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Incest पाप ने बचाया

Sweet_Sinner

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Index

~~~~ पाप ने बचाया ~~~~

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Jangali

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Update-16

नीलम और बिरजू अपने घर आ जाते हैं, उस वक्त सूर्य भी नही निकला था बिरजू एक बार फिर अपने बिस्तर पे लेट जाता है और उसकी आंख लग जाती है, नीलम घर में जाके कुछ काम करने लगती है और सोचती है कि आज उसको गेहूं धोना है, मां ने बोला था कल ही गेहूं धो देना घर में आटा खत्म हो गया है, गेहूं धो कर छत पे फैला देना धूप में सूखने के लिए।

उसकी माँ थोड़ी बूढ़ी हो गयी थी वो घर का ज्यादा काम नही कर पाती थी, सब जानते थे कि नीलम की माँ की उम्र उसके बाप बिरजू से ज्यादा थी, उनके बाप दादाओ ने उस वक्त आपसी प्यार और जानपहचान होने की वजह से उम्र का अंतर होने पर भी शादी कर दी थी, इसलिए बिरजू अभी काफी जवान हष्टपुष्ट था पर नीलम की माँ ढल गयी थी।

सर्य निकल गया, बिरजू उठा और फ्रेश होकर नीलम से बोला- नीलम बेटी, मैं जरा घास लेने जा रहा हूँ, आज थोड़ी ज्यादा घास लानी होगी, उदय भैया की भैसों के लिए भी लाना होगा, बैल तो वो ले गए हैं, यहां पे जो गाय और भैंस हैं उनके लिए चारा ले कर आता हूँ।

नीलम- हां बाबू ठीक है, पर एक काम करो न, अपने घर के पीछे जो बजरी बोई है न उसमे काफी घास हो गयी है, उसी खेत में से काट लो, दूर न जाओ बाबू, बहुत घास है उसमें।

बिरजू- ठीक है बेटी, जाता हूँ वहीं और घर के पीछे की तरफ खेत में चला जाता है।

नीलम के घर के बिल्कुल पीछे बांस (bambooo) लगाया हुआ था और उसके पीछे खेत था, बांस इतने बड़े और लंबे लंबे थे कि पूरे छत को cross करके ऊपर तक फैले हुए थे।

नीलम ने भी घर में आके गेहूं धोना स्टार्ट कर दिया, धो धो कर बाल्टी में रखकर ऊपर छत पर फैलाने के लिए ले जाने लगी, छत पे पहुंच कर उसने छत पे ही खाट बिछाई और उसपे चादर डाल दिया फिर गेहूं उस खाट पे पलट कर हाँथ से फैलने लगी कि तभी उसको अपने बाबू बिरजू नीचे थोड़ी दूर खेत में घास काटते दिखाई दिए, सूर्य की रोशनी उनपर पड़ रही थी, सांवला बदन चमक रहा था, नीलम गेहूं फैलाना रोक कर बांस की ओट से कुछ देर देखती रही, ऐसा लग रहा था कि वो अपने बाबू की दीवानी हो रही है, प्यार हो रहा है उसे अपने बाबू से ही,
घास काटते हुए बिरजू को जरा भी ये अहसास नही था कि उसी की जवान शादीशुदा बेटी उसे निहार रही है, उस पर आसक्त हो रही है, दिल दे बैठी है वो उसे, कुछ चाहती है वो उससे, किस्मत खुलने वाली है उसकी। बड़े ही लालसा भारी और उम्मीद भारी नजरों से नीलम छुप छुप कर अपने बाबू को ताड़ रही थी, कभी शर्मा कर गेहूं फैलाने लगती कभी रुक कर फिर देखने लगती।

मन में सोच रही थी कि काश उसके बाबू उसकी मंशा जान लेते, कितना मजा आया होगा बीना को उस वक्त जब वो अपने पिता से चुदवा रही थी, क्यों है इतना नशा इस रिश्ते में? और छुप छुप के घर में ही हो तो कितना मजा आ जाये, पर न जाने मेरे बाबू कब ध्यान देंगे की उनकी बेटी अब उनसे क्या चाहती है, मुझे तो अपने ही बाबू से प्यार होता जा रहा है, क्या सोचेगी दुनिया अगर किसी को पता चल गया तो, खैर सोचे जो सोचे मुझे किसी की परवाह नही, भाड़ में जाये मान मर्यादा, बस मेरे बाबू मेरे हो जाएं, ससुराल भी न जाऊं मैं तो फिर, बहाने कर कर के यहीं रहूँगी।
कितना मन कर रहा है मेरा मिलन करने का, कैसे मैं रिझाऊं बाबू को, कैसे बताऊं उन्हें, किससे अपनी मन की व्यथा कहूँ, रजनी भी नही है जाने कब आएगी, लेकिन मैं रजनी से कहूंगी जरूर की वो कोई रास्ता या तरीका बताये, मैं जानती हूं वो इसे गलत नही कहेगी, वो मेरी बचपन की सहेली है, मेरी मन की व्यथा को समझेगी, क्योंकि उस दिन वो भी बीना और शेरु की चुदाई मजे से देख रही थी। अगर वो बाप बेटी के इस मिलन को गलत मानती तो उस दिन बीना और शेरु को चुदाई शुरू करने से पहले ही पत्थर मारकर भगा देती, या खुद उठकर भाग जाती, पर वो देखती रही, इसका मतलब वो इसे गलत नही मानती, हाय! रजनी जल्दी आ जा मेरी सहेली, अब तुझसे कुछ बात करना है मुझे। (मन में ही ये सब सोचे जा रही थी और कभी कभी मुस्कुरा उठती)

न जाने ऐसा क्यों हो रहा है, मेरे बाबू मेरे मन में उस रूप में बसते जा रहे है, पहले मैं उनको बस पिता की नजर से ही देखती थी पर अब मैं उनमे एक मर्दाना पुरुष ढूंढ रही हूं, ये सब उस दिन बीना और शेरु की चुदाई देखकर ही हुआ है, उन दोनों ने मेरा नजरिया बदल दिया है। काश मेरे बाबू मेरी प्यास बुझा देते। काश! कितना मजा आ जाता, हाय!... काश!

