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लिखने का स्टाइल तो जाना पहचाना सा लग रहा है । कहीं आप वही तो नहीं ?
hmm.. kahani ki suruwat kaafi dilachasp rahi..Chapter 1
23 जुन ! वह मंगलवार की रात थी- जिस रात इस बेहद सनसनीखेज और दिलचस्प कहानी की शुरुआत हुई ।
वह एक मामूली ऑटो रिक्शा ड्राइवर था ।
नाम- दिलीप !
दिलीप पुरानी दिल्ली के सोनपुर में रहता था । सोनपुर- जहाँ ज्यादातर अपराधी किस्म के लोग ही रहा करते हैं । जेब तराशी, बूट लैगरस और चैन स्नेचिंग से लेकर किसी का कत्ल तक कर देना भी उनके लिये यूं मजाक का काम है, जैसे किसी ने कान पर बैठी मक्खी उड़ा दी हो ।
दिलीप इस दुनिया में अकेला था- बिल्कुल तन्हा ।फिर वह थोड़ा डरपोक भी था ।
खासतौर पर सोनपुर के उन गुण्डे-मवालियों को देखकर तो दिलीप की बड़ी ही हवा खुश्क होती थी, जो जरा-जरा सी बात पर ही चाकू निकालकर इंसान की अंतड़ियां बिखेर देते हैं ।
सारी बुराइयों से दिलीप बचा हुआ था, सिवाय एक बुराई के । शराब पीने की लत थी उसे ।
उस वक्त भी रात के कोई सवा नौ बज रहे थे और दिलीप सोनपुर के ही एक दारू के ठेके में विराजमान था ।
उसने मेज से उठकर दारू की बोतल मुँह से लगायी, चेहरा छत की तरफ उठाया, फिर पेशाब जैसी हल्के पीले रंग वाली दारू को गटागट हलक से नीचे उतार गया । उसने जब फट् की जोरदार आवाज के साथ बोतल वापस मेज पर पटकी, तो वह पूरी तरह खाली हो चुकी थी ।
ठेके में चारों तरफ गुण्डे-मवालियों का साम्राज्य कायम था, वह हंसी-मजाक में ही भद्दी-भद्दी गालियाँ देते हुए दारू पी रहे थे और मसाले के भुने चने खा रहे थे ।
कुछ वेटर इधर-उधर घूम रहे थे ।
“ओये- इधर आ ।”
दिलीप ने नशे की तरंग में ही एक वेटर को आवाज लगायी ।
“क्या है ?” “मेरे वास्ते एक दारू की बोतल लेकर आ । जल्दी ! फौरन !!” आदेश दनदनाने के बाद दिलीप ने अपना मुँह मेज की तरफ झुका लिया और फिर आंखें बंद करके धीरे-धीरे मेज ठकठकाने लगा, तभी उसे महसूस हुआ, जैसे कोई उसके नजदीक आकर खड़ा हो गया है ।
“बोतल यहीं रख दे ।” दिलीप ने समझा वेटर है- “और फूट यहाँ से ।”
लेकिन उसके पास खड़ा व्यक्ति एक इंच भी न हिला।
“अबे सुना नहीं क्या ?” झल्लाकर कहते हुए दिलीप ने जैसे ही गर्दन ऊपर उठाई, उसके छक्के छूट गए ।
मेज पर ताल लगाती उसकी उंगलियां इतनी बुरी तरह कांपी कि वह लरजकर अपने ही स्थान पर ढेर हो गयीं ।
सामने धरम सेठखड़ा था, दारू के उस ठेके का मालिक !
लगभग पचास-पचपन वर्ष का व्यक्ति ! लाल-सुर्ख आंखें ! लम्बा-चौड़ा डील-डौल और शक्ल-सूरत से ही बदमाश नजर आने वाला ।
“र.. धरम सेठअ...आप !” दिलीप की आवाज थरथरा उठी- “अ...आप !”
