दिलीप इस दुनिया में अकेला था- बिल्कुल तन्हा ।फिर वह थोड़ा डरपोक भी था ।
खासतौर पर सोनपुर के उन गुण्डे-मवालियों को देखकर तो रमेश की बड़ी ही हवा खुश्क होती थी, जो जरा-जरा सी बात पर ही चाकू निकालकर इंसान की अंतड़ियां बिखेर देते हैं ।
सारी बुराइयों से रमेश बचा हुआ था, सिवाय एक बुराई के । शराब पीने की लत थी उसे ।
उस वक्त भी रात के कोई सवा नौ बज रहे थे और रमेश सोनपुर के ही एक दारू के ठेके में विराजमान था ।
उसने मेज से उठकर दारू की बोतल मुँह से लगायी, चेहरा छत की तरफ उठाया, फिर पेशाब जैसी हल्के पीले रंग वाली दारू को गटागट हलक से नीचे उतार गया । उसने जब फट् की जोरदार आवाज के साथ बोतल वापस मेज पर पटकी, तो वह पूरी तरह खाली हो चुकी थी ।
ठेके में चारों तरफ गुण्डे-मवालियों का साम्राज्य कायम था, वह हंसी-मजाक में ही भद्दी-भद्दी गालियाँ देते हुए दारू पी रहे थे और मसाले के भुने चने खा रहे थे ।
कुछ वेटर इधर-उधर घूम रहे थे ।
“ओये- इधर आ ।”
दिलीप ने नशे की तरंग में ही एक वेटर को आवाज लगायी ।
yaha dilip aur ramesh kya alag alag insaan hai ?? yaa ek hi hai ..