यही सब सोचते हुए वो गेहूं फैलाये जा रही थी, फिर वो नीचे गयी और गेहूं की दूसरी बाल्टी ले आयी, उसने दूसरी खाट डाली और उस पर एक और चादर डाला और गेहूं की बाल्टी खाट पे अभी पलटी ही थी कि उसने अपने बाबू की तरफ देखा।

बिरजू घास काटना छोड़ कर बांस की तरफ आ रहा था, नीलम को थोड़ा आश्चर्य हुआ कि बाबू बांस की तरफ क्या करने आ रहे हैं वो थोड़ा साइड में छिप सी गयी, बांस की ओट थी जिससे बिरजू उसे नही देख सकता था, वहां से बिरजू नीलम को साफ दिखाई दे रहा था, पर बिरजू को नीलम नही दिख सकती थी क्योंकि वो ऊपर छत पर बांस की ओट में थी।

एकाएक बिरजू ने दोनों साइड नजर घुमाई और पीछे देखा की कहीं कोई देख तो नही रहा, पर उसकी नज़र ऊपर नही गयी, फिर एकदम से बैठकर अपनी धोती साइड कर, मोटा, काला और लंबा लंड जो सुस्त अवस्था में भी लगभग 7 इंच लंबा था, बाहर निकाल लिया, नीलम अवाक सी रह गयी अपने ही बाबू का काला विशाल लंड देखकर, नीलम की तो सांसे ही हलक में अटक सी गयी, शर्म से वो लाल हो गयी, हाय दैय्या! बोलकर उसने एक बार इधर उधर देखा कि कहीं कोई मुझे ये देखते हुए न देख ले, फिर उसने छत पे बनी सीढ़ियों की तरफ देखा कि कहीं कोई ऊपर तो नही आ रहा, फिर पीछे होकर बांस की ओट से अपने बाबू का मदहोश कर देने वाला लंड देखने लगी।

बिरजू ने लंड की आगे की चमड़ी को आधा पीछे किया जिससे लंड का आधा सुपाड़ा बाहर दिखने लगा जो कि किसी मध्यम आकार की गुलाबी गेंद जितना बड़ा था।

नीलम मंत्रमुग्ध और बदहवास सी हो गयी, उसकी सांसे उखड़ चुकी थी, वो एक टक बिरजू के लंड को निहार रही थी।

तभी बिरजू ने पेशाब की धार छोड़ दी, और लंड की आगे की चमड़ी को मूतते हुए पूरा पीछे खींच दिया, पूरा का पूरा गुलाबी सुपाड़ा बाहर आ गया, इतना मोटा और बड़ा सुपाड़ा देख नीलम पागल सी हो गयी। धूप में चमकते काले मोटे लंड का हल्का गुलाबी सुपाड़ा गज़ब ही ढा रहा था, छत पर से कुछ दूरी होने पर भी नीलम लंड के आगे का छेद साफ देख पा रही थी और उसमें से निकलती पेशाब की धार ने उसे मदहोश कर दिया, कुछ ही पल में वो पसीने पसीने हो गयी।

बिरजू की इस तरह लंड की चमड़ी पीछे खींचकर पेशाब करने की आदत थी, पर उसकी इस आदत ने आज नीलम को मदहोश कर दिया था। एक तो वो वैसे ही चुदासी थी ऊपर से नियति ने उसे वही लंड दिखा भी दिया जिसके बारे में वो मन में अक्सर सोचती थी कि कैसा होगा, आज नियति ने साक्षात् दिखा ही दिया था कि जैसे कह रही हो ले देख ले अपने बाबू का लंड, यही तुझे अब चोदेगा, यही प्यास बुझायेगा, यही तेरी गहराई में उतरेगा।
पर कब? इसने तो अब प्यास और बढ़ा दी थी, बूर पनिया गयी नीलम की, किसी भी तरह से उसके पति का लन्ड उसके बाबू के लन्ड के आगे टिक नही सकता था।

अपने बाबू का लंड देखकर ही नीलम मचल उठी, मानो वह उसे अपनी बूर की गहराइयों में अंदर तक घुसता हुआ महसूस कर रही हो और शर्म से एक पल के लिए वहीं बैठ गयी, थोड़ी सांसे थमी तो उठी तब तक बिरजू मूत चुका था उसने अपने लंड को हल्का सा दो चार बार हिलाया ताकि पेशाब की बची बूंदें गिर जाएं और मदहोश कर देने वाले लंड को धोती के अंदर कैद कर वापिस घास काटने चला गया।

उसे जरा भी आभास नही हुआ कि उसकी सगी बेटी ने उसका लंड देख लिया है।

नीलम कुछ देर वहीं फिर से बैठ गयी, अपनी सांसों को काबू करती रही, बार बार बाबू का लन्ड नज़रों में आ जाता, कि वो कैसा था कितना बड़ा और मोटा था और उसका खुला हुआ आगे का हिस्सा hhhhhaaaaaiiiiiii.