दिलीप कुर्सी छोड़कर उठा ।
“बैठा रह ।”
धरम सेठने उसके कंधे पर इतनी जोर से हाथ मारा कि वह पिचके गुब्बारे की तरह वापस धड़ाम से कुर्सी पर जा गिरा ।
“म...मैंने आपको थोड़े ही बुलाया था सेठ ?”
“मुझे मालूम है, तूने मुझे नहीं बुलाया ।” धरम सेठगुर्राकर बोला ।
“फ...फिर आपने क्यों कष्ट किया सेठ ?”
“ले...पढ़ इसे ।”
धरम सेठने कागज का एक पर्चा उसकी हथेली पर रखा ।
“य...यह क्या है ?”
“उधारी का बिल है ।” धरम सेठने पुनः गुर्राकर कहा- “पिछले दस दिन से तू दारू फ्री का माल समझकर चढ़ाये जा रहा है, अब तक कुल मिलाकर एक हज़ार अस्सी रुपये हो गये हैं ।”
“बस !” दिलीप ने दांत चमकाये- “इत्ती-सी बात ।”
“चुप रह ! यह इत्ती-सी बात नहीं है, मुझे अपनी उधारी अभी चाहिए, फौरन ।”
“ल...लेकिन मेरे पास तो आज एक पैसा भी नहीं है सेठ ।” दिलीप थोड़ा परेशान होकर बोला- “चाहे जेबें देख लो ।”
उसने खाली जेबें बाहर को पलट दीं ।
“जेबें दिखाता है साले- जेबें दिखाता है ।” धरम सेठने गुस्से में उसका गिरहबान पकड़ लिया- “मुझे अभी रोकड़ा चाहिये । अभी इसी वक्त ।”
“ल...लेकिन मेरी मजबूरी समझो सेठ ।”
“क्या समझूं तेरी मजबूरी ।” धरम सेठचिल्लाया-
“तू लंगड़ा हो गया है...अपाहिज हो गया है ?”
“य...यह बात नहीं...आपको तो मालूम है ।” दिलीप सहमी-सहमी आवाज में बोला- “कि मैं ऑटो रिक्शा ड्राइवर हूँ और पिछले पंद्रह दिन से दिल्ली शहर में ऑटो रिक्शा ड्राइवरों की हड़ताल चल रही है । इसलिए काम-धंधा बिल्कुल चौपट पड़ा है और बिल्कुल भी कमाई नहीं हो रही ।”
“यह बात तुझे दारू पीने से पहले नहीं सूझी थी ।” धरम सेठडकराया- “कि जब तेरा काम-धंधा चौपट पड़ा है, तो तू उधारी कहाँ से चुकायेगा ? लेकिन नहीं, तब तो तुझे फ्री की दारू नजर आ रही होगी । सोचता होगा- बाप का माल है, जितना मर्जी पियो । लेकिन अगर तूने आज उधारी नहीं चुकाई, तो तेरी ऐसी जमकर धुनाई होगी, जो तू तमाम उम्र याद रखेगा ।”
धरम सेठको चीखते देख फौरन तीन मवाली उसके इर्द-गिर्द आकर खड़े हो गये ।
दिलीप भय से पीला पड़ गया ।
“स...सेठ ।” उसने विनती की- “म...मुझे एक मौका दो । हड़ताल खुलते ही मैं तुम्हारी पाई-पाई चुका दूंगा ।”
“यानि आज तू रुपये नहीं देगा ।”
“न...नहीं ।”
“बुन्दे, शेरा ।” धरम सेठचिल्लाया- “पीटो साले को ! कर दो इसकी हड्डी-पसली बराबर ।” “नहीं !”
