खुद अपनी जिंदगी की गाड़ी ढोने लगी ।
दिलीप जितना डरपोक था, नैना उतनी ही दिलेर ।
पिछले एक महीने से सोनपुर में उन दोनों की मोहब्बत के चर्चे भी काफी गरम थे ।
दिलीप जहाँ अपनी मोहब्बत को छिपाता, वहीं नैना किसी भी काम को चोरी-छिपे करने में विश्वास ही नहीं रखती थी ।
“क्या हो रहा है यह ?”
नैना अंदर आते ही चिल्लायी- “क्यों मार रहे हो तुम इसे ?”
“नैना !” धरम सेठभी आंखें लाल-पीली करके गुर्राया- “तू चली जा यहाँ से- इस हरामी को इसके पाप की सज़ा दी जा रही है ।”
“लेकिन इसका कसूर क्या है ?”
“इसने उधारी नहीं चुकाई ।”
“बस ! तिलमिला उठी नैना- “इतनी सी बात के लिये तुम इसे मार डालना चाहते हो ।”
“यह इतनी सी बात नहीं है बेवकूफ लड़की ।” धरम सेठका कहर भरा स्वर- “आज इसने उधारी नहीं चुकाई...कल कोई और नहीं चुकायेगा । यह छूत की ऐसी बीमारी है, जिसे फौरन रोकना जरूरी होता है । और इस बढ़ती बीमारी को रोकने का एक ही तरीका है, इस हरामी की धुनाई की जाये । सबके सामने । इधर ही, ताकि सब देखें ।”
“लेकिन इसकी धुनाई करने से तुम्हें अपने रुपये मिल जायेंगे ?”
“जबान मत चला नैना- अगर तुझे इस पर दया आती है, तो तू इसकी उधारी चुका दे और ले जा इसे ।”
“कितने रुपये हैं तुम्हारे ?”
“एक हज़ार अस्सी रुपये ।”
नैना ने फौरन झटके से अपना पर्स खोला, रुपये गिने और फिर उन्हें धरम सेठकी हथेली पर पटक दिये ।
“ले पकड़ अपनी उधारी ।”
फिर वह दिलीप के साथ तेजी से दरवाजे की तरफ बढ़ी ।
“वाह-वाह ।” पीछे से एक गुंडा व्यंग्यपूर्वक हँसा- “प्रेमिका हो तो ऐसी, जो दारू भी पिलाये और हिमायत भी ले ।”
दिलीप ने एकदम पलटकर उस गुंडे को भस्म कर देने वाली नजरों से घूरा ।
“तेरी तो...।” दिलीप ने उसे ‘गाली’ देनी चाही।
“गाली नहीं ।” गुण्डा शेर की तरह दहाड़ उठा- “गाली नहीं । अगर गाली तेरी जबान से निकली, तो मैं तेरा पेट अभी यहीं के यहीं चीर डालूंगा साले ।”
“चल ।” नैना ने भी दिलीप को झिड़का- “चुपचाप घर चल ।”
दिलीप खून का घूँट पीकर रह गया । जबकि ठेके में मौजूद तमाम गुंडे उसकी बेबसी पर खिलखिलाकर हँस पड़े ।
“तू क्यों गयी थी ठेके पर ?”
अपने एक कमरे के घर में पहुँचते ही दिलीप नैना पर बरस पड़ा ।
“क्यों नहीं जाती ?”
“बिल्कुल भी नहीं जाती ।” दिलीप चिल्लाया- “वह हद से हद क्या बिगाड़ लेते मेरा, मुझे हॉकियों से पीट डालते, धुन डालते । तुझे नहीं मालूम, वहाँ एक से एक बड़ा गुंडा मौजूद होता है ।”
नैना ने हैरानी से दिलीप की तरफ देखा।
“ऐसे क्या देख रही है मुझे ?”
“अगर तुझे मेरी इज्जत का इतना ही ख्याल है, तो तू ठेके पर जाता ही क्यों है, छोड़ क्यों नहीं देता इस शराब को ?”
“मैं शराब नहीं छोड़ सकता ।”
“क्यों नहीं छोड़ सकता ।” नैना झुंझलाई- “और अगर नहीं छोड़ सकता, तो फिर कमाता क्यों नहीं । ऑटो रिक्शा ड्राइवरों ने ही तो हड़ताल की हुई है, जबकि कमाने के तो और भी सौ तरीके हैं ।”
“देख-देख मुझे भाषण मत दे ।”
“मैं भाषण दे रही हूँ ?”
“और नहीं तो क्या दे रही है ?” दिलीप चिल्लाया- “थोड़ी-सी उधारी क्या चुका दी, अपने आपको तोप ही समझने लगी ।”
“अगर ऐसा समझता है, तो यही सही ।” नैना बोली- “ज्यादा ही हिम्मतवाला है तो जा, मेरी उधारी के रुपये मुझे वापस लाकर दे दे ।”
“मुझे गुस्सा मत दिला नैना ।” दिलीप आक्रोश में बोला ।
“नहीं तो क्या कर लेगा तू ? मेरे रुपये अभी वापस लाकर दे देगा ? कहाँ से लायेगा ? रुपये क्या पेड़ पर लटक रहे हैं या जमीन में दफन हैं ?”
“मैं कहीं से भी लाकर दूं, लेकिन तुझे तेरे रुपये लाकर दे दूंगा ।”
और तब नैना ने वो ‘शब्द’ बोल दिये, जो दिलीप की बर्बादी का सबब बन गये ।
जिनकी वजह से एक खतरनाक सिलसिले की शुरुआत हुई । ऐसे सिलसिले की, जिसके कारण दिलीप त्राहि-त्राहि कर उठा ।