सोचने लगी कि अब कुछ भी हो वो अपने बाबू को पा के रहेगी, वो ये जानती ही थी कि उसकी माँ अब बूढ़ी हो चली हैं तो बाबू तो प्यासे ही होंगे, और वो तो लंड देखके ही समझ गयी थी कि प्यासा तो है उनका लंड। पानी छोड़ छोड़ के उसकी पूरी पैंटी गीली हो गयी थी पर करे क्या? कैसे भी करके अपने मन को धीरज दिया, समझाया, फिर सोचने लगी आखिर हम बेटियां अपने बाबू को सुख क्यों नही दे सकती, बचपन से लेकर जवानी तक वो पुरुष, पिता के रूप में उसे पलता है, पोषता है, उसकी हर तरह से रक्षा करता है, और जब कभी वो पुरुष यौनसुख के लिए तरसने लगे तो क्या बेटी का फर्ज नही की वो अपनी अनमोल चीज़ (बूर) अपने उस पुरुष को परोस दे जिसने हमेशा उसकी रक्षा की हो, क्या उस चीज़ पर उसका कोई हक नही? क्यों करे वो लोक लाज की फिक्र, आखिर वो उन्ही के अंग से बनी है और वही अंग अगर उसमें मिल गया तो क्या गलत हो जाएगा और अगर हो भी जाएगा तो होता रहे।

यही सब सोच ही रही थी कि उसकी माँ की आवाज उसके कानों में पड़ी जो उसे बुला रही थी, उसने बाल्टी उठायी और सीधा नीचे भाग गई।
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S_Kumar

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Update-17

बैलगाड़ी सुबह की सुहानी हवा को चीरती हुई अपने लक्ष्य को आगे बढ़ती जा रही थी, उदयराज बैलगाड़ी हांक रहा था, रजनी और काकी पीछे बैठी बातें करती हुई जा रही थी।
कहीं कहीं रास्ते में आते जाते लोग दिख जा रहे थे। गांव से वो अब काफी दूर आ चुके थे, गांव की सरहद काफी पीछे छूट चुकी थी, सुबह की हल्की सुहानी धूप अब थोड़ी गर्म होने लगी थी, लगभग 100 किलोमीटर चलने के बाद अब हल्का हल्का जंगल शुरू हो रहा था, पेड़ों की घनी छाया से सफर काफी सुहाना हो गया था, काकी कुछ देर रजनी से बात करने के बाद रात में जागे होने की वजह से ऊँघने लगी तो रजनी ने उन्हें वही लेटने को बोल दिया, और वो वहीं लेट कर सोने लगी।

बैलगाड़ी के ऊपर गोल छत बनाई हुई थी, दोनों तरफ पर्दे थे, काकी ने बच्ची को अपने पास लिटाया और सो गई, उदयराज हसीन वादियों को निहारता हुआ बैलगाड़ी हाँके जा रहा था, मन ही मन वो अपने इस निर्णय पर खुश भी था कि उसकी बेटी उसके साथ है पर इन हसीन वादियों का मजा वो अपनी बेटी के साथ लेना चाहता था, यही हाल रजनी का था।

उदयराज ने पीछे देखा तो पाया कि रजनी उसे बैलगाड़ी हांकते हुए देख रही थी, नजरें मिली तो दोनों मुस्कुरा पड़े।

तभी रजनी को कुछ सूझा

रजनी- बाबू, लाओ मैं बैलगाड़ी चलाती हूँ, कब से चला रहे हो थक गए होगे।

उदयराज- (आश्चर्य से) बैलगाड़ी चलाएगी मेरी बिटिया?

रजनी- हां क्यों नही।

उदयराज- पर तुमने कभी चलाई नही है न।

रजनी- तो सिखा दो न अपनी बेटी को।

उदयराज - तो आओ न मेरे आगे बैठो। काकी सो गई क्या?

रजनी- हां वो तो सो रही है, और गुड़िया भी उन्ही के पास है।

उदयराज जहाँ बैठा था वहीं पर थोड़ा पीछे खिसक कर अपने आगे थोड़ी जगह बनाता है और दोनों पैर फैला लेता है रजनी एक बार पीछे की तरफ काकी को देखती है और जाके उदयराज की गोदी में अपनी मदमस्त चौड़ी मखमली गुदाज गांड रखकर बैठ जाती है, बैलगाड़ी जंगल में प्रवेश कर चुकी थी, जंगल की घनी छाया अब धूप को खत्म कर चुकी थी।

उदयराज ने अपनी दोनों बाहें रजनी की दोनों बाहों के नीचे से निकालते हुए डोरी और छड़ी को पकड़ लिया और अपना चेहरा रजनी के गर्दन की दायीं तरह और कान के पास रखकर उसके बदन से आती मदमस्त खुश्बू को एक गहरी सांस लेते हुए सूंघा, अपने बाबू की गर्म सांसे अपनी गर्दन और कान के आस पास महसूस कर रजनी गनगना गयी और उसकी आंखें मस्ती में बंद हो गयी और सिसकते हुए फुसफुसाकर बोली- कोई देख लेगा बाबू?

उदयराज (धीरे से)- यहां अब जंगल में कौन देखेगा?

रजनी ने बनावटी अंदाज में कहा- काकी उठ गई तो?

उदयराज- वो तो सो रही है न।

रजनी- हां, पर उठ गई तो? (रजनी ने फिर सिसकते हुए कहा)

उदयराज अब गर्दन के दूसरी तरफ अपनी बेटी के कान के आस पास उसके बदन से भीनी भीनी आती खुसबू को सूंघने लगा, कभी कभी वो अपने गीले होंठों को गर्दन पे रगड़ने लगता, फिर सूंघता, फिर होंठ रगड़ता, रजनी तो इतने से ही बेहाल हुए जा रही थी, कभी धीरे से सिसकती तो कभी aaahhhhhh की आवाज थोड़ा तेज उसके मुह से निकल जाती।

उदयराज- अब तुम जोर से aaaahhhh करोगी तो काकी तो उठ ही जाएंगी न।

रजनी ने अपने मदमस्त आंखें खोल अपने बाबू की आंखों में देखते हुए धीरे से बोला- क्या करूँ बाबू, इसपर मेरा कोई बस नही, इतना प्यार करोगे अपनी बेटी को तो aaaahhhh तो निकल ही जाएगी न।

रजनी- अच्छा! रुको जरा बाबू!