दिलीप दहशत से चिल्लाता हुआ दरवाजे की तरफ भागा ।
तीनों मवाली चीते की तरह उसके पीछे झपटे ।
दो ने लपककर हॉकियां उठा लीं ।
एक ने झपटकर दिलीप को जा दबोचा ।
“नहीं !” दिलीप ने आर्तनाद किया- “मुझे मत मारो, मुझे मत मारो ।”
मगर उसकी फरियाद वहाँ किसने सुननी थी ।
दो हॉकियां एक साथ उस पर पड़ने के लिये हवा में उठीं ।
दिलीप ने खौफ से आंखें बंद कर ली ।
“रुको ।”
उसी क्षण एक तीखा नारी स्वर ठेके में गूंजा ।
हॉकिया हवा में ही रुक गयीं ।
वहा एकाएक करिश्मा-सा हुआ था ।
दिलीप ने झटके से आंखें खोलीं, सामने नैना खड़ी थी ।
नैना लगभग पच्चीस-छब्बीस साल की एक बेहद सुंदर लड़की थी ।
वह सोनपुर में ही रहती थी ।
सात साल पहले उसके मां-बाप एक एक्सीडेंट में मारे गये थे ।
तबसे नैना बिलकुल अकेली हो गयी थी । परन्तु उसने हिम्मत नहीं हारी । वह बी.ए. पास थी, उसने एक ऑफिस में टाइपिस्ट की नौकरी कर ली और खुद अपनी जिंदगी की गाड़ी ढोने लगी ।
दिलीप जितना डरपोक था, नैना उतनी ही दिलेर ।
पिछले एक महीने से सोनपुर में उन दोनों की मोहब्बत के चर्चे भी काफी गरम थे ।
दिलीप जहाँ अपनी मोहब्बत को छिपाता, वहीं नैना किसी भी काम को चोरी-छिपे करने में विश्वास ही नहीं रखती थी ।
“क्या हो रहा है यह ?”
नैना अंदर आते ही चिल्लायी- “क्यों मार रहे हो तुम इसे ?”
“नैना !” धरम सेठभी आंखें लाल-पीली करके गुर्राया- “तू चली जा यहाँ से- इस हरामी को इसके पाप की सज़ा दी जा रही है ।”
“लेकिन इसका कसूर क्या है ?”
“इसने उधारी नहीं चुकाई ।”
“बस ! तिलमिला उठी नैना- “इतनी सी बात के लिये तुम इसे मार डालना चाहते हो ।”
“यह इतनी सी बात नहीं है बेवकूफ लड़की ।” धरम सेठका कहर भरा स्वर- “आज इसने उधारी नहीं चुकाई...कल कोई और नहीं चुकायेगा । यह छूत की ऐसी बीमारी है, जिसे फौरन रोकना जरूरी होता है । और इस बढ़ती बीमारी को रोकने का एक ही तरीका है, इस हरामी की धुनाई की जाये । सबके सामने । इधर ही, ताकि सब देखें ।”
“लेकिन इसकी धुनाई करने से तुम्हें अपने रुपये मिल जायेंगे ?”
“जबान मत चला नैना- अगर तुझे इस पर दया आती है, तो तू इसकी उधारी चुका दे और ले जा इसे ।”
“कितने रुपये हैं तुम्हारे ?”
“एक हज़ार अस्सी रुपये ।”
नैना ने फौरन झटके से अपना पर्स खोला, रुपये गिने और फिर उन्हें धरम सेठकी हथेली पर पटक दिये ।
“ले पकड़ अपनी उधारी ।”
फिर वह दिलीप के साथ तेजी से दरवाजे की तरफ बढ़ी ।
“वाह-वाह ।” पीछे से एक गुंडा व्यंग्यपूर्वक हँसा- “प्रेमिका हो तो ऐसी, जो दारू भी पिलाये और हिमायत भी ले ।”
दिलीप ने एकदम पलटकर उस गुंडे को भस्म कर देने वाली नजरों से घूरा ।
“तेरी तो...।” दिलीप ने उसे ‘गाली’ देनी चाही।
“गाली नहीं ।” गुण्डा शेर की तरह दहाड़ उठा- “गाली नहीं । अगर गाली तेरी जबान से निकली, तो मैं तेरा पेट अभी यहीं के यहीं चीर डालूंगा साले ।”
“चल ।” नैना ने भी दिलीप को झिड़का- “चुपचाप घर चल ।”
दिलीप खून का घूँट पीकर रह गया । जबकि ठेके में मौजूद तमाम गुंडे उसकी बेबसी पर खिलखिलाकर हँस पड़े ।
“तू क्यों गयी थी ठेके पर ?”