रजनी ने इतना कहते हुए बैलगाड़ी के ऊपर बने हुए गोल छपरी के मुहाने को ढकने के लिए बनाए गए पर्दे को, जो कि मोड़कर ऊपर किया हुआ था उसको नीचे पटलकर ढंक दिया।

अपनी बेटी की इस अदा और तरीके पर खुश होके उदयराज ने एक चुम्बन उसके गाल पे जड़ दिया, रजनी के मुँह से सिसकी निकल गयी वो धीरे से बोली- सिखाओ न बाबू बैलगाड़ी चलाना।

उदयराज ने रजनी को एक हाँथ से डोरी पकड़ने को बोला और दूसरे हाँथ से छड़ी।

उदयराज- अपने बैल तो सीधे साधे हैं बस ये डोरी सीधे पकड़े रहो ये अपने आप चलते रहेंगे और जब दाएं या बाएं मुड़ना हो तो उसी हिसाब से डोरी को खींचो, बस यही है।

रजनी- अच्छा! इतना आसान है, (और रजनी दोनों बैल की डोरी पकड़कर छड़ी हाँथ में लेकर चलाने लगती है।)

उदयराज- हां मेरी बिटिया रानी, इतना ही आसान है, ये कठिन तब होता है जब बैल सीधे साधे न हों (ऐसा कहते हुए अब उदयराज अपनी बाहों को रजनी के कमर पर लपेटते हुए रजनी को कस के पीछे से बाहों में भर लेता है जिससे रजनी उदयराज से बिल्कुल चिपक जाती है)

उदयराज धीरे धीरे रजनी के पेट और उसके आस पास सहलाने लगता है।

रजनी एक बार फिर बैलगाड़ी चलाते हुए अपनी बाबू की आंखों में देखकर मुस्कुराते हुए सिसक गयी।

जंगल में अब वो काफी अंदर आ गए थे और छाया काफी गहरी हो चली थी, अभी तक तो उदयराज को रास्ता पता था इसके आगे का रास्ता उसे बताये अनुसार तय करना था, जंगल में कहीं कहीं और रास्ते भी मिलते जिससे भटकने का डर था पर उदयराज बताये अनुसार सूझबूझ से जा रहा था, उसने सोचा कि आगे चलकर जंगल में अगर कोई दिखेगा तो एक बार रास्ते के बारे में पूछताछ करके पक्का कर लेगा। उसने सोचा था कि आधा रास्ता तय करने के बाद कहीं रुकेंगे आराम करने के लिए।

उदयराज ने रजनी के पेट, कमर को दोनों हांथों से सहलाते हुए अपने हाँथ अब धीरे धीरे ऊपर चूची की तरफ बढ़ने लगा, रजनी को इसका अहसास हो गया, वो अपने बाबू की अगली मंशा को जान गयी।

एकाएक उदयराज ने अपनी दोनों हथेली अपनी बेटी रजनी के भारी उन्नत मखमली उरोजों पर रख दिये और एक प्रगाढ़ चुम्बन उसके बाएं गाल पर लेते हुए साथ ही दोनों चुचियों को पूरा पूरा हथेली में भरते हुए मसल दिया।

रजनी- uuuuiiiiiiimaaaaaaa, iiiiiiissssshhhhh bbbaaaaabbbbuuu,
धीरे धीरे, काकी देख लेंगी तो (रजनी ने बनावटी अंदाज़ में बोला)

उदयराज जोश में आकर कई ताबड़तोड़ चुम्बन रजनी के दोनों गालों पर जड़ने लगा, और धीरे धीरे मोटी मोटी चुचियों को सहलाने और दबाने लगा, चुचियों को कभी वो हथेली में लेकर थोड़ा रुककर उन्हें बहुत हौले हौले सहलाता जैसे उन्हें नाप रहा हो, तो कभी तेज तेज मसलता, कभी दोनों हांथों की तर्जनी उंगली और अंगूठे से दोनों मोटे मोटे तने हुए निप्पल को मसलता, हल्का दबाता, कभी कपड़े के ऊपर से ही निप्पल के अग्र भाग पर तर्जनी उंगली से गोल गोल घुमाता।

रजनी का तो बुरा हाल हो गया, बैलगाडी चलाना तो अब उसके बस का रहा नही, आंखें बंद हो जा रही थी उसकी नशे में, चूचीयाँ दबाए जाने से उसमे से दूध रिसने लगा था और नीचे दोनों जांघों के बीच मक्खन जैसी बूर भी रिसने लगी। कहीं बैलगाड़ी दूसरे रास्ते पर न चली जाए इस डर से रजनी कभी कभी मजबूरी में आंख खोल कर देख लेती पर अपने बाबू की हरकतें फिर उसे आपार यौन सुख सागर में गोते लगाने पर मजबूर कर देती।

उदयराज को तो जैसे होश ही नही था, वो तो बैल सीधे साधे थे वरना बैलगाड़ी रास्ते से उतर जाती जरूर।

इतने में रजनी की बेटी उठ जाती है, भूख लगी थी उसको, उसकी आवाज से काकी भी उठ जाती है।

रजनी फट से उठकर अपने को संभालते हुए पीछे आ जाती है और उदयराज एक हाँथ से धोती में बन रहे अपने तंबू को adjust करता है और दूसरे हाँथ से डोरी पकड़कर बैल हांकने लगता है।
 

Jangali

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Update-17

बैलगाड़ी सुबह की सुहानी हवा को चीरती हुई अपने लक्ष्य को आगे बढ़ती जा रही थी, उदयराज बैलगाड़ी हांक रहा था, रजनी और काकी पीछे बैठी बातें करती हुई जा रही थी।
कहीं कहीं रास्ते में आते जाते लोग दिख जा रहे थे। गांव से वो अब काफी दूर आ चुके थे, गांव की सरहद काफी पीछे छूट चुकी थी, सुबह की हल्की सुहानी धूप अब थोड़ी गर्म होने लगी थी, लगभग 100 किलोमीटर चलने के बाद अब हल्का हल्का जंगल शुरू हो रहा था, पेड़ों की घनी छाया से सफर काफी सुहाना हो गया था, काकी कुछ देर रजनी से बात करने के बाद रात में जागे होने की वजह से ऊँघने लगी तो रजनी ने उन्हें वही लेटने को बोल दिया, और वो वहीं लेट कर सोने लगी।

बैलगाड़ी के ऊपर गोल छत बनाई हुई थी, दोनों तरफ पर्दे थे, काकी ने बच्ची को अपने पास लिटाया और सो गई, उदयराज हसीन वादियों को निहारता हुआ बैलगाड़ी हाँके जा रहा था, मन ही मन वो अपने इस निर्णय पर खुश भी था कि उसकी बेटी उसके साथ है पर इन हसीन वादियों का मजा वो अपनी बेटी के साथ लेना चाहता था, यही हाल रजनी का था।

उदयराज ने पीछे देखा तो पाया कि रजनी उसे बैलगाड़ी हांकते हुए देख रही थी, नजरें मिली तो दोनों मुस्कुरा पड़े।

तभी रजनी को कुछ सूझा

रजनी- बाबू, लाओ मैं बैलगाड़ी चलाती हूँ, कब से चला रहे हो थक गए होगे।

उदयराज- (आश्चर्य से) बैलगाड़ी चलाएगी मेरी बिटिया?

रजनी- हां क्यों नही।

उदयराज- पर तुमने कभी चलाई नही है न।

रजनी- तो सिखा दो न अपनी बेटी को।

उदयराज - तो आओ न मेरे आगे बैठो। काकी सो गई क्या?

रजनी- हां वो तो सो रही है, और गुड़िया भी उन्ही के पास है।

उदयराज जहाँ बैठा था वहीं पर थोड़ा पीछे खिसक कर अपने आगे थोड़ी जगह बनाता है और दोनों पैर फैला लेता है रजनी एक बार पीछे की तरफ काकी को देखती है और जाके उदयराज की गोदी में अपनी मदमस्त चौड़ी मखमली गुदाज गांड रखकर बैठ जाती है, बैलगाड़ी जंगल में प्रवेश कर चुकी थी, जंगल की घनी छाया अब धूप को खत्म कर चुकी थी।

उदयराज ने अपनी दोनों बाहें रजनी की दोनों बाहों के नीचे से निकालते हुए डोरी और छड़ी को पकड़ लिया और अपना चेहरा रजनी के गर्दन की दायीं तरह और कान के पास रखकर उसके बदन से आती मदमस्त खुश्बू को एक गहरी सांस लेते हुए सूंघा, अपने बाबू की गर्म सांसे अपनी गर्दन और कान के आस पास महसूस कर रजनी गनगना गयी और उसकी आंखें मस्ती में बंद हो गयी और सिसकते हुए फुसफुसाकर बोली- कोई देख लेगा बाबू?

उदयराज (धीरे से)- यहां अब जंगल में कौन देखेगा?

रजनी ने बनावटी अंदाज में कहा- काकी उठ गई तो?

उदयराज- वो तो सो रही है न।

रजनी- हां, पर उठ गई तो? (रजनी ने फिर सिसकते हुए कहा)

उदयराज अब गर्दन के दूसरी तरफ अपनी बेटी के कान के आस पास उसके बदन से भीनी भीनी आती खुसबू को सूंघने लगा, कभी कभी वो अपने गीले होंठों को गर्दन पे रगड़ने लगता, फिर सूंघता, फिर होंठ रगड़ता, रजनी तो इतने से ही बेहाल हुए जा रही थी, कभी धीरे से सिसकती तो कभी aaahhhhhh की आवाज थोड़ा तेज उसके मुह से निकल जाती।

उदयराज- अब तुम जोर से aaaahhhh करोगी तो काकी तो उठ ही जाएंगी न।

रजनी ने अपने मदमस्त आंखें खोल अपने बाबू की आंखों में देखते हुए धीरे से बोला- क्या करूँ बाबू, इसपर मेरा कोई बस नही, इतना प्यार करोगे अपनी बेटी को तो aaaahhhh तो निकल ही जाएगी न।

रजनी- अच्छा! रुको जरा बाबू!