अपने एक कमरे के घर में पहुँचते ही दिलीप नैना पर बरस पड़ा ।
“क्यों नहीं जाती ?”
“बिल्कुल भी नहीं जाती ।” दिलीप चिल्लाया- “वह हद से हद क्या बिगाड़ लेते मेरा, मुझे हॉकियों से पीट डालते, धुन डालते । तुझे नहीं मालूम, वहाँ एक से एक बड़ा गुंडा मौजूद होता है ।”
नैना ने हैरानी से दिलीप की तरफ देखा।
“ऐसे क्या देख रही है मुझे ?”
“अगर तुझे मेरी इज्जत का इतना ही ख्याल है, तो तू ठेके पर जाता ही क्यों है, छोड़ क्यों नहीं देता इस शराब को ?”
“मैं शराब नहीं छोड़ सकता ।”
“क्यों नहीं छोड़ सकता ।” नैना झुंझलाई- “और अगर नहीं छोड़ सकता, तो फिर कमाता क्यों नहीं । ऑटो रिक्शा ड्राइवरों ने ही तो हड़ताल की हुई है, जबकि कमाने के तो और भी सौ तरीके हैं ।”
“देख-देख मुझे भाषण मत दे ।”
“मैं भाषण दे रही हूँ ?”
“और नहीं तो क्या दे रही है ?” दिलीप चिल्लाया- “थोड़ी-सी उधारी क्या चुका दी, अपने आपको तोप ही समझने लगी ।”
“अगर ऐसा समझता है, तो यही सही ।” नैना बोली- “ज्यादा ही हिम्मतवाला है तो जा, मेरी उधारी के रुपये मुझे वापस लाकर दे दे ।”
“मुझे गुस्सा मत दिला नैना ।” दिलीप आक्रोश में बोला ।
“नहीं तो क्या कर लेगा तू ? मेरे रुपये अभी वापस लाकर दे देगा ? कहाँ से लायेगा ? रुपये क्या पेड़ पर लटक रहे हैं या जमीन में दफन हैं ?”
“मैं कहीं से भी लाकर दूं, लेकिन तुझे तेरे रुपये लाकर दे दूंगा ।”
और तब नैना ने वो ‘शब्द’ बोल दिये, जो दिलीप की बर्बादी का सबब बन गये ।
जिनकी वजह से एक खतरनाक सिलसिले की शुरुआत हुई । ऐसे सिलसिले की, जिसके कारण दिलीप त्राहि-त्राहि कर उठा ।
Uffff............दिलीप ने झटके से आंखें खोलीं, सामने नैना खड़ी थी ।
us jakhmi aadmi ke paas kuch kimti saman hoga.. jaise ki koi murti..मैं कहीं से भी लाकर दूं, लेकिन तुझे तेरे रुपये लाकर दे दूंगा ।”
और तब नैना ने वो ‘शब्द’ बोल दिये, जो दिलीप की बर्बादी का सबब बन गये ।
जिनकी वजह से एक खतरनाक सिलसिले की शुरुआत हुई । ऐसे सिलसिले की, जिसके कारण दिलीप त्राहि-त्राहि कर उठा ।
अब आगे....
“ठीक है ।” नैना बोली- “अगर अपने आपको इतना ही धुरंधर समझता है- तो जा, मुझे मेरे रुपये वापस लाकर दे दे ।”
दिलीप फौरन बाहर गली में खड़ी अपनी ऑटो रिक्शा की तरफ बढ़ गया ।
नैना चौंकी । रात के दस बजने जा रहे थे ।
“ल...लेकिन इतनी रात को कहाँ जा रहा है तू ?”
“तेरे वास्ते रुपये कमाने जा रहा हूँ ।” दिलीप ने ऑटो में बैठकर धड़ाक से उसे स्टार्ट किया- “और कान खोलकर सुन नैना अब मैं तेरे रुपये कमाकर ही वापस लौटूंगा ।”
अगले ही पल दिलीप की ऑटो सोनपुर की उबड़-खाबड़ सड़क पर तीर की तरह भागी जा रही थी ।
पीछे नैना दंग खड़ी रह गयी । भौंचक्की !