रजनी ने इतना कहते हुए बैलगाड़ी के ऊपर बने हुए गोल छपरी के मुहाने को ढकने के लिए बनाए गए पर्दे को, जो कि मोड़कर ऊपर किया हुआ था उसको नीचे पटलकर ढंक दिया।

अपनी बेटी की इस अदा और तरीके पर खुश होके उदयराज ने एक चुम्बन उसके गाल पे जड़ दिया, रजनी के मुँह से सिसकी निकल गयी वो धीरे से बोली- सिखाओ न बाबू बैलगाड़ी चलाना।

उदयराज ने रजनी को एक हाँथ से डोरी पकड़ने को बोला और दूसरे हाँथ से छड़ी।

उदयराज- अपने बैल तो सीधे साधे हैं बस ये डोरी सीधे पकड़े रहो ये अपने आप चलते रहेंगे और जब दाएं या बाएं मुड़ना हो तो उसी हिसाब से डोरी को खींचो, बस यही है।

रजनी- अच्छा! इतना आसान है, (और रजनी दोनों बैल की डोरी पकड़कर छड़ी हाँथ में लेकर चलाने लगती है।)

उदयराज- हां मेरी बिटिया रानी, इतना ही आसान है, ये कठिन तब होता है जब बैल सीधे साधे न हों (ऐसा कहते हुए अब उदयराज अपनी बाहों को रजनी के कमर पर लपेटते हुए रजनी को कस के पीछे से बाहों में भर लेता है जिससे रजनी उदयराज से बिल्कुल चिपक जाती है)

उदयराज धीरे धीरे रजनी के पेट और उसके आस पास सहलाने लगता है।

रजनी एक बार फिर बैलगाड़ी चलाते हुए अपनी बाबू की आंखों में देखकर मुस्कुराते हुए सिसक गयी।

जंगल में अब वो काफी अंदर आ गए थे और छाया काफी गहरी हो चली थी, अभी तक तो उदयराज को रास्ता पता था इसके आगे का रास्ता उसे बताये अनुसार तय करना था, जंगल में कहीं कहीं और रास्ते भी मिलते जिससे भटकने का डर था पर उदयराज बताये अनुसार सूझबूझ से जा रहा था, उसने सोचा कि आगे चलकर जंगल में अगर कोई दिखेगा तो एक बार रास्ते के बारे में पूछताछ करके पक्का कर लेगा। उसने सोचा था कि आधा रास्ता तय करने के बाद कहीं रुकेंगे आराम करने के लिए।

उदयराज ने रजनी के पेट, कमर को दोनों हांथों से सहलाते हुए अपने हाँथ अब धीरे धीरे ऊपर चूची की तरफ बढ़ने लगा, रजनी को इसका अहसास हो गया, वो अपने बाबू की अगली मंशा को जान गयी।

एकाएक उदयराज ने अपनी दोनों हथेली अपनी बेटी रजनी के भारी उन्नत मखमली उरोजों पर रख दिये और एक प्रगाढ़ चुम्बन उसके बाएं गाल पर लेते हुए साथ ही दोनों चुचियों को पूरा पूरा हथेली में भरते हुए मसल दिया।

रजनी- uuuuiiiiiiimaaaaaaa, iiiiiiissssshhhhh bbbaaaaabbbbuuu,
धीरे धीरे, काकी देख लेंगी तो (रजनी ने बनावटी अंदाज़ में बोला)

उदयराज जोश में आकर कई ताबड़तोड़ चुम्बन रजनी के दोनों गालों पर जड़ने लगा, और धीरे धीरे मोटी मोटी चुचियों को सहलाने और दबाने लगा, चुचियों को कभी वो हथेली में लेकर थोड़ा रुककर उन्हें बहुत हौले हौले सहलाता जैसे उन्हें नाप रहा हो, तो कभी तेज तेज मसलता, कभी दोनों हांथों की तर्जनी उंगली और अंगूठे से दोनों मोटे मोटे तने हुए निप्पल को मसलता, हल्का दबाता, कभी कपड़े के ऊपर से ही निप्पल के अग्र भाग पर तर्जनी उंगली से गोल गोल घुमाता।

रजनी का तो बुरा हाल हो गया, बैलगाडी चलाना तो अब उसके बस का रहा नही, आंखें बंद हो जा रही थी उसकी नशे में, चूचीयाँ दबाए जाने से उसमे से दूध रिसने लगा था और नीचे दोनों जांघों के बीच मक्खन जैसी बूर भी रिसने लगी। कहीं बैलगाड़ी दूसरे रास्ते पर न चली जाए इस डर से रजनी कभी कभी मजबूरी में आंख खोल कर देख लेती पर अपने बाबू की हरकतें फिर उसे आपार यौन सुख सागर में गोते लगाने पर मजबूर कर देती।

उदयराज को तो जैसे होश ही नही था, वो तो बैल सीधे साधे थे वरना बैलगाड़ी रास्ते से उतर जाती जरूर।

इतने में रजनी की बेटी उठ जाती है, भूख लगी थी उसको, उसकी आवाज से काकी भी उठ जाती है।

रजनी फट से उठकर अपने को संभालते हुए पीछे आ जाती है और उदयराज एक हाँथ से धोती में बन रहे अपने तंबू को adjust करता है और दूसरे हाँथ से डोरी पकड़कर बैल हांकने लगता है।
आज के लिए इतना ही बहुत है धन्यवाद:selfi::yes1::yes1::yes1::yes1::yes1::yes1::yes1::yes1::yes1::yes1::yes1::yes1::yes1::yes1::yes1::yes1::yes1::yes1::yes1::yes1::yes1::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause::applause:
 
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Raja jani

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बड़ा कामुक वर्णन है बाप बेटी के व्यभिचार क।
 
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"रजनी", "ओ रजनी बिटिया" जरा एक लोटा पानी ला, जोर की प्यास लगी है", - गांव का मुखिया उदयराज अपने सिर से गेहूं का बोझ जमीन पर गिराकर, अंगौछे से अपना पसीना पोछते हुए अपनी बिटिया को आवाज लगते हुए बोला।

रजनी- "लायी बाबू"


(Hello दोस्तों मैं हूँ S_Kumar, यह मेरी पहली कहानी है, आप लोगों की तरह कहानियों का शौकीन मैं भी हूँ, काफी दिनों से कहानियां पड़ता चला आ रहा हूँ। आज सोचा क्यों न मैं भी एक कहानी लिखूं।

मैं कोई professional writer नही हूँ और न ही मैंने कभी कोई कहानी लिखी है, तो अगर कोई गलती हो तो माफ कीजियेगा और अगर अच्छी लगे या न भी लगे तो भी comment कीजियेगा।

यह कहानी हिंदी font में होगी जिसकी एक छोटी सी झलक आप लोग शुरू में ही देख चुके हैं, और हां यह कहानी पारिवारिक संबंधों पर आधारित है तो जिसको भी ऐसी कहानियां नही पसंद वो कृपया न पढ़ें।

इस कहानी का update मैं 2 या 3 दिन के अंतराल पे दूंगा अगर कोई जरूरी काम या किसी और चीज़ में busy न हुआ तो, और अगर हुआ तो ये अंतराल और भी बढ़ सकता है और इसके लिए भी मुझे माफ़ कीजियेगा।)

तो चलिए फिर कहानी को आगे बढाते हैं---

Update-1

बात बहुत पहले की है उत्तर प्रदेश में कहीं दूर-दराज एक बहुत ही पिछड़ा हुआ गांव था-विक्रमपुर। बहुत ही पिछड़ा हुआ इशलिये क्योंकि यह एक बहुत बड़ी नदी के दूसरी तरफ था। शहर से इसका कोई खास लेना देना नही था। कुल मिलाकर 100-200 घर होंगे वो भी काफी दूर-दूर थे।

नदी के किनारे होने की वजह से गांव बहुत ही हरा भरा था। यह गांव बहुत बड़े जंगल से चारों तरफ से घिरा हुआ था। यह गांव कई दशकों पहले और भी बड़ा हुआ करता था, आज जो इस गांव में सिर्फ 100-200 घर है वहीं एक वक्त इस गांव में 1000-1500 घर हुआ करते थे, जो कि आज के वक्त में सिमटकर केवल 100-200 घर ही रह गए थे।

लेकिन ऐसा क्यों? आखिर क्या ऐसा हो रहा था
इस गांव में जो परिवार के परिवार धीरे धीरे खत्म हो रहे थे। बहुत तेजी से नही बल्कि बहुत धीरे धीरे, एक बार को अचानक से देखने में नही लगेगा परंतु जब कोई गांव का बाहरी इंसान गौर से इस गांव की दशकों पुरानी हिस्ट्री से दूसरी जगहों की तुलना करता तो वो भी सोच में पड़ जाता कि आखिर ऐसा क्यों?

माना कि मौत हर जगह होती है, जो इस दुनियां में आया है उसे जाना ही है, लेकिन हर जगह एक balance maintain है। लोग मर रहे हैं तो बच्चे पैदा भी हो रहे हैं। एक पीढ़ी गुजर रही है तो नई पीढ़ी आ भी रही है।

परंतु इस गांव में मृत्यु दर बहुत ज्यादा थी और जन्म दर नाम मात्र।

देखने में लोग बिकुल स्वस्थ रहते, न जाने कब कैसे धीरे धीरे बीमार पड़ते और चले जाते, इस गांव के लोग जब बाहरी दुनिया में इलाज कराने जाते तो report में कहीं कुछ नही आता। वैसे तो जल्दी इलाज़ के लिए जाते नही थे क्योंकि इस गांव के लोग थे- रूढ़िवादी, अन्धविश्वासी और वो झाड़ फूंक, में ज्यादा विश्वास रखते थे।

इस गांव के लोगों ने जानबूझ के भी अपने आप को दीन दुनियां से अलग कर रखा था। इसका पहला कारण तो ये ही था कि यह गांव चारों तरफ जंगल से घिरा हुआ था, नदी के दूसरी छोर पर था और.....और... इस गांव के लोगों को सबसे ज्यादा नफरत थी- गलत चीजों से, जैसे- गलत काम करना, झूठ बोलना, किसी का दिल दुखाना, बेईमानी करना, कोई भी गलत काम, गलत सोच, गलत विचार, भावना किसी के मन में नही थी, जैसे कोई जानता ही नही था इन सब चीजों को। यही main वजह थी जो इस गांव के लोग बाहरी दुनिया से ज्यादा मेल जोल नही रखना चाहते थे क्योंकि उस गांव के अलावा हर जगह गलत चीज़ें थी, गलत काम था, गलत सोच थी, गलत भावना थी। यूँ समझ लीजिये हर जगह कलयुग था और इस गांव में सतयुग था।

लेकिन सोचने वाली बात ये है कि ऐसा गांव में क्या था कि परिवार के परिवार धीरे धीरे खत्म हो रहे थे, न कोई महामारी, न कोई रोग, न कोई आक्रमण, न कोई दंगा फसाद, फिर ऐसा क्या था? ऐसा नही है कि गांव के लोग इससे अनजान थे वो जानते थे कि कुछ तो इस गांव में गड़बड़ है, परंतु उनके पास इसका कोई इलाज नही था, उनके पास कोई रास्ता नही था इससे बाहर निकलने का, इसलिये गांव के लोगों के मन में कहीं न कहीं किसी कोने में एक उदासी सी रहती थी।

परंतु ऐसा क्या था, जिसकी वजह से ऐसा हो रहा था, वो आपको आगे इस कहानी में पता चलेगा---


Update-2

दोस्तों यह कहानी दो मुख्य किरदार के इर्द गिर्द ही रहेगी, कहानी में कुछ और किरदार भी आएंगे आगे चलकर, कहानी का हीरो गांव का मुखिया ही है।

कहानी के मुख्य पात्र-