यह बात तो नैना की कल्पना में भी न थी कि दिलीप इस तरह इतनी रात को रुपये कमाने निकल पड़ेगा ।
तभी एकाएक काले सितारों भरे आसमान पर बादल घिरते चले गये । काले घनघोर बादल।
पलक झपकते ही उन्होंने स्याह आसमान के विलक्षण रूप को अपने दानव जैसे आवरण में ढांप लिया ।
तेज बिजली कौंधी और फिर मूसलाधार बारिश होने लगी । नैना का दिल कांप गया ।
दैत्याकार काली घटाओं से घिरे आसमान की तरफ मुँह उठाकर बोली वह “मेरे दिलीप की रक्षा करना भगवान, मेरे दिलीप की रक्षा करना ।” लेकिन नहीं ।
उसका दिलीप तो पल-प्रतिपल अपनी बर्बादी की तरफ बढ़ता जा रहा था । अपनी मुकम्मल बर्बादी की तरफ ।
दिलीप ने अपनी ऑटो रिक्शा कनॉट प्लेस के रीगल सिनेमा के सामने ले जाकर खड़ी की ।
जिस हिस्से में उसने ऑटो रिक्शा खड़ी की, वहाँ घुप्प अँधेरा था ।
सिनेमा पर ‘सलमान खान ki सुल्तान’ चल रही थी ।
दिलीप ने सोचा कि वह नाइट शो छूटने पर वहाँ से सवारियाँ ले जायेगा ।
लेकिन अभी तो सिर्फ सवा दस बजे थे ।शो छूटने में काफी टाइम बाकी था ।
दिलीप ने सीट की पुश्त से पीठ लगाकर इत्मीनान से आंखें बंद कर ली ।मूसलाधार बारिश लगातार हो रही थी ।
मस्त बर्फीली हवा ने दिलीप पर चढ़े दारू के नशे को दो गुना कर दिया ।
परन्तु एक बात चौंकाने वाली थी, इतनी तेज मूसलाधार बारिश में भी फ्लाइंग स्क्वाड की एक मोटरसाइकिल लगातार उस इलाके का चक्कर काट रही थी ।
मोटरसाइकिल पर दो पुलिसकर्मी सवार थे ।
जरूर कुछ चक्कर था ?
जरूर कोई गहरा चक्कर था ?
“होगा कुछ ?” फिर दिलीप ने जोर से अपने दिमाग को झटका दिया- “उसकी बला से ।”
फिर कब मस्त बर्फानी हवा के नरम-नरम रेशमी झौंकों ने दिलीप को सुला दिया, उसे पता न चला ।
धांय-धांय !
थोड़ी देर बाद ही बराबर वाली गली में दो तेज धमाके हुए ।
साथ ही किसी के हलक फाड़कर चिल्लाने की आवाज भी आधे से ज्यादा कनॉट प्लेस में गूंजी ।
मोटरसाइकिल पर सवार दोनों पुलिसकर्मी चौंके ।
तुरन्त उनकी बुलेट सड़क पार ‘यू’ का आकार बनाती हुई तेजी से उसी गली में जा घुसी ।
लेकिन दिलीप सोता रहा ।
उसके इतने नजदीक गोलियां चलीं । कोई हलक फाड़कर चिल्लाया- मोटरसाइकिल धड़धड़ाती हुई गली में घुसी । इतनी हाय-तौबा मची, परन्तु दिलीप के कान पर जूं तक न रेंगी । उसकी नींद तो तब टूटी, जब आफत बिल्कुल उसके सिर पर आकर खड़ी हो गयी।
ऑटो रिक्शा को भूकम्प की तरह लरजते देख उसने चौंककर आंखें खोली ।
उसने हड़बड़ाकर पीछे देखा ।
ऑटो रिक्शा की यात्री सीट पर उस समय एक काले रंग का कद्दावर-सा आदमी बैठा बुरी तरह हाँफ रहा था । उसने अपने शरीर पर नीले रंग की प्लास्टिक की बरसाती पहन रखी थी, सिर पर प्लास्टिक का ही फेल्ट हैट था ।
कद्दावर आदमी के हाथ में एक काले रंग का ब्रीफकेस भी था, जिसे वो अपनी जान से भी ज्यादा संभालकर सीने से चिपटाये हुए था ।
“क...कौन हो तुम ?”
“जल्दी ऑटो भगा ।” उस आदमी ने लम्बे-लम्बे सांस लेते हुए कहा ।
वह बेहद खौफजदा था ।
“ल...लेकिन... ।”
“सुना नहीं ।” वह आदमी चिंघाड़ उठा और उसने बरसाती की जेब से रिवॉल्वर निकालकर एकदम दिलीप की तरफ तान दी
“जल्दी ऑटो स्टार्ट कर, वरना एक ही गोली में तेरी खोपड़ी के परखच्चे उड़ जायेंगे ।”
दिलीप के होश फना हो गये ।
पलक झपकते ही उसका सारा नशा हिरन हो चुका था । फिर उसके हाथ बड़ी तेजी से चले, उसने ऑटो स्टार्ट की और गियर बदला ।
फौरन ऑटो रिक्शा सड़क पर बिजली जैसी रफ़्तार से भागने लगी ।
दिलीप ऑटो रिक्शा चला जरूर रहा था, लेकिन उसके दिल-दिमाग में नगाड़े बज रहे थे, ढ़ेरों नगाड़े ।
चेहरे पर आतंक-ही-आतंक था ।
तभी दिलीप को अपने पीछे किसी वाहन की घरघराहट सुनाई दी- उसने उत्सुकतापूर्वक शीशे में देखा ।
फौरन दिलीप के छक्के छूट गये । उसके मुँह से चीख-सी खारिज हुई- “प...पुलिस !”
“पुलिस ।” कद्दावर आदमी भी हड़बड़ाया ।
“हाँ, पीछे पुलिस लगी है ।”
“क्या बकवास कर रहा है ।” वह चीखा और फिर उसने एकदम झटके से पीछे मुड़कर देखा ।
अगले क्षण वो सन्न रह गया ।
ऐसा लगा, जैसे किसी ने मिक्सी में डालकर उसके चेहरे का सारा खून निचोड़ लिया हो ।
वाकई एक बुलेट मोटरसाइकिल उनके पीछे दौड़ी चली आ रही थी, जिस पर फ्लाइंग स्क्वाड दस्ते के वही दोनों पुलिसकर्मी सवार थे ।
वह बार-बार विसल बजाकर ऑटो रिक्शा रोकने का आदेश भी दे रहे थे ।
अजनबी ने जल्दी से अपने चेहरे का पसीना साफ किया ।
“ऑटो की स्पीड और बढ़ा ।” फिर वह बोला ।
“ल...लेकिन... ।”
“बहस मत कर ।” अजनबी दहाड़ा- “यह बहस का वक्त नहीं है । इस समय मेरी जान पर बनी है ।”
“ल...लेकिन अगर मैंने ऑटो रिक्शा न रोकी, तो पुलिस मेरी बाद में ऐसी-तैसी कर देगी साहब ।”
“पुलिस तो तेरी बाद में ऐसी तैसी करेगी ।” अजनबी ने फौरन रिवॉल्वर दिलीप की कनपटी पर रख दी- “लेकिन उससे पहले मैं तेरी अभी, इसी वक्त ऐसी तैसी फेर दूंगा । रिवॉल्वर का घोड़ा दबेगा और तू ऊपर होगा, हमेशा के लिये ऊपर ।”
अजनबी ने रिवॉल्वर का सैफ्टी-कैच हटाया, तो दिलीप के प्राण हलक में आ फंसे ।
“न...नहीं ।”दिलीप की आवाज कंपकंपायी- “न...नहीं ।”
“तो फिर स्पीड बढ़ा ।”
“बढ़ाता हूँ- अ...अभी बढ़ाता हूँ ।”
उसके बाद दिलीप ने सचमुच ऑटो की स्पीड बढ़ा दी ।
फौरन ऑटो बुलेट को पछाड़कर सडक पर भागी ।
“अ...आह...आह ।”
यही वो पल था, जब उस अजनबी के मुँह से पहली बार कराह निकली ।
दिलीप ने पीछे मुड़कर देखा, उस समय वह अजनबी अपना सीना भींचे किसी दर्द को दबाने की कोशिश कर रहा था ।
दिलीप ने स्पीड और तेज कर दी ।
एक ऑटो रिक्शा ड्राइवर होने के नाते उसे यूं तो सभी रास्तों की जानकारी बड़े अच्छे ढंग से थी, लेकिन कहाँ बुलेट और कहाँ उसकी ऑटो ?
खरगोश और कछुए जैसी उस दौड़ में जो बात दिलीप के लिये सबसे ज्यादा फायदेमंद साबित हुई, वह था कनॉट प्लेस में बिछा सड़कों का जाल ।
दिलीप अपनी ऑटो रिक्शा को स्टेट्समैन तथा सुपर बाजार की पेंचदार गलियों में घुमाता हुआ जल्द ही फ्लाइंग स्क्वाड की मोटरसाइकिल को धोखा देने में कामयाब हो गया ।
दस मिनट बाद ही ऑटो रिक्शा दरियागंज के इलाके में दौड़ रही थी ।
“श...शाबाश !” अजनबी उसकी सफलता से खुश हुआ- “श...शाबास ।”
दिलीप ने फिर पीछे मुड़कर देखा ।
अजनबी अब सीट पर अधलेटा-सा हो गया था और उसने अपना सिर पीछे टिका लिया था ।
दिलीप को उसकी हालत ठीक न दिखाई दी ।
जरूर वह कोई खतरनाक अपराधी था । “एक सवाल पूछूं ?” दिलीप थोड़ी हिम्मत करके बोला ।
“प...पूछो ।”
“तुम्हारे पीछे पुलिस क्यों लगी थी ?”
“प...पुलिस !”
“हाँ ।”
“त..तुम अभी यह बात नहीं समझोगे ।” अजनबी पुनः पीड़ा से कराहता हुआ बोला- “य...यह एक लम्बी कहानी है ।”
“तुम कराह क्यों रहे हो ?”
“म...मुझे गोली लगी है ।”
“गोली ।”
बम सा फट गया दिलीप के दिमाग में, उसके कण्ठ से चीख-सी खारिज हुई ।
हाथ ऑटो रिक्शा के हैंडल पर बुरी तरह कांपें, जिसके कारण पूरी ऑटो को भूकम्प जैसा झटका लगा ।
“ल...लेकिन किसने मारी तुम्हें गोली- प...पुलिस ने ?”
अजनबी कुछ न बोला ।
ऑटो रिक्शा अभी भी तूफानी गति से सड़क पर दौड़ी जा रही थी ।
“त...तुम्हें जाना कहाँ है ?”
अजनबी फिर चुप ।
वह कराहता हुआ सीट पर कुछ और पसर गया । और पूछा तुम कहाँ रहते हो?
इस बार दिलीप चुप था।
“जवाब क्यों नहीं देते ?”
“त...तुम कहाँ रहते हो ?”
“म...मैं !” दिलीप सकपकाया- “ल...लेकिन तुम्हें इससे क्या मतलब है ?”
“बताओ तो सही, शायद कुछ मतलब निकल आये ।” अजनबी की आवाज में अब थोड़ी नरमी आ गयी थी ।
वह नरमी का ही असर था जो दिलीप ने बता दिया- “मैं सोनपुर में रहता हूँ ।”
“अ...और कौन-कौन रहता है तुम्हारे साथ?” अजनबी ने कराहते हुए पूछा ।
“अकेला रहता हूँ ।”
“अ...अभी शादी नहीं हुई ?”
“नहीं ।”
“म...मां-बाप ?”
“वह भी नहीं हैं ।”
“ओह !”
“ठ...ठीक है ।”
अजनबी ने बेचैनीपूर्वक पहलू बदला- “अगर तुम अकेले रहते हो, त...तो तुम मुझे अपने ही घर ले चलो । इ...इस समय वही जगह सबसे ठीक रहेगी ।”
“य...यह क्या कह रहे हो ?” दिलीप के कंठ से सिसकारी छूट गयी ।
उसके दिल दिमाग पर बिजली-सी गड़गड़ाकर गिरी ।
ऑटो रिक्शा को झटका लगा, इतना तेज झटका कि उस झटके से उभरने के लिये दिलीप को ऑटो फुटपाथ के किनारे सड़क पर रोक देनी पड़ी ।
“क्या कहा तुमने अभी ?” दिलीप तेजी से अजनबी की तरफ पलटकर बोला- “क्या कहा ? तुम सोनपुर जाओगे ?”
“ह...हाँ ।” अजनबी ने संजीदगी से कहा- “सोचता हूँ, आज रात तुम्हारे ही घर आराम कर लूं ।”
“लेकिन क्यों करोगे मेरे घर पर आराम ? तुम अपना पता बोलो, तुम जहाँ रहते हो, मैं तुम्हें वहीं लेकर जाऊंगा । दिल्ली के आखिरी कोने में भी तुम्हारा घर होगा, तो मैं तुम्हें वहीं ले जाकर छोडूंगा ।”
“म...मगर मैं इस वक्त अपने घर नहीं जाना चाहता ।” अजनबी इस समय भी काला ब्रीफकेस कसकर अपने सीने से चिपकाये हुए था ।
“क्यों नहीं जाना चाहते अपने घर ?”
“तुम नहीं जानते बेवकूफ आदमी ।” अजनबी थोड़ा खीझ उठा- “पुलिस मेरे पीछे लगी है, मुमकिन है कि पुलिस ने मुझे गिरफ्तार करने के लिये मेरे घर पर भी पहरा बिठा रखा हो, अगर ऐसी हालत में मैं अपने घर गया, तो क्या फौरन पकड़ा न जाऊंगा ?”
दिलीप सन्न रह गया ।
एकदम सन्न !
उसे अब महसूस हो रहा था, एकाएक कितनी बड़ी आफत में वो फंस चुका है ।
एक लगभग मरा हुआ सांप उसके गले में आ पड़ा था ।
Uffff............
ek hi haiदिलीप इस दुनिया में अकेला था- बिल्कुल तन्हा ।फिर वह थोड़ा डरपोक भी था ।
खासतौर पर सोनपुर के उन गुण्डे-मवालियों को देखकर तो रमेश की बड़ी ही हवा खुश्क होती थी, जो जरा-जरा सी बात पर ही चाकू निकालकर इंसान की अंतड़ियां बिखेर देते हैं ।
सारी बुराइयों से रमेश बचा हुआ था, सिवाय एक बुराई के । शराब पीने की लत थी उसे ।
उस वक्त भी रात के कोई सवा नौ बज रहे थे और रमेश सोनपुर के ही एक दारू के ठेके में विराजमान था ।
उसने मेज से उठकर दारू की बोतल मुँह से लगायी, चेहरा छत की तरफ उठाया, फिर पेशाब जैसी हल्के पीले रंग वाली दारू को गटागट हलक से नीचे उतार गया । उसने जब फट् की जोरदार आवाज के साथ बोतल वापस मेज पर पटकी, तो वह पूरी तरह खाली हो चुकी थी ।
ठेके में चारों तरफ गुण्डे-मवालियों का साम्राज्य कायम था, वह हंसी-मजाक में ही भद्दी-भद्दी गालियाँ देते हुए दारू पी रहे थे और मसाले के भुने चने खा रहे थे ।
कुछ वेटर इधर-उधर घूम रहे थे ।
“ओये- इधर आ ।”
दिलीप ने नशे की तरंग में ही एक वेटर को आवाज लगायी ।
yaha dilip aur ramesh kya alag alag insaan hai ?? yaa ek hi hai ..