उदयराज
- उदयराज विक्रमपुर गांव का मुखिया है, उसकी उम्र 44 वर्ष है, वह बहुत ही नेकदिल और ईमानदार इंसान है। 20 वर्ष की उम्र में ही उसकी शादी विमला से हो गयी थी, जो अब इस दुनियां में नही है।
विमला से उसके 2 बच्चे हुए, 1 लड़का और 1 लड़की, जब वह 22 वर्ष का था तब लड़का पैदा हुआ जिसका नाम अमन रखा गया था, जो अभी 7 वर्ष पहले इस दुनिया से चला गया उसी रहस्यमयी वजह से जो गांव में थी। उदयराज जब 24 वर्ष का था तब विमला को 1 बेटी पैदा हुई जिसका नाम रजनी रखा गया। रजनी अमन से दो वर्ष छोटी थी।

इस वक्त वो अपनी बेटी के साथ ही रहता है करीब 7-8 साल से।

उदयराज गांव का मुखिया तो था ही साथ ही साथ वह एक तजुर्बेदार किसान भी था, खेतों में खुद ही सारा काम संभालने की वजह से उसका शरीर काफी बलिष्ट था, कद काठी ऊंची थी, रंग थोड़ा सांवला था, धूप में अक्सर कड़ी मेहनत करने की वजह से भी हो गया था।

उदयराज को खेती करना बहुत पसंद था, खेतों में वो अकेला ही लगा रहता था, लोग कहते भी थे कि उदयराज कुछ आदमी वगैरह रख लिया करो काम में मदद हो जाया करेगी तो वो कहता कि इतना तो मैं अकेले ही कर लूंगा, जब मुझे लगेगा कि काम बस के बाहर है तो रख लूंगा।

खेतीबाड़ी में ज्यादा वक्त देने से वो मुखिया का काम कम ही संभाल पाता था, परंतु उसका स्वभाव अत्यंत सरल और अच्छा होने की वजह से खुद गांव वालों ने उससे कहा रखा था कि "मुखिया तो हमारे तुम ही होगे उदयराज, भले ही तुम मुखिया का सारा काम अपने परम मित्र बिरजू से कराओ, पर मुखिया तो तुम ही हो"

उदयराज भी गांववालों से इतना सम्मान मिलने पर उनका दिल नही दुखाना चाहता था इसलिये वह गांव का मुखिया बना हुआ था पर ज्यादातर काम उसका मित्र बिरजू ही देखता था।


रजनी- रजनी की उम्र 25 वर्ष थी, उसका विवाह हो चुका था उसकी एक छोटी बेटी भी थी (ये बहुत भाग्य की बात थी क्योंकि गांव में बच्चे बहुत मुश्किल से हो रहे थे)।
रजनी अपनी माँ की तरह काफी गोरी थी। बला की खूबसूरत, कद काठी में सुडौल थी, भरा पूरा यौवन था उसका, बड़े बड़े स्तन, चौड़े और भारी नितम्ब, वो एक अत्यंत मादक जिस्म की मालकिन थी, उसकी चाल तो अलग ही कहर ढाती थी। पर उस गांव में कोई भी मर्द या लड़का कभी भी किसी परायी लड़की या स्त्री को बुरी नज़र से नही देखता था और न ही कभी कोई ऐसा विचार अपने मन में लाता था, जैसे ये सब गलत विचार उन्हें पता ही नही था। इतने शरीफ थे इस गांव के लोग।

जो स्त्री विधवा होती थी या अपने पति से किसी भी वजह से दूर रहती थी और जो पुरुष विदुर होते थे जिनकी पत्नी की मृत्यु हो गयी होती थी वो कामाग्नि में जल जल कर जीवन बिता देते थे पर कभी परायी स्त्री या पुरुष को कभी गंदी या गलत निगाह से नही देखते थे।

रजनी का पति थोड़ा सनकी था और शारीरिक रूप से रजनी से कमजोर था, उसे स्त्री में कोई खास रुचि नही रहती थी, न ही उसे सेक्स पसंद था, उसके अंदर बहुत बचपना था, शादी के इतने साल बाद तक भी कभी ऐसा नही हुआ कि उसने रजनी को सेक्स में चरमसुख दिया हो, यौनसुख के लिए रजनी हमेशा ही प्यासी रहती थी, पर क्या करे स्त्री थी कुछ कह भी नही सकती थी लोक लाज की वजह से। इस वजह से उसका पति उसकी नज़रों में उतरता चला गया, पर ऐसा नही था कि वो अपने पति की इज़्ज़त नही करती थी बस ये था कि वो ये उम्मीद छोड़ चुकी थी की उसका पति कभी बिस्तर पे उससे रगड़ रगड़ के संभोग करेगा, जिससे वो सन्तुष्ट हो सकेगी। क्योंकि वह अब यह जान चुकी थी कि उसके पति में इतनी ताकत ही नही थी कि वो उस जैसी सुडौल और भरे जिस्म वाली औरत की प्यास बुझा सके।

उसकी यौवन की रसीली गहराइयों के आखिरी छोर तक उसका पति न तो अभी तक पहुच पाया था और न ही कभी पहुंच पायेगा ये वो जानती थी, उसकी पूरी गहराई को नापने के लिए एक बलिष्ट मर्द की जरूरत थी, और वो कभी भी किसी भी कीमत पर पराये मर्द के बारे में सोच भी नही सकती थी, या यूं मान लो उसे पता ही नही था कि व्यभिचार भी कोई चीज़ होती है। इसलिए वो अब इसको अपना भाग्य मानकर कामाग्नि में जल रही थी।

पर रजनी थी बहुत हंसमुख और चंचल स्वभाव की। एक बेटी हो जाने के बाद भी उसका बचपना नही गया था।

(रजनी के पति और उसके ससुराल के बारे मे और अन्य पात्र के बारे में विस्तार से अगले अपडेट में)
Rajni ki umar to 20 saal honi chahiye na jab udayraaj ki 44 he
